Sunday 31 May 2015

Union Home Minister Rajnath Singh and Chhattisgarh Chief Minister Raman Singh trying their hands with badminton rackets, after inaugurating Police Sports Complex building in Raipur on Saturday.


सब्र की नसीहत

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रविवार को अपने मन की बात में देश के भूतपूर्व सैनिकों को सब्र की नसीहत देते हुए कहा कि जवानों का हित मेरे लिए विश्वास और देशभक्ति का मसला है। उनकी सरकार वन-रैंक-वन पेंशन के उलझे मामले को शीघ्र ही सुलझा लेगी। 40 साल से लम्बित वन-रैंक-वन पेंशन मामले पर मंथन चल रहा है लिहाजा पूर्व सैन्यकर्मियों को  राजनीतिक रुख नहीं अपनाना चाहिए। दरअसल वर्षों से लम्बित वन-रैंक-वन पेंशन की मांग पूरी नहीं होने के कारण सरकार से नाराज देश की सशस्त्र सेना के सेवानिवृत्त सैनिक केन्द्र सरकार के खिलाफ आंदोलन का मन चुके हैं। भूतपूर्व सैनिकों का वन-रैंक-वन पेंशन का मामला यदि सुलटता है तो इसके लिए सरकार को चालू वित्त वर्ष में लगभग 8300 करोड़ रुपए का प्रावधान करना पड़ेगा, यदि इसमें और देरी हुई तो सरकार पर भार बढ़ जाएगा। देखा जाये तो सेना के जवान कम उम्र में रिटायर होते हैं, इसकी वजह से उनके परिवार का भरण-पोषण मुश्किल हो जाता है। 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में इस बात को दोहराया था कि कोई भी सैन्य कर्मी अपने से जूनियर रैंक के अधिकारी से कम पेंशन का हकदार नहीं है इसीलिए समान रैंक को समान पेंशन दी जानी चाहिए। मोदी सरकार को इस मामले में एक समय सीमा निर्धारित करना जरूरी है क्योंकि यह मसला इसी तरह लम्बित पड़ा रहा तो कई भूतपूर्व सैनिक जीते-जी इसका लाभ नहीं ले पाएंगे। मोदी सरकार सैनिक हित के इस मसले पर यदि निर्णय लेती है तो इससे करीब 25 लाख पेंशनर्स परिवार लाभान्वित होंगे। मोदी सरकार के लिए यह मसला आसान तो नहीं है पर यदि वह इसे लागू कर देती है तो उससे 1947 से अब तक के पेंशनभोगी भूतपूर्व सैनिकों को उनके रैंक और सेवाकाल में बराबरी के आधार पर 2006 के बाद रिटायर हुए सैनिकों के अनुरूप ही पेंशन मिलना शुरू हो जाएगी। मोदी ने अपने मन की बात में हाल ही में शुरू की गई सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर संतोष जताते हुए कहा कि वह देश में गरीबी के खिलाफ गरीबों की फौज खड़ी करना चाहते हैं। प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना और अटल पेंशन योजना देश में सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। सरकार गरीबों को आत्मनिर्भर और सशक्त देखना चाहती है, ताकि उन्हें जीविका के लिए दूसरों पर निर्भर न रहना पड़े। मोदी ने योग को वसुधैव कुटुम्बकम की संज्ञा देते हुए देशवासियों से आह्वान किया कि वे 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस में सहभागिता कर विश्व कल्याण और मानवता के लिए योगदूत बनें। मोदी ने हाल ही में शुरू किए गए डीडी किसान चैनल को किसानों के लिए खुला विश्वविद्यालय करार देते हुए कहा कि यह कृषि और कृषि से सम्बन्धित क्षेत्रों से जुड़े हर शख्स के लिए हितकारी है, जिसका अधिकाधिक लाभ उठाना जरूरी है। मोदी सरकार को एक साल हो चुके हैं। कई योजनाएं भी बनीं पर उनका लाभ आमजन की पहुंच से अभी दूर है।

हिन्दी समाचार पत्र का संघर्ष

आज के ही दिन यानी 30 मई, 1826 को कानपुर से आकर कलकत्ता, अब कोलकाता, में सक्रिय वकील पंडित जुगल किशोर शुक्ला ने भारतीयों के हित में साप्ताहिक उदंत मार्तण्ड का प्रकाशन शुरू किया था. इसलिए हर साल 30 मई को हिंदी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। हालांकि, तब कलकत्ता में शासकों की भाषा अंगरेजी के बाद बंगला व उर्दू का प्रभुत्व था, जबकि हिंदी उपेक्षित थी। उदंत मार्तण्ड के पहले अंक की पांच सौ प्रतियां छापी गयी थीं और तमाम दुश्वारियों से दो-चार होते हुए यह अपनी सिर्फ एक वर्षगांठ मना पाया था। चार दिसंबर, 1827 को प्रकाशित अंतिम अंक में इसके बंद होने की बड़ी ही मार्मिक घोषणा की गयी थी। पहले साप्ताहिक उदंत मार्तण्ड के बाद हिंदी को अपने पहले दैनिक के लिए लम्बी प्रतीक्षा से गुजरना पड़ा। 1854 में श्यामसुंदर सेन द्वारा प्रकाशित व संपादित समाचार सुधावर्षण ने इस प्रतीक्षा का अंत तो किया, लेकिन यह कसक फिर भी रह गयी कि यह अकेला हिंदी का दैनिक न होकर द्विभाषी था, जिसमें कुछ रिपोर्टें बंगला के साथ हिंदी में भी होती थीं. जब 1857 का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ, तो सेन ने अंगरेजों के खिलाफ एक जबरदस्त मोर्चा समाचार सुधावर्षण में भी खोल दिया. उन्होंने मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के उस संदेश को प्रकाशित किया, जिसमें जफर ने हिंदुओं-मुसलमानों से भावुक अपील की थी कि वे मनुष्य होने के नाते प्राप्त अपनी सबसे बड़ी नेमत आजादी के अपहर्ता अंगरेजों को बलपूर्वक देश से बाहर निकालने का पवित्र कर्तव्य निभाने के लिए कतई कुछ भी उठा न रखें. गोरी सरकार ने इसे लेकर 17 जून, 1857 को सेन और समाचार सुधावर्षण के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगा कर उन्हें अदालत में खींच लिया. सेन के सामने बरी होने का विकल्प था कि वे माफी मांग लें. लेकिन जीवट सेन को अपने देशाभिमान के चलते ऐसा करना गंवारा नहीं हुआ और उन्होंने अदालती लड़ाई लड़ने का फैसला किया. पांच दिनों की लंबी बहस के बाद अदालत ने यह स्वीकार कर लिया कि देश की सत्ता अभी भी वैधानिक रूप से बहादुरशाह जफर में ही निहित है. इसलिए उनके संदेश का प्रकाशन देशद्रोह नहीं हो सकता. देशद्रोही तो अंगरेज हैं, जो गैरकानूनी रूप से मुल्क पर काबिज हैं और उनके खिलाफ अपने सम्राट का संदेश छाप कर समाचार सुधावर्षण ने देशद्रोह नहीं किया, बल्कि देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाया है. सेन की जीत तत्कालीन हिंदी पत्रकारिता के हिस्से आयी एक बहुत बड़ी जीत थी और इसने उसका मस्तक स्वाभिमान से ऊंचा कर दिया था. इसलिए भी कि जब दूसरी कई भारतीय भाषाओं के पत्रों ने निर्मम सरकारी दमन के सामने घुटने टेक दिये थे, हिंदी का यह पहला दैनिक निर्दभ अपना सिर ऊंचा किये खड़ा रहा था. लेकिन, अफसोस की बात यह है कि संचार क्रांति के दिये हथियारों से लैस होकर जगर-मगर में खोई हमारी आज की हिंदी पत्रकारिता को कभी-कभी ही याद आता है कि वह प्रतिरोध की कितनी शानदार परंपरा की वारिस है! इस विरासत पर भला किसे गर्व नहीं होगा?

Saturday 30 May 2015

सैप ब्लाटर यानि फुटबाल का हिटलर

गुरबत से निकला न डिगने वाला पुरोधा
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे फुटबाल में वही होता है जो सैप ब्लाटर चाहते हैं। वह सही मायनों में इस खेल के हिटलर हैं। सैप ने किन्तु-परंतु की सभी सम्भावनाओं को सिरे से खारिज करते शुक्रवार को एक बार फिर फीफा की सर्वोच्च आसंदी पर कब्जा जमा लिया। सैप पांचवीं बार उस फीफा के अध्यक्ष बने जिस पर इन दिनों ढेर सारी तोहमतें लगी हुई हैं। विवाद, तीखे विरोध और अमेरिका द्वारा उनकी विजयश्री को रोकने की हर मशक्कत के बावजूद सैप ने अध्यक्ष का चुनाव जीतकर दिखा दिया कि फुटबाल की दुनिया में वे अजेय हैं। आमने-सामने की इस लड़ाई के बावजूद अमेरिका ब्लाटर के विजय रथ को रोक नहीं पाया। यहां तक की उनके प्रतिद्वंद्वी प्रिंस अली बिन अल हुसैन भी बीच में ही पाला छोड़ भागे।
भ्रष्टाचार के आरोप में फीफा के अधिकारियों की गिरफ्तारी के बाद प्रमुख सैप ब्लाटर पर चुनाव नहीं लड़ने का दबाव बनाया गया था लेकिन वे अपने निर्णय पर न केवल अडिग रहे बल्कि पांचवीं बार अध्यक्षी सम्हाल ली। चुनाव जीतने के बाद सैप ने कहा कि अमेरिका की न्यायपालिका ने जिस तरह फुटबाल की वैश्विक संस्था को निशाना बनाया उससे वह स्तब्ध हैं। उन्होंने न केवल अमेरिका की बल्कि यूरोपीय फुटबाल अधिकारियों के नफरत अभियान की भी जमकर आलोचना की। ब्लाटर ने कहा कि अमेरिका 2022 विश्व कप की मेजबानी दौड़ में कतर से हार गया था जबकि एक अन्य धुर आलोचक इंग्लैंड 2018 विश्व की मेजबानी की दौड़ में रूस से पिछड़ गया था। ब्लाटर ने साथ ही कहा कि अमेरिका जोर्डन का नम्बर एक प्रायोजक है जहां से फीफा अध्यक्ष पद के उनके प्रतिद्वंद्वी प्रिंस अली ताल्लुक रखते हैं।
फीफा अध्यक्ष सैप ने यूएफा अध्यक्ष माइकल प्लातीनी पर भी निशाना साधा जिन्होंने भ्रष्टाचार प्रकरण में उनके इस्तीफे की मांग की थी। ब्लाटर ने कहा, यह नफरत यूएफा में एक व्यक्ति से नहीं आती, एक यूएफा संगठन से आती है जो यह नहीं समझ पा रहा है कि मैं 1998 में अध्यक्ष बन गया था। यह पूछने पर कि क्या वह प्लातीनी को माफ कर देंगे, ब्लाटर ने कहा, मैं सभी को माफ कर दूंगा लेकिन मैं भूलूंगा नहीं। इससे पहले ब्लाटर ने फीफा अधिकारियों पर हुई कार्रवाई के संदर्भ में कांग्रेस में कहा था कि सात लोगों की गिरफ्तारी ने तूफान ला दिया है और अब कांग्रेस को अहम फैसले करने होंगे। उन्होंने कहा, मैं टीमभावना, एकजुटता की अपील करता हूं जिससे कि हम एक साथ आगे बढ़ सकें। ब्लाटर ने अपना बचाव करते हुए कहा कि वह अकेले पूरे फुटबाल की निगरानी नहीं कर सकते और घोटालों के लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने क्षेत्रीय महासंघों और राष्ट्रीय संघों से बड़ी कार्रवाई की मांग करते हुए कहा, दोषी वे अधिकारी हैं, पूरा संगठन नहीं। चुनाव जीतने के बाद ब्लाटर ने खुशी में अपने दोनों हाथ हवा में उठाए और फीफा कांग्रेस को वादा किया कि वह ऐसे कमांडर साबित होंगे जो फीफा की इस नाव का मार्गदर्शन करते हुए उसे भ्रष्टाचार के भंवर से निकालेंगे जिसमें संस्था फंस गई है।
79 बरस के ब्लाटर ने साथ ही संकेत दिये कि वह एक बार फिर अध्यक्ष पद के लिए चुनौती पेश नहीं करेंगे और चार साल में मजबूत फीफा को अपने उत्तराधिकारी को सौंपेंगे। ब्लाटर पहले दौर में दो तिहाई बहुमत हासिल करने से सात वोट से पीछे रह गए। उन्हें पहले दौर में 133 जबकि प्रिंस अली को 73 वोट मिले। यूरोप के 53 में से अधिकांश वोट प्रिंस अली के पक्ष में गए जबकि उन्हें अमेरिका और आस्ट्रेलिया का समर्थन भी मिला। लेकिन ब्लाटर ने अफ्रीका और एशिया में मजबूत समर्थन हासिल करते हुए एक और कार्यकाल के लिए अध्यक्ष पद अपने नाम किया।
सैप ब्लाटर अपने शुरुआती जीवन में वेडिंग सिंगर थे यानी शादी समारोह में गाने वाले शख्स। बाद में वे खेल विषयों पर लिखने लगे। बाद में उन्होंने एक संस्था के लिए पीआर वर्क भी किया। सैप ब्लाटर 40 साल से फुटबॉल से जुडेÞ हुए हैं। उन्होंने विश्व फुटबॉल में तेजी से अपनी जगह बनायी। 1998 से वे लगातार फीफा के अध्यक्ष पद पर काबिज हैं। तमाम विरोध के बावजूद वे अपने पद से अब तक नहीं डिगे हैं। ब्लाटर का जन्म स्विटजरलैंड के पिछड़े इलाके विस्प में हुआ था। उनके शुरुआती दिन बहुत आसान नहीं थे। अपने युवावस्था के दिनों में वे फल व सब्जी उपजाने का काम करते थे, जिसे बाजार में बेचकर वे परिवार में कुछ हद तक आर्थिक योगदान करते थे।
ब्लाटर एक स्वीस कम्पनी में स्पोर्ट टाइमिंग डिवाइस व घड़ी बनाने वाली कम्पनी में डिपार्टमेंटल डायरेक्टर के रूप में आरंभ में काम करते थे। यहां उन्हें 1972 व 1976 में ओलम्पिक गेम के लिए टाइमिंग फेसिलिटी डेवलप करने का मौका मिला। यहीं से उनका फीफा से सम्पर्क हुआ। इसके बाद वे 39 साल की उम्र में 1975 में टेक्निकल डायरेक्टर के रूप में जुडेÞ। फिर 1981 में महासचिव बन गये। महासचिव के पद पर भी वे तब तक कायम रहे, जब तक अध्यक्ष नहीं बन गये। 1998 में वे अध्यक्ष बने। सैप ब्लाटर ने अब तक तीन शादियां की हैं। फिलहाल उनके रिश्ते उनकी गर्लफ्रेंड लिंडे बरास से हैं। उन्होंने पहली शादी लिलेन बिनर नाम की एक स्थानीय महिला से की थी। इस शादी से उन्हें एक बेटी हुई। बाद में तलाक हो गया। उन्होंने दूसरी शादी बारबरा केसर से की, जो उनसे उम्र में 30 साल छोटी थीं। बारबरा केसर फीफा के पूर्व महासचिव हेलमुट केसर की बेटी थीं। इन दोनों की शादी से हेलमुट केसर नाराज थे और वे शादी में शामिल भी नहीं हुए थे। यह शादी दस साल चली पर, इसके बाद ब्लाटर के रिश्ते ललोना बोगुस्का से बने, जो उनकी बेटी की दोस्त थी। यह सम्बन्ध सात साल चला। उसके बाद उन्होंने डॉलफिन थेरेपिस्ट ग्रेजिला बिएनका से शादी की और वे उनकी तीसरी बीवी बनीं। सैप को फीफा अध्यक्ष के रूप में सलाना 1.7 मिलियन पाउंड सेलरी मिलती है। साथ ही वे छह अंकों में ल्वॉयल्टी बोनस भी पाते हैं। सैप अपने बयानों व विवादित बयानों दोनों को लेकर चर्चा में रहते हैं। एक बार उन्होंने खुद को पहाड़ी बकरी बताया था, जो हमेशा पहाड़ पर चढ़ता रहता है, चढ़ता रहता है, चढ़ता रहता है, कभी नहीं रुकता। उनके अनुसार, वे भी उसी तरह हमेशा चल रहे हैं।
 ब्लाटर एक होनहार फुटबॉल खिलाड़ी भी थे। वे आज जिस तरह विश्व फुटबॉल के बादशाह माने जाते हैं, उसी तरह युवावस्था में मैदान में भी वे एक खिलाड़ी के रूप में फुटबॉल के राजा माने जाते थे। उन्हें स्विस टीम से आॅफर भी मिला था, पर उनके पिताजी इसके समर्थन में नहीं थे और उन्होंने इसके लिए पैसे खर्च करने से भी इनकार कर दिया था। इस तरह एक सम्भावनाशील फुटबॉलर के कैरियर पर ब्रेक लग गया। सैप ब्लाटर के पिता चाहते थे कि उनके बच्चे एकेडमिक रूप से आगे बढ़ें। अच्छे यूनिवर्सिटी में ऊंची शिक्षा पायें। ब्लैटर ने पिता की इस इच्छा को पूरा किया, हालांकि विश्वविद्यालय में भी उन्होंने फुटबॉल खेली। उन्होंने लाउसेनी विश्वविद्यालय से बिजनेस में ग्रेजुएशन किया। ब्लैटर एक प्रतिभाशाली छात्र थे और कम से कम चार भाषाओं को विश्वविद्यालय के समय से ही जानते हैं। उन्होंने स्विस मिलिट्री में भी नौकरी की है।

Friday 29 May 2015

मांझी पर डोरे

इन दिनों बिहार की राजनीतिक सरगर्मियां उफान पर हैं। पांच माह बाद होने जा रहे विधान सभा चुनाव को देखते हुए पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी इस कदर खास हो गये हैं कि हर दल और राजनीतिज्ञ उन पर डोरे डाल रहा है। मांझी भी राजनीतिक भाव मिलने से पैंतरे बदल रहे हैं। बिहार के आगामी विधान सभा चुनाव कमल दल की नाक का सवाल बन चुके हैं, इसी को देखते हुए गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और जीतनराम मांझी की मुलाकात हुई। भारतीय जनता पार्टी को पता है कि मांझी उसके लिए कितने महत्वपूर्ण हैं। मांझी की जहां तक बात है वह जिसकी भी तरफ होंगे उसका पलड़ा भारी हो जाएगा। फिलवक्त वह तुरुप का इक्का हैं। बिहार में सितम्बर-अक्टूबर में चुनाव होने हैं। नाजुक जातिगत वोट समीकरणों को देखते हुए ही सभी दलों में महादलित नेता जीतनराम मांझी को अपने साथ करने की होड़ तेज हो गई है। 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में जनता दल यूनाइटेड (जदयू) को 25 फीसदी महादलित वोट का साथ मिला था। जदयू के इस वोट के पीछे मांझी भी एक कारण रहे। मांझी मुसहर जाति से आते हैं और यह जाति गया, जहानाबाद, खगड़िया, सुपौल, अररिया की करीब 30 सीटों पर निर्णायक भूमिका अदा करती है। इसके अलावा शाहाबाद और चम्पारण की दर्जन भर सीटों पर भी इस जाति का असर है। मांझी अगर भाजपा के साथ जाते हैं या अलग भी चुनाव लड़ते हैं, ऐसी दोनों स्थितियों में लाभ भाजपा गठबंधन को ही होगा। भाजपा चाहती है कि लालू प्रसाद यादव मांझी को किसी प्रलोभन में फांस लें उससे पहले ही उन्हें भगवा रंग में रंग दिया जाये। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पहले ही कह चुके हैं कि मांझी के लिए भाजपा के दरवाजे खुले हैं। मांझी लम्बे समय से भाजपा के सकारात्मक रुख की बाट जोह रहे हैं। हिन्दुस्तान आवाम मोर्चा के प्रमुख श्री मांझी आज की प्रधानमंत्री से मुलाकात को बेशक बिहार में किसानों की समस्याओं और उनकी आत्महत्या की घटनाओं से जोड़ रहे हों लेकिन इस मुलाकात से जनता परिवार की पेशानियों में जरूर बल पड़ गया है। मांझी दिल्ली में हैं पर उनकी हर गतिविधि पर जनता परिवार की नजर है। राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव मांझी को अपनी पार्टी में शामिल करना चाहते हैं तो भाजपा भी डोरे डाल रही है। जो भी हो मांझी फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं और अपने पत्ते नहीं खोलना चाहते। मांझी के दिल में लालू प्रसाद यादव के प्रति तो निष्ठा है लेकिव वह जनता दल यूनाइटेड से छत्तीस का आंकड़ा रखते हैं। दरअसल मांझी ही वह शख्स हैं जोकि जनता परिवार के विलय में भी सबसे बड़ी अड़चन हैं। बिहार विधान सभा चुनाव में कौन किसके साथ होगा यह तो भविष्य तय करेगा पर मुख्यमंत्री कौन होगा, यह सबसे बड़ा सवाल है। लालू प्रसाद हालांकि मुख्यमंत्री पद की दौड़ से अपने को अलग मानते हैं पर उनकी बात पर यकीन करना आसान नहीं है। 

मीडिया के बदलते सरोकार

समय दिन और तारीख देखकर आगे नहीं बढ़ता। हिन्दी पत्रकारिता को लेकर 189 साल पहले जुगल किशोर शुक्ल की सोच क्या रही होगी, उससे कहीं महत्वपूर्ण है कि आज क्या हो रहा है। भारत में प्रतिवर्ष 30 मई को पत्रकारिता दिवस मनाना एक परम्परा सी बन गई है। इस दिन कुछ प्रबुद्धजनों का सम्मान करने मात्र से इसकी सार्थकता सिद्ध नहीं होती बावजूद इसके हम सालों साल से उसी लीक पर चल रहे हैं। आज देश में विभिन्न भाषाओं के लगभग एक लाख पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित होने के बावजूद चौथे स्तम्भ पर बार-बार उंगलियां उठ रही हैं, आखिर क्यों?
आज पत्रकारिता के मानक बदल गये हैं। हिन्दी पत्रकारों की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है, उनमें अपने कर्म के प्रति वह जोश और जज्बा नहीं रहा, जितनी समाज उनसे अपेक्षा रखता है। देश से प्रकाशित पहला हिन्दी समाचार पत्र उदंत मार्तण्ड इसलिए बंद हुआ कि उसे चलाने के लिए पण्डित जुगल किशोर शुक्ल के पास पैसा नहीं था। आज पैसा है और लोग लगा भी रहे हैं लेकिन कुप्रबंधन के चलते हर साल सैकड़ों समाचार पत्र बंद हो रहे हैं। आज मीडिया एक बड़े कारोबार की शक्ल तो ले चुका है पर उसके सरोकार बदल गये हैं। बदलते सरोकारों की वजह से ही आज चौथे स्तम्भ पर वे लोग उंगलियां उठा रहे हैं जिन्हें सलीके से क, ख, ग भी नहीं आता। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। पिछले 189 साल में समाचार पत्र जगत में भी काफी चीजें बदली हैं। हिन्दी अखबारों का कारोबार तो बढ़ा है लेकिन वे अंग्रेजी समाचार पत्रों को माकूल चुनौती नहीं दे पा रहे। इसकी वजह मीडिया जगत में कारोबारी मॉडल का प्रवेश है। आज समाचार पत्रों में कुशल पत्रकार की अपेक्षा मीडिया प्लानर अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। मीडिया प्लानर का काम न केवल समाचार पत्र की आय में इजाफा करना होता है बल्कि वह समाचार पत्र का कंटेंट बदलने को भी स्वतंत्र होता है। समाचार पत्रों के मालिकानों की नजर में मीडिया प्लानर इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि सारा अर्थतंत्र उसी के हाथों में होता है। यह सही है कि कोई भी कारोबार पैसे के बगैर नहीं चलता, पर सूचना माध्यमों की अपनी कुछ जरूरतें भी होती हैं। पत्रकार की सबसे बड़ी पूंजी उसकी साख है। उसकी यही साख समाज और सुधि पाठकों पर प्रभाव डालती है। भरोसा सबसे बड़ी चीज है। जब तक कोई पाठक या दर्शक अपने अखबार या चैनल पर भरोसा नहीं करेगा भला उसे खरीदने की क्यों सोचेगा?
एक समय था जब सम्पादकीय विभाग का विज्ञापन से कोई सरोकार नहीं होता था लेकिन आज पत्रकारों ही नहीं संपादकों के चयन तक में विज्ञापन दिला सकने की सामर्थ्य देखी जाती है। समाचार और विज्ञापन संकलन में फर्क होने के बावजूद इसे हमेशा अनदेखा किया जाता है। कुशल मार्केटिंग किसी भी समाचार पत्र का अमोघ अस्त्र है। मार्केटिंग के महारथी अंग्रेजीदां होते हैं, यही वजह है कि वे अंग्रेजी अखबारों को बेहतर कारोबार देते हैं। पर्याप्त आय होने से अंग्रेजी समाचार पत्र सामग्री संकलन पर ज्यादा पैसा खर्च कर सकते हैं। आज देश में हिन्दी समाचार पत्रों की अपेक्षा अंग्रेजी समाचार पत्रों का कारोबार दुगने से भी ज्यादा है। हिन्दी अखबारों की दुश्वारियां बाजारवाद से कहीं अधिक उसकी मोनोपॉली है। आज हिन्दी समाचार पत्र इजारेदारी की गिरफ्त में हैं। पिछले कुछ वर्षों से हिन्दी अखबार अपनी मर्यादा रेखा भूल रहे हैं। हिन्दी समाचार पत्रों को अंग्रेजी समाचार पत्रों का अंधानुकरण करने की बजाय उन्हें अपने आपको निष्पक्षता, निर्भीकता, वस्तुनिष्ठता और सत्यनिष्ठा जैसे मूल्यों से बांधना चाहिए। ऐसा होने से बेशक समाचार सनसनीखेज नहीं होगा लेकिन हम तथ्यों के तोड़-मरोड़ और दूसरों के निजी जीवन में ताक-झांक से जरूर बच जाएंगे।
पत्रकारिता के भी सिद्धांत हैं। उसकी भी मर्यादा है। यदि हमने एक बार मर्यादा रेखा लांघी तो सच मानिए यह हमें बार-बार गलत करने को उकसायेगी। पत्रकारिता और मार्केटिंग के क्षेत्र में जमीन-आसमान का फर्क है। मार्केटिंग का एक ही सिद्धांत है कि बाजार पर छा जाओ और किसी चीज को इस तरह पेश करो कि व्यक्ति ललचा जाए। ललचाना, लुभाना, सपने दिखाना मार्केटिंग का मंत्र है लेकिन पत्रकारिता का मूलमंत्र है किसी छिपी हुई बात को समाज के समाने लाना। यह मंत्र बाजारवाद के मंत्र के बिल्कुल विपरीत है। विज्ञापन का मंत्र झूठ बात को सच बनाना है जबकि पत्रकारिता का उद्देश्य सच को सामने लाना होता है। अफसोस, बदलते दौर में सच पर झूठ हावी है। मॉर्केटिंग को पत्रकारिता पर तरजीह की मुख्य वजह पैसा है। पैसे की वजह से ही प्रतिभाएं पत्रकारिता की बजाय मार्केटिंग में हाथ आजमाना बेहतर समझती हैं।
आज लोगों की शिकायत है कि समाचार पत्र जमीनी समस्याओं से बेखबर हैं। लोगों की इस शिकायत को हम सिरे से खारिज भी नहीं कर सकते। अखबार अपने मूल्यों से इतर यदि जन समस्याओं की तह पर जाएं तो उनमें संजीदगी आएगी। आज जगह-जगह पत्रकारिता की दुकानें खुली हैं। प्रशिक्षु पत्रकारों को पत्रकारिता की गूढ़ बातें समझाने की बजाय उन्हें शॉर्टकट रास्ते बताये जाते हैं। यह छात्र-छात्राएं पत्रकारिता की डिग्री तो हासिल कर लेते हैं लेकिन उन्हें पत्रकारिता के मूल्य-मर्यादाओं का अहसास तक नहीं होता। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आने वाले समय में हो सकता है अखबार न रहें, पर पत्रकारिता जरूर रहेगी। कालखण्ड कोई भी रहा हो सूचना की जरूरत हमेशा रही है। सूचना और समाचार चटपटी चाट नहीं, इस बात का भान हमारे समाज को भी होना चाहिए।
पत्रकारिता से ही हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था खड़ी होती है। पत्रकारिता को लेकर आज जो उंगलियां उठ रही हैं, वे मिथ्या नहीं हैं। हमें पत्रकारिता को मजबूती देने के लिए समाचारों की गुणवत्ता पर ध्यान देने के साथ ही उसे सामान्य पाठक के समझने लायक बनाना भी जरूरी है। पाखण्ड से हम लम्बे समय तक पाठक को दिग्भ्रमित नहीं कर सकते। हिन्दी के अखबार अपना प्रसार बढ़ाते समय पाठक से दुनिया भर की बातें कहते हैं, पर अखबार बनाते वक्त सामाजिक सरोकारों को तरजीह नहीं दी जाती। पाठक को एक ऐसे समाचार पत्र की जरूरत होती जिसमें सार्थक समाचारों का समावेश हो। बिकने लायक सार्थक और दमदार समाचार बनाने में मेहनत लगती है, समय लगता है। उसके लिए पर्याप्त अध्ययन की भी जरूरत होती है जोकि हम नहीं करना चाहते या यूं कहें नहीं कर पाते। उसूलों की अनदेखी हिन्दी पत्रकारिता के लिए घातक है। मीडिया में हो रहा बदलाव इस बात की इजाजत नहीं देता कि हम जो चाहें सो लिखें। 

Wednesday 27 May 2015

फिर राम राग

भारतीय जनता पार्टी लाख कहती हो कि राम मंदिर उसके एजेंडे में नहीं है लेकिन उत्तर प्रदेश की सल्तनत पर जब भी पार्टी के रणनीतिकारों की नजर जाती है, उसे भगवान राम बरबस याद आने लगते हैं। कमल दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह दो दिन से जिस तरह राम राग सुना रहे हैं, उसे देखते हुए साफ है कि पार्टी 2017 में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव हिन्दुत्व के नाम पर ही लडेÞगी। भाजपा और राम मंदिर एक-दूसरे के पूरक हैं। कमल दल पर जब भी साम्प्रदायिता की तोहमत लगती है, वह राम नाम से किनारा करते हुए इसे अपने एजेण्डे से बाहर की बात करने लगती है, जबकि उसे पता है कि राम नाम ने उसके कितने बिगड़े काम बनाये हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को पता है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में यदि भगवा दल को सत्ता हासिल करनी है तो उसे हिन्दुत्व कानों में राम का मंत्र फूंकना होगा। पिछले दो दिन से अमित शाह जिस तरह राम राग अलाप रहे हैं, उसके निहितार्थ हैं। राम मंदिर मुद्दे पर शाह जहां फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं वहीं उन्हें 10 मई का वाक्या भी याद है, जब अयोध्या में केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के बयान पर हिन्दू संत नाराज हो गये थे। राजनाथ ने कहा था कि भाजपा राम मंदिर निर्माण के लिए कानून नहीं ला सकती क्योंकि उसे राज्यसभा में बहुमत प्राप्त नहीं है जबकि शाह ने 26 मई को राम मंदिर की खातिर लोकसभा में 370 सीटों का हवाला दिया था। राम मंदिर की जहां तक बात है, यह मामला उच्चतम न्यायालय में लम्बित है। उच्चतम न्यायालय का फैसला जब भी आए, भाजपा और उसके आनुषांगिक संगठन इस मुद्दे को जिन्दा रखना चाहते हैं। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और कश्मीर से धारा 370 हटाने को लेकर भाजपा चौराहे पर खड़ी है। उसे समझ में ही नहीं आ रहा कि आखिर वह किस रास्ते पर चले। हिन्दुत्व समर्थकों का कहना है कि मोदी सरकार बहुमत में है, लिहाजा उसे अपना वादा निभाना चाहिए जबकि संविधान संशोधन के लिए भाजपा को 370 सांसदों यानी दो तिहाई बहुमत की जरूरत है। जो भी हो भाजपा के राम राग से उनींदी अयोध्या और सरयू की तलहटी में अचानक थोड़ी-सी हलचल पैदा हो गई है। साल भर पहले तक अयोध्या को इस बात पर यकीन नहीं था कि ध्वस्त बाबरी मस्जिद की जगह भव्य राम मंदिर बनेगा लेकिन जिस तरह सियासत बदली है, उसे देखते हुए हिन्दुत्व को लगने लगा है कि यह काम मुश्किल तो है पर असम्भव कदापि नहीं। राम मंदिर मुद्दे पर यदा-कदा ही सही आम सहमति के प्रयास भी हुए लेकिन दोनों ही तरफ के अक्खड़पंथी अपना नजरिया बदलने को तैयार नहीं हैं। राजनाथ और शाह के इशारों पर गौर करें तो मामला अदालत में है, प्रतीक्षा करिए। सरकार के पास बहुमत लोकसभा में है, राज्यसभा में नहीं। मतलब साफ है, राम मंदिर मुद्दा बीरबल की खिचड़ी की तरह है, जिससे बहुत आस नहीं रखनी चाहिए। राम मंदिर को लेकर कमल दल की नीति और नीयत कैसी भी हो पर बेहतर यही होगा कि राम मंदिर के निर्माण के लिए गारा दूध से बने, खून से नहीं।

Tuesday 26 May 2015

तपकर कुंदन बनी मनदीप

मुसाफिर वह है जिसका हर कदम मंजिल की चाहत हो,
मुसाफिर वह नहीं जो दो कदम चलकर थक जाये।
जी हैं अभावों में तपकर कुंदन बनी मनदीप ने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति के बूते साबित किया कि वह न थकने वाली खेल मुसाफिर  है। पंजाब के चाकर गांव की उदीयमान मुक्केबाज मनदीप ने अपने खेल-कौशल से वाकई सबका मन मोह लिया है। तमाम अभावों और आर्थिक तंगी के बावजूद मनदीप एआईबीए वर्ल्ड जूनियर बॉक्सिंग चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल लेकर लौटी है। एक समय उसके पास जूते खरीदने तक के पैसे नहीं थे और एक अकादमी व पंचायत ने उसकी मदद की। मनदीप की सफलता सवाल खड़े करती है कि आखिर देश की खेल नीति में उन प्रतिभाओं के लिए कोई जगह क्यों नहीं है जो आर्थिक तंगी के चलते अपनी क्षमता का प्रदर्शन नहीं कर पाते। ऐसी बहस तभी होती है जब ओलम्पिक या अन्य प्रतिस्पर्धाओं में हमारे पदकों की झोली में गिनती के पदक नजर आते हैं। सवा अरब के देश में यदि पदकों का टोटा है तो कहीं न कहीं हमारी खेल नीति में खोट है। यह कहानी अकेली मनदीप की नहीं है। देश में हजारों खेल प्रतिभाएं खिलने से पहले मुरझा जाती हैं। पिछले दिनों हरियाणा, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश आदि से कई ऐसे मामले प्रकाश में आये कि आर्थिक तंगी के चलते कई राष्ट्रीय पदक विजेता दूसरों के खेतों में फसल काटने के लिए मजदूरी कर रहा है या कोई रिक्शा चलाने को मजबूर है।
दरअसल, राजनीतिक प्रभाव व नौकरशाही के दखल के चलते देश में ऐसी खेल नीति अस्तित्व में नहीं आई जो देश के कच्चे हीरों को तराश कर देश के मुकुट में जड़ सके। हम खेलों में चीन की सफलताओं का तो जिक्र करते हैं मगर उसने यह मुकाम किस मेहनत व सुनियोजित अभियान चलाकर हासिल किया, उसका जिक्र नहीं होता। देश में ऐसी राजनीतिक इच्छा-शक्ति कभी नजर नहीं आई जो देश के खेल तंत्र में आमूलचूल परिवर्तन का वाहक बने। व्यवस्था में क्षरण के स्रोत जब तक बंद नहीं किये जाते, खेल जगत में खिलाड़ियों की सफलता पर सवालिया निशान लगते ही रहेंगे। आज जो खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चमक रहे हैं उनकी चमक के पीछे खिलाड़ियों का जज्बा और उनके परिजनों की तपस्या ही रहती है। दरअसल, देश में बेहतर माहौल बनाने और राष्ट्रव्यापी प्रतिभा खोज अभियान में निजी क्षेत्रों की अनिवार्य भूमिका तय होनी चाहिए। सरकार को बस इतना करना चाहिए कि खेल को पूरा जीवन समर्पित करने वाले खिलाड़ियों को नौकरी की गारंटी मिले। फिर ऐसा न होगा कि बॉक्सिंग का नेशनल चैम्पियन रामदास जमशेदपुर में आॅटो रिक्शा चलाए या छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय प्रतिभा सब्जी बेचती नजर आए।
मुक्केबाज मनदीप को एक लाख रुपये के ईनाम की घोषणा
पंजाब सरकार ने विश्व जूनियर चैम्पियन महिला मुक्केबाज मनदीप कौर संधू का जोरदार स्वागत किया और एक लाख रुपये का नकद पुरस्कार देने घोषण की। ताइपे में आयोजित विश्व जूनियर प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतने वाली कौर का चंडीगढ़ हवाई अड्डे पर पहुंचने पर शानदार स्वागत किया गया। पंजाब के शिक्षा मंत्री दलजीत सिंह चीमा ने नकद पुरस्कार देने की घोषणा की। 

Monday 25 May 2015

अरविंद केजरीवाल सरकार ने दिया 100 दिन के कामकाज का हिसाब


नयी दिल्ली : दिल्ली की अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की सरकार ने अपने 100 दिन पूरे होने के उपलक्ष्य में आज कनॉट प्लेस के सेंट्रल पॉर्क में अपनी कैबिनेट की खुली बैठक आयोजित की. इस बैठक में केजरीवाल सरकार के मंत्री अपने-अपने विभागों की उपलब्धियां गिना रहे हैं. इस कार्यक्रम के आरंभ में लोगों को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि हम जब पिछले साल 49 दिनों के लिए सरकार में आये थे, तब हमने सबसे पहले इस देश के एक बडे आदमी मुकेश अंबानी के खिलाफ केस कर दिया था.  
इसके बाद केंद्र की भाजपा सरकार के गृह मंत्रालय ने कहा कि दिल्ली सरकार की भ्रष्टाचार निरोधक इकाई सिर्फ दिल्ली सरकार के भ्रष्टाचार के मामलों को देखेगी. पुलिस, एनडीएमसी व अन्य संस्थाओं व केंद्रीय कर्मियों के मामले में उसका हस्तक्षेप नहीं होगा. लेकिन, आज दिल्ली हाइकोर्ट का का एक ऐतिहासिक फैसला आया है, जिसमें कहा गया है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय को इस मामले में दखल देने का कोई हक नहीं है.  
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि अगर आप सच्चाई की राह पर चलते हैं तो इस कायनात की सारी शक्तियां आपको मदद करती हैं. उन्होंने कहा कि आज एक मशहूर वकील मेरे घर पर आये थे, उन्होंने कहा कि अरविंद जी, आपको 67 सीटें दिल्ली में मिलीं. सिर्फ इंसानी ताकत से इतनी सीटें नहीं आ सकती हैं. जरूर यह उपर वाले की आप पर कृपा है. अगर भगवान आपके साथ है तो आपको चिंता करने की जरूरत नहीं है कि आपके खिलाफ कौन-कौन है. 
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि हमारी सरकार ने 11 बिंदुओं को फोकस कर काम करना शुरू किया है. इसमें बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला सुरक्षा, झुग्गी झोपडी कॉलोनी, अनधिकृत कॉलोनी, ट्रैफिक व्यवस्था, प्रदूषण, महंगाई आदि शामिल हैं. उन्होंने कहा हमारे मंत्री अपने विभाागों के लिए 100 दिन में किये गये कार्यों का ब्योरा देंगे.

मैंने 365 दिन में जो काम किये, उसे गिनाने के लिए 365 घंटे कम पड जायेंगे : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी


पहले पंडित दीनदयाल उपाध्याय के स्मारक पर पहुंचे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी





मथुरा : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार का एक साल पूरा होने पर मथुरा में एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि यह ब्रज की भूमि है और यहां के कण कण में कृष्ण का वास है. उन्होंने कहा कि जिस धरती पर इस कार्यक्रम की रचना हुई है, वह गांव है दीनदयाल धाम. पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का इस छोटे से गांव में जन्म हुआ था. पंडित जी का संदेश था चरैवेति, चरैवेति, चरैवेति. न थको, न रुको, चलते ही रहो. पंडित जी हर बार हम कार्यकतार्ओं को यही कहते रहे. 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आज अपनी सरकार का एक साल पूरा होने से ठीक एक दिन पहले ब्रज भूमि मथुरा पहुंचे. वे वहां भाजपा के पूर्व संस्करण जनसंघ के संस्थापकों में से एक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के गांव गये और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किया. वे वहां दीनदयाल स्मारक पर पहुंचे. प्रधानमंत्री के साथ इस कार्यक्रम में राज्यपाल राम नाइक मौजूद थे.  प्रधानमंत्री ने  स्मारक स्थल पर उपस्थित लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि अंत्योदय को जो कार्य किये गये हैं, उसे देख कर गर्व हुआ. पंडित दीनदयाल उपाध्याय  ने जीवन को जिस सादगी से जीया, जिन विचारों को जीया उसी के अनुरूप गरीबों के जीवन के उत्थान के लिए यहां प्रयास किये जा रहे हैं. उन्होंने कहा कि यहां से अच्छे कार्यकर्ता तैयार होते होंगे. उन्होंने कहा कि यह हमारे लिए गौरव का विषय है कि मुझे यहां आने का मौका मिला.  उन्होंने कहा कि मैंने राष्ट्रीय अध्यक्ष से कहा था कि जब हमारी सरकार एक साल पूरा कर रही है, तो क्यों नहीं हम पंडित उपाध्याय, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी या अटल बिहारी वाजपेयी के गांव जायें, जो हमारी विचारधारा के आधार हैं. कईयों को यह आश्चर्य होगा कि इतनी छोटी सी पंचायत में जाकर लोग साल भर की सफलता का खुशी क्यों मनायेंगे.   इस दौरान जनसभा को संबोधित करते हुए मथुरा की सांसद व अभिनेत्री हेमा मालिनी ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हमारे मथुरा-वृंदावन क्षेत्र का काफी विकास होगा. उन्होंने कहा कि हमारे क्षेत्र के लिए सरकार ने 130 करोड रुपये की योजनाएं मंजूर की हैं.

मोदी की साफगोई

गरीबों के हित-चिन्तक पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जन्मभूमि नगला चन्द्रभान और ब्रजवासियों के लिए सोमवार का दिन विशेष रहा। विशेष इसलिए नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने एक साल के कार्यकाल की उपलब्धियों का बखान किया बल्कि इसलिए कि उन्होंने उस महापुरुष के गांव की दुर्दशा भी देखी जिस तक किसी दूसरे भाजपाई ने आज तक ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा था। मोदी ने कहा कि वे चाहते तो यह कार्यक्रम किसी बड़े महानगर में सहजता से परवान चढ़ जाता लेकिन हमारी सरकार गरीबों के कल्याण के लिए है। मेरा दिली इच्छा रही कि जिस महापुरुष ने हमारे बीच विचार का बीज बोया, अंत्योदय का मार्ग दिखाया, आखिरी छोर पर बैठे व्यक्तिके अंत्योदय का जिस महापुरुष ने सिद्धांत दिया, उस गांव जाकर मैं उनका नमन करूं और अपने सवा सौ करोड़ भारतवासियों को अपने 365 दिन के कामकाज का हिसाब दूं। मोदी ने कहा कि मैं इस देश का प्रधानमंत्री नहीं, प्रधान संत्री, प्रधान सेवक और प्रधान ट्रस्टी हूं। देश की सम्पदा की सुरक्षा व गरीबों की हित रक्षा मेरी जिम्मेदारी है। मोदी के इन अल्फाजों से उन लोगों को पीड़ा हो सकती है जिनके लिए गरीब सिर्फ वोट बैंक है। मोदी अपने एक साल के कार्यकाल का बखान करते-करते पूर्ववर्ती सरकार पर तंज कसने से भी नहीं चूके। इस अवसर पर उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, राममनोहर लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय को भारतीय राजनीति का महापुरुष करार देते हुए कहा कि इन तीनों के चिन्तन में हमेशा गांव का गरीब और किसान रहा है। यही मेरे आदर्श हैं और इनके कृतित्व को ही ध्यान में रखकर हम देश को सुशासन देने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। 26 मई मंगलवार को सरकार का एक साल पूरा हो रहा है। इस मौके पर 365 दिन मैंने और सरकार ने जो काम किये हैं, उन्हें गिनाऊं तो 365 घण्टे कम पड़ जाएंगे। हमने हर पल नया निर्णय लिया है। हर पल फैसला लिया है। अब बुरे दिन बीत चुके हैं। मैंने कभी भी बुरे काम करने वालों के अच्छे दिन की गारण्टी नहीं दी। जिनके बुरे दिन आए हैं, वही हल्ला कर रहे हैं। उन्होंने उपस्थित जन समुदाय से प्रतिप्रश्न किया और कहा कि आपने नई सरकार नहीं चुनी होती तो क्या होता? पहले रिमोट कंट्रोल से सरकार चलती थी, रोज नए घोटाले सामने आते थे लेकिन पिछले एक साल में कोई घोटाला और भाई-भतीजावाद की खबर नहीं आई है। मोदी ने गंगा और यमुना-दोनों को मां मानते हुए ब्रज के विकास के लिए 130 करोड़ रुपये की सौगात भी दी। सरकार की उपलब्धियों से इतर मोदी ने घर-घर शौचालय बनाने और मुल्क से गंदगी दूर करने की मंशा जताते हुए राज्य सरकारों से कंधा से कंधा मिलाकर इस मोर्चे पर साथ देने का आह्वान किया। मोदी को भरोसा है कि देश की सूरत जरूर बदलेगी और 2020 तक हर भारतवासी के पास पक्का मकान होगा। जो भी हो ब्रजभूमि से अपने एक साल के जन कल्याण कार्यक्रमों का बिगुल फूंकने आये मोदी से ब्रजवासियों को थीं तो बड़ी उम्मीदें पर वह कान्हा की ही तरह लोगों का दिल जीतकर चले गये।

मेरा बेटा

मेरे कंधे पर बैठा
मेरा बेटा जब मेरे कंधे पे खड़ा हो गया,
मुझी से कहने लगा देखो पापा मैं तुमसे बड़ा हो गया।
मैंने कहा बेटा इस खूबसूरत गलतफहमी में भले ही जकड़े रहना
मगर मेरा हाथ पकड़े रखना।
जिस दिन यह हाथ छूट जाएगा
बेटा तेरा रंगीन सपना भी टूट जाएगा।
दुनिया वास्तव में उतनी हसीन नहीं है,
देख तेरे पांव तले अभी जमीं नहीं है।
मैं तो बाप हूँ बेटा बहुत खुश हो जाऊंगा,
जिस दिन तू वास्तव में मुझसे बड़ा हो जाएगा
मगर बेटे कंधे पे नहीं,
जब तू जमीन पे खड़ा हो जाएगा।।

किसके अच्छे दिन

सोमवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ब्रजवासियों से फरह के दीनदयाल धाम में अपने एक साल के कार्यकाल की उपलब्धियां बयां करेंगे। मोदी इससे पहले 25 नवम्बर, 2013 को आगरा आये थे। आम चुनाव के समय उन्होंने कहा था कि यदि उनकी सरकार बनी तो कमल दल विकास की गंगोत्री बहा देगा। उन्हें प्रधानमंत्री पद सम्हाले एक साल होने जा रहे हैं और इस एक साल के कार्यकाल में उनकी उपलब्धियां चर्चा का विषय हैं। विपक्ष आमजन के बीच यह प्रचारित-प्रसारित कर रहा है कि मोदी सरकार सूटबूट और उद्योगपतियों की सरकार है। विपक्ष कुछ भी कहे लेकिन किसी सरकार के लिए एक साल का कार्यकाल विकास के लिए पर्याप्त नहीं माना जा सकता, पर भारतीय लोकतंत्र में यह दस्तूर बन चुका है। मोदी ने जब मुल्क की सल्तनत सम्हाली थी, तब हालात अच्छे नहीं थे, हालातों में अभी भी आशातीत सुधार नहीं दिख रहा बावजूद इसके मोदी ने प्रयासों में कोई कमी नहीं छोड़ी। उन्होंने देश का कुशल प्रतिनिधित्व करते हुए मेक इन इण्डिया, डिजिटल इण्डिया जैसी चीजों को दुनिया तक पहुंचाने में सफलता हासिल की है। एक साल में मोदी सरकार ने व्यापार आसान बनाने पर फोकस किया वरना पहले लोगों को लगता था कि बिजनेस करना अपराध है। उद्योगपतियों के लिए देश में व्यवस्थागत समस्याएं नहीं होनी चाहिए ताकि वे मैन्यूफैक्चरिंग और मार्केटिंग में ज्यादा ध्यान लगा पाएं न कि सरकारी अमले के साथ बैठकर माथापच्ची करें। उद्योग-व्यापार से इतर अमन-चैन की बात करें तो यह किसी से छिपा नहीं है कि एक साल में मुल्क के अल्पसंख्यकों के मन में अनचाहा डर पैदा हुआ है। ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार से पहले मुसलमानों और ईसाईयों के लिए इस देश में दूध की नदियां बहती थीं लेकिन पिछले एक साल में कमल दल के ही लोगों ने हद दर्जे का अनर्गल प्रलाप कर गलत संकेत जरूर दिया है। अफसोस जो कुछ होता रहा मोदी मजबूरीवश चुपचाप सुनते और देखते रहे। मोदी को इस बात का भान होना चाहिए कि वह आज किसी पार्टी विशेष के नहीं देश के मुखिया हैं। उनकी नजर में हर जाति-सम्प्रदाय बराबर है। धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग की रिपोर्ट में भारत में अल्पसंख्यकों की हालत को चिन्ताजनक बताया गया है। बेशक मोदी सरकार ने इसे खारिज कर दिया हो पर सवाल यह उठता है कि अमेरिका यूं ही ऐसी रिपोर्ट क्यों बनाएगा? जो भी हो दिन का भूला यदि रात को वापस आ जाये तो उसे भूला हुआ नहीं कहते। एक साल में जो कुछ हुआ उसे खारिज करते हुए शेष बचे चार साल में मोदी को अपने ही कहे उन अल्फाजों पर अमल करना होगा जिनका सपना उन्होंने आम चुनाव के समय देशवासियों को दिखाया था। ब्रज मण्डल में मोदी का स्वागत है। वह न केवल सबका साथ, सबका विकास करें बल्कि ब्रजवासियों को ऐसी सौगात देकर जाएं जोकि अमूल्य हो।

SHRI PRAKASH SHUKLA






Sunday 24 May 2015

गर्त में राजनीति, गर्क होता देश


पिछले माह ‘आप’ की सभा में दौसा निवासी गजेन्द्र सिंह पेड़ पर चढ़े, फांसी का उपक्रम हुआ और लोकतंत्र के मुँह पर एक और करारा तमाचा लग गया। जिस पर नेताओं ने जो बयानबाजी की वह न केवल शर्मनाक थी बल्कि रैलियों की भीड़ और प्रायोजित घटनाक्रम की पोल खोलने के लिए पर्याप्त थी। शायद हमारे राजनेता यह मान बैठे हैं कि जनता केवल मदारी का खेल देखना चाहती है। यह कोरे आश्वासन, भड़काऊ  नारे और बड़ी-बड़ी बातें एक वर्ग विशेष के लिए सच भी हों किन्तु देश की अधिकांश जनता इस तरह की मूर्खतापूर्ण बातें करने वालों को ‘जोकर’ से ज्यादा महत्व नहीं देती। यही कारण है कि आज युवा ‘यू-टर्न’ को ‘केजरीवाल’ कहना पसन्द करते हैं।
मजेदार बात जो यह है कि हमारे देश में आरोप सिद्ध हुये बिना जन-सामान्य को तो आरोपी मान लिया जाता है लेकिन पिछले दिनों यह हास्यास्पद सर्कुलर दिल्ली प्रदेश सरकार द्वारा जारी कर दिया गया कि बिना कोर्ट का निर्णय आये उनके मंत्रियों की पोल न खोली जाये। अजीब तानाशाही है। प्रजातंत्र भी शायद अब दो तरह का होगा आम जनता के लिए कुछ एवं माननीयों के लिए कुछ। एक और बानगी देखिये, किसी भी नौकरी में यदि कोई व्यक्ति अवकाश पर जाता है तो उसे अवकाश की अवधि, कारण आदि का ब्यौरा जाने से पूर्व देना पड़ता है लेकिन कांग्रेस जैसे विशाल और देश के सबसे प्राचीन दल के उपाध्यक्ष पूरे 57 दिन के लिए अज्ञातवास पर चले जाते हैं, वह भी ऐसे समय पर जब संसद चल रही थी, भूमि अधिग्रहण बिल पर बात हो रही थी, लेकिन उनके लिए कोई ‘कारण बताओ’ नोटिस जारी नहीं होता जबकि सांसदों को वेतन भत्ते, आवास और अन्यान्य सुविधायें मिलती हैं। ये सारी सुविधायें उन्हें संसद में जाने के एवज में मिलती हैं न कि मनचाहे बयान देने, अपरिपक्व सोच का परिचय देने और ‘मेरी मर्जी’ वाला व्यवहार करने के लिए। कांग्रेस उपाध्यक्ष ने ‘सूट-बूट वाली सरकार’ कहकर संसद की गरिमा भंग की। ऐसा पहली बार नहीं हुआ जब इस प्रकार की अमर्यादित, अतार्किक और अभद्र भाषा का प्रयोग हुआ हो। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में तमाम ज्वलंत और गम्भीर मुद्दों के होने के बावजूद नेता इस प्रकार की बचकानी बातें कर रहे हैं। भूमि अधिग्रहण बिल पर सार्थक बहस होने, किसानों की समस्याओं को दूर करने, नवीन शिक्षा नीति का निर्धारण करने के स्थान पर ओछी बयानबाजी की जा रही है, जबकि भूमि अधिग्रहण बिल स्वयं कांग्रेस का दिया हुआ है किन्तु फिर भी कांग्रेस ही उसे किसान विरोधी बता रही है। क्या 2013 के बिल में कोई ऐसी विशेषता थी जो 2015 में गायब हो गयी? यदि गायब भी हो गयी तो पार्टियों को मिलकर उसका समाधान करना चाहिए। ‘हमारा खून खून, तुम्हारा खून पानी’ वाली मानसिकता पार्टियों को छोड़नी होगी और दलगत संकीर्णता को छोड़कर देश का स्तर उठाने के लिए सम्मिलित प्रयास करने होंगे। स्पष्ट है कि आज नेताओं का उद्देश्य देश का विकास न होकर स्वयं को मसीहा सिद्ध करना रह गया है। जनता के गाढेÞ पसीने से हजारों करोड़ की बनने वाली योजनायें ठण्डे बस्ते में मात्र इसलिए डाल दी जाती हैं क्योंकि वे विरोधी दल ने शुरू की थीं। इससे नेताओं को तो कोई हानि नहीं होती किन्तु देश विकास के पथ पर काफी पीछे चला जाता है। भूमि अधिग्रहण बिल के लोकसभा में पास होने के बाद अब उसे सड़कों पर रोकने की तैयारी हो रही है। यह उद्घोषणा यह बताने के लिए पर्याप्त है कि आज राजनीति मुद्दों पर न होकर ठलुओं की बेगार हो गयी है या कहें कि नटों की पंचायत हो गई है जो रोज सिर्फ यही सोचते हैं कि क्या करके भीड़ जुटायी जाये? हास्यास्पद तर्क है कि जब लोकसभा में बिल पास हो ही गया है तो फिर सड़कों पर विरोध करके कौन सा तीर मार लेंगे? लगभग यही हाल ‘अमेठी फूड पार्क’ पर हुआ। जब तक स्वयं सत्ता में रहे फूड पार्क की सुध न आयी। अब बजाय सीधे फूड पार्क बनवाने की कहने के आंदोलन की चेतावनी दी जा रही है, भड़काऊ  बयानबाजी की जा रही है। कारण साफ है समस्या सुलझाने से ज्यादा आज उलझाने का प्रयास किया जा रहा है। समस्या जितनी उलझेंगी, राजनीति उतनी चमकेगी। गत् दिवस टेलीविजन पर शंघाई का विकास दिखाया जा रहा था। स्वाभाविक है कि वहां भी कभी झोपड़-पट्टी रही होंगी लेकिन अब वह शहर जाम के झाम से कोसों दूर ऊंची इमारतों और फ्लाई ओवरों के लिए जाना जाता है। हमारे देश में आलम यह है कि अगर कोई परिवर्तन लाना चाहे तो उससे पहले तमाम पार्टियां खड़ी हो जाती हैं और फाइव स्टार एक्टिविस्ट की पूरी फौज खड़ी हो जाती है। आज देखा जाये तो नेताओं से ज्यादा बड़ी समस्या ये फाइव स्टार एक्टिविस्ट बन चुके हैं जो होते तो राजनीतिक दलों द्वारा प्रायोजित हैं किन्तु हर परिवर्तन के विरोध में झण्डाबरदारी करके वे अपने चेहरे तो चमका लेते हैं लेकिन इस देश में आने वाले सकारात्मक परिवर्तन को कोसों दूर धकेल देते हैं। वस्तुत: दिल्ली में जब मैट्रो सेवा शुरू की गयी तो काफी समय तक दिल्लीवासियों ने तमाम तरह की मुश्किलें झेलीं लेकिन परिणाम चौकाने वाले रहे। दिल्ली मैट्रो के परिणाम से उत्साहित हो अब तमाम शहरों में मैट्रो सेवा शुरू करने की योजना बन रही है, किन्तु यह तो तय है कि जिस भी शहर में मैट्रो सेवा के लिए योजना बनेगी वहां पर्यावरण और झुग्गी-झोपड़ियों की चिन्ता करने वालों की फौज को कई महीनों के लिए काम मिल जायेगा।
काफी समय पहले एक बयान आया था कि भारत की समस्यायें यहां के नेता हैं। यदि इसे यूँ कहें कि यहाँ की समस्या नेता नहीं मानसिकता है तो गलत न होगा वरना जनता के धन से ऊंचा वेतन, शानदार बंगला, वी़आई़ पी़  सुरक्षा, अन्यान्य मुफ्त सुविधायें और सबसे ऊपर अति विशिष्ट होने का अहसास पाने वाले ये नेता राजनीति के नाम पर देश को संसद में शर्मसार न करते, ‘पुलिस को भीतर कर दो, इतने घण्टों में अन्य धर्मों के लोगों से देश खाली करा देंगे’ जैसे बेहूदे बयान न देते और महिलाओं की देहयष्टि और रंगरूप पर सत्तामद में अशोभनीय टिप्पणियां न करते। मुद्दों से पूरी तरह भटक कर वर्तमान राजनीति मात्र धक्का-मुक्की के दलदल में उतर तो गयी है किन्तु तीन दशक बाद पूर्ण बहुमत देने वाली जनता को मूर्ख बनाने के प्रयत्न यदि बंद नहीं हुये तो इन नेताओं को अगली त्रिशंकु सरकार के लिए तैयार रहना चाहिए। उस स्थिति में शायद कुछ दलों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ सकता है।
डॉ. दीपिका उपाध्याय मोबाइल-9897248216, 9456694900
       

Saturday 23 May 2015

जयललिता की ताजपोशी

अपने मुरीदों की उम्मीदों को पर लगाते हुए जयललिता ने शनिवार को एक बार फिर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पद की आसंदी सम्हाल ली। अन्नाद्रमुक सुप्रीमो जे. जयललिता की जहां तक बात है, उन्होंने अपने चार दशक के राजनीतिक जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। जयललिता और तमिलनाडु की जनता के बीच वही रिश्ता है जैसा भगवान और भक्त के बीच होता है। वह पद में रहें या न रहें तमिलनाडु की जनता जनार्दन के बीच उनकी लोकप्रियता में लेशमात्र भी कमी नहीं आती। अम्मा में मुसीबतों से लड़ने की जहां हिम्मत है वहीं विरोधियों का मानमर्दन करने का हौसला उन्हें सबसे अलग साबित करता है। आय से अधिक सम्पत्ति के मामले से दोषमुक्त होने के बाद वह पांचवीं बार सूबे का मुखिया बनी हैं। तमिलनाडु की 14वीं विधानसभा में जयललिता बतौर मुख्यमंत्री 29 सदस्यीय मंत्रिमण्डल का नेतृत्व करेंगी। जयललिता के मंत्रिमण्डल में वही लोग शामिल हैं, जो पूर्ववर्ती ओ. पन्नीरसेल्वम के मंत्रिमण्डल में थे। उनके विभागों में भी बदलाव नहीं किया गया है। गृह एवं सामान्य प्रशासन विभाग जयललिता ने अपने पास ही रखे हैं, जबकि पन्नीरसेल्वम पहले की तरह वित्त एवं लोक कार्य विभाग सम्हालेंगे।
जयललिता ने अपने उतार-चढ़ाव भरे राजनीतिक जीवन में न केवल अनेकों लड़ाइयां लड़ीं बल्कि जब-जब राजनीतिक दुष्प्रचारकों ने उनका अवसान माना वह पुन: उठ खड़ी हुर्इं। दृढ़-निश्चय की धनी जयललिता को जहां पराजय पसंद नहीं है वहीं प्रतिद्वन्द्वियों को माफ करना उन्हें कभी रास नहीं आया। बीते साल की 27 सितम्बर को जब जे. जयललिता आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में दोषी पाई गर्इं और कर्नाटक की विशेष अदालत ने उन्हें सजा सुनाई तब उन्हें मुख्यमंत्री पद से त्याग-पत्र देना पड़ा था।  मुश्किल हालातों में उन्होंने धैर्य खोने और रोने की बजाय अपने विश्वासपात्र पन्नीरसेल्वम को सत्ता की कमान सौंप दी। जयललिता के सत्ता से हटने के बाद उनके हितचिन्तकों के मन में इस बात की आशंका थी कि अम्मा के बिना पार्टी का क्या होगा? तमिलनाडु की सियासत में अन्नाद्रमुक जयललिता के बूते ही चलती है। वह पार्टी की सुप्रीमो ही नहीं बल्कि सर्वेसर्वा भी हैं। तमिलनाडु की राजनीति में जयललिता ‘कम बैक क्वीन’ मानी जाती हैं। उनकी वापसी के बाद अब उनकी पार्टी के कार्यकर्ता पूरे मनोयोग से अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी कर सकेंगे। जयललिता के सूबे का मुखिया बनने के बाद विपक्षियों की रणनीति में भी एक नया पेंच आ गया है। वर्ष 1991-96, 2001-2006 और मई 2011 से सितम्बर 2014 तक मुख्यमंत्री रह चुकीं जयललिता को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में 11 मई को बरी किया था। जयललिता के बरी होने के साथ ही उनके फोर्ट सेंट जॉर्ज स्थित सत्ता की पीठ में वापसी की प्रक्रिया की शुरुआत हो गई थी। जयललिता का विवादों से चोली दामन जैसा साथ है। उन्हें इससे पहले भी वर्ष 2001 में टीएएनएसआई भूमि घोटाला मामले में झटका लगा था।  सीवी श्रीधर के निर्देशन में वर्ष 1956 में बनी फिल्म ‘वेननीरा अदाई’ से सिनेमा जगत में पदार्पण करने वाली जयललिता ने एक ‘संकोची’ किशोर अभिनेत्री से एक लोकप्रिय और चर्चित अभिनेत्री बनने तक का सफर तय किया। इस सफर के दौरान उन्होंने उस समय के सबसे बड़े फिल्मी सितारे एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) समेत कितने ही कलाकारों के साथ काम किया। एक के बाद एक 30 फिल्में करने के बाद पर्दे पर बना उनका तालमेल राजनीति के क्षेत्र में भी पहुंच गया। अन्नाद्रमुक की स्थापना के बाद पार्टी की प्रचार सचिव के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाली जया ने रामचंद्रन को खासतौर से अपने अंग्रेजी ज्ञान से प्रभावित किया था। रामचंद्रन जयललिता के इस कौशल से इतना प्रभावित हुए कि उन्हें राज्यसभा भेज दिया। राज्यसभा की चौखट पर पहुंचते ही जयललिता ने राजनीति में अपने पैर मजबूती से जमाने शुरू कर दिये।  रामचंद्रन की अंत्येष्टि के अवसर पर अपमानित होने से जैसे ही जयललिता का दिल टूटा उन्होंने पार्टी ही तोड़ दी। पहले तमिलनाडु में डीएमके एक ही पार्टी हुआ करती थी। डीएमके के संस्थापक अन्नादुराय थे। बाद में डीएमके में विभाजन हुआ। एक पार्टी डीएमके के नाम जानी गई तो दूसरी अन्नाडीएमके के नाम से। डीएमके के नेता करुणानिधि बने और अन्नाडीएमके के एमजीआर। एमजीआर की मृत्यु के बाद जयललिता ने अन्नाडीएमके की बागडोर सम्हाल ली। तमिलनाडु में ब्राह्मण-विरोध लगभग एक आंदोलन है। जयललिता खुद ब्राह्मण हैं। परन्तु इनकी लोकप्रियता गैर-ब्राह्मणों में भी कम नहीं है। जयललिता और करुणानिधि के बीच मतभेद और मनभेद हैं। दोनों के बीच वैयक्तिक दुश्मनी इस कदर है कि शायद ही देश के किन्हीं दो नेताओं के बीच हो। करुणानिधि सत्ता में होते हैं तो वे जयललिता को हद के बाहर सताते हैं और यदि जयललिता मुख्यमंत्री होती हैं तो करुणानिधि को चैन से नहीं रहने देतीं। अब एक बार फिर जयललिता मुख्यमंत्री बन गई हैं ऐसे में करुणानिधि की पेशानियों में बल पड़ने से इंकार नहीं किया जा सकता। अम्मा के जेल जाने से यह सवाल स्वाभाविक तौर पर उठा था कि क्या एक दशक का राजनीतिक वनवास उन्हें पूरी तरह राजनीतिक परिदृश्य से गायब कर देगा और भारतीय राजनीति में इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि वे इसमें महत्वपूर्ण अध्याय की तरह दर्ज हैं। आठ महीने बाद ही कर्नाटक हाईकोर्ट ने उन्हें तमाम आरोपों से बरी कर दिया। अब जयललिता फिर से तमिलनाडु की मुख्यमंत्री हैं। अगले साल तमिलनाडु में चुनाव होने हैं, विरोधी अपनी चालें तय करें, इसके पहले मुमकिन है सहानुभूति का फायदा उठाकर जयललिता चुनाव समय से पूर्व ही करवाने की घोषणा कर दें। द्रमुक अभी पारिवारिक झटकों और आंतरिक कलह से नहीं उबरी है। कांगे्रस का ध्यान भी तमिलनाडु की ओर खास नहीं है। हां, भाजपा जरूर अपना विस्तार करने में लगी है, ऐसे में जयललिता से कमल दल को ही सबसे ज्यादा परेशानी उठानी पड़ सकती है। राजनीति में कोई किसी का दोस्त-दुश्मन नहीं होता ऐसे में भाजपा-अन्नाद्रमुक के बीच गलबहियां होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता।

Friday 22 May 2015

अरुणा! तुम्हें कैसे मिलेगा इंसाफ?

अब अरुणा शानबाग इस दुनिया में नहीं है। हां, वही अरुणा जो अपने सहकर्मी की यौन प्रताड़ना का शिकार होने से बचने के लिए उसके गुस्से का इस कदर शिकार हुई कि पूरे 42 साल हर रोज मरती रही, फिर भी जिंदा रही। महिला प्रताड़ना की शिकार शायद अरुणा ही वह अकेली जिंदा लाश थी जो 23 नवंबर, 1973 यानी लगातार 42 वर्षो से एक बिस्तर पर सिमटी रही। सचमुच किसी कहानी के जैसे हैं अरुणा की हकीकत, लेकिन सच्चाई यही है कि यह कहानी नहीं, हकीकत है। इस देश में न जाने कितनी अरुणा और कितनी निर्भया यूं ही क्रूर वहशियों के हवस का शिकार होती रहेंगी या बचने के लिए तिल-तिल कर मरती रहेंगी, इसका जवाब नित नई इंसानी सभ्यता से विकसित होने वाली दुनिया में किसी के पास नहीं है। अब जरूरत है ऐसे मामलों में कठोर कानून और त्वरित फैसले की।

कर्नाटक के शिमोगा जिले की हल्दीपुर की रहने वाली 18 साल की अरुणा एक सेवा भाव के साथ मुंबई के जाने माने केईएम अस्पताल में बतौर जूनियर नर्स का काम करने 1966 में आई थी। जब वह 24 वर्ष की हुई तो उसकी शादी एक डॉक्टर से तय हो गई। 
समय की पाबंद, काम में ईमानदार, वफादार अरुणा को केईएम अस्पताल की डॉग रिसर्च लेबोरेटरी में काम करते हुए पता चला कि वार्ड ब्यॉय सोहनलाल बाल्मीक कुत्तों के लिए लाए जाने वाले मटन की चोरी करता है। इसे लेकर उसकी सोहन से काफी कहा सुनी हुई और अरुणा ने इसकी शिकायत अस्पताल प्रबंधन से कर दी। तभी से सोहन उससे रंजिश रखने लगा और बदला लेने यौन हिंसा की फिराक में था। 
मौका लगते ही सोहन ने 27 नवंबर 1973 को उस पर हमला किया और कुत्तों को बांधे जाने वाली चेन से गलाघोंटकर मारने की कोशिश भी की। इससे अरुणा के मस्तिष्क तक ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाई और पूरा शरीर सुन्न पड़ गया। अरुणा को बेहोश देख वहशी सोहन ने बलात्कार की कोशिश भी की। यह बात 28 नवंबर 1973 को सामने आई, जब एक सफाईकर्मी ने उसे खून से लथपथ बेहोश पाया। इस घटना के बाद अरुणा जो नीम बेहोशी में गई, वह 18 मई को उसकी चिरनिद्रा बन गई। 
केईएम अस्पताल प्रबंधन ने इंसानियत की जो मिसाल कायम की, वह जरूर काबिले तारीफ है। रिश्तेदारों ने भी उससे नाता तोड़ लिया और इन 42 वर्षो में न कोई मिलने आया न किसी ने कोई खोज, खबर ही ली। बस अस्पताल में नर्स और स्टाफ ही उसकी सेवा, परिवार के सदस्य की तरह करते थे। किसी के लिए वो ताई थी तो किसी के लिए मां तो किसी की बड़ी बहन। 
अरुणा के लिए उसकी सहेली पत्रकार पिंकी वीरानी ने तकलीफों का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट में 18 दिसंबर 2009 को एक अपील दाखिल की और प्रार्थना की कि उसे नीम बेहोशी की हालत में 36 साल हो गए हैं, अत: इच्छा मृत्यु दे दी जाए।
कोर्ट ने एक स्वास्थ दल गठित किया, उसकी रिपोर्ट आई और 7 मार्च 2011 को अपील तो खारिज कर दी लेकिन 'पैसिव यूथेनेशिया' के पक्ष में फैसला जरूर दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक्टिव यूथेनेसिया गैरकानूनी है। असामान्य परिस्थितियों में पैसिव मर्सी यूथेनेसिया की इजाजत दी जा सकती है। 
एक्टिव यूथेनेसिया में गंभीर बीमार मरीज को मौत का इंजेक्शन दिया जाता जबकि पैसिव यूथेनेसिया में लाइफ सपोर्ट सिस्टम धीरे-धीरे हटा लिए जाते हैं। साक्ष्य, हालात और चिकित्सा के मद्देनजर माना गया कि अरुणा को इच्छा मृत्यु की जरूरत नहीं है। यह भी कहा कि इच्छा मृत्यु से जुड़ा कोई कानून नहीं है अत: असामान्य परिस्थियों में ही पैसिव यूथेनेसिया दिया जा सकता है। 

अरुणा मस्तिष्कीय रूप से मरकर भी जिंदा रही। बाद में पिंकी वीरानी ने अरुणा पर एक किताब भी लिखी 'अरुणाज स्टोरी' इसमें उसकी पूरी कहानी को बयां किया। दत्त कुमार देसाई ने भी उस पर मराठी में एक नाटक 'कथा अरुणाची' लिखा, जिसका जाने माने रंगकर्मी विनय आप्टे के निर्देशन में सन् 2002 में मंचन भी किया गया। अरुणा की करुणा समाज में चर्चा का विषय बनी, लेकिन बस चर्चाओं तक ही।
घटना के बाद अरुणा के आरोपी सोहन पर हत्या का प्रयास, बलात्कार और कान की बाली छीनने का मुकदमा चला, बलात्कार साबित नहीं हो पाया सो उसे सात साल की सजा हुई, जिसे मजे से काटकर वो बाहर निकल आया। सबको पता था सोहन का अपराध क्या था, परिस्थितियां भी चीख-चीखकर कह रही थीं, जब सोहन पर फैसला सुनाया जा रहा था तब भी अरुणा बेसुध अस्पताल में पड़ी थी।
यकीनन, फैसला कानून के हद में आना था और आया भी। सोहन का गुनाह इतना ही साबित हो पाया कि मुजरिम जरूर है लेकिन हत्या के प्रयास का, उसे चोट पहुंचाने का और बालियां छीनने का। 1974 में इन्हीं जुर्मों में 7 साल की सजा दी गई। 
विडंबना देखिए, फैसला सुनाते वक्त भी अरुणा बेहोश थी। सजा पूरी करके सोहन बाहर आया तब भी अरुणा बेहोश थी और अब जब 42 साल बाद अरुणा की मृत्यु हो गई है तो कानून फिर जागेगा, धाराएं बदल जाएंगी यानी अब सोहन हत्या का मुजरिम होगा। नए सिरे से हत्या का मुकदमा चलेगा। 
पता नहीं, सोहन कहां है, जिंदा है भी या नहीं? अपराध घटित करते वक्त करीब-करीब अरुणा का हमउम्र रहे सोहन की उम्र भी अब 65-70 साल की हो गई होगी। ऐसी ही एक दूसरी विडंबना भी, निर्भया मामले में नाबालिग आरोपी को समान अपराध का दोषी होने के बावजूद विहित कानून के अनुसार नरमी बरतते हुए सजा दी गई। 
जनमानस का विश्वास तो न्याय की तुला पर है, लेकिन सवाल फिर भी न्याय प्रणाली और विहित कानूनों पर है। 42 साल पहले यौन हिंसा और शारीरिक उत्पीड़न की शिकार अरुणा मौत के वक्त यानी 18 मई 2015 को करीब 67 साल की थी। अरुणा की कहानी में दामिनी (निर्भया) से कम मार्मिक करुणा नहीं है।
सवाल एक ही, क्या दोनों को न्याय मिला? उत्तर है- हां मिला। कानून की ²ष्टि से जरूर मिला। घटना के बाद की स्थितियां, अरुणा की नीम बेहोशी, हमेशा के लिए सुध बुध खो बिस्तर पर जिंदा लाश की माफिक सिमट जाना, न बोल पाना, न सुन पाना, न कुछ समझ पाना, चलना फिरना तो दूर की बात रही। कानून के तकाजे में इसका दंड भले ही कुछ भी हो, लेकिन इंसानियत के तकाजे में इसे न्याय कहेंगे या अन्याय पता नहीं! 
क्या लगता नहीं है कि ऐसे कानूनों को बदलना, समय के साथ अपरिहार्य हो गया है? अपराध की जघन्यता, अपराधी की मंशा, प्रताड़ित की प्रताड़ना का हिसाब-किताब हो, न कि धाराओं में सिमटा कानून 42 साल तक अरुणा को कोमा में पहुंचा चुके अपराधी को महज 7 साल की सजा दे और नाबालिग की बिना पर दामिनी का एक दोषी सजा में नरमीं का हकदार हो जाए।

Wednesday 20 May 2015

जो होता गॉड फॉदर, अंकित न होता बाहर

एएफआई की लीला न्यारी, मजे कर रहे खूब अनाड़ी
राष्ट्रीय खेलों और फेडरेशन कप के स्वर्ण पदकों पर फिरा पानी

आगरा। सर मैंने कोई अनुशासन नहीं तोड़ा है। मैंने भारतीय खेल प्राधिकरण पटियाला के नेशनल कैम्प से तिरुवनंतपुरम में अच्छे प्रशिक्षक से तालीम लेने की एक नहीं दो बार अर्जी दी और भारतीय खेल प्राधिकरण के महानिदेशक की मंजूरी के बाद न केवल अथक मेहनत किया बल्कि मैंगलोर में एशियन चैम्पियनशिप के तय मानक 7.76 मीटर की जगह 7.99 मीटर की जम्प से गोल्ड मैडल भी जीता है। मैंने केरल में हुए राष्ट्रीय खेलों में भी 8.04 मीटर की गोल्डन जम्प लगाई है। मेरा कोई कसूर नहीं फिर भी यदि एएफआई को लगता है कि मैंने कोई गुनाह किया है, तो माफी चाहता हूं। यह उस अभागे खिलाड़ी अंकित शर्मा की पीड़ा है जो लगातार अच्छे प्रदर्शन के बावजूद पहले एशियाड तो अब एशियन एथलेटिक्स चैम्पियनशिप की भारतीय टीम में स्थान पाने से वंचित कर दिया गया, जबकि कई दागी खिलाड़ी टीम इण्डिया में स्थान सुनिश्चित कर चुके हैं।
आगरा जिले के पिनाहट निवासी हरनाथ शर्मा का यह उदीयमान लाड़ला किसी जिले और प्रदेश का ही नहीं देश का सर्वश्रेष्ठ लांगजम्पर है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक पर कई मर्तबा अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुका अंकित शर्मा हर खास प्रतियोगिता में भारतीय टीम से इसलिए बेदखल कर दिया जाता है क्योंकि एथलेटिक्स फेडरेशन आॅफ इण्डिया में उसका कोई गॉड फॉदर नहीं है। उलटा चोर कोतवाल को डांटे की तर्ज पर चल रही एएफआई की गतिविधियां हमेशा से ही संदिग्ध रही हैं। 3 से 7 जून तक चीन के वुहान में होने जा रही एशियन एथलेटिक्स चैम्पियनशिप के लिए अभी तक जो 29 सदस्यीय (महिला-पुरुष) भारतीय टीम का चयन किया गया है, उसमें कई खिलाड़ी नियमों को ताक पर रख कर चुने गये हैं। एएफआई के अध्यक्ष आदिल जे सुमरीवाला और सचिव सीके वॉल्सन अंकित के मामले में जहां विरोधाभासी बयान दे रहे हैं वहीं लांगजम्पर प्रेम कुमार, स्प्रिन्टर धरमबीर, अर्जुन, नवजीत कौर ढिल्लन, मयूखा जॉनी, विकास गौड़ा आदि के चयन पर जमकर नियम-कायदों का चीरहरण किया गया है।
अंकित शर्मा को 20 दिवसीय नेशनल कैम्प से चले जाने की सजा दी जा रही है जबकि धरमबीर और मयूखा जॉनी कैम्प में सहभागिता न करने के बाद भी भारतीय टीम की शोभा बढ़ा रहे हैं। एएफआई बताये कि लांगजम्पर प्रेम कुमार ने साल भर में कितने दिन नेशनल कैम्प में बिताये हैं? 200 मीटर दौड़ के लिए जिस धरमबीर का चयन किया गया है, वह दो साल की डोपिंग की सजा काट कर आया है। डिस्कस थ्रोवर नवजीत कौर और अर्जुन तो क्वालीफाइंग मापदण्ड भी नहीं छू पाये हैं। किसी प्रतियोगिता के लिए यदि खिलाड़ी का पूर्व प्रदर्शन ही मायने रखता है तो फिर साल भर लगने वाले प्रशिक्षण शिविरों के क्या मायने हैं? प्रतियोगिताओं के नाम पर क्यों देश का पैसा खुर्द-बुर्द किया जाता है? महिला डिस्कस थ्रो की जहां तक बात है क्या नवजीत कौर कृष्णा पूनिया या सीमा अंतलि से बेहतर है? माना कि नवजीत प्रतिभाशाली है लेकिन उसके लिए एएफआई ने क्या मानक तय किये थे? दरअसल, भारतीय खेलों में प्रतिभा नहीं माई-बाप जरूरी है। अंधे खेलनहार उन्हें ही रेवड़ी बांटते हैं, जिनके हाथ में लाठी होती है।
पटियाला में नहीं था प्रशिक्षक: अंकित शर्मा
एएफआई की उपेक्षा का दंश झेल रहे अंकित शर्मा ने पुष्प सवेरा को बताया कि चूंकि पटियाला में कोई प्रशिक्षक नहीं था लिहाजा उसने लक्ष्मीबाई नेशनल कॉलेज तिरुवनंतपुरम के प्रशिक्षक एनवी निसाद कुमार से प्रशिक्षण लेने की अर्जी दी थी। साई के महानिदेशक की अनुमति के बाद ही वह वहां गया। निसाद कुमार का 24 मार्च, 2015 से 30 सितम्बर, 2015 तक भारतीय खेल प्राधिकरण से करार है। अंकित का कहना है कि मैंने प्रोजेक्ट आॅफीसर (टीम्स) साई दिलीप कुमार सिंह के माध्यम से निदेशक नेताजी सुभाष नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ स्पोर्ट, पटियाला, प्राचार्य एलएनसीपीई और एएफआई सचिव सीके वॉल्सन को पत्र प्रेषित किये थे। अंकित का कहना है कि यदि उसे एएफआई और सरकार से सपोर्ट नहीं मिला तो उसका खेल समय से पहले ही खत्म हो जायेगा। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को लम्बीकूद में शोहरत दिलाना चाहता है।
यह है भारतीय टीम
पुरुष- धरमबीर (200 मीटर दौड़), राजीव अरोक्या (400 मीटर दौड़), जे. जॉनसन (800 मीटर दौड़), जी. लक्ष्मनन (5000 मीटर दौड़), नवीन कुमार, जयवीर सिंह (3000 मीटर स्टिपल चेस) सिद्धांत थिनगल्या (110 मीटर हर्डल), दुर्गेश कुमार पाल (400 मीटर हर्डल), के. प्रेम कुमार (लम्बीकूद), इंदरजीत सिंह (गोला फेंक), विकास गौड़ा, अर्जुन (डिस्कस थ्रो), देवेन्द्र सिंह, नीरज चोपड़ा (जेवलिन थ्रो).
महिला- सर्बनी नंदा (100 व 200 मीटर दौड़), एमआर पूवम्मा (400 मीटर दौड़), टिण्टू लुका, एम. गोमती (800 मीटर दौड़), ललिता बाबर (3000 मीटर दौड़), जी. गायत्री, टी. दीपिका (100 मीटर हर्डल),अनू राघवन (400 मीटर हर्डल), वी. सुरेखा (पोलवाल्ट 27 मई को ट्रायल),  मयूखा जॉनी (लम्बी कूद), नवजीत कौर ढिल्लन (डिस्कस थ्रो), सुमन देवी (जेवलिन थ्रो), अन्नू रानी (जेवलिन थ्रो 27 मई को ट्रायल), पूर्णिमा हेम्बराम, लिफ्सी जोसेफ (हेप्टाथलान).
महिला और पुरुष रिले टीमों की ट्रायल 27 मई को होगी। 

Saturday 16 May 2015

मुक्केबाजों के अरमानों पर खेलनहारों का पंच

भारतीय ओलम्पिक संघ के अड़ियल रवैये से बॉक्सरों का भविष्य अंधकार में
श्रीप्रकाश शुक्ला
आगरा। भारतीय खेल मंत्रालय, भारतीय ओलम्पिक संघ और बॉक्सिंग इण्डिया के बीच चल रही नूरा-कुश्ती के चलते देश के उदीयमान मुक्केबाजों के भविष्य पर सवालिया निशान लग गया है। रसूख की इस लड़ाई में बॉक्सरों के अरमान चूर-चूर हो रहे हैं तो दूसरी तरफ देश के खेलनहारों की करतूतों से मुल्क लजा रहा है।
एक तरफ भारत सरकार भारतीय खेल प्राधिकरण के साथ मिलकर रियो ओलम्पिक में अधिक से अधिक पदक जीतने की सम्भावनाओें को टटोल रहा है तो दूसरी तरफ हमारे बॉक्सर भारतीय ओलम्पिक संघ के अड़ियल रवैये के चलते प्रतियोगिताओं में शिरकत करने से वंचित हो रहे हैं। तीन मई को भारतीय मुक्केबाजी में जो भूचाल आया उससे बॉक्सर सहम गये हैं। बॉक्सिंग इण्डिया के अध्यक्ष संदीप जाजोदिया के खिलाफ विशेष आम सभा में भारी बहुमत से अविश्वास प्रस्ताव पास होने के बाद इस खेल पर ही संकट के बादल मंडराने लगे हैं। बॉक्सिंग इण्डिया के अध्यक्ष जाजोदिया ने जहां इस कदम को गैरकानूनी करार दिया वहीं महासचिव जय कोहली ने किसी पचडेÞ में पड़ने की बजाय अपने पद से ही इस्तीफा दे दिया। बॉक्सिंग इण्डिया के साथ भारतीय खेल मंत्रालय तो है लेकिन भारतीय ओलम्पिक संघ उससे छत्तीस का आंकड़ा रखता है। पदलोलुपता की इस लड़ाई के चलते ही भारतीय बॉक्सर केरल में हुए राष्ट्रीय खेलों में शिरकत करने से वंचित रह गये।
राष्ट्रीय खेलों की जहां तक बात है वे भारतीय ओलम्पिक संघ की रहनुमाई में ही होते हैं। खेलप्रेमियों को यह जानकर ताज्जुब होगा कि भारत सरकार हर साल खेलों के विकास में अरबों रुपया खर्च करने के बाद भी भारतीय ओलम्पिक संघ के सामने असहाय है। भारतीय ओलम्पिक संघ बॉक्सिंग इण्डिया की जगह  एआईबीए द्वारा बर्खास्त आईएबीएफ को मान्यता जारी रखकर बॉक्सिंग का सत्यानाश करने पर आमादा है। भारतीय ओलम्पिक संघ  के अध्यक्ष एन. रामचंद्रन की आसंदी भी खतरे में है लेकिन वह जाने से पहले भारतीय खेलों पर बट्टा लगाने का कोई मौका जाया नहीं करना चाहते। आईओए के फैसले से अजीब स्थिति पैदा हो गयी है, जिसमें मुक्केबाजी की एक इकाई को अंतरराष्ट्रीय महासंघ स्वीकृति देता है तो दूसरी इकाई को देश का ओलम्पिक संघ मान्यता देता है। देखा जाये तो दिसम्बर 2012 में आईएबीएफ के निलम्बन के बाद से ही भारतीय मुक्केबाजी संकट में है। यह संकट खिलाड़ियों की हसरतों पर ही असर डाल रहा है। बॉक्सिंग इंडिया और भारतीय ओलम्पिक संघ के बीच चल रही लड़ाई से देश के जांबाज बॉक्सर आहत हैं। ओलम्पिक और विश्व चैम्पियनशिप के कांस्य पदक विजेता विजेन्द्र सिंह, ओलम्पिक पदक विजेता मैरी कॉम, कॉमनवेल्थ गेम्स के स्वर्ण पदक विजेता मनोज कुमार, कॉमनवेल्थ गेम्स की कांस्य पदक विजेता महिला मुक्केबाज पिंकी जांगड़ा, अंतरराष्ट्रीय बॉक्सर पूजा बोहरा आदि शीर्ष मुक्केबाजों को राष्ट्रीय खेलों में न खेल पाने का बेहद मलाल है।
हम बॉक्सरों का दोष क्या है: पूजा रानी
भिवानी (हरियाणा) की अंतरराष्ट्रीय बॉक्सर पूजा रानी ने पुष्प सवेरा से बातचीत में कहा कि  बॉक्सिंग को लेकर जो भी हो रहा है वह देश के मुक्केबाजों के लिए अच्छा संकेत नहीं है। हम लोग दिन-रात मेहनत करते हैं और राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में शिरकत करने का मौका न मिलने से मनोबल टूट जाता है। झारखण्ड में हुए राष्ट्रीय खेलों की स्वर्ण पदकधारी पूजा को केरल में हुए राष्ट्रीय खेलों में शिरकत न करने का बेहद मलाल है। दुनिया की 11वें नम्बर की इस बॉक्सर का कहना कि संगठनों की इस लड़ाई को जीतने के लिए देश के बॉक्सरों को एकजुट प्रयास करने होंगे। 75 किलोग्राम भारवर्ग में राष्ट्रीय स्तर पर छह स्वर्ण, दो रजत और एक कांस्य पदक जीतने वाली हरियाणा की इस जांबाज बॉक्सर का कहना है कि जब रियो ओलम्पिक में अब अधिक समय नहीं बचा, ऐसे समय संगठन की लड़ाई से खिलाड़ियों के मनोबल पर ही असर पड़ेगा। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दो रजत और तीन कांस्य पदक जीतने वाली पूजा का कहना है कि देश के उदीयमान मुक्केबाजों की समझ में ही नहीं आ रहा कि वे आखिर किस पर भरोसा करें। पूजा का मानना है कि संगठन ही नहीं खिलाड़ी भी बंटे हुए हैं। इससे खिलाड़ियों का न केवल नुकसान होगा बल्कि ओलम्पिक में भारतीय मुक्केबाजों की सहभागिता पर भी सवालिया निशान लग रहा है। पूजा का मानना है कि भारत सरकार को बॉक्सिंग रिंग में चल रही कुर्सी की जंग पर तत्काल रोक लगानी चाहिए वरना खिलाड़ी असमय ही ग्लब्स उतारने को मजबूर हो जाएंगे।

Thursday 14 May 2015

दोस्ती की शर्तों पर क्रिकेट

इन दिनों देश की अधिकांश आवाम जहां आधी रात तक इण्डियन प्रीमियर लीग के बहाने देश-दुनिया के जांबाज खिलाड़ियों का नायाब प्रदर्शन देख रही है वहीं दूसरी तरफ हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान क्रिकेट की पिच पर भारत से दोस्ती की मनुहार कर रहा है। भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट की जहां तक बात है राजनीतिक कारणों से इन दोनों मुल्कों के बीच 2008 के मुम्बई आतंकी हमलों के बाद कोई भी पूर्ण द्विपक्षीय सीरीज नहीं खेली गई। अपवाद स्वरूप दिसम्बर 2012 में भारत में तीन एकदिनी और दो टी-20 मैचों से इतर दोनों मुल्क केवल आईसीसी की प्रतियोगिताओं या एशिया कप में ही एक-दूसरे से दो-दो हाथ कर सके हैं। हाल ही भारत आये पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष शहरयार खान की मिन्नतों के बाद मोदी सरकार ने इस बात के संकेत दिए हैं कि भारत क्रिकेट तो खेलेगा लेकिन अपनी शर्तोें पर। क्रिकेट में इसे भारत की कूटनीतिक फतह माना जा रहा है।
देश-दुनिया में कुछ बातें, कुछ यादें और कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो न केवल रोमांच की इन्तिहा पार करती हैं बल्कि खेलप्रेमी उन्हें बार-बार देखना और सुनना पसंद करते हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच खेली जाने वाली क्रिकेट भी उन्हीं में से एक है। क्रिकेट ही क्यों इन दोनों देशों के बीच खेलों का हर फलसफा खास होता है। जो जोश और जुनून भारत-पाकिस्तान के बीच मुकाबलों में देखने को मिलता है, उसकी दूसरी मिसाल कहीं और देखने को नहीं मिलती। क्रिकेट में तो भारत और पाकिस्तान का एक-दूसरे को हरा देना ही दुनिया फतह करने के बराबर माना जाता है। जीत की खुशी और हार का गम सरहदों के भीतर ही नहीं उसके बाहर भी दुनिया ने एक नहीं अनेकों बार महसूस किया है। कुछ इस तरह मानो जीते तो सब कुछ पा लिया और हारे तो सब कुछ गंवा दिया। क्रिकेट में भारत-पाकिस्तान के बीच खेलभावना की जगह उन्माद हावी हो जाता है। यह उन्माद मैदान ही नहीं मैदान के बाहर भी कई बार महसूस किया गया। इस उन्माद में भी आनंद का अतिरेक हिलोरें मारता दिखता है।
आजादी के बाद से ही भारत-पाकिस्तान के बीच कूटनीतिक सम्बन्ध बनते-बिगड़ते रहे। युद्ध हुए, सरहदों पर गोली चली लेकिन इन कड़वाहटों के बावजूद क्रिकेट खेली जाती रही। सच कहें तो दोनों मुल्कों के बीच क्रिकेट ही हमेशा दोस्ती का पैगाम साबित हुई है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड आज दुनिया की सबसे मालदार खेल संस्था है। टीम इण्डिया का प्रदर्शन कैसा भी रहे, इस खेल तंत्र पर भारत का ही सिक्का चलता है। भारत और पाकिस्तान के बीच राजनीतिक रिश्तों से हमारी क्रिकेट पर बेशक कोई असर न पड़ा हो पर पाकिस्तान तबाह हो चुका है। इसी तबाही की भरपाई की खातिर शहरयार खान भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के आलाधिकारियों और मोदी सरकार से मान-मनुहार करने भारत आये। बीते आठ साल पाकिस्तानी क्रिकेट के लिए न बिसरने वाला लम्हा बन गये। भारत ही नहीं पाकिस्तान की खराब आंतरिक स्थिति को देखते हुए दुनिया के दीगर देशों ने भी उससे न खेलने की कसम खाकर खासा सदमा पहुंचाया है।
चार दिन की भारत यात्रा पर आये पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष शहरयार खान ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष जगमोहन डालमिया से कोलकाता में न केवल मुलाकात की बल्कि भारत की हर शर्त मानने का भरोसा भी दिया। शहरयार ने यहां तक कहा कि पाकिस्तान खुद की सरजमीं में नहीं बल्कि संयुक्तअरब अमीरात में भारत की मेजबानी को तैयार है। उन्होंने दिसम्बर में दोनों देशों के बीच क्रिकेट सीरीज आयोजित करने की बात कही जबकि जगमोहन डालमिया चाहते हैं कि पाकिस्तानी टीम भारत आकर दो-दो हाथ करे। डालमिया की इस सोच के पीछे भारतीय क्रिकेट को आर्थिक मजबूती देना है। भारत-पाकिस्तान के बीच सम्भावित क्रिकेट सीरीज को लेकर क्रिकेट मुरीद तो खुश हैं लेकिन कमल दल के कुछ लोग नहीं चाहते कि विश्वासघाती पाकिस्तान को क्रिकेट के बहाने ऐसी मोहलत दी जाये जिससे कि आतंकी भारत में पुन: प्रवेश करें। वर्तमान हालातों के देखते हुए यह चिन्ता जायज भी है। पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति असंतोषजनक है तो अतीत में जिन विषधरों को उसने भारत के लिए पनाह दिया था वही आज उसे डंस रहे हैं।
पूर्व केन्द्रीय गृह सचिव और भाजपा सांसद आरके सिंह ने लोकसभा में शून्यकाल में यह मामला उठाते हुए कहा कि ऐसे समय जब आतंकवादी सरगना हाफिज सईद पाकिस्तान में आजाद घूम रहा है और एक अन्य आतंकवादी जकी उर रहमान लखवी को फिर से जमानत दे दी गयी है, सरकार को क्रिकेट आयोजन सम्बन्धी फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए। आरके सिंह ने साफ-साफ कहा कि जो बार-बार धोखा देने का आदी हो, उससे क्रिकेट खेलने का क्या मतलब। भारत-पाकिस्तान क्रिकेट को सत्तापक्ष के कुछ सांसद ही नहीं विपक्षी सांसद भी संदेह की नजर से देख रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि क्रिकेट और आतंकवाद के समाधान को एक चश्मे से देखने वाले नेता हर दल में हैं। सांसदों की नाराजगी जायज भी है, आखिर पाकिस्तान में उन लोगों को पनाह क्यों दी गई जिन्होंने भारत में खून की होली खेली है। यह भी सच है कि भारत में हुई आतंकवादी वारदातें पाकिस्तानी राजनीति, सैन्य तानाशाही और कट्टरपंथियों की कुत्सित चालों का नतीजा है, इसके लिए वहां की आम जनता जिम्मेदार नहीं है।
मौजूदा हालातों में यदि पाकिस्तानी आवाम की राय ली जाए तो वह भी आतंकवाद का समूल खात्मा ही चाहेगी। आखिर वह भी तो आतंकवाद से कम पीड़ित नहीं है। पिछले छह माह में पाकिस्तान में आतंकवादियों की करतूतों से तो इसी बात के संकेत मिलते हैं कि वहां की आम जनता भी आतंकवाद का दंश भुगत रही है। भारत की जहां तक बात है उसने पाकिस्तान से पूरी तरह से सम्बन्ध कभी खत्म नहीं किए, चाहे जितनी ही कड़वाहट क्यों न रही हो। कला, संस्कृति, मनोरंजन, खेल, व्यापार और सामाजिक कल्याण के कार्यों से आपसी सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आती है। हो सकता है कि भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट से दोनों देशों की आवाम एक-दूसरे के और नजदीक आ जाये पर दोनों मुल्कों के राजनीतिक पूर्वाग्रह टूटेंंगे, इसकी बहुत कम सम्भावना है। 

Saturday 9 May 2015

खिलाड़ियों के उत्पीड़न की इन्तिहा

केरल के अलाप्पुझा जिले के वेम्बानाड लेक स्थित भारतीय खेल प्राधिकरण सेण्टर में प्रशिक्षकों और सीनियर खिलाड़ियों से आजिज चार बालिका खिलाड़ियों के जहर खाकर जान देने के मामले का स्याह सच तो जांच के बाद पता चलेगा पर जो भी हुआ उससे खेल की दुनिया में भारत की जरूर किरकिरी हुई है। भारत में महिला खिलाड़ियों के उत्पीड़न और यौन शोषण के लगातार बढ़ते मामले यह साबित करते हैं कि यहां सारी की सारी खेल गंगोत्री गलत हाथों में है। एक तरफ भारत सरकार रियो ओलम्पिक में अधिकाधिक पदक जीतने की लालसा पाले है तो दूसरी तरफ उसका समूचा खेल परिदृश्य प्रशिक्षकों की काली करतूतों से लगी आग में धू-धू कर जल रहा है। इस आग में भारतीय बेटियों के अरमान जल रहे हैं तो दूसरी तरफ बेशर्म प्रशिक्षक जोश में होश खो रहे हैं।
भारत में गुरु-शिष्य परम्परा के पवित्र रिश्ते पर बुरी नजर डालकर चूल्लू भर पानी में डूब मरने का काम एक-दो लोगों तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें मुल्क के हजारों गुरु-घण्टाल शामिल हैं। खेलों में खिलवाड़ का यह पहला मामला होता तो यह माना जाता कि बेटियां बेवजह प्रशिक्षकों को बदनाम कर रही हैं, इससे पहले भी महिला खिलाड़ियों के उत्पीड़न के दर्जनों मामले सामने आये, पर वही चोर वही पहरुआ की तर्ज पर हर मामले को रफा-दफा कर दिया गया। पांच साल पहले हॉकी खिलाड़ी टी. रंजीता देवी ने अपने कोच महाराज किशन कौशिक तो मध्यप्रदेश की महिला बॉस्केटबाल प्रशिक्षक माधवी शर्मा ने संयुक्त संचालक खेल विनोद प्रधान पर कुदृष्टि डालने का आरोप लगाया था, पर जांच के नाम पर न केवल लीपापोती हुई बल्कि गुनाहगारों को ही क्लीन चिट दे गई। देश में महिला खिलाड़ियों के उत्पीड़न की जहां तक बात है सिडनी ओलम्पिक खेलों की कांस्य पदक विजेता भारोत्तोलक कर्णम मल्लेश्वरी, पूर्व भारतीय हॉकी गोलकीपर हैलेन मैरी, पूर्व भारतीय महिला हॉकी कप्तान सुरिन्दर कौर, जसजीत कौर सहित दर्जनों भारतीय महिला खिलाड़ियों का साफ-साफ कहना है कि बेटियों पर प्रशिक्षक न केवल कुदृष्टि डालते हैं बल्कि उनका दैहिक शोषण किया जाता है।
भारतीय खेलों में प्रशिक्षकों और खेलनहारों की हैवानियत के एक-दो नहीं हजारों ऐसे मामले हैं जिन पर पूर्व में ही यदि कठोर कार्रवाई हुई होती तो शायद केरल की जलपरियों के साथ जो हुआ वैसा नहीं होता। सच्चाई तो यह है कि खिलाड़ी बेटियों के साथ दुराचार भारतीय खेल परिदृश्य का हिस्सा बन चुका है। यह घिनौना कृत्य अमूमन हर खेल में अपनी जड़ें गहरे जमा चुका है। चौंकाने वाली बात तो यह है कि यह विषबेल शहरी मैदानों से निकल कर अब गांव-गलियों के मैदानों तक जा पहुंची है। देखा जाये तो मुल्क के अधिकांश क्रीड़ांगनों में बेटियां प्रशिक्षकों और खेल अधिकारियों की हैवानियत का शिकार हो रही हैं। यह बात अलग है कि कुछ खिलाड़ी बेटियां ही अपने  गुरु-घण्टालों को सबक सिखाने की हिम्मत जुटा पाती हैं। भारतीय खेलों से हबस रूपी गंदगी दूर करने व बार-बार अग्नि-परीक्षा देती बेटियों को इंसाफ दिलाने में भारतीय ओलम्पिक संघ ही नहीं भारत सरकार भी असहाय है। भारतीय ओलम्पिक संघ असहाय हो भी क्यों न जब उसके ही जवाबदेह पदाधिकारी पर ग्लासगो राष्ट्रमण्डल खेलों में रंगरेलियां मनाने का आरोप लगा तो मामले को ऐसे रफा-दफा किया गया मानों वह वाकई दूध का धुला है। खेलों में बेटियों के साथ होती हैवानियत की वारदातों पर अंकुश लगाने के बजाय ऐसे मामलों में जांच समितियां गठित कर इतिश्री कर दी जाती है। जांच समितियां इंसाफ तो नहीं दिला पातीं अलबत्ता खेल बेटियां असमय खेल मैदान छोड़कर घर में घुट-घुट कर मरने को मजबूर जरूर हो जाती हैं। बात भारतीय खेल प्राधिकरण की करें तो इनमें ग्रामीण प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को प्रवेश तो मिल जाता है लेकिन लाख मशक्कत के बावजूद भी वे अपने ऊपर होते जुल्म-ज्यादती के खिलाफ मुंह तक नहीं खोल पातीं। देखा जाये तो भारत सरकार देश में खेलों की सेहत सुधारने के नाम पर प्रतिवर्ष अरबों रुपया पानी की तरह बहा रही है। बड़े-बड़े खेल संस्थान प्रशिक्षक और खिलाड़ी तैयार कर रहे हैं लेकिन सब दूर सांस्कारिक दोष व्याप्त है। यही वजह है कि खेलों में मादरेवतन को गौरव दिलाती बेटियां मैदानों में महफूज नहीं हैं।
खेलों में दुराचार के मामलों में हर बार बेटियों को ही अग्नि-परीक्षा देनी पड़ती है। दुर्भाग्य और दुखद बात तो यह है कि ऐसे मसलों पर बेटियों को न्याय दिलाने के मामलों में महिला खेलनहारों को भी सांप सूंघ जाता है और वे अपनी आसंदी की खातिर दुष्ट कामांधों को बचाने की पुरजोर कोशिश करती हैं। खिलाड़ी बेटियों के दैहिक शोषण में सिर्फ गुरु-घण्टाल ही नहीं बल्कि भारतीय ओलम्पिक संघ के पदाधिकारी, भारतीय खेल प्राधिकरण से जुड़े खेलनहार और खेलों में दखल देने वाले राजनीतिज्ञ भी शामिल हैं। केरल स्थित भारतीय खेल प्राधिकरण सेण्टर में चार उभरती खिलाड़ियों द्वारा आत्महत्या का प्रयास और एक खिलाड़ी का असमय काल के गाल में समा जाना दिल दहलाने वाला वाक्या है। इन चार नाबालिग लड़कियों ने जहरीला फल खाकर अपनी जिन्दगी खत्म करने का फैसला अनायास नहीं लिया होगा। उनके साथ लगातार ऐसा गलत जरूर हुआ होगा जोकि बर्दाश्त से बाहर हो गया। काश जो कवायद अब हो रही है उस पर पहले से ही सजगता बरती गई होती तो शायद एक प्रतिभाशाली खिलाड़ी मौत को गले नहीं लगाती। इस दिल दहलाने वाले वाक्ये से नि:संदेह उन बेटियों में जरूर गलत संदेश गया होगा जोकि खेलों को अपना करियर और मुल्क का गौरव बढ़ाने का माध्यम समझकर मैदान में उतरने की सोच रही होंगी। अपर्णा की मौत ने जो सवाल छोड़े हैं, उनका निदान जांच समितियां गठित करने भर से नहीं होगा। महिला उत्पीड़न से इतर भारतीय खेल प्राधिकरण के सेण्टरों में क्या-क्या गुल खिलाये जाते हैं, यह सर्वविदित है। अपर्णा की मौत और तीन अन्य खिलाड़ियों का जीवन-मौत से जूझना मामूली बात नहीं है। केन्द्रीय खेल मंत्री सर्बानंद सोनोवाल हों या फिर केरल के खेल मंत्री तिरुवंचूर राधाकृष्णन उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि एक सुशिक्षित राज्य केरल में घटित हुए इस वाक्ये की जांच में हमेशा की तरह यदि लीपापोती हुई तो सच मानिए देश अपनी बेटियों के खेल कौशल को देखने के लिए हमेशा-हमेशा के लिए वंचित हो जाएगा।
(लेखक पुष्प सवेरा के समाचार संपादक हैं)