Wednesday, 27 April 2016

मां बनने के लिए छोड़ी थी क्रिकेट

महिला क्रिकेटर नेहा तंवर का खुलासा
मैं, नेहा तंवर प्रारम्भिक बल्लेबाज और ऑफ़ स्पिनर। भारतीय टीम की तरफ़ से वेस्टइंडीज़, ऑस्ट्रेलिया,न्यूज़ीलैंड और इंग्लैंड के ख़िलाफ़ खेल चुकी हूं, पर २०१४ में मैंने ये सब छोड़ दिया ताकि मैं मां बन सकूं।१४ फरवरी २०१४ को जब मैंने दिल्ली के फिरोज़शाह कोटला स्टेडियम के बाहर क़दम रखे तो मुझे मालूम था कि ये मेरा आख़िरी मैच था। बहुत सोच-समझ कर लिए फ़ैसले के बावजूद उस व़क्त मन बहुत दुखी था। ऐसा नहीं था कि मैंने अपने करियर की बुलंदियों को छू लिया था या मन में तय कर लिया था कि सारे लक्ष्य हासिल कर लिए थे। मैंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेल और फ़िटनेस के बेहतरीन स्तर को देखा था और समझा था, कई देश की टीमों का सामना किया था। पर अभी भी क्रिकेट का मक्का माने जाने वाले लॉर्ड्स मैदान पर बल्ला नहीं घुमाया था।
अब भी मेरे अंदर बहुत क्रिकेट बाक़ी थी। लेकिन अब व़क्त हो गया था। दबाव परिवार का तो था ही, मेरा अपना मन भी कह रहा था कि अब मेरा मैदान मेरा घर होगा, मेरा बच्चा होगा। पर जब मैं गर्भवती हुई तो क्रिकेट के बाहर ख़ुद को सोच ही नहीं पाती थी, हर चीज़ में क्रिकेट को ढूंढ़ती थी। टीवी पर मैच देखती रहती थी, कमेंटरी सुनती थी और अपने पुराने खेल के वीडियो देखती। जैसे-जैसे डिलिवरी का समय क़रीब आया, मुझे डिप्रेशन होने लगा। हर व़क्त मैदान पर खेलने वाली मैं, बिस्तर पर लेटी रहती थी। मुझे लग रहा था कि मैं आसानी से क्रिकेट छोड़ पाऊंगी पर ये तो बहुत मुश्किल होता जा रहा था।
मज़े की बात तो ये है कि मैंने कभी भी क्रिकेट खेलने का सपना नहीं देखा था। स्पोर्ट्स में अच्छी तो थी लेकिन शौक एथलेटिक्स का था। कॉलेज में एडमीशन लेने के लिए भी एथलेटिक्स के ट्रायल के लिए गई थी। पर एथलेटिक्स के कोच नहीं आए थे और क्रिकेट का ट्रायल हो रहा था। बस यूं ही दे दिया, पास हो गई और दिल्ली के मैत्रई कॉलेज में दाख़िला हो गया। तब उड़ान इतनी ऊंची नहीं थी, सोचती थी कि सभी कॉलेजों से चुनकर बनाई जाने वाली दिल्ली यूनिवर्सिटी की क्रिकेट टीम में भी जगह मिल गई तो यही सबसे बड़ी उप्लब्धि होगी। जब ऐसा हुआ तो बहुत ख़ुश हुई, मुझे लगा मुझे सब कुछ मिल गया है। पर अभी तो बहुत रास्ता बाक़ी था। पहले अंडर-१९, फिर सीनियर लेवल और फिर रेलवे में स्पोर्ट्स श्रेणी में ट्रायल पास किया और नौकरी मिली। तब तक तो क्रिकेट से मोहब्बत इतनी बढ़ गई थी कि क्या कहूं. नज़रें आसमान की ओर थीं।
मैंने ख़ूब मेहनत की और दिल्ली टीम में चुनी गई, फिर इंटर-ज़ोनल, चैलेंजर ट्रॉफ़ी और आख़िरकार २०११में भारत की टीम में जगह मिली। यही वो समय था कि मेरी शादी हुई। शादी के बाद भी मैं खेलती रही। तीन साल गुज़र गए और आख़िर मां बनने यानि क्रिकेट छोड़ने का व़क्त आ गया। नौ महीने तक अपने आप से लड़ने के बाद आख़िर मैंने हिम्मत जुटाई और अपने परिवार से कहा कि ये हो नहीं पा रहा। बिना क्रिकेट के ज़िंदगी अधूरी है। मैं बहुत ख़ुशनसीब थी कि वो मान गए बल्कि मेरे बेटे श्लोक को संभालने की ज़िम्मेदारी भी ले ली। अब मेरे सामने चुनौती मेरी अपनी थी। प्रेगनेन्सी के वक़्त मेरा वज़न २० किलो बढ़ गया था। अगर मुझे वापस भारत की टीम में जगह बनानी थी तो फ़िटनेस सबसे ज़रूरी थी। ये बहुत मुश्किल था। प्रिमेच्योर सिज़ेरियन डिलिवरी की वजह से मैं बहुत कमज़ोर भी हो गई थी। डॉक्टर ने लंबा बेडरेस्ट बताया था। मुझे भी अपने शरीर में इतने बदलाव महसूस हो रहे थे, कि मैं ठीक से उठ-बैठ भी नहीं पाती थी। वज़न इतना परेशान करता था कि एक बार लगा कि मैंने जो सोचा है उसे कर भी पाऊंगी या नहीं। श्लोक के पैदा होने के छह महीने के बाद मैंने धीरे-धीरे पैदल चलना शुरू किया। फिर जॉगिंग,फिर दौड़ना पर अब भी बल्ला पकड़ने लायक फ़िटनेस से मैं बहुत दूर थी। पहले दो महीने में दो-तीन किलो वजन कम होने के बाद, मानो वहीं रुक गया. बहुत मेहनत के बाद भी कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था। लेकिन मैं ट्रेनिंग पर नहीं जा पा रही थी। एक दिन, फिर उसके अगले दिन भी, उसके अगले भी। हताशा ने मुझे तोड़ दिया था।
फिर पांच दिन बाद पता नहीं कैसे मेरे इरादे फिर मज़बूत हुए और मैंने तय किया कि कोशिश करना नहीं छोड़ूंगी, और चल पड़ी मैदान की ओर। आख़िर छह महीने की कड़ी मेहनत के बाद मैंने अपना वज़न २०किलो कम कर लिया और दिल्ली की टीम के ट्रायल्स के लिए पहुंच गई। वहां मुझे देखकर किसी को यक़ीन नहीं हुआ कि मैं एक बच्चा पैदा करने के बाद भी इतनी फ़िट हूं। टीम में ज़्यादातर युवा खिलड़ियों को तरजीह दी जाती है पर मेरे अनुभव को फिर जगह मिल गई। मैं फिर मैदान पर क़दम रखने के लिए तैयार थी। साथ ही पहली बार अपने एक साल के बेटे को उसके पापा, दादा-दादी के पास छोड़ शहर से बाहर जाने के लिए भी। ये भी उतना आसान नहीं था, जब पहले दिन श्लोक को छोड़ा तो गला रुंधा रहा। जब फ़ोन पर उसका हाल पूछा तो रो भी पड़ी। पर क्रिकेट के खेल ने हिम्मत दी। हिम्मत भी और खुशी भी। मैं अब २९ साल की हूं. मैं जब तक फिट रहूंगी, खेलती रहूंगी। मैं और महिला क्रिकेटर्स को नहीं जानती जिन्होंने बच्चा पैदा करने के बाद खेल में वापसी की हो। मैंने की है और मैं इस मौक़े को गंवाना नहीं चाहती। दिल्ली की टीम में जगह बनाई है पर अब मुझे भारत की टीम में जगह बनानी है. लॉर्ड्स के मैदान पर खेलना है। राहुल द्रविड़ की तरह, जो मैदान पर डटे रहते हैं और टीम को जिताकर आते हैं। मैं उस महान खिलाड़ी जैसी तो नहीं हूं पर किसी ने मुझसे कहा है कि मैं ज़िंदगी की पिच पर जमे रहकर,अपने दायरों को तोड़ने का हौसला ज़रूर रखती हूं।


विवादों का दूत सलमान खान


ओलम्पिक खेलों का मकसद खिलाड़ियों के जांबाज प्रदर्शन से कहीं अधिक विश्व बंधुत्व की भावना को मजबूत करने से रहा है। भारत की जहां तक बात है, वह ओलम्पिक खेलों के आगाज अवसर से ही इनमें शिरकत करता आ रहा है। ओलम्पिक खेलों में भारत के प्रदर्शन की बात करें तो आबादी के लिहाज से हम बहुत पीछे हैं। इन खेलों में छोटे-छोटे मुल्क जहां अपने पौरुष से खेलप्रेमियों का दिल जीत रहे हैं वहीं हमारे खिलाड़ी और खेलनहार सहभागिता को ही बड़ा कमाल मानने की भूल करते आ रहे हैं। इकलौती हाकी के आठ स्वर्ण पदकों को छोड़ दें तो दूसरा ऐसा खेल नहीं है जिसमें हमारे खिलाड़ियों ने एक से अधिक स्वर्ण पदक जीते हों। खैर, खेलों से इतर हमारा खेल महकमा भाई-भतीजावाद की जद से कभी बाहर नहीं निकल सका है। हमारी हुकूमतें मुल्क में खेलों का माहौल बनाने की लाख ढींगें हाकती हों लेकिन १०० साल से अधिक के ओलम्पिक इतिहास में हमारी झोली में १०० पदक भी नहीं आए हैं। एथलेटिक्स और तैराकी जिसमें सर्वाधिक पदक दांव पर होते हैं आज तक हमारा कोई सूरमा खिलाड़ी एक भी पदक नहीं जीत सका है।
अगस्त में ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में होने जा रहे ओलम्पिक खेलों के तीन महीने पहले भारतीय ओलम्पिक संघ और खेलों से जुड़े खेलनहार यह बताने की स्थिति में भी नहीं हैं कि गोया भारतीय खिलाड़ी कितने पदक जीतेंगे। अलबत्ता विवादित सलमान खान को इन खेलों में भारतीय दल का सद्भावना दूत बनाकर खिलाड़ी जमात में विवाद के बीज बो दिए गये हैं। सलमान खान का विवादों से चोली-दामन का साथ है। सो खिलाड़ियों की तरफ से विरोध के स्वर मुखर होना ही था। खिलाड़ियों के तर्क-कुतर्कों पर यकीन करें तो सलमान खान का खेलों के उत्थान से किसी तरह का कोई लेना-देना नहीं रहा है। बेहतर होता यह जिम्मेदारी किसी नामचीन खिलाड़ी को दी जाती। फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह और उड़नपरी पी.टी. बेहतर विकल्प हो सकते थे। हालांकि इन दोनों खिलाड़ियों ने भी ओलम्पिक खेलों में कोई पदक तो नहीं जीता है लेकिन खेल दुनिया इनके शानदार प्रदर्शन से वाकिफ है।
आईओए के इस निर्णय का विरोध करने वालों का तर्क है कि जिन खिलाड़ियों ने ओलम्पिक खेलों में देश के लिए पदक जीते हैं, उनका हक सद्भावना दूत बनने में पहला है। जो खिलाड़ी एक पदक जीतने के लिए अपना पूरा जीवन लगा देता है, उसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। सच्चाई तो यह है कि खेलों की दुनिया में ग्लैमर का तड़का एक गलत परम्परा की ही शुरुआत है। भारत के अधिकांश खेल संघों में नौकरशाहों और राजनेताओं का कब्जा है ऐसे में अब फिल्मी सितारों की दखल खिलाड़ियों को उनके अधिकारों से ही वंचित करेगी। सलमान समर्थक लाख दलील दे रहे हों कि भारतीय दर्शकों में खिलाड़ियों के प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए ऐसा किया गया है, पर इसकी क्या गारंटी है कि सलमान के सद्भावना दूत बनने से भारतीय खेलों का नजारा बदल जाएगा। सलमान खान की जहां तक बात है, उन्हें इससे पहले भारतीय फुटबॉल महासंघ ने भी वर्ष २००९ में ब्रांड एम्बेसडर बनाया था।
तर्क-कुतर्क पर उलझने की बजाय हमें इस बात पर तो गौर करना ही चाहिए कि २००९ के बाद भारतीय फुटबाल में कौन सा क्रांतिकारी बदलाव आया है। सच्चाई तो यह है कि भारत की दुनिया के नम्बर एक खेल फुटबाल में न तो लोकप्रियता बढ़ी और न ही विश्वस्तरीय रैंकिंग में कोई सुधार ही आया है। खेलों को ग्लैमर के बाजार का हिस्सा बनाना आर्थिक सम्बल तो प्रदान कर सकता है लेकिन इसे खेलों और खिलाड़ियों के हित में कदाचित उचित नहीं कहा जा सकता। दरअसल खेलों का प्रतीक पुरुष ऐसा होना चाहिए जोकि न केवल खेल बिरादरी का प्रतिनिधित्व करता हो बल्कि नये खिलाड़ियों का प्रेरणास्रोत भी हो। सलमान पर सियासत करने की बजाय भारतीय ओलम्पिक संघ को अपनी गलती स्वीकारनी चाहिए। सियासत की वजह से ही ओलम्पिक खेलों में  भारत का अब तक का प्रदर्शन थू-थू करने वाला है।
सलमान खान ने बेशक फिल्मों के जरिए दर्शकों के दिलों पर राज किया है। वह अपने एनजीओ के जरिए समाज कल्याण के कार्य भी करते हों लेकिन खेलों में उनका क्या योगदान है, यह देश अब तक नहीं जानता। सलमान खान को ओलम्पिक खेलों में भारतीय दल का सद्भावना दूत बनाए जाने का एकमात्र कारण यही नजर आता है कि शीघ्र ही उनकी फिल्म सुल्तान आने वाली है, जिसमें वे पहलवान की भूमिका अदा कर रहे हैं। माना कि फिल्मी सितारे अपनी फिल्मों के प्रमोशन की जबर्दस्त ब्रांडिंग करते हैं, हर जगह जाते हैं लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सलमान खान अपनी फिल्मों की तरह ओलम्पिक खेलों की भी ब्रांडिंग करेंगे। सवाल यह भी कि क्या अब ओलम्पिक का मंच भी फिल्म प्रमोशन के लिए इस्तेमाल किया जाएगा?
सलमान खान को ओलम्पिक का सद्भावना दूत बनाने पर जिन खिलाड़ियों ने नाराजगी जताई है, वह अपनी जगह पर सही हैं। आखिर खिलाड़ी ही कठिन समय में मादरेवतन का नाम रोशन करता है। सलमान के पक्ष में बेशक फिल्मी दुनिया के लोग एकजुट हुए हों लेकिन खेलों पर इस तरह की सियासत मुल्क के लिए अच्छी बात नहीं है। सलमान समर्थकों ने पहलवान योगेश्वर दत्त पर लाख भड़ास निकाली हो लेकिन क्या वे यह बता सकते हैं कि सलमान खान को रियो ओलम्पिक का सद्भावना दूत क्यों बनाया गया है। यह सही है कि किसी अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजन का दूत बनने के लिए खिलाड़ी होने की योग्यता किसी कानून में नहीं लिखी है। लेकिन यह दायित्व तो कई योग्यताओं का समावेश होने पर ही निभाया जा सकता है। माना कि सलमान खान जनता के बीच खासे लोकप्रिय हैं। वह योग्य भी हैं लेकिन उनकी लाखों खूबियां भी उन्हें ओलम्पिक खेलों में भारतीय दल का सद्भावना दूत बनाने के लिए नाकाफी हैं। वह १३ साल बाद हिट एण्ड रन मामले में बेशक बरी हो गये लेकिन यह कैसे भूला जा सकता है कि वे अभी १९९८ के चिंकारा शिकार मामले से बरी नहीं हुए हैं। क्या भारत में लोकप्रिय, प्रतिभाशाली, योग्य व्यक्तियों का इतना अकाल है कि अकेले सलमान खान ही मिले, जिन्हें रियो ओलम्पिक खेलों में भारतीय दल का सद्भावना दूत बनाया गया है।
भारत पिछले चार साल में रियो ओलम्पिक के नाम पर अरबों रुपये पानी की तरह बहा चुका है। यह खुशी की बात है कि अब मुल्क में क्रिकेट के साथ-साथ अन्य खेलों में भी खिलाड़ी विश्वस्तर पर नाम कमा रहे हैं और इस वजह से भारतीय दर्शकों की दिलचस्पी दूसरे खेलों में भी बढ़ी है। गगन नारंग, राज्यवर्धन सिंह राठौड़, अभिनव बिंद्रा, मैरीकाम, साइना नेहवाल, सुशील कुमार, विजेंदर सिंह, योगेश्वर दत्त जैसे खिलाड़ियों के कारण विश्व खेल बिरादर में भारत का न केवल नाम हुआ है बल्कि हम ओलम्पिक की पदक तालिका में अपना नाम दर्ज होने की खुशफहमी पालने में सफल हुए हैं। बेशक सवा अरब की आबादी में ओलम्पिक पदक विजेताओं के नाम उंगलियों पर गिने जाने लायक हों लेकिन देश में साधारण पृष्ठभूमि के खिलाड़ियों के लिए संसाधनों और सुविधाओं का जो स्तर है, उसे देखते हुए इस उपलब्धि को कमतर आंकना गलत होगा।
सफलता के कई माई-बाप होते हैं। इसे हम भारतीय खेल पृष्ठभूमि में बखूबी देख सकते हैं। प्रायः यह देखा गया है कि अपनी प्रतिभा और इधर-उधर से मिली मदद के बाद जब कोई खिलाड़ी किसी मुकाम पर पहुंच जाता है, तब केन्द्र और राज्य सरकारों की ओर से उन्हें बड़ी-बड़ी घोषणाओं के साथ सहायता दी जाती है। जिमनास्ट दीपा करमाकर इसका ताजातरीन उदाहरण है। भारत की इस बेटी ने ओलम्पिक क्वालीफाइंग प्रतियोगिता में इतिहास रचते हुए रियो ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई किया है। दीपा के करिश्माई प्रदर्शन के बाद उससे ओलम्पिक में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीदें थोड़ी और बढ़ गई हैं। यूं तो इस महिला जिमनास्ट ने कई अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताएं जीती हैं, लेकिन यह पहला मौका है जब किसी भारतीय महिला जिमनास्ट ने ओलम्पिक में जाने का टिकट हासिल किया हो। दीपा के अलावा जीतू राय, शिव थापा, अभिनव बिंद्रा, योगेश्वर दत्त, संदीप तोमर जैसे कुछेक नए व पुराने खिलाड़ी ओलम्पिक खेलों के लिए चयनित हुए हैं, साथ ही हाकी में पुरुष टीम के साथ-साथ महिला टीम पर भी दर्शकों की निगाहें रहेंगी, जिसे ३६ साल बाद ओलम्पिक में खेलने का अवसर मिला है। जाहिर है रियो ओलम्पिक भारतीय खेलप्रेमियों के लिए रोमांच और उम्मीदों से भरा होगा।

                                                                      आईओए का क्या कहना
आईओए महासचिव राजीव मेहताः- आईओए महासचिव राजीव मेहता ने कहा, च्च्हम सलमान की पेशकश के लिये शुक्रगुजार हैं और खुश हैं कि उन्होंने इस देश में ओलम्पिक खेलों के सहयोग के लिये पेशकश की। यह जुड़ाव महज एक संकेत है इसमें धन संबंधित कोई भी चीज नहीं है। ज्ज् उन्होंने कहा, च्च्उन्हें बोर्ड में लाने का हमारा मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक लोगों को इससे जोड़ना है, जिसके कारण ज्यादा से ज्यादा लोग इसे देखें। इससे अंतत: देश में ओलम्पिक खेलों को लोकप्रिय बनाने में मदद मिलेगी। हम अन्य जगह जैसे संगीत, क्रिकेट, कला संस्कृति और ओलंपिक खेलों आदि से भी और आइकन नियुक्त करेंगे। ज्ज् मेहता ने कहा, च्च्सलमान खान बॉलीवुड वर्ग से नियुक्त किये गये हैं और हम संगीत और क्रिकेट से भी दो बड़े नामों को शामिल करने के लिये बात कर रहे हैं। हम काफी आइकन रखने के इच्छुक हैं जिसमें अंजू बाबी जॉर्ज और पी.टी. ऊषा भी शामिल हैं, जिनके अंदर देश में ओलम्पिक खेलों को लोकप्रिय करने की कूबत और क्षमता है। ज्ज्
अनिल विज :- हरियाणा के मंत्री अनिल विज ने फैसले से असहमति जताते हुए कहा कि कोई च्फिल्मी हीरो' देश के लिए मेडल नहीं लाएगा। विज ने कहा कि योगेश्वर दत्त को ब्रांड एम्बेसडर बनाया जाना चाहिए था। उन्होंने ट्विटर पर लिखा, च्योगेश्वर दत्त सलमान खान को भूल जाएं। आप एक सच्चे हीरो हैं, सलमान एक फिल्मी हीरो हैं। फिल्मी हीरो नहीं बल्कि वास्तविक हीरो देश के लिए पदक लाएंगे।' विज का मानना है कि आईओए को किसी प्रसिद्ध भारतीय खिलाड़ी को नियुक्त करना चाहिए था। उन्होंने कहा कि योगेश्वर दत्त ने कुश्ती में देश का नाम रोशन किया है।
 सर्बानंद सोनोवाल: केंद्रीय खेल राज्य मंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने कहा कि सलमान की नियुक्ति का विरोध कर रहे खिलाड़ियों की भावनाओं से आईओए को अवगत करा दिया गया है। खेल मंत्री ने कहा कि मंत्रालय विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिष्ठित हस्तियों को देश में खेलों को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहित करता है।
हेमा मालिनी : भाजपा सांसद व अभिनेत्री हेमामालिनी ने कहा च्च्लोग उन्हें इतना ज्यादा प्यार करते हैं। इसलिए अगर उन्हें सद्भावना दूत बनाया गया है तो समस्या क्या है.' उनके हिट एंड रन मामले में कथित रूप से शामिल रहने के बारे में सवाल किए जाने पर हेमा ने संसद भवन परिसर में संवाददाताओं से कहा कि वह च्च्उनकी जिंदगी का एक हिस्सा था। उनकी लोकप्रियता को अच्छे मकसद के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए।'

मिल्खा सिंहः- अपनी आगामी फिल्म च्च्सुल्तान' में पहलवान की भूमिका अदा कर रहे सलमान की नियुक्ति पर सवाल करते हुए फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह ने कहा कि आईओए को च्बॉलीवुड से किसी व्यक्ति' को आयातित करने की बजाय पी.टी. ऊषा जैसी खेल हस्तियों के नाम पर विचार करना चाहिए था।
सलीम  खान :  सलमान के पिता सलीम खान ने ट्विटर पर लिखा, च्च्सलमान खान ने भले ही प्रतियोगिताओं में हिस्सा न लिया हो लेकिन वह ए लेवल के तैराक, साइकिलिस्ट और भारोत्तोलक हैं। हमारे जैसे खेलप्रेमियों की वजह से ही खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन करते हैं। मिल्खा के जीवन पर कुछ साल पहले च्भाग मिल्खा भाग' फिल्म बनी थी जो काफी सफल रही थी।  इस पर प्रतिक्रिया देते हुए सलीम ने कहा, च्च्मिल्खा जी यह बॉलीवुड नहीं बल्कि भारतीय फिल्म उद्योग है और वह भी दुनिया में सबसे बड़ा है.' उन्होंने कहा, च्च्यह वही फिल्म उद्योग है जिसने आपको गुमनामी में जाने से बचाया है।'
ऐश्वर्या राय बच्चनः-  सलमान खान  को भारतीय ओलम्पिक दल का सद्भावना दूत बनाये जाने पर ऐश्वर्या राय ने कहा, च्कोई भी व्यक्ति जो अच्छा कर रहा है देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए उपयुक्त है। वो कोई भी हो, चाहे उसका व्यवसाय खेल, कला या संगीत ही क्यों न हो। मुझे लगता है यह शानदार है और इसे मान्यता दी जानी चाहिए।
खेल दुनियाः- सुनील गावस्कर और विश्वनाथन आनंद जैसे दिग्गजों ने जहां सलमान का समर्थन किया है वहीं गौतम गंभीर, मिल्खा सिंह, योगेश्वर दत्त के साथ ही मेजर ध्यानचंद के बेटे और पूर्व ओलम्पिक हॉकी खिलाड़ी अशोक कुमार सरीखे आला दर्जे के खिलाड़ियों ने इसका विरोध किया है।
सांसद किरन खेरः- च्यह काफी अच्छा फैसला है। मुझे सलमान खान पर काफी गर्व है। जो भी लोग कह रहे हैं कि केवल एक खिलाड़ी को सद्भावना दूत बनाया जाना चाहिए, मैं उन लोगों से अलग रहना चाहूंगी। यह सोचने की कोई जरूरत नहीं है कि केवल एक खिलाड़ी ही देश का प्रतिनिधित्व कर सकता है। हमें प्रेरित करने वाला कोई प्रतिष्ठित व्यक्तित्व ब्रांड एम्बेसडर बन सकता है।ज् च्मैं खेल जगत से और भी अधिक उदार होने का अनुरोध करूंगी। अच्छे दिल वाले इंसान बनें और सलमान को भी सम्मान दें। हम कलाकार भी मेहनती होते हैं और बेहतरीन काम करते हैं।ज्
सूरज बड़जात्याः- च्यह बहुत ही खुशी की बात है, क्योंकि उनके जैसा समर्थक कोई नहीं। वह हमेशा से ही खेलप्रेमी रहे हैं और अच्छा क्रिकेट, फुटबॉल खेलते हैं और साथ ही एक अच्छे साइकिलिस्ट हैं। मैं उन्हें काफी करीब से जानता हूं और उनके लिए काफी खुश हूं।ज्
अभिनेता सूरज पंचोलीः- च्मुझे लगता है कि यह एक अच्छा फैसला है, क्योंकि वह काफी लोकप्रिय हैं और वह कुश्ती पर एक फिल्म भी कर रहे हैं, तो हो सकता है इस वजह से भी फैसला लिया गया हो.ज्

सेहत बिगाड़ती क्रिकेट

इन दिनों भारतीय जनमानस आईपीएल-९ की गिरफ्त में है। वह आधी रात तक चौकों-छक्कों की धुन में थिरक रहा है। विजेता कोई भी हो इससे उसका इत्तफाक नहीं वह तो बस क्रिकेट के लिए जिए जा रहा है। क्रिकेट के आगे उसे न पढ़ाई और कामकाज की चिन्ता है, न ही सेहत की फिक्र। एक माह पहले की बात है। भारत में टी-२० का वर्ल्ड कप हुआ था। उम्मीद थी कि भारत जीतेगा। नहीं जीता। दो-चार दिनों के लिए खिलाड़ियों की आलोचना भी हुई उसके बाद फिर लोग क्रिकेट में मशगूल हो गये। इसे हम मुल्क की खूबी और खराबी दोनों ही कह सकते हैं। टीम अगर जीतती रहे तो खिलाड़ी हीरो लगते हैं वरना उन्हें विलेन की नजर देखा जाने लगता है।
भारत जैसे ही टी-२० विश्व कप हारा एकबारगी लगा कि लोगों का इस खेल से अब नशा काफूर हो जाएगा। लोगों में क्रिकेट का नशा उतरा भी लेकिन कुछ दिनों के लिए। टी-२० विश्व कप खत्म होने के एक सप्ताह बाद आईपीएल-९ का तड़का लग गया। जिस खिलाड़ी का बल्ला टी-२० विश्व में नहीं चला वह आईपीएल में आग उगलने लगा। एक-एक खिलाड़ी चाहे वह खेले या नहीं खेले, करोड़ों रुपये मिलते हैं उसे। सच कहें तो मुल्क में क्रिकेट एक नशा बन गया है। बच्चे, युवा और बुजुर्ग सभी इसके दीवाने हो गये हैं। टेलीविजन पर हर समय आपको कोई न कोई मैच मिल जायेगा। इसका सेहत पर क्या असर पड़ रहा है, यह बात अभी समझ में नहीं आ रही है। इसे समझना होगा। हम यह नहीं कहते कि क्रिकेट मत खेलिए, मत देखिए। लेकिन अपने भविष्य और सेहत को यदि बचाना है, तो इसके लिए एक सीमा तय करनी होगी। क्रिकेट में बाल-गोपालों की दीवानगी से हर घर में माता-पिता तो स्कूल में शिक्षक परेशान हैं।
आईपीएल चल रहा है। बच्चे नहीं मानते। देर रात तक क्रिकेट मैच देख रहे हैं। रात ११ या साढ़े ग्यारह बजे तक अगर कोई बच्चा टेलीविजन पर मैच देखे और दूसरे दिन उसे सुबह पांच-साढ़े पांच बजे स्कूल जाने के लिए उठना पड़े तो उसकी नींद भला कैसे पूरी होगी। नींद पूरी न होने से बच्चे झल्लाते हैं। क्रिकेट ने उन्हें चिड़चिड़ा बना दिया है। वे किसी तरह स्कूल चले भी गये, तो वहां उनकी आंखें नहीं खुलतीं। वह शिक्षकों की डाट-फटकार से दो-चार हो रहा है लेकिन क्रिकेट उसके भेजे से नहीं निकल पा रही है। यह अच्छी बात नहीं है। पालकों को अपने बच्चे की जिद पर काबू पाना होगा वरना वह बीमारी की गिरफ्त में आ जाएगा।
सिर्फ मौजूदा साल की बात करें तो अभी चार महीने ही खत्म हुए हैं, लेकिन इन चार माह में आपका नौनिहाल कितने मैच देख चुका है, शायद आपने इसकी गणना नहीं की होगी। आपका बच्चा आस्ट्रेलिया के खिलाफ पांच वनडे मैच देख चुका तो इसी साल भारत टी-२० के १६ मैच खेल चुका है। भारत में ही हाल में टी-२० का वर्ल्ड कप हुआ था जिसमें कुल ३५ मैच खेले गये थे। ये सभी मैच भी आपके बच्चे ने देखे होंगे। एक-एक टी-२० मैच में न्यूनतम तीन घंटे भी लगते हैं तो अंदाजा लगाइए कि आपका नौनिहाल कितने घंटे मैच देख चुका है। उसकी आंख पर कितना जोर पड़ चुका है। उसकी गर्दन कितनी देर तक सीधी रही है। मैच रोचक हुआ तो कोई हिलना नहीं चाहता। अभी आईपीएल चल रहा है। ६० मैच खेले जायेंगे यानी अगर आपका बच्चा आईपीएल के सभी मैच देखता है तो वह १८० घंटे तक मैच देखेगा। मेडिकल साइंस कहता है कि देर तक बैठकर लगातार टेलीविजन देखने से आंख पर असर पड़ता है, बैकबोन पर असर पड़ता है। आपके नौनिहालों पर भी पड़ रहा है। पढ़ाई के साथ-साथ उसकी सेहत चौपट हो रही है। डॉक्टरों का कहना है कि जो बीमारी पहले ४० साल के बाद होती थी, अब वह १०-१५ साल के बच्चों को होने लगी है। इसका बड़ा कारण उसकी लाइफ स्टाइल है। ऐसी बात नहीं है कि टी-२० विश्व खत्म, आईपीएल खत्म, तो आने वाले दिनों में कोई मैच नहीं होगा। यह तो धंधा है, बिजनेस है। एक टूर्नामेंट खत्म होते ही दूसरे की तैयारी। खिलाड़ियों को हार-जीत से कोई फर्क नहीं पड़ता। उन्हें पैसा मिलता है। लेकिन, जब अपना मुल्क हारता है, तो बच्चे निराश हो जाते हैं। एक-दो दिन तक उनके मानस में इसका असर दिखता है।
बेहतर होगा कि आप अपने बच्चों पर नियंत्रण रखें उन्हें अति क्रिकेट से दूर रहने को समझायें। हमारे और आपके कहने से क्रिकेट मैचों की संख्या कम होने वाली नहीं है, लेकिन ज्यादा टेलीविजन देखने पर नियंत्रण करना तो अपने हाथ में है ही। जीवन कीमती है। बच्चों को इस बात को समझाना होगा। हर मैच न देखें, कुछ मैच देखें, कुछ देर तक देखें। उतना ही देखें, जितना उनका शरीर आसानी से इजाजत दे।  मैच के आदी न बनें। जितनी जल्दी बच्चे ही नहीं अभिभावक भी यह समझ जायें, उतना अच्छा, वरना बाद में पछताने से कुछ नहीं होगा।