Friday, 27 June 2014

मैं फिट, ग्लासगो का स्वर्ण मेरा लक्ष्य: कृष्णा पूनिया

आगरा। इंसान का जीवन तो अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों का ही खेल तमाशा है। मैं अब पूरी तरह से फिट हूं, तीन मई से अमेरिका में अच्छी प्रैक्टिस भी चल रही है। अब ग्लासगो राष्ट्रमण्डल और एशियाई खेलों की स्वर्णिम सफलता बहुत-कुछ मेरे भाग्य और प्रदर्शन पर निर्भर होगी, यह कहना है देश की स्टार डिस्कस थ्रोवर कृष्णा पूनिया का।
दिल्ली राष्ट्रमण्डल खेलों की पहली भारतीय स्वर्ण पदकधारी महिला एथलीट कृष्णा पूनिया ने अमेरिका से फोन पर पुष्प सवेरा से हुई बातचीत में बताया कि ग्लासगो राष्ट्रमण्डल खेलों का स्वर्ण पदक उनका लक्ष्य है, जहां इस बार आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड तथा दक्षिण अफ्रीका की लड़कियों से कड़ी चुनौती मिल सकती है। जहां तक एशियाई खेलों का सवाल है मैं इस मर्तबा अपने मेडल का रंग बदलना चाहती हूं। कृष्णा ने 2006 में दोहा और 2010 में ग्वांगझू एशियाई खेलों में कांस्य पदक जीते थे। चक्का फेंक की नेशनल रिकॉर्डधारी एथलीट कृष्णा पूनिया राष्ट्रमण्डल खेलों की अपेक्षा एशियाड में चीनी खिलाड़ियों को कहीं अधिक कड़ी चुनौती मानते हुए कहती हैं कि इस बार पदक के लिए उन्हें फौलादी प्रदर्शन करना होगा। राष्ट्रमण्डल खेलों की एथलेटिक स्पर्धा में पहला स्वर्ण पदक जहां 1958 में मिल्खा सिंह ने जीता था वहीं 2010 में कृष्णा पूनिया स्वर्णिम कामयाबी हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला एथलीट बन गई थीं।
32 वर्षीय ओलम्पियन कृष्णा पूनिया को लंदन ओलम्पिक के फाइनल दौर में पहुंचने की जहां खुशी है वहीं पदक न जीत पाने का मलाल भी है। जहां तक ओलम्पिक की बात है अब तक छह भारतीय एथलीट ही ट्रैक एण्ड फील्ड स्पर्धाओं के फाइनल में जगह बनाने में सफल हुए हैं। इनमें फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह, उड़नपरी पीटी ऊषा, श्रीराम सिंह, गुरुबचन सिंह रंधावा, लांग जम्पर अंजू बॉबी जॉर्ज और कृष्णा पूनिया शामिल हैं। कृष्णा लंदन ओलम्पिक में 63.62 मीटर चक्का फेंककर पांचवें स्थान पर रही थीं। जहां तक सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन की बात है पद्मश्री और अर्जुन अवार्डी कृष्णा ने आठ मई, 2012 को अमेरिका में ही 64.76 मीटर चक्का फेंककर नेशनल रिकॉर्ड अपने नाम किया था। कृष्णा पूनिया मानती हैं कि इस बार के राष्ट्रमण्डल और एशियाई खेल उनके खेल जीवन के लिए अहम हैं। कृष्णा पूनिया यदि ग्लासगो में स्वर्णिम सफलता हासिल करने में सफल हुर्इं तो राष्ट्रमण्डल खेलों में यह करिश्मा करने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हो जाएंगी। ग्लासगो की सफलता कृष्णा को राजीव गांधी खेल रत्न दिलाने में भी मददगार साबित होगी।
मेरी सफलता में वीरेन्दर का बड़ा योगदान
कृष्णा पूनिया ने कहा कि उनकी सफलता में पति वीरेन्दर सिंह का बहुत बड़ा योगदान है। वर्ष 2000 में एथलीट वीरेन्दर के साथ परिणय सूत्र में बंधी कृष्णा पूनिया का कहना है कि उन्होंने न केवल बेहतर प्रशिक्षण दिया बल्कि हमेशा हौसला भी बढ़ाया। आज भी अमेरिका में वह मेरे साथ हैं। रेलवे में कार्यरत इस मिश्रित युगल जोड़ी को भरोसा है कि भविष्य में जो भी होगा, ठीक होगा। वीरेन्दर भी कृष्णा के खेल समर्पण के कायल हैं।
लक्ष्य के लिए अभी कोई लक्ष्य नहीं
कृष्णा पूनिया अपने 12 वर्षीय लाड़ले लक्ष्य की खेलों में अभिरुचि को लेकर बेहद खुश हैं, पर वे अभी उस पर किसी खास खेल के लिए दबाव नहीं डालना चाहतीं। बकौल कृष्णा, लक्ष्य न केवल चक्का और हैमर थ्रो करता है बल्कि बास्केटबाल में भी हाथ आजमाता है। कृष्णा और वीरेन्दर चाहते हैं कि लक्ष्य भी उनके ही पदचिह्नों पर चले, पर अभी से उस पर किसी खेल का दबाव डालना ज्यादती होगी।

बढ़ता वेतन, घटता शिक्षा का स्तर

शत-प्रतिशत साक्षरता और स्कूलों में शिक्षा का नया वातावरण तैयार करने के लिए यूं तो देश में तरह-तरह के प्रयोग तथा प्रयास होते रहे हैं पर परिणाम संतोषजनक नहीं कहे जा सकते। मौजूदा समय में शिक्षा के बदलते स्वरूप और पाठ्यक्रम के भारी-भरकम बोझ ने प्राथमिक शिक्षा से लेकर महाविद्यालयीन शिक्षा तक हर उम्र के विद्यार्थियों को पशोपेश में डाल रखा है। आज सामाजिक शिक्षा की जगह रोजगारमूलक शिक्षा ने ले ली है। यही वजह है कि आज का छात्र न केवल अपने लक्ष्य से भटक रहा है बल्कि सकारात्मक सोच, प्रतिबद्धता और कड़ी मेहनत से भी जी चुराने लगा है। उसके मानस में सफलता का भूत इस कदर सवार है कि वह शॉर्टकट रास्ते तलाशने से भी गुरेज नहीं कर रहा। शिक्षक मोटी पगार पाने के बाद भी अपने कर्तव्य से बेपरवाह हैं, नतीजन शिक्षा का निरंतर हृास हो रहा है।
प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षा किस भाषा माध्यम से दी जाए, इस पर लम्बे समय से बहस होती रही है। निश्चित रूप से कम उम्र के बच्चों के लिए मातृभाषा में शिक्षा सहज ग्राह्य होती है और इससे उनके भीतर सोचने-समझने की क्षमता का स्वाभाविक विकास भी होता है। तकरीबन दो दशक पहले कर्नाटक सरकार का कक्षा एक से चार तक के लिए शिक्षा माध्यम मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा यानि कन्नड़ को अनिवार्य करने का फैसला अपने आपमें विरोधाभासी था। अगर कर्नाटक सरकार की यह दलील मान भी ली जाए कि बच्चों के सम्पूर्ण बौद्धिक विकास के लिए मातृभाषा सीखनी जरूरी है, तो सवाल यह उठता है कि इसकी सीमा स्थानीय संस्कृति ही क्यों हो? बहरहाल, सरकारी स्कूलों में तो यह चलता रहा, लेकिन निजी स्कूलों ने इस पर आपत्ति जताई। इसी के बाद जुलाई 2008 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा था कि भाषा माध्यम की नीति निजी स्कूलों पर नहीं थोपी जा सकती। अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह व्यवस्था दे दी है कि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा किस भाषा में दी जाए, यह तय करने का हक केवल विद्यार्थी और अभिभावक को है। नियमत: सरकारी या निजी स्कूलों में शिक्षा पद्धति एक समान होनी चाहिए, क्योंकि इन अलग-अलग स्कूलों में पढ़ने वाले सभी बच्चे ही होते हैं, फर्क सिर्फ आर्थिक पहुंच का है।
छात्र जीवन आज कठिन समस्या से कम नहीं है। आज हर छात्र का स्वर्णिम भविष्य ही प्रमुख लक्ष्य है लेकिन शैक्षणिक स्तर इस कदर गिर गया है कि उसे सही और गलत का भान ही नहीं रहा। शिक्षा को साधना माना जाता है लेकिन साधना का अर्थ तपस्वियों की तरह धुनी रमाकर तप करना नहीं वरन उन सारी गलत आदतों से ध्यान हटाना है, जो छात्र जीवन की स्वर्णिम पगडंडियों पर गंदे कचरे की भांति जमकर उन्हें पथभ्रमित कर जाती हैं। शिक्षा साधना से जुड़े विद्यार्थियों को सत्र शुरू होते ही गुरुजनों द्वारा पढ़ाये गये पाठ्यक्रमों की पुनरावृत्ति ठीक उसी तरह अमल में लानी चाहिये, जिस तरह गुरुकुल शिक्षा के समय सुबह और शाम नियमित रूप से पूजा-आराधना के रूप में गुरुओं के सान्निध्य में जरूरी हुआ करता था। आज के विद्यार्थी को पहले दिन से ही परीक्षा का भूत डराने लगता है। इससे निजात के लिए उसे सबसे पहले अपने अंदर आत्मविश्वास जगाना चाहिए क्योंकि आत्मविश्वास ऐसा मनोविज्ञानी शब्द है, जो हर प्रकार की चिन्ता और घबराहट को मिनटों में दूर भगा सकता है।
मुल्क में शिक्षा के अधोपतन के कई कारण हैं। इनमें शिक्षक और छात्र दोनों शामिल हैं। शासकीय और निजी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षण का तरीका भिन्न-भिन्न है। शासकीय शिक्षक मोटी पगार पाकर भी जहां शिक्षणेत्तर कार्यों में दिलचस्पी नहीं लेता वहीं निजी शिक्षण संस्थानों के शिक्षक अल्पवेतन के बावजूद कड़ी मशक्कत करने से जी नहीं चुराते। हर साल के परीक्षा परिणामों पर नजर डालें तो पाएंगे कि शासकीय स्कूलों से कहीं बेहतर निजी स्कूल हैं। भारत सरकार ने वर्ष 1964 में यूजीसी के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में स्कूली शिक्षा प्रणाली को नया आकार और नयी दिशा देने के उद्देश्य से एक आयोग का गठन किया था। आयोग ने अपनी रिपार्ट में सामाजिक बदलावों को ध्यान में रखकर कुछ ठोस सुझाव देते हुए देश में समान स्कूल शिक्षा प्रणाली की वकालत की थी। उनका तर्क था कि इस प्रणाली से एक ऐसी राष्ट्रीय व्यवस्था तैयार होगी जहां सभी तबके के बच्चे एक साथ पढ़ेंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज के ताकतवर लोग सरकारी स्कूलों से विमुख होकर निजी स्कूलों की ओर रुख करेंगे तथा पूरी प्रणाली छिन्न-भिन्न हो जाएगी। आज देश की शिक्षा व्यवस्था में यह खोट जगजाहिर सी बात है।
24 जुलाई, 1968 को भारत की प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की गई जोकि पूर्ण रूप से कोठारी आयोग के प्रतिवेदन पर ही आधारित थी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में सामाजिक दक्षता, राष्ट्रीय एकता एवं समाजवादी समाज की स्थापना करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। पूरे देश में शिक्षा की समान संरचना बनी और लगभग सभी राज्यों द्वारा 10+2+3 की प्रणाली को मान लेना 1968 की शिक्षा नीति की सबसे बड़ी देन है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम,1956 के तीसरे अध्याय में आयोग की शक्तियां और कृत्य को परिभाषित कर लिखा हुआ है कि विश्वविद्यालयों में शिक्षा की अभिवृद्धि और उसमें एकसूत्रता लाने के लिए विश्वविद्यालयों में अध्यापन, परीक्षा और अनुसंधान के स्तरमानों का निर्धारण करने के लिए जो आयोग ठीक समझे, वह कार्रवाई कर सकता है। इतना ही नहीं आयोग के अधिनियम, 1956 में यह भी लिखा है कि यदि केन्द्र सरकार और आयोग के बीच यह विवाद उठता है कि कोई प्रश्न राष्ट्रीय उद्देश्यों से सम्बन्धित नीति का है या नहीं तो उस पर केन्द्र सरकार का विनिश्चय ही अंतिम होगा। कोठारी आयोग, राधाकृष्णन आयोग, मुदलियार आयोग और यशपाल समिति ने हमेशा ही शिक्षण संस्थानों को ज्ञान-सृजन पर तरह-तरह की सलाह दी हैं। यदि शिक्षक थोड़ा प्रयास करें और अभिभावक भी बच्चों को कुछ नया सिखाने को प्रेरित करें तो सरकारी स्कूलों के बच्चे भी बुलंदियां छू सकते हैं। लापरवाह शिक्षकों के खिलाफ सख्ती तो अपने दायित्व का ईमानदारी से निर्वहन कर रहे शिक्षकों को प्रोत्साहन मिलना भी समयानुकूल होगा।

Wednesday, 25 June 2014

अब आगरा के लाल, करेंगे बॉक्सिंग में कमाल

शैली का सपना, ओलम्पिक पदक हो अपना
आशीष गौतम, अमित यादव, अक्षय प्रताप, आशीष शर्मा और सौरभ पर सबकी निगाहें
आगरा। भारतीय बॉक्सिंग फेडरेशन बेशक आंतरिक कलह से जूझ रही हो पर आगरा के जांबाज मुक्केबाज देश-दुनिया में अपने शहर और प्रदेश को गौरवान्वित करने को बेताब हैं। फिलहाल आगरा की बाहियाज बॉक्सिंग एकेडमी में सुबह-शाम लगभग 30 बॉक्सर जोश और जुनून के साथ अपने प्रशिक्षक राहुल कुमार सिंह से जीत के गुर सीख रहे हैं। यहां प्रशिक्षणरत हर मुक्केबाज मुहम्मद अली और माइक टाइसन बनने का सपना देख रहा है।
तीन साल पहले तक किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि आगरा के मुक्केबाज भी एक दिन करिश्मा कर दिखाएंगे पर आज स्थितियां और परिणाम इस बात की गवाही दे रहे हैं कि बॉक्सिंग में शहर का भविष्य उज्ज्वल है। शहर की तरुणाई में न केवल मुक्केबाजी की तरफ दिलचस्पी पैदा हुई है बल्कि वे अपने शक्तिशाली मुक्कों के प्रहार से देश भर का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। वर्ष 2011 में काकीनाड़ा में सर्वश्रेष्ठ रेफरी के खिताब से नवाजे गये प्रशिक्षक और उत्तर प्रदेश बॉक्सिंग फेडरेशन के कोषाध्यक्ष राहुल कुमार सिंह ने पुष्प सवेरा  को बताया कि आगरा शहर के मुक्केबाज कुछ कर गुजरने को बेताब हैं। कम समय में ही जिस तरह शहर के बॉक्सरों ने रिंग में कमाल दिखाया है, उससे उम्मीद बंधी है कि वह दिन जरूर आएगा जब आगरा के ये जांबाज देश का प्रतिनिधित्व करते दिखेंगे।
बकौल प्रशिक्षक राहुल कुमार, आशीष गौतम, अमित यादव, शैली सिंह, अभय प्रताप, आशीष शर्मा और सौरभ राजपूत में बला की चपलता है। ये बॉक्सर एक दिन ताजनगरी का नाम जरूर रोशन करेंगे। विभिन्न राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में अपने शक्तिशाली मुक्कों का शानदार आगाज कर चुके बॉक्सरों ने बताया कि वे आज जिस मुकाम पर हैं, उसका सारा श्रेय उनके प्रशिक्षक राहुल सर को जाता है। अब तक आगरा के तीन बॉक्सर इण्डियन कैम्प तक दस्तक दे चुके हैं, तो दो को शासकीय सेवा का मौका भी मिल चुका है।
शैली का नहीं कोई जवाब
एक तरफ लड़कियां जहां घर से बाहर निकलने में असहज महसूस करती हैं वहीं शहर की होनहार बॉक्सर शैली सिंह का कोई जवाब नहीं है। यह बालिका बॉक्सर रिंग में न केवल लड़कों को मुंहतोड़ जवाब दे रही है बल्कि वह एक दिन मैरीकॉम की ही तरह देश के लिए पदक जीतने का सपना भी देख रही है।
बाहिया जी का शुक्रगुजार हूं: राहुल
कहते हैं कि खिलाड़ी का मर्म कोई खिलाड़ी ही जान सकता है। अपने शहर के मुक्केबाजों का सपना साकार करने का श्रेय इण्टरनेशनल कार रेसर हरविजय सिंह बाहिया को जाता है। बकौल राहुल, बाहिया जी ने एकेडमी के लिए जगह और संसाधन न मुहैया कराए होते तो शायद शहर में मुक्केबाजी को जो मुकाम और सम्मान मिला वह नहीं मिलता। प्रशिक्षक राहुल का कहना है कि मुक्केबाजी में ही उनकी प्राणवायु बसती है। ताजनगरी के मुक्केबाजों का चमत्कारिक प्रदर्शन उनमें ऊर्जा का संचार करता है। हमारे शिष्य जिस तरह के परिणाम दे रहे हैं उससे उम्मीद है कि एक दिन आगरा का कोई बॉक्सर मुल्क के लिए पदक जरूर जीतेगा। राहुल अंतरराष्ट्रीय मुक्केबाज विजेन्दर सिंह की सदाशयता के कायल हैं। इन्हें उम्मीद है कि विजेन्दर राष्ट्रमण्डल और एशियाई खेलों में पदक जरूर जीतेगा।
बॉक्सिंग इण्डिया की बैठक 27 को
अंतरराष्ट्रीय बॉक्सिंग फेडरेशन और आईओए के प्रतिबंध का दंश झेल रहे इण्डियन बॉक्सिंग फेडरेशन की जगह अब बॉक्सिंग इण्डिया लेने जा रही है। इस बाबत एक बैठक मुम्बई में 27 जून को होगी। इस बैठक में ताजनगरी के राहुल कुमार सिंह उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व करेंगे। सूत्रों की कही सच मानें तो बॉक्सिंग इण्डिया ने अंतरराष्ट्रीय बॉक्सिंग फेडरेशन और भारतीय ओलम्पिक संघ को भरोसा दिया है कि अब यह खेल किसी के रहमोकरम का मोहताज नहीं होगा यानि भारतीय मुक्केबाजों की बल्ले-बल्ले होगी।     

Thursday, 19 June 2014

उमा पर गंगा उद्धार की चुनौती

जो मनुष्य नदी में थूकता, कूड़ा करकट डालता, गंदा जल डालता, नदी किनारे शौच करता और मल त्याग करता है, वह न केवल नर्क में जाता है बल्कि उस पर ब्रह्महत्या का पाप भी लगता है। हमें पद्य पुराण में कही इन बातों पर जरा भी यकीन है तो सच मानिए हम सब पर जल सम्पदा के दुरुपयोग के चलते किसी न किसी रूप में ब्रह्महत्या का पाप लग चुका है। यही वजह है कि जलजनित व्याधियों से आज मानव समाज अभिशप्त है। देश भर में हर रोज शुद्ध पेयजल को लेकर जगह-जगह फसाद हो रहे हैं और निर्दोष लोगों की जानें जा रही हैं। केन्द्र की सल्तनत पर नरेन्द्र मोदी के काबिज होने के बाद पानी को अभिशप्त समाज में एक उम्मीद जगी है कि अब गंगा और यमुना कि दिन बहुरेंगे तथा पतित पावनी गंगा अब मैली नहीं रहेगी। देश में नदियों की शुद्धता काम आसान बात नहीं है, पर जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई मंत्रालय की अलम्बरदार साध्वी उमा भारती ने इस दुरूह कार्य को अंजाम तक पहुंचाने का न केवल संकल्प लिया है बल्कि वह आज हर उस चौखट पर जा रही हैं, जहां से उन्हें मदद की जरा भी उम्मीद है।
भारत को नदियों और मंदिरों का देश कहा जाता है। लेकिन सच यही है कि यहां नदियों और मंदिरों की दशा काफी सोचनीय है। नदियों और मंदिरों के चारों तरफ पसरी गंदगी हर किसी को नाक-भौं सिकोड़ने पर मजबूर कर देती है। जो एक बार जाता है फिर कभी न जाने की कसम खा लेता है। नदियों की शुद्धता आज ज्वलंत मुद्दा है। इस पर अब तक अरबों रुपया खर्च किया जा चुका है पर नतीजा कतई संतोषजनक नहीं है। इस मामले में अंधश्रद्धा और आस्था भी बड़ा रोड़ा है यही वजह है कि इस मामले में असहाय सरकारों ने भी कमोबेश घुटने टेक दिए हैं। उन्हें लगने लगा है कि यह लाइलाज बीमारी है। भारत का भौगोलिक क्षेत्रफल 32.90 लाख वर्ग किलोमीटर तो देश में स्थित नदियों का जलग्रहण क्षेत्रफल 31 लाख वर्ग किलोमीटर है। इन नदियों में लगभग 4000 घन किलोमीटर जल बहता है। देश में 14 बड़ी, 45 मध्यम तथा 170 छोटी नदियां हैं एवं कुल उपलब्ध जल संसाधन की मात्रा 1953 घन किलोमीटर आंकी गई है इसमें उपयोग में आने वाला सतही जल 693 घन किलोमीटर एवं भूजल 431 घन किलोमीटर है। मुल्क में प्रदूषण का आलम यह है कि कुल जल सम्पदा का 65 फीसदी से अधिक जल प्रदूषित हो चुका है।
देश में तीव्र गति से हो रहे उद्योगी और शहरीकरण से जल की मांग निरंतर बढ़ती जा रही है। जल समस्या से निजात को केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा वर्ष 1976 में जल गुणवत्ता प्रबंध संस्थान की स्थापना की गई। भारत के प्रमुख जल निकायों पर 550 से अधिक प्रबंधन केन्द्र स्थापित हैं जिसमें से लगभग 400 संस्थान नदियों के शुद्धिकरण तथा शेष भूमिगत जल प्रबंधन के लिए स्थापित हैं। जल गुणवत्ता प्रबंधन केन्द्र मानता है कि फिलवक्त देश में अमोनिक एवं बैक्टीरियल मिश्रण की उत्तरोतर वृद्धि हो रही है। इस समस्या का प्रमुख कारण शहरी क्षेत्र के अपजल का बिना समुचित शोधन नदियों तथा अन्य जलस्रोतों में समाहित होना है। जल निकाय चाहकर भी इसे शुद्ध इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि इस मिश्रण के तनुकरण के लिये वहां पर्याप्त जलराशि का अभाव है। पानी की अनुपलब्धता में आज नदियां सूख रही हैं तो कुल उपलब्ध जलराशि का 50 फीसदी प्रदूषित है। इस जल प्रदूषण के लिए 70 फीसदी घरेलू निश्राव तथा 30 प्रतिशत मिश्राव प्रमुख कारण है। गंगा और यमुना शुद्धिकरण के अब तक बहुतेरे भगीरथ प्रयास किए जा चुके हैं लेकिन आज स्थिति इतनी भयावह हो चली है कि शहरी आबादी का 80 प्रतिशत से अधिक मलजल बिना किसी प्रभावी उपचार के नदियों में छोड़ा जा रहा है। औद्योगिक मिश्राव का 70 प्रतिशत से अधिक प्रदूषित जल बिना उपचार के जलीय संसाधनों में विसर्जित कर दिया जाता है। यही वजह है कि कुल उपलब्ध भूजल सम्पदा का 50 फीसदी से अधिक जल प्रदूषित हो चुका है। इस मात्रा में सात प्रतिशत से अधिक स्वयमेव भूमि में मिश्रित रसायनों के कारण प्रदूषित है।  जल प्रदूषण के दंश से सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया के दूसरे देश भी आहत हैं यही वजह है कि आज विश्व की डेढ़ अरब आबादी को पीने का शुद्ध पानी तक मयस्सर नहीं है। भारत में शुद्ध पेयजल की स्थिति काफी चिन्ताजनक है। शहरों में पेयजल जैसी सार्वजनिक व्यवस्थाएं दम तोड़ रही हैं तो निजीकरण की आड़ में इन्हें लाभ कमाने का जरिया बनाया जा रहा है। भारत के पास दुनिया का चार प्रतिशत नवीकरणीय जल संसाधन है जबकि जनसंख्या 17 प्रतिशत। यहां दो तिहाई भूजल भण्डार खाली हो चुके हैं और जो बचे हैं वे भी प्रदूषित होते जा रहे हैं। सम्भावना है कि 2050 तक भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए आबादी के मामले में पहले नम्बर पर पहुंच जाएगा और उस स्थिति में लगभग 160 करोड़ लोगों के लिए जल संकट विकराल रूप धारण कर सकता है।
अब सवाल यह उठता है कि जब पानी ही नहीं होगा तो आपूर्ति किसकी करेंगे? विकास की दौड़ में कोई भी रुककर यह सोचने को तैयार नहीं है कि शहरों का विस्तार नियंत्रित हो। पर्यावरण के प्रति सचेत समुदाय को विकास विरोधी होने का तमगा देना अब फैशन बन गया है। क्या जल, जंगल, जमीन, खनिज सब कुछ बाजार के हवाले कर देना ही विकास है? आज बाजार का विस्तार तय करने को भी कोई तैयार नहीं है।
उमा भारती की गंगा और यमुना के कायाकल्प की प्रतिबद्धता पर किसी को संदेह नहीं है। वह ऊर्जावान हैं, जो ठान लेती हैं, उसे अंजाम तक पहुंचाकर ही दम लेती हैं लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या गंगा और यमुना के शुद्धिकरण से ही मुल्क की सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। मोदी सरकार यदि वास्तव में भारत के भविष्य को लेकर चिंतित है तो उसे अंतिम वृक्ष, आखिरी नदी और अंतिम मछली का इंतजार नहीं करना चाहिए और पूरी शिद्दत से स्वीकारना चाहिए कि पैसे खाकर जिन्दा नहीं रहा जा सकता।

Friday, 13 June 2014

दगाबाज दोस्त और अमरीका

इन दिनों पाकिस्तान में अमन का दीप बुझ रहा है और उससे लगी आग में वहां के दहशतगर्द तथा हठी सेना हाथ सेंक रही है। नरेन्द्र मोदी और नवाज शरीफ के बीच बढ़ते दोस्ती के पैगाम पर हाफिज सईद जैसे कठमुल्ले रोड़ा अटका रहे हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच जब-जब दोस्ताना सम्बन्धों की प्रगाढ़ता परवान चढ़ती दिखी कोई न कोई विघ्नसंतोषी अवरोध जरूर बना। पाकिस्तान में सेना और दहशतगर्दों का गठजोड़ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए हमेशा चुनौती रहा है। कश्मीर मुद्दे को सदैव इन्हीं साजिशों के तहत जिन्दा रखा जाता है ताकि दोनों मुल्कों की लोकतांत्रिक ताकतों के बीच एक अभेद्य दीवार खिंची रहे। मोदी और शरीफ की नजदीकियां एक बार फिर दहशतगर्दों की आंख की किरकिरी बन गई हैं। भारत-पाकिस्तान के बीच सुधरते रिश्तों को दुनिया बेशक नेक नजरिए से देख रही हो पर इससे दोनों देशों के कट्टरपंथी मायूस हैं।
भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्ते सुधारने की पहल अटल बिहारी बाजपेयी और परवेज मुशर्रफ के शासनकाल में भी परवान चढ़ी थी लेकिन तब उस ठोस पहल पर कारगिल संघर्ष की दास्तां लिख दी गई। एक बार फिर कट्टरपंथी दोनों देशों की दोस्ती में दखल दे रहे हैं। कराची विमान तल पर आतंकी हमला और बलूचिस्तान में निर्दोष शिया तीर्थयात्रियों के नरसंहार की क्रूर वारदातें बेशक पाकिस्तान का आंतरिक मामला है पर उससे भारत का बेखबर रहना ठीक नहीं होगा। मोदी का सभी को साथ लेकर चलना एक अच्छी सोच का परिचायक है पर हमें पड़ोसी की धोखे से वार करने की आदत से हमेशा सावधान रहने की जरूरत है। आज जो दहशतगर्द पाकिस्तानी सरजमीं को लहूलुहान कर रहे हैं वे कालांतर में भारतीय अमनचैन को आग लगाने के लिए ही तैयार किए गए थे।
पाकिस्तान में आज जो हो रहा है उसके लिए कमोबेश वही जिम्मेदार है। पाकिस्तान ने कभी यह नहीं सोचा कि आतंकवादी किसी का सगा नहीं हो सकता। पाकिस्तान में हमलों का सिलसिला लगातार जारी  है। तहरीके तालिबान पाकिस्तान में हुए हमलों की जिम्मेदारी ले रहा है। जो भी हो इन हमलों  के बाद आतंकवाद की राजनीति में एक नया अध्याय जरूर जुड़ गया है। पाकिस्तान के तत्कालीन फौजी तानाशाह जनरल जिया उल हक ने जब आतंकवाद को विदेश नीति का बुनियादी आधार बनाने का खतरनाक खेल खेलना  शुरू किया तो दुनिया के शान्तिप्रिय लोगों ने उन्हें आगाह किया था कि आतंकवाद को कभी भी राजनीति का हथियार नहीं बनाना चाहिए।  लेकिन जनरल जिया अपनी जिद पर अड़े रहे और उन्होंने भारत के कश्मीर और पंजाब में फौज की मदद से आतंकवादियों की घुसपैठ कराने का काम जारी रखा। भारत ही नहीं जिया ने पड़ोसी फगानिस्तान में भी अमरीकी मदद से आतंकवादियों की बड़े पैमाने पर तैनाती की।  आज जनरल  जिया का आतंकवाद अपनी जड़ें जमा चुका है। यह बात दीगर है कि आज आतंकवाद की आग में भारत और अफगानिस्तान से कहीं ज्यादा पाकिस्तान तबाह हो रहा है।
पाकिस्तानी मौजूदा खून-खराबे में उसकी फौज और आईएसआई के खिलाफ आज उसके पोषक आतंकवादी ही मैदान में हैं। यह पहला अवसर है जब पाकिस्तान के खिलाफ तालिबान के लड़ाकू हमला कर रहे हैं। जो आतंकवाद भारत को नुकसान पहुंचाने के लिए पाकिस्तानी फौज ने तैयार किया था आज वही उसके लिए मुसीबत का सबब बन गया है। 1980 के दशक में पाकिस्तान अमरीका की कठपुतली के रूप में भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने का काम करता था। अमरीका और भारत के बीच विरोध की वजह निर्गुट आंदोलन की स्थापना थी जिसे अमरीका की रजांदी के खिलाफ पंडित जवाहरलाल नेहरू ने शुरू की थी। करीब तीन साल पहले अमरीका की जेएफके लाइब्रेरी द्वारा नेहरू-केनेडी पत्र-व्यवहार को सार्वजनिक किये जाने के बाद कुछ ऐसे तथ्य सामने आये  जिनसे पता चलता है कि अमरीका ने भारत की मुसीबत के वक्त कभी कोई मदद नहीं की। भारत पर जब 1962 में चीन का हमला हुआ था उस वक्त नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी।
तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद की गुहार लगाई थी लेकिन तब अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई सहारा देना तो दूर पंडित जी के पत्रों का जवाब तक नहीं दिया था।  इसके बाद इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन  ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गांधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व देते हुए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत का गौरव बढ़ाया। पिछले छह दशक के इतिहास पर नजर डालें तो अमरीका ने भारत को हमेशा ही नीचा दिखाने की कोशिश की है। 1948 में जब कश्मीर मामला संयुक्त राष्ट्र में गया था तो तेजी से सुपर पॉवर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था। 1965 में जब कश्मीर में घुसपैठ हुई उस वक्त के पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अयूब  ने भारत पर जो हमला किया था, उनकी सेना के पास पाये गये सभी हथियार अमरीकी ही थे। उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने नेस्तनाबूद किया था, वे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान की झोली में आये थे।
पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे। 1971 की बंगलादेश मुक्ति लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था और भारत  को धमकाने के लिए अमरीकी सेना के सातवें बेड़े को बंगाल की खाड़ी में तैनात कर दिया था। उस वक्त के अमरीकी विदेश मंत्री हेनरी कीसिंजर ने न केवल पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया में पैरवी की थी बल्कि संयुक्तराष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था। जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को ही तकलीफ हुई। भारत ने बार -बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाए, लेकिन अमरीका हमेशा राह में रोड़ा बना और उसने  भारत पर तरह-तरह की पाबंदियां लगार्इं। अमरीका की हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन वह कभी सफल नहीं हो सका। आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है,वह सब अमरीका की कृपा से की गयी पाकिस्तानी दखलंदाजी का ही नतीजा है। कश्मीर में आज जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का हाथ है। पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तानी फौज की ही देन था। आज जिस तरह पाक अपनी ही लगाई आग में धू-धू कर जल रहा है उसकी फौज और राजनेताओं को चाहिए कि वे अपने देश की सुरक्षा को सबसे ऊपर रखें वरना एक राष्ट्र के रूप में पाक साफ हो जाएगा। 

Wednesday, 11 June 2014

17 द्रोणाचार्य भी न दे सके एक अर्जुन

ग्लासगो राष्ट्रमण्डल खेलों में नाकाबिल खिलाड़ियों पर एतबार
आगरा। सवा अरब की आबादी वाले देश भारत में अब न पहले जैसे द्रोणाचार्य रहे और न ही लक्ष्य भेदने वाले अर्जुन, यही वजह है कि हर बड़ी खेल प्रतियोगिता से पूर्व मुल्क भाग्य के भरोसे जीने लगता है। 23 जुलाई से ग्लासगो में होने जा रहे राष्ट्रमण्डल खेलों से पूर्व भारतीय एथलेटिक्स फेडरेशन अपने नाकाबिल प्रशिक्षकों और खिलाड़ियों को लेकर खासा परेशान है। लखनऊ में पांच से आठ जून तक हुई 54वीं सीनियर इण्टर स्टेट एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में प्रचण्ड गर्मी ने जहां खिलाड़ियों की रफ्तार और उनके प्रदर्शन पर ब्रेक लगा दिया वहीं नौ व 10 जून को दिल्ली में हुई चयन समिति की मैराथन बैठक में पारखियों को अपने ही बनाए नियम-कायदों से समझौता करना पड़ा। सीनियर कोच बहादुर सिंह, गुरुबचन सिंह रंधावा, पीटी ऊषा और ज्योतिर्मय सिकदर जैसी स्वनामधन्य चयन मण्डली को लक्ष्य से भटके खिलाड़ियों के नाम पर स्वीकृति की मुहर लगानी पड़ी। ग्लासगो जाने वाले अधिकांश खिलाड़ियों को अपने ही ट्रैक धोखा दे गये बावजूद उनसे पदकों की उम्मीदें जिन्दा हैं।
लखनऊ में हुई अंतिम चयन ट्रायल में तीन नेशनल और 12 मीट रिकॉर्ड कायम करने वाले सभी खिलाड़ियों को ग्लासगो की टिकट मिल चुकी है वहीं चार गुणा चार सौ व चार गुणा सौ मीटर रिले टीमों के 24 खिलाड़ी (12-12 महिला-पुरुष) भी चार पदकों के लिए भेजे जा रहे हैं। दिल्ली में हुई बैठक में चयन समिति ने माना कि लखनऊ में जिस तरह की गर्मी थी उसे देखते हुए खिलाड़ियों को अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन कर पाना सम्भव नहीं था। जो भी हो प्रचण्ड गर्मी के बावजूद उत्तर प्रदेश की महिला जेवलिन थ्रोवर अन्नू रानी ने 58.83 मीटर भाला तो राजस्थान की हैमर थ्रोवर मंजू बाला ने 62.74 मीटर हैमर फेंककर नया नेशनल रिकॉर्ड कायम किया। इनके अलावा पंजाब के अरपिन्दर सिंह ने 17.17 मीटर लम्बी छलांग लगाकर ट्रिपल जम्प का नेशनल कीर्तिमान अपने नाम किया।
इन रिकॉर्डों के साथ ही प्रतियोगिता में 12 मीट रिकॉर्ड भी बने। पंजाब की महिला धावक ओपी जायसा ने 5000 मीटर दौड़ (15.57 सेकेण्ड), कर्नाटक की अश्वनी अकुंजी ने 400 मीटर हर्डल (57.43 सेकेण्ड), केरला की मयूखा जॉनी ने ट्रिपल जम्प (13.72 मीटर), कर्नाटक की पूनम्मा एमआर ने 400 मीटर दौड़ (51.73 सेकेण्ड), उत्तर प्रदेश की अन्नू रानी ने जेवलिन थ्रो तथा राजस्थान की मंजू बाला ने हैमर थ्रो में नए मीट रिकॉर्ड बनाए। पुरुष खिलाड़ियों के प्रदर्शन की जहां तक बात है पंजाब के अरपिन्दर सिंह ने ट्रिपल जम्प, हरियाणा के नवीन ने तीन हजार मीटर स्टिपलचेस, महाराष्ट्र के कृष्ण कुमार राने ने 100 मीटर दौड़ तथा उत्तर प्रदेश के चंदरोडिया एन सिंह ने हैमर थ्रो में नये मीट रिकॉर्ड कायम किए। इन सभी महिला और पुरुष खिलाड़ियों को ग्लासगो राष्ट्रमण्डल खेलों का टिकट पक्का है। ग्लासगो जाने वाले खिलाड़ियों में सुधा सिंह, प्रीजा श्रीधरन, कविता राउत, टिंटू लुका, जोजफ अब्राहम, ज्योति श्रीनिवास जैसे नामी धावक भी शुमार हैं। भारत में एथलेटिक्स की जहां तक बात है इस खेल में बेशक मुल्क को 17 द्रोणाचार्य मिले लेकिन आजादी के बाद से आज तक भारत को एक अदद अर्जुन की तलाश है। भारत इस विधा में एक भी ओलम्पिक पदक नहीं जीत सका है। पदकों के करीब पहुंचने का श्रेय सिर्फ फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह और उड़नपरी पीटी ऊषा को ही जाता है।
दिल्ली के प्रदर्शन की बराबरी पर संशय
भारतीय एथलेटिक्स महासंघ के अध्यक्ष आदिल जे. सुमरीवाला ने भारतीय एथलेटिक्स प्रशिक्षकों का स्तर स्कूल और कॉलेज दर्जे का बताकर यह जता दिया है कि भारतीय खिलाड़ियों की तैयारियां आधी-अधूरी हैं। ग्लासगो राष्ट्रमण्डल खेलों में भारतीय एथलीट दिल्ली के प्रदर्शन की शायद ही बराबरी कर सकें। दिल्ली राष्ट्रमण्डल खेलों में भारत ने पदकों का शतक लगाया था जिनमें 38 स्वर्ण, 27 रजत और 36 कांस्य पदक शामिल थे। जहां तक एथलेटिक्स की बात है भारतीय खिलाड़ियों ने दो स्वर्ण, तीन रजत और सात कांस्य पदकों से अपने गले सजाए थे।
आधी-अधूरी तैयारी: सुमरीवाला
भारतीय एथलेटिक्स महासंघ के अध्यक्ष आदिल जे. सुमरीवाला ने पुष्प सवेरा से दूरभाष पर हुई बातचीत में बताया कि ग्लासगो जाने वाले एथलीटों का चयन कर लिया गया है, पर समय से विदेशी प्रशिक्षकों की सेवाएं न मिलने से इस बार पदक की उम्मीदें काफी कम हैं। लक्ष्य से भटके खिलाड़ियों को ग्लासगो ले जाने से देश को क्या मिलेगा? इस सवाल के जवाब में सुमरीवाला ने कहा कि लखनऊ में काफी गर्मी होने की वजह से खिलाड़ी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर सके। जहां तक खिलाड़ियों की तैयारी की बात है हम दिल्ली राष्ट्रमण्डल खेलों के बाद से ही भारत सरकार से विदेशी प्रशिक्षकों की मांग करते रहे पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। कई खिलाड़ियों ने भी स्वीकार किया है कि उन्हें फोन पर ग्लासगो राष्ट्रमण्डल खेलों के चयन की सूचना मिल चुकी है।

 

Monday, 9 June 2014

चोला बदलने का चोचला

देश-दुनिया में लगातार आलोचनाओं का दंश झेल रहे उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने की मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने ठान ली है। उन्होेंने बड़े स्तर पर न केवल प्रशासनिक फेरबदल किया है बल्कि स्वयं भी उड़नखटोले पर सवार हो गये हैं। इस बदलाव से प्रदेश की आवाम को कितनी सुख-शांति मिलेगी यह तो भविष्य बताएगा पर सूबे के मुखिया को बड़े प्रशासनिक फेरबदल के साथ ही जमीनी स्तर पर भी बदलाव करने चाहिए। यह सच है कि कोई भी राजनीतिक व्यवस्था अपने बने बनाए फ्रेम को तोड़ना पसंद नहीं करती। हमारी पुलिस व्यवस्था ब्रिटिश सरकार की देन है जोकि कालांतर में गुलाम हिन्दुस्तानियों को नियंत्रित करने का काम करती थी। आजादी के बाद देश और दुनिया बदल गई। इस बदलाव में समाज, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और अपराध के सारे तरीके भी बदल गए तो जनता की रक्षक पुलिस के उद्देश्य भी बदले हैं। अतीत में पुलिस का काम विद्रोह को दबाकर लोगों पर शासन करना था लेकिन आजादी के बाद पुलिस का दायित्व असामाजिक तत्वों से आम आवाम की हिफाजत है। अफसोस इस मसले पर यूपी पुलिस नाकारा साबित हुई है। वजह पुलिस प्रशासन पर लगातार राजनीतिक नियंत्रण का हावी होना है। यूपी में पुलिस जनता के प्रति जवाबदेह न होकर वरिष्ठ अधिकारियों, राजनेताओं तथा मंत्रियों के प्रति अपने को जिम्मेदार मानती है। सपा सरकार के सामने आज पुलिस के इस भ्रम को तोड़ना सबसे बड़ी चुनौती है। व्यावहारिक रूप से देखें तो जनप्रतिनिधियों और पुलिस के बीच आपसी सम्बन्धों में समन्वय तथा सामंजस्य होना बुरी बात नहीं है पर उसे इस बात का भी इल्म होना चाहिए कि उसकी प्राथमिकता में आम जनता की हिफाजत पहले हो। पुलिस के पास जो असीम शक्तियां हैं, उनका दुरुपयोग रोकने के लिए उस पर उचित नियंत्रण की व्यवस्था भी आवश्यक है। आजादी के बाद देश में आपराधिक न्याय व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। हमारे यहां पुलिस, जेल तथा न्यायिक व्यवस्था बीतराग ही सुना रही है। ब्रिटेन में सरकार पुलिस के लिए न केवल नीतियां बनाती है बल्कि उन्हें साधन सम्पन्न भी बनाया जाता है। वहां राजनेताओं तथा नौकरशाहों को पुलिस के क्रियाकलापों में हस्तक्षेप या दिशानिर्देश देने का अधिकार नहीं होता जबकि भारतीय पुलिस राजनेताओं के इशारे पर ही कत्थक नृत्य करती है। उत्तर प्रदेश के अनियंत्रित हालातों की मुख्य वजह सपाइयों का पुलिस को स्वतंत्र रूप से काम न करने देना है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव यदि प्रदेश में वाकई अनुशासन कायम करना चाहते हैं तो उन्हें व्यापक प्रशासनिक फेरबदल की बजाय पुलिस को सुविधाओं से युक्त, संवेदनशील और नागरिकों के प्रति जिम्मेदार बनाने की पहल करनी चाहिए। मुख्यमंत्री जी, चोला बदलने का यह चोचला तभी कारगर साबित होगा जब सपाई स्वयं अनुशासन में रहने का संकल्प लें।

Friday, 6 June 2014

भारतीय कोच स्कूल-कालेज स्तर के: सुमरीवाला


भारतीय एथलेटिक्स महासंघ के अध्यक्ष आदिल जे. सुमरीवाला ने भारतीय एथलेटिक्स प्रशिक्षकों का स्तर मात्र स्कूल और कालेज के दर्जे तक सीमित बताते हुए कहा कि ग्लासगो में होने वाले अगले राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय धावकों को पदक मिलने की उम्मीद पिछली बार के मुकाबले कम है और विदेशी कोच के बगैर अन्तरराष्ट्रीय स्पर्द्धाओं में पदक जीतना मुमकिन नहीं है।
सुमरीवाला ने यहां 54वीं राष्ट्रीय अन्तरराज्यीय (सीनियर) एथलेटिक्स चैम्पियनशिप के आयोजन के मौके पर संवाददाताओं से कहा भारतीय कोच स्कूल और कालेज स्तर के हैं। वे उस दर्जे के नहीं कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी पैदा कर सकें। उनकी सोच ही वहां तक नहीं पहुंचती। अगर हमें राष्ट्रमंडल या एशियाड या ओलम्पिक में पदक चाहिये तो वह बिना विदेशी कोच के मुमकिन नहीं है।
उन्होंने केन्द्र की पूर्ववर्ती कांग्रेसनीत सरकार पर एथलेटिक्स की अनदेखी का आरोप लगाते हुए कहा कि आगामी 23 जुलाई को शुरू हो रहे राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीयों के पदक जीतने की सम्भावना पिछली बार के मुकाबले कम है, क्योंकि नये बेलारूसी कोच निकोलई स्नेसारेव तीन-चार माह पहले ही आये हैं। अब उनके पास इतना समय नहीं है कि एक महीने के अंदर भारतीय एथलीटों का भाग्य बदल दें।
सुमरीवाला ने आरोप लगाया कि 2010 में दिल्ली में जो राष्ट्रमंडल खेल हुए थे, उसके बाद हमने सरकार को ग्लासगो खेलों के लिये एक खाका दिया था लेकिन पिछली सरकार ने उस पर कोई काम नहीं किया। चार साल पहले मांगी गयी सुविधाएं अब मिली हैं। सरकार और एसोसिएशन के बीच तालमेल की काफी कमी थी। समस्याओं की कहीं सुनवाई नहीं होती थी।
सुमरीवाला ने कहा कि प्रीजा श्रीधरन, सुधा सिंह और कविता राउत के रूप में बेहतरीन धावकों को तैयार करने वाले स्नेसारेव वर्ष 2010 तक भारतीय टीम के कोच थे। उन्होंने पैसा बढ़ाने की बात कही थी लेकिन केन्द्र सरकार ने मना कर दिया था। अब लम्बी दूरी के इस सर्वश्रेष्ठ कोच को वापस लाने में चार साल लग गये। उन्होंने कहा कि उन्हें नरेन्द्र मोदी सरकार से खेलों की बेहतरी की काफी उम्मीदें हैं। मोदी ने गुजरात में खेलों के विकास के लिये काफी काम किया है। खेलप्रेमी होेने के नाते वह खेलों के लिये ठोस काम करेंगे, इसकी उम्मीद है।
सुमरीवाला ने कहा कि अंतररष्ट्रीय स्पर्द्धाओं में हिस्सा लेने के लिये औपचारिकताएं पूरी करने के वास्ते खिलाड़ियों को कई मंत्रालयों में दौड़ लगानी पड़ती है। खिलाड़ियों के लिये एकल प्रणाली बनायी जानी चाहिये। राज्यस्तरीय तथा अन्तरसंस्थानिक एथलेटिक्स प्रतियोगिताओं में भी डोप टेस्ट के लिये राष्ट्रीय डोपिंग रोधी एजेंसी (नाडा) के साथ विचार जारी होने का जिक्र करते हुए पूर्व ओलम्पियन ने कहा कि कनिष्ठ स्तर पर डोपिंग की समस्या ज्यादा है, इसके ज्यादातर जिम्मेदार कोच होते हैं। उन्होंने कहा हमारी राय है कि अगर कोच जिम्मेदार हंै तो उसे जेल भेजा जाए। उन्होंने कहा कि वह स्कूल और कालेज स्तर पर इनामी प्रतियोगिताओं के आयोजन की कोशिश कर रहे हैं। गौरतलब है कि गुरुवार से शुरू हुई चार दिवसीय 54वीं राष्ट्रीय अन्तरराज्यीय (सीनियर) एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में सुधा सिंह, प्रीजा श्रीधरन, कविता राउत, टिंटू लुका, जोजफ अब्राहम जैसे नामी धावकों समेत 739 खिलाड़ी हिस्सा ले रहे हैं।

आधी आबादी, अधूरे सपने

मनुष्य परिस्थितियों का दास है। उसका जीवन अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों का खेल तमाशा है। ज्ञानवान इसे सजग प्रहरी के तौर पर तो बुद्धिमान अहंकार के वशीभूत अपने तरीके जीता है। प्रतिकूल परिस्थितियों से असहाय मुल्क की आधी आबादी आज अधूरे सपनों के बीच जी रही है। उसकी अस्मत और किस्मत के साथ होता खिलवाड़ सामाजिक विद्रूपता का घिनौना रूप है। यह सच है कि इंसान का प्रारब्ध उसके अपने कर्म पर टिका होता है। वह जैसा कर्म करता है, वैसा ही उसे फल मिलता है। परिस्थितियां सिर्फ परिस्थितियां हैं वे न कभी अनुकूल होती हैं और न ही प्रतिकूल। परिस्थितियां एक रस हैं। अनुकूल और प्रतिकूल का निर्धारण हर इंसान अपने मन से करता है। यह प्रकृति का खेल है जो जीवन भर चलता है। सांसारिक परिस्थितियां हमारे लाख चाहने के बाद भी कभी प्रभावित नहीं होंगी क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का अटल सत्य है।
प्रकृति पल-पल बदलेगी और नई परिस्थितियां जन्म लेंगी। आज मुल्क की आधी आबादी को हैवानों की नजर लग गई है और हम उस व्यवस्था को कोस रहे हैं जोकि खुद के हाथों निर्मित की गई है। परिस्थितियां इस कदर जटिल हो गई हैं कि इंसान हारी जिन्दगी जीने को मजबूर है। महिलाओं के साथ हो रही बर्बरता के लिए किसी एक प्रदेश पर हायतौबा मचाना न्यायसंगत नहीं होगा। महिला सशक्तीकरण पर बात करना और उस पर प्रभावी अमल में बड़ा फर्क है। सोलहवीं लोकसभा में आजादी के बाद सर्वाधिक 61 महिलाएं संसद में पहुंची हैं तो मोदी सरकार ने उन्हें बड़े-बड़े ओहदों से नवाजा है बावजूद इसके आधी आबादी का भाग्य आसानी से नहीं बदलेगा।
महिला उत्पीड़न के खिलाफ एक बार फिर मुल्क गुस्से में है। सड़कों पर तांडव हो रहा है तो दूसरी तरफ आधी आबादी अपने लिए रहम की भीख मांग रही है। दिल्ली गैंग रेपकाण्ड के बाद भी समाज के हर वर्ग में गुस्सा था, तब लगा था कि हमारा समाज जाग गया है और आगे ऐसा कुछ नहीं होगा। पर पिछले संत्रास से समाज ने कोई सबक नहीं लिया। कितनी अजीब बात है कि बलात्कार जैसे अपराध के बाद शुरू हुए आंदोलन से वह बातें निकल कर नहीं आईं जो महिलाओं को राजनीतिक ताकत देतीं और उनके सशक्तीकरण की बात को आगे बढ़ातीं। गैंगरेप की शिकार हुई लड़की के साथ हमदर्दी वाला जो आंदोलन शुरू हुआ था उसमें बहुत कुछ ऐसा था जोकि व्यवस्था बदल देने की क्षमता रखता था, लेकिन बीच में पता नहीं कब राजनीतिक पार्टियों ने आंदोलन को हाईजैक कर लिया और केन्द्र सरकार, दिल्ली सरकार और इन सरकारों को चलाने वाले फोकस में आ गए।
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश में पार्टियों ने आंदोलन को दिशाहीन और हिंसक बना दिया। इस दिशाहीनता के नतीजे से महिला सशक्तीकरण का मुख्य मुद्दा राजनीतिक विमर्श से भटक गया और बेटियों के प्रति समाज के रवैये को बदल डालने का जो अवसर मिला था वह अकारथ चला गया। एक बार फिर मुल्क में बेटियों के साथ दरिन्दगी के एक साथ कई मामले सामने आए हैं। गुस्सा फिर सड़कों पर फूट रहा है और पुन: वही कुछ कहा जा रहा है जोकि दामिनी के मामले में सबने सुना था। एक बार फिर कठोरतम कानून की वकालत की जा रही है। लोगों का कहना है कि कानून में ऐसे इंतजामात किए जाएं कि अपराधी को मिलने वाली सजा देख भविष्य में कोई दूसरा दुस्साहस नहीं दिखा सके। कानून हर समस्या का निदान नहीं हो सकता। दरिन्दगी के मामलों में तो कदाचित नहीं। यदि समाज से इस विद्रूपता को दूर करना ही है तो आज उस समाज के खिलाफ सभ्य समाज को लामबंद होने की जरूरत है जो बेटियों को सिर्फ भोग-विलासिता का खिलौना समझता है।
सामाजिक बदलाव का संकल्प लेने से पहले हमें उन बातों पर भी विचार करने की दरकार है जोकि ऐसे कृत्यों को बढ़ावा दे रहे हैं। बेटियों की अस्मत पर हाथ डालने वालों से भी कहीं ज्यादा अमर्यादित विज्ञापन आज समाज का मिजाज खराब कर रहे हैं। दुष्कर्मियों पर नकेल डालने से पहले हमें उस मानसिकता के खिलाफ जंग छेड़ने की जरूरत है, जोकि बेटियों को दोयमदर्जे का इंसान मानती है और उनकी इज्जत को मर्दानी इज्जत से जोड़कर देखा जाता है। बेटियों की इज्जत की रक्षा करना समाज का कर्तव्य है। यह गलत धारणा है। पुरुष कौन होता है लड़की की रक्षा करने वाला। मुल्क में ऐसी शिक्षा और माहौल बनाया जाना चाहिए जिसमें बेटियां खुद को अपना रक्षक मानें। समाज से महिला रक्षक के रूप में पुरुष को पेश करने की  मानसिकता को जब तक खत्म नहीं किया जाएगा तब तक कुछ भी नहीं बदलेगा। जो पुरुष समाज अपने आपको महिला की इज्जत का रखवाला मानता है, वही पुरुष समाज अपने आपको यह अधिकार भी तो दे देता है कि वह महिला के यौन जीवन का संरक्षक और उसका उपभोक्ता है। आज पुरुषवादी इसी सोच के खिलाफ जेहाद की जरूरत है। लेकिन यह जंग वही लड़ सकते हैं जो बेटे और बेटी को बराबर का इंसान मानें और उसी सोच को जीवन के हर क्षेत्र में उतारें भी। कमजोर को मारकर बहादुरी दिखाने वाले जब तक अपने कायराना काम को शौर्य बताते रहेंगे, तब तक इस देश में बलात्कार करने वालों के हौसलों को तोड़ पाना सम्भव नहीं होगा। हमारे समाज में औरत को कमजोर बनाने के सैकड़ों संस्कार मौजूद हैं। स्कूलों में भी कायरता को शौर्य बताने वाले पाठ्यक्रमों की कमी नहीं है। इन पाठ्यक्रमों को आज खत्म करने की जरूरत है। अगर हम एक समाज के रूप में अपने आपको बराबरी की बुनियाद पर नहीं स्थापित कर सके तो जो पुरुष अपने आपको महिला का रक्षक बताता है वह उसके साथ बलात कोशिश में संकोच कतई नहीं करेगा। आज शिक्षा और समाज की बुनियाद में यह जोर देने की जरूरत है कि महिला-पुरुष बराबर हैं और कोई किसी का भी रक्षक नहीं है। बिना बुनियादी बदलाव के समाज से दरिन्दगी दूर करने की कोशिश वैसी ही है जैसे किसी घाव पर मलहम लगाना। यदि हम वाकई बेटियों का भला चाहते हैं तो उन्हें भीरु नहीं बल्कि फौलाद का बनाएं।

Sunday, 1 June 2014

मैं फिट हूंं, खेलता रहूंगा: शिवेन्द्र सिंह

टीम में आने को नहीं कर सकता चमचागीरी
हॉकी में है गड़बड़झाला, गोरों के हैं काले काम
श्रीप्रकाश शुक्ला
आगरा। मैं जब तक फिट हूं खेलता रहूंगा। भारतीय टीम में आने के लिए मैं किसी की चमचागीरी नहीं कर सकता। मुझे जी-हुजूरी पसंद नहीं है। मेरा काम सिर्फ खेलना है, सो खेल रहा हूं। यह कहना है देश के सर्वश्रेष्ठ सेण्टर फारवर्डों में शुमार शिवेन्द्र सिंह चौधरी का।
भारत के लिए 190 हॉकी मुकाबले खेल चुके शिवेन्द्र सिंह चौधरी ने पुष्प सवेरा से बातचीत में कहा कि भारतीय हॉकी में सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा। मेरी पिछले एक साल से अग्निपरीक्षा ली जा रही है। टीम के अधिकांश साथी खिलाड़ी चाहते हैं कि मुझे भारतीय टीम में मौका मिले लेकिन कुछ सीनियर खिलाड़ी नहीं चाहते कि मैं टीम में आऊं और उनका पत्ता कटे।
हॉकी इण्डिया खिलाड़ियों को खेल मंच तो खूब उपलब्ध करा रही है, उससे हॉकी को कितना लाभ मिल रहा है? इस प्रश्न पर शिवेन्द्र सिंह ने  कहा कि देश में नेशनल हॉकी प्रतियोगिता के अब कोई मायने नहीं हैं। सेमीफाइनल और फाइनल मुकाबले देखने के बावजूद सेलेक्टरों की आंखों में काली पट्टी बंधी रहती है। भारतीय हॉकी के उत्थान को जिन गोरे लोगों पर अनाप-शनाप पैसा खर्च किया जा रहा है वे खिलाड़ियों से न्याय करने की जगह गड़बड़झाले में शामिल हैं। हॉकी इण्डिया के पदाधिकारी ही नहीं गोरे भी जी-सर कहने वालों पर ही मेहरबान हैं। भारतीय अस्मिता से किसी को कोई लेना-देना नहीं है।
घरेलू हॉकी में शानदार प्रदर्शन के बाद भी आपकी उपेक्षा क्यों और किसकी शह पर की जा रही है? शिवेन्द्र ने कहा कि आज तक मैं नहीं समझ पाया कि मुझे किस बात की सजा मिल रही है। मेरा काम खेलना है न कि चापलूसी करना। मैं भारतीय टीम में वापसी के लिए किसी की जी-हुजूरी नहीं कर सकता। अपनी उपेक्षा की शिकायत हॉकी इण्डिया के पदाधिकारियों से करने के सवाल पर देश के इस सर्वश्रेष्ठ हमलावर ने कहा कि इसका कोई फायदा नहीं क्योंकि सभी चोर-चोर मौसेरे भाई हैं। शिवा ने कहा कि गोरे मेरा खेल देखने की बजाय राजनीतिक प्रपंच का शिकार हैं। उन्हें भारतीय हॉकी की बेहतरी से कोई लेना-देना नहीं। वे यहां पैसा कमाने और भारतीयों का मनोबल तोड़ने आते हैं।
देश की हॉकी को उसका खोया मुकाम वापस कैसे मिल सकता है? इस सवाल के जवाब में एयर इण्डिया में कार्यरत शिवा ने कहा कि देश में धनराज पिल्लै जैसे कई खिलाड़ी हैं जिनकी सेवाएं लेकर हॉकी का भला किया जा सकता है। देश में प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की कमी नहीं है, जरूरत है पारदर्शी व्यवस्था की, जिसका हमारे यहां अभाव है। विश्व कप में भारतीय टीम के प्रदर्शन के बारे में शिवा ने कहा कि यह खेल का बड़ा मंच है। प्रशिक्षक लाख सब्जबाग दिखाएं पर भारतीय टीम का अंतिम आठ में रहना भी बड़ी बात होगी।
शिवा को मौके की तलाश: निशी
पूर्व अंतरराष्ट्रीय महिला हॉकी खिलाड़ी और शिवेन्द्र सिंह चौधरी की धर्मपत्नी निशी चौधरी ने कहा कि वे हैरान हैं कि आखिर शिवा को मौका क्यों नहीं मिल रहा। उसे कैम्प से क्यों बाहर रखा जाता है जबकि वह आज भी देश का सर्वश्रेष्ठ सेण्टर फारवर्ड है। शिवा के साथ बीते एक साल से नाइंसाफी हो रही है लेकिन कोई भी उसकी मदद को आगे नहीं आया। निशी ने कहा कि शिवा लगातार बेहतर खेल रहा है लेकिन उसके खेल पर गौर नहीं किया जा रहा। निशी ने कहा कि कालांतर में जो मेरे साथ हुआ वही आज मेरे पति के साथ हो रहा है।