Thursday 16 July 2015

जातिगत जनगणना पर सियासत

भारतीय लोकतंत्र में छोटी-छोटी बातों को लेकर सियासत करना एक बेहूदा शगल बनता जा रहा है। इन दिनों राजनीतिक दल पिछड़े तबके को लेकर खासे चिन्तित और हैरान परेशान हैं। जिस दिन से जातिगत जनगणना के आधे-अधूरे आंकड़े आये हैं उसी दिन से बिहारी राजनेता केन्द्र सरकार की नाक में दम किये हैं। बिहार विधान सभा चुनाव में अभी लगभग तीन-चार माह का वक्त है लेकिन वहां अभी से जाति आधारित सियासत शुरू हो गई है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने जैसे ही प्रधानमंत्री मोदी को ओबीसी पिछड़ी जाति से होने का शिगूफा छोड़ा वैसे ही बिहार के मण्डलवादी दलों के मसीहा लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जातीय आंकड़े उजागर करने की सियासी मुहिम में जुट गये हैं। बिहार की राजनीति में अगड़े और पिछड़े वर्ग का खेल बहुत पुराना है, इसी को देखते हुए विकास की सम्भावनाओं को नजरअंदाज कर शायद शाह ने यह चाल चली है। शाह की इस चाल को भांपते हुए लालू-नीतीश भी खासा उतावलापन दिखा रहे हैं। देश में पिछड़े तबके की आबादी 51 फीसदी से ज्यादा है। लालू-नीतीश को पूरी उम्मीद है कि इसका लाभ उन्हें मिल सकता है। देश में पहली जाति आधारित जनगणना 1931 में हुई थी। तब पिछड़ी जातियों की आबादी 52 फीसदी यानी 35 करोड़, 30 लाख थी। जाति आधारित जनगणना कराने की मांग संसद में शरद यादव, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव ने संप्रग सरकार के कार्यकाल में उठाई थी, जिसे माना गया और सामाजिक, आर्थिक जनगणना के साथ जातीय जनगणना भी कराई गई। इसके नतीजे भी आ गए, पर केन्द्र सरकार ने सामाजिक और आर्थिक आंकड़े तो पेश कर दिए किन्तु जातीय आंकड़े पेश करने की जवाबदेही जनगणना महानिरीक्षक पर छोड़ दी। लालू-नीतीश के होहल्ले को देखते हुए गुरुवार को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि जनगणना का काम अभी पूरा नहीं हुआ है, यह जैसे ही पूरा होगा जातिगत जनगणना के सारे आंकड़े सार्वजनिक कर दिए जाएंगे। यदि जातिगत आंकड़ों को सार्वजनिक किया जाता है तो यह जाति आधारित जनगणना की शर्त का उल्लंघन होगा। जो भी हो सभी राजनीतिक दलों की सियासत ही जब जाति आधारित हो गई हो ऐसे में शर्तों के उल्लंघन के कोई मायने भी नहीं रह जाते। आरक्षण किसी भी जाति के समग्र उत्थान का मूल कभी नहीं बन सकता क्योंकि आरक्षण के सामाजिक सरोकार केवल संसाधनों के बंटवारे और उपलब्ध अवसरों में भागीदारी से जुड़े हैं। हमारा संविधान भी उस 60 फीसदी गरीब आबादी की वकालत नहीं करता, जिसे दो जून की रोटी भी वक्त पर नसीब नहीं होती, क्योंकि यही वह संविधान है, जो प्रत्येक देशवासी को भोजन का अधिकार तो देता है लेकिन भूमि के व्यावसायिक अधिग्रहण को जायज ठहराता है।  

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