गुरुवार सुबह याकूब मेमन को फांसी दिये जाने के साथ ही आतंक के एक अध्याय का अंत हो गया है। याकूब की मौत पर जाति-धर्म का चोला पहने लोग कुछ भी कहें पर उन मुम्बईवासियों को जरूर सुकून मिला होगा जिनके परिजन 12 मार्च, 1993 को असमय काल के गाल में समा गये थे। याकूब की मौत से उन लोगों को नसीहत लेनी चाहिए जोकि अपने आपको कानून से बड़ा मानने की खुशफहमी में जीते हैं। बीते 10 साल में भारत में चार लोगों को फांसी पर लटकाया गया जिनमें याकूब मेमन, धनंजय चटर्जी, अजमल कसाब और अफजल गुरु शामिल हैं। धनंजय चटर्जी को 14 अगस्त, 2004, अजमल कसाब को 21 नवम्बर, 2012 और अफजल गुरु को 9 फरवरी, 2013 को फांसी पर लटकाया गया था। याकूब मेमन को 27 जुलाई, 2007 को टाडा कोर्ट के जज पीडी कोडे ने मौत की सजा सुनाई थी। अफसोस की बात है कि सब कुछ जानते हुए भी धर्म भीरुओं ने न केवल कानून पर उंगली उठाई बल्कि यह भी प्रमाणित करने की कोशिश की कि याकूब का 257 निर्दोष लोगों की मौत के षड्यंत्र में कोई हाथ ही नहीं था। इन लोगों ने अदालत के फैसले पर उंगली उठाने से पहले यह भी सोचने की कोशिश नहीं की कि अदालत लम्बी प्रक्रिया के बाद ही अपराधी को फांसी की सजा सुनाती है। याकूब को भारतीय संविधान के तहत हर तरह की सुविधा दी गई ताकि वह अपने बचाव के लिए पूरी कोशिश करे। इस पूरे मामले में ओवेसी का यह कथन कि याकूब को फांसी इसलिये दी गई क्योंकि वह मुसलमान है, स्वाभाविक रूप से एकदम निराधार बात है। इसे समझदार मुसलमान भी स्वीकार नहीं कर सकते। ओवेसी का कथन भाजपा की हिन्दू हितरक्षण नीति के खिलाफ है। पर ओवेसी यह भूल जाते हैं कि एनडीए के शासन में ही मुल्क को राष्ट्रपति के रूप में डॉ. अब्दुल कलाम मिले थे। सच्चाई तो यह है कि मुम्बई बम ब्लास्ट के मामले में अधिकांश आरोपी मुस्लिम हैं, तय है कि सजा भी उन्हें ही होगी। याकूब को फांसी दिये जाने को लेकर जो फसाद हुआ, उस पर गहन चिन्तन का समय आ चुका है। दया याचिकाओं के नाम पर न केवल अदालतों का समय जाया होता है बल्कि कई अपराधियों की फांसी की सजा मृत्यदण्ड में तब्दील हो जाती है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इसका अपवाद कहे जा सकते हैं क्योंकि उनके कार्यकाल में अब तक तीन अपराधी फांसी पर लटकाये जा चुके हैं। बेहतर होगा दया याचिका की सुनवाई का अधिकार अकेले राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में न हो? इस मामले में एक बहुसदस्यीय जूरी गठित हो जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता और कुछ अन्य विशेषाधिकार सम्पन्न लोग शमिल हों? इससे गलती की गुंजाइश कम की जा सकती है। बेहतर तो यह भी है कि राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजने का प्रावधान खत्म कर उच्चतम न्यायालय के फैसले को ही अंतिम मान लिया जाए क्योंकि न्यायालय अपराध की प्रकृति और अपराधी की प्रवृत्ति के विश्लेषण के तर्कों से सीधे रूबरू होती है।
Thursday, 30 July 2015
आतंकी का अंत
गुरुवार सुबह याकूब मेमन को फांसी दिये जाने के साथ ही आतंक के एक अध्याय का अंत हो गया है। याकूब की मौत पर जाति-धर्म का चोला पहने लोग कुछ भी कहें पर उन मुम्बईवासियों को जरूर सुकून मिला होगा जिनके परिजन 12 मार्च, 1993 को असमय काल के गाल में समा गये थे। याकूब की मौत से उन लोगों को नसीहत लेनी चाहिए जोकि अपने आपको कानून से बड़ा मानने की खुशफहमी में जीते हैं। बीते 10 साल में भारत में चार लोगों को फांसी पर लटकाया गया जिनमें याकूब मेमन, धनंजय चटर्जी, अजमल कसाब और अफजल गुरु शामिल हैं। धनंजय चटर्जी को 14 अगस्त, 2004, अजमल कसाब को 21 नवम्बर, 2012 और अफजल गुरु को 9 फरवरी, 2013 को फांसी पर लटकाया गया था। याकूब मेमन को 27 जुलाई, 2007 को टाडा कोर्ट के जज पीडी कोडे ने मौत की सजा सुनाई थी। अफसोस की बात है कि सब कुछ जानते हुए भी धर्म भीरुओं ने न केवल कानून पर उंगली उठाई बल्कि यह भी प्रमाणित करने की कोशिश की कि याकूब का 257 निर्दोष लोगों की मौत के षड्यंत्र में कोई हाथ ही नहीं था। इन लोगों ने अदालत के फैसले पर उंगली उठाने से पहले यह भी सोचने की कोशिश नहीं की कि अदालत लम्बी प्रक्रिया के बाद ही अपराधी को फांसी की सजा सुनाती है। याकूब को भारतीय संविधान के तहत हर तरह की सुविधा दी गई ताकि वह अपने बचाव के लिए पूरी कोशिश करे। इस पूरे मामले में ओवेसी का यह कथन कि याकूब को फांसी इसलिये दी गई क्योंकि वह मुसलमान है, स्वाभाविक रूप से एकदम निराधार बात है। इसे समझदार मुसलमान भी स्वीकार नहीं कर सकते। ओवेसी का कथन भाजपा की हिन्दू हितरक्षण नीति के खिलाफ है। पर ओवेसी यह भूल जाते हैं कि एनडीए के शासन में ही मुल्क को राष्ट्रपति के रूप में डॉ. अब्दुल कलाम मिले थे। सच्चाई तो यह है कि मुम्बई बम ब्लास्ट के मामले में अधिकांश आरोपी मुस्लिम हैं, तय है कि सजा भी उन्हें ही होगी। याकूब को फांसी दिये जाने को लेकर जो फसाद हुआ, उस पर गहन चिन्तन का समय आ चुका है। दया याचिकाओं के नाम पर न केवल अदालतों का समय जाया होता है बल्कि कई अपराधियों की फांसी की सजा मृत्यदण्ड में तब्दील हो जाती है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इसका अपवाद कहे जा सकते हैं क्योंकि उनके कार्यकाल में अब तक तीन अपराधी फांसी पर लटकाये जा चुके हैं। बेहतर होगा दया याचिका की सुनवाई का अधिकार अकेले राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में न हो? इस मामले में एक बहुसदस्यीय जूरी गठित हो जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता और कुछ अन्य विशेषाधिकार सम्पन्न लोग शमिल हों? इससे गलती की गुंजाइश कम की जा सकती है। बेहतर तो यह भी है कि राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजने का प्रावधान खत्म कर उच्चतम न्यायालय के फैसले को ही अंतिम मान लिया जाए क्योंकि न्यायालय अपराध की प्रकृति और अपराधी की प्रवृत्ति के विश्लेषण के तर्कों से सीधे रूबरू होती है।
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