Monday, 30 March 2015

खेलों में झूठी शान मध्यप्रदेश महान!

आखिर कब तक हम पराए पूतों के यश पर छाती चौड़ी करके घूमेंगें
हर साल बड़ी-बड़ी घोषणाएं। इस बार के राष्ट्रीय खेलों में मध्यप्रदेश छठे स्थान पर आया तो होर्डिंग्स टंग गए। अखबारों में फोटो छपे। मुख्यमंत्री के साथ खिलाड़ी भी सामने आए। पता चला कि मध्यप्रदेश के लिए पदक जीतने वाले तो ज्यादातर बाहरी खिलाड़ी हैं। मध्यप्रदेश के हैं ही नहीं। तो मध्यप्रदेश सरकार उन पर क्यों इठला रही है। अब सवाल उठ रहे हैं कि खेल अकादमियों पर हर साल खर्च हो रहे सवा सौ करोड़ कहां जा रहे हैं?
भोपाल (डीएनएन)। खेलों के प्रति मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का समर्पण, 125 करोड़ से अधिक का सालाना बजट, डेढ़ दर्जन अकादमियां, इन अकादमियों में सालभर प्रशिक्षण और लंबे-चौड़े दावों के बाद भी मप्र खेलों में दूसरे राज्यों के दम पर अपनी शान बघार रहा है। ऐसा भी नहीं है कि प्रदेश में खेल प्रतिभाओं की कमी है, लेकिन खेलों के संवर्धन के नाम पर बड़े-बड़े ओहदेदार जिस तरह से खिलवाड़ कर रहे हैं उससे प्रखङ्मु_10144 (1)देश की प्रतिभाएं खेल मैदानों तक पहुंचने से पहले ही व्यवस्था से परास्त हो रही हैं। आलम यह है कि हमें राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में दूसरे राज्यों के खिलाडिय़ों का सहारा लेना पड़ रहा है। इससे न केवल प्रदेश की किरकिरी हो रही है, बल्कि यहां के खिलाडिय़ों को हतोत्साहित किया जा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कब तक हम पराए पूतों के यश पर अपनी छाती चौड़ी करके घूमेंगे।
उल्लेखनीय है कि मप्र में खेलों के विस्तार और उत्थान के लिए खेल और युवक कल्याण विभाग द्वारा राज्य में खेल गतिविधियों का संचालन किया जा रहा है। कथित तौर पर विभाग का यह प्रयास रहता है कि वित्तीय व प्रशासनिक संसाधनों का समुचित उपयोग कर राज्य के खिलाडिय़ों एवं युवाओं को उनसे संबंधित गतिविधियों में अधिकाधिक सहयोग एवं सुविधाएं उपलब्ध कराएं। इसी दृष्टि से विभिन्न खेल अकादमियां, नेशनल सेलिंग स्कूल, ग्रामीण युवा केन्द्रों की स्थापना, आदिवासी ग्रामीण युवा केंद्रों का सुदृढ़ीकरण, रोजगारोन्मुखी प्रशिक्षण कार्यक्रम के वीएलसीसी अकादमियों का संचालन किया जा रहा है। इसके लिए सालाना करीब 125 करोड़ का बजट मुहैया कराया जाता है। लेकिन विसंगति यह है कि इतनी बड़ी राशि स्वाहा करने के बाद भी हम कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने लायक एक खिलाड़ी तैयार नहीं कर पाए हैं। अभी हाल ही में संपन्न हुए 35वें नेशनल गेम्स में 91 पदकों के साथ मप्र जब छठे स्थान पर आया तो खेल विभाग के साथ ही सरकार ने भी इसके लिए अपनी पीठ खूब थपथपाई। राजधानी भोपाल सहित प्रदेशभर में होर्डिंग्स लगाकर उपलब्धियां गिनाई गईं। जबकि हकीकत यह है कि 91 पदकों में से 41 पदक तो दूसरे राज्यों के खिलाडिय़ों ने जीते हैं। पदकों के आंकड़ों को परोसकर भले ही खेल और युवक कल्याण विभाग या राज्य सरकार वाह-वाही लूट रही है, लेकिन प्रदेश के खिलाड़ी और खेल प्रेमी शर्मिंदगी महसूस कर रहे हैं। उनका सवाल है कि आखिर सवा अरब का बजट कहां खपाया जा रहा है। यही नहीं ग्लासगो में संपन्न हुए कॉमनवेल्थ गेम्स में 225 सदस्यीय भारतीय एथलीटों की टीम में प्रदेश की एक एथलीट को ही जगह मिल सकी।
आंकड़ों के साथ बड़े-बड़े दावे
प्रदेश में खेलों के विस्तार और उत्थान के लिए खेल और युवक कल्याण विभाग द्वारा बड़े-बड़े दावे किए जाते रहे हैं। इसके लिए राज्य शासन द्वारा ग्वालियर में प्रथम राज्य स्तरीय महिला हॉकी एकेडमी की स्थापना जुलाई 2006 में की, इसके अतिरिक्त भोपाल में वर्ष 2007 से 5 खेल अकादमियां संचालित की जा रही है, जिसमें 13 खेलों का प्रशिक्षक दिया जा रहा है। पुरुष हॉकी अकादमी, शूटिंग अकादमी, घुड़सवारी अकादमी, मार्शल आर्ट अकादमी के अन्तर्गत 7 खेल यथा जूडो, कराते, ताइक्वांडो, बॉक्सिंग, कश्ती, फैसिंग एवं वूशु, वाटर स्पोट्र्स अकादमी के अन्तर्गत रोइंग, सेलिंग एवं कैनोइंग-क्याकिंग इसके अतिरिक्त वर्ष 2008 में ग्वालियर में पुरुष क्रिकेट एवं 2010 में बैडमिंटन अकादमी स्थापित है। जबलपुर में वर्ष 2013 से तीरंदाजी अकादमी संचालित की जा रही है एवं तीरंदाजी खेल के फीडर सेंटर भोपाल, मंडला एवं झाबुआ में संचालित है। इन अकादमियों में निरंतर प्रशिक्षण चलता रहता है। इसी प्रशिक्षण और आंकड़ों के दम पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान यह कहते नहीं थक रहे हैं कि आगामी ओलंपिक में मप्र के खिलाड़ी पदक जीतकर देश का नाम रोशन करेंगे। लेकिन शायद वह इस हकीकत से अनभिज्ञ हैं कि झारखंड में हुए पिछले राष्ट्रीय खेलों में मिले 103 पदकों की अपेक्षा केरल में हुए 35वें नेशनल गेम्स में 12 कम पदक यानी 91 पदक ही मध्यप्रदेश को मिले हैं।
पिछले खेलों की ही तरह मध्य प्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग ने झूठी शान की खातिर अपने खिलाडिय़ों से परहेज करते हुए आयातित खिलाडिय़ों पर अधिक भरोसा किया। बावजूद इसके प्रदेश को 23 स्वर्ण, 26 रजत और 42 कांस्य सहित कुल 91 पदक ही हासिल हुए। घटते पदकों पर खेलों के आका इन खेलों में कराते के शामिल न होने का बहाना बना सकते हैं। जो भी हो खुशी के इस अवसर पर मध्यप्रदेश के विजेता खिलाडिय़ों ही नहीं प्रदेश से बाहर के खिलाडिय़ों संदीप सेजवाल, रिचा मिश्रा, आरोन एंजिल डिसूजा, नैनो देवी, सोनिया देवी और पश्चिम बंगाल की उदीयमान जिमनास्ट प्रणति नायक जैसे 40 खिलाडिय़ों को भी बधाई। वे नहीं होते तो मध्यप्रदेश के पदकों की संख्या 50 भी नहीं होती। प्रदेश सरकार उन्मादित है, पर वे बताएं कि राष्ट्रीय खेलों में प्रदेश का नाम रोशन करने वाले इन खिलाडिय़ों से क्या हासिल हुआ?
बंगाल के तीन एथलीट मप्र टीम में
मध्यप्रदेश से जुडऩे वाली प्रणति अकेली एथलीट नहीं हैं। प्रणति की साथ जिमनास्ट अंकिता और दिग्गज एथलीट मल्लिका भी मध्यप्रदेश की ओर से केरल नेशनल गेम्स में शामिल हुईं। खिलाडिय़ों के अनुसार बंगाल में जमकर राजनीति चल रही है और प्रतिभा को नजरअंदाज किया जा रहा है। वहीं बंगाल एसोसिएशन के शंकर चौधरी कहते हैं कि इन खिलाडिय़ों ने राज्य के साथ गद्दारी की है। प्रणति के मना करने के बाद ही हमने उन्हें टीम में शामिल नहीं किया। चौधरी कहते है कि मप्र ने इन बाहरी खिलाडिय़ों को अपनी तरफ से खिलाकर अपने खिलाडिय़ों का अधिकार छिना है। वह कहते हैं की मप्र में प्रतिभावान खिलाडिय़ों की कमी नहीं है।
बाहरी खिलाडिय़ों पर बरसेगा धन
झारखंड की अपेक्षा केरल नेशनल गेम्स में कम पदक जीतने के बाद भी प्रदेश में खेलों और खिलाडिय़ों से खिलवाड़ करने वाले अधिकारी अब अपनी शेखी बघारने के लिए केरल नेशनल गेम्स के पदक विजेता खिलाडिय़ों को पुरस्कृत करने का स्वांग रचाने की तैयारी में जुट गए हैं। उन्हें करीब साढ़े तीन करोड़ रुपए इनाम के रूप में बांटे जाएंगे। इसमें सबसे ज्यादा राशि तैराकी के उन खिलाडिय़ों को मिलेगी जो बाहर के हैं लेकिन मप्र के लिए खेले हैं। इनमें दिल्ली की रिचा मिश्रा, संदीप सेजवाल, आरोन डिसूजा और प. बंगाल की प्रणति नायक सहित कई स्टार खिलाड़ी शािमल हैं। मध्यप्रदेश ने 14 फरवरी को केरल में संपन्न हुए 35 वें नेशनल गेम्स में 23 स्वर्ण, 27 रजत और 41 कांस्य सहित कुल 91 पदक जीते हैं। प्रदेश की खेल नीति के अनुसार नेशनल गेम्स के व्यक्तिगत स्वर्ण विजेता को चार लाख, रजत विजेता को 3.20 और कांस्य विजेता को 2.40 लाख रुपए देने का प्रावधान है। टीम इवेंट में यह राशि 2.00, 1.60 और 1.20 लाख रुपए के हिसाब से दी जाती है। इस हिसाब से 91 पदकों पर कुल 3.26 करोड़ रुपए होते हैं। स्टार तैराक रिचा मिश्रा को सबसे ज्यादा 24 लाख रुपए मिलेंगे। उन्होंने चार स्वर्ण, एक रजत और दो कांस्य जीते हैं। सारे पदक व्यक्तिगत स्पर्धाओं में ही जीते हैं। इसलिए उन्हें इनामी राशि किसी से बांटनी नहीं पड़ेगी। संदीप सेजवाल दूसरे नंबर पर रहेंगे। उन्हें इस बार 15.20 लाख रुपए मिलेंगे। उन्होंने तीन स्वर्ण एक कांस्य व्यक्तिगत और एक स्वर्ण एक कांस्य टीम इवेंट में जीता है। वहीं आरोन डिसूजा को भी लगभग इतनी ही राशि मिलेगी। जानकार बताते हैं कि मध्य प्रदेश में खेलोत्थान की कोशिशों को खेल विभाग के कारिंदों से काफी नुकसान हुआ है। सरकार ने बेशक हॉकी और वॉटर स्पोट्र्स पर कई करोड़ खर्च किए हों पर राष्ट्रीय खेलों में प्रदेश की हॉकी टीमें नहीं खेलीं। पिछले खेलों की कांस्य पदक विजेता महिला टीम से इस बार स्वर्ण पदक की उम्मीद थी, पर कोच साहब की करतूतों ने उम्मीदों पर पानी फेर दिया। प्रदेश के खिलाडिय़ों ने जो 50 पदक जीते हैं, उनमें ऐसे खिलाड़ी भी हैं जिन्होंने प्रदेश सरकार की बिना मदद राज्य का गौरव बढ़ाया है।
बाहरी खिलाडिय़ों को लेकर विवाद
उधर नेशनल गेम्स में तैराकी और जिम्नास्टिक में कुछ बाहरी खिलाडिय़ों को खिलाए जाने का मुद्दा गरमाने लगा है। दरअसल, नेशनल गेम्स संयोग से बाहरी खिलाडिय़ों ने ज्यादा पदक जीते हैं। इसलिए इनामी राशि भी सबसे ज्यादा उन्हीं के हिस्से में जाएगी। यही बात प्रदेश के कई खेल संगठनों को अखर रही है। भोपाल जिला ओलिंपिक एसोसिएशन के सचिव दीपक गौड़ ने खेल एवं युवा कल्याण विभाग में अपनी शिकायत दर्ज कराई है आरटीआई लगाकर यह जानकारी मांगी है कि तैराकी में जो 10 स्वर्ण, तीन रजत और सात कांस्य पदक जीते हैं, वो खिलाड़ी मप्र के किस जिले के हैं, जिसका अभी तक कोई जवाब नहीं मिला है। वहीं बाहरी खिलाडिय़ों को लेकर प्रदेश के कुछ खेल संगठनों और खिलाडिय़ों की आपत्ति के बाद खेल एवं युवक कल्याण विभाग उन्हें मनाने में जुट गया है। कांग्रेस विधायक अजय सिंह का कहना है कि खेल और खिलाडिय़ों को बढ़ावा देने के मुख्यमंत्री के दावे विज्ञापनों और होर्डिंग्स तक सीमित हैं। वह कहते हैं कि मुख्यमंत्री की यह पोल 2011 में स्पेशल ओलंपिक एथेंस में दो कांस्य पदक हासिल करने वाली सीता ने खोल दी थी। सिंह कहते हैं कि देश के बाहर के खिलाडिय़ों के लिए शिवराज सिंह चौहान अब्दुल्ला जैसे दीवाने हो जाते है लेकिन अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्पर्धाओं में प्रदेश के खिलाडिय़ों को जीतने पर पुरस्कृत करने की अपनी ही घोषणा को भूल जाते है। खेलों का विकास और खिलाडिय़ों को प्रोत्साहन देने की बात कितनी झूठी है और सिर्फ होर्डिंग्स तक सीमित है। सीता ने गोलगप्पे बेचकर यह बता दिया कि भाजपा सरकार कितनी ढोंगी है। उन्होंने कहा कि सीता अंतरराष्ट्रीय मैदान एथेंस में तो पदक जीत जाती है लेकिन अपने ही प्रदेश में भाजपा सरकार से हारकर गोल गप्पे बेचने को मजबूर हो जाती है। ऐसे कई खिलाड़ी हैं जिन्होंने प्रदेश का नाम रोशन किया है, लेकिन सरकार घोषणा करके उन्हें पुरस्कृत करना भूल गई है।
निष्पक्ष जांच होनी चाहिए
अजय सिंह खेल विभाग में एक बड़ा भ्रष्टाचार उजागर करते हुए कहते हैं कि पिछले वर्ष खेल विभाग में होडिंग्स, फ्लेक्स एवं अन्य खरीद में अरबों रुपए का घोटाला हुआ है, जिसकी निष्पक्ष जांच होना चाहिए। अजय ने एक बयान में यह खुलासा करते हुए आरोप लगाया कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एवं उनके मंत्री अभियान और यात्राओं में जुटे हैं, उनका ध्यान शासन-प्रशासन पर नहीं होने और सेवा शुल्क निरंतर मिलते रहने तथा उनकी बेखबरी से विभागों में सरकारी पैसा लूटकर जेब भरने का अभियान जोरशोर से चल रहा है। उन्होंने कहा कि वर्ष 2010 में विभिन्न कार्यों की जो दरें खेल विभाग ने मंजूर कीं, उन्हीं कामों में वर्ष 2011 में जो दरें रहीं हैं, उनमें 19-20 का नहीं बल्कि 80-20 का अंतर आना आश्चर्यजनक है। होर्डिग्स की जो दर 189 रूपए प्रति वर्ग फुट थी वह वर्ष 2011 में भी बाजार में 74 रूपए प्रति वर्गफुट रही। इसी तरह वर्ष 2010 में फ्लैक्स डिजाइन के लिए नौ हजार रुपए का भुगतान हुआ, जिसकी बाजार दर वर्ष 2011 में 785 रुपए थी। लैक्स निर्माण में 47 रुपए वर्गफट का भुगतान वर्ष 2010 में हुआ, जबकि वर्ष 2011 में बाजार में यह दर 5.99 रुपए वर्ग फुट थी। वह कहते हैं कि इसी तरह हर साल खेल प्रतिभाओं को निखारने के लिए मिले फंड की बंदरबांट हो रही है।
कोई तो समझा दे 125 करोड़ का खेल!
प्रदेश के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि सवा सौ करोड़ का खेल बजट होने के बाद भी नेशनल गेम्स में बाहरी खिलाडिय़ों को खिलाया जा रहा है और राष्ट्रमंडल खेलों में एकमात्र खिलाड़ी ने मौजूदगी दर्ज कराई। डेढ़ दर्जन खेल अकादमियां सक्रिय होने के बाद भी खेलों में प्रदेश की स्थिति लापता जैसी है। प्रदेश सरकार ने पिछले वर्ष बजट में खेलों के लिए 125 करोड़ का प्रावधान किया था। इस राशि से प्रदेश के खेल व खिलाडियों का विकास होना था, लेकिन ग्लास्गो कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए जब 14 खेलों की भारतीय टीमों की घोषणा की गई तो उसमें मध्यप्रदेश से सिर्फ निशानेबाजी के डबल ट्रेप इवेंट में भोपाल की वर्षा बर्मन और भारतीय महिला कुश्ती टीम के कोच के रूप में इंदौर के कृपाशंकर पटेल ही ग्लासगो पहुंच सके।
प्रणति को लेकर नेशनल गेम्स में भी विवाद
केरल में संपन्न हुए 35वें नेशनल गेम्स के दौरान भी मध्यप्रदेश की ओर से हिस्सा लेने वाली जिमनास्ट प्रणति नायक के पदक जीतने को लेकर विवाद की स्थिति बनी थी। प्रणति को पहले अयोग्य घोषित कर उसके द्वारा जीता गया रजत पदक देने से मना कर दिया गया। लेकिन उसके बाद चले आरोप-प्रत्यारोप के बाद उन्हें पदक दे दिया गया। दरअसल कॉमनवेल्थ गेम्स, एशियन गेम्स और वल्र्ड चैंपियनशिप में देश का प्रतिनिधित्व कर चुकीं प्रणति मूल रूप से बंगाल की रहने वाली हैं और सात साल की उम्र से पश्चिम बंगाल स्थित साई सेंटर में पै्रक्टिस कर रही हैं। यहां तक कि बंगाल सरकार ने उन्हें इस साल राज्य के सर्वोच्च खेल सम्मान खेल रत्न से भी सम्मानित किया। इसके बावजूद नेशनल गेम्स के लिए चयन नहीं होने के बाद प्रणति ने मध्य प्रदेश का रुख कर लिया। वेस्ट बंगाल जिमनास्टिक एसोसिएशन (डब्लूबीजीए) शुरूआत में चुप रहा लेकिन जैसे ही प्रणति ने पदक जीता, एसोसिएशन ने उनकी भागीदारी पर आपत्ति उठा दी। इसके बाद गेम्स की तकनीकी समिति ने उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया। प्रणति ने बताया कि मध्य प्रदेश की ओर से खेलने के लिए जरूरी राज्य एसोसिएशन और जिमनास्टिक एसोसिएशन ऑफ इंडिया की एनओसी भी उनके पास है। हालांकि डब्लूबीजीए के शंकर चौधरी ने कहा कि उन्होंने प्रणति को किसी तरह की एनओसी नहीं दी है। उन्होंने कहा कि बंगाल में इस तरह की कई एसोसिएशन चल रही हैं लेकिन डब्लूबीजीए को ही केवल आईओए से मान्यता मिली हुई है।
क्या कर रही 17 खेल अकादमियां?
प्रदेश सरकार ने भोपाल में पुरूष हॉकी, कुश्ती, जूडो, ताइक्वांडो, कराते, फेंसिंग, बॉक्सिंग, केनोइंग-कयाकिंग, सेलिंग, निशानेबाजी, घुड़सवारी, वुशू, रोइंग व ग्वालियर में महिला हॉकी, बैडमिंटन, क्रिकेट (पुरूष) व जबलपुर में तीरंदाजी की अकादमी है। सभी में श्रेष्ठ खिलाड़ी प्रशिक्षण लेते हैं। रहने, खाने, ठहरने व पढ़ाई की व्यवस्था भी है। इन अकादमियों को शुरू हुए 6 वर्ष से ज्यादा हो चुके, पर परिणाम अच्छे नहीं मिल रहे। प्रदेश में कई ऐसे खिलाड़ी हैं जो इस खेल में प्रतिनिधित्व कर सकते थे। अंतरराष्ट्रीय निशानेबाज और अर्जुन अवॉर्डी राजकुमार राठौर, अमित पिलानिया और इंदौर की सुरभि पाठक, धार के बैडमिंटन खिलाड़ी सौरभ व समीर वर्मा, लंदन ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का हिस्सा रहे ग्वालियर के शिवेंद्र सिंह, बॉक्सिंग खिलाड़ी राहुल पासी और अंकित शर्मा जैसे खिलाडिय़ों को मौका दिया जा सकता था। मप्र के लिए सबसे दुख की बात तो यह रही कि जहां दिल्ली कामनवेल्थ गेम्स में मेजबान भारत ने 495 खिलाड़ी मैदान में उतारे थे, जिसमें से तीन खिलाड़ी मप्र के थे। लेकिन चार साल में यह संख्या बढऩे के बजाय घट गई। ग्लास्गो कामनवेल्थ गेम्स के लिए प्रदेश से एक मात्र खिलाड़ी वर्षा वर्मन (शूटिंग) ही क्वालिफाई कर पाईं। अगर इस संख्या को प्रतिशत में बदला जाए, तो करीब 64 प्रतिशत गिरावट आई है प्रदेश के खेलों में। दिल्ली कामनवेल्थ गेम्स में मप्र से लंबी कूद के खिलाड़ी अंकित शर्मा, 5000 मीटर दूरी के एथलीट संदीप बाथम और मनीराम पटेल ने भागीदारी की थी। लेकिन ग्लासगो में सिर्फ शूटर वर्षा वर्मन के अलावा किसी भी खेल से कोई खिलाड़ी मप्र से क्वालिफाई नहीं कर पाया। यही स्थिति ओलिंपिक में भी रहती है। 2004 ओलिंपिक में मप्र से एक भी खिलाड़ी क्वालीफाई नहीं कर पाया। बीजिंग में भी यही स्थिति बरकरार रही। 2012 लंदन ओलिंपिक में मप्र से हाकी खिलाड़ी शिवेंद्र सिंह ने भाग लेकर लाज बचा ली थी। हालांकि अंतर्राष्टीय खेल प्रतियोगिताओं में मप्र के खिलाडिय़ों की कम होती सं या के पीछे संयुक्त संचालक खेल एवं युवा कल्याण डा. विनोद प्रधान का तर्क है कि हमारे प्रदर्शन में गिरावट नहीं आई है। पिछले कामनवेल्थ गे स के तीन खेल इस बार हटा देने से यह स्थिति बनी। विभाग से जुड़े लोगों के अनुसार खेल बजट की राशि अकादमियों के संचालन में, नई अकादमियां स्थापित करने में, संभाग व जिलों में खेल सुविधा देने में, जो सुविधाएं हैं उनके संचालन में, नई आधारभूत सुविधाएं बनाने में, वर्षभर जिला, संभाग व राज्यस्तरीय प्रतियोगिता करवाने में, खिलाडियों को वार्षिक खेल छात्रवृत्ति देने में खर्च की जाती है। वार्षिक खेल पुरस्कारों (विक्रम, एकलव्य, विश्वामित्र) की राशि भी इसी बजट से दी जाती है।
नौकरी के लिए भटक रहे विक्रम अवार्डी
मुख्यमंत्री कहते फिरते हैं कि, खेलों में पैसे आड़े नहीं आएगा। खिलाड़ी मेहनत करें, खूब खेलें और पदक जीतें। बाकी मुझ पर छोड़ दें। खेलों में जितना भी बजट लगेगा प्रदेश सरकार तैयार है। लेकिन उनकी घोषण के इतर कई खिलाड़ी आज भी परेशान घूम रहे हैं लेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। ऐसे ही प्रदेश के तीन स्टार खिलाड़ी लतिका भंडारी ताइक्वांडो, शानू महाजन तलवारबाजी और कुशल थापा कराते विक्रम अवॉर्ड पाने के बावजूद नौकरी के लिए भटक रहे हैं। इसमें लतिका और कुशल को वर्ष 2012 में तथा शानू महाजन को वर्ष 2013 में विक्रम अवॉर्ड से नवाजा गया था, इनको भी अन्य विक्रम अवॉर्डियों की भांति मंच पर ही नियुक्ति पत्र भी भेंट कर दिए थे। लेकिन खेल अधिकारियों के कहने पर इन्होंने इसलिए ज्वाइन नहीं किया कि, उन्हें अपने-अपने कॅरियर में अभी और ऊपर तक जाने की बात कही गई थी। खिलाड़ी बताते हैं कि खेल अधिकारियों ने उन्हें खेल विभाग में ही नौकरी देने की बात कही थी, ताकि नौकरी के साथ-साथ उनका ओलंपिक, एशियाड या कामनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने का सपना पूरा हो सके। खिलाड़ी यह बात आसानी से मान गए और अब भटक रहे हैं। बताया जाता है कि खेल विभाग में इन तीनों खिलाडिय़ों के लिए सहायक ग्रेड-3 के तीन पद सुरक्षित भी हैं, लेकिन अभी तक आदेश नहीं हो पा रहा है।
नर्सरी से नहीं निकलाङ्घएक भी पहलवान
मध्यप्रदेश में खेलों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। सिर्फ बजट से कुछ नहीं होता। जमीनी काम भी जरूरी होता है। केंद्र की योजनाओं का फायदा उठाने में राज्य पीछे है। इतना ही नहीं ग्रामीण और शहरी इलाकों में तो खेल के मैदान ही नहीं बचे हैं। मैदानों के बिना खेल प्रतिभाओं को निखारने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। प्रोत्साहन भी खत्म हो चुका है। तभी तो खो-खो, कबड्डी और अन्य खेलों में राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा दिखा चुके खिलाड़ी भी अब आरटीओ में दलाली करते नजर आते हैं। प्रदेश सरकार उत्कृष्ट खिलाडिय़ों को नौकरियां देती थी। जो पिछले 20 से ज्यादा साल से बंद है। ऐसे में खेलों में अच्छे दिन आने की उम्मीद करना बेमानी ही नजर आता है।
निवेश के मामले में टॉप टेन में भी मप्र का नाम नहीं
ग्लासगो में राष्ट्रमंडल खेलों में देश के पहलवानों ने जो धूम मचाई वो तारीफे काबिल थी। सभी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारतीय पहलवानों का रूतबा साबित हो रहा है, लेकिन मध्यप्रदेश में कुश्ती की नर्सरी कहे जाने वाले इंदौर की बात करें तो यहां इस खेल ने सफलता की ऊंचाई छोड़ नीचे का रुख कर लिया है। कुश्ती की इस बदहाली की बात करें तो पता चलता है, इससे जुड़े लोगों में कुछ सालों से चल रही खींचतान, कुश्ती संघ के पदों पर काबिज होने की लड़ाई और सुविधाओं के अभाव में यहां के पहलवान नाम रोशन नहीं कर पा रहे हैं। सरकार की कुछ नीतियों ने भी युवा खिलाडियों के मन से इस खेल के प्रति रुझान कम किया है। 10 वर्ष पहले की बात करें तो कुश्ती के विकास के लिए नगर निगम प्रशासन भी सक्रिय भूमिका निभाता था, लेकिन अब नहीं। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हमारे प्रतिनिधित्व की कमी के पीछे बड़ा कारण यह भी है कि यहां के पहलवान मैट पर मुकाबला करने के बजाय मिट्टी की लड़ाई में उत्साह दिखाते हैं। नेशनल-इंटरनेशनल स्पर्धाएं मैट पर ही होती हैं। मिट्टी पर रूतबा रखने वाले पहलवान मैट पर असफल हो जाते हैं। पांच दशक पहले तक यहां 125 से ज्यादा अखाड़े थे। आज 15 से 20 अखाड़े हैं। अब मल्हार आश्रम, विजय बहादुर, चंदन गुरू, गोमती देवी, चंद्रपाल, सुशील कुमार कुश्ती एकेडमी, बिंद्रा गुरू, रामनाथ गुरू, ब्रजलाल गुरू, बाहुबली, बलभीम, हैदरी अखाड़ा इतिहास को सहेज रहे हैं। शहर को एकमात्र ओलंपियन देने का श्रेय कुश्ती को जाता है। यहां के धुरंधर पहलवान पप्पू यादव ने 1992 के बार्सिलोना और 1996 के अटलांटा ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व किया था। कुश्ती में शहर का नाम रोशन करने वालों में कृपाशंकर पटेल, उमेश पटेल, रोहित पटेल, राजकुमार पटेल, राकेश पटेल, अरविंद पटेल, बलराम यादव, विजय मिश्रा, वीरेंद्र निशित व अशोक यादव प्रमुख हैं।
राष्ट्रीय खिलाड़ी कर रहे दलाली
कबड्डी के मैदान पर मध्यप्रदेश का नाम रोशन करने वाले खिलाडिय़ों को लगता था कि तीन नेशनल खेलने के बाद उन्हें सरकारी नौकरी तो मिल ही जाएगी, लेकिन सरकार के एक आदेश ने उनके सपने को तोड़ दिया। अब उन्हें पेट पालने के लिए आरटीओ में दलाली करना पड़ रही है। हालांकि उन्हें अभी भी आस है कि किसी न किसी दिन खेलमंत्री उनकी तरफ ध्यान जरूर देंगे। यह कहानी है इंदौर आरटीओ के केशरबाग ऑफिस में काम करने वाले एक दर्जन से अधिक एजेंटों की। कभी कबड्डी के मैदान पर अपना पसीना बहाने वाले ये खिलाड़ी अब दिन में आरटीओ ऑफिस में भाग-दौड़ कर अपना पसीना बहाते हैं। इसके बदले में उन्हें मिलते हैं 100 से 200 रुपए। अपना और परिवार का पालन-पोषण करने के लिए यह काम करना उनकी मजबूरी बन गई है। ऐसे ही एक एजेंट विजय गौड़ जो 1994 से अब तक प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। अब तक 11 नेशनल खेल चुके। उन्होंने आधा दर्जन से अधिक मेडल भी जीते हैं, लेकिन अब वे वहां पर एजेंट का काम करते हैं। एक अन्य एजेंट सुनील ठाकुर की कहानी भी इनसे जुदा नहीं है। ये 1997 में प्रदेश के उत्कृष्ट खिलाड़ी घोषित किए गए। 7 नेशनल खेल चुके ठाकुर को भी लगा था कि उन्हें सरकारी नौकरी तो मिल ही जाएगी, लेकिन किस्मत ने उन्हें एजेंट बना दिया। कबड्डी के अंतरराष्ट्रीय रैेफरी बन चुके हैं। ठाकुर बताते हैं उनके जैसे करीब 15 एजेंट हैं जो कई बार प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।
प्रशिक्षित ट्रेनर भी नहीं
प्रदेश के स्कूलों में ज्यादातर फिटनेस ट्रेनर और कोच क्लब विशेष के सदस्य होते हैं। इनके अलावा स्टेट और नेशनल लेवल के खिलाड़ी स्पोर्ट टीचर का रोल निभाते हैं। इससे जहां योग्यता प्राप्त (बीपीएड-एमपीएड) उम्मीदवारों को नौकरी नहीं मिल पाती, वहीं बच्चों में खेल को लेकर पेशेवर तरीका विकसित नहीं हो पाता। नियमानुसार कोच बनने के लिए भारत सरकार के खेल एवं युवा मामलों के मंत्रालय के तहत गठित स्पोट्र्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (साई) का डिप्लोमा (कोचिंग) जरूरी है। साई की मान्यता के बाद ही व्यक्ति कोच बन सकता है, लेकिन प्रदेश के स्कूल-कॉलेजों में राजनीतिक-सामाजिक रसूख के बल पर ही स्पोट्र्स ऑफिसर, स्पोर्ट टीचर, फिटनेस ट्रेनर और कोच रखने की परंपरा है।
प्रशिक्षण की कमी से कम हुआ रूझान
कुश्ती ओलंपियन पप्पू यादव कहते हैं कि सुविधाओं की कमी व उचित प्रशिक्षण नहीं मिलने से हमारे पहलवान नेशनल-इंटरनेशनल लेवल पर नहीं जा पा रहे हैं। सरकार पहले नेशनल में तीन मैडल जीतने वाले को खेल कोटे में नौकरी देती थी, जो अब बंद हो गई है। इस कारण भी रूझान कम हुआ है। कुश्ती प्रशिक्षक मानसिंह यादव का कहना है कि इस खेल के कर्ताधर्ता कुश्ती संघ में पद हासिल करने की खींचतान में इस कदर जुटे हैं कि वे खेल के विकास को भूल गए हैं। इंदौर में कुश्ती की सुविधाओं की कमी नहीं है, जरूरत है मौजूद सुविधाओं के उचित उपयोग की। शहर में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, बस उन्हें तलाशने और तराशने की जरूरत है। इंदौर जिला खेल अधिकारी राजेश शाक्य का कहना हैं कि नए खिलाड़ी इसमें नहीं जुड़े रहे हैं। लोग देशी खेलों को भूलकर विदेशी खेलों की ओर जा रहे हैं, जिससे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व कम हुआ है। सुविधाओं की बात करें तो यहां उसकी कोई कमी नहीं हैं।
कई खेलों को सरकार ने भुलाया
सिल बम (स्टीक फेंसिंग) का सामान्य अर्थ है लाठी घुमाने की कला। इसी तरह तलवारबाजी और स्काई मार्शल आर्ट (तुराबाजी) जैसे खेलों में प्रदेश के कई होनहार खिलाड़ी नाम रोशन कर रहे हैं। प्रदेश के खिलाड़ी इन खेलों में सुविधाओं से वंचित हैं। इन खेलों में यदि प्रदेश सरकार खिलाडिय़ों की हरसंभव मदद करे तो वे काफी आगे निकल सकते हैं। वर्तमान में मौजूदा सुविधा और संसाधनों के अनुसार ही खिलाड़ी प्रैक्टिस कर रहे हैं। यदि इनमें इजाफा कर दिया जाए तो वे और बेहतर प्रदर्शन कर सकेंगे। स्कूल गेम्स कैलेंडर का विस्तार होने से प्रदेश के खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थान नहीं बना पा रहे हैं। लोर बॉल, ट्रेडिशनल रेसलिंग और सिल बम को एसजीएफआई ने दो साल पहले स्कूल गेम्स में शामिल किया है, लेकिन प्रदेश की सूची से ये गायब हैं। ऐसे में निजी संगठनों की प्रतिस्पर्धाएं ही विकल्प में बचती हैं। पिछले साल भी इन खेलों में संभाग से कोई खिलाड़ी हिस्सा नहीं ले पाया।
मैदान बनाए पर दिखते नहीं
स्वर्णिम मध्यप्रदेश की परिकल्पना में शुमार, खेल मैदान बनाने का काम जनपद पंचायतें पूरा नहीं करा पाई हैं। ग्राम पंचायतों को मनरेगा के फंड से खेल मैदान बनाने के लिए पैसा मिलता है। जितना बड़ा खेल मैदान बनेगा उतना नहीं पेमेंट श्रमिकों को होगा। मनरेगा के तहत ग्राम पंचायतों में जो खेल मैदान बनाए गए हैं उनको लेकर अब सवाल उठने लगे हैं। खेल एवं युवक कल्याण विभाग की माने तो जिले में मनमर्जी से मैदान बना दिए गए हैं, मैदान बनाने से पहले जिला पंचायत द्वारा पूछताछ करना भी जरूरी नहीं समझा गया। उन पंचायतों में भी खेल मैदान बनाए गए जिनका नाम सूची में शामिल ही नहीं था। ऐसे में जिन पंचायतों में खेल सामग्री का वितरण किया गया था वहां खेलने के लिए मैदान ही नहीं है।
मध्यप्रदेश नहीं उठा पा रहा है केंद्र की सुविधाओं का लाभ
मध्यप्रदेश सहित कई राज्य सरकारें युवा खिलाडिय़ों के लिए सुवधाएं जुटाने में रुचि नहीं ले रही हैं। केंद्रीय खेल मंत्रालय, गांव व शहरों में मैदान बनाने और खेल सुविधाओं के लिए राज्य सरकारों को आर्थिक मदद देता है। लेकिन अधिकांश राज्य इस स्कीम का कोई खास लाभ नहीं ले रहे हैं। इनमें मप्र के अलावा हरियाणा, पंजाब, राजस्थान व झारखंड शामिल हैं। खेल मंत्रालय तीन अलग-अलग कार्यक्रमों के तहत राज्यों को आर्थिक सहायता मुहैया कराता है। इनमें राष्ट्रीय युवा एवं किशोर विकास कार्यक्रम, शहरी खेल अवसंरचना योजना और पंचायत युवा क्रीड़ा एवं खेल शामिल हैं। तीनों ही कार्यक्रम युवा खिलाडिय़ों को तैयार करने, उन्हें बेहतर खेल सुविधाएं देने व भविष्य में होने वाली अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाओं को ध्यान में रखकर तैयार किए गए हैं। मप्र ने इन तीनों ही केंद्रीय याजनाओं में रुचि नहीं दिखाई है। 35 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में दो दर्जन से ज्यादा राज्य ऐसे हैं जो विशेष योजनाओं के तहत खेलों के लिए मिलने वाली निधि नहीं ले रहे हैं। केंद्र को बीते वर्ष पांच राज्यों का एक-एक प्रस्ताव मिला था।
मैदान का गड़बड़झाला
सितंबर 2009 में प्रदेश के बावन हजार गांवों में खेल मैदान बनाने को काम शुरू किया गया, लेकिन पांच साल से अधिक का समय बीत जाने के बाद भी कहीं-कहीं ही खेल मैदान नजर आ रहे हैं। हालांकि खेल एवं युवा कल्याण विभाग द्वारा अब तक पांच हजार से 14 हजार तक आबादी वाले गांवों में 381 खेल मैदानों के निर्माण का दावा किया जा रहा है। इनमें से सर्वाधिक 36 खेल मैदानों का निर्माण मुरैना जिले में किया गया है। इन गांवों के खिलाडिय़ों को उनके गांव में ही खेल अधोसंरचना एवं प्रशिक्षक उपलब्ध कराए गए हैं। इनमें से इंदौर जिले में 34, धार में 28, सागर में 22, ग्वालियर में 20, शाजापुर में 19, होशंगाबाद, बड़वानी, सतना तथा भिण्ड में 18-18, देवास, खरगौन तथा छिन्दवाड़ा में 17-17, सीहोर, छतरपुर तथा शहडोल में 16-16, नीमच तथा दमोह 15-15, बैतूल, उज्जैन तथा रीवा 14-14, जबलपुर तथा बालाघाट में 12-12, शिवपुरी, विदिशा, रायसेन, टीकमगढ़, सिवनी तथा बुरहानपुर में 10-10, नरसिंहपुर में 9, खण्डवा, श्योपुर तथा मंदसौर में 8-8, पन्ना, कटनी तथा रतलाम में 7-7, गुना, मण्डला, उमरिया, राजगढ़ तथा सीधी में 6-6, दतिया में 5, झाबुआ, अनूपपुर तथा हरदा में 4-4, भोपाल तथा डिण्डोरी में 2-2 तथा अशोकनगर जिले में एक खेल मैदान बनाए जा रहे हैं। मनरेगा के तहत गांवों में बनने वाले खेल मैदानों को लेकर एक बड़ा गड़बड़झाला सामने आ रहा है। जिपं जहां 481 पंचायतों में खेल मैदान बनाए जाने का दावा कर रही है। वहीं खेल एवं युवक कल्याण विभाग का कहना है कि पंचायतों में खेल मैदान नहीं होने से ग्रामीण प्रतिभाएं नहीं निखर पा रही है। दोनों विभाग अपने-अपने दावों को सच साबित करने में लगे हुए हैं, लेकिन इसमें नुकसान खिलाडियों का हो रहा है। लाखों की खेल सामग्रियां तालों में कैद है, मैदान नहीं होने से इनका उपयोग नहीं हो पा रहा।
खेल से ऐसे हो रहा खिलवाड़
ग्रामीण खेल प्रतिभाओं को निखारने के लिए पंचायत स्तर पर पायका योजना के तहत खेल मैदान बनाए गए हैं और खेल सामग्रियां भी बांटी गई है, लेकिन आज तक इनका उपयोग नहीं हो सका है। बताया गया कि यह खेल सामग्रियां पंचायत भवनों एवं स्कूल भवनों के अंदर ताले में कैद है। खेलकूद स्पर्घाओं के दौरान ही इनका इस्तेमाल कभी-कभार किया जाता है अन्यथा यह महीनों कमरे में बंद पड़ी रहती है। यही कारण है कि संसाधनों के अभाव में अक्सर ग्रामीण खेल प्रतिभाएं पिछड़ जाती है। जिले में पायका के तहत 500 रूपए प्रतिमाह जैसे अल्प मानदेय पर क्रीड़ा श्री नियुक्त किए गए थे। इन्हें एक साल के एग्रीमेंट पर पार्टटाइम जॉब जैसी नियुक्ति दी गई थी। पिछले कुछ माह से जिले में नियुक्त क्रीड़ा श्री को मानदेय ही नहीं दिया जा रहा है। ऐसी स्थिति में जो क्रीड़ा श्री खेलों के प्रति व्यक्तिगत लगाव के कारण थोड़ी बहुत रूचि भी लेते थे उन्होंने यहां रूचि लेना ही बंद कर दिया है। उनका कहना था कि 500 रूपए में फुल टाइम सेवाएं देना संभव ही नहीं था और अब तो महीने से यह भी नहीं मिल रहे हैं।
ये है पायका का सच
झ्र जिस कंपनी द्वारा खेल सामग्री दी गई थी उसे पंचायत में जाकर खेल मैदान में सामग्री स्थापित करके देनी थी जो अधिकांश जगह नहीं हुआ।
झ्र पायका के तहत 4600 आबादी तक की ग्राम पंचायतों में एक लाख रूपए की खेल सामग्री दी गई।
झ्र वर्तमान में अधिकांश जगह यह खेल सामग्री स्कूल और पंचायत भवन में पड़ी हुई है।
झ्र जो सामग्री सप्लाई की गई उसकी गुणवत्ता भी उसकी लागत के अनुरूप नहीं है।
झ्र सामग्री वितरण के बाद खेल युवक कल्याण विभाग के अधिकारियों ने कभी भी मौका-मुआयना नहीं किया।
झ्र जिले में लगभग एक सैकड़ा पंचायतों को एक करोड़ की सामग्री सप्लाई की गई।
झ्र मनरेगा के तहत इन पंचायतों में खेल मैदान बनाए जाना थे, लेकिन यहां भी हालत खराब है।
झ्र जो क्रीड़ा श्री नियुक्त किए गए उनमें खेल विशेषज्ञता को लेकर कोई मापदंड नहीं था।
लाखों की सामग्री बेकार
खेल एवं युवक कल्याण विभाग द्वारा पायका योजना के तहत ग्राम पंचायतों को एक-एक लाख रूपए तक की खेल सामग्रियों का वितरण किया गया है। इनमें मल्टीपर्पज मेट, फुटबाल, व्हालीबॉल, हैंडबाल, खो-खो पोल सहित अन्य सामग्रियां दी गई है लेकिन अधिकांश पंचायतों में यह सामग्रियां ताले में बंद पड़ी है, क्योंकि खेल मैदान नहीं होने के कारण इनका उपयोग ही नहीं हो रहा है। चूंकि यह सामग्रियां पंचायत भवन, स्कूलों भवनों में रखी है इसलिए जगह के अभाव में इन्हें रखने से भी गुरेज किया जा रहा है।
यह दी थीं सामग्रियां
खेल उपकरण संख्या
मल्टीपर्पस मेट 40 नग
फुटबाल गोल पोस्ट 01 नग
व्हालीबॉल पोल 01 नग
हैंडबॉल पोल 01 नग
खो-खो पोल 01 नग
हाईजम्प पोल 01 नग
जेवलिन (मेन) — 01 नग
जेवलिन (वूमेन) — 01 नग
डिस्क (मेन) — 01 नग
डिस्क (वूमेन) — 01 नग
शाटपुट (मेन) — 01 नग
शाटपुट (वूमेन) — 01 नग
स्टॉप वॉच — 01 नग
हाईजम्प स्टैंड — 01 नग
मेजरिंग टेप — (50 मी.) 02 नग
मेजरिंग टेप — (20 मी.) 02 नग
लाइन मार्किग मशीन — 01 नग
विनोद कुमार उपाध्याय/बिच्छू डॉट कॉम

Saturday, 28 March 2015

औरत साबित करने की चुनौती

सब चुप हैं और तमाशा हो रहा है। भारत की एक होनहार बेटी दुती चंद देश की सरहदों से बहुत दूर खुद को औरत साबित करने की फरियाद लगा रही है, पर उसे न्याय कैसे मिलेगा कहना मुश्किल है। भारत में आधी आबादी की संघर्ष यात्रा इतनी कंटीली और पथरीली है कि उससे गुजर कर मंजिल पाना नामुमकिन ही नहीं असम्भव बात है। कहने को खेलों में सुविधाएं बढ़ी हैं, तो तकनीक में इतना इजाफा हुआ है कि सेकेण्ड का सौवां हिस्सा भी दर्ज होना अब मुश्किल नहीं रहा बावजूद इसके अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक महासंघ के समूचे खेल तंत्र में महिला-पुरुष खिलाड़ियों के बीच विभेद बरकरार है।
जीन विविधिता की वजह से प्रतिभाशाली खिलाड़ी दुती चंद न केवल परेशान है बल्कि उसके सामने खुद को औरत साबित करने की बेहद कठिन चुनौती है। दुती को लेकर न केवल भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक संगठन भी दोराहे पर है। एक गरीब प्रतिभाशाली खिलाड़ी लगभग 10 महीने से अपने औरत होने की फरियाद कर रही है लेकिन उसे न्याय मिलता नहीं दिख रहा। तीन फरवरी, 1996 को गोपालपुर जिला जाजपुर (उड़ीसा) में चक्रधर और अखूजी चंद के घर जन्मी दुती चंद ने 10 साल की उम्र से ही नेशनल स्तर पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाना शुरू कर दिया था। दुती चंद के चार बहन हैं जिनमें उसकी बड़ी बहन सरस्वती भी एथलीट रही है। 19 वर्षीय दुती चंद न केवल 100 और 200 मीटर दौड़ की नेशनल चैम्पियन है बल्कि उसने कम उम्र में ही जितनी सफलताएं अर्जित की हैं, देश की कोई अन्य महिला खिलाड़ी नहीं कर सकी है। हाल ही केरल में हुए राष्ट्रीय खेलों में भी उसने स्वर्ण पदक से अपना गला सजाया था। पांच साल की उम्र से ट्रैक पर जलवा दिखा रही गोपालपुर (उड़ीसा) की जांबाज एथलीट दुती चंद नेशनल स्तर पर 100 और 200 मीटर दौड़ के 200 से अधिक तमगे हासिल करने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दो स्वर्ण और एक कांस्य पदक जीत चुकी है।
भारत में जहां तक जेण्डर परिवर्तन की बात है अकेले दुती चंद ही नहीं इसका दंश शांति सुंदरराजन और पिंकी प्रमाणिक भी झेल चुकी हैं। काफी संघर्ष के बाद यह दोनों खिलाड़ी निर्दोष तो साबित हुर्इं पर इनका खेल जीवन तबाह हो गया और दुबारा ट्रैक पर फिर नहीं दौड़ीं। देश की उदीयमान खिलाड़ी दुती के मामले की फिलवक्त स्विट्जरलैंड के शहर लुसाने में सुनवाई चल रही है। इसे  जुलाई 2014 में ग्लासगो कॉमनवेल्थ खेलों के कुछ दिन पहले ही ट्रैक से अयोग्य करार दिया गया था। तब उसके शरीर में टेस्टोस्टेरोन की मात्रा सामान्य से ज्यादा पाई गई थी। टेस्टोस्टेरोन वो हार्मोन है जो पुरुषोचित गुणों को नियंत्रित करता है। अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक संघ और अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति की नीतियों के मुताबिक किसी खिलाड़ी के शरीर में टेस्टोस्टेरोन की क्या सीमा हो, यह तय किया गया है। अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक संघ का मानना है कि हाइपरएंड्रोजेनिज्म की वजह से खिलाड़ियों को अनुचित फायदा मिलता है और यह सभी खिलाड़ियों को बराबर का मौका दिए जाने के सिद्धांत का घोर उल्लंघन है। हाइपरएंड्रोजेनिज्म उस स्थिति को कहते हैं जब किसी महिला के शरीर में जीन की विविधिताओं की वजह से सामान्य से अधिक मात्रा में टेस्टोस्टेरोन बनता है। देखा जाए तो जीन की विविधिता से पैदा होने वाली ऐसी बहुत सी स्थितियां हैं, जो अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक संघ के नियंत्रण में नहीं हैं हालांकि उनसे भी खिलाड़ियों को फायदा मिलता है, पर उन्हें प्रतिस्पर्धा के लिए अनुचित नहीं माना जाता। अब सवाल यह उठता है कि हम हाइपरएंड्रोजेनिज्म को अलग कर क्यों देखते हैं? ऐसा इसलिए है कि खेलकूद में महिलाओं को लेकर हमारी सामाजिक सोच अभी भी रूढ़िवादी है। दुती भी रूढ़िवादिता का ही शिकार है। खेलों की जहां तक बात है औरत होने के सामान्य मानकों पर खरा नहीं उतरने वाली महिला एथलीटों को कई तरह के परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। महिला एथलीटों पर इसका जबरदस्त दबाव होता है कि वे अपने को औरत साबित करें ताकि उनके लिंग को लेकर किसी तरह का सवाल न उठे। प्राय: खुद को औरत साबित करने का बोझ महिला खिलाड़ियों को ही उठाना पड़ता है। इसी तरह उन पर यह साबित करने का बोझ भी होता है कि अधिक टेस्टोस्टेरोन की वजह से उन्हें कोई फायदा तो नहीं मिल रहा। आईएएफ ने दुती चंद से जो मेडिकल जांच कराने को कहा है, वह गैर जरूरी है। इससे इन खिलाड़ियों पर काफी ज्यादा आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक बोझ पड़ता है।
हाइपरएंड्रोजेनिज्म की जहां तक बात है ऐसी कई महिलाएं हैं, जिन पर इसका असर है। उन्हें एंड्रोजेन के प्रभाव को दबाने के लिए किसी तरह की थेरेपी या सर्जरी नहीं करानी होती है। हाइपरएंड्रोजेनिज्म तो पॉलीसिस्टिक ओवेरिक सिंड्रोम की वजह से भी होता है और तकरीबन 10 से 15 फीसदी महिलाएं इसकी चपेट में आ जाती हैं। अफसोस की ही बात है कि खेल के मैदान में वापसी करने के लिए अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक संघ जो इलाज कराने को कहता है, उसका खर्च भी उसी खिलाड़ी को ही उठाना पड़ता है। दुती चंद के मामले में यदि भारतीय खेल मंत्रालय आर्थिक मदद नहीं दे रहा होता तो यह गरीब की बेटी तो अपील भी नहीं कर पाती। अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक संघ के नियमों के मुताबिक यदि दुती चंद एंड्रोजेन के स्तर को कम नहीं कर पाई तो उसे अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में फिर भाग लेने की इजाजत नहीं मिलेगी। एंड्रोजेन के स्तर को कम करने की शर्त के खिलाफ दुती चंद ने अपील की है। बकौल दुती  वह अपने शरीर में बदलाव करने को तैयार नहीं है। इसे हास्यास्पद ही कहेंगे कि खेल की दुनिया में  पुरुषों के लिए टेस्टोस्टेरोन के स्तर की कोई सीमा तय नहीं है जबकि महिला खिलाड़ियों के लिए बेवजह के मानक तय किए गये हैं।  अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक संघ की जहां तक बात है वह टेस्टोस्टेरोन के मामले में अभी तक कोई सीमा तय नहीं कर सका है। खेलों में उत्कृष्टता और खुद को औरत साबित करने जैसे बड़े मुद्दों पर बखेड़ा तो खड़ा किया जाता है लेकिन इसके स्थायी निराकरण के प्रयास नहीं होते। खेलों में ईमानदारी और पारदर्शिता  के अभाव में खिलाड़ी खिलखिलाने की बजाय मायूस हैं। खेलों में प्रतिभा कोई मायने नहीं रखती क्योंकि उसका पैमाना वे लोग तय करते हैं जिनका खेलों से दूर-दूर तक वास्ता नहीं होता। खेलनहारों की जिस पर कृपा हो जाए वह पिद्दी प्रदर्शन के बावजूद किसी भी प्रतिस्पर्धा में खेल सकता है। भारतीय खेलों में खिलाड़ियों से खेलवाड़ गाहे-बगाहे नहीं बल्कि अमूमन हर प्रतियोगिता में होता है। प्रतिभाएं लाख मिन्नतों के बाद भी न्याय नहीं पातीं। खिलाड़ियों के मायूस चेहरों पर खेलनहार तरस नहीं खाते, उनका दिल नहीं पसीजता। आखिर उपेक्षा से तंग खिलाड़ी असमय खेलों से तौबा कर लेता है और उसके अरमान एक झटके में जमींदोज हो जाते हैं। आम खेलप्रेमियों के सामने वह सच कभी सामने नहीं आता जोकि प्रतिभाएं हर पल जीती हैं। प्रतिभाशाली खिलाड़ी किन-किन दिक्कतों से जूझता है उससे प्राय: हम बेखबर होते हैं। खेलों की हर आचार संहिता खिलाड़ी विरोधी और खेल पदाधिकारियों की आरामतलबी का जरिया है। छोटी सी गलती पर खिलाड़ी तो बलि का बकरा बना दिया जाता है लेकिन उनका कुछ नहीं होता जिन पर प्राय: प्रतिभा हनन के लिए उंगली उठती है। मैदान में कभी खिलाड़ी बेईमानी से हराया जाता है तो कभी उस पर स्वयं हार जाने का दबाव डाला जाता है। प्रतिभा हनन का यह शर्मनाक खेल गांव-गली से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक बदस्तूर जारी है। दुती भी षड्यंत्र का शिकार है।

Friday, 27 March 2015

भारतीय राजनीति के उदारमना अटल

अपनी भाषणकला, मनमोहक मुस्कान, वाणी के ओज, लेखन एवं विचारधारा के प्रति निष्ठा तथा ठोस फैसले लेने के लिए विख्यात उदारमना अटल बिहारी वाजपेयी को शुक्रवार को जैसे ही देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया राजनीतिक गलियारों में खुशी की लहर दौड़ गई। आज के इस दौर में जब कोई भी सम्मान विवादों से परे न हो, ऐसे समय में वाजपेयी के सम्मान पर समूचे मुल्क का खुश होना उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व की व्यापक स्वीकार्यता ही है। राष्ट्रीय क्षितिज पर स्वच्छ छवि के साथ अजातशत्रु कहे जाने वाले कविमना, पत्रकार और सरस्वती पुत्र अटल बिहारी वाजपेयी, एक व्यक्ति का नाम नहीं वरन राष्ट्रीय विचारधारा का नाम है। राष्ट्रहित के प्रबल पक्षधर अटल जी राजनेताओं में नैतिकता के प्रतीक हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसम्बर, 1924 को ब्रह्ममुहूर्त में ग्वालियर में हुआ था।  पुत्र होने की खुशी में जहां घर में फूल की थाली बजाई जा रही थी वहीं पास के गिरजाघर में घंटियों और तोपों की आवाज के साथ प्रभु ईसा मसीह का जन्मदिन मनाया जा रहा था। शिशु का नाम बाबा श्यामलाल वाजपेयी ने अटल रखा था। माता कृष्णा देवी प्यार-दुलार से उन्हें अटल्ला कहकर पुकारती थीं। पिता का नाम पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी था। पण्डित कृष्णबिहारी वाजपेयी का सम्मानित कवियों में शुमार था। उनके द्वारा रचित ईश प्रार्थना राज्य के सभी विद्यालयों में कराई जाती थी। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि अटल जी को कवि रूप विरासत में मिला है।
अटल जी की शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर में ही हुई। 1939 में जब वे ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज में अध्ययन कर रहे थे तभी से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में जाने लगे थे। वह प्रत्येक रविवार को आर्यकुमार सभा के कार्यक्रमों में भाग लेते थे, वहीं उनकी मुलाकात शाखा के प्रचारक नारायण जी से हुई। अटल जी उनसे बहुत प्रभावित हुए और रोज शाखा जाने लगे। 1942 में लखनऊ शिविर में अटल जी ने अपनी कविता हिन्दू तन-मन, हिन्दू जीवन, जिस ओजस्वी और तेजस्वी शैली में पढ़ी थी उसकी चर्चा आज भी की जाती है। समय को किसने देखा है। तब कौन जानता था कि ग्वालियर का लाल एक दिन भारत का प्रधानमंत्री बनेगा। वाजपेयी जी ने तमाम अवरोधों को तोड़ते हुए 1990 के दशक में राजनीतिक मंच पर भाजपा को स्थापित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह वाजपेयी के व्यक्तित्व का ही सम्मोहन था कि भाजपा के साथ उस समय नये सहयोगी दल जुड़ते गए जब बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद दक्षिणपंथी झुकाव के कारण उस जमाने में भाजपा को राजनीतिक रूप से अछूत माना जाता था।  वाजपेयी को भारत एवं पाकिस्तान के मतभेदों को दूर करने की दिशा में प्रभावी पहल करने का श्रेय दिया जाता है। इन्हीं कदमों के कारण ही वह भाजपा के राष्ट्रवादी राजनीतिक एजेण्डे से परे जाकर एक व्यापक फलक के राजनेता के रूप में जाने जाते हैं। कांग्रेस से इतर किसी दूसरी पार्टी के देश के सर्वाधिक लम्बे समय तक प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहने वाले वाजपेयी को अक्सर भाजपा का उदारवादी चेहरा कहा जाता है।  उनके आलोचक हालांकि उन्हें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का ऐसा मुखौटा बताते रहे हैं जिनकी सौम्य मुस्कान उनकी पार्टी के हिन्दूवादी समूहों के साथ संबंधों को छुपाए रखती है।
साल 1999 की वाजपेयी की पाकिस्तान यात्रा की उनकी ही पार्टी के कुछ नेताओं ने आलोचना की थी लेकिन वह बस पर सवार होकर लाहौर पहुंचे।    वाजपेयी की इस राजनयिक सफलता को भारत -पाक संबंधों में एक नए युग की शुरुआत की संज्ञा देकर सराहा गया। लेकिन इस दौरान पाकिस्तानी सेना ने गुपचुप अभियान के जरिए अपने सैनिकों की कारगिल में घुसपैठ करायी और इसके हुए संघर्ष में पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी। भाजपा के चार दशक तक विपक्ष में रहने के बाद वाजपेयी 1996 में पहली बार प्रधानमंत्री बने लेकिन संख्या बल नहीं होने से उनकी सरकार महज 13 दिन में ही गिर गयी।
 आंकड़ों ने एक बार फिर वाजपेयी के साथ लुकाछिपी का खेल खेला और स्थिर बहुमत नहीं होने के कारण 13 महीने बाद 1998 की शुरुआत में उनके नेतृत्व वाली दूसरी सरकार भी गिर गई। अन्नाद्रमुक प्रमुख जे जयललिता द्वारा केंद्र की भाजपा की अगुआई वाली गठबंधन सरकार से समर्थन वापस लेने की पृष्ठभूमि में वाजपेयी सरकार धराशायी हो गयी। लेकिन 1999 के चुनाव में वाजपेयी पिछली बार के मुकाबले एक अधिक स्थिर गठबंधन सरकार के मुखिया बने जिसने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। गठबंधन राजनीति की मजबूरी के कारण भाजपा को अपने मूल मुद्दों को पीछे रखना पड़ा। इन्हीं मजबूरियों के चलते जम्मू कश्मीर से जुड़े अनुच्छेद 370, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण करने और समान नागरिक संहिता लागू करने जैसे उसके चिर प्रतीक्षित मुद्दे ठंडे बस्ते में चले गए। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फलक पर जवाहरलाल नेहरू की शैली और स्तर के नेता के रूप में सम्मान पाने वाले वाजपेयी का प्रधानमंत्री के रूप में 1998-99 का कार्यकाल साहसिक और दृढ़निश्चयी फैसलों के वर्ष के रूप में जाना जाता है । इसी अवधि के दौरान भारत ने मई 1998 में पोखरण में श्रृंखलाबद्ध परमाणु परीक्षण किए।
वाजपेयी के करीबी लोगों का कहना है कि उनका मिशन पाकिस्तान के साथ संबंधों को सुधारना था और इसके बीज उन्होंने 1970 के दशक में मोरारजी देसाई की सरकार में बतौर विदेश मंत्री रहते हुए ही बोये थे। लाहौर शांति प्रयासों के विफल रहने के बाद वर्ष 2001 में वाजपेयी ने जनरल परवेज मुशर्रफ के साथ आगरा शिखर वार्ता की एक और पहल की लेकिन वह भी मकसद हासिल करने में सफल नहीं रही। वाजपेयी भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के करीबी अनुयायी और सहयोगी बन गए। जब मुखर्जी ने 1953 में कश्मीर में प्रवेश के लिए परमिट लेने की व्यवस्था के खिलाफ आमरण अनशन किया तो वाजपेयी उनके साथ थे। मुखर्जी ने परमिट व्यवस्था को कश्मीर की यात्रा करने वाले भारतीय नागरिकों के साथ तुच्छ व्यवहार करार दिया था। साथ ही उन्होंने कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने के खिलाफ भी आमरण अनशन किया था। मुखर्जी के अनशन और विरोध की परिणति परमिट व्यवस्था समाप्त करने और कश्मीर के भारतीय संघ में विलय की प्रक्रिया तेज किए जाने के रूप में हुई। लेकिन कई सप्ताह की जेलबंदी, बीमारी और कमजोरी के चलते मुखर्जी का निधन हो गया। इन सारी घटनाओं ने युवा वाजपेयी के मन पर गहरी छाप छोड़ी।
मुखर्जी की विरासत को आगे बढ़ाते हुए वाजपेयी ने 1957 में अपना पहला चुनाव लड़ा और जीता। भारतीय जनसंघ के नेता के रूप में उन्होंने इसके राजनीतिक दायरे, संगठन और एजेंडे का विस्तार किया। अपनी युवावस्था के बावजूद वाजपेयी जल्द ही विपक्ष में एक सम्मानित हस्ती बन गए जिनकी तर्कशक्ति और बुद्धिमत्ता के उनके विरोधी भी कायल होने लगे। उनकी व्यापक अपील ने उभरते राष्ट्रवादी सांस्कृतिक आंदोलन को सम्मान, पहचान और स्वीकार्यता दिलायी।
ग्वालियर में जन्मे वाजपेयी जनसंघ के अध्यक्ष और भाजपा के संस्थापक अध्यक्ष रहे। वह तीन बार प्रधानमंत्री बने।  वह देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री बने, जिनका कांग्रेस से कभी नाता नहीं रहा। वाजपेयी और महामना भारत रत्न से नवाजे जाने वाली 44वीं व 45वीं हस्ती हैं। वाजपेयी उम्र से जुड़ी बीमारियों के चलते इन दिनों सार्वजनिक जीवन से दूर हैं। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और अब वाजपेयी ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्हें उनके जीवनकाल में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। इनमें नेहरू और इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री रहते ही इस पुरस्कार से नवाजा गया था। प्रधानमंत्री मोदी ने वाजपेयी को भारत रत्न से सम्मानित किए जाने पर खुशी जताते हुए कहा वह एक ऐसे नेता हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन राष्ट्र को सपर्पित कर दिया। उन्होंने कहा, अटल बिहारी वाजपेयी भारत माता के ऐसे प्रिय सपूत हैं जिन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। आज हमें उन्हें भारत रत्न से सम्मानित करने का सौभाग्य मिला।
मोदी ने कहा, अटलजी का जीवन राष्ट्र को समर्पित था, वह देश के लिए जिए और हर पल देश के बारे में सोचा। भारत में मेरे जैसे करोड़ों कार्यकर्ता हैं जिनका जीवन वाजपेयीजी से प्रेरित है। वाजपेयी के निवास से बाहर आने पर वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संवाददाताओं से कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री को यह सम्मान दिया जाना एक शक्तिशाली राष्ट्रवादी नेता के रूप में देश के लिए उनकी सेवाओं को मान्यता देना है। उन्होंने कहा कि वह केवल अपनी ही पार्टी के नहीं बल्कि पूरे देश के नेता हैं। वह भारत नहीं बल्कि पूरे विश्व के नेता हैं। यह हम सबके लिए खुशी का अवसर है। उन्होंने बताया कि वाजपेयी के निवास पर आज आयोजित यह समारोह राष्ट्रपति भवन की ओर से किया गया। अस्वस्थ होने के कारण वाजपेयी राष्ट्रपति भवन नहीं जा सकते थे। इस अवसर पर वाजपेयी के निवास पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री एन चन्द्रबाबू नायडू, जदयू अध्यक्ष शरद यादव आदि उपस्थित थे।
   

Wednesday, 25 March 2015

दुती कैसे साबित करे कि वह औरत है?

एक महिला खिलाड़ी का संघर्ष
जीन विविधिता की वजह से प्रतिभाशाली खिलाड़ी दुती चंद न केवल परेशान है बल्कि उसके सामने खुद को औरत साबित करने की बेहद कठिन चुनौती है। दुती को लेकर न केवल भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक संगठन भी दोराहे पर है। एक गरीब प्रतिभाशाली खिलाड़ी लगभग एक साल से अपने औरत होने की चीख लगा रही है लेकिन उसे न्याय मिलता नहीं दिख रहा।
देश की उदीयमान खिलाड़ी दुती के मामले की फिलवक्त स्विट्जरलैंड के शहर लुसाने में सुनवाई चल रही है। इस पर जुलाई 2014 में ग्लासगो कॉमनवेल्थ खेलों के कुछ दिन पहले ही ट्रैक से अयोग्य करार दिया गया था। तब उसके शरीर में टेस्टोस्टेरोन की मात्रा सामान्य से ज्यादा पाई गई थी। टेस्टोस्टेरोन वो हार्मोन है जो पुरुषोचित गुणों को नियंत्रित करता है।  एथलेटिक संगठनों का अंतरराष्ट्रीय संघ (आईएएफ) और अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) की नीतियों के मुताबिक, किसी एथलीट के शरीर में टेस्टोस्टेरोन की क्या सीमा हो, यह तय किया गया है। आईएएफ का मानना है कि हाइपरएंड्रोजेनिज्म की वजह से खिलाड़ियों को अनुचित फायदा मिलता है और यह सभी खिलाड़ियों को बराबर का मौका दिए जाने के सिद्धांत का उल्लंघन है। हाइपरएंड्रोजेनिज्म उस स्थिति को कहते हैं जब किसी महिला के शरीर में जीन की विविधिताओं की वजह से सामान्य से अधिक मात्रा में टेस्टोस्टेरोन बनता है।
देखा जाए तो जीन की विविधिता से पैदा होने वाली ऐसी बहुत सी स्थितियां हैं, जो आईएएफ के नियंत्रण में नहीं हैं हालांकि उनसे भी खिलाड़ियों को फायदा मिलता है, पर उन्हें प्रतिस्पर्धा के लिए अनुचित नहीं माना जाता। अब सवाल यह उठता है कि हम हाइपरएंड्रोजेनिज्म को अलग कर क्यों देखते हैं? ऐसा इसलिए है कि खेलकूद में महिलाओं को लेकर हमारी सामाजिक सोच अभी भी रूढ़िवादी है। दुती भी रूढ़िवादिता का ही शिकार है।
खेलों की जहां तक बात है औरत होने के सामान्य मानकों पर खरा नहीं उतरने वाली महिला एथलीटों को कई तरह के परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। महिला एथलीटों पर इसका जबरदस्त दबाव होता है कि वे अपने को औरत साबित करें ताकि उनके लिंग को लेकर किसी तरह का सवाल न उठे। खुद को औरत साबित करने का बोझ महिला एथलीटों को ही उठाना पड़ता है। इसी तरह उन पर यह साबित करने का बोझ भी होता है कि अधिक टेस्टोस्टेरोन की वजह से उन्हें कोई फायदा तो नहीं मिल रहा है। आईएएफ ने दुती चंद और दूसरे एथलीटों को जो मेडिकल जांच कराने को कहा है, वह गैर जरूरी है। इससे इन खिलाड़ियों पर काफी ज्यादा आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक बोझ पड़ता है।
हाइपरएंड्रोजेनिज्म की जहां तक बात है ऐसी कई महिलाएं हैं, जिन पर इसका असर है। उन्हें एंड्रोजेन के प्रभाव को दबाने के लिए किसी तरह की थेरेपी या सर्जरी नहीं करानी होती है। हाइपरएंड्रोजेनिज्म तो पॉलीसिस्टिक ओवेरिक सिंड्रोम की वजह से भी होता है और तकरीबन 10 से 15 फीसदी महिलाएं इसकी चपेट में आ जाती हैं। अफसोस की ही बात है कि खेल के मैदान में वापसी करने के लिए आईएएफ जो इलाज कराने को कहता है, उसका खर्च भी उसी खिलाड़ी को ही उठाना पड़ता है। दुती के मामले में ऐसा नहीं है। भारत का खेल मंत्रालय इसके खिलाफ अपील करने के लिए दुती चंद को आर्थिक मदद दे रहा है, वरना यह गरीब की बेटी तो अपील भी नहीं कर पाती।
आईएएफ के नियमों के मुताबिक यदि दुती चंद एंड्रोजेन के स्तर को कम नहीं कर पाई तो उसे अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में फिर भाग लेने की इजाजत शायद ही मिले। दुती चंद ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया है और इसके खिलाफ अपील की है। दुती ने जून में दूरभाष पर बताया था कि वह अपने शरीर में बदलाव करने को तैयार नहीं है।
इसे हास्यास्पद ही कहेंगे कि खेल की दुनिया में  पुरुषों के लिए टेस्टोस्टेरोन के स्तर की कोई सीमा तय नहीं है जबकि इसके लिए कई महिला खिलाड़ियों को असमय ही खेल से तौबा करना पड़ा है। आईएएफ अभी तक टेस्टोस्टेरोन के मामले में कोई सीमा तय नहीं कर सका है।  खेलों में उत्कृष्टता, लिंग या खुद को औरत साबित करने जैसे बड़े मुद्दों पर बखेड़ा तो खड़ा किया जाता है लेकिन इसके निराकरण पर सब चुप्पी साध लेते हैं। दुती को न्याय न मिला तो भारत एक और प्रतिभाशाली खिलाड़ी को असमय खो देगा।

Tuesday, 24 March 2015

अभिव्यक्ति का सम्मान

आमजन की अभिव्यक्ति का सम्मान करते हुए उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को सूचना प्रौद्योगिकी कानून (आईटी एक्ट) के अनुच्छेद 66-अ को असंवैधानिक करार देकर सोशल मीडिया का अधिकाधिक प्रयोग करने वालों की बांछें खिला दी हैं। उच्चतम न्यायालय के इस फैसले से जहां सरकार और कुछ राजनीतिज्ञ पशोपेश में हैं वहीं रीनू श्रीनिवासन तथा शाहीन सहित वे लोग खासे खुश हैं जिनको अतीत में अनुच्छेद 66-अ के तहत पुलिस से परेशानी हुई थी। सूचना प्रौद्योगिकी कानून की इस धारा को इससे पूर्व दण्डनीय अपराध की श्रेणी में माना जाता था। उच्चतम न्यायालय में दायर कुछ याचिकाओं में इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ करार दिया गया था। हमारे संविधान के मुताबिक हर नागरिक को अपनी बात कहने का मौलिक अधिकार है। उच्चतम न्यायालय ने भी माना है कि अनुच्छेद 66-अ नागरिकों की जिन्दगी को सीधे तौर पर प्रभावित करता है और यह उनकी अभिव्यक्ति की आजादी के संवैधानिक अधिकार का घोर उल्लंघन है। उच्चतम न्यायालय के इस फैसले से अनुच्छेद को सही ठहराने वाले लोग सकते में आ गये हैं। राजनीतिज्ञ ही नहीं सरकार भी चाहती थी कि लोगों को इण्टरनेट पर आपत्तिजनक बयान देने से रोका जाए ताकि समाज में अमन-चैन बनी रहे। वर्ष 2012 में इस कानून के तहत रीनू श्रीनिवासन को मुंबई में गिरफ्तार कर लिया गया था। उसका दोष सिर्फ इतना था कि उसने बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद मुंबई में आम सेवाएं ठप होने के बाद फेसबुक पर अपनी दोस्त शाहीन के उस पोस्ट को लाइक किया था जिसमें लिखा था, हर दिन हजारों लोग मरते हैं लेकिन दुनिया फिर भी चलती है, लेकिन एक राजनेता की मृत्यु से सभी लोग बौखला जाते हैं। आदर कमाया जाता है और किसी का आदर करने के लिए लोगों के साथ जबर्दस्ती नहीं की जा सकती। मुंबई डर के मारे बंद हुआ है न कि आदर भाव से। शाहीन ने अपने फेसबुक पोस्ट में बाल ठाकरे का जिक्र तक नहीं किया था लेकिन उसे और उसकी दोस्त को इसके लिए पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। सोशल मीडिया की जहां तक बात है इसके जरिए मोदी जहां प्रधानमंत्री की कुर्सी तक जा पहुंचे वहीं कई सफेदपोशों के काले कारनामे भी समाज के सामने आ रहे हैं। दरअसल, सोशल मीडिया से वही लोग हैरान-परेशान हैं जोकि आमजन को नित नये गुल खिलाते हैं। उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय के बाद लोगों का सोशल मीडिया की तरफ न केवल विश्वास बहाल होगा बल्कि वे अपनी बात कहने के लिए भी स्वतंत्र होंगे। सर्वोच्च न्यायपालिका ने यदि हमारी स्वतंत्रता का सम्मान किया है, तो हमारा भी फर्ज बनता है कि खुद पर संयम बरतें और मर्यादा का पालन करें। यह सही है कि एक इंसान के लिए जो आपत्तिजनक हो वह दूसरे इंसान के लिए नहीं भी हो सकता है फिर भी हमें अति से परहेज करना चाहिए।

Monday, 23 March 2015

मोदी की बात

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब से देश की सल्तनत सम्हाली है वह कुछ न कुछ लीक से हटकर कर रहे हैं। उनकी बात आम जनता को सुहाती भी है या नहीं, उसकी परवाह नहीं करते।  22 मार्च को उन्होंने धरती पुत्रों को अपनी बात तो सुनाई लेकिन उनकी एक नहीं सुनी। भूमि अधिग्रहण का डर और कुदरत के कहर से आहत किसानों को उम्मीद थी कि मोदी जख्म पर मलहम लगाएंगे पर उन्होंने सिर्फ अपनी मंशा ही जताई। प्रकृति कहर के इन नाजुक क्षणों में मोदी ने विपक्षियों पर तंज कसते हुए यह दर्द प्रकट किया कि गरीब किसान भाइयों को राजनीति के चलते बहकाया और भ्रमित किया जा रहा है। उन्होंने किसानों की चिट्ठियों का हवाला देते हुए खेती-किसानी के अलावा गंदगी और दबंगी का बेसुरा राग भी अलापा। मोदी वाक्पटु ही नहीं गजब का अभिनय भी करते हैं। उनकी मन की बात में जमीन से जुड़े इंसान की झलक तो दिखी पर मदद को हाथ नहीं उठे। यह आश्चर्य और दु:ख की बात है कि मुल्क के मुखिया को ही नहीं पता कि इस देश के किसान की क्या-क्या समस्याएं हैं, किन तकलीफों में वह जीवन गुजारता है। सवाल यह भी है कि सत्ता सम्हालने के इतने महीने बाद मोदी को किसानों की सुध क्यों आई? भारतीय किसान आज विदेशी कम्पनियों के बीज, कीटनाशक, खाद आदि के कारण अपनी उपजाऊ जमीन बंजर बना रहा है। कभी सेज के नाम पर जमीन छीनी गई तो कई मर्तबा मौसम की मार से वह बर्बाद हुआ। सरकारें मुआवजा तो देती हैं लेकिन वह ऊंट के मुंह में जीरा साबित होती है। अफसोस, मोदी पूर्ण बहुमत और मजबूत प्रशासन तंत्र से किसानों की दशा सुधारने के क्रांतिकारी कदम उठाने की बजाय पूर्व हुक्मरानों की करतूतों को लेकर ही बैठे हैं। आजादी के साढ़े छह दशक में किसानों के साथ क्या हुआ, उसका राग अलापने से बेहतर होता मोदी अन्नदाता को उसकी किस्मत बदलने का भरोसा और हौसला देते। अपने मन की बात में मोदी ने भूमि अधिग्रहण विधेयक के नए रूप के समर्थन में किसानों को तर्क दिए कि यही उनके लिए फायदेमंद है। उन्होंने पीपीपी मॉडल की तरफदारी और निजी क्षेत्र का पक्ष रखने के साथ सड़कों के फायदे तो गिना दिए पर यह क्यों नहीं बताया कि सड़क बनाने का खर्च, जनता की जेब से किस तरह सालोंसाल वसूला जाता रहेगा। नहर, सड़क, उद्योग जो भी बनें, इनसे दुनिया के सामने भारत के विकास की तस्वीर तो पेश होगी पर इससे किसानों का कितना अहित होगा, यह दिखाई क्यों नहीं देता। प्रधानमंत्री ने अपने मन की तो कह ली पर वे किसानों के मन की कब सुनेंगे, यह बड़ा सवाल है। किसान मुसीबत में है, बेहतर होगा उनसे बातें करने की बजाय अधिकाधिक मदद दी जाए।  मुल्क का सही विकास निर्जीव अधोसंरचना से नहीं बल्कि लहलहाती सजीव फसलों से ही होगा।

बदहाल शिक्षा प्रणाली

देश के विभिन्न राज्यों में चल रही वार्षिक परीक्षाओं में जिस कदर नकल के प्रकरण सामने आ रहे हैं, उसे भारतीय शिक्षा प्रणाली के लिए शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लेकर दिल्ली में हुई बैठक में जिस तरह के विरोधाभासी बयान आए उससे स्पष्ट हो गया कि देश का शिक्षा तंत्र बेपटरी चल रहा है। नकल के बढ़ते चलन के पीछे  कहीं न कहीं आठवीं कक्षा तक स्वत: प्रोन्नत करने की हमारी गलत परम्परा ही है। स्वत: एक कक्षा से दूसरी कक्षा में तरक्की से जहां छात्रों में पढ़ाई के प्रति अरुचि पैदा हुई वहीं उनमें नकल की प्रवृत्ति बढ़ी है। नई शिक्षा नीति के जिन मुद्दों पर विचार-विमर्श हो रहा है, उनमें स्कूल परीक्षा प्रणाली में सुधार भी शामिल है। केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की अध्यक्षता में हुई इस बैठक के निष्कर्ष क्या होंगे यह तो समय बताएगा पर मौजूदा हालात संतोषजनक नहीं कहे जा सकते। मोदी सरकार से देश की भावी पीढ़ी को बड़ी उम्मीदें हैं, लेकिन मानव संसाधन मंत्रालय शुरू से ही विवादों में है। यह सच है कि शिक्षा का क्षेत्र समझने-सम्हालने के लिए शैक्षणिक योग्यता से महत्वपूर्ण देश, समाज की स्थितियों, परिस्थितियों, आवश्यकताओं को परखने की सामान्य समझ और दूरदृष्टि अधिक जरूरी है। अति प्रतिस्पर्द्धा की इस दुनिया में भारत के किसी शिक्षा संस्थान का सर्वश्रेष्ठ 100 में शुमार न होना शर्म की ही बात है। मोदी सरकार को इस बात का इल्म होना चाहिए कि बिना बेहतर शिक्षा के मुल्क तरक्की की राह नहीं चल सकता। हमारी श्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थाओं में स्वायत्तता को दरकिनार कर राजनीतिक मकसद साधने का खेल नुकसान ही पहुंचाएगा। भारत विश्व गुरु है लेकिन हम उससे बेखबर आये दिन नए-नए विवादों को जन्म दे रहे हैं। भारत में एनआईटी, आईआईएम, आईआईटी कुछ ऐसी उच्च शिक्षण संस्थाएं हैं, जिनकी वैश्विक प्रतिष्ठा है। आईआईटी तो दुनिया में उच्च तकनीकी शिक्षा में श्रेष्ठता का पैमाना है। आईआईटी से डिग्रीधारी लोग विश्व की श्रेष्ठतम संस्थाओं, प्रतिष्ठानों में उच्च पदों पर हैं। आईआईटी की प्रतिष्ठा के पीछे एक बड़ी भूमिका इसकी स्वायत्तता ही है, जो यह सुनिश्चित करती है कि संस्थान में पढ़ने-पढ़ाने और शोध करने का माहौल बिना किसी दबाव के अच्छा होना चाहिए। मुल्क में जहां उच्च शिक्षा संस्थानों की कमी है वहीं शोध कार्यों के लिए साधनों-संसाधनों का भी घोर अभाव है। शिक्षा को राजनीतिक मंच बनाने की बजाय मोदी सरकार को प्रारम्भिक शिक्षा में सुधार की ठोस पहल करनी चाहिए। आज हर बच्चे को गलत तरीके से प्रोन्नत करने की बजाय उसे शिक्षा के समान अवसर मिलना जरूरी है।

क्रिकेट की राह चलें राष्ट्रीय खेल महासंघ: जेटली

राष्ट्रीय खेल महासंघों का प्रशासनिक ढांचा पेशेवर हो
हाकी, टेनिस, कुश्ती, तीरंदाजी, निशानेबाजी और मुक्केबाजी में काफी सम्भावनाएं
केन्द्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली राष्ट्रीय खेल महासंघों की कार्यशैली को लेकर खुश नहीं हैं। उनका मानना है कि राष्ट्रीय खेल महासंघ सीमित लोगों के हाथ की कठपुतली बनने की बजाय अपने प्रशासनिक ढांचे को पेशेवर बनाएं।
राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के युवा मामलों और खेल विभाग के प्रभारी मंत्रियों और सचिवों के सम्मेलन में जेटली की यह टिप्पणी काफी अहम है क्योंकि राष्ट्रीय खेल महासंघों के कई अधिकारी वर्षों से अपने पद पर बने हुए हैं या पद छोड़ने के बावजूद अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर रहे हैं। जेटली ने कहा कि राष्ट्रीय खेल महासंघ देश में खेल के विकास में अहम भूमिका निभाते हैं लेकिन अपना राजस्व जुटाने और आत्मनिर्भर बनने में विफल हैं। उन्होेंने कहा, देश में खेल प्रबंधन का ढांचा जटिल है। खेल राज्य के दायरे में आते हैं क्योंकि यह भारतीय संविधान की राज्य सूची में है। इसलिए खेलों के विकास की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्यों की है। अतीत में खेल को समवर्ती सूची में शामिल कराने के प्रयास विफल रहे हैं।
राष्ट्रीय खेल महासंघ असल में विभिन्न खेलों का प्रबंधन करते हैं और वे खेलों के विकास में अहम भूमिका निभाते हैं। केन्द्र सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का प्रतिनिधित्व करने वाले खिलाड़ियों का प्रबंधन करती है। इन तीनों के बीच संतुलन बनाए रखना जरूरी है। जेटली ने देश में खेल बुनियादी ढांचे की कमी पर भी निराशा जताई और कहा कि बीसीसीआई के अलावा कोई भी खेल महासंघ बुनियादी ढांचे के विकास में योगदान नहीं दे पाया है। उन्होंने कहा, देश में क्रिकेट को छोड़कर सभी खेलों में बुनियादी ढांचे की कमी है। टेनिस और गोल्फ में कारपोरेट का कुछ समर्थन है लेकिन बाकी सभी राष्ट्रीय खेल महासंघ आत्मनिर्भर नहीं हैं।
बीसीसीआई की तारीफ करते हुए जेटली ने कहा, बीसीसीआई ने स्टेडियम सहित विश्व स्तरीय बुनियादी ढांचा तैयार किया है। स्टेडियम का मालिकाना हक बीसीसीआई के पास है सरकार के पास नहीं। इससे देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए काफी क्रिकेट प्रतिभा सामने आई हैं। जेटली ने सुझाव दिया कि भारत को ओलम्पिक में पदक जीतने के लिए कुछ अहम खेलों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जबकि बाकी खेलों में जमीनी स्तर पर प्रतिभाओं को निखारने पर ध्यान लगाना चाहिए।
उन्होंने कहा, प्रत्येक देश सभी खेलों में बराबर अच्छा नहीं हो सकता। इंग्लैंड ने पांच से छह खेलों पर ध्यान देकर खेलों में अपने भविष्य को सुधारा और उन्होंने 2012 ओलम्पिक में इन खेलों में पदक जीते। हमें भी हाकी, टेनिस, कुश्ती, तीरंदाजी, निशानेबाजी और मुक्केबाजी जैसे खेलों पर ध्यान देना चाहिए जिससे कि हम ओलम्पिक में इन खेलों में पदक जीत सकें।

Tuesday, 17 March 2015

भारत जीते पर मेरा भांजा रिकॉर्ड बनाए: महबूब हसन

पाक विकेटकीपर सरफराज के मामा महबूब हसन इंजीनियर कॉलेज इटावा
में हैं क्लर्क
इटावा। आज से ठीक दो दिन पहले रविवार 15 मार्च को पाकिस्तान क्रिकेट टीम के बल्लेबाज और विकेटकीपर सरफराज अहमद, जब क्रिकेट वर्ल्डकप में एडीलेड के ओवल मैदान पर आयरलैंड के खिलाफ अपने बल्ले से रनों की बरसात कर रहे थे तो पाकिस्तान से हजारों किलोमीटर दूर हिंदुस्तान के इटावा में एक परिवार सोनपपड़ी मिठाई बांटकर और पटाखे फोड़कर जोरदार जश्न मना रहा था। सरफराज के शतक पर इटावा में जश्न मनाने वाले शख्स का कहना है कि अगर वर्ल्डकप में हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच मुकाबला हो तो हिंदुस्तान की टीम जीते, लेकिन उस मुकाबले में सरफराज कोई नया रिकॉर्ड बनाए।
अब आप यह जानने को बेताब हो रहे होंगे कि युवा पाकिस्तानी क्रिकेटर सरफराज अहमद के शतक पर इटावा में जश्न किसने मनाया? और जश्न मनाने वालों का सरफराज अहमद से क्या लेना-देना है? तो जनाब इसका उत्तर यह है कि सरफराज अहमद और उनके परिवार का इटावा से बहुत गहरा रिश्ता है। सरफराज अहमद के शतक पर इटावा में जश्न मनाने वाले शख्स का नाम है महबूब हसन। यह इटावा के डा़ॅ भीमराव अम्बेडकर एग्रीकल्चरल इंजीनियरिंग कॉलेज में सीनियर क्लर्क हैं। महबूब हसन सरफराज अहमद के मामा हैं। महबूब हसन की पाकिस्तान के कराची शहर में रहने वाली बहन अकीला बानो का सरफराज बेटा है। असल में महबूब हसन उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के दिलेरगंज, कुंडा के मूल रूप से रहने वाले हैं, लेकिन 1995 में हसन की नौकरी इटावा में लग जाने से पूरा परिवार यहीं रह रहा है। बकौल हसन 1991 में उनकी शादी के दौरान ही करीब चार साल की उम्र में सरफराज हिंदुस्तान आया था, उस समय शादी इलाहाबाद में हुई थी सरफराज की मां अकीला बानो एक बार 2010 में इटावा के डॉ़ भीमराव अम्बेडकर कृषि इंजीनियरिंग कॉलेज आ चुकी हैं लेकिन बीजा नियमावली के मुताबिक सिर्फ कुंडा में ही रुकने की अनुमति थी, इसलिए आकर जल्द ही चली गई थीं।
हसन का कहना है कि 22 मई को सरफराज 28 साल का हो जायेगा। उसकी शादी तय हो चुकी है। उनका कहना है कि जाहिर सी बात है कि हमको बहुत खुशी हो रही है क्योंकि मामा-भांजा का रिश्ता बहुत ही अटूट होता है। महबूब हसन से जब यह सवाल किया जाता है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच मुकाबला होगा तो वह किसके साथ होंगे तो वह बिना देर लगाए कहते हैं कि मैं तो हमेशा हिंदुस्तान के साथ हूं। मैं चाहूंगा कि पाकिस्तान के साथ होने वाले मैच को हिंदुस्तान जीते लेकिन उस मैच में मेरा भांजा सरफराज कोई नया रिकॉर्ड बनाए। सरफराज की मामी समर फातमा का कहना है कि उनका भांजा बेहद ही शरारती है जो आये दिन क्रिकेट का मैच खेलने के बाद फोन करके पूरे घर का हालचाल तो लेता ही है साथ ही अपने बारे में भी बखूबी बताता है उनका कहना है कि वो अब सरफराज की शादी का इंतजार कर रही हैं क्योंकि मई या जून में सरफराज की शादी होने वाली है।
कॉलेज के डीन डॉ़ जे़पी़ यादव का कहना कि कॉलेज के सीनियर क्लर्क महबूब हसन का भांजा हमारा भांजा हुआ खेल में कोई दीवार नहीं होती है, मामा-भांजे का रिश्ता बड़ा ही अटटू होता है। सरफराज पाकिस्तानी टीम का विकेटकीपर है। जहां तक महबूब हसन की बात है उन्होंने कभी भी इस रिश्ते को उजागर नहीं किया, लेकिन यदाकदा वो कहा करते थे कि हमको पाकिस्तान जाना है, इसलिए बीजा की आवश्यकता है। यह हज पर भी जाना चाहते हैं उनके दस्तावेजों को पूरा करने की प्रक्रिया फिलहाल जारी है। 

आधार या निराधार

छह साल, अरबों खर्च फिर भी मुल्क की आवाम को दिया जाने वाला विशिष्ट पहचान पत्र सवालों में है। आज आधार कार्ड को लेकर हमारी हुकूमतें गरीबों को डरा रही हैं। सरकारी दफ्तरों में बिना आधार कार्ड के कोई काम नहीं हो रहा। लोगों की इस परेशानी को उच्चतम न्यायालय ने संज्ञान में लिया है और सरकार को ताकीद किया है कि वह अपने तंत्र की तंज कसे ताकि कोई परेशान न हो। न्याय के मंदिर से दूसरी बार सरकार को फटकार लगी है। मुल्क में विशिष्ट पहचान पत्र ही नहीं कई ऐसी योजनाएं हैं जिनके कारगर क्रियान्वयन की परवाह किसी को नहीं है। सरकारें आनन-फानन में योजनाएं तो बनाती हैं लेकिन वे मकसद पूरा करने से पहले ही भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। जिस आधार कार्ड को लेकर केन्द्र और राज्य सरकारें जमीन-आसमान एक कर रही हैं, उसमें गरीबों से कहीं बड़ा हित हुकूमतों का छिपा है। आम आदमी के लिए आधार कार्ड पाना आसान बात नहीं है।
आधार कार्ड की महत्ता पर हमारा शासकीय तंत्र लाख बातें करे पर इसके अंदरखाने का सच बड़ा डरावना है। देश में जनवरी 2009 में पहली बार विशेष पहचान प्राधिकरण की स्थापना हुई और जुलाई 2009 में नंदन निलेकणी को इसका प्रमुख बना दिया गया। इस योजना का मकसद लोगों को एक स्थाई पहचान पत्र देने के साथ ही शासकीय सुविधाओं में पारदर्शिता लाना था। पहचान प्राधिकरण ने बेशक इसकी अनिवार्यता पर ढुल-मुल  रवैया अपनाया हो पर दूसरे विभागों ने अपनी योजनाओं का लाभ देने की शर्त थोपकर बड़े भ्रष्टाचार की जमीन जरूर तैयार कर ली। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वाधीनता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से अपनी आवाम को बैंकिंग सुविधा देने की मंशा क्या जाहिर की मुल्क में विशिष्ट पहचान पत्र को पुन: पंख लग गये। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना, जनधन योजना और राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के खातों के लिए आधार कार्ड तो जरूरी हुआ ही पेट्रोलियम मंत्रालय ने भी उन्हीं उपभोक्ताओं को सब्सिडी देने की बात कही जिनके खाते आधार क्रमांक से जुड़े हों।
आज जिस निराधार आधार कार्ड को लेकर तमाशा हो रहा है उसकी बुनियाद कांग्रेस के शासन में डली थी। वर्ष 2010 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नेशनल आइडेंटीफिकेशन अथॉरिटी आॅफ इंडिया विधेयक राज्यसभा में पेश किया था। इस विधेयक को वित्त विभाग की संसदीय स्थाई समिति ने तो खारिज कर दिया पर प्राधिकरण को कोई फर्क नहीं पड़ा। वर्ष 2009-10 में इसके लिए 120 करोड़ रुपए के बजट का प्रावधान था, जो 2010-11 में बढ़कर 1900 करोड़ हो गया। दिसम्बर 2012 तक ही प्राधिकरण ने 2300.56 करोड़ रुपए पानी की तरह बहा दिए। बिना विभाग और बिना किसी कानूनी प्रावधान के चल रहे इस प्राधिकरण को जो विशिष्ट पहचान का काम सौंपा गया है उस पर देश का लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपए तक खर्च होने का अनुमान है। विशिष्ट पहचान पत्र के लिए आंखों की पुतली और सभी उंगलियों के निशान लिए जाते हैं और तर्क दिया जाता है कि इससे पारदर्शिता आएगी, कोई बेईमानी नहीं कर सकेगा। अब सवाल यह उठता है कि इस नियम से देश के डेढ़ करोड़ कुपोषण जनित मोतियाबिन्द पीड़ितों और लगभग 17 करोड़ मजदूरों के निशान कैसे लिए जाएंगे, लिए भी गये तो उसकी गारण्टी क्या होगी?
प्राधिकरण यह तर्क देता है कि देश में करोड़ों लोगों के पास स्थाई पते और फोटो लगे पहचान पत्र नहीं हैं, आधार इस कमी को पूरा कर देगा। सवाल यह है कि पहचान के लिए ऐसे चिह्न लिए जाने की क्या जरूरत है जो मूलत: अपराधियों की निगरानी के लिए लिए जाते हैं। आधार प्राधिकरण का यह तर्क कि ये दोनों निशान कभी नहीं बदलते जबकि वैज्ञानिक अध्ययन से पता चलता है कि तीन से पांच साल में आंखों की पुतलियां तथा पांच साल बाद उंगलियों के निशान बदल जाते हैं। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि इस पूरी कवायद का आखिर मकसद क्या है? सच यह है कि भारत सरकार का मकसद लोगों को पहचान पत्र देना नहीं बल्कि उनकी निगरानी के लिए एक डाटा बेस तैयार करना है। दरअसल, आधार कार्ड के नाम पर देश के गरीबों को इसलिए भयाक्रांत किया जा रहा है ताकि वे आधार की अदालत में अपराधी की तरह खड़े हों और हमेशा के लिए अपनी निजी नागरिक स्वतंत्रता राज्य के निगरानी तंत्र के सुपुर्द कर दें।
आधार के विस्तार के लिए यह प्रचारित किया जा रहा है कि इससे गरीबों और झुग्गीवासियों के बैंक खाते खुलेंगे और उन्हें आवास-फोटो सहित पहचान पत्र मिल सकेगा, जबकि वास्तविकता यह है कि आवेदकों को आधार पंजीयन के लिए अपना निवास और फोटो पहचान पत्र देना होता है। देश में अब तक हुए आधार पंजीयन में ऐसा कोई नहीं है जिसका पंजीयन बिना प्रमाण पत्रों के हुआ हो। प्राधिकरण यह मानकर चल रहा है कि जैविक पहचान चिह्न किसी एक व्यक्ति की खास और विशेष पहचान को सुनिश्चित करते हैं यानी एक चिह्न का दुनिया में एक ही व्यक्ति होगा। अमेरिकी सुरक्षा एजेंसी (सीआईए) और अमेरिकी नेशनल रिसर्च कौंसिल का अध्ययन बताता है कि बायोमेट्रिक चिह्न प्राकृतिक रूप से बदलते रहते हैं। इस चिह्न पर आधारित तकनीक छोटे स्तर पर तो काम कर सकती है पर इनका बड़े स्तर पर उपयोग बड़ी समस्या को जन्म दे सकता है। यह पूरी जानकारी इलेक्ट्रॉनिक रूप में उपलब्ध रहेगी, जिसकी सुरक्षा करना जहां कठिन होगा वहीं हमारी निजी जानकारियां भी गोपनीय नहीं रह पाएंगी।
आधार योजना की सोच को राहुल गांधी ने सूचना क्रान्ति के बाद की दूसरी क्रान्ति का नाम दिया था और कांग्रेस ने आपका पैसा आपके हाथ के नारे के साथ 15 दिसम्बर, 2012 को दिल्ली में चार लाख लोगों को हर माह पेट भरने के लिए गेहूं, चावल, दाल, तेल, ईंधन खरीदने के लिए 600 रुपए देने की शुरूआत की थी और इसे एक जनवरी, 2013 से आधार आधारित नकद हस्तांतरण योजना में तब्दील कर दिया गया। यह चार लाख वे लोग हैं, जो गरीब तो हैं पर उन्हें गरीबी रेखा में शामिल नहीं किया गया। यूपीए सरकार के समय ही वित्तीय समावेशन के नाम पर यह अभियान शुरू हो गया था। आधार को लेकर प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं हर सूबे का सूबेदार भी फिक्रमंद है। जनधन योजना पर अपनी पीठ थपथपाने वाली केन्द्र की मोदी सरकार शायद इस बात से अनजान है कि अधिकांश जनधन खातों में फूटी कौड़ी भी नहीं है। वित्तीय समावेशन की बातें करने वाले हुक्मरान बताएं कि क्या लोगों के खाते खुल जाने से बेरोजगारी दूर हो जाएगी या तमाम बीपीएल परिवार गरीबी रेखा से ऊपर आ जाएंगे? कोई भी योजना हो जब तक उसमें खामी होगी, वह कभी फलीभूत नहीं हो सकती।

Saturday, 14 March 2015

ग्लैमर की गुगली पर बोल्ड क्रिकेटर

अपने देश में क्रिकेटर हो या फिल्म अिभनेत्री, स्टार का दर्जा मिल ही जाता है। ग्लैमर की दुिनया  भी क्रिकेटरों को लपकने में देर नहीं लगाती। शोहरत व दौलत के खिलाड़ी और सिने तािरकाएं गाहे-बगाहे करीब आ ही जाते हैं। ये नज़दीकियां प्यार में तबदील होते देर नहीं लगती। इन दिनों विराट व अनुष्का की नज़दीकियां सुर्खियों में हैं।  

विराट कोहली के साथ उनके अफेयर की बातें अब किसी के लिए जिज्ञासा का विषय नहीं रह गयी हैं। इस ओपन सीक्रेट को लेकर बीच-बीच में जरूर कुछ दिलचस्प खबरें सुनने को मिलती हैं। अब जैसे कि हाल में यह सुनने को आया है कि वर्ल्ड कप में विराट अपने प्रदर्शन को लगातार बेहतर बनाये रख सकें, इसके लिए अनुष्का एक नीले रंग के स्कार्फ पर भरोसा कर रही हैं। उल्लेखनीय है कि यह स्कार्फ विराट ने अनुष्का को गिफ्ट किया था। और यही स्कार्फ  अब अनुष्का के लिए लॅकी मस्कट बन गया है। अनुष्का को यकीन है कि यह स्कार्फ  उनके पास रहेगा तो विराट जरूर अच्छे रन बनायेंगे। इसलिए नीले रंग के स्कार्फ को वह किसी भी तरह से अपने हाथों से छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। वह कहीं भी जाये,अपने पर्स में इस स्कार्फ  को रखना कभी नहीं भूलती।
शादी अभी नहीं
अब जाहिरा तौर पर यह जिज्ञासा होती है कि यह रोमांस कब परवान चढ़ा। देखा जाये तो एक साल से ज्यादा होने को आया जब पहली बार दोनों के आंखें चार हुई थीं। इसकी शुरुआत हुई थी एक एड फिल्म की शूटिंग के दौरान। इसके बाद दोनों एक-दूसरे को इस कदर भा गये कि अकसर एक साथ नजर आने लगे। माडल से लेकर प्रेस शो और पार्टी तक। यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। बीच में यह खबर भी आयी थी कि दोनों जल्द शादी कर लेंगे। अनुष्का से इस बारे में पूछने पर उनका जवाब बहुत डिप्लोमेटिक होता है, ‘आखिर खबर बनाने वाले लोग तो आप हैं। मैंने तो कभी ऐसा नहीं कहा। विराट मेरा अच्छा दोस्त है। पर जब कोई इसे अफेयर का नाम देता है तो एक चिढ़ पैदा हो जाती है। मैं विराट के साथ मिलती हूं पर इसका कोई अलग मीनिंग मत निकालिये। ऐसे में शादी की बात कहां से  आ जाती है। वह तो जब मैं करूंगी ढिंढोरा पीट कर करूंगी।’ पर इन बातों का एक दूसरा सच यह है कि दोनों रोमांस की गाड़ी पर अभी भी सवार रहेंगे और दो साल बाद ही शादी करेंगे। इस बीच दोनों ही अपने कॅरिअर को मजबूत करेंगे। जहां विराट अपने क्रिकेट की चमक को और बढ़ाना चाहते है वहीं टेस्ट कप्तानी के बाद वन-डे की कप्तानी पाने का उनका इरादा है। वहीं अनुष्का जहां लगातार बतौर एक्ट्रेस अपने आपको प्रू्व कर रही हैं। फिल्म निर्माण में भी उन्होंने अपना कदम बढ़ा दिया है। इसमें उनके भाई करुणेश उनके सहयोगी हैं। उनकी पहली निर्मित फिल्म एनएच-10 दर्शकों के बीच है। लेकिन इससे पहले ही उन्होंने अपनी दूसरी  फिल्म की घोषणा कर दी है। इसलिए फिलहाल दोनों के पास रोमांस के लिए काफी वक्त है। पर शादी के बारे में दोनों जरा भी सोच नहीं रहे।
टाइगर और शर्मिला
वैसे देखा जाये तो किकेट और फिल्म तारिकाओं की प्रेम कहानी को अकसर सुखद अध्याय नहीं मिला। इस मामले में पटौदी-शर्मिला और अजहर-संगीता बिजलानी ही ऐसे दो उदाहरण  सामने आते हैं, जिनका रोमांस परिणय सूत्र में परिणत हुआ। उनके रोमांस और शादी की कहानी वर्षों पुरानी है। उसे ज्यादा विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है। 1967 या ’68 की बात है। क्रिकेट की दीवानी शर्मिला ने एक मैच के दौरान टाइगर यानी पटौदी के खेल की क्या तारीफ की कि पटौदी उनके दीवाने हो गये। मगर उन्होंने अपने रोमांस को लंबा नहीं खींचा। 1969 में दोनों परिणय सूत्र में बंध गये। शादी के बाद आइशा बेगम साहिबा बनने के बाद भी शर्मिला ने फिल्मों में काम करना बंद नहीं किया। उनके शौहर पटौदी को इस पर कोई आपत्ति नहीं थी। बाद में पटौदी ने अपने दोनों बच्चों सैफ और सोहा के फिल्मों में आने पर भी कोई पाबंदी नहीं लगायी । सच तो यह है कि पटौदी चाहते थे कि सैफ क्रिकेटर बने, मगर सैफ ने जैसे ही एक्टर बनने की इच्छा व्यक्त की, वह तुरंत तैयार हो गये। कुछ ऐसा सोहा के साथ हुआ। अत्यंत उच्च शिक्षित सोहा ने अचानक ही अच्छी विदेशी कंपनी की नौकरी छोड़कर फिल्मों में आने का मन बनाया। तब भी बेहद उन्मुक्त विचारों के पटौदी कुछ नहीं बोले। बाद में सोहा ने भी अपने भाई सैफ की तरह प्रेम विवाह किया। पटौदी  ने शर्मिला के साथ अपनी शादी ता-उम्र निभायी। इन दिनों उनके जाने के बाद उनकी बेवा शर्मिला उनके कई अधूरे कामों को पूरा कर रही हैं।
संगीता-अजहर
पटौदी-शर्मिला के नायाब रोमांस की तुलना में क्रिकेटर मोहम्मद अजहरुदीन और माडल-अभिनेत्री संगीता बिजलानी का रोमांस ज्यादा जोशीला था,मगर यह जोश ज्यादा दिनों तक नहीं टिका। दो साल के लंबे रोमांस के बाद अजहर ने संगीता से 1996 में निकाह किया था। तब अजहर ने संगीता से निकाह के लिए अपनी पहली बीवी से तलाक भी ले लिया था। यह खबर भी आयी थी कि दोनों मिलकर संयुक्त रूप से फिल्म का निर्माण भी करेंगे। पर जल्द ही अजहर का सम्मोहन संगीता से टूटा। और लगभग 4 साल के दांपत्य जीवन के बाद 2010 में उन्होंने संगीता से भी तलाक ले लिया। सूत्र बताते हैं कि अपने पुराने प्रेमी सलमान खान के प्रति अति अनुराग होने की वजह से अजहर ने उनसे तलाक लिया। बहरहाल इन दिनों संगीता फिर से फिल्मी गलियारे में घूम रही हैं। दूसरी ओर अजहर कांग्रेस के पिटे हुए मोहरे बनकर अपने राजनीति के टूटे हुए किरचों को फिर से समेटने की कोशिश कर रहे हैं।
गैरी सोबर्स-अंजु महेंद्रू
वैसे क्रिकेटर और फिल्म तारिकाओं के रोमांस के किस्सों की लंबी दास्तां है। दूसरे फिल्मी रोमांस की तरह इनका रोमांस भी शादी तक कम ही पहुंचता है। ऐसी कुछ रोमांटिक जोड़ियों में गैरी सोबर्स-अंजु महेंद्रू, रवि शास्त्री-अमृता सिंह, विवियन रिचड‍्र्स-नीना गुप्ता, सचिन तेंदूलकर-शिल्पा शिरोडकर, सौरभ गांगुली-नगमा, युवराज सिंह-किम दीपिका, नेहा धूपिया, महंेद्र सिंह धोनी-दीपिका, जहीर-ईशा श्रावणी,  हरभजन सिंह-गीता बसरा आदि। वक्त के अंतराल के साथ इनके रोमांस के किस्से भी खूब मशहूर हुए। इनके रोमांस में एक गर्माहट भी नजर आयी। पर बाद में दोनों ही चलो एक बार फिर से अजनबी बन जायें ….गाते हुए अलग हो गये। अब जैसे कि जब महान क्रिकेटर सर गैरफील्ड सोबर्स ने अभिनेत्री अंजु महेंद्रू को सगाई की अंगूठी पहनायी, तब यह माना जा रहा था कि वह अंजु से शादी करके ही अपने देश लौटेंगे। लेकिन अपने देश में जाकर उन्होंने अपनी एक नयी दुनिया बसा ली। दोनों के लिए यह रोमांस क्षण भर में एक भूली हुए दास्तां बन गया। बाद में अंजु ने काका यानी राजेश खन्ना को अपना प्रेम समर्पित कर दिया। यह रोमांस वर्षों तक चला। लेकिन काका ने शादी के मामले में उन्हें अंगूठा दिखा दिया। अंजु बाद में अभिनेता अमजद खान के अभिनेता भाई इम्तियाज खान की बीवी बनी। इम्तियाज की मृत्यु के बाद आज वह 69 की इस उम्र में अपने काम में मशगूल हैं।
युवराज-किम
अब जरा दिलचस्प अफेयर पर एक नजर। कभी सचिन अभिनेत्री शिल्पा शिरोडकर के अफेयर की बातें खूब सुनने को मिला करती थीं। पर इस खबर पर जल्द फुल स्टाप लग गया। बाद में उनसे पांच साल बडी अंजलि ने उन्हें पूरी तरह से क्लीन बोल्ड कर दिया। कभी सौरभ के कॅरिअर के चरम पर अभिनेत्री नगमा के साथ उनके अफेयर के बारे में बच्चा-बच्चा जान गया था। पर सौरभ ने परिवार और कॅरिअर के लिए नगमा को जल्द ही अपने से दूर कर दिया। हां,युवराज सिंह जरूर एक बी ग्रेड की हीरोइन किम से शादी करने के लिए बेताब थे। पर किम उन्हें अपना प्रेमी ही बनाये रखना चाहती थी  जो युवराज को पसंद नहीं था।  युवराज की मां भी किम को पसंद नहीं करती थी। विषयान्तर करने से पहले यहां यह बताना जरूरी है कि किम ने आदित्य चोपड़ा की फिल्म मोहब्बतें से फिल्म इंडस्ट्री में  एंट्री ली थी। मगर बाद में बी ग्रेड की फिल्मों में वह उलझ कर रह गयी। जहां तक युवराज का सवाल है, इसके बाद दीपिका,नेहा धूपिया आदि कई तारिकाओं के साथ उनका नाम जुड़ा। पर इसका एक दूसरा सच यह है कि युवराज आज भी कुंआरे हैं।
कुछ यही हाल महेंद्र सिंह धोनी के साथ भी हुआ। कभी धोनी का नाम दीपिका, बिपाशा आदि के साथ जुड़ा। बिपाशा के प्रति उनकी आत्मीयता एक एड फिल्म की शूटिंग के दौरान परवान चढ़ी थी लेकिन उनका कोई अफेयर कभी ज्यादा सुनायी नहीं पड़ा। बाद में साक्षी ने उनका कैच लपक लिया। अब बारी है जहीर-ईशा श्रावणी और हरभजन सिंह-गीता बसरा के रोमांस की। पिछले कई सालों से इन दोनों जोड़ियां के प्यार  के किस्से सुनायी देते हैं पर इनकी शादी के बारे में कोई पक्की खबर अभी तक नहीं आयी है। बीच-बीच में इनके ब्रेक-अप की खबरें भी आती हैं। फिर अचानक किसी मौके पर नजर आकर ये यह जतला देते हैं कि इनका रोमांस जिंदा है। ऐसे में एकमात्र विराट और अनुष्का का रोमांस ही पूरी तरह से जीवंत दिखायी पड़ता है। इनका गुपचुप मिलना भी जारी है। पिछले दिनों एडिलेट में दोनों  मिले। अब उम्मीद तो यही की जाती है कि इस मेल-मिलाप को जल्द ही एक ठोस आधार मिलेगा।
रिचड‍्र्स-नीना गुप्ता
वैसे विदेशी क्रिकेटरों के रोमांस का अर्द्धसत्य समझना बडा मुश्किल है। वह खेल के सिलसिले में इस देश में आते हैं। किसी फिल्म तारिका के प्रेमपाश में बंधते है। फिर खेल खत्म हाेता है और विदेश लौटने के बाद इनका रोमांस भी खत्म हो जाता है। बेहद भाव प्रवण अभिनेत्री नीना गुप्ता और विवियन रिचड‍्र्स का प्यार भी कुछ ऐसा ही था। इस प्यार में एक गुल भी खिला। यह गुल यानी उन दोनों की बिटिया मसाबा आज बड़ी हो चुकी है।  वह एक बड़ी डिजायनर है। लेकिन इसका एक दूसरा सच यह है कि नीना को आज भी एक अविवाहित मां माना जाता है। विवियन के साथ उनकी शादी नहीं हुई। कुछ कानूनी उलझनें थीं। लेकिन मसाबा को दोनों का नाम मिला है। बाद में नीना गुप्ता ने दिल्ली बेस्ड एक चार्टर्ड एकांउटेंट विवेक मेहरा से शादी रचा ली। वैसे रिचड‍्र्स जब भी इंडिया आते हैं तो बेटी मसाबा और पुरानी प्रेयसी नीना से जरूर मिलते हैं।
ग्लैमर का सम्मोहन
क्रिकेटर और फिल्मी सितारों का साथ सिर्फ रूपहले पर्दे की तारिकाओं तक ही सीमित नहीं है। सच तो यह है कि कई क्रिकेटर फिल्मी तारिकाओं में ही नहीं, फिल्मों में भी बेहद दिलचस्पी लेते हैं। फिल्मी पार्टियों और शो में इनकी उपस्थिति एक सामान्य-सी बात हो चुकी है। लेकिन पर्दे के पीछे का यह सम्मोहन कई बार उन्हें रूपहले पर्दे के लिए भी बाध्य करता है। सुनील गावस्कर, संदीप पाटिल, सैयद किरमानी, कपिल देव, अजय जडेजा, सलिल अंकोला, विनोद कांबली, अंगद बेदी, युवराज सिंह, हरभजन सिंह जैसे क्रिकेटरों की एक लंबी फेहरिस्त है, जिन्होंने फिल्मों में आने का हर आफर कबूल किया। सलिल अंकोला तो इसमें एक अच्छे उदाहरण के तौर पर सामने आये। अच्छे व्यक्तित्व के धनी सलिल ने बतौर हीरो के तौर पर कई फिल्मों में काम किया और जब बात नहीं बनी तो टीवी पर काफी काम किया। इन दिनों धोनी के बायोपिक पर बनने वाली फिल्म में हरभजन और युवराज के काम करने की चर्चा है। उल्लेखनीय है कि फिल्म में क्रिकेटर धोनी की मुख्य भूमिका अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत कर रहे हैं। क्रिकेटर फिल्मी तारिकाओं के साथ रोमांस करने के साथ फिल्मों में भी काम करने का कोई मौका मिस नहीं करते। वैसे ग्लैमर के मारे सिर्फ क्रिकेटर नहीं होते, अन्य खेलों से जुड़े खिलाडी भी इससे बच नहीं पाते। इसके लिए विजेंदर सिंह, लियेंडर पेस, महेश भूपति का नाम लिया जा सकता है।
विदेशी क्रिकेटर भी अछूते नहीं
फिल्म तारिकाओं से रोमांस करने के मामले में विदेशी क्रिकेटरों का नाम भी खूब लिया जाता है। साउथ अफ्रीका के चर्चित क्रिकेटर जैक कैलिस,आस्ट्रेलिया के वर्तमान कप्तान माइकल क्लार्क, कालजयी स्पिनर शेनवार्न, वेस्टइंडीज के ब्रायन लारा, क्रिस गेल आदि। जैक कैलिस के सोलह साल के क्रिकेट जीवन में हर साल उनकी गर्लफ्रेंड बदल जाती थी। उल्लेखनीय है कि इसमें किसी विदेशी तारिका या माॅडल का ही नाम होता था। कभी ब्रायन लारा का एक विदेशी तारिका से काफी रोमांस चला था। शेनवार्न और अभिनेत्री लिज हर्ले का रोमांस भी काफी चला। इन दिनों उनका विदेशी हीरोइन से रोमांस चल रहा है। आस्ट्रेलिया के एक और खिलाड़ी माइकल क्लार्क ने हाॅलीवुड से जुड़ी फ्लोरा विंगल से प्रेम विवाह किया। क्रिस गेल तो प्यार के मामले में बहुत उन्मुक्त हैं। पिछले साल एक एड फिल्म की शूटिंग के दौरान अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा से भी उन्हें खूब फ्लर्ट करते हुए देखा गया। बाद में उन्हें कई मौकों पर साथ देखा गया। मगर आईपीएल खत्म होने के बाद उनका अफेयर भी खत्म हो गया। फिलहाल उनका एक माडल से रोमांस चल रहा है।

Wednesday, 11 March 2015

भूमि अधिग्रहण का बेसुरा राग

एक तरफ मुल्क का किसान दैवीय आपदा से परेशान है तो दूसरी तरफ दिल्ली में भूमि अधिग्रहण का बेसुरा राग अलापा जा रहा है। मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण मामले को नाक का सवाल मान बैठी है। बेहतर तो यह होता कि विपदा के समय सरकार किसानों के जख्मों पर मरहम लगाकर समस्या का स्थायी समाधान निकालती लेकिन वह उस जमीन के लिए जोर-आजमाइश कर रही है जोकि सबका जीवन है। किसानों को मुआवजा देने की कौन कहे अभी तो नुकसान के आकलन की प्रक्रिया भी सिरे नहीं चढ़ी।  खेती-किसानी की जहां तक बात है, इस साल खरीफ की फसल कम बारिश से जहां प्रभावित हुई वहीं अब रबी की फसल पर खतरा मंडरा रहा है। यह मुल्क की आवाम के भरण-पोषण से जुड़ा गम्भीर मसला है, इस पर अभी से ध्यान नहीं दिया गया तो परिणाम भयावह हो सकते हैं।
दिल्ली में 24 फरवरी कोे भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की जगह लाए गये संशोधन विधेयक पर सत्तापक्ष और विपक्ष में किसानों की रहनुमाई का जो स्वांग चल रहा है उस पर सरकार ने लोकसभा में बेशक फतह हासिल कर ली हो पर राज्यसभा में उसे मुंह की खानी पड़ सकती है। नरेन्द्र मोदी ने सबका साथ, सबका विकास का जो सब्जबाग दिखाया था, सत्ता में आते ही उनकी चाल-ढाल बदली-बदली सी नजर आती है। यह सच है कि आजादी के 66 साल बाद किसानों-आदिवासियों के राजनीतिक-सामाजिक संगठनों और जागरूक नागरिक समाज के सतत प्रयासों से अंग्रेजों के जमाने का भूमि अधिग्रहण अधिनियम (1894) पिछली सरकार के समय संशोधित किया गया। ब्रिटिश कम्पनियों के हितों को सिर-आंखों पर रखने वाला 1894 का वह कानून जमीन के असली मालिक किसान और आदिवासियों का पूर्णत: विरोधी था।  मोदी सरकार ने जिस तरह हड़बड़ी में रातोंरात एक अध्यादेश लाकर 2013 के संशोधित भूमि अधिग्रहण अधिनियम को निष्प्रभावी किया है उससे उसकी  कथनी और करनी का फर्क साफ पता चलता है।
कांग्रेस के कार्यकाल में सितम्बर 2013 में संसद में जो संशोधित भूमि अधिग्रहण अधिनियम पारित किया गया वह भी नितांत दोषमुक्तनहीं कहा जा सकता। उसमें भूमि के स्वामी किसानों, आदिवासियों के लिए समुचित मुआवजे का प्रावधान न होने के साथ ही ऐसे चोर दरवाजे थे जिनसे होकर सरकार अपनी चहेती निजी कम्पनियों को फायदा पहुंचा सकती थी। भूमि अधिग्रहण की जहां तक बात है, भारत में इस कानून की नींव फोर्ट विलियम हंटर ने 1824 में बंगाल प्रान्त में डाली थी, जिसकी सहायता से अचल सम्पत्तियों का अधिग्रहण सड़क, नहर और अन्य सुविधाओं के लिए किया गया था। मुल्क में जब रेल लाइनों के बिछाने की बात आई तो 1894 में इसमें व्यापक परिवर्तन किये गये। आजादी के साढ़े छह दशक तक केन्द्रीय एजेंसियां तथा राज्य सरकारों द्वारा अधिकृत कम्पनियां किसान आन्दोलनों को कुचलते हुए उनकी जमीनों पर अतिक्रमण करती रही हैं। 1978 में इसे तब और मजबूती मिली जब 44वें संविधान संशोधन के जरिये सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकार की श्रेणी से निकाल दिया गया। इस संशोधन के बाद तो सरकार कभी भी, कहीं भी किसी की भी जमीन, भवन का अधिग्रहण करने की हकदार हो गई थी। गोरों के राज में सारी जमीन सरकार की थी। किसान बंधुआ था तो जमींदार बिचौलिया। आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन हुआ और जमींदारों से जमीन छीनकर किसानों में बांटी गई। किसानों को पहली बार लगा कि हम भी भूमिधर हैं।
देश में भूमि अधिग्रहण की लड़ाई बहुत पुरानी है। अतीत में जमीन को लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान भी सरकार से दो-दो हाथ कर चुके हैं। वर्ष 2004 में रिलायंस के दादरी प्रोजेक्ट के लिए जब किसानों को 2500 एकड़ जमीन पर कम मुआवजा दिया गया, तब पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह के नेतृत्व में आन्दोलन चला और इलाहाबाद हाईकोर्ट से किसानों को न्याय मिला। ममता बनर्जी भी कोलकाता के सिंगूर में टाटा के नैनो प्रोजेक्ट के खिलाफ सफल आन्दोलन चला चुकी हैं। बुन्देलखण्ड के बांदा जिले के धरती पुत्र भी जान देंगे पर जमीन नहीं देंगे के बैनर तले महीनों आन्दोलन कर चुके हैं। अपनी पुश्तैनी जमीन से बेदखली के खिलाफ किसान अब आंदोलन न करें इसके लिए जरूरी है कि मोदी सरकार राजनीतिज्ञों से विचार-विमर्श की बजाय उन किसानों से बात करे जिनको सरकार से शिकायत है। सरकार को चाहिए कि वह भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया प्रारम्भ करने से पूर्व विकास परियोजना के कारण होने वाली सम्भावित क्षतियों का भी आकलन करे। मौजूदा भूमि अधिग्रहण विधेयक में मोदी सरकार ने बेशक नौ संशोधनों को स्वीकार कर लिया हो पर यह अध्यादेश मूल अधिनियम के उस प्रावधान की खुली अवहेलना है, जो उन लोगों को भी मुआवजे का हकदार बताता है, जो भूमि के वास्तविक मालिक तो नहीं होते लेकिन जिनकी आजीविका जमीन पर ही निर्भर है। इन समुदायों में खेतिहर मजदूर, बटाईदार किसान, आदिवासी, लोक कलाकार, ग्रामीण दस्तकारी पेशे से जुड़ी जातियां, मछुआरे और चरवाहे आदि शामिल हैं।
भूमि अधिग्रहण की बात करने से पहले मोदी सरकार को खाद्य सुरक्षा अधिनियम का भी अवलोकन करना चाहिए जिसमें यह निर्धारित था कि दो या दो से अधिक फसलें देने वाली उर्वरा भूमि को किसी भी सूरत में अधिग्रहीत नहीं किया जाए। मौजूदा अध्यादेश में इस प्रावधान का भी ख्याल नहीं रखा गया है। इस अध्यादेश में अधिग्रहीत भूमि को उपयोग में लेने की छूट-अवधि की मियाद भी बढ़ा दी गई है। प्राय: यह देखा गया है कि सरकारें और निजी कम्पनियां भूमि अधिग्रहण में तो हड़बड़ी दिखाती हैं, लेकिन अधिग्रहीत भूमि को लम्बे समय के लिए यूं ही खाली छोड़ देती हैं ताकि उसके बाजार मूल्य में कई गुना बढ़ोतरी हो सके और फिर कानूनी फेरबदल करके उस भूमि को ऊंची कीमत पर बेचा जा सके। अध्यादेश के पक्ष में यह कहा जा रहा है कि इससे भूमि अधिग्रहण की जटिल, लम्बी और थकाऊ प्रक्रिया आसान होगी, जिससे विकास परियोजनाओं को अमलीजामा पहनाने में गति मिलेगी। सच्चाई तो यह है कि अधिनियम के विरोध और अध्यादेश के पक्ष में जो भी बातें कही-सुनी जा रही हैं, वे सब झूठ की बुनियाद पर टिकी हैं। भूमि अधिग्रहण अधिनियम की धाराओं का उल्लंघन करने वाले अधिकारियों के खिलाफ प्रकरण दर्ज करने की स्वीकार्यता और किसानों की जमीन अधिग्रहीत करने पर उसके परिवार के एक सदस्य को शासकीय नौकरी देना तो स्वागतयोग्य कदम है, पर भूमि अधिग्रहण को लेकर सरकार, उद्योगपति, व्यापारिक घराने, खनन माफिया आदि का  उतावलापन समझ से परे है। मोदी सरकार जब तक किसानों के मन से संशय दूर नहीं करती उसके सारे प्रयास अकारथ हैं।

Sunday, 8 March 2015

वाॅलीबाल का मक्का गांव कौल

बलवंत सिंह बल्लू रहे 15 साल भारतीय टीम के कप्तान

कैथल : ऐसा गांव जहां हर नौजवान में जुनून है वाॅलीबाल का खिलाड़ी बनने का। सुबह 4 बजे से ही स्कूल, कालेज व यूनिवर्सिटी के वॉलीबाल मैदानों में ही नहीं, गांव में जहां भी नैट लगाने की जगह मिल सकती हो, वहीं वाॅलीबाल खेलने जुट जाते हैं। शाम को स्कूल व कालेज की छुट्टी होते ही वॅालीबाल के सभी नैटों पर चहल-पहल शुरू हो जाती है जो रात तक चलती है। जी हां, यहां बात हो रही है जिला कैथल के गांव कौल की जिसके बारे में पूरा प्रदेश जानता है कि यहां की वाॅलीबाल टीम का कोई मुकाबला ही नहीं। कैथल से करीब 28 किलोमीटर दूर गांव कौल को यदि वाॅलीबाल का मक्का कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। गांव के हर युवा में वाॅलीबाल का महान खिलाड़ी बन अर्जुन अवार्डी तथा भारत की टीम के 15 साल कप्तान रहे बलवंत सिंह बल्लू की तरह गांव का नाम रोशन करने की लालसा है।
युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत
गांव के युवाओं के लिए गांव के कई खिलाड़ी प्रेरणास्त्रोत बने हंै जिनको देखकर वे भी बलवंत सिंह बल्लू, मेहर सिंह हांडा व जगपाल जैसे अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी बनने की तमन्ना रखते हैं। एक ही गांव से इतने अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी होने का गर्व हर युवा के जोश में साफ झलकता है।
हर साल होता है राष्ट्रीय स्तर का टूर्नामेंट
गांव में हर साल अर्जुन अवार्डी बलवंत सिंह बल्लू की याद में 11 से 14 मार्च तक राष्ट्रीय स्तर का वालीबाल मुकाबला आयोजित किया जाता है, जिसमें देश की जानी-मानी टीमें तथा खिलाड़ी भाग लेते हैं। इन मुकाबलों को देखने के लिए प्रदेश से हजारों की संख्या में लोग पहुंचते हैं।
कालेज में बना बलवंत सिंह बल्लू यादगारी स्टेडियम
गांव में स्थित बाबू अनंत राम जनता कालेज में अर्जुन अवार्डी बलवंत सिंह बल्लू की याद में वाॅलीबाल स्टेडियम बनाया गया है जिसमें वालीबाल के 2 ग्राउंड हैं। इसके अलावा सभी स्कूलों तथा कृषि विश्वविद्यालय के कैम्पस व गांव में भी कई जगह वालीबाल खेलने के लिए स्थान बनाए गए हैं, जिनमें गांव के सैकड़ों खिलाड़ी सुबह-शाम अभ्यास करते हैं।
गांव ने दिए महान खिलाड़ी
कौल गांव के वाॅलीबाल के कई महान खिलाड़ी देश का गौरव बढ़ा रहे हैं। इनमें अर्जुन अवार्डी बलवंत सिंह बल्लू का नाम शान से लिया जाता है। इसी प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर खेलने वाले खिलाड़ी मेहर सिंह हांडा, जगपाल, नरेंद्र, बलकार सिंह, सावन कुमार, नरेन्द्र रामकुमार, शुभम केहर सिंह, राहुल धर्म सिंह शामिल हैं। मेहर सिंह हांडा भारत के लिए खेले और 1982 व 1986 में एशियाड खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया तथा गोल्ड मैडल प्राप्त किया। जगपाल  ने भारत का प्रतिनिधित्व किया और इंडो रशिया खेलों में शानदार प्रदर्शन किया।
पिता के नक्शे-कदम पर चल रहा नरेन्द्र
बलवंत सिंह बल्लू का बेटा भी उनके नक्शे कदम पर चल कर एक बड़ा खिलाड़ी बना है जिसके दम पर वह अनेक प्रतियोगिताओं में भाग ले चुका है। नरेन्द्र ने 25 से 30 नवम्बर, 2007 में नार्थ जोन आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी चैम्पियनशिप खेली और गोल्ड मेडल प्राप्त किया। 12 से 20 दिसम्बर 2007 में आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी प्रतियोगिता में चौथा स्थान पाया। 11 से 15 दिसम्बर, 2008 में नार्थ जोन आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल प्राप्त किया। 10 से 14 जनवरी 2008 में आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी खेलों में द्वितीय स्थान प्राप्त किया। 24 जनवरी से 1 फरवरी, 2009 में केरल में आयोजित यूथ नेशनल वाॅलीबाल में तीसरा स्थान पाया। 13 से 21 मई 2010 तक ईरान के तेहरान में आयोजित यूथ एशियन चैम्पियनशिप में टीम ने चौथा स्थान प्राप्त किया और स्वयं बैस्ट अटैकर का इनाम पाया। 2013 में ट्यूनीशिया में आयोजित जूनियर इंडिया वाॅलीबाल चैम्पियनशिप में भाग लिया।
बलकार सिंह
पश्चिमी बंगाल में आयोजित इंटर साई वाॅलीबाल प्रतियोगिता 17 से 20 अक्तूबर 2009 में खेली तथा द्वितीय स्थान प्राप्त किया। 12 से 16 फरवरी, 2010 में इंटर कालेज प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त किया। नार्दन इंंटर यूनिवर्सिटी प्रतियोगिता 16 से 22 जनवरी 2011 में कुरुक्षेत्र में खेली तथा प्रथम स्थान प्राप्त किया। कुरुक्षेत्र में आयोजित आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी 10 से 14 फरवरी 2011 में गोल्ड प्राप्त किया।
सावन कुमार
सावन कुमार ने यूपी के फैजाबाद में आयोजित नार्थ जोन इंटर यूनिवर्सिटी प्रतियोगिता में भाग लिया और गोल्ड प्राप्त किया। आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी खेल मध्यप्रदेश के सागर में द्वितीय स्थान पाया। 7 से 15 जनवरी 2013 में राजस्थान में सीनियर नेशनल चैम्पियनशिप में भाग लिया और 19 से 25 जनवरी तक आयोजित नेशनल यूथ वाॅलीबाल प्रतियोगिता में भाग लिया।
नरेन्द्र कुमार
नरेन्द्र ने जूनियर स्टेट चैम्पियनशिप में भाग लिया। 2014 में चंडीगढ़ में आयोजित जूनियर नेशनल चैम्पियनशिप में द्वितीय स्थान प्राप्त किया। 13 से 14 दिसम्बर 2014 तक आयोजित यूथ स्टेट चैम्पियनशिप में दूसरा स्थान प्राप्त किया।
शुभम
शुभम ने भी अपने गांव का नाम रोशन करते हुए कई प्रतियोगिताओं में भाग लिया जिसमें 12 से 14 जनवरी 2014 तक देहरादून में जूनियर नैशनल चैम्पियनशिप में चौथा स्थान प्राप्त किया। सब जूनियर नेशनल चैम्पियनशिप में तीसरा स्थान पाया। 29 नवम्बर से 6 दिसम्बर 2014 तक नार्थ जोन इंटर यूनिवर्सिटी चैम्पिनशिप में गोल्ड मेडल प्राप्त किया। 7 दिसम्बर से 12 दिसम्बर 2014 कुरुक्षेत्र में आयोजित आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल प्राप्त किया।
राहुल कुमार
राहुल कुमार ने वाॅलीबाल में शानदार प्रदर्शन करके अपने हुनर का प्रदर्शन किया। उन्होंने 1999 में स्कूल नेशनल चैम्पियनशिप खेली, 2000 में गुड़गांव में जूनियर नेशनल प्रतियोगिता में भाग लिया, 2001 में पटियाला में आयोजित अंडर 19 नेशनल प्रतियोगिता में भाग लिया, 2005 में पूना में आयोजित सीनियर नेशनल में दूसरा स्थान प्राप्त किया, 2006 में यू.एस.ए. के एरिजोना में आयोजित वल्र्ड मिलिटरी चैम्पियनशिप में भाग लिया, 2007 में रायपुर में सीनियर नेशनल में भाग लिया, 2007 में हैदराबाद में हुए वर्ल्ड मिलिट्री खेलों में तृतीय स्थान पाया, 2007 व 2008 में सीनियर नेशनल खेली, 2009 में ब्राजील के रियो डी जिनेरियो में हुई वर्ल्ड मिलिट्री खेलों में चौथा स्थान प्राप्त किया तथा 2010 में ग्वालियर में आयोजित सीनियर नेशनल वाॅलीबाल प्रतियोगिता में भाग लिया।
एकेडमी खिलाड़ियों का भी शानदार प्रदर्शन
बलवंत सिंह बल्लू द्वारा शुरू की गई वालीबाल एकेडमी में प्रशिक्षण प्राप्त करके खिलाड़ियों ने भी शानदार प्रदर्शन किया। इन खिलाड़ियों को आजकल बलकार सिंह कोच, कर्म सिंह पीटीआई व जसबीर सिंह भूरा पीटीआई खेल की बारीकियां सिखा रहे हैं। इनकी तैयार टीमों ने कई बड़ी प्रतियोगिताओं में शानदार प्रदर्शन किया है जिनमें 27 से 28 अक्तूबर, 2008 में बंचूरी में सीनियर स्टेट चैम्पियनशिप में 8 खिलाड़ियों ने भाग लिया, 11 से 13 जनवरी 2012 में जींद में जूनियर स्टेट चैम्पियनशिप में 8 खिलाड़ी खेले। 13 से 14 दिसम्बर 2014 तक सेरला भिवानी में यूथ स्टेट चैम्पियनशिप में 8 खिलाड़ी खेले। इनमें शुभम, सोनू, अंकित, नरेन्द्र, दीपांशु, सुनील, प्रिंस व अमन शामिल थे।
कौन थे बलवंत सिंह बल्लू
गांव कौल में मार्च, 1946 को किसान धनपत सिंह के घर में जन्म लेने वाले बल्लू ने अपनी शिक्षा कौल से ही प्राप्त की। बचपन से ही वाॅलीबाल के दीवाने बल्लू 1965 में पंजाब पुलिस में सिपाही के पद पर नियुक्त हुए। 1966 में पहली बार नेशनल प्रतियोगिता में दमखम दिखाया और दूसरा स्थान प्राप्त किया। उसके बाद उनके नेतृत्व में कई चैम्पियनशिप जीती गईं। 1980 में दुबई में क्लब की कप्तानी की तो यूनान में कोचिंग कैंप भी लगाया। पंजाब टीम के कप्तान रहते हुए 15 साल राष्ट्रीय वालीबाल प्रतियोगिता जीतने का गौरव प्राप्त किया। पंजाब की टीम के साथ-साथ लगातार 15 साल भारत की टीम के कप्तान भी रहे तथा 1966 से 1980 तक भारतीय पुलिस वालीबाल खेल प्रतियोगिता के भी विजेता रहे।
1972 में मिथा था अर्जुन अवार्ड
वालीबाल में अद्भुत प्रदर्शन के दम पर भारत का नाम ऊंचा करने वाले बलवंत सिंह बल्लू को वाॅलीबाल में अविस्मर्णीय प्रदर्शन के चलते 1972 में तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी. गिरी ने अर्जुन अवार्ड से सम्मानित किया। 1979 में पंजाब सरकार ने महाराजा रणजीत अवार्ड से सम्मानित किया। 1983 में हरियाणा सरकार द्वारा उन्हें भीम अवार्ड से सम्मानित किया गया। 14 नवम्बर, 2010 को यह महान खिलाड़ी अपनी सांसारिक यात्रा पूरी करके भगवान के घर चला गया, लेकिन अपने खेल के दम पर लाखों शुभचिंतकों को खेल के प्रति मेहनत, लग्न व समर्पण पाठ पढ़ाकर आज भी लोगों के दिलों में बसा है।