Tuesday, 21 July 2015

याकूब मेमन को फांसी

उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को 1993 मुंबई सीरियल बम धमाके में दोषी करार याकूब मेमन की दोबारा डाली गयी पुनर्विचार याचिका को नामंजूर कर दिया है। अदालत के इस निर्णय के बाद मेमन को 30 जुलाई को फांसी पर लटका दिया जायेगा। सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले अप्रैल में भी मेमन की पुनर्विचार याचिका खारिज कर दी थी। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी मेमन की दया याचिका पहले ही खारिज कर चुके हैं। मुंबई में 12 मार्च, 1993 को एक योजना के तहत हुए 13 बम धमाकों में 257 निर्दोष लोगों के हताहत होने के साथ ही 713 लोग जख्मी हुए थे। तब देश में पहली बार आरडीएक्स की मदद से विस्फोटों को अंजाम दिया गया था। इस मामले में 2007 में टाडा कोर्ट ने याकूब मेमन को फांसी की सजा सुनाई थी। मुंबई बम धमाके की जहां तक बात है, इसमें 10 लोगों को दोषी करार दिया जा चुका है। दाउद इब्राहिम, टाइगर मेमन और उसके भाई अयूब मेमन को इस नरसंहार का मुख्य षड्यंत्रकारी माना गया है। मुंबई बम धमाकों में पहली बार किसी को फांसी की सजा दी जा रही है। उच्चतम न्यायालय के इस फैसले पर जितने मुंह उतनी बातें हो रही हैं। अमन पसंद लोग जहां इसे कानून का इकबाल करार दे रहे हैं वहीं कुछ लोग इसे हड़बड़ी में लिया फैसला बता रहे हैं। लोगों की दलील है कि मेमन को तो फांसी पर लटकाया जायेगा पर  मुंबई बम धमाके से पहले राजीव गांधी और पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के मामलों में जिन्हें फांसी दी जानी थी, वे अभी तक क्यों और कैसे जिन्दा हैं? लोगों की दलील में दम है। तमिलनाडु विधानसभा की दया अपील के बाद राजीव गांधी की हत्या करने वाले संतन, मुरुगन और पेरारीवलन की फांसी की सजा कम कर दी गयी थी तो बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजाओना ने न केवल अपना गुनाह कबूला था बल्कि खुद को फांसी दिये जाने की मांग की थी, लेकिन उसे अभी तक जिन्दा रखा गया है। यह शायद पंजाब विधानसभा की कोशिशों का ही नतीजा है। यह सौ फीसदी सच है कि जिस गुनाहगार करार दिये गये खूनी या राजनीतिक हत्यारे या आतंकवादी के पास मजबूत राजनीतिक समर्थन होता है, उसके मामले में हमारी हुकूमतें और अदालतें भी निष्पक्ष न्याय देने की हिम्मत नहीं जुटा पाती हैं। ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण मसलों पर जब-तब उंगलियां भी उठती रही हैं। अजमल कसाब, अफजल गुरु और अब याकूब मेमन के मामले में जिस तरह केन्द्र, राज्य सरकार और अदालत ने कानून का इकबाल कायम करने में उत्सुकता दिखाई, दीगर मामलों में भी ऐसा क्यों नहीं हुआ? क्या मुसलमान होना ही इनका सबसे बड़ा कसूर था? राजनीतिक दलों को संवेदनशील मामलों में राजनीति करने की बजाय कोई निर्दोष बलि का बकरा न बने इस बात का ख्याल रखना चाहिए। आज दुनिया के अधिकांश देशों का फांसी के खिलाफ एकमत होना एक सराहनीय कदम है।

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