आखिर कब तक हम पराए पूतों के यश पर छाती चौड़ी करके घूमेंगें
हर साल बड़ी-बड़ी घोषणाएं। इस बार के राष्ट्रीय खेलों में मध्यप्रदेश छठे स्थान पर आया तो होर्डिंग्स टंग गए। अखबारों में फोटो छपे। मुख्यमंत्री के साथ खिलाड़ी भी सामने आए। पता चला कि मध्यप्रदेश के लिए पदक जीतने वाले तो ज्यादातर बाहरी खिलाड़ी हैं। मध्यप्रदेश के हैं ही नहीं। तो मध्यप्रदेश सरकार उन पर क्यों इठला रही है। अब सवाल उठ रहे हैं कि खेल अकादमियों पर हर साल खर्च हो रहे सवा सौ करोड़ कहां जा रहे हैं?
भोपाल (डीएनएन)। खेलों के प्रति मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का समर्पण, 125 करोड़ से अधिक का सालाना बजट, डेढ़ दर्जन अकादमियां, इन अकादमियों में सालभर प्रशिक्षण और लंबे-चौड़े दावों के बाद भी मप्र खेलों में दूसरे राज्यों के दम पर अपनी शान बघार रहा है। ऐसा भी नहीं है कि प्रदेश में खेल प्रतिभाओं की कमी है, लेकिन खेलों के संवर्धन के नाम पर बड़े-बड़े ओहदेदार जिस तरह से खिलवाड़ कर रहे हैं उससे प्रखङ्मु_10144 (1)देश की प्रतिभाएं खेल मैदानों तक पहुंचने से पहले ही व्यवस्था से परास्त हो रही हैं। आलम यह है कि हमें राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में दूसरे राज्यों के खिलाडिय़ों का सहारा लेना पड़ रहा है। इससे न केवल प्रदेश की किरकिरी हो रही है, बल्कि यहां के खिलाडिय़ों को हतोत्साहित किया जा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कब तक हम पराए पूतों के यश पर अपनी छाती चौड़ी करके घूमेंगे।
उल्लेखनीय है कि मप्र में खेलों के विस्तार और उत्थान के लिए खेल और युवक कल्याण विभाग द्वारा राज्य में खेल गतिविधियों का संचालन किया जा रहा है। कथित तौर पर विभाग का यह प्रयास रहता है कि वित्तीय व प्रशासनिक संसाधनों का समुचित उपयोग कर राज्य के खिलाडिय़ों एवं युवाओं को उनसे संबंधित गतिविधियों में अधिकाधिक सहयोग एवं सुविधाएं उपलब्ध कराएं। इसी दृष्टि से विभिन्न खेल अकादमियां, नेशनल सेलिंग स्कूल, ग्रामीण युवा केन्द्रों की स्थापना, आदिवासी ग्रामीण युवा केंद्रों का सुदृढ़ीकरण, रोजगारोन्मुखी प्रशिक्षण कार्यक्रम के वीएलसीसी अकादमियों का संचालन किया जा रहा है। इसके लिए सालाना करीब 125 करोड़ का बजट मुहैया कराया जाता है। लेकिन विसंगति यह है कि इतनी बड़ी राशि स्वाहा करने के बाद भी हम कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने लायक एक खिलाड़ी तैयार नहीं कर पाए हैं। अभी हाल ही में संपन्न हुए 35वें नेशनल गेम्स में 91 पदकों के साथ मप्र जब छठे स्थान पर आया तो खेल विभाग के साथ ही सरकार ने भी इसके लिए अपनी पीठ खूब थपथपाई। राजधानी भोपाल सहित प्रदेशभर में होर्डिंग्स लगाकर उपलब्धियां गिनाई गईं। जबकि हकीकत यह है कि 91 पदकों में से 41 पदक तो दूसरे राज्यों के खिलाडिय़ों ने जीते हैं। पदकों के आंकड़ों को परोसकर भले ही खेल और युवक कल्याण विभाग या राज्य सरकार वाह-वाही लूट रही है, लेकिन प्रदेश के खिलाड़ी और खेल प्रेमी शर्मिंदगी महसूस कर रहे हैं। उनका सवाल है कि आखिर सवा अरब का बजट कहां खपाया जा रहा है। यही नहीं ग्लासगो में संपन्न हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में 225 सदस्यीय भारतीय एथलीटों की टीम में प्रदेश की एक एथलीट को ही जगह मिल सकी।
आंकड़ों के साथ बड़े-बड़े दावे
प्रदेश में खेलों के विस्तार और उत्थान के लिए खेल और युवक कल्याण विभाग द्वारा बड़े-बड़े दावे किए जाते रहे हैं। इसके लिए राज्य शासन द्वारा ग्वालियर में प्रथम राज्य स्तरीय महिला हॉकी एकेडमी की स्थापना जुलाई 2006 में की, इसके अतिरिक्त भोपाल में वर्ष 2007 से 5 खेल अकादमियां संचालित की जा रही है, जिसमें 13 खेलों का प्रशिक्षक दिया जा रहा है। पुरुष हॉकी अकादमी, शूटिंग अकादमी, घुड़सवारी अकादमी, मार्शल आर्ट अकादमी के अन्तर्गत 7 खेल यथा जूडो, कराते, ताइक्वांडो, बॉक्सिंग, कश्ती, फैसिंग एवं वूशु, वाटर स्पोट्र्स अकादमी के अन्तर्गत रोइंग, सेलिंग एवं कैनोइंग-क्याकिंग इसके अतिरिक्त वर्ष 2008 में ग्वालियर में पुरुष क्रिकेट एवं 2010 में बैडमिंटन अकादमी स्थापित है। जबलपुर में वर्ष 2013 से तीरंदाजी अकादमी संचालित की जा रही है एवं तीरंदाजी खेल के फीडर सेंटर भोपाल, मंडला एवं झाबुआ में संचालित है। इन अकादमियों में निरंतर प्रशिक्षण चलता रहता है। इसी प्रशिक्षण और आंकड़ों के दम पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान यह कहते नहीं थक रहे हैं कि आगामी ओलंपिक में मप्र के खिलाड़ी पदक जीतकर देश का नाम रोशन करेंगे। लेकिन शायद वह इस हकीकत से अनभिज्ञ हैं कि झारखंड में हुए पिछले राष्ट्रीय खेलों में मिले 103 पदकों की अपेक्षा केरल में हुए 35वें नेशनल गेम्स में 12 कम पदक यानी 91 पदक ही मध्यप्रदेश को मिले हैं।
पिछले खेलों की ही तरह मध्य प्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग ने झूठी शान की खातिर अपने खिलाडिय़ों से परहेज करते हुए आयातित खिलाडिय़ों पर अधिक भरोसा किया। बावजूद इसके प्रदेश को 23 स्वर्ण, 26 रजत और 42 कांस्य सहित कुल 91 पदक ही हासिल हुए। घटते पदकों पर खेलों के आका इन खेलों में कराते के शामिल न होने का बहाना बना सकते हैं। जो भी हो खुशी के इस अवसर पर मध्यप्रदेश के विजेता खिलाडिय़ों ही नहीं प्रदेश से बाहर के खिलाडिय़ों संदीप सेजवाल, रिचा मिश्रा, आरोन एंजिल डिसूजा, नैनो देवी, सोनिया देवी और पश्चिम बंगाल की उदीयमान जिमनास्ट प्रणति नायक जैसे 40 खिलाडिय़ों को भी बधाई। वे नहीं होते तो मध्यप्रदेश के पदकों की संख्या 50 भी नहीं होती। प्रदेश सरकार उन्मादित है, पर वे बताएं कि राष्ट्रीय खेलों में प्रदेश का नाम रोशन करने वाले इन खिलाडिय़ों से क्या हासिल हुआ?
बंगाल के तीन एथलीट मप्र टीम में
मध्यप्रदेश से जुडऩे वाली प्रणति अकेली एथलीट नहीं हैं। प्रणति की साथ जिमनास्ट अंकिता और दिग्गज एथलीट मल्लिका भी मध्यप्रदेश की ओर से केरल नेशनल गेम्स में शामिल हुईं। खिलाडिय़ों के अनुसार बंगाल में जमकर राजनीति चल रही है और प्रतिभा को नजरअंदाज किया जा रहा है। वहीं बंगाल एसोसिएशन के शंकर चौधरी कहते हैं कि इन खिलाडिय़ों ने राज्य के साथ गद्दारी की है। प्रणति के मना करने के बाद ही हमने उन्हें टीम में शामिल नहीं किया। चौधरी कहते है कि मप्र ने इन बाहरी खिलाडिय़ों को अपनी तरफ से खिलाकर अपने खिलाडिय़ों का अधिकार छिना है। वह कहते हैं की मप्र में प्रतिभावान खिलाडिय़ों की कमी नहीं है।
बाहरी खिलाडिय़ों पर बरसेगा धन
झारखंड की अपेक्षा केरल नेशनल गेम्स में कम पदक जीतने के बाद भी प्रदेश में खेलों और खिलाडिय़ों से खिलवाड़ करने वाले अधिकारी अब अपनी शेखी बघारने के लिए केरल नेशनल गेम्स के पदक विजेता खिलाडिय़ों को पुरस्कृत करने का स्वांग रचाने की तैयारी में जुट गए हैं। उन्हें करीब साढ़े तीन करोड़ रुपए इनाम के रूप में बांटे जाएंगे। इसमें सबसे ज्यादा राशि तैराकी के उन खिलाडिय़ों को मिलेगी जो बाहर के हैं लेकिन मप्र के लिए खेले हैं। इनमें दिल्ली की रिचा मिश्रा, संदीप सेजवाल, आरोन डिसूजा और प. बंगाल की प्रणति नायक सहित कई स्टार खिलाड़ी शािमल हैं। मध्यप्रदेश ने 14 फरवरी को केरल में संपन्न हुए 35 वें नेशनल गेम्स में 23 स्वर्ण, 27 रजत और 41 कांस्य सहित कुल 91 पदक जीते हैं। प्रदेश की खेल नीति के अनुसार नेशनल गेम्स के व्यक्तिगत स्वर्ण विजेता को चार लाख, रजत विजेता को 3.20 और कांस्य विजेता को 2.40 लाख रुपए देने का प्रावधान है। टीम इवेंट में यह राशि 2.00, 1.60 और 1.20 लाख रुपए के हिसाब से दी जाती है। इस हिसाब से 91 पदकों पर कुल 3.26 करोड़ रुपए होते हैं। स्टार तैराक रिचा मिश्रा को सबसे ज्यादा 24 लाख रुपए मिलेंगे। उन्होंने चार स्वर्ण, एक रजत और दो कांस्य जीते हैं। सारे पदक व्यक्तिगत स्पर्धाओं में ही जीते हैं। इसलिए उन्हें इनामी राशि किसी से बांटनी नहीं पड़ेगी। संदीप सेजवाल दूसरे नंबर पर रहेंगे। उन्हें इस बार 15.20 लाख रुपए मिलेंगे। उन्होंने तीन स्वर्ण एक कांस्य व्यक्तिगत और एक स्वर्ण एक कांस्य टीम इवेंट में जीता है। वहीं आरोन डिसूजा को भी लगभग इतनी ही राशि मिलेगी। जानकार बताते हैं कि मध्य प्रदेश में खेलोत्थान की कोशिशों को खेल विभाग के कारिंदों से काफी नुकसान हुआ है। सरकार ने बेशक हॉकी और वॉटर स्पोट्र्स पर कई करोड़ खर्च किए हों पर राष्ट्रीय खेलों में प्रदेश की हॉकी टीमें नहीं खेलीं। पिछले खेलों की कांस्य पदक विजेता महिला टीम से इस बार स्वर्ण पदक की उम्मीद थी, पर कोच साहब की करतूतों ने उम्मीदों पर पानी फेर दिया। प्रदेश के खिलाडिय़ों ने जो 50 पदक जीते हैं, उनमें ऐसे खिलाड़ी भी हैं जिन्होंने प्रदेश सरकार की बिना मदद राज्य का गौरव बढ़ाया है।
बाहरी खिलाडिय़ों को लेकर विवाद
उधर नेशनल गेम्स में तैराकी और जिम्नास्टिक में कुछ बाहरी खिलाडिय़ों को खिलाए जाने का मुद्दा गरमाने लगा है। दरअसल, नेशनल गेम्स संयोग से बाहरी खिलाडिय़ों ने ज्यादा पदक जीते हैं। इसलिए इनामी राशि भी सबसे ज्यादा उन्हीं के हिस्से में जाएगी। यही बात प्रदेश के कई खेल संगठनों को अखर रही है। भोपाल जिला ओलिंपिक एसोसिएशन के सचिव दीपक गौड़ ने खेल एवं युवा कल्याण विभाग में अपनी शिकायत दर्ज कराई है आरटीआई लगाकर यह जानकारी मांगी है कि तैराकी में जो 10 स्वर्ण, तीन रजत और सात कांस्य पदक जीते हैं, वो खिलाड़ी मप्र के किस जिले के हैं, जिसका अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है। वहीं बाहरी खिलाडिय़ों को लेकर प्रदेश के कुछ खेल संगठनों और खिलाडिय़ों की आपत्ति के बाद खेल एवं युवक कल्याण विभाग उन्हें मनाने में जुट गया है। कांग्रेस विधायक अजय सिंह का कहना है कि खेल और खिलाडिय़ों को बढ़ावा देने के मुख्यमंत्री के दावे विज्ञापनों और होर्डिंग्स तक सीमित हैं। वह कहते हैं कि मुख्यमंत्री की यह पोल 2011 में स्पेशल ओलंपिक एथेंस में दो कांस्य पदक हासिल करने वाली सीता ने खोल दी थी। सिंह कहते हैं कि देश के बाहर के खिलाडिय़ों के लिए शिवराज सिंह चौहान अब्दुल्ला जैसे दीवाने हो जाते है लेकिन अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्पर्धाओं में प्रदेश के खिलाडिय़ों को जीतने पर पुरस्कृत करने की अपनी ही घोषणा को भूल जाते है। खेलों का विकास और खिलाडिय़ों को प्रोत्साहन देने की बात कितनी झूठी है और सिर्फ होर्डिंग्स तक सीमित है। सीता ने गोलगप्पे बेचकर यह बता दिया कि भाजपा सरकार कितनी ढोंगी है। उन्होंने कहा कि सीता अंतरराष्ट्रीय मैदान एथेंस में तो पदक जीत जाती है लेकिन अपने ही प्रदेश में भाजपा सरकार से हारकर गोल गप्पे बेचने को मजबूर हो जाती है। ऐसे कई खिलाड़ी हैं जिन्होंने प्रदेश का नाम रोशन किया है, लेकिन सरकार घोषणा करके उन्हें पुरस्कृत करना भूल गई है।
निष्पक्ष जांच होनी चाहिए
अजय सिंह खेल विभाग में एक बड़ा भ्रष्टाचार उजागर करते हुए कहते हैं कि पिछले वर्ष खेल विभाग में होडिंग्स, फ्लेक्स एवं अन्य खरीद में अरबों रुपए का घोटाला हुआ है, जिसकी निष्पक्ष जांच होना चाहिए। अजय ने एक बयान में यह खुलासा करते हुए आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं उनके मंत्री अभियान और यात्राओं में जुटे हैं, उनका ध्यान शासन-प्रशासन पर नहीं होने और सेवा शुल्क निरंतर मिलते रहने तथा उनकी बेखबरी से विभागों में सरकारी पैसा लूटकर जेब भरने का अभियान जोरशोर से चल रहा है। उन्होंने कहा कि वर्ष 2010 में विभिन्न कार्यों की जो दरें खेल विभाग ने मंजूर कीं, उन्हीं कामों में वर्ष 2011 में जो दरें रहीं हैं, उनमें 19-20 का नहीं बल्कि 80-20 का अंतर आना आश्चर्यजनक है। होर्डिग्स की जो दर 189 रूपए प्रति वर्ग फुट थी वह वर्ष 2011 में भी बाजार में 74 रूपए प्रति वर्गफुट रही। इसी तरह वर्ष 2010 में फ्लैक्स डिजाइन के लिए नौ हजार रुपए का भुगतान हुआ, जिसकी बाजार दर वर्ष 2011 में 785 रुपए थी। लैक्स निर्माण में 47 रुपए वर्गफट का भुगतान वर्ष 2010 में हुआ, जबकि वर्ष 2011 में बाजार में यह दर 5.99 रुपए वर्ग फुट थी। वह कहते हैं कि इसी तरह हर साल खेल प्रतिभाओं को निखारने के लिए मिले फंड की बंदरबांट हो रही है।
कोई तो समझा दे 125 करोड़ का खेल!
प्रदेश के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि सवा सौ करोड़ का खेल बजट होने के बाद भी नेशनल गेम्स में बाहरी खिलाडिय़ों को खिलाया जा रहा है और राष्ट्रमंडल खेलों में एकमात्र खिलाड़ी ने मौजूदगी दर्ज कराई। डेढ़ दर्जन खेल अकादमियां सक्रिय होने के बाद भी खेलों में प्रदेश की स्थिति लापता जैसी है। प्रदेश सरकार ने पिछले वर्ष बजट में खेलों के लिए 125 करोड़ का प्रावधान किया था। इस राशि से प्रदेश के खेल व खिलाडियों का विकास होना था, लेकिन ग्लास्गो कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए जब 14 खेलों की भारतीय टीमों की घोषणा की गई तो उसमें मध्यप्रदेश से सिर्फ निशानेबाजी के डबल ट्रेप इवेंट में भोपाल की वर्षा बर्मन और भारतीय महिला कुश्ती टीम के कोच के रूप में इंदौर के कृपाशंकर पटेल ही ग्लासगो पहुंच सके।
प्रणति को लेकर नेशनल गेम्स में भी विवाद
केरल में संपन्न हुए 35वें नेशनल गेम्स के दौरान भी मध्यप्रदेश की ओर से हिस्सा लेने वाली जिमनास्ट प्रणति नायक के पदक जीतने को लेकर विवाद की स्थिति बनी थी। प्रणति को पहले अयोग्य घोषित कर उसके द्वारा जीता गया रजत पदक देने से मना कर दिया गया। लेकिन उसके बाद चले आरोप-प्रत्यारोप के बाद उन्हें पदक दे दिया गया। दरअसल कॉमनवेल्थ गेम्स, एशियन गेम्स और वल्र्ड चैंपियनशिप में देश का प्रतिनिधित्व कर चुकीं प्रणति मूल रूप से बंगाल की रहने वाली हैं और सात साल की उम्र से पश्चिम बंगाल स्थित साई सेंटर में पै्रक्टिस कर रही हैं। यहां तक कि बंगाल सरकार ने उन्हें इस साल राज्य के सर्वोच्च खेल सम्मान खेल रत्न से भी सम्मानित किया। इसके बावजूद नेशनल गेम्स के लिए चयन नहीं होने के बाद प्रणति ने मध्य प्रदेश का रुख कर लिया। वेस्ट बंगाल जिमनास्टिक एसोसिएशन (डब्लूबीजीए) शुरूआत में चुप रहा लेकिन जैसे ही प्रणति ने पदक जीता, एसोसिएशन ने उनकी भागीदारी पर आपत्ति उठा दी। इसके बाद गेम्स की तकनीकी समिति ने उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया। प्रणति ने बताया कि मध्य प्रदेश की ओर से खेलने के लिए जरूरी राज्य एसोसिएशन और जिमनास्टिक एसोसिएशन ऑफ इंडिया की एनओसी भी उनके पास है। हालांकि डब्लूबीजीए के शंकर चौधरी ने कहा कि उन्होंने प्रणति को किसी तरह की एनओसी नहीं दी है। उन्होंने कहा कि बंगाल में इस तरह की कई एसोसिएशन चल रही हैं लेकिन डब्लूबीजीए को ही केवल आईओए से मान्यता मिली हुई है।
क्या कर रही 17 खेल अकादमियां?
प्रदेश सरकार ने भोपाल में पुरूष हॉकी, कुश्ती, जूडो, ताइक्वांडो, कराते, फेंसिंग, बॉक्सिंग, केनोइंग-कयाकिंग, सेलिंग, निशानेबाजी, घुड़सवारी, वुशू, रोइंग व ग्वालियर में महिला हॉकी, बैडमिंटन, क्रिकेट (पुरूष) व जबलपुर में तीरंदाजी की अकादमी है। सभी में श्रेष्ठ खिलाड़ी प्रशिक्षण लेते हैं। रहने, खाने, ठहरने व पढ़ाई की व्यवस्था भी है। इन अकादमियों को शुरू हुए 6 वर्ष से ज्यादा हो चुके, पर परिणाम अच्छे नहीं मिल रहे। प्रदेश में कई ऐसे खिलाड़ी हैं जो इस खेल में प्रतिनिधित्व कर सकते थे। अंतरराष्ट्रीय निशानेबाज और अर्जुन अवॉर्डी राजकुमार राठौर, अमित पिलानिया और इंदौर की सुरभि पाठक, धार के बैडमिंटन खिलाड़ी सौरभ व समीर वर्मा, लंदन ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का हिस्सा रहे ग्वालियर के शिवेंद्र सिंह, बॉक्सिंग खिलाड़ी राहुल पासी और अंकित शर्मा जैसे खिलाडिय़ों को मौका दिया जा सकता था। मप्र के लिए सबसे दुख की बात तो यह रही कि जहां दिल्ली कामनवेल्थ गेम्स में मेजबान भारत ने 495 खिलाड़ी मैदान में उतारे थे, जिसमें से तीन खिलाड़ी मप्र के थे। लेकिन चार साल में यह संख्या बढऩे के बजाय घट गई। ग्लास्गो कामनवेल्थ गेम्स के लिए प्रदेश से एक मात्र खिलाड़ी वर्षा वर्मन (शूटिंग) ही क्वालिफाई कर पाईं। अगर इस संख्या को प्रतिशत में बदला जाए, तो करीब 64 प्रतिशत गिरावट आई है प्रदेश के खेलों में। दिल्ली कामनवेल्थ गेम्स में मप्र से लंबी कूद के खिलाड़ी अंकित शर्मा, 5000 मीटर दूरी के एथलीट संदीप बाथम और मनीराम पटेल ने भागीदारी की थी। लेकिन ग्लासगो में सिर्फ शूटर वर्षा वर्मन के अलावा किसी भी खेल से कोई खिलाड़ी मप्र से क्वालिफाई नहीं कर पाया। यही स्थिति ओलिंपिक में भी रहती है। 2004 ओलिंपिक में मप्र से एक भी खिलाड़ी क्वालीफाई नहीं कर पाया। बीजिंग में भी यही स्थिति बरकरार रही। 2012 लंदन ओलिंपिक में मप्र से हाकी खिलाड़ी शिवेंद्र सिंह ने भाग लेकर लाज बचा ली थी। हालांकि अंतर्राष्टीय खेल प्रतियोगिताओं में मप्र के खिलाडिय़ों की कम होती सं या के पीछे संयुक्त संचालक खेल एवं युवा कल्याण डा. विनोद प्रधान का तर्क है कि हमारे प्रदर्शन में गिरावट नहीं आई है। पिछले कामनवेल्थ गे स के तीन खेल इस बार हटा देने से यह स्थिति बनी। विभाग से जुड़े लोगों के अनुसार खेल बजट की राशि अकादमियों के संचालन में, नई अकादमियां स्थापित करने में, संभाग व जिलों में खेल सुविधा देने में, जो सुविधाएं हैं उनके संचालन में, नई आधारभूत सुविधाएं बनाने में, वर्षभर जिला, संभाग व राज्यस्तरीय प्रतियोगिता करवाने में, खिलाडियों को वार्षिक खेल छात्रवृत्ति देने में खर्च की जाती है। वार्षिक खेल पुरस्कारों (विक्रम, एकलव्य, विश्वामित्र) की राशि भी इसी बजट से दी जाती है।
नौकरी के लिए भटक रहे विक्रम अवार्डी
मुख्यमंत्री कहते फिरते हैं कि, खेलों में पैसे आड़े नहीं आएगा। खिलाड़ी मेहनत करें, खूब खेलें और पदक जीतें। बाकी मुझ पर छोड़ दें। खेलों में जितना भी बजट लगेगा प्रदेश सरकार तैयार है। लेकिन उनकी घोषण के इतर कई खिलाड़ी आज भी परेशान घूम रहे हैं लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। ऐसे ही प्रदेश के तीन स्टार खिलाड़ी लतिका भंडारी ताइक्वांडो, शानू महाजन तलवारबाजी और कुशल थापा कराते विक्रम अवॉर्ड पाने के बावजूद नौकरी के लिए भटक रहे हैं। इसमें लतिका और कुशल को वर्ष 2012 में तथा शानू महाजन को वर्ष 2013 में विक्रम अवॉर्ड से नवाजा गया था, इनको भी अन्य विक्रम अवॉर्डियों की भांति मंच पर ही नियुक्ति पत्र भी भेंट कर दिए थे। लेकिन खेल अधिकारियों के कहने पर इन्होंने इसलिए ज्वाइन नहीं किया कि, उन्हें अपने-अपने कॅरियर में अभी और ऊपर तक जाने की बात कही गई थी। खिलाड़ी बताते हैं कि खेल अधिकारियों ने उन्हें खेल विभाग में ही नौकरी देने की बात कही थी, ताकि नौकरी के साथ-साथ उनका ओलंपिक, एशियाड या कामनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने का सपना पूरा हो सके। खिलाड़ी यह बात आसानी से मान गए और अब भटक रहे हैं। बताया जाता है कि खेल विभाग में इन तीनों खिलाडिय़ों के लिए सहायक ग्रेड-3 के तीन पद सुरक्षित भी हैं, लेकिन अभी तक आदेश नहीं हो पा रहा है।
नर्सरी से नहीं निकलाङ्घएक भी पहलवान
मध्यप्रदेश में खेलों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। सिर्फ बजट से कुछ नहीं होता। जमीनी काम भी जरूरी होता है। केंद्र की योजनाओं का फायदा उठाने में राज्य पीछे है। इतना ही नहीं ग्रामीण और शहरी इलाकों में तो खेल के मैदान ही नहीं बचे हैं। मैदानों के बिना खेल प्रतिभाओं को निखारने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। प्रोत्साहन भी खत्म हो चुका है। तभी तो खो-खो, कबड्डी और अन्य खेलों में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा दिखा चुके खिलाड़ी भी अब आरटीओ में दलाली करते नजर आते हैं। प्रदेश सरकार उत्कृष्ट खिलाडिय़ों को नौकरियां देती थी। जो पिछले 20 से ज्यादा साल से बंद है। ऐसे में खेलों में अच्छे दिन आने की उम्मीद करना बेमानी ही नजर आता है।
निवेश के मामले में टॉप टेन में भी मप्र का नाम नहीं
ग्लासगो में राष्ट्रमंडल खेलों में देश के पहलवानों ने जो धूम मचाई वो तारीफे काबिल थी। सभी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारतीय पहलवानों का रूतबा साबित हो रहा है, लेकिन मध्यप्रदेश में कुश्ती की नर्सरी कहे जाने वाले इंदौर की बात करें तो यहां इस खेल ने सफलता की ऊंचाई छोड़ नीचे का रुख कर लिया है। कुश्ती की इस बदहाली की बात करें तो पता चलता है, इससे जुड़े लोगों में कुछ सालों से चल रही खींचतान, कुश्ती संघ के पदों पर काबिज होने की लड़ाई और सुविधाओं के अभाव में यहां के पहलवान नाम रोशन नहीं कर पा रहे हैं। सरकार की कुछ नीतियों ने भी युवा खिलाडियों के मन से इस खेल के प्रति रुझान कम किया है। 10 वर्ष पहले की बात करें तो कुश्ती के विकास के लिए नगर निगम प्रशासन भी सक्रिय भूमिका निभाता था, लेकिन अब नहीं। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारे प्रतिनिधित्व की कमी के पीछे बड़ा कारण यह भी है कि यहां के पहलवान मैट पर मुकाबला करने के बजाय मिट्टी की लड़ाई में उत्साह दिखाते हैं। नेशनल-इंटरनेशनल स्पर्धाएं मैट पर ही होती हैं। मिट्टी पर रूतबा रखने वाले पहलवान मैट पर असफल हो जाते हैं। पांच दशक पहले तक यहां 125 से ज्यादा अखाड़े थे। आज 15 से 20 अखाड़े हैं। अब मल्हार आश्रम, विजय बहादुर, चंदन गुरू, गोमती देवी, चंद्रपाल, सुशील कुमार कुश्ती एकेडमी, बिंद्रा गुरू, रामनाथ गुरू, ब्रजलाल गुरू, बाहुबली, बलभीम, हैदरी अखाड़ा इतिहास को सहेज रहे हैं। शहर को एकमात्र ओलंपियन देने का श्रेय कुश्ती को जाता है। यहां के धुरंधर पहलवान पप्पू यादव ने 1992 के बार्सिलोना और 1996 के अटलांटा ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। कुश्ती में शहर का नाम रोशन करने वालों में कृपाशंकर पटेल, उमेश पटेल, रोहित पटेल, राजकुमार पटेल, राकेश पटेल, अरविंद पटेल, बलराम यादव, विजय मिश्रा, वीरेंद्र निशित व अशोक यादव प्रमुख हैं।
राष्ट्रीय खिलाड़ी कर रहे दलाली
कबड्डी के मैदान पर मध्यप्रदेश का नाम रोशन करने वाले खिलाडिय़ों को लगता था कि तीन नेशनल खेलने के बाद उन्हें सरकारी नौकरी तो मिल ही जाएगी, लेकिन सरकार के एक आदेश ने उनके सपने को तोड़ दिया। अब उन्हें पेट पालने के लिए आरटीओ में दलाली करना पड़ रही है। हालांकि उन्हें अभी भी आस है कि किसी न किसी दिन खेलमंत्री उनकी तरफ ध्यान जरूर देंगे। यह कहानी है इंदौर आरटीओ के केशरबाग ऑफिस में काम करने वाले एक दर्जन से अधिक एजेंटों की। कभी कबड्डी के मैदान पर अपना पसीना बहाने वाले ये खिलाड़ी अब दिन में आरटीओ ऑफिस में भाग-दौड़ कर अपना पसीना बहाते हैं। इसके बदले में उन्हें मिलते हैं 100 से 200 रुपए। अपना और परिवार का पालन-पोषण करने के लिए यह काम करना उनकी मजबूरी बन गई है। ऐसे ही एक एजेंट विजय गौड़ जो 1994 से अब तक प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। अब तक 11 नेशनल खेल चुके। उन्होंने आधा दर्जन से अधिक मेडल भी जीते हैं, लेकिन अब वे वहां पर एजेंट का काम करते हैं। एक अन्य एजेंट सुनील ठाकुर की कहानी भी इनसे जुदा नहीं है। ये 1997 में प्रदेश के उत्कृष्ट खिलाड़ी घोषित किए गए। 7 नेशनल खेल चुके ठाकुर को भी लगा था कि उन्हें सरकारी नौकरी तो मिल ही जाएगी, लेकिन किस्मत ने उन्हें एजेंट बना दिया। कबड्डी के अंतरराष्ट्रीय रैेफरी बन चुके हैं। ठाकुर बताते हैं उनके जैसे करीब 15 एजेंट हैं जो कई बार प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।
प्रशिक्षित ट्रेनर भी नहीं
प्रदेश के स्कूलों में ज्यादातर फिटनेस ट्रेनर और कोच क्लब विशेष के सदस्य होते हैं। इनके अलावा स्टेट और नेशनल लेवल के खिलाड़ी स्पोर्ट टीचर का रोल निभाते हैं। इससे जहां योग्यता प्राप्त (बीपीएड-एमपीएड) उम्मीदवारों को नौकरी नहीं मिल पाती, वहीं बच्चों में खेल को लेकर पेशेवर तरीका विकसित नहीं हो पाता। नियमानुसार कोच बनने के लिए भारत सरकार के खेल एवं युवा मामलों के मंत्रालय के तहत गठित स्पोट्र्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (साई) का डिप्लोमा (कोचिंग) जरूरी है। साई की मान्यता के बाद ही व्यक्ति कोच बन सकता है, लेकिन प्रदेश के स्कूल-कॉलेजों में राजनीतिक-सामाजिक रसूख के बल पर ही स्पोट्र्स ऑफिसर, स्पोर्ट टीचर, फिटनेस ट्रेनर और कोच रखने की परंपरा है।
प्रशिक्षण की कमी से कम हुआ रूझान
कुश्ती ओलंपियन पप्पू यादव कहते हैं कि सुविधाओं की कमी व उचित प्रशिक्षण नहीं मिलने से हमारे पहलवान नेशनल-इंटरनेशनल लेवल पर नहीं जा पा रहे हैं। सरकार पहले नेशनल में तीन मैडल जीतने वाले को खेल कोटे में नौकरी देती थी, जो अब बंद हो गई है। इस कारण भी रूझान कम हुआ है। कुश्ती प्रशिक्षक मानसिंह यादव का कहना है कि इस खेल के कर्ताधर्ता कुश्ती संघ में पद हासिल करने की खींचतान में इस कदर जुटे हैं कि वे खेल के विकास को भूल गए हैं। इंदौर में कुश्ती की सुविधाओं की कमी नहीं है, जरूरत है मौजूद सुविधाओं के उचित उपयोग की। शहर में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, बस उन्हें तलाशने और तराशने की जरूरत है। इंदौर जिला खेल अधिकारी राजेश शाक्य का कहना हैं कि नए खिलाड़ी इसमें नहीं जुड़े रहे हैं। लोग देशी खेलों को भूलकर विदेशी खेलों की ओर जा रहे हैं, जिससे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व कम हुआ है। सुविधाओं की बात करें तो यहां उसकी कोई कमी नहीं हैं।
कई खेलों को सरकार ने भुलाया
सिल बम (स्टीक फेंसिंग) का सामान्य अर्थ है लाठी घुमाने की कला। इसी तरह तलवारबाजी और स्काई मार्शल आर्ट (तुराबाजी) जैसे खेलों में प्रदेश के कई होनहार खिलाड़ी नाम रोशन कर रहे हैं। प्रदेश के खिलाड़ी इन खेलों में सुविधाओं से वंचित हैं। इन खेलों में यदि प्रदेश सरकार खिलाडिय़ों की हरसंभव मदद करे तो वे काफी आगे निकल सकते हैं। वर्तमान में मौजूदा सुविधा और संसाधनों के अनुसार ही खिलाड़ी प्रैक्टिस कर रहे हैं। यदि इनमें इजाफा कर दिया जाए तो वे और बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे। स्कूल गेम्स कैलेंडर का विस्तार होने से प्रदेश के खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थान नहीं बना पा रहे हैं। लोर बॉल, ट्रेडिशनल रेसलिंग और सिल बम को एसजीएफआई ने दो साल पहले स्कूल गेम्स में शामिल किया है, लेकिन प्रदेश की सूची से ये गायब हैं। ऐसे में निजी संगठनों की प्रतिस्पर्धाएं ही विकल्प में बचती हैं। पिछले साल भी इन खेलों में संभाग से कोई खिलाड़ी हिस्सा नहीं ले पाया।
मैदान बनाए पर दिखते नहीं
स्वर्णिम मध्यप्रदेश की परिकल्पना में शुमार, खेल मैदान बनाने का काम जनपद पंचायतें पूरा नहीं करा पाई हैं। ग्राम पंचायतों को मनरेगा के फंड से खेल मैदान बनाने के लिए पैसा मिलता है। जितना बड़ा खेल मैदान बनेगा उतना नहीं पेमेंट श्रमिकों को होगा। मनरेगा के तहत ग्राम पंचायतों में जो खेल मैदान बनाए गए हैं उनको लेकर अब सवाल उठने लगे हैं। खेल एवं युवक कल्याण विभाग की माने तो जिले में मनमर्जी से मैदान बना दिए गए हैं, मैदान बनाने से पहले जिला पंचायत द्वारा पूछताछ करना भी जरूरी नहीं समझा गया। उन पंचायतों में भी खेल मैदान बनाए गए जिनका नाम सूची में शामिल ही नहीं था। ऐसे में जिन पंचायतों में खेल सामग्री का वितरण किया गया था वहां खेलने के लिए मैदान ही नहीं है।
मध्यप्रदेश नहीं उठा पा रहा है केंद्र की सुविधाओं का लाभ
मध्यप्रदेश सहित कई राज्य सरकारें युवा खिलाडिय़ों के लिए सुवधाएं जुटाने में रुचि नहीं ले रही हैं। केंद्रीय खेल मंत्रालय, गांव व शहरों में मैदान बनाने और खेल सुविधाओं के लिए राज्य सरकारों को आर्थिक मदद देता है। लेकिन अधिकांश राज्य इस स्कीम का कोई खास लाभ नहीं ले रहे हैं। इनमें मप्र के अलावा हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व झारखंड शामिल हैं। खेल मंत्रालय तीन अलग-अलग कार्यक्रमों के तहत राज्यों को आर्थिक सहायता मुहैया कराता है। इनमें राष्ट्रीय युवा एवं किशोर विकास कार्यक्रम, शहरी खेल अवसंरचना योजना और पंचायत युवा क्रीड़ा एवं खेल शामिल हैं। तीनों ही कार्यक्रम युवा खिलाडिय़ों को तैयार करने, उन्हें बेहतर खेल सुविधाएं देने व भविष्य में होने वाली अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाओं को ध्यान में रखकर तैयार किए गए हैं। मप्र ने इन तीनों ही केंद्रीय याजनाओं में रुचि नहीं दिखाई है। 35 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में दो दर्जन से ज्यादा राज्य ऐसे हैं जो विशेष योजनाओं के तहत खेलों के लिए मिलने वाली निधि नहीं ले रहे हैं। केंद्र को बीते वर्ष पांच राज्यों का एक-एक प्रस्ताव मिला था।
मैदान का गड़बड़झाला
सितंबर 2009 में प्रदेश के बावन हजार गांवों में खेल मैदान बनाने को काम शुरू किया गया, लेकिन पांच साल से अधिक का समय बीत जाने के बाद भी कहीं-कहीं ही खेल मैदान नजर आ रहे हैं। हालांकि खेल एवं युवा कल्याण विभाग द्वारा अब तक पांच हजार से 14 हजार तक आबादी वाले गांवों में 381 खेल मैदानों के निर्माण का दावा किया जा रहा है। इनमें से सर्वाधिक 36 खेल मैदानों का निर्माण मुरैना जिले में किया गया है। इन गांवों के खिलाडिय़ों को उनके गांव में ही खेल अधोसंरचना एवं प्रशिक्षक उपलब्ध कराए गए हैं। इनमें से इंदौर जिले में 34, धार में 28, सागर में 22, ग्वालियर में 20, शाजापुर में 19, होशंगाबाद, बड़वानी, सतना तथा भिण्ड में 18-18, देवास, खरगौन तथा छिन्दवाड़ा में 17-17, सीहोर, छतरपुर तथा शहडोल में 16-16, नीमच तथा दमोह 15-15, बैतूल, उज्जैन तथा रीवा 14-14, जबलपुर तथा बालाघाट में 12-12, शिवपुरी, विदिशा, रायसेन, टीकमगढ़, सिवनी तथा बुरहानपुर में 10-10, नरसिंहपुर में 9, खण्डवा, श्योपुर तथा मंदसौर में 8-8, पन्ना, कटनी तथा रतलाम में 7-7, गुना, मण्डला, उमरिया, राजगढ़ तथा सीधी में 6-6, दतिया में 5, झाबुआ, अनूपपुर तथा हरदा में 4-4, भोपाल तथा डिण्डोरी में 2-2 तथा अशोकनगर जिले में एक खेल मैदान बनाए जा रहे हैं। मनरेगा के तहत गांवों में बनने वाले खेल मैदानों को लेकर एक बड़ा गड़बड़झाला सामने आ रहा है। जिपं जहां 481 पंचायतों में खेल मैदान बनाए जाने का दावा कर रही है। वहीं खेल एवं युवक कल्याण विभाग का कहना है कि पंचायतों में खेल मैदान नहीं होने से ग्रामीण प्रतिभाएं नहीं निखर पा रही है। दोनों विभाग अपने-अपने दावों को सच साबित करने में लगे हुए हैं, लेकिन इसमें नुकसान खिलाडियों का हो रहा है। लाखों की खेल सामग्रियां तालों में कैद है, मैदान नहीं होने से इनका उपयोग नहीं हो पा रहा।
खेल से ऐसे हो रहा खिलवाड़
ग्रामीण खेल प्रतिभाओं को निखारने के लिए पंचायत स्तर पर पायका योजना के तहत खेल मैदान बनाए गए हैं और खेल सामग्रियां भी बांटी गई है, लेकिन आज तक इनका उपयोग नहीं हो सका है। बताया गया कि यह खेल सामग्रियां पंचायत भवनों एवं स्कूल भवनों के अंदर ताले में कैद है। खेलकूद स्पर्घाओं के दौरान ही इनका इस्तेमाल कभी-कभार किया जाता है अन्यथा यह महीनों कमरे में बंद पड़ी रहती है। यही कारण है कि संसाधनों के अभाव में अक्सर ग्रामीण खेल प्रतिभाएं पिछड़ जाती है। जिले में पायका के तहत 500 रूपए प्रतिमाह जैसे अल्प मानदेय पर क्रीड़ा श्री नियुक्त किए गए थे। इन्हें एक साल के एग्रीमेंट पर पार्टटाइम जॉब जैसी नियुक्ति दी गई थी। पिछले कुछ माह से जिले में नियुक्त क्रीड़ा श्री को मानदेय ही नहीं दिया जा रहा है। ऐसी स्थिति में जो क्रीड़ा श्री खेलों के प्रति व्यक्तिगत लगाव के कारण थोड़ी बहुत रूचि भी लेते थे उन्होंने यहां रूचि लेना ही बंद कर दिया है। उनका कहना था कि 500 रूपए में फुल टाइम सेवाएं देना संभव ही नहीं था और अब तो महीने से यह भी नहीं मिल रहे हैं।
ये है पायका का सच
झ्र जिस कंपनी द्वारा खेल सामग्री दी गई थी उसे पंचायत में जाकर खेल मैदान में सामग्री स्थापित करके देनी थी जो अधिकांश जगह नहीं हुआ।
झ्र पायका के तहत 4600 आबादी तक की ग्राम पंचायतों में एक लाख रूपए की खेल सामग्री दी गई।
झ्र वर्तमान में अधिकांश जगह यह खेल सामग्री स्कूल और पंचायत भवन में पड़ी हुई है।
झ्र जो सामग्री सप्लाई की गई उसकी गुणवत्ता भी उसकी लागत के अनुरूप नहीं है।
झ्र सामग्री वितरण के बाद खेल युवक कल्याण विभाग के अधिकारियों ने कभी भी मौका-मुआयना नहीं किया।
झ्र जिले में लगभग एक सैकड़ा पंचायतों को एक करोड़ की सामग्री सप्लाई की गई।
झ्र मनरेगा के तहत इन पंचायतों में खेल मैदान बनाए जाना थे, लेकिन यहां भी हालत खराब है।
झ्र जो क्रीड़ा श्री नियुक्त किए गए उनमें खेल विशेषज्ञता को लेकर कोई मापदंड नहीं था।
लाखों की सामग्री बेकार
खेल एवं युवक कल्याण विभाग द्वारा पायका योजना के तहत ग्राम पंचायतों को एक-एक लाख रूपए तक की खेल सामग्रियों का वितरण किया गया है। इनमें मल्टीपर्पज मेट, फुटबाल, व्हालीबॉल, हैंडबाल, खो-खो पोल सहित अन्य सामग्रियां दी गई है लेकिन अधिकांश पंचायतों में यह सामग्रियां ताले में बंद पड़ी है, क्योंकि खेल मैदान नहीं होने के कारण इनका उपयोग ही नहीं हो रहा है। चूंकि यह सामग्रियां पंचायत भवन, स्कूलों भवनों में रखी है इसलिए जगह के अभाव में इन्हें रखने से भी गुरेज किया जा रहा है।
यह दी थीं सामग्रियां
खेल उपकरण संख्या
मल्टीपर्पस मेट 40 नग
फुटबाल गोल पोस्ट 01 नग
व्हालीबॉल पोल 01 नग
हैंडबॉल पोल 01 नग
खो-खो पोल 01 नग
हाईजम्प पोल 01 नग
जेवलिन (मेन) — 01 नग
जेवलिन (वूमेन) — 01 नग
डिस्क (मेन) — 01 नग
डिस्क (वूमेन) — 01 नग
शाटपुट (मेन) — 01 नग
शाटपुट (वूमेन) — 01 नग
स्टॉप वॉच — 01 नग
हाईजम्प स्टैंड — 01 नग
मेजरिंग टेप — (50 मी.) 02 नग
मेजरिंग टेप — (20 मी.) 02 नग
लाइन मार्किग मशीन — 01 नग
विनोद कुमार उपाध्याय/बिच्छू डॉट कॉम
हर साल बड़ी-बड़ी घोषणाएं। इस बार के राष्ट्रीय खेलों में मध्यप्रदेश छठे स्थान पर आया तो होर्डिंग्स टंग गए। अखबारों में फोटो छपे। मुख्यमंत्री के साथ खिलाड़ी भी सामने आए। पता चला कि मध्यप्रदेश के लिए पदक जीतने वाले तो ज्यादातर बाहरी खिलाड़ी हैं। मध्यप्रदेश के हैं ही नहीं। तो मध्यप्रदेश सरकार उन पर क्यों इठला रही है। अब सवाल उठ रहे हैं कि खेल अकादमियों पर हर साल खर्च हो रहे सवा सौ करोड़ कहां जा रहे हैं?
भोपाल (डीएनएन)। खेलों के प्रति मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का समर्पण, 125 करोड़ से अधिक का सालाना बजट, डेढ़ दर्जन अकादमियां, इन अकादमियों में सालभर प्रशिक्षण और लंबे-चौड़े दावों के बाद भी मप्र खेलों में दूसरे राज्यों के दम पर अपनी शान बघार रहा है। ऐसा भी नहीं है कि प्रदेश में खेल प्रतिभाओं की कमी है, लेकिन खेलों के संवर्धन के नाम पर बड़े-बड़े ओहदेदार जिस तरह से खिलवाड़ कर रहे हैं उससे प्रखङ्मु_10144 (1)देश की प्रतिभाएं खेल मैदानों तक पहुंचने से पहले ही व्यवस्था से परास्त हो रही हैं। आलम यह है कि हमें राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में दूसरे राज्यों के खिलाडिय़ों का सहारा लेना पड़ रहा है। इससे न केवल प्रदेश की किरकिरी हो रही है, बल्कि यहां के खिलाडिय़ों को हतोत्साहित किया जा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कब तक हम पराए पूतों के यश पर अपनी छाती चौड़ी करके घूमेंगे।
उल्लेखनीय है कि मप्र में खेलों के विस्तार और उत्थान के लिए खेल और युवक कल्याण विभाग द्वारा राज्य में खेल गतिविधियों का संचालन किया जा रहा है। कथित तौर पर विभाग का यह प्रयास रहता है कि वित्तीय व प्रशासनिक संसाधनों का समुचित उपयोग कर राज्य के खिलाडिय़ों एवं युवाओं को उनसे संबंधित गतिविधियों में अधिकाधिक सहयोग एवं सुविधाएं उपलब्ध कराएं। इसी दृष्टि से विभिन्न खेल अकादमियां, नेशनल सेलिंग स्कूल, ग्रामीण युवा केन्द्रों की स्थापना, आदिवासी ग्रामीण युवा केंद्रों का सुदृढ़ीकरण, रोजगारोन्मुखी प्रशिक्षण कार्यक्रम के वीएलसीसी अकादमियों का संचालन किया जा रहा है। इसके लिए सालाना करीब 125 करोड़ का बजट मुहैया कराया जाता है। लेकिन विसंगति यह है कि इतनी बड़ी राशि स्वाहा करने के बाद भी हम कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने लायक एक खिलाड़ी तैयार नहीं कर पाए हैं। अभी हाल ही में संपन्न हुए 35वें नेशनल गेम्स में 91 पदकों के साथ मप्र जब छठे स्थान पर आया तो खेल विभाग के साथ ही सरकार ने भी इसके लिए अपनी पीठ खूब थपथपाई। राजधानी भोपाल सहित प्रदेशभर में होर्डिंग्स लगाकर उपलब्धियां गिनाई गईं। जबकि हकीकत यह है कि 91 पदकों में से 41 पदक तो दूसरे राज्यों के खिलाडिय़ों ने जीते हैं। पदकों के आंकड़ों को परोसकर भले ही खेल और युवक कल्याण विभाग या राज्य सरकार वाह-वाही लूट रही है, लेकिन प्रदेश के खिलाड़ी और खेल प्रेमी शर्मिंदगी महसूस कर रहे हैं। उनका सवाल है कि आखिर सवा अरब का बजट कहां खपाया जा रहा है। यही नहीं ग्लासगो में संपन्न हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में 225 सदस्यीय भारतीय एथलीटों की टीम में प्रदेश की एक एथलीट को ही जगह मिल सकी।
आंकड़ों के साथ बड़े-बड़े दावे
प्रदेश में खेलों के विस्तार और उत्थान के लिए खेल और युवक कल्याण विभाग द्वारा बड़े-बड़े दावे किए जाते रहे हैं। इसके लिए राज्य शासन द्वारा ग्वालियर में प्रथम राज्य स्तरीय महिला हॉकी एकेडमी की स्थापना जुलाई 2006 में की, इसके अतिरिक्त भोपाल में वर्ष 2007 से 5 खेल अकादमियां संचालित की जा रही है, जिसमें 13 खेलों का प्रशिक्षक दिया जा रहा है। पुरुष हॉकी अकादमी, शूटिंग अकादमी, घुड़सवारी अकादमी, मार्शल आर्ट अकादमी के अन्तर्गत 7 खेल यथा जूडो, कराते, ताइक्वांडो, बॉक्सिंग, कश्ती, फैसिंग एवं वूशु, वाटर स्पोट्र्स अकादमी के अन्तर्गत रोइंग, सेलिंग एवं कैनोइंग-क्याकिंग इसके अतिरिक्त वर्ष 2008 में ग्वालियर में पुरुष क्रिकेट एवं 2010 में बैडमिंटन अकादमी स्थापित है। जबलपुर में वर्ष 2013 से तीरंदाजी अकादमी संचालित की जा रही है एवं तीरंदाजी खेल के फीडर सेंटर भोपाल, मंडला एवं झाबुआ में संचालित है। इन अकादमियों में निरंतर प्रशिक्षण चलता रहता है। इसी प्रशिक्षण और आंकड़ों के दम पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान यह कहते नहीं थक रहे हैं कि आगामी ओलंपिक में मप्र के खिलाड़ी पदक जीतकर देश का नाम रोशन करेंगे। लेकिन शायद वह इस हकीकत से अनभिज्ञ हैं कि झारखंड में हुए पिछले राष्ट्रीय खेलों में मिले 103 पदकों की अपेक्षा केरल में हुए 35वें नेशनल गेम्स में 12 कम पदक यानी 91 पदक ही मध्यप्रदेश को मिले हैं।
पिछले खेलों की ही तरह मध्य प्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग ने झूठी शान की खातिर अपने खिलाडिय़ों से परहेज करते हुए आयातित खिलाडिय़ों पर अधिक भरोसा किया। बावजूद इसके प्रदेश को 23 स्वर्ण, 26 रजत और 42 कांस्य सहित कुल 91 पदक ही हासिल हुए। घटते पदकों पर खेलों के आका इन खेलों में कराते के शामिल न होने का बहाना बना सकते हैं। जो भी हो खुशी के इस अवसर पर मध्यप्रदेश के विजेता खिलाडिय़ों ही नहीं प्रदेश से बाहर के खिलाडिय़ों संदीप सेजवाल, रिचा मिश्रा, आरोन एंजिल डिसूजा, नैनो देवी, सोनिया देवी और पश्चिम बंगाल की उदीयमान जिमनास्ट प्रणति नायक जैसे 40 खिलाडिय़ों को भी बधाई। वे नहीं होते तो मध्यप्रदेश के पदकों की संख्या 50 भी नहीं होती। प्रदेश सरकार उन्मादित है, पर वे बताएं कि राष्ट्रीय खेलों में प्रदेश का नाम रोशन करने वाले इन खिलाडिय़ों से क्या हासिल हुआ?
बंगाल के तीन एथलीट मप्र टीम में
मध्यप्रदेश से जुडऩे वाली प्रणति अकेली एथलीट नहीं हैं। प्रणति की साथ जिमनास्ट अंकिता और दिग्गज एथलीट मल्लिका भी मध्यप्रदेश की ओर से केरल नेशनल गेम्स में शामिल हुईं। खिलाडिय़ों के अनुसार बंगाल में जमकर राजनीति चल रही है और प्रतिभा को नजरअंदाज किया जा रहा है। वहीं बंगाल एसोसिएशन के शंकर चौधरी कहते हैं कि इन खिलाडिय़ों ने राज्य के साथ गद्दारी की है। प्रणति के मना करने के बाद ही हमने उन्हें टीम में शामिल नहीं किया। चौधरी कहते है कि मप्र ने इन बाहरी खिलाडिय़ों को अपनी तरफ से खिलाकर अपने खिलाडिय़ों का अधिकार छिना है। वह कहते हैं की मप्र में प्रतिभावान खिलाडिय़ों की कमी नहीं है।
बाहरी खिलाडिय़ों पर बरसेगा धन
झारखंड की अपेक्षा केरल नेशनल गेम्स में कम पदक जीतने के बाद भी प्रदेश में खेलों और खिलाडिय़ों से खिलवाड़ करने वाले अधिकारी अब अपनी शेखी बघारने के लिए केरल नेशनल गेम्स के पदक विजेता खिलाडिय़ों को पुरस्कृत करने का स्वांग रचाने की तैयारी में जुट गए हैं। उन्हें करीब साढ़े तीन करोड़ रुपए इनाम के रूप में बांटे जाएंगे। इसमें सबसे ज्यादा राशि तैराकी के उन खिलाडिय़ों को मिलेगी जो बाहर के हैं लेकिन मप्र के लिए खेले हैं। इनमें दिल्ली की रिचा मिश्रा, संदीप सेजवाल, आरोन डिसूजा और प. बंगाल की प्रणति नायक सहित कई स्टार खिलाड़ी शािमल हैं। मध्यप्रदेश ने 14 फरवरी को केरल में संपन्न हुए 35 वें नेशनल गेम्स में 23 स्वर्ण, 27 रजत और 41 कांस्य सहित कुल 91 पदक जीते हैं। प्रदेश की खेल नीति के अनुसार नेशनल गेम्स के व्यक्तिगत स्वर्ण विजेता को चार लाख, रजत विजेता को 3.20 और कांस्य विजेता को 2.40 लाख रुपए देने का प्रावधान है। टीम इवेंट में यह राशि 2.00, 1.60 और 1.20 लाख रुपए के हिसाब से दी जाती है। इस हिसाब से 91 पदकों पर कुल 3.26 करोड़ रुपए होते हैं। स्टार तैराक रिचा मिश्रा को सबसे ज्यादा 24 लाख रुपए मिलेंगे। उन्होंने चार स्वर्ण, एक रजत और दो कांस्य जीते हैं। सारे पदक व्यक्तिगत स्पर्धाओं में ही जीते हैं। इसलिए उन्हें इनामी राशि किसी से बांटनी नहीं पड़ेगी। संदीप सेजवाल दूसरे नंबर पर रहेंगे। उन्हें इस बार 15.20 लाख रुपए मिलेंगे। उन्होंने तीन स्वर्ण एक कांस्य व्यक्तिगत और एक स्वर्ण एक कांस्य टीम इवेंट में जीता है। वहीं आरोन डिसूजा को भी लगभग इतनी ही राशि मिलेगी। जानकार बताते हैं कि मध्य प्रदेश में खेलोत्थान की कोशिशों को खेल विभाग के कारिंदों से काफी नुकसान हुआ है। सरकार ने बेशक हॉकी और वॉटर स्पोट्र्स पर कई करोड़ खर्च किए हों पर राष्ट्रीय खेलों में प्रदेश की हॉकी टीमें नहीं खेलीं। पिछले खेलों की कांस्य पदक विजेता महिला टीम से इस बार स्वर्ण पदक की उम्मीद थी, पर कोच साहब की करतूतों ने उम्मीदों पर पानी फेर दिया। प्रदेश के खिलाडिय़ों ने जो 50 पदक जीते हैं, उनमें ऐसे खिलाड़ी भी हैं जिन्होंने प्रदेश सरकार की बिना मदद राज्य का गौरव बढ़ाया है।
बाहरी खिलाडिय़ों को लेकर विवाद
उधर नेशनल गेम्स में तैराकी और जिम्नास्टिक में कुछ बाहरी खिलाडिय़ों को खिलाए जाने का मुद्दा गरमाने लगा है। दरअसल, नेशनल गेम्स संयोग से बाहरी खिलाडिय़ों ने ज्यादा पदक जीते हैं। इसलिए इनामी राशि भी सबसे ज्यादा उन्हीं के हिस्से में जाएगी। यही बात प्रदेश के कई खेल संगठनों को अखर रही है। भोपाल जिला ओलिंपिक एसोसिएशन के सचिव दीपक गौड़ ने खेल एवं युवा कल्याण विभाग में अपनी शिकायत दर्ज कराई है आरटीआई लगाकर यह जानकारी मांगी है कि तैराकी में जो 10 स्वर्ण, तीन रजत और सात कांस्य पदक जीते हैं, वो खिलाड़ी मप्र के किस जिले के हैं, जिसका अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है। वहीं बाहरी खिलाडिय़ों को लेकर प्रदेश के कुछ खेल संगठनों और खिलाडिय़ों की आपत्ति के बाद खेल एवं युवक कल्याण विभाग उन्हें मनाने में जुट गया है। कांग्रेस विधायक अजय सिंह का कहना है कि खेल और खिलाडिय़ों को बढ़ावा देने के मुख्यमंत्री के दावे विज्ञापनों और होर्डिंग्स तक सीमित हैं। वह कहते हैं कि मुख्यमंत्री की यह पोल 2011 में स्पेशल ओलंपिक एथेंस में दो कांस्य पदक हासिल करने वाली सीता ने खोल दी थी। सिंह कहते हैं कि देश के बाहर के खिलाडिय़ों के लिए शिवराज सिंह चौहान अब्दुल्ला जैसे दीवाने हो जाते है लेकिन अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्पर्धाओं में प्रदेश के खिलाडिय़ों को जीतने पर पुरस्कृत करने की अपनी ही घोषणा को भूल जाते है। खेलों का विकास और खिलाडिय़ों को प्रोत्साहन देने की बात कितनी झूठी है और सिर्फ होर्डिंग्स तक सीमित है। सीता ने गोलगप्पे बेचकर यह बता दिया कि भाजपा सरकार कितनी ढोंगी है। उन्होंने कहा कि सीता अंतरराष्ट्रीय मैदान एथेंस में तो पदक जीत जाती है लेकिन अपने ही प्रदेश में भाजपा सरकार से हारकर गोल गप्पे बेचने को मजबूर हो जाती है। ऐसे कई खिलाड़ी हैं जिन्होंने प्रदेश का नाम रोशन किया है, लेकिन सरकार घोषणा करके उन्हें पुरस्कृत करना भूल गई है।
निष्पक्ष जांच होनी चाहिए
अजय सिंह खेल विभाग में एक बड़ा भ्रष्टाचार उजागर करते हुए कहते हैं कि पिछले वर्ष खेल विभाग में होडिंग्स, फ्लेक्स एवं अन्य खरीद में अरबों रुपए का घोटाला हुआ है, जिसकी निष्पक्ष जांच होना चाहिए। अजय ने एक बयान में यह खुलासा करते हुए आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं उनके मंत्री अभियान और यात्राओं में जुटे हैं, उनका ध्यान शासन-प्रशासन पर नहीं होने और सेवा शुल्क निरंतर मिलते रहने तथा उनकी बेखबरी से विभागों में सरकारी पैसा लूटकर जेब भरने का अभियान जोरशोर से चल रहा है। उन्होंने कहा कि वर्ष 2010 में विभिन्न कार्यों की जो दरें खेल विभाग ने मंजूर कीं, उन्हीं कामों में वर्ष 2011 में जो दरें रहीं हैं, उनमें 19-20 का नहीं बल्कि 80-20 का अंतर आना आश्चर्यजनक है। होर्डिग्स की जो दर 189 रूपए प्रति वर्ग फुट थी वह वर्ष 2011 में भी बाजार में 74 रूपए प्रति वर्गफुट रही। इसी तरह वर्ष 2010 में फ्लैक्स डिजाइन के लिए नौ हजार रुपए का भुगतान हुआ, जिसकी बाजार दर वर्ष 2011 में 785 रुपए थी। लैक्स निर्माण में 47 रुपए वर्गफट का भुगतान वर्ष 2010 में हुआ, जबकि वर्ष 2011 में बाजार में यह दर 5.99 रुपए वर्ग फुट थी। वह कहते हैं कि इसी तरह हर साल खेल प्रतिभाओं को निखारने के लिए मिले फंड की बंदरबांट हो रही है।
कोई तो समझा दे 125 करोड़ का खेल!
प्रदेश के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि सवा सौ करोड़ का खेल बजट होने के बाद भी नेशनल गेम्स में बाहरी खिलाडिय़ों को खिलाया जा रहा है और राष्ट्रमंडल खेलों में एकमात्र खिलाड़ी ने मौजूदगी दर्ज कराई। डेढ़ दर्जन खेल अकादमियां सक्रिय होने के बाद भी खेलों में प्रदेश की स्थिति लापता जैसी है। प्रदेश सरकार ने पिछले वर्ष बजट में खेलों के लिए 125 करोड़ का प्रावधान किया था। इस राशि से प्रदेश के खेल व खिलाडियों का विकास होना था, लेकिन ग्लास्गो कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए जब 14 खेलों की भारतीय टीमों की घोषणा की गई तो उसमें मध्यप्रदेश से सिर्फ निशानेबाजी के डबल ट्रेप इवेंट में भोपाल की वर्षा बर्मन और भारतीय महिला कुश्ती टीम के कोच के रूप में इंदौर के कृपाशंकर पटेल ही ग्लासगो पहुंच सके।
प्रणति को लेकर नेशनल गेम्स में भी विवाद
केरल में संपन्न हुए 35वें नेशनल गेम्स के दौरान भी मध्यप्रदेश की ओर से हिस्सा लेने वाली जिमनास्ट प्रणति नायक के पदक जीतने को लेकर विवाद की स्थिति बनी थी। प्रणति को पहले अयोग्य घोषित कर उसके द्वारा जीता गया रजत पदक देने से मना कर दिया गया। लेकिन उसके बाद चले आरोप-प्रत्यारोप के बाद उन्हें पदक दे दिया गया। दरअसल कॉमनवेल्थ गेम्स, एशियन गेम्स और वल्र्ड चैंपियनशिप में देश का प्रतिनिधित्व कर चुकीं प्रणति मूल रूप से बंगाल की रहने वाली हैं और सात साल की उम्र से पश्चिम बंगाल स्थित साई सेंटर में पै्रक्टिस कर रही हैं। यहां तक कि बंगाल सरकार ने उन्हें इस साल राज्य के सर्वोच्च खेल सम्मान खेल रत्न से भी सम्मानित किया। इसके बावजूद नेशनल गेम्स के लिए चयन नहीं होने के बाद प्रणति ने मध्य प्रदेश का रुख कर लिया। वेस्ट बंगाल जिमनास्टिक एसोसिएशन (डब्लूबीजीए) शुरूआत में चुप रहा लेकिन जैसे ही प्रणति ने पदक जीता, एसोसिएशन ने उनकी भागीदारी पर आपत्ति उठा दी। इसके बाद गेम्स की तकनीकी समिति ने उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया। प्रणति ने बताया कि मध्य प्रदेश की ओर से खेलने के लिए जरूरी राज्य एसोसिएशन और जिमनास्टिक एसोसिएशन ऑफ इंडिया की एनओसी भी उनके पास है। हालांकि डब्लूबीजीए के शंकर चौधरी ने कहा कि उन्होंने प्रणति को किसी तरह की एनओसी नहीं दी है। उन्होंने कहा कि बंगाल में इस तरह की कई एसोसिएशन चल रही हैं लेकिन डब्लूबीजीए को ही केवल आईओए से मान्यता मिली हुई है।
क्या कर रही 17 खेल अकादमियां?
प्रदेश सरकार ने भोपाल में पुरूष हॉकी, कुश्ती, जूडो, ताइक्वांडो, कराते, फेंसिंग, बॉक्सिंग, केनोइंग-कयाकिंग, सेलिंग, निशानेबाजी, घुड़सवारी, वुशू, रोइंग व ग्वालियर में महिला हॉकी, बैडमिंटन, क्रिकेट (पुरूष) व जबलपुर में तीरंदाजी की अकादमी है। सभी में श्रेष्ठ खिलाड़ी प्रशिक्षण लेते हैं। रहने, खाने, ठहरने व पढ़ाई की व्यवस्था भी है। इन अकादमियों को शुरू हुए 6 वर्ष से ज्यादा हो चुके, पर परिणाम अच्छे नहीं मिल रहे। प्रदेश में कई ऐसे खिलाड़ी हैं जो इस खेल में प्रतिनिधित्व कर सकते थे। अंतरराष्ट्रीय निशानेबाज और अर्जुन अवॉर्डी राजकुमार राठौर, अमित पिलानिया और इंदौर की सुरभि पाठक, धार के बैडमिंटन खिलाड़ी सौरभ व समीर वर्मा, लंदन ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का हिस्सा रहे ग्वालियर के शिवेंद्र सिंह, बॉक्सिंग खिलाड़ी राहुल पासी और अंकित शर्मा जैसे खिलाडिय़ों को मौका दिया जा सकता था। मप्र के लिए सबसे दुख की बात तो यह रही कि जहां दिल्ली कामनवेल्थ गेम्स में मेजबान भारत ने 495 खिलाड़ी मैदान में उतारे थे, जिसमें से तीन खिलाड़ी मप्र के थे। लेकिन चार साल में यह संख्या बढऩे के बजाय घट गई। ग्लास्गो कामनवेल्थ गेम्स के लिए प्रदेश से एक मात्र खिलाड़ी वर्षा वर्मन (शूटिंग) ही क्वालिफाई कर पाईं। अगर इस संख्या को प्रतिशत में बदला जाए, तो करीब 64 प्रतिशत गिरावट आई है प्रदेश के खेलों में। दिल्ली कामनवेल्थ गेम्स में मप्र से लंबी कूद के खिलाड़ी अंकित शर्मा, 5000 मीटर दूरी के एथलीट संदीप बाथम और मनीराम पटेल ने भागीदारी की थी। लेकिन ग्लासगो में सिर्फ शूटर वर्षा वर्मन के अलावा किसी भी खेल से कोई खिलाड़ी मप्र से क्वालिफाई नहीं कर पाया। यही स्थिति ओलिंपिक में भी रहती है। 2004 ओलिंपिक में मप्र से एक भी खिलाड़ी क्वालीफाई नहीं कर पाया। बीजिंग में भी यही स्थिति बरकरार रही। 2012 लंदन ओलिंपिक में मप्र से हाकी खिलाड़ी शिवेंद्र सिंह ने भाग लेकर लाज बचा ली थी। हालांकि अंतर्राष्टीय खेल प्रतियोगिताओं में मप्र के खिलाडिय़ों की कम होती सं या के पीछे संयुक्त संचालक खेल एवं युवा कल्याण डा. विनोद प्रधान का तर्क है कि हमारे प्रदर्शन में गिरावट नहीं आई है। पिछले कामनवेल्थ गे स के तीन खेल इस बार हटा देने से यह स्थिति बनी। विभाग से जुड़े लोगों के अनुसार खेल बजट की राशि अकादमियों के संचालन में, नई अकादमियां स्थापित करने में, संभाग व जिलों में खेल सुविधा देने में, जो सुविधाएं हैं उनके संचालन में, नई आधारभूत सुविधाएं बनाने में, वर्षभर जिला, संभाग व राज्यस्तरीय प्रतियोगिता करवाने में, खिलाडियों को वार्षिक खेल छात्रवृत्ति देने में खर्च की जाती है। वार्षिक खेल पुरस्कारों (विक्रम, एकलव्य, विश्वामित्र) की राशि भी इसी बजट से दी जाती है।
नौकरी के लिए भटक रहे विक्रम अवार्डी
मुख्यमंत्री कहते फिरते हैं कि, खेलों में पैसे आड़े नहीं आएगा। खिलाड़ी मेहनत करें, खूब खेलें और पदक जीतें। बाकी मुझ पर छोड़ दें। खेलों में जितना भी बजट लगेगा प्रदेश सरकार तैयार है। लेकिन उनकी घोषण के इतर कई खिलाड़ी आज भी परेशान घूम रहे हैं लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। ऐसे ही प्रदेश के तीन स्टार खिलाड़ी लतिका भंडारी ताइक्वांडो, शानू महाजन तलवारबाजी और कुशल थापा कराते विक्रम अवॉर्ड पाने के बावजूद नौकरी के लिए भटक रहे हैं। इसमें लतिका और कुशल को वर्ष 2012 में तथा शानू महाजन को वर्ष 2013 में विक्रम अवॉर्ड से नवाजा गया था, इनको भी अन्य विक्रम अवॉर्डियों की भांति मंच पर ही नियुक्ति पत्र भी भेंट कर दिए थे। लेकिन खेल अधिकारियों के कहने पर इन्होंने इसलिए ज्वाइन नहीं किया कि, उन्हें अपने-अपने कॅरियर में अभी और ऊपर तक जाने की बात कही गई थी। खिलाड़ी बताते हैं कि खेल अधिकारियों ने उन्हें खेल विभाग में ही नौकरी देने की बात कही थी, ताकि नौकरी के साथ-साथ उनका ओलंपिक, एशियाड या कामनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने का सपना पूरा हो सके। खिलाड़ी यह बात आसानी से मान गए और अब भटक रहे हैं। बताया जाता है कि खेल विभाग में इन तीनों खिलाडिय़ों के लिए सहायक ग्रेड-3 के तीन पद सुरक्षित भी हैं, लेकिन अभी तक आदेश नहीं हो पा रहा है।
नर्सरी से नहीं निकलाङ्घएक भी पहलवान
मध्यप्रदेश में खेलों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। सिर्फ बजट से कुछ नहीं होता। जमीनी काम भी जरूरी होता है। केंद्र की योजनाओं का फायदा उठाने में राज्य पीछे है। इतना ही नहीं ग्रामीण और शहरी इलाकों में तो खेल के मैदान ही नहीं बचे हैं। मैदानों के बिना खेल प्रतिभाओं को निखारने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। प्रोत्साहन भी खत्म हो चुका है। तभी तो खो-खो, कबड्डी और अन्य खेलों में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा दिखा चुके खिलाड़ी भी अब आरटीओ में दलाली करते नजर आते हैं। प्रदेश सरकार उत्कृष्ट खिलाडिय़ों को नौकरियां देती थी। जो पिछले 20 से ज्यादा साल से बंद है। ऐसे में खेलों में अच्छे दिन आने की उम्मीद करना बेमानी ही नजर आता है।
निवेश के मामले में टॉप टेन में भी मप्र का नाम नहीं
ग्लासगो में राष्ट्रमंडल खेलों में देश के पहलवानों ने जो धूम मचाई वो तारीफे काबिल थी। सभी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारतीय पहलवानों का रूतबा साबित हो रहा है, लेकिन मध्यप्रदेश में कुश्ती की नर्सरी कहे जाने वाले इंदौर की बात करें तो यहां इस खेल ने सफलता की ऊंचाई छोड़ नीचे का रुख कर लिया है। कुश्ती की इस बदहाली की बात करें तो पता चलता है, इससे जुड़े लोगों में कुछ सालों से चल रही खींचतान, कुश्ती संघ के पदों पर काबिज होने की लड़ाई और सुविधाओं के अभाव में यहां के पहलवान नाम रोशन नहीं कर पा रहे हैं। सरकार की कुछ नीतियों ने भी युवा खिलाडियों के मन से इस खेल के प्रति रुझान कम किया है। 10 वर्ष पहले की बात करें तो कुश्ती के विकास के लिए नगर निगम प्रशासन भी सक्रिय भूमिका निभाता था, लेकिन अब नहीं। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारे प्रतिनिधित्व की कमी के पीछे बड़ा कारण यह भी है कि यहां के पहलवान मैट पर मुकाबला करने के बजाय मिट्टी की लड़ाई में उत्साह दिखाते हैं। नेशनल-इंटरनेशनल स्पर्धाएं मैट पर ही होती हैं। मिट्टी पर रूतबा रखने वाले पहलवान मैट पर असफल हो जाते हैं। पांच दशक पहले तक यहां 125 से ज्यादा अखाड़े थे। आज 15 से 20 अखाड़े हैं। अब मल्हार आश्रम, विजय बहादुर, चंदन गुरू, गोमती देवी, चंद्रपाल, सुशील कुमार कुश्ती एकेडमी, बिंद्रा गुरू, रामनाथ गुरू, ब्रजलाल गुरू, बाहुबली, बलभीम, हैदरी अखाड़ा इतिहास को सहेज रहे हैं। शहर को एकमात्र ओलंपियन देने का श्रेय कुश्ती को जाता है। यहां के धुरंधर पहलवान पप्पू यादव ने 1992 के बार्सिलोना और 1996 के अटलांटा ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। कुश्ती में शहर का नाम रोशन करने वालों में कृपाशंकर पटेल, उमेश पटेल, रोहित पटेल, राजकुमार पटेल, राकेश पटेल, अरविंद पटेल, बलराम यादव, विजय मिश्रा, वीरेंद्र निशित व अशोक यादव प्रमुख हैं।
राष्ट्रीय खिलाड़ी कर रहे दलाली
कबड्डी के मैदान पर मध्यप्रदेश का नाम रोशन करने वाले खिलाडिय़ों को लगता था कि तीन नेशनल खेलने के बाद उन्हें सरकारी नौकरी तो मिल ही जाएगी, लेकिन सरकार के एक आदेश ने उनके सपने को तोड़ दिया। अब उन्हें पेट पालने के लिए आरटीओ में दलाली करना पड़ रही है। हालांकि उन्हें अभी भी आस है कि किसी न किसी दिन खेलमंत्री उनकी तरफ ध्यान जरूर देंगे। यह कहानी है इंदौर आरटीओ के केशरबाग ऑफिस में काम करने वाले एक दर्जन से अधिक एजेंटों की। कभी कबड्डी के मैदान पर अपना पसीना बहाने वाले ये खिलाड़ी अब दिन में आरटीओ ऑफिस में भाग-दौड़ कर अपना पसीना बहाते हैं। इसके बदले में उन्हें मिलते हैं 100 से 200 रुपए। अपना और परिवार का पालन-पोषण करने के लिए यह काम करना उनकी मजबूरी बन गई है। ऐसे ही एक एजेंट विजय गौड़ जो 1994 से अब तक प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। अब तक 11 नेशनल खेल चुके। उन्होंने आधा दर्जन से अधिक मेडल भी जीते हैं, लेकिन अब वे वहां पर एजेंट का काम करते हैं। एक अन्य एजेंट सुनील ठाकुर की कहानी भी इनसे जुदा नहीं है। ये 1997 में प्रदेश के उत्कृष्ट खिलाड़ी घोषित किए गए। 7 नेशनल खेल चुके ठाकुर को भी लगा था कि उन्हें सरकारी नौकरी तो मिल ही जाएगी, लेकिन किस्मत ने उन्हें एजेंट बना दिया। कबड्डी के अंतरराष्ट्रीय रैेफरी बन चुके हैं। ठाकुर बताते हैं उनके जैसे करीब 15 एजेंट हैं जो कई बार प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।
प्रशिक्षित ट्रेनर भी नहीं
प्रदेश के स्कूलों में ज्यादातर फिटनेस ट्रेनर और कोच क्लब विशेष के सदस्य होते हैं। इनके अलावा स्टेट और नेशनल लेवल के खिलाड़ी स्पोर्ट टीचर का रोल निभाते हैं। इससे जहां योग्यता प्राप्त (बीपीएड-एमपीएड) उम्मीदवारों को नौकरी नहीं मिल पाती, वहीं बच्चों में खेल को लेकर पेशेवर तरीका विकसित नहीं हो पाता। नियमानुसार कोच बनने के लिए भारत सरकार के खेल एवं युवा मामलों के मंत्रालय के तहत गठित स्पोट्र्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (साई) का डिप्लोमा (कोचिंग) जरूरी है। साई की मान्यता के बाद ही व्यक्ति कोच बन सकता है, लेकिन प्रदेश के स्कूल-कॉलेजों में राजनीतिक-सामाजिक रसूख के बल पर ही स्पोट्र्स ऑफिसर, स्पोर्ट टीचर, फिटनेस ट्रेनर और कोच रखने की परंपरा है।
प्रशिक्षण की कमी से कम हुआ रूझान
कुश्ती ओलंपियन पप्पू यादव कहते हैं कि सुविधाओं की कमी व उचित प्रशिक्षण नहीं मिलने से हमारे पहलवान नेशनल-इंटरनेशनल लेवल पर नहीं जा पा रहे हैं। सरकार पहले नेशनल में तीन मैडल जीतने वाले को खेल कोटे में नौकरी देती थी, जो अब बंद हो गई है। इस कारण भी रूझान कम हुआ है। कुश्ती प्रशिक्षक मानसिंह यादव का कहना है कि इस खेल के कर्ताधर्ता कुश्ती संघ में पद हासिल करने की खींचतान में इस कदर जुटे हैं कि वे खेल के विकास को भूल गए हैं। इंदौर में कुश्ती की सुविधाओं की कमी नहीं है, जरूरत है मौजूद सुविधाओं के उचित उपयोग की। शहर में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, बस उन्हें तलाशने और तराशने की जरूरत है। इंदौर जिला खेल अधिकारी राजेश शाक्य का कहना हैं कि नए खिलाड़ी इसमें नहीं जुड़े रहे हैं। लोग देशी खेलों को भूलकर विदेशी खेलों की ओर जा रहे हैं, जिससे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व कम हुआ है। सुविधाओं की बात करें तो यहां उसकी कोई कमी नहीं हैं।
कई खेलों को सरकार ने भुलाया
सिल बम (स्टीक फेंसिंग) का सामान्य अर्थ है लाठी घुमाने की कला। इसी तरह तलवारबाजी और स्काई मार्शल आर्ट (तुराबाजी) जैसे खेलों में प्रदेश के कई होनहार खिलाड़ी नाम रोशन कर रहे हैं। प्रदेश के खिलाड़ी इन खेलों में सुविधाओं से वंचित हैं। इन खेलों में यदि प्रदेश सरकार खिलाडिय़ों की हरसंभव मदद करे तो वे काफी आगे निकल सकते हैं। वर्तमान में मौजूदा सुविधा और संसाधनों के अनुसार ही खिलाड़ी प्रैक्टिस कर रहे हैं। यदि इनमें इजाफा कर दिया जाए तो वे और बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे। स्कूल गेम्स कैलेंडर का विस्तार होने से प्रदेश के खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थान नहीं बना पा रहे हैं। लोर बॉल, ट्रेडिशनल रेसलिंग और सिल बम को एसजीएफआई ने दो साल पहले स्कूल गेम्स में शामिल किया है, लेकिन प्रदेश की सूची से ये गायब हैं। ऐसे में निजी संगठनों की प्रतिस्पर्धाएं ही विकल्प में बचती हैं। पिछले साल भी इन खेलों में संभाग से कोई खिलाड़ी हिस्सा नहीं ले पाया।
मैदान बनाए पर दिखते नहीं
स्वर्णिम मध्यप्रदेश की परिकल्पना में शुमार, खेल मैदान बनाने का काम जनपद पंचायतें पूरा नहीं करा पाई हैं। ग्राम पंचायतों को मनरेगा के फंड से खेल मैदान बनाने के लिए पैसा मिलता है। जितना बड़ा खेल मैदान बनेगा उतना नहीं पेमेंट श्रमिकों को होगा। मनरेगा के तहत ग्राम पंचायतों में जो खेल मैदान बनाए गए हैं उनको लेकर अब सवाल उठने लगे हैं। खेल एवं युवक कल्याण विभाग की माने तो जिले में मनमर्जी से मैदान बना दिए गए हैं, मैदान बनाने से पहले जिला पंचायत द्वारा पूछताछ करना भी जरूरी नहीं समझा गया। उन पंचायतों में भी खेल मैदान बनाए गए जिनका नाम सूची में शामिल ही नहीं था। ऐसे में जिन पंचायतों में खेल सामग्री का वितरण किया गया था वहां खेलने के लिए मैदान ही नहीं है।
मध्यप्रदेश नहीं उठा पा रहा है केंद्र की सुविधाओं का लाभ
मध्यप्रदेश सहित कई राज्य सरकारें युवा खिलाडिय़ों के लिए सुवधाएं जुटाने में रुचि नहीं ले रही हैं। केंद्रीय खेल मंत्रालय, गांव व शहरों में मैदान बनाने और खेल सुविधाओं के लिए राज्य सरकारों को आर्थिक मदद देता है। लेकिन अधिकांश राज्य इस स्कीम का कोई खास लाभ नहीं ले रहे हैं। इनमें मप्र के अलावा हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व झारखंड शामिल हैं। खेल मंत्रालय तीन अलग-अलग कार्यक्रमों के तहत राज्यों को आर्थिक सहायता मुहैया कराता है। इनमें राष्ट्रीय युवा एवं किशोर विकास कार्यक्रम, शहरी खेल अवसंरचना योजना और पंचायत युवा क्रीड़ा एवं खेल शामिल हैं। तीनों ही कार्यक्रम युवा खिलाडिय़ों को तैयार करने, उन्हें बेहतर खेल सुविधाएं देने व भविष्य में होने वाली अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाओं को ध्यान में रखकर तैयार किए गए हैं। मप्र ने इन तीनों ही केंद्रीय याजनाओं में रुचि नहीं दिखाई है। 35 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में दो दर्जन से ज्यादा राज्य ऐसे हैं जो विशेष योजनाओं के तहत खेलों के लिए मिलने वाली निधि नहीं ले रहे हैं। केंद्र को बीते वर्ष पांच राज्यों का एक-एक प्रस्ताव मिला था।
मैदान का गड़बड़झाला
सितंबर 2009 में प्रदेश के बावन हजार गांवों में खेल मैदान बनाने को काम शुरू किया गया, लेकिन पांच साल से अधिक का समय बीत जाने के बाद भी कहीं-कहीं ही खेल मैदान नजर आ रहे हैं। हालांकि खेल एवं युवा कल्याण विभाग द्वारा अब तक पांच हजार से 14 हजार तक आबादी वाले गांवों में 381 खेल मैदानों के निर्माण का दावा किया जा रहा है। इनमें से सर्वाधिक 36 खेल मैदानों का निर्माण मुरैना जिले में किया गया है। इन गांवों के खिलाडिय़ों को उनके गांव में ही खेल अधोसंरचना एवं प्रशिक्षक उपलब्ध कराए गए हैं। इनमें से इंदौर जिले में 34, धार में 28, सागर में 22, ग्वालियर में 20, शाजापुर में 19, होशंगाबाद, बड़वानी, सतना तथा भिण्ड में 18-18, देवास, खरगौन तथा छिन्दवाड़ा में 17-17, सीहोर, छतरपुर तथा शहडोल में 16-16, नीमच तथा दमोह 15-15, बैतूल, उज्जैन तथा रीवा 14-14, जबलपुर तथा बालाघाट में 12-12, शिवपुरी, विदिशा, रायसेन, टीकमगढ़, सिवनी तथा बुरहानपुर में 10-10, नरसिंहपुर में 9, खण्डवा, श्योपुर तथा मंदसौर में 8-8, पन्ना, कटनी तथा रतलाम में 7-7, गुना, मण्डला, उमरिया, राजगढ़ तथा सीधी में 6-6, दतिया में 5, झाबुआ, अनूपपुर तथा हरदा में 4-4, भोपाल तथा डिण्डोरी में 2-2 तथा अशोकनगर जिले में एक खेल मैदान बनाए जा रहे हैं। मनरेगा के तहत गांवों में बनने वाले खेल मैदानों को लेकर एक बड़ा गड़बड़झाला सामने आ रहा है। जिपं जहां 481 पंचायतों में खेल मैदान बनाए जाने का दावा कर रही है। वहीं खेल एवं युवक कल्याण विभाग का कहना है कि पंचायतों में खेल मैदान नहीं होने से ग्रामीण प्रतिभाएं नहीं निखर पा रही है। दोनों विभाग अपने-अपने दावों को सच साबित करने में लगे हुए हैं, लेकिन इसमें नुकसान खिलाडियों का हो रहा है। लाखों की खेल सामग्रियां तालों में कैद है, मैदान नहीं होने से इनका उपयोग नहीं हो पा रहा।
खेल से ऐसे हो रहा खिलवाड़
ग्रामीण खेल प्रतिभाओं को निखारने के लिए पंचायत स्तर पर पायका योजना के तहत खेल मैदान बनाए गए हैं और खेल सामग्रियां भी बांटी गई है, लेकिन आज तक इनका उपयोग नहीं हो सका है। बताया गया कि यह खेल सामग्रियां पंचायत भवनों एवं स्कूल भवनों के अंदर ताले में कैद है। खेलकूद स्पर्घाओं के दौरान ही इनका इस्तेमाल कभी-कभार किया जाता है अन्यथा यह महीनों कमरे में बंद पड़ी रहती है। यही कारण है कि संसाधनों के अभाव में अक्सर ग्रामीण खेल प्रतिभाएं पिछड़ जाती है। जिले में पायका के तहत 500 रूपए प्रतिमाह जैसे अल्प मानदेय पर क्रीड़ा श्री नियुक्त किए गए थे। इन्हें एक साल के एग्रीमेंट पर पार्टटाइम जॉब जैसी नियुक्ति दी गई थी। पिछले कुछ माह से जिले में नियुक्त क्रीड़ा श्री को मानदेय ही नहीं दिया जा रहा है। ऐसी स्थिति में जो क्रीड़ा श्री खेलों के प्रति व्यक्तिगत लगाव के कारण थोड़ी बहुत रूचि भी लेते थे उन्होंने यहां रूचि लेना ही बंद कर दिया है। उनका कहना था कि 500 रूपए में फुल टाइम सेवाएं देना संभव ही नहीं था और अब तो महीने से यह भी नहीं मिल रहे हैं।
ये है पायका का सच
झ्र जिस कंपनी द्वारा खेल सामग्री दी गई थी उसे पंचायत में जाकर खेल मैदान में सामग्री स्थापित करके देनी थी जो अधिकांश जगह नहीं हुआ।
झ्र पायका के तहत 4600 आबादी तक की ग्राम पंचायतों में एक लाख रूपए की खेल सामग्री दी गई।
झ्र वर्तमान में अधिकांश जगह यह खेल सामग्री स्कूल और पंचायत भवन में पड़ी हुई है।
झ्र जो सामग्री सप्लाई की गई उसकी गुणवत्ता भी उसकी लागत के अनुरूप नहीं है।
झ्र सामग्री वितरण के बाद खेल युवक कल्याण विभाग के अधिकारियों ने कभी भी मौका-मुआयना नहीं किया।
झ्र जिले में लगभग एक सैकड़ा पंचायतों को एक करोड़ की सामग्री सप्लाई की गई।
झ्र मनरेगा के तहत इन पंचायतों में खेल मैदान बनाए जाना थे, लेकिन यहां भी हालत खराब है।
झ्र जो क्रीड़ा श्री नियुक्त किए गए उनमें खेल विशेषज्ञता को लेकर कोई मापदंड नहीं था।
लाखों की सामग्री बेकार
खेल एवं युवक कल्याण विभाग द्वारा पायका योजना के तहत ग्राम पंचायतों को एक-एक लाख रूपए तक की खेल सामग्रियों का वितरण किया गया है। इनमें मल्टीपर्पज मेट, फुटबाल, व्हालीबॉल, हैंडबाल, खो-खो पोल सहित अन्य सामग्रियां दी गई है लेकिन अधिकांश पंचायतों में यह सामग्रियां ताले में बंद पड़ी है, क्योंकि खेल मैदान नहीं होने के कारण इनका उपयोग ही नहीं हो रहा है। चूंकि यह सामग्रियां पंचायत भवन, स्कूलों भवनों में रखी है इसलिए जगह के अभाव में इन्हें रखने से भी गुरेज किया जा रहा है।
यह दी थीं सामग्रियां
खेल उपकरण संख्या
मल्टीपर्पस मेट 40 नग
फुटबाल गोल पोस्ट 01 नग
व्हालीबॉल पोल 01 नग
हैंडबॉल पोल 01 नग
खो-खो पोल 01 नग
हाईजम्प पोल 01 नग
जेवलिन (मेन) — 01 नग
जेवलिन (वूमेन) — 01 नग
डिस्क (मेन) — 01 नग
डिस्क (वूमेन) — 01 नग
शाटपुट (मेन) — 01 नग
शाटपुट (वूमेन) — 01 नग
स्टॉप वॉच — 01 नग
हाईजम्प स्टैंड — 01 नग
मेजरिंग टेप — (50 मी.) 02 नग
मेजरिंग टेप — (20 मी.) 02 नग
लाइन मार्किग मशीन — 01 नग
विनोद कुमार उपाध्याय/बिच्छू डॉट कॉम