Monday, 29 September 2014

महिला क्रिकेट का भविष्य उज्ज्वल: संध्या अग्रवाल

सुविधाएं बढ़ीं तो खेल का स्तर भी सुधरा
पुरुष टीम से महिला क्रिकेट की तुलना ठीक नहीं
ग्वालियर। एक समय था जब क्रिकेटरों की कोई पूछ-परख नहीं थी। सुविधाएं शून्य थीं लेकिन खेल का स्तर लाजवाब था। आज क्रिकेट में सुविधाएं बढ़ी हैं पर खेल में पहले जैसी क्लास नहीं रही। विश्व क्षितिज पर महिला क्रिकेटर भी अपने लाजवाब प्रदर्शन का जलवा दिखा रही हैं, वह दिन दूर नहीं जब भारतीय महिला टीम भी पुरुष टीम की तरह सुर्खियों में होगी। यह कहना है पूर्व भारतीय महिला टीम की कप्तान और उद्घाटक बल्लेबाज संध्या अग्रवाल का।
कैप्टन रूप सिंह मैदान में पंजाब और मध्यप्रदेश की अण्डर-19 आयु वर्ग की टीमों के बीच खेली गई छह मैचों की फटाफट क्रिकेट सीरीज कोे अच्छा कदम निरूपित करते हुए महिला क्रिकेट की गावस्कर संध्या अग्रवाल ने पुष्प सवेरा से खास बातचीत में कहा कि हमारे जमाने में सुविधाओं का अकाल था। तब मुकाबले भी बहुत कम होते थे, पर आज अवसरों की कमी नहीं है। जितने अवसर पुरुष क्रिकेटरों को मिल रहे हैं वैसे ही हर फार्मेट में महिलाओं को भी मिल रहे हैं। जरूरत है खिलाड़ी इन अवसरों का लाभ उठाएं। मैदान में किया गया प्रदर्शन ही खेल के स्तर को चार चांद लगाता है। भारत के लिए 11 साल में 13 टेस्ट और 21 वनडे खेलने वाली संध्या अग्रवाल ने कहा कि महिला क्रिकेट की तुलना पुरुष क्रिकेट से नहीं की जानी चाहिए। 1983 से पहले भारत में क्रिकेट को कौन जानता था। एक विश्व कप ने सब कुछ बदल दिया है। आज देश का बच्चा-बच्चा क्रिकेट का दीवाना है।
संध्या ने कहा कि महिला क्रिकेट के लिए हमें इंतजार करना चाहिए। बेटियां अच्छा कर रही हैं, रिजल्ट जरूर मिलेंगे। 51 वर्षीय संध्या अग्रवाल का कहना है कि विश्व क्षितिज पर आस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड, न्यूजीलैण्ड और भारत में कोई बड़ा फर्क नहीं है। भारतीय टीम एशिया महाद्वीप में सर्वश्रेष्ठ है तो कभी दसवें पायदान पर रही वेस्टइण्डीज की बेटियों ने अपने खेलस्तर में आशातीत सुधार कर दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है। 50 से अधिक औसत के साथ टेस्ट क्रिकेट में चार शतक और 1110 रन बनाने वाली प्रारम्भिक बल्लेबाज संध्या का कहना है कि टेस्ट क्रिकेट के प्रति घटती दिलचस्पी अखरने वाली बात है। टेस्ट मैचों से दर्शकों का विमुख होना मूल क्रिकेट के लिए अच्छा संकेत नहीं है।
भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के नजरिए पर पूर्व कप्तान ने कहा कि बीसीसीआई महिला क्रिकेट के लिए बहुत कुछ कर रही है। खिलाड़ियों को हर मुमकिन सुविधा मिल रही है तो अब मैदानों का भी रोना नहीं रहा।  संध्या ने कहा कि हमारे जमाने में तरीके के मैदान नहीं होते थे तो सुविधाएं भी न के बराबर थीं। फटाफट क्रिकेट के 21 मुकाबलों में 567 रन बनाने वाली इस खिलाड़ी ने कहा कि आज छोटे प्रारूप की क्रिकेट पसंद की जा रही है, पर हमें मूल क्रिकेट यानी टेस्ट क्रिकेट को नहीं भूलना चाहिए। मध्यप्रदेश महिला क्रिकेट की तीन समितियों की प्रमुख संध्या का कहना है   कि लोग कुछ भी कहें पर भारतीय महिला क्रिकेट का भविष्य उज्ज्वल है। हर प्रदेश महिला क्रिकेट के उत्थान को प्रयास कर रहा है, इसके नतीजे जरूर सुखद होंगे।

Sunday, 28 September 2014

स्वच्छ और स्वस्थ भारत

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अब तक के अपने कार्यकाल में बेशक आवाम को महंगाई से निजात न दिला पाए हों पर उन्होंने अपराध, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, लापरवाही और उपेक्षा जैसे शब्दों को प्रशासनिक तंत्र से बाहर निकालने के प्रभावी प्रयास जरूर किए हैं। शिक्षक दिवस पर मोदी के उद्बोधन ने देश के नौनिहालों में जहां एक नई स्फूर्ति पैदा की थी वहीं अब उन्होंने स्वच्छ भारत अभियान का बिगुल फूंककर अपने सुशासन की शानदार बानगी पेश की है। यह काम मुश्किल जरूर है पर असम्भव कदाचित नहीं। स्वच्छ भारत अभियान का श्रीगणेश दो अक्टूबर गांधी जयंती से होना है लेकिन मोदी मंत्रिमण्डल के सहयोगियों ने इस नेक काम में अभी से अपनी दिलचस्पी दिखाकर सफलता के संकेत जरूर दिए हैं। इस अभियान के एक-दो पखवाड़े चलने मात्र से मुल्क की मटमैली तस्वीर साफ नहीं होने वाली बेहतर होगा मोदी सरकार इस अभियान को जन-जन से जोड़ने की पहल करे। जन जागरूकता से ही स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत का सपना साकार हो सकता है।
दो अक्टूबर को गांधी जयंती पर छुट्टी मनाने की परिपाटी अब समाप्त होने जा रही है। मोदी सरकार ने स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत के संकल्प को मूर्तरूप देने का मन बना लिया है। गांधी जयंती पर पहली बार ऐसा होगा। इस दिन न केवल सरकारी अमला बल्कि गांवों के पंच-सरपंच और शहरी पदाधिकारी भी साफ-सफाई जैसे महत्वपूर्ण अभियान में सक्रिय भागीदारी निभाते दिखेंगे। स्वच्छ भारत अभियान में हर राज्य अपनी-अपनी आहुति देने को तैयार है। इस अभियान की सार्थकता के लिए हर सूबे में विशेष तैयारियां की जा रही हंै। छत्तीसगढ़ में तो इस अभियान के उद्देश्यों से बच्चों को रूबरू कराने के लिए स्कूल परिसरों में ग्रामसभाएं आयोजित करने का भी निर्णय लिया गया है। ग्रामसभा शुरू होने से पहले स्कूल परिसर की स्वच्छता पर पंचायत प्रतिनिधियों का ध्यान जरूर जाएगा और अभियान की शुरुआत यहीं से हो तो यह और भी अच्छी
बात होगी।
यंू तो आजादी के बाद से ही स्वच्छता के महत्व के प्रति जन जागरूकता के लिए कई कार्यक्रम चलाए गए हैं और कमोबेश आम जनजीवन में उसका असर भी दिखाई दिया है, फिर भी इसे स्वच्छ जीवनशैली का हिस्सा बनाने के लिए अभी भी काफी कुछ किया जाना बाकी है। विशेषकर गांवों में ऐसी अधोसंरचनाओं का विकास, जिससे वातावरण को स्वच्छ रखने में मदद मिले। गांवों को निर्मल बनाने के लिए चलाए गए भारत निर्मल अभियान की हकीकत से हर कोई परिचित है। आज भी गांवों की एक बड़ी आबादी खुले में शौच के लिए जाती है। इस आबादी के लिए स्वच्छ शौचालयों के इस्तेमाल की स्थिति तैयार हो जाए और लोगों की आदत में यह शुमार हो जाए तभी स्वच्छ भारत अभियान को सफल माना जाएगा। घर-घर शौचालयों का निर्माण करा देने और कागजों में उस गांव को निर्मल घोषित कर देने से कोई गांव निर्मल नहीं होगा।
संभवत: पहली बार मोदी सरकार एक अच्छा और नेक प्रयास कर रही है। खुशी की बात यह है कि यह अभियान गांधी जयंती से परवान चढ़ेगा,  जोकि बच्चों के बीच से ही शुरू किया जा रहा है। महात्मा गांधी जी ने कहा था कि आजादी से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है स्वच्छता। स्वच्छ भारत अभियान को और उद्देश्यपरक बनाने के लिए कुछ ऐसे कार्यक्रम जोड़े जा सकते हैं, जिनसे अधिक से अधिक लोगों तक इस अभियान का संदेश पहुंचाया जा सके। जिस तरह छत्तीसगढ़ सरकार ने घर की महिलाओं के नाम राशन कार्ड जारी कर महिला सशक्तीकरण की दिशा में दूरदर्शी पहल की है उसी तरह स्वच्छ भारत अभियान से भी परिवार की महिलाओं को जोड़ने की कोशिश मील का पत्थर साबित हो सकती है। देखा जाए तो साफ-सफाई का महत्वपूर्ण दायित्व परिवार में महिलाएं ही उठाती आई हंै। घर की स्वच्छता का पहला पाठ भी बच्चे अपनी मां से ही सीखते हैं। ऐेसे में जब हम बच्चों को इस अभियान का हिस्सा मान रहे हैं तो महिलाओं को भला कैसे अलग रखा जा सकता है। देखा गया है कि ग्रामवासियों में कई बार कोरम पूरा होने लायक भी उपस्थिति नहीं होती। महिलाओं की उपस्थिति तो और भी कम होती है। महिला मण्डल जैसी संस्थाएं भी गांवों में न के बराबर हैं। सरकार को स्वच्छ भारत के सपने को यदि वाकई साकार करना है तो उसे महिलाओं को संगठित कर उन्हें  जागरूक किया जाए। दरअसल, स्कूल परिसरों में गांधी जयंती पर होने वाले कार्यक्रमों की रूपरेखा कुछ इस तरह बनाई जाए, जिसमें महिलाओं की भी अच्छी सहभागिता हो। महिलाओं को भी अपनी बात रखने के लिए प्रेरित किया जाए। कोशिश हो कि बच्चे भी कार्यक्रमों के माध्यम से स्वच्छता की न केवल अलख जगाएं बल्कि अपने विचार भी रखें। बाल्यावस्था में यदि बालक के अन्दर श्रमदान रूपी संस्कार डाल दें तो बालक बड़ा होकर नि:स्वार्थ समाज सेवा करने से पीछे नहीं हटेगा। विडम्बना यह कि जब भी स्कूलों के अन्दर छात्र में श्रमदान करने के गुण भरने के प्रयास होते हैं, अभिभावक हो-हल्ला मचाना शुरू कर देते हैं। दरअसल, छात्रों से पढ़ाई के अतिरिक्त श्रमदान न लेकर हम अपने बच्चों को अच्छे संस्कारों से दूर करने का ही गुनाह करते हैं। शास्त्रों में भी कहा गया है कि व्यक्ति को समाज व राष्ट्रहित में श्रमदान करना ही चाहिए। स्वच्छ भारत, स्वस्थ भारत का सपना यदि हमें वाकई साकार करना है तो देश के हर आदमी को स्वयं का सफाईकर्मी होना चाहिए। इस अभियान के प्रति सभी में दिलचस्पी है। मोदी के इस प्रयास को हर दल का समर्थन भी मिल रहा है, पर यह अभियान औपचारिकता की भेंट न चढ़े इसके लिए सतत मानीटरिंग भी होनी चाहिए। 

Sunday, 21 September 2014

विधवाओं पर सियासत

मथुरा से भाजपा सांसद हेमा मालिनी ने धार्मिक नगरी में विधवाओं को लेकर जो कहा, उस पर सियासत तेज हो गई है। लोग अपना-अपना ज्ञान बांट रहे हैं, अर्थ का अनर्थ निकाल रहे हैं। हेमा के कहे पर अनर्गल प्रलाप से विधवाओं के मायूस चेहरों पर खुशी की लहर नहीं दौड़ेगी, बल्कि उनका दर्द ही बढ़ेगा। हेमा मूलत: दक्षिण भारत से हैं, महाराष्ट्र में हिन्दी फिल्म जगत से उन्हें रोजगार, पहचान और प्रसिद्धि मिली, पंजाब के व्यक्ति से विवाह किया और उत्तर प्रदेश से वे सांसद हैं। इस तरह अपने व्यक्तिगत व पेशेवर जीवन में उन्होंने अपनी सुविधानुसार देश के विभिन्न क्षेत्रों व राज्यों का इस्तेमाल किया है। इस दौरान कभी, कहीं, किसी ने भी उनके स्थानीय या बाहरी होने पर सवाल नहीं उठाया।
हेमा पर गुस्सा करने वालों को उस समाज को सुधारने की पहल करनी चाहिए जहां आज भी विधवाओं को हेयदृष्टि से देखा जाता है। हेमा ने कहा कि वृंदावन की विधवाएं अच्छी आय और बैंक बैलेंस होने के बावजूद आदतन भीख मांगती हैं। पश्चिम बंगाल और बिहार की विधवाएं मथुरा में आकर रहती हैं जिससे यहां भीड़ बढ़ती जा रही है। अगर ये महिलाएं यहां की नहीं हैं तो उन्हें यहां आने की जरूरत नहीं है। पश्चिम बंगाल और बिहार में भी कई बड़े मंदिर हैं ये महिलाएं वहां भी रह सकती हैं। मथुरा में पहले से ही 40 हजार विधवा महिलाएं हैं जिनके रहने की व्यवस्था नहीं हो पा रही है ऐसे में दूसरे राज्यों से आई महिलाएं कहां रहेंगी। हेमा ने कहा कि इस बारे में वे पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से बात करेंगी और केन्द्र सरकार से भी चर्चा करेंगी, जिससे इन महिलाओं के रहने की व्यवस्था उनके राज्यों में ही हो सके।
दरअसल, वृंदावन की महिलाओं का जीवन और उनकी दशा हमारे समाज का ऐसा चेहरा है, जिस पर हमें शर्मिंदगी महसूस होना चाहिए। देश में घंटों सार्थक-निरर्थक चर्चाएं स्त्रियों की दशा-दिशा, उनके अधिकारों पर होती हैं। कुछ चर्चाओं का नतीजा यह निकला कि बेटियों को पिता की सम्पत्ति में हक मिलने लगा, उन्हें पढ़ने, काम करने और आगे बढ़ने के अधिक अवसर प्राप्त होने लगे, संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण नहीं मिला, लेकिन फिर भी राजनीति में भी उनकी सक्रिय उपस्थिति दर्ज होने लगी, यौन उत्पीड़न की खबरें जो पहले दबा दी जाती थीं, अब उनकी प्राथमिकी दर्ज करने की हिचकिचाहट खत्म होने लगी। सती प्रथा और गुलाम बनाकर खरीदने-बेचने की प्रथा से लेकर सशक्तीकरण की इस राह पर बढ़ने का यह सफर कठिन था। इसमें लगभग स्त्रियों के तमाम वर्गों की चिन्ताओं पर ध्यान दिया गया। वेश्याएं, देवदासियां, दहेज प्रताड़ित, यौन उत्पीड़ित, मजदूर, दलित, ग्रामीण, कामकाजी हर वर्ग की महिलाओं के जीवन को बेहतर बनाने पर विमर्श हुए। इस विमर्श में विधवाओं को भी शामिल किया गया है, किन्तु खेद यह है कि इतने सालों में भी हमारे समाज में विधवाओं के जीवन में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। विधवाओं के साथ समाज के एक बड़े वर्ग के साथ जो व्यवहार है, उसने इस शब्द को अपमान का ही विकल्प बना दिया है। भारत में विधवाएं अब सती नहीं होतीं, लेकिन उनका जीवन कठिन परीक्षाओं की अग्नि में जलते हुए ही बीतता है। विधवाएं सज-संवर नहीं सकतीं, शुभ कार्यों में हिस्सा नहीं ले सकतीं, दूसरे विवाह के लिए आसानी से समाज और परिजन तैयार नहीं होते, कानून होते हुए भी पति की सम्पत्ति प्राप्त करने में उन्हें कठिनाई होती है, ऐसी बहुत सी पीड़ाएं विधवाओं के जीवन में पति की मृत्यु के दु:ख के साथ ही आ जाती हैं। जिनसे उबरने के लिए ही वे शायद धर्म और ईश्वर भक्ति का सहारा लेती हैं। वृंदावन में बड़ी संख्या में विधवाओं के आने का धार्मिक और समाजशास्त्रीय कारण शायद यही है। वृंदावन कृष्ण और राधा की नगरी है। हो सकता है इनकी भक्ति और सेवा में विधवाओं को मानसिक सुख की अनुभूति होती हो। कृष्ण की अन्यतम भक्त मीराबाई भी एक विधवा थीं और उनका पूरा जीवन कृष्ण भक्ति को ही समर्पित था। मुमकिन है विधवाओं के वृंदावन आने के पीछे यह भी कोई पहलू हो। वैसे इसका सही विश्लेषण समाजशास्त्रीय ही कर सकते हैं। शेष राज्यों की अपेक्षा बंगाल से विधवाएं वृंदावन अधिक आती हैं। यहां उनकी जीविका भिक्षा, मंदिरों में भजन गाने और स्वयंसेवी संगठनों व गैर सरकारी संगठनों के दान व आश्रय से ही चलती है। आंकड़े बताते हैं कि लगभग छह हजार विधवाएं वृंदावन में रहती हैं। सफेद साड़ी में लिपटी ये जीती-जागती महिलाएं काली, एकदम स्याह जीवन बिताती हैं। जिसमें कभी उन्हें दुत्कार मिलती है, कभी शोषण और कभी-कभी किसी की दया भी। हेमा राजनीतिज्ञ नहीं हैं, वरना वे अपने इसी कटु सत्य को दीगर बोल दे पातीं। खैर, वे सांसद हैं और इतनी सक्षम भी कि इन विधवाओं के पुनर्वास के लिए कोई ठोस योजना सामने लातीं। बजाए अपने राज्य में रहने और मंदिरों में ही आश्रय लेने की जगह वे उन्हें यह संदेश देने की कोशिश करतीं कि उनके पति की मौत का अर्थ उनके जीवन का निरर्थक होना नहीं है, वे अपने जीवन को बेहतर बना सकती हैं और इसमें वे उनकी मदद करेंगी। एक सांसद के लिए छह हजार लोगों की मदद करना कोई कठिन बात नहीं है। खेद है कि हेमा मालिनी के बयान में न स्त्रियों के प्रति संवेदनशीलता दिखाई दी, न जनप्रतिनिधि होने का दायित्वबोध न भारतीय होने की गरिमा। हेमा ने जो कहा सो कहा पर हर पल कष्टों को अभिशप्त विधवा माता-बहनों को लेकर हमें सियासत नहीं करनी चाहिए। 

Saturday, 20 September 2014

खिलखिलाते खिलाड़ियों का प्रदेश

देश में खेलों का आईना बना मध्यप्रदेश
मुसाफिर वह है जिसका हर कदम मंजिल की चाहत हो,
मुसाफिर वह नहीं जो दो कदम चल कर के थक जाए।
समय बदला, खिलाड़ी खिलखिलाए और मध्य प्रदेश सारे मुल्क का खेल आईना बन  गया। खिलाड़ियों के प्रोत्साहन की दिशा में कांग्रेस शासन में खेल मंत्री रहे मुकेश नायक ने जो सपना खेलों के उत्थान का देखा था उसे मध्य प्रदेश में अमलीजामा पहनाने का काम शिवराज सरकार ने किया है। मध्य प्रदेश में खेलों के कायाकल्प की वह दिन-तारीख आज भी मेरे जेहन में है। जिला खेल परिसर कम्पू में 31 मार्च, 2006 को तत्कालीन खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने कई घोषणाएं की थीं। उस समय उनकी कही बातों पर यकीन नहीं हुआ था, पर आज खेलों में मध्य प्रदेश जिस मुकाम पर है उसका सारा श्रेय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और ग्वालियर की बिटिया यशोधरा राजे सिंधिया को ही जाता है। आज मध्य प्रदेश खेलों का विकासशील राज्य ही नहीं बल्कि मुल्क का खेल आईना है। शिवराज सरकार ने खेलों के उत्थान के लिए जो पौने दो अरब का बजट मुहैया कराया उससे खिलाड़ियों को प्रोत्साहन तो मिला ही राज्य ने खेल अधोसंरचना के क्षेत्र में भी मील का पत्थर स्थापित कर दिया है। बात खेल एकेडमियों की हो या मुकम्मल क्रीड़ांगनों की, इसका लाभ सिर्फ मध्य प्रदेश ही नहीं बल्कि समूचे देश के खिलाड़ियों को मिल रहा है। सच कहें तो खेलों में जो नजीर मध्यप्रदेश ने पेश की उसका अन्य राज्यों में बेहद अभाव है। मध्यप्रदेश आज सुधारवादी और खिलाड़ी हितैषी दृष्टिकोण लेकर चल रहा है, जिसका लाभ मध्यप्रदेश ही नहीं देश के दूसरे राज्यों की प्रतिभाएं भी उठा रही हैं। प्रदर्शन की दृष्टि से आज देश में हरियाणा बेशक अव्वल हो पर सुविधाओं में मध्य प्रदेश का कोई जवाब नहीं है।
परिवर्तन प्रकृति का नियम ही नहीं मनुष्य के लिए एक चुनौती भी है। जो चुनौतियों से पार पाता है वही सिकंदर कहलाता है। मध्यप्रदेश ने खेलों के समुन्नत विकास की चुनौती जहां स्वीकारी है वहीं उसके मुखिया शिवराज सिंह और खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया चाहते हैं कि खिलाड़ियों का प्रदर्शन कागजों की जगह मैदानों में दिखे। खेलों की बात जब भी होती है विघ्नसंतोषी खामियां गिनाने लगते हैं। इस दृष्टि से भी देखें तो मध्य प्रदेश में खामियों से कहीं अधिक अच्छाइयां हैं। मध्यप्रदेश खेलों में आज कहां है, इस सवाल का जवाब यदि चाहिए तो आठ साल पूर्व हम कहां थे, पर नजर डालना जरूरी हो जाता है। सच कहें तो वर्ष 2006 से पहले मध्य प्रदेश एक बीमारू राज्य था। क्रीड़ांगनों में यदा-कदा खिलाड़ियों का दमखम दिखता था। तब कोई नहीं चाहता था कि उसका बेटा-बेटी खिलाड़ी बने पर आज ऐसी बात नहीं है। अब लोगों में खेलों के प्रति दिलचस्पी जागी है। लोगों ने खेलों के महत्व को स्वीकारा है। वे अपने बच्चों को खिलाड़ी बनाना चाहते हैं। इस परिवर्तन की वजह पर गौर करें तो इसका सारा श्रेय प्रदेश भर में खेल अधोसंरचना पर होते मुकम्मल काम और डेढ़ दर्जन एकेडमियों की स्थापना को जाता है। प्रदेश में खेलों की कायाकल्प की वजह मुख्यमंत्री और खेलमंत्री की दिलचस्पी और इनका जुनून है।
आठ साल पहले यशोधरा राजे सिंधिया ने विभिन्न खेलों की एकेडमियां खोले जाने का न केवल निर्णय लिया था बल्कि उसी साल उन्होंने भोपाल और ग्वालियर में एक दर्जन से अधिक खेल एकेडमियों को मूर्तरूप भी दिया। खेलों की इन नर्सरियों में न केवल खिलाड़ियों को उचित परवरिश मिल रही है बल्कि अच्छे परिणाम भी सामने आ रहे हैं। आज स्थिति यह है कि महिला हॉकी, जलक्रीड़ा, निशानेबाजी, घुड़सवारी आदि खेलों में मध्य प्रदेश की देश में पहचान है। लोग अपनों के लिए जीते हैं जबकि मध्यप्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग ने प्रत्येक राज्य के प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को प्रोत्साहन दिया है। महिला हॉकी में आज मध्य प्रदेश देश की मजबूत ताकत है। आठ साल पहले हमारे राज्य में खिलाड़ियों का अकाल था। एकेडमी में प्रवेश के लिए हमारे पास प्रतिभाएं खोजे से भी नहीं मिल रही थीं। तब हमने दूसरे राज्यों की प्रतिभाशाली खिलाड़ियों से ग्वालियर में एकेडमी का श्रीगणेश किया था। प्रदेश में महिला हॉकी का यह कारवां आहिस्ते-आहिस्ते ही सही अपनी मंजिल की ओर अग्रसर है। ग्वालियर के जिला खेल परिसर कम्पू में स्थापित देश की सर्वश्रेष्ठ महिला हॉकी एकेडमी खिलाड़ियों की प्रथम पाठशाला ही नहीं ऐसी वर्णमाला है जिसके बिना महिला हॉकी की बात भी पूरी नहीं होती। सच कहें तो यह खेलों की ऐसी कम्पनी है जहां खिलाड़ी का खेल कौशल तो निखरता ही है उसका जीवन भी संवरता है। आठ साल में हॉकी की इस नर्सरी से दर्जनों बेजोड़ खिलाड़ी निकली हैं। इस संस्थान ने मुल्क को न केवल दर्जनों नायाब खिलाड़ी दिए बल्कि लगभग तीन दर्जन बेटियों को रेलवे में रोजगार भी मिला है, इनमें पांच बेटियां मध्यप्रदेश की भी हैं।
जुलाई, 2006 में ग्वालियर में खुली राज्य महिला हॉकी एकेडमी के शुरूआती दो साल तक मध्यप्रदेश में प्रतिभाओं का अकाल सा था। तब लग रहा था कि आखिर प्रदेश किराये की कोख से कब तक काम चलाएगा। अब यह बात नहीं है। शिवराज सिंह की महत्वाकांक्षी हॉकी फीडर सेण्टर योजना का लाभ पुरुष हॉकी एकेडमी को बेशक न मिला हो पर महिला हॉकी एकेडमी को इसका जबर्दस्त लाभ मिला है। इस एकेडमी में अब अपनी बेटियां न सिर्फ प्रवेश पा रही हैं बल्कि दूसरे राज्यों की खिल्ली भी उड़ा रही हैं। इस सफलता में ग्वालियर के दर्पण मिनी स्टेडियम का जहां सर्वाधिक योगदान है। सिर्फ ग्वालियर ही नहीं  प्रदेश के दूसरे जिलों से भी प्रतिभाएं एकेडमी में प्रवेश पा रही हैं। मध्यप्रदेश की इस आशातीत सफलता से हरियाणा, उड़ीसा, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश आदि को रश्क हो रहा है। इन राज्यों की समझ में नहीं आ रहा कि अनायास मध्यप्रदेश महिला हॉकी का गढ़ कैसे बन गया।
कल तक मध्यप्रदेश महिला हॉकी पर बात न करने वाले राज्य आज मध्यप्रदेश की तरफ ताक रहे हैं। उन्हें मध्यप्रदेश से ईर्ष्या हो रही है। आज मध्यप्रदेश की 1-2 बेटियां नहीं बल्कि लगभग तीन दर्जन प्रतिभाशाली लाड़लियां मादरेवतन को ललकार रही हैं।  इनकी इस ललकार में दम न होता तो वे राष्ट्रीय स्तर पर कभी चैम्पियन न बनतीं। मध्यप्रदेश की ये बेटियां अपने राज्य के साथ हिन्दुस्तान का भी स्वर्णिम भविष्य हैं। कुछ बेटियां टीम इण्डिया के दरवाजे पर दस्तक दे चुकी हैं तो कुछ के पदचाप सुनाई देने लगे हैं। मध्यप्रदेश में खेलों के प्रति आई जागृति सुखद लम्हा है। कामयाबी के इस सिलसिले को जारी रखने के लिए प्रदेश की आवाम को नकारात्मक सोच से परे इन बेटियों का करतल ध्वनि से इस्तकबाल करना चाहिए क्योंकि इन्होंने खेलों को अपना करियर बनाने की जो ठानी है। अभी जश्न मनाने का समय नहीं आया, मंजिल अभी कुछ दूर है। मंजिल मिलेगी और जरूर मिलेगी क्योंकि अपनी बेटियों ने न केवल हॉकी थामी है बल्कि जीत का संकल्प भी लिया है। मध्यप्रदेश में प्रतिवर्ष उत्कृष्ट खिलाड़ियों को दी जा रही खेलवृत्ति से जहां  माहौल बदला है वहीं ग्रीष्मकालीन शिविरों ने खेलों की ऐसी अलख जगाई है जिसकी नजीर किसी और राज्य में नहीं मिलती।  भोपाल का तात्या टोपे नगर स्टेडियम और ग्वालियर का जिला खेल परिसर कम्पू खिलाड़ियों का तीर्थस्थल बन चुके हैं। मध्य प्रदेश ने खेलों में बेहतरी के लिए बतौर प्रशिक्षक कई अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों की सेवाएं लेकर अपने पेशेवराना अंदाज का ही परिचय दिया है।
खेलों से वास्ता या यूं कहें नजदीकी नजर न रखने वाले प्राय: यह सवाल करते हैं कि प्रदेश में स्थापित विभिन्न खेल एकेडमियों से मध्यप्रदेश को क्या मिला? मेरा सवाल है कि हमने खोया क्या है? शुरुआती दौर में विभिन्न एकेडमियों में दीगर राज्यों के खिलाड़ियों से हमारे खिलाड़ियों को प्रतिद्वन्द्वी मिले तो अन्य खिलाड़ियों में खेलों के प्रति दिलचस्पी भी जागी। प्रतिद्वंद्विता सफलता का मूलमंत्र है। दूसरे राज्यों के खिलाड़ियों के प्रवेश को अपने हकों के खिलाफ मानना नासमझी भरी बात है। दूसरे राज्यों के खिलाड़ियों से मध्यप्रदेश के खिलाड़ियों को प्रतिद्वंद्विता ही नहीं सफलता का मंत्र भी मिला, जोकि जरूरी था। आज स्थितियां पूरी तरह से बदल चुकी हैं, एकेडमियों में प्रवेश को मध्यप्रदेश के ही खिलाड़ियों में होड़ सी मची हुई है। हमें बाहरी राज्यों की तरफ ध्यान देने की भी अब जरूरत नहीं रही। महिला हॉकी की बात करें तो आज मध्यप्रदेश की प्रतिभाशाली जूनियर और सब जूनियर बेटियां राष्टÑीय क्षितिज पर अपना गौरवशाली इतिहास लिख रही हैं। सिर्फ महिला हॉकी ही नहीं अन्य खेलों में भी हमारे खिलाड़ी तरक्की कर रहे हैं। देशा में अकेले मध्यप्रदेश में जितने कृत्रिम हॉकी मैदान हैं उतने तो सम्पूर्ण देश में भी नहीं हैं। मध्यप्रदेश ने खेलों में जो तरक्की की है उस पर मीन-मेख निकालने से बेहतर होगा कि हम सब एकजुट होकर न केवल खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करें बल्कि जश्न भी मनाएं।







   

Friday, 19 September 2014

डराती जीवनदायिनी नदियां

भारत विकास पथ पर सरपट दौड़ रहा है। हर क्षेत्र में उसे आशातीत सफलता भी मिल रही है। लोग गांवों से शहरों की तरफ बेइंतहा दौड़ रहे हैं। गांव लगातार सिकुड़ रहे हैं तो शहर की गगनचुम्बी इमारतें हमें डरा रही हैं। भारत का यह डर अस्तित्व खोते नदी-नालों से और भी बढ़ जाता है। विकास के इस नंगनाच से विनाश की आहट साफ सुनाई दे रही है पर हम अपनी आदतों से लाचार हैं। हम सरकारों को भला-बुरा कह सकते हैं पर खुद नहीं सुधरना चाहते। गंगा-यमुना की पवित्रता को लेकर मुल्क सजग तो सरकार चेती है, पर परिवर्तन के प्रति संदेह अब भी बरकरार है। हर भारतवासी नदियों के महत्व को न केवल समझता है बल्कि उसमें विशेष श्रद्धाभाव भी रखता है, बावजूद इसके जीवनदायिनी नदियां आज हमें डरा रही हैं।
पिछले कुछ वर्षों में देश में आई प्रकृति प्रलय ने गम्भीर जलवायु परिवर्तन के संकेत दिए हैं। पिछले चार साल में भारत के मुकुट हिमालय क्षेत्र में तीन विनाशकारी आपदाओं ने जमकर तबाही मचाई है। इस तबाही में जन-धन की हानि के साथ मुल्क की आर्थिक स्थिति पर भी गहरा प्रभाव पड़ा है। छह अगस्त, 2010 को लेह, 15 जून, 2013 को उत्तराखण्ड और सात सितम्बर, 2014 को जम्मू-कश्मीर में भारी जल प्रलय के कारण हजारों लोगों की जानें गर्इं तो लाखों बेघर हुए तथा अरबों के आर्थिक नुकसान के साथ-साथ बुनियादी संसाधनों पर भी संकट छा गया। इन आपदाओं पर भारतीय मौसम विभाग मानसून का पश्चिमी विक्षोभ तो सेण्टर फॉर साइंस एण्ड एनवायरमेंट भारतीय उपमहाद्वीप में जलवायु परिवर्तन बता रहा है। रिपोर्टें कुछ भी कहें पर स्याह सच यह है कि अंधाधुंध वन विनाश के चलते आज पहाड़ नंगे हो रहे हैं। जो जंगल पहले मानसून के सामने ढाल बनकर दीवार की तरह खड़े हो जाते थे, वे दीवारें हमने स्वयं ध्वस्त कर दी हैं। पवित्र गंगा-यमुना आज अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही हैं। इसकी वजह प्राकृतिक नहीं बल्कि मानवजनित है, जिसके लिए सरकार और प्रशासन के साथ-साथ आमजन का हठधर्मीपूर्ण रवैया भी कम जिम्मेदार नहीं है। राष्ट्रीय हरित पंचाट की ओर से दिल्ली और उत्तर प्रदेश के सभी सम्बन्धित महकमों को गंगा-यमुना के तटों पर किसी भी तरह का कचरा या मलबा गिराए जाने पर तत्काल रोक लगाने और इस नियम का उल्लंघन करने वालों से भारी जुर्माना वसूलने का स्पष्ट आदेश है, बावजूद इसके स्थिति में कोई अंतर नहीं दिखता।
बरसाती पानी के नदियों तक पहुंचने के मामले में हमारे देश में कोई जमीनी आंकड़ा नहीं है। इस तरह का सर्वेक्षण और उस पर अमल आसान बात भी नहीं है। इसकी वजह, नदियों के तटों से सटे इलाकों में रिहाइशी और औद्योगिक परियोजनाओं का लगातार फलना-फूलना है। निर्माण-कार्यों से निकलने वाले मलबे और घरेलू औद्योगिक कचरे की मात्रा लगातार बढ़ रही है, लेकिन इस पर रोक की पहल बेहद कमजोर है। कड़े नियम और चुस्त निगरानी तंत्र की शिथिलता के कारण हर कोई बेरोकटोक अपशिष्ट नदियों में प्रवाहित कर रहा है, नतीजतन, गंगा-यमुना का रकबा या तटक्षेत्र लगातार सिकुड़ रहे हैं तो औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला रसायन पानी को जहर बना रहा है। मुल्क में नदियों की पवित्रता के नाम पर अब तक कई हजार करोड़ रुपए खर्च किया जा चुका है लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। तमाम घोषणाओं और अभियानों के बावजूद हालत यह है कि आज नदियां नाले की शक्ल ले चुकी हैं। हर साल देश की बड़ी आबादी जलप्रलय से सहमती है, पर यह डर उसके जेहन में कुछ दिन ही रहता है।
मालिण की भयावह त्रासदी, केदारनाथ में बढ़ती पर्यटन की गतिविधियों और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली कोशिशों ने ही प्रकृति को बदला लेने को विवश किया। प्रकृति की तरफ से ऐसा ही खतरा इस बार कश्मीर घाटी में चिनाब, झेलम, सिंधु और तवी नदियों के इर्द-गिर्द पैदा हुआ। नदियों के स्वाभाविक रास्तों को बंद करने का क्या नतीजा होता है, यह बिहार में लगभग हर साल कोसी नदी में आने वाली बाढ़ से स्पष्ट होता है। मानसून के दौरान जब भी नेपाल में भारी वर्षा के कारण कोसी में उफान आता है, उसका प्रकोप बिहार पर टूट पड़ता है। पिछले 50-55 साल से उत्तरी बिहार में रहने वाली 25-30 लाख से अधिक की आबादी कोसी नदी की बाढ़ का सामना कर रही है। छह साल पहले कोसी नदी में आई बाढ़ विशुद्ध प्राकृतिक नहीं थी, इसकी वजह नेपाल में बने बैराज में कुसहा नामक स्थान पर एक बड़ी दरार पैदा हो जाना था। तब 25-30 लाख लोग विनाशकारी बाढ़ से प्रभावित हुए थे। कुछ ऐसे ही दृश्य पिछले वर्ष उत्तराखण्ड में केदारनाथ त्रासदी के दौरान भी देखने को मिले थे। भारत में पिछले साल प्राकृतिक आपदाओं की वजह से करीब 21.40 लाख लोग विस्थापित हुए। संख्या के लिहाज से हम फिलीपीन और चीन के बाद तीसरे स्थान पर रहे। 2013 में भूकम्प या जलवायु जनित आपदाओं से दुनिया भर में 2.2 करोड़ लोग विस्थापित हुए जोकि पिछले साल संघर्षों की वजह से विस्थापित हुए लोगों की संख्या का करीब तीन गुना है। भारत में 2008 से 2013 के बीच कुल 2.61 करोड़ लोग विस्थापित हुए जोकि चीन के बाद सर्वाधिक है। चीन में इस दौरान 5.42 करोड़ लोग विस्थापित हुए थे। अकेले पिछले साल भारत में प्राकृतिक आपदाओं की वजह से हुई तबाही में 21.4 लाख लोग विस्थापित हुए जबकि संघर्ष और हिंसा की वजह से विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या महज 64 हजार ही थी। भारत मूलत: गांवों का देश है। शहरी क्षेत्रों की तुलना में भारत के मानचित्र पर गांवों की उपस्थिति अधिक है। भारत की लगभग 72.2 फीसदी आबादी देश के लगभग 6 लाख, 38 हजार गांवों में निवास करती है जबकि शेष 27.8 फीसदी आबादी का जीवन बसर 5000 कस्बों एवं लगभग तीन सौ बड़े शहरों में होता है। आजादी के बाद से ही जहां शहरों की संख्या बढ़ी वहीं गांव कम हुए हैं। लगातार विरोध के बावजूद मुल्क में जंगलों और पहाड़ों का कटना बंद नहीं हो रहा। अभी कुछ नहीं बिगड़ा, हम अब भी नहीं चेते तो सच मानिए प्रकृति का विनाशकारी तांडव मानव का अस्तित्व तबाह कर देगा।

Wednesday, 17 September 2014

चमकने से पहले ही दुती चंद पर ग्रहण

आगरा। शांति सुंदरराजन और पिंकी प्रमाणिक पर अपयश की तोहमत लगने के बाद एक और भारतीय उदीयमान महिला खिलाड़ी जेण्डर परिवर्तन का शिकार हो गई है। 100 मीटर फर्राटा दौड़ की नेशनल चैम्पियन दुती चंद इन दिनों पटियाला में घुट-घुट कर जी रही है। देश की इस उदीयमान खिलाड़ी को भारतीय ओलम्पिक संघ और भारतीय खेल प्राधिकरण न्याय का भरोसा तो दिला रहे हैं पर गरीब की इस बेटी को न्याय मिलेगा भी तो आखिर कब?
पांच साल की उम्र से ट्रैक को अपना कर्मपथ अंगीकार कर चुकी गोपालपुर (उड़ीसा) की जांबाज एथलीट दुती चंद नेशनल स्तर पर 100 और 200 मीटर दौड़ के 200 से अधिक तमगे हासिल करने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दो स्वर्ण और एक कांस्य पदक से अपना गला सजा चुकी है। भारत में जेण्डर परिवर्तन का यह पहला मौका नहीं है इससे पहले शांति सुंदरराजन और पिंकी प्रमाणिक का भी खेल करियर तबाह हो चुका है। हालांकि यह दोनों निर्दोष साबित हो चुकी हैं लेकिन दुबारा ट्रैक पर दौड़ती कभी किसी को नहीं दिखीं। दरअसल भारत तकनीकी दृष्टि से खेलों में बहुत पीछे है और न्याय प्रक्रिया भी यहां बहुत सुस्त है। खिलाड़ी को समय से न्याय मिले इसकी तरफ खेलनहार भी ध्यान नहीं देते। दुती चंद मामले में रिपोर्ट पॉजिटिव निकलने के बाद सवाल यह भी उठता है कि आखिर राष्ट्रमण्डल और एशियाई खेलों से पहले ही उस पर क्यों और किसने संदेह किया? शांति सुन्दराजन मसले से भी भारत ने कोई सबक नहीं सीखा। मुल्क की जगहंसाई हो उससे पहले ही खिलाड़ियों की जांच प्रक्रिया में हीलाहवाली क्यों की जाती है।
 मैं टूट चुकी हूं: दुती चंद
पुष्प सवेरा से दूरभाष पर हुई बातचीत में दुती चंद ने बताया कि भारतीय खेल प्राधिकरण के निदेशक जिजी थामसन ने भरोसा दिलाया है कि वह अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक संघ को पत्र लिखेंगे और वहां से अनुमति मिलने के बाद उसका इलाज साई कराएगा। बकौल दुती चंद मैं टूट चुकी हूं। मैंने ग्लास्गो राष्ट्रमण्डल और इंचियोन एशियाई खेलों के लिए जीतोड़ मेहनत की थी, पर मेरे अरमानों पर पानी फिर चुका है। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं करूं भी तो क्या? तीन फरवरी, 1996 को गोपालपुर जिला जाजपुर (उड़ीसा) में चक्रधर चंद और अखुजी चंद के घर जन्मी दुती चंद ने 10 साल की उम्र में ही नेशनल स्तर पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाना शुरू कर दिया था। दुती चंद के चार बहन हैं जिनमें उसकी बड़ी बहन सरस्वती भी एथलीट रह चुकी है। दुती चंद 100 और 200 मीटर दौड़ की नेशनल चैम्पियन है। दुती ने पिछले साल रांची में हुई सीनियर नेशनल एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में 100 मीटर दौड़ 11.73 सेकेण्ड और 200 मीटर दौड़ 23.73 सेकेण्ड में पूरी कर सोने के तमगे गले लगाए थे। दुती का 100 मीटर दौड़ में सर्वश्रेष्ठ समय 11.62 सेकेण्ड है।
पिंकी प्रमाणिक पर लगा था बलात्कार का आरोप
क्या कोई लड़की भी किसी का बलात्कार कर सकती है? इस प्रश्न का जवाब ना में होगा, पर इस तोहमत से पिंकी प्रमाणिक बेशक बेदाग साबित हो चुकी हो पर उसका खिलाड़ी जीवन तबाह हो चुका है। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने एशियाई खेलों की स्वर्ण पदक विजेता पिंकी प्रमाणिक को बलात्कार और धोखाधड़ी के आरोपों से बरी कर दिया है। पिंकी पर बलात्कार का आरोप उसकी लिव इन पार्टनर ने जून 2012 में लगाए थे। न्यायमूर्ति सुब्रत तालुकदार ने पिंकी के खिलाफ बलात्कार और धोखाधड़ी के आरोपों को खारिज कर दिया है। महिला की शिकायत पर इस खिलाड़ी के खिलाफ बारासात अदालत सत्र न्यायाधीश ने आईपीसी की धारा 376 (बलात्कार) और 418 (धोखाधड़ी) के तहत आरोप तय किए थे। पिंकी के वकील कौशिक गुप्ता ने न्यायमूर्ति तालुकदार के समक्ष कहा था कि उसके चिकित्सकीय परीक्षण से साबित हुआ है कि वह महिला है। भारतीय कानून के तहत पुरुष पर ही बलात्कार का आरोप लगाया जा सकता है, ऐसी स्थिति में पिंकी के खिलाफ बलात्कार और धोखाधड़ी का मामला निरस्त होना चाहिए और हो चुका है, पर पिंकी अब कभी दौड़ेगी इसमें संदेह है।
शांति सुंदरराजन कर रही मजदूरी
शांति सुंदरराजन ने जिस तेजी से सफलता की सीढ़िय़ां चढ़ी थीं, उसका पतन भी उसी रफ्तार से हुआ। 2006 के दोहा एशियाड में 800 मीटर का रजत जीतने वाली इस एथलीट को अब ईंट भट्ठे पर मजदूरी करनी पड़ रही है। उसे 200 रुपए प्रतिदिन मजदूरी पर गुजारा करना पड़ रहा है। उसकी परेशानियों का दौर उस समय शुरू हुआ, जब वह जेण्डर टेस्ट में फेल हो गई। इसके बाद एथलेटिक्स फेडरेशन आॅफ इण्डिया ने उस पर किसी भी इवेंट में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया था। शांति 2010 से बेरोजगार है। उससे पहले वह पांच हजार रुपए प्रतिमाह वेतन पर बच्चों को कोचिंग दिया करती थी। उसने कलेक्टर से चपरासी की नौकरी देने तक की गुहार लगाई, पर उसे नौकरी नहीं मिली।

Sunday, 14 September 2014

हिन्दी पर विधवा विलाप कब तक?

आज हिन्दी दिवस है और हम हिन्दी को लेकर विधवा विलाप कर रहें हैं, आखिर क्यों? यह दिवस पहली बार नहीं आया बल्कि 1949 से हम इसे सालाना उत्सव रूप में मना रहे हैं। हर साल की तरह आज भी हर मंच पर हिन्दी की दुर्दशा पर बहुत कुछ कहा-सुना गया। इससे किसी को वेदना हुई हो या नहीं हिन्दी उपासक होने के नाते मैं असहज हूं। गुस्सा भी आ रहा है, पर इजहार करूं भी तो किससे?
आज करोड़ों रुपये के हिन्दी कर्मकाण्ड पर ज्यादातर लोगों ने हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों के बढ़ते इस्तेमाल और उसके भ्रष्ट होने पर जमकर छाती कूटी। मुल्क में हिन्दी को लेकर हम वर्षों से घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं लेकिन समस्या की जड़ में जाने का गंभीर प्रयास कभी नहीं हुआ। हम इतिहास पर गौर करें तो हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने 10 अक्टूबर, 1910 को एक प्रस्ताव पारित किया था कि विश्वविद्यालय शिक्षा में हिन्दी का आदर, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि का निर्धारण होगा। अफसोस सौ साल बाद भी हमारे शीर्ष विश्वविद्यालयों में हिन्दी को अब तक वह आदर नहीं मिल पाया जिसकी वह हकदार है। देश में हिन्दी के प्रति अनुराग उत्पन्न करने और उसकी श्रीवृद्धि के लिए प्रयत्न करना और हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि के लिए मानविकी, समाज शास्त्र वाणिज्य, विधि तथा विज्ञान और तकनीकी विषयों की पुस्तकों को लिखवाना और प्रकाशित करवाना गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं। आजादी के करीब तीन दशक पहले लिए गए हमारे पुरखों के प्रण आज भी अधूरे हैं। हिन्दी दिवस पर हिन्दी की स्थिति पर विलाप करने से बेहतर होगा कि हम साहित्य सम्मेलन में करीब सौ साल पहले पारित प्रस्तावों पर गंभीरता से काम करने की कोशिश करें। नए रचनाधर्मियों को प्रोत्साहित करने के साथ उनसे हिन्दी में मौलिक लेखन शुरू करवाने का संजीदा प्रयास हिन्दी के उत्थान में मील का पत्थर साबित हो सकता है।
हिन्दी के लिए हमें दूसरी भाषाओं पर तंज कसने की बजाय हमें अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सहोदर जैसा व्यवहार करना चाहिए। अंग्रेजी और हिन्दी की दुश्मनी से नुकसान दोनों पक्षों का होगा। महात्मा गांधी भी हिन्दी के प्रबल समर्थक थे और वे इसको राष्ट्रभाषा के तौर पर देखना चाहते थे लेकिन गांधीजी ने कहा था कि हिन्दी का उद्देश्य यह नहीं है कि वह प्रांतीय भाषाओं की जगह ले ले। हमारा मुल्क फ्रांस या इंग्लैंड की तरह नहीं है जहां एक भाषा है। विविधताओं से भरे हमारे देश में दर्जनों भाषा और सैकड़ों बोलियां हैं, लिहाजा यहां आपसी समन्वय और सामंजस्य के सिद्धांत को लागू करना होगा। हमें यह सोचना चाहिए कि हिन्दी राजभाषा तो बनी लेकिन अंग्रेजी का दबदबा क्यों कायम रहा? जनता की भाषा और शासन की भाषा एक क्यों नहीं हो सकी? इसका बड़ा नुकसान यह हुआ कि हिन्दी को उसके हक से वंचित रहना पड़ा। अंग्रेजी के पैरोकारों ने ऐसा माहौल बनाया कि हिन्दी अगर हमारे देश की भाषा बन गई तो अन्य भारतीय भाषाएं खत्म हो जाएंगी।
हिन्दी कोे लेकर अगर हम सचमुच संजीदा हैं तो हमें भारतीय भाषाओं से संवाद को बढ़ाना होगा। अन्य भारतीय भाषाओं में यह विश्वास पैदा करना होगा कि हिन्दी के विकास से ही उनका भी विकास होगा। इस काम में भारत सरकार की बहुत अहम भूमिका है। उसको साहित्य अकादमी या अन्य भाषाई अकादमियों के माध्यम से बढ़ावा देने के उपाय खोजने होंगे। साहित्य अकादमी ने भाषाओं के समन्वय का काम छोड़ दिया है, लिहाजा एक भाषा से दूसरी भाषा के बीच अनुवाद का काम भी गंभीरता से नहीं हो पा रहा। हिन्दी के समुन्त विकास के लिए भारत सरकार ने वर्धा में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का गठन किया था। लेकिन यह विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के लगभग डेढ़ दशक बाद भी अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है। इस विश्वविद्यालय के माध्यम से भी हिन्दी के विकास के लिए काम करने की अनंत सम्भावनाएं हैं जिस पर काम होना अभी शेष है। हिन्दी में शुद्धता की वकालत करने वालों को भी अपनी जिद छोड़नी होगी। नहींं तो हिन्दी के सामने भी संस्कृत जैसा खतरा उत्पन्न हो जाएगा। भारत सरकार के पत्रकारिता और मुद्रण शब्दकोश को आज के हिसाब से बनाने के प्रोजेक्ट से जुड़े होने के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि सरकारी कामकाज के लिए जिन शब्दकोशों का उपयोग होता है, वो बहुत पुराने हो चुके हैं। हिन्दी इस बीच काफी आधुनिक हो गई है। उसने अंग्रेजी के कई शब्दों को अपने में समाहित कर लिया है। इन शब्दकोशों को आधुनिक बना देने से सरकारी हिन्दी भी आधुनिक हो जाएगी। हमारे मन में यदि वाकई हिन्दी के विकास का जुनून है तो हिन्दी दिवस के नाम पर होती नौटंकी बंद कर इसे अधिक से अधिक कार्य-व्यवहार और अमल में लाएं।

Saturday, 13 September 2014

एशियाड: मुश्किल होगी महिला पहलवानों की राह

जापान, दक्षिण कोरिया, चीन और मंगोलिया से पार पाना बड़ी चुनौती
चार वजन वर्गों में महिला पहलवान दिखाएंगी दमखम
आगरा। दक्षिण कोरिया के इंचियोन में होने जा रहे सत्रहवें  एशियाई खेलों में भारतीय महिला पहलवानों की राह आसान नहीं है। भारतीय महिला पहलवानों के सामने मेजबान दक्षिण कोरिया, खेलों की महाशक्ति चीन, जापान और मंगोलिया की पहलवान बड़ी चुनौती साबित होंगी। कहने को ये एशियाई खेल हैं लेकिन यहां ओलम्पिक से कठिन मुकाबले होने से इंकार नहीं किया जा सकता। महिला कुश्ती की जहां तक बात है यह चारों मुल्क दुनिया में बेजोड़ हैं।
इंचियोन में भारतीय महिला पहलवान चार वजन वर्गों में दांव-पेंच दिखाएंगी। इन पहलवानों में ग्लास्गो राष्ट्रमण्डल खेलों की स्वर्ण पदकधारी बबिता फोगाट (55 किलोग्राम) और विनेश फोगाट (48 किलोग्राम) के साथ ही रजत पदक विजेता गीतिका जाखड़ (63 किलोग्राम) शामिल हैं। ग्लासगो में पदक से चूकी ज्योति (75 किलोग्राम) भी भारतीय महिला कुश्ती टीम का प्रतिनिधित्व करेंगी। एशियाई खेलों में कुश्ती स्पर्धा 27 सितम्बर से एक अक्टूबर के बीच होगी। कुश्ती में भारत को अपनी महिला चौकड़ी से बहुत उम्मीदें हैं। कोच कृपाशंकर बिशनोई की बातों पर यकीन करें तो महिला पहलवानों को यदि इंचियोन में एकाध पदक भी मिल जाए तो बड़ी बात होगी।
पुष्प सवेरा से दूरभाष पर हुई बातचीत में कृपाशंकर बिशनोई ने बताया कि इंचियोन में ग्लासगो का प्रदर्शन दोहरा पाना आसान बात नहीं है। हमारे पहलवानों के सामने मेजबान दक्षिण कोरिया, खेलों की महाशक्ति चीन, जापान और मंगोलिया की पहलवान बड़ी चुनौती साबित होंगी। यद्यपि हमारी पहलवानों ने लखनऊ में हुए प्रशिक्षण शिविर में खूब पसीना बहाया है पर समय से पहले शिविर के समापन से कुछ परेशानियां भी बढ़ी हैं। दरअसल नौ सितम्बर को शिविर के समापन के बाद यह चिन्ता सता रही है कि कहीं हमारी पहलवान चोटग्रस्त न हो जाएं। शिविर समापन की वजह पर पूछे जाने पर श्री बिशनोई ने बताया कि शिविर में महिला पहलवानों की कमी के चलते यह निर्णय लिया गया।
महिला कोच कृपाशंकर बिशनोई को भरोसा है कि भारतीय महिला पहलवान पदक के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगी। मुकाबले के दिन हमारी पहलवान जितना मानसिक मजबूत होंगी पदक की सम्भावनाएं उतनी ही बढ़ जाएंगी। इस चौकड़ी में एशियन खेलों की रजत पदक विजेता दीपिका जाखड़ सबसे अनुभवी है। वह इस बार स्वर्णिम सफलता को कोई कसर नहीं छोड़ना चाहेगी। बबिता और विनेश का कुश्ती के प्रति समर्पण लाजवाब है तो ज्योति ग्लासगो की असफला से हर हाल में निजात पाना चाहेगी। जहां तक एशियाई खेलों में महिला कुश्ती का सवाल है अब तक अलका तोमर (कांस्य) और गीतिका जाखड़ (रजत) ने ही पदक जीते हैं। भारतीय महिला पहलवान 20 सितम्बर को इंचियोन रवाना होंगी।
महिला-पुरुष कुश्ती में 20 पदक दांव पर
ग्लासगो में भारतीय महिला और पुरुष पहलवानों ने पांच स्वर्ण, छह रजत और दो कांस्य पदक सहित कुल 13 पदक अपनी झोली में डाले थे।  राष्ट्रमंडल खेलों में ग्रीको रोमन कुश्ती स्पर्धा शामिल नहीं थी जबकि इंचियोन में भारतीय पुरुष पहलवान फ्रीस्टाइल और ग्रीको रोमन स्पर्धाओं में दांव लगाएंगे। महिला चौकड़ी केवल फ्रीस्टाइल स्पर्धा में शिरकत करेगी। कुश्ती में कुल 20 स्वर्ण पदक दांव पर होंगे। एशियाई खेलों की कुश्ती स्पर्धा में प्रत्येक देश से 14 पुरुष और चार महिला पहलवानों को दांव-पेंच दिखाने का मौका दिया जा रहा है।

भेदभाव मिटाएं, बेटियां बचाएं

समय परिवर्तनशील है। समय के साथ-साथ सब कुछ तेजी से बदलता जाता है। हमारी सोच, हमारा रहन-सहन, वातावरण सब कुछ। बदलाव का मूल कारण शिक्षा भी है। जो समाज जितना शिक्षित होगा, उसमें उतनी ही तेजी से बदलाव और विकास होगा। हमारे यहां शिक्षा का प्रचार-प्रसार तेजी से हो रहा है और हम बदलाव भी महसूस कर रहे हैं। फिर भी कुछ जगहों पर कुछ लोगों की संकुचित मानसिकता की वजह से लिंगभेद आज भी हमारे समाज में व्याप्त है जोकि गंभीर बात है। बेटा-बेटी जब एक ही माता-पिता की संतान हैं तो भेदभाव क्यों? एक ही परिवार में उत्पन्न बेटा-बेटी में भेदभाव घर-घर में तो नहीं पर कुछ घरों में आज भी व्याप्त है, जोकि काफी दु:खद और निंदनीय है।
आज हमारे समाज के कुछ हिस्सों में कन्या भ्रूणहत्या बदस्तूर जारी है। पहले जहां नवदम्पति अपनी संतान के आने की खुशखबरी सुन फूला नहीं समाता था, वहीं आज संतान की खुशखबर सुनते ही पहले जांच करवाता है। जांच-परीक्षण में अगर लड़का आया तो ठीक, अगर लड़की आई तो एक नया नाटक शुरू। इसमें अगर  गर्भवती महिला विरोध करती है तो उस पर पूरे परिवार की तरफ से दबाव बनाया जाता है। इससे अन्याय और दुर्भाग्यपूर्ण बात दूसरी क्या हो सकती है? कुछ लोग मानते हैं कि लड़का ही घर का चिराग है और लड़की तो पराया धन है। लड़का ही वंश को आगे ले जाने में सक्षम है, लड़की बोझ है, उसके सयानी होने से शादी-विवाह तक अनेक जोखिम हैं। यह सोच न केवल गलत है बल्कि जोखिमपूर्ण भी है। आज हम देखें तो हर क्षेत्र में बेटियां आगे निकल रही हैं। चाहे वह क्षेत्र कला का हो, खेल का हो, व्यवसाय, तकनीक या राष्ट्रीय-अंतरराष्टÑीय स्तर पर प्रतियोगिता की ही बात हो, हर जगह बेटियां बेटों से कहीं अधिक कामयाब हैं। अंतरिक्ष में जाने की बात हो या फिर एवरेस्ट पर पहुंचने की, बेटियां हर जगह परचम लहरा रही हैं, फिर भी बहुत सारे ऐसे राज्य हैं जहां लड़कियों की संख्या बहुत कम है। इसका प्रमुख कारण कन्या भ्रूणहत्या ही है। बेटा हो या बेटी, वह स्वस्थ हो, संस्कारी हो यही काफी है। बेटियां तो वैसे भी घर की खिलखिलाहट होती हैं। उनके बिना घर-घर नहीं लगता। बेटे से ज्यादा बेटियां रिश्तों को समझती हैं। जरूरत पड़ने पर मां-बाप की सेवा करती हैं। उनमें बचपन से ही सहयोग की भावना होती है। घर के छोटे-छोटे कामों में वे अक्सर मां का हाथ बंटाती हैं। यह  भी सच है कि वे कम उम्र में ही घर की पूरी जिम्मेदारी सम्हालने में भी पीछे नहीं रहतीं।
बेटा हो या बेटी, हैं तो मां-बाप का अंश ही, बावजूद बेटियों के साथ भेदभाव हो रहा है। हम और आप जब तक अपनी मानसिकता नहीं बदलेंगे तब तक कुछ भी हासिल नहीं होगा। किसी भी समाज के विकास में महिला और पुरुष का बराबर योगदान होता है फिर हम बेटियों को क्यों इस दृष्टि से देख रहे हैं? बहू तो हर किसी को चाहिए पर बेटी नहीं। जब बेटी ही नहीं रहेगी तो बहू कहां से लाएंगे। हर घर में बेटा हो तो उस घर को एक बहू भी चाहिए। बिना किसी के घर से बेटी लाए क्या बहू की आवश्यकता पूरी की जा सकेगी। मुल्क में लिंगभेद का मुख्य कारण अशिक्षा है। हम जब शिक्षित होते हैं तो हमारी सोच भी विस्तृत हो जाती है। हमें सही और गलत का बोध होने लगता है। वहीं गांवों में आज भी अंधविश्वास जडेंÞ जमाए हुए है, जिससे हमें बाहर निकलना होगा। ऐसा नहीं कि शिक्षित समाज में लिंगभेद नहीं है, पर तुलनात्मक दृष्टि से कम है। आज राज्यों और केन्द्र सरकार द्वारा कई योजनाएं चलाई जा रही हैं जिनमें बालिकाओं को समान अवसर मिल रहे हैं। बालिका शिक्षा योजना, बालिका पोशाक योजना, साइकिल योजना और बालिका विवाह जैसी योजनाओं का मकसद बेटियों को शिक्षित कर समाज की मुख्यधारा से जोड़ना है। अब तो सरकारें उन्हें मैट्रिक और इंटर में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होने पर छात्रवृत्ति भी दे रही हैं। सरकार की यह पहल वाकई सराहनीय है। इन तमाम योजनाओं का लाभ हम तभी उठा सकेंगे जब हमारे आसपास भी ऐसा ही माहौल बने। घर में जब समानता का वातावरण रहेगा, कहीं कोई भेदभाव नहीं रहेगा तभी हमारी बेटियां खुलकर सांस ले पाएंगी वरना तमाम योजनाएं धरी की धरी रह जाएंगी। बेटियों को बचाना है तो हमें अपने आसपास के लोगों को जागरूक कर उन्हें लिंगभेद के दुष्परिणाम से अवगत कराना होगा। एक स्वस्थ समाज के लिए भेदभाव का मिटना और मिटाना अति आवश्यक है। तभी हम अर्द्धनारीश्वर की कल्पना को साकार कर पाएंगे।
        

Friday, 12 September 2014

नजरिया बदलता कश्मीर

इन दिनों धरती का स्वर्ग मुसीबत में है।  मुसीबत के इन क्षणों ने कश्मीरियों को न केवल सामर्थ्यवान बनाया है बल्कि उनकी नजर और नजरिए को भी बदला है। कल तक सेना को अपनी आंखों की किरकिरी मानने वाली कश्मीरी आवाम आज सैनिकों के सेवाभाव की मुरीद है। संकट में साथ देना भारतीय संस्कृति का उसूल है। यही वजह है कि आज हर हिन्दुस्तानी आतंक की जमीन को अपनी मदद और स्नेह से सराबोर कर देना चाहता है। जम्मू-कश्मीर में धीरे-धीरे जलस्तर कम हो रहा है, पर त्रासदी की जो तस्वीरें अब सामने आ रही हैं, वे चीख-चीख कर बता रही हैं कि जख्म कितना गहरा है।
सेना और आपदा बचाव बलों की तमाम मुस्तैदी के बाद भी अब भी लाखों लोग गहरे संकट में फंसे हुए हैं। बचाव और राहत का काम तो हो रहा है पर अनियोजित तरीके से। पीड़ितों को मालूम ही नहीं कि वे कहां और किससे मदद मांगें। अपना दर्द बयां करें भी तो किससे? इस जल प्रलय में सैकड़ों लोग काल के गाल में समा गये तो हजारों लोग विस्थापित जीवन बसर कर रहे हैं। सैकड़ों गांव आज भी जलमग्न हैं। कुदरत के कहर से जम्मू-कश्मीर के प्राकृतिक सौंदर्य को भी ग्रहण लगा है। दुनिया भर के सैलानियों के कदम ठिठक गये हैं। कश्मीर में जल प्रलय का यह पहला मौका नहीं है। इससे पहले वर्ष 2010 में भी लेह में बाढ़ से भारी तबाही मची थी और सौ से ज्यादा लोग मौत के आगोश में समा गये थे। तब भी जनजीवन सामान्य होने में काफी वक्त लगा था। 2010 की बनिस्बत इस बार संकट कहीं ज्यादा गहरा है।
झेलम सहित दो नदियों ने जिस तरह अपना रौद्र रूप दिखाया उससे समूचे सूबे में पहले से ही लचर यातायात, दूरसंचार और बिजली व्यवस्था और चरमरा गई है। बाढ़ के कहर से दक्षिण कश्मीर के कई जिलों सहित राजधानी श्रीनगर, उच्च न्यायालय परिसर, सचिवालय और सैनिक छावनी भी जलमग्न हो गये। प्रकृति का यह गुस्सा सीमाओं के सारे बंधन तोड़ पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर तक भी जा पहुंचा। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में स्थिति काफी गम्भीर है।
मुसीबत के वक्त प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने न केवल कश्मीरियों के आंसू पोछे बल्कि पाकिस्तान को भी मदद का भरोसा दिया है। संकट की इस घड़ी में अब यह पाकिस्तानी हुक्मरानों के विवेक पर निर्भर करता है कि वे इस प्राकृतिक मुसीबत में भारत की मदद लेना चाहेंगे या नहीं। जम्मू-कश्मीर में फिलवक्त युद्ध स्तर पर राहत व बचाव कार्य चल रहा है। केन्द्र से एक हजार करोड़ रुपए की सहायता की घोषणा के साथ-साथ समूचा भारत कश्मीर की मदद को तैयार है। स्वयं सेवी संगठन भी मदद को आगे आए हैं।
धरती के स्वर्ग की वैभव बहाली को सशस्त्र बल तेजी से राहत कार्य को अंजाम दे रहे हैं तो बाढ़ में फंसे लोगों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाया जा रहा है। राहत कार्य सुचारु रूप से चलें, इसके लिए आपदा निगरानी केन्द्र खोला गया है। संकट के इन क्षणों में केन्द्र और राज्य सरकार के साझा प्रयास सराहनीय हैं तो चुनौतियां भी कम नहीं हैं। जल प्रलय के कारण जम्मू-कश्मीर केवल पानी से ही नहीं बल्कि चहुंओर अन्य मुसीबतों से भी घिरा हुआ है। बाढ़ का पानी तो उतर रहा है पर जनजीवन सामान्य होने में वक्त लगेगा। विस्थापितों का पुनर्वास, भूस्खलन में नष्ट हुए गांवों का पुन: विस्थापन, बारिश के बाद सम्भावित महामारी के खतरे से निपटने के साथ  बिजली, दूरसंचार, यातायात आदि व्यवस्थाएं बहाल करना काफी चुनौतीपूर्ण काम है। सच कहें तो यह काम राज्य सरकार अपने बूते नहीं सकती। कश्मीर को इन तमाम मुश्किलों से निजात दिलाने में मोदी सरकार को हर मुमकिन मदद करनी होगी।
जम्मू-कश्मीर में रोजगार का एक बड़ा जरिया पर्यटन उद्योग है, जो जल प्रलय से पूरी तरह चौपट हो गया है। इसे शीघ्रातिशीघ्र पटरी पर न लाया गया तो यहां रोजगार का गहरा संकट पैदा हो जाएगा। जम्मू-कश्मीर सुरक्षा के लिहाज से बेहद संवेदनशील राज्य है। यहां पाकिस्तान से अक्सर घुसपैठ होती है। आतंकी हमेशा सीमा पार करने की फिराक में रहते हैं। इस अवसर का लाभ वे किसी सूरत में न उठा पाएं इस पर सुरक्षा बलों को कश्मीरियों की मदद के साथ चौकसी रखनी होगी। पिछले कुछ वर्षों में जम्मू-कश्मीर की आंतरिक स्थिति भी पेंचीदा रही है। सरकार पर अविश्वास का भाव यहां दशकों से जड़ें जमाए है। बाढ़ का पानी उतरने के बाद यहां कानून-व्यवस्था की समस्या भी खड़ी होने से इंकार नहीं किया जा सकता। कश्मीर की ताजा तबाही ने आपदा प्रबंधन की हमारी खामियों की तरफ ध्यान दिलाने के साथ ही पर्यावरण से जुड़े कुछ सबक भी दिए हैं। सवा साल पहले उत्तराखण्ड में प्रलय के बाद अब एक और हिमालयी राज्य में प्रकृति का ताण्डव खतरे का ही संकेत है। आज नदियों-झीलों के किनारे अतिक्रमण, तटीय क्षेत्रों को कचरे से पाटने और जंगलों की अंधाधुंध कटाई, पारिस्थितिकी के लिहाज से नाजुक क्षेत्रों में खुदाई तथा भूस्खलन क्षेत्रों में लगातार सड़कों का निर्माण गहरी चिन्ता पैदा कर रहे हैं। नदियों और झीलों का सिकुड़ना अच्छी बात नहीं है। माना कि बाढ़ से बचाव को तटबंध बनाए जाते हैं, पर ये मामूली बाढ़ से राहत तो दे सकते हैं लेकिन अप्रत्याशित बाढ़ का मुकाबला करना कतई सम्भव नहीं है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम में तीव्र उतार-चढ़ाव लम्बे समय से देखा जा रहा है। इसे हम जम्मू-कश्मीर से पहले उत्तराखण्ड, उससे पहले मुम्बई, सूरत और बीकानेर में भी देख चुके हैं। भारत विकास मोह का शिकार है, यहां हर नेक पहल राजनीतिज्ञों के नफा-नुकसान से चलती है। यही वजह है कि नदियों के तटीय नियमन अधिनियम की 1982 की अधिसूचना आज तक लागू नहीं हो सकी और केन्द्रीय जल आयोग की सिफारिशें भी धूल फांक रही हैं। संकट की इस घड़ी में देशवासियों की बेपनाह मोहब्बत से जहां कश्मीरियों का दर्द कम हुआ है वहीं आतंकवाद भी सहमा है। 

Thursday, 11 September 2014

जो मारे सो मीर

63 साल बाद भी नहीं टूटा स्वर्ण पदकों का रिकॉर्ड
भारत युवाओं का देश है। प्रतिभा से सराबोर हिन्दुस्तान ने आजादी के 67 वर्षों में कई नए आयाम और प्रतिमान स्थापित किए हैं। दुनिया हमारे युवाओं की काबिलियत की मुक्तकंठ से सराहना कर रही है पर खेलों में हमारा लचर प्रदर्शन और आंकड़े यही साबित करते हैं कि इस दिशा में किए गए सारे प्रयास अकारथ हैं। आजादी की सांस लेने के बाद दिल्ली में चार से 11 मार्च,1951 को हुए पहले एशियाई खेलों में हमारे जांबाज खिलाड़ियों ने बिना विदेशी प्रशिक्षक जब 15 स्वर्ण, 16 रजत, 20 कांसे के तमगों के साथ 51 फलक अपनी झोली में डाले तब लगा था कि खेलों में भी हमारा भविष्य सुखद है। अपने दर्शकों और अपने मैदानों पर पहले एशियाई खेलों में 11 मुल्कों के 489 खिलाड़ियों के सामने भारतीय खिलाड़ियों ने जिस खेल कौशल का परिचय दिया था उसकी आज एक झलक भी नहीं दिख रही। एशियाई खेलों का आगाज हुए 63 साल हो गये लेकिन 1951 में भारतीय खिलाड़ियों द्वारा स्थापित 15 स्वर्ण पदकों का कीर्तिमान आज भी अटूट है।
एशियाई खेलों के अभ्युदय के 63 साल बाद जहां छोटे-छोटे मुल्क नित नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं वहीं खेलों के नाम पर अरबों रुपये निसार करने वाला भारत श्रेष्ठता की जंग में बार-बार मात खा रहा है। भारत का खेलों में पिद्दी प्रदर्शन इस बात का सूचक है कि इस दिशा में पारदर्शिता बरतने की बजाय खेल बेजा हाथों में सौंप दिए गए। भारत हमेशा अच्छा मेजबान तो साबित हुआ लेकिन हमारे खिलाड़ी कभी भी फौलादी प्रदर्शन नहीं कर सके। हमारे खिलाड़ी जब भी किसी बड़ी खेल प्रतियोगिता में शिरकत करने जाते हैं, देश का हर खेलप्रेमी नाउम्मीदी में जीने लगता है। इसकी वजह खेलों में व्याप्त भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के साथ राजनीतिज्ञों की बेवजह की दखलंदाजी है। दक्षिण कोरिया के इंचियोन शहर में 19 सितम्बर से चार अक्टूबर तक होने जा रहे सत्रहवें एशियाई खेलों से पूर्व खिलाड़ियों और अनाड़ियों को लेकर भारतीय खेल मंत्रालय और भारतीय ओलम्पिक संघ के बीच जिस तरह तलवारें खिंचीं उससे  खिलाड़ियों का मनोबल टूटा है। जिस देश में खिलाड़ियों के चयन में पक्षपात, हद दर्जे की लापरवाही के साथ खिलाड़ियों की डाइट पर कमीशनबाजी होती हो वहां अच्छे नतीजे कैसे मिल सकते हैं? खेलों की सूरत और सीरत बदलने के नाम पर आजकल भारत में विदेशी प्रशिक्षकों की आवभगत की एक नई परम्परा शुरू हुई है। भारतीय खेल प्राधिकरण की कृपा से बीते तीन साल में 88 विदेशी प्रशिक्षकों पर भारत सरकार ने 2569.63 करोड़ रुपये खर्च किए हैं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही निकला। आर्थिक रूप से कमजोर भारत में पैसे की यह फिजूलखर्ची आखिर क्यों? भारत ने जब से विदेशी प्रशिक्षकों की सेवाएं ली हैं तब से प्रदर्शन में तो कोई बड़ा चमत्कार नहीं हुआ अलबत्ता हमारे खिलाड़ी डोपिंग के कुलक्षण का शिकार जरूर हुए हैं। बीते पांच साल में पांच सौ से अधिक खिलाड़ियों का डोपिंग में पकड़ा जाना न केवल शर्मनाक है बल्कि यह विदेशी प्रशिक्षकों का घिनौना षड्यंत्र भी है। हम जिन विदेशी प्रशिक्षकों पर अकूत पैसा जाया कर रहे हैं, उनकी जवाबदेही कभी तय नहीं की जाती। खेलों के हर बड़े आयोजन से पहले दावे-प्रतिदावे परवान चढ़ते हैं लेकिन पराजय के बाद बेशर्मी ओढ़ ली जाती है। भारत में बीमार खेलों की दवा तो हो रही है, पर मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। खिलाड़ियों की पराजय दर पराजय के बाद तो यह बीमारी लाइलाज सी हो गई है। हमारे मुल्क में प्रतिभाओं की कमी नहीं है बल्कि यहां सिस्टम खराब है। यहां तेली का काम तमोली से कराना फितरत बन गई है। भारत को यदि खेलों में तरक्की करनी है तो उसे सबसे पहले हर क्षेत्र से प्रतिभाओं की पड़ताल करने के साथ उन्हें प्रैक्टिस के साथ शुद्ध डाइट देनी होगी। देखने में आता है कि जवाबदेह लोग कमीशनखोरी के चक्कर में खिलाड़ियों के खानपान से समझौता करते हैं जोकि अनुचित है।
खिलाड़ियों को मिले शुद्ध डाइट: जया आचार्य
पीएफएस मार्केटिंग प्राइवेट लिमिटेड की मैनेजिंग डायरेक्टर जया आचार्य का कहना है कि भारत में एक से बढ़कर एक प्रतिभाएं हैं, पर उचित परवरिश के बिना वे समय से पहले ही दम तोड़ देती हैं। भारत में खेलों की खराब स्थिति के लिए प्र्राय: खिलाड़ियों को कसूरवार ठहराया जाता है, जोकि उचित नहीं है। खिलाड़ियों पर तोहमत लगाने से पहले उनके साथ क्या बर्ताव होता है, उस पर भी नजर डाली जानी चाहिए। खिलाड़ियों को अच्छी प्रैक्टिस के साथ हेल्दी डाइट, एनर्जेटिक फूड और अच्छे फूड सप्लीमेंट्स की भी आवश्यकता होती है, जोकि उन्हें नहीं मिलती। जब खिलाड़ी को शुद्ध डाइट ही नहीं मिलेगी तो भला वह भूखे पेट क्या खाक सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करेगा? हमारा खिलाड़ी प्रशिक्षक को भगवान मानता है, पर यही  भगवान हमारे खिलाड़ियों की जिंदगी से खेल रहे हैं। प्रशिक्षक पर विश्वास करना खिलाड़ियों के लिए उसी तरीके से अनिवार्य है जैसे कक्षा में बैठे शिष्यों का अपने गुरु के प्रति। एक होनहार छात्र वही करता है जो उसका गुरु बताए। फूड सप्लीमेंट्स खिलाड़ी अपने कोच से पूछ कर लेते हैं। बहुत से कोच खिलाड़ियों को सही राह दिखाते हैं, पर कुछ उन्हें अपने स्वार्थ के कारण सस्ते से सस्ते प्रोडक्ट्स को इम्पोर्टेड बताकर उन्हें नकली थमा कर असली का पैसा वसूल लेते हैं, जिसके कारण पहले तो खिलाड़ी डोपिंग में फंसकर अपना कैरियर बर्बाद करता है और बाद में अपना शरीर भी होम कर देता है। नकली फूड सप्लीमेंट्स के चलन से ही आज साई सेण्टरों के खिलाड़ी अनगिनत परेशानियों का शिकार हैं। खिलाड़ियों के फेफड़े और किडनी बर्बाद हो रहे हैं। यही वजह कि होनहार खिलाड़ी समय से पहले ही अपनी क्षमता खो देते हैं और उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता है।
इंचियोन में 516 भारतीय खिलाड़ी 28 खेलों में दिखाएंगे दमखम
दक्षिण कोरिया के इंचियोन शहर में होने जा रहे सत्रहवें एशियाई खेलों में भारत के 516 खिलाड़ी 28 खेलों में दमखम दिखाएंगे। पिछले एशियन खेलों में 609 खिलाड़ियों ने 35 खेलों में शिरकत करते हुए 65 पदक जीते थे। इस बार न सिर्फ खिलाड़ियों की संख्या में कटौती की गई है बल्कि खेल अधिकारियों की आरामतलबी पर भी मोदी सरकार चाबुक चलाया है। ग्वांगझू में 2010 में हुए एशियाई खेलों में जहां 324 अधिकारियों का दल गया था वहीं इस बार सिर्फ 163 कोचों को स्वीकृति मिली है। इंचियोन में 16 दिन तक चलने वाले एशियन खेलों में भारतीय खिलाड़ी एक्वाटिक्स (तैराकी), तीरंदाजी, एथलेटिक्स, बैडमिंटन, बास्केटबॉल, मुक्केबाजी, कैनोइंग एवं कयाकिंग, साइकिलिंग, घुड़सवारी, फुटबॉल, गोल्फ, जिम्नास्टिक, हैंडबाल, हॉकी, जूडो, कबड्डी, रोइंग, सेपकटकरा, निशानेबाजी, स्क्वैश, ताइक्वांडो, टेबल टेनिस, टेनिस, वालीबॉल, कुश्ती, वुशू, भारोत्तोलन और नौकायन में शिरकत करेंगे।
इन्होंने बढ़ाया भारत का मान
पीटी ऊषा- अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 101 पदक जीतने वाली भारत की उड़नपरी पीटी ऊषा ने एशियन खेलों में सर्वाधिक दस पदक जीते हैं जिनमें चार स्वर्ण और छह रजत पदक शामिल हैं। ऊषा ने 1986 के एशियन खेलों में चार स्वर्ण और एक रजत पदक जीतकर सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का तमगा हासिल किया था।
मिल्खा सिंह- उड़न सिख मिल्खा सिंह ने एशियन खेलों में चार स्वर्ण पदक जीते हैं। मिल्खा ने 1958 और 1962 के एशियन खेलों में दो-दो स्वर्ण पदक जीते थे।
जसपाल राणा- भारत के शूटर जसपाल राणा ने एशियन खेलों में चार स्वर्ण, दो रजत तथा दो कांस्य पदक जीते हैं।
सानिया मिर्जा- भारत की टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा एशियन खेलों में अब तर एक स्वर्ण, तीन रजत तथा दो कांस्य पदक जीत चुकी हैं।
ज्योतिर्मय सिकदर- ज्योतिर्मय सिकदर ने 1998 के एशियन खेलों में दो स्वर्ण पदक जीते थे।
एमडी बालसम्मा- एमडी बालसम्मा ने एशियन खेलों में दो स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है।
अंजू बॉबी जॉर्ज- लांगजम्पर अंजू बॉबी जॉर्ज ने इस विधा में एक स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है।
मनजीत कौर- एथलीट मनजीत कौर के नाम दो स्वर्ण और एक रजत पदक है।
अश्वनी अकुंजी- एथलीट अश्वनी अकुंजी ने ग्वांगझू एशियन खेलों में दो स्वर्ण पदक जीते थे। इस बार भी भारत को उनसे अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है।
श्रीराम सिंह- एशियन खेलों में श्रीराम सिंह ने दो स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है।
महिलाओं का पहला स्वर्ण कमलजीत के नाम
एशियन खेलों में अब तक 51 भारतीय खिलाड़ी एक या उससे अधिक स्वर्ण पदक जीत चुके हैं। महिलाओं की जहां तक बात है इन खेलों में पहला स्वर्ण पदक जीतने का श्रेय कमलजीत संधू को जाता है। कमलजीत ने 1970 के बैंकाक एशियन खेलों में 400 मीटर दौड़ का पहला स्वर्ण पदक जीता था।

Wednesday, 10 September 2014

जो मारे सो मीर

63 साल बाद भी नहीं टूटा स्वर्ण पदकों का रिकॉर्ड
भारत युवाओं का देश है। प्रतिभा से सराबोर हिन्दुस्तान ने आजादी के 67 वर्षों में कई नए आयाम और प्रतिमान स्थापित किए हैं। दुनिया हमारे युवाओं की काबिलियत की मुक्तकंठ से सराहना कर रही है पर खेलों में हमारा लचर प्रदर्शन और आंकड़े यही साबित करते हैं कि इस दिशा में किए गए सारे प्रयास अकारथ हैं। आजादी की सांस लेने के बाद दिल्ली में चार से 11 मार्च,1951 को हुए पहले एशियाई खेलों में हमारे जांबाज खिलाड़ियों ने बिना विदेशी प्रशिक्षक जब 15 स्वर्ण, 16 रजत, 20 कांसे के तमगों के साथ 51 फलक अपनी झोली में डाले तब लगा था कि खेलों में भी हमारा भविष्य सुखद है। अपने दर्शकों और अपने मैदानों पर पहले एशियाई खेलों में 11 मुल्कों के 489 खिलाड़ियों के सामने भारतीय खिलाड़ियों ने जिस खेल कौशल का परिचय दिया था उसकी आज एक झलक भी नहीं दिख रही। एशियाई खेलों का आगाज हुए 63 साल हो गये लेकिन 1951 में भारतीय खिलाड़ियों द्वारा स्थापित 15 स्वर्ण पदकों का कीर्तिमान आज भी अटूट है।
एशियाई खेलों के अभ्युदय के 63 साल बाद जहां छोटे-छोटे मुल्क नित नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं वहीं खेलों के नाम पर अरबों रुपये निसार करने वाला भारत श्रेष्ठता की जंग में बार-बार मात खा रहा है। भारत का खेलों में पिद्दी प्रदर्शन इस बात का सूचक है कि इस दिशा में पारदर्शिता बरतने की बजाय खेल बेजा हाथों में सौंप दिए गए। भारत हमेशा अच्छा मेजबान तो साबित हुआ लेकिन हमारे खिलाड़ी कभी भी फौलादी प्रदर्शन नहीं कर सके। हमारे खिलाड़ी जब भी किसी बड़ी खेल प्रतियोगिता में शिरकत करने जाते हैं, देश का हर खेलप्रेमी नाउम्मीदी में जीने लगता है। इसकी वजह खेलों में व्याप्त भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के साथ राजनीतिज्ञों की बेवजह की दखलंदाजी है। दक्षिण कोरिया के इंचियोन शहर में 19 सितम्बर से चार अक्टूबर तक होने जा रहे सत्रहवें एशियाई खेलों से पूर्व खिलाड़ियों और अनाड़ियों को लेकर भारतीय खेल मंत्रालय और भारतीय ओलम्पिक संघ के बीच जिस तरह तलवारें खिंचीं उससे  खिलाड़ियों का मनोबल टूटा है। जिस देश में खिलाड़ियों के चयन में पक्षपात, हद दर्जे की लापरवाही के साथ खिलाड़ियों की डाइट पर कमीशनबाजी होती हो वहां अच्छे नतीजे कैसे मिल सकते हैं? खेलों की सूरत और सीरत बदलने के नाम पर आजकल भारत में विदेशी प्रशिक्षकों की आवभगत की एक नई परम्परा शुरू हुई है। भारतीय खेल प्राधिकरण की कृपा से बीते तीन साल में 88 विदेशी प्रशिक्षकों पर भारत सरकार ने 2569.63 करोड़ रुपये खर्च किए हैं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही निकला। आर्थिक रूप से कमजोर भारत में पैसे की यह फिजूलखर्ची आखिर क्यों? भारत ने जब से विदेशी प्रशिक्षकों की सेवाएं ली हैं तब से प्रदर्शन में तो कोई बड़ा चमत्कार नहीं हुआ अलबत्ता हमारे खिलाड़ी डोपिंग के कुलक्षण का शिकार जरूर हुए हैं। बीते पांच साल में पांच सौ से अधिक खिलाड़ियों का डोपिंग में पकड़ा जाना न केवल शर्मनाक है बल्कि यह विदेशी प्रशिक्षकों का घिनौना षड्यंत्र भी है। हम जिन विदेशी प्रशिक्षकों पर अकूत पैसा जाया कर रहे हैं, उनकी जवाबदेही कभी तय नहीं की जाती। खेलों के हर बड़े आयोजन से पहले दावे-प्रतिदावे परवान चढ़ते हैं लेकिन पराजय के बाद बेशर्मी ओढ़ ली जाती है।
भारत में बीमार खेलों की दवा तो हो रही है, पर मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। खिलाड़ियों की पराजय दर पराजय के बाद तो यह बीमारी लाइलाज सी हो गई है। हमारे मुल्क में प्रतिभाओं की कमी नहीं है बल्कि यहां सिस्टम खराब है। यहां तेली का काम तमोली से कराना फितरत बन गई है। हमारा खिलाड़ी प्रशिक्षक को भगवान मानता है, पर यही  भगवान हमारे खिलाड़ियों की जिंदगी से खेल रहे हैं। प्रशिक्षक पर विश्वास करना खिलाड़ियों के लिए उसी तरीके से अनिवार्य है जैसे कक्षा में बैठे शिष्यों का अपने गुरु के प्रति। एक होनहार छात्र वही करता है जो उसका गुरु बताए। दरअसल खिलाड़ियों को अच्छी प्रैक्टिस के साथ हेल्दी डाइट, एनर्जेटिक फूड और अच्छे फूड सप्लीमेंट्स की भी आवश्यकता होती है। जोकि खिलाड़ी अपने कोच से पूछ कर लेते हैं। बहुत से कोच खिलाड़ियों को सही राह दिखाते हैं, पर कुछ उन्हें अपने स्वार्थ के कारण सस्ते से सस्ते प्रोडक्ट्स को इम्पोर्टेड बताकर उन्हें नकली थमा कर असली का पैसा वसूल लेते हैं, जिसके कारण पहले तो खिलाड़ी डोपिंग में फंसकर अपना कैरियर बर्बाद करता है और बाद में अपना शरीर भी होम कर देता है। नकली फूड सप्लीमेंट्स के चलन से ही आज साई सेण्टरों के खिलाड़ी अनगिनत परेशानियों का शिकार हैं। खिलाड़ियों के फेफड़े और किडनी बर्बाद हो रहे हैं। यही वजह कि होनहार खिलाड़ी समय से पहले ही अपनी क्षमता खो देते हैं और उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता है।
खिलाड़ियों को मिले शुद्ध डाइट: जया आचार्य
पीएफएस मार्केटिंग प्राइवेट लिमिटेड की मैनेजिंग डायरेक्टर जया आचार्य का कहना है कि भारत में एक से बढ़कर एक प्रतिभाएं हैं, पर उचित परवरिश के बिना वे समय से पहले ही दम तोड़ देती हैं। भारत में खेलों की खराब स्थिति के लिए प्र्राय: खिलाड़ियों को कसूरवार ठहराया जाता है, जोकि उचित नहीं है। खिलाड़ियों पर तोहमत लगाने से पहले उनके साथ क्या बर्ताव होता है, उस पर भी नजर डाली जानी चाहिए। खिलाड़ियों को अच्छी प्रैक्टिस के साथ हेल्दी डाइट, एनर्जेटिक फूड और अच्छे फूड सप्लीमेंट्स की भी आवश्यकता होती है, जोकि उन्हें नहीं मिलती। जब खिलाड़ी को शुद्ध डाइट ही नहीं मिलेगी तो भला वह भूखे पेट क्या खाक सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करेगा? भारत को यदि खेलों में तरक्की करनी है तो उसे सबसे पहले हर क्षेत्र से प्रतिभाओं की पड़ताल करने के साथ उन्हें प्रैक्टिस के साथ शुद्ध डाइट देनी होगी। देखने में आता है कि जवाबदेह लोग कमीशनखोरी के चक्कर में खिलाड़ियों के खानपान से समझौता करते हैं जोकि अनुचित है।
इंचियोन में 516 भारतीय खिलाड़ी 28 खेलों में दिखाएंगे दमखम
दक्षिण कोरिया के इंचियोन शहर में होने जा रहे सत्रहवें एशियाई खेलों में भारत के 516 खिलाड़ी 28 खेलों में दमखम दिखाएंगे। पिछले एशियन खेलों में 609 खिलाड़ियों ने 35 खेलों में शिरकत करते हुए 65 पदक जीते थे। इस बार न सिर्फ खिलाड़ियों की संख्या में कटौती की गई है बल्कि खेल अधिकारियों की आरामतलबी पर भी मोदी सरकार चाबुक चलाया है। ग्वांगझू में 2010 में हुए एशियाई खेलों में जहां 324 अधिकारियों का दल गया था वहीं इस बार सिर्फ 163 कोचों को स्वीकृति मिली है। इंचियोन में 16 दिन तक चलने वाले एशियन खेलों में भारतीय खिलाड़ी एक्वाटिक्स (तैराकी), तीरंदाजी, एथलेटिक्स, बैडमिंटन, बास्केटबॉल, मुक्केबाजी, कैनोइंग एवं कयाकिंग, साइकिलिंग, घुड़सवारी, फुटबॉल, गोल्फ, जिम्नास्टिक, हैंडबाल, हॉकी, जूडो, कबड्डी, रोइंग, सेपकटकरा, निशानेबाजी, स्क्वैश, ताइक्वांडो, टेबल टेनिस, टेनिस, वालीबॉल, कुश्ती, वुशू, भारोत्तोलन और नौकायन में शिरकत करेंगे।
इन्होंने बढ़ाया भारत का मान
पीटी ऊषा- अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 101 पदक जीतने वाली भारत की उड़नपरी पीटी ऊषा ने एशियन खेलों में सर्वाधिक दस पदक जीते हैं जिनमें चार स्वर्ण और छह रजत पदक शामिल हैं। ऊषा ने 1986 के एशियन खेलों में चार स्वर्ण और एक रजत पदक जीतकर सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का तमगा हासिल किया था।
मिल्खा सिंह- उड़न सिख मिल्खा सिंह ने एशियन खेलों में चार स्वर्ण पदक जीते हैं। मिल्खा ने 1958 और 1962 के एशियन खेलों में दो-दो स्वर्ण पदक जीते थे।
जसपाल राणा- भारत के शूटर जसपाल राणा ने एशियन खेलों में चार स्वर्ण, दो रजत तथा दो कांस्य पदक जीते हैं।
सानिया मिर्जा- भारत की टेनिस सनसनी सानिया मिर्जा एशियन खेलों में अब तर एक स्वर्ण, तीन रजत तथा दो कांस्य पदक जीत चुकी हैं। इंचियोन में भी भारत को उनसे बहुत उम्मीदें हैं।
ज्योतिर्मय सिकदर- ज्योतिर्मय सिकदर ने 1998 के एशियन खेलों में दो स्वर्ण पदक जीते थे।
एमडी बालसम्मा- एमडी बालसम्मा ने एशियन खेलों में दो स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है।
अंजू बॉबी जॉर्ज- लांगजम्पर अंजू बॉबी जॉर्ज ने इस विधा में एक स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है।
मनजीत कौर- एथलीट मनजीत कौर के नाम दो स्वर्ण और एक रजत पदक है।
अश्वनी अकुंजी- एथलीट अश्वनी अकुंजी ने ग्वांगझू एशियन खेलों में दो स्वर्ण पदक जीते थे। इस बार भी भारत को उनसे अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है।
श्रीराम सिंह- एशियन खेलों में श्रीराम सिंह ने दो स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है।
महिलाओं का पहला स्वर्ण कमलजीत के नाम
एशियन खेलों में अब तक 51 भारतीय खिलाड़ी एक या उससे अधिक स्वर्ण पदक जीत चुके हैं। महिलाओं की जहां तक बात है इन खेलों में पहला स्वर्ण पदक जीतने का श्रेय कमलजीत संधू को जाता है। कमलजीत ने 1970 के बैंकाक एशियन खेलों में 400 मीटर दौड़ का पहला स्वर्ण पदक जीता था।
एशियाड में भारत का प्रदर्शन
वर्ष स्वर्ण रजत कांस्य कुल
1951 15 16 20 51
1954 05 04 08 17
1958 05 04 04 13
1962 10 13 10 33
1966 07 03 11 21
1970 06 09 10 25
1974 04 12 12 28
1978 11 11 06 28
1982 13 19 25 57
1986 05 09 23 37
1990 01 08 14 23
1994 04 03 16 23
1998 07 11 17 35
2002 11 12 13 36
2006 10 17 26 53
2010 14 17 34 65
............................................................
कुल-16 128 168 249 545

एशियाड में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनकारी देश
देश स्वर्ण रजत कांस्य कुल
चीन 1119 792 570 2553
जापान 0910 904 836 2650
द. कोरिया 617 535 677 1829
ईरान 138 143 157 438
भारत 128 168 249 545
कजाकिस्तान 112 118 167 397
थाईलैण्ड 109 152 205 466
उ. कोरिया 087 121 152 360
चीनी ताइपे 072 107 222 401
फिलीपींस 062 109 204 375
............................................................................
भारत ने किस खेल में जीते कितने पदक
खेल स्वर्ण रजत कांस्य कुल
एथलेटिक्स 70 73 76 219
कुश्ती 08 13 30 51
मुक्केबाजी 07 15 26 48
टेनिस 07 05 12 24
कबड्डी 07 00 00 07
क्यू स्पोर्ट्स 05 04 06 15
निशानेबाजी 04 15 22 41
हॉकी 03 10 04 17
गोल्फ 03 02 00 05
तलवारबाजी 03 01 06 10
डाइविंग 02 01 02 05
शतरंज 02 00 02 04
फुटबाल 02 00 01 03
रोविंग 01 07 08 16
तैराकी 01 01 05 07
वाटरपोलो 01 01 01 03
भारोत्तोलन 00 05 10 15
सेलिंग 00 04 08 12
तीरंदाजी 00 01 02 03
साइकिलिंग 00 01 02 03
वॉलीबाल 00 01 02 03
वुशू 00 01 02 03
बैडमिंटन 00 00 07 07
जूडो 00 00 05 05
स्क्वैश 00 00 04 04
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Sunday, 7 September 2014

हिटलर का हीरो, कैप्टन रूप सिंह

दुनिया को अपनी स्टिक से सम्मोहित करने वाले महान हॉकी योद्धा, रिंग मास्टर, अचूक स्कोरर कैप्टन रूप सिंह को बेशक दुनिया भूल चुकी हो पर तानाशाह रुडोल्फ हिटलर के मुल्क में आज भी उनकी अमरगाथा पढ़ी और सुनी जाती है। हॉकी के जादूगर दद्दा ध्यानचंद के अनुज कैप्टन रूप सिंह आज ही के दिन आठ सितम्बर, 1908  को मध्यप्रदेश के जबलपुर में सोमेश्वर सिंह के घर जन्मे थे। इनकी शिक्षा-दीक्षा उत्तर प्रदेश के झांसी शहर में हुई और यहीं उन्होंने हीरोज मैदान में अपने बड़े भाई से हॉकी की वर्णमाला सीखी थी। बिना गुरु के इस अप्रतिम हॉकी खिलाड़ी ने इस खेल को न केवल दिल से खेला बल्कि गुलाम भारत को दो बार (1932 और 1936 में) ओलम्पिक का स्वर्ण मुकुट भी पहनाया। इन दोनों ही अवसरों पर हॉकी के जादूगर अपने अग्रज ध्यानचंद के होते हुए भी वह ओलम्पिक के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी घोषित हुए।
हॉकी मैदान का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था जहां रूप सिंह खेल नहीं सकते थे। यह खूबी तो इस खेल के जादूगर कहे जाने वाले ध्यानचंद में भी नहीं थी।  गाहे-बगाहे दद्दा स्वयं भी कहते थे कि रूप सिंह हमसे बड़ा खिलाड़ी है। झांसी में शिक्षा ग्रहण करने के बाद कैप्टन रूप सिंह 1930 में ग्वालियर आ गये और इनकी काबिलियत व उम्दा खेल ने इन्हें सिंधिया परिवार की आंखों का नूर बना दिया। सोमेश्वर के परिवार ने खेल को धर्म और विजय को प्रसाद माना यही कारण है कि इस परिवार में जो भी जन्मा खिलाड़ी के रूप में ही जन्मा। एक समय तो ऐसा भी आया जब इस परिवार के पास हॉकी की मुकम्मल टीम थी। हॉकी में संसारपुर गांव और सोमेश्वर सिंह का परिवार एक-दूसरे के पूरक हैं। सच कहें तो हॉकी की धर्म संसद दद्दा ध्यानचंद और रूप सिंह के बिना पूरी नहीं होती। दद्दा जहां उच्चकोटि के हमलावर थे वहीं कैप्टन रूप सिंह इस खेल के महान योद्धा। सच कहें तो ओलम्पिक के आंकड़े रूप सिंह को सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनकारी साबित करते हैं।
मुल्क में हॉकी की जब भी बात होती है दद्दा ध्यानचंद ही लोगों को याद आते हैं। न जाने लोग क्यों उस महायोद्धा को भूल जाते हैं जिसने 15 अगस्त, 1936 को आततायी हिटलर का भी दिल जीत लिया था। इतिहास कुछ भी कहे पर सच यह है कि हिटलर ने दद्दा ध्यानचंद को नहीं बल्कि उस दिन रूप सिंह को जर्मनी में नौकरी का प्रलोभन दिया था। जर्मनी का 8-1 से मानमर्दन करने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि तानाशाही का प्रतिमान हिटलर विजय समारोह में शायद ही हिस्सा ले। लोग परेशान थे कि कहीं हिटलर भारतीय टीम को सोने के तमगे पहनाने से इंकार न कर दे। वह कुछ भी कर सकता था लेकिन उस दिन उसने अपनी देशभक्ति को ताक पर रख हिन्दुस्तान के जांबाज रूप सिंह को गले लगा लिया था। बर्लिन की उस शाम को हिटलर जहां ध्यानचंद को सोने का तमगा पहना रहा था वहीं दूसरी तरफ वह रूप सिंह की वाहवाही करता यह भी कह रहा था कि रूप सिंह तुम विलक्षण हो, तुम सा हॉकी महायोद्धा नहीं देखा। उस दिन एक तरफ भारतीय पलटन मुस्करा रही थी तो दूसरी तरफ असहाय जर्मन टीम पराजय के आंसू बहाती दिखी। जर्मनी पर 8-1 की विजय में रूप सिंह ने चार तो ध्यानचंद ने तीन गोल किये थे। उस ओलम्पिक में ध्यान और रूप की जोड़ी ने 11-11 गोल किये थे पर सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का सम्मान रूप सिंह को ही मिला था।
1932 के ओलम्पिक में भी ध्यान और रूप की जोड़ी जमकर खेली थी और भारत को स्वर्ण मुकुट पहनाया था पर प्रतियोगिता में 13 गोल करने वाले रूप सिंह ही सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी रहे। उस ओलम्पिक में अमेरिका पर 24-1 की ऐतिहासिक जीत में कैप्टन रूप सिंह ने 12, ध्यानचंद ने सात तो गुरमीत सिंह ने तीन गोल किए थे। अफसोस इस मुकाबले की जब भी बात होती है रूप सिंह के एक दर्जन गोलों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। हॉकी के महायोद्धा कैप्टन रूप सिंह को देश में जो सम्मान मिलना चाहिए वह आज तक नहीं मिला। कैप्टन रूप सिंह सिर्फ हॉकी ही नहीं बल्कि क्रिकेट और लॉन टेनिस के भी अच्छे खिलाड़ी रहे हैं। 1946 में उन्होंने ग्वालियर स्टेट की तरफ से दिल्ली के खिलाफ रणजी ट्राफी मैच भी खेला था। देश के खेलनहार बेशक कैप्टन रूप सिंह को भूल चुके हों पर जर्मनी के म्यूनिख शहर में कैप्टन रूप सिंह मार्ग इस विलक्षण हॉकी खिलाड़ी की आज भी याद दिलाता है। कैप्टन रूप सिंह दुनिया के पहले ऐसे खिलाड़ी हैं जिनके नाम ग्वालियर में फ्लड लाइटयुक्त क्रिकेट का मैदान है। हॉकी में ध्यान और रूप दोनों बेजोड़ थे। ध्यानचंद दिमाग तो रूप सिंह दिल से हॉकी खेलते थे। एक कोख के इन सपूतों ने हॉकी में बेशक देश को अपना सर्वस्व दिया हो पर ओलम्पिक के हीरो रूप सिंह को कुछ भी नहीं मिला। गुरबत में जीते आखिर रूप सिंह ने 16 दिसम्बर, 1977 को आंखें मूद लीं। 

Saturday, 6 September 2014

एशियाड में इतिहास दोहराएंगे भारतीय एथलीट: सुमरीवाला

पदक के प्रबल दावेदारों में अरपिन्दर सिंह, विकास गौड़ा, सुधा सिंह, टिटू लुंका, मयूखा जॉनी,  जोसेफ अब्राहम, अश्विनी अकुंजी, प्रीजा श्रीधरन शामिल
आगरा। दक्षिण कोरिया के इंचियोन शहर में 19 सितम्बर से चार अक्टूबर तक होने जा रहे सत्रहवें एशियाई खेलों में 56 सदस्यीय भारतीय एथलीट दल ग्वांगझू का इतिहास दोहराने को बेताब होगा। 2010 में हुए ग्वांगझू एशियाई खेलों में भारतीय एथलीटों ने पांच स्वर्ण, दो रजत और पांच कांस्य पदकों सहित कुल एक दर्जन पदक जीते थे। इस बार पदक के  प्रबल दावेदारों में अरपिन्दर सिंह, विकास गौड़ा, सीमा पूनिया, कृष्णा पूनिया, सुधा सिंह, टिंटू लुका, एमआर पूवम्मा, मयूखा जॉनी, जोसेफ अब्राहम, अश्विनी अकुंजी और प्रीजा श्रीधरन आदि शामिल हैं।
इंचियोन जा रहे 56 सदस्यीय भारतीय एथलेटिक्स दल में 26 पुरुष और 30 महिला एथलीट शामिल हैं। एशियाई खेलों की जहां तक बात है भारतीय एथलीटों ने हमेशा ही बेहतर प्रदर्शन किया है। 1951 से अब तक हुए 16 एशियाई खेलों में भारतीय खिलाड़ियों ने 128 स्वर्ण, 168 रजत तथा 249 कांस्य पदक जीते हैं। इनमें भारतीय एथलीटों के नाम 70 स्वर्ण, 73 रजत तथा 76 कांस्य पदक दर्ज हैं। इंचियोन एशियाई खेलों में भारतीय खिलाड़ियों को भेजे जाने को लेकर फिलहाल भारतीय खेल मंत्रालय और भारतीय खेल प्राधिकरण के बीच नूरा-कुश्ती चल रही है। इसका पटाक्षेप होने में जितना विलम्ब होगा उसका असर खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर पड़ने से इंकार नहीं किया जा सकता। भारतीय एथलेटिक्स महासंघ के अध्यक्ष आदिल जे. सुमरीवाला ने पुष्प सवेरा से दूरभाष पर हुई बातचीत में बताया कि बेहतर होता कि जिन खिलाड़ियों से पदक की उम्मीद है उन्हें एक पखवाड़े पहले ही इंचियोन भेज दिया जाता। श्री सुमरीवाला का कहना कि यह मसला खेदजनक है। बकौल सुमरीवाला मैं नहीं चाहता कि हर खिलाड़ी भेजा जाए पर जिनसे अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है, उन्हें भेजा जाना जरूरी है। खिलाड़ियों के पहले खेल गांव पहुंच जाने से उन्हें मौसम और अन्य स्थितियों से तारतम्य बिठाने में मदद मिलती है।
भारतीय एथलीटों के प्रदर्शन पर सुमरीवाला ने कहा कि उम्मीद है कि हमारे एथलीट ग्वांगझू की सफलता को जरूर दोहराएंगे। एक-दो पदकों में इजाफा भी हो सकता है। एथलेटिक्स में भारतीय प्रदर्शन की जहां तक बात है इस बार महिलाओं से डिस्कस थ्रो, लम्बीकूद, 400 मीटर, 800 मीटर, 1500 मीटर, 5000 मीटर दौड़, 3000 मीटर स्टिपलचेज सहित चार गुणा 400 और चार गुणा 100 मीटर रिले दौड़ में पदक की उम्मीद है वहीं पुरुष खिलाड़ी 800 मीटर दौड़, 20 किलोमीटर पैदल चाल, चार गुणा 400 मीटर रिले दौड़, ट्रिपल जम्प, शॉटपुट, जेबलिन थ्रो, डिस्कस थ्रो में पदक के प्रबल दावेदार हैं। पिछले महीने पटियाला में हुई सीनियर एथलेटिक्स चैम्पियनशिप की 110 मीटर बाधा दौड़ में स्वर्ण पदक जीतने वाले सिद्धांत थिंगालया, चक्का फेंक एथलीट कृष्णा पूनिया, 400 मीटर की धाविका एमआर पूवम्मा भी पदक के दावेदारों में शामिल हैं। एशियाई खेल 2010 की स्वर्ण पदक विजेता सुधा सिंह (महिलाओं की 3000 मीटर स्टिपलचेज), जोसेफ अब्राहम (पुरुषों की 400 मीटर बाधा दौड़) अश्विनी अंकुजी (महिलाओं की 400 मीटर बाधा दौड़) और प्रीजा श्रीधरन (महिलाओं की 10,000 मीटर दौड़) से भी भारत को काफी उम्मीदें हैं।
एशियाई खेलों में इन एथलीटों पर होगा दारोमदार
 पुरुष:- 400 मीटर दौड़- के. मोहम्मद, अरोकिया राजीव, 800 मीटर दौड़- सजीश जोसेफ, 5000 मीटर दौड़- खेताराम, सुरेश कुमार पटेल, 10000 मीटर दौड़- राहुल कुमार पाल, 3000 मीटर स्टिपलचेज- नवीन कुमार, 110 मीटर बाधा दौड़- जितिन पाल, जोसेफ अब्राहम, ऊंची कूद- निखिल चित्रांसु, त्रिकूद- अरपिन्दर सिंह, रंजीत माहेश्वरी, गोला फेंक- इंदरजीत, ओमप्रकाश करहाना, चक्का फेंक- विकास गौड़ा, तार गोला फेंक- चंद्रोदय नारायण सिंह, भाला फेंक- राजिंदर सिंह, 20 किलोमीटर पैदल चाल- केटी इरफान, के. गणपति, 50 किलोमीटर पैदल चाल- संदीप कुमार, बसंत बहादुर राणा, चार गुणा 400 मीटर रिले- के. मोहम्मद, अरोकिया राजीव, जिबिन सेबेस्टियन, केजे अरुण, जीतू बेबी, संदीप।
महिला:- 100 मीटर दौड़- शारदा नारायण, 200 मीटर दौड़ आशा राय, श्रावणी नंदा, 400 मीटर दौड़- एमआर पूवम्मा, 800 मीटर दौड़ टिंटू लुका, सुषमा देवी, 1500 मीटर दौड़- ओपी जैशा, सिनी ए मार्कोस, 5000 मीटर दौड़- ओपी जैशा, प्रीजा श्रीधरन, 10000 मीटर दौड़- प्रीजा श्रीधरन, 3000 मीटर स्टिपलचेज- ललिता बब्बर, सुधा सिंह, 400 मीटर बाधा दौड़- अश्विनी अकुंजी, ऊंची कूद- सहाना कुमारी, लम्बी कूद- एमए प्रजूषा, मयूखा जॉनी, त्रिकूद- एमए प्रजूषा, मयूखा जॉनी, चक्का फेंक- सीमा पूनिया, कृष्णा पूनिया, तार गोला फेंक- मंजू बाला, भाला फेंक- अन्नू रानी, हेप्टाथलान- सुष्मिता सिंघा राय, स्वप्ना बर्मन, 20 किलोमीटर पैदल चाल- खुशबीर कौर, चार गुणा 100 मीटर रिले- श्रावणी नंदा, आशा राय, मर्लिन के जोसेफ, सिनी एस, शांतनी वी, एचएम ज्योति, चार गुणा 400 मीटर रिले- एमआर पूवम्मा, प्रियंका पवार, देबाश्री मजूमदार, मनदीप कौर, अश्विनी अकुंजी, आर्या सी।
खींचतान से मुल्क का ही नुकसान
भारतीय एथलेटिक्स महासंघ के अध्यक्ष आदिल जे. सुमरीवाला ने पुष्प सवेरा से दूरभाष पर हुई बातचीत में बताया कि काश भारतीय एथलीटों को इंचियोन एक पखवाड़े पहले भेजा जाता। श्री सुमरीवाला को विदेशी प्रशिक्षकों की सेवाएं देर से मिलने का भी मलाल है। सुमरीवाला का कहना है कि खेलों में फर्जीवाड़े की जो बातें आज हो रही हैं, इनका समाधान बहुत पहले ही निकाल लिया जाना चाहिए। जब खेल सिर पर हों ऐसे समय बेवजह की खींचतान से मुल्क का ही नुकसान होगा।
एशियाई खेलों में ओवर आॅल भारत का प्रदर्शन
स्वर्ण रजत कांस्य कुल
128 168 249 545
एशियाई खेलों में भारतीय एथलीटों का प्रदर्शन
स्वर्ण रजत कांस्य कुल
70 73 76 219
ग्वांगझू एशियाई खेल 2010 में भारतीय प्रदर्शन
स्वर्ण रजत कांस्य कुल
14 17 34 65
ग्वांगझू एशियाई खेलों में एथलीटों का प्रदर्शन
स्वर्ण रजत कांस्य कुल
05 02 05 12

Friday, 5 September 2014

एशियाड पर कलह का ग्रहण

भारत उम्मीदों में जीता देश है। यही वजह है कि यहां उम्मीद कभीनहीं मरती। एशियाई खेल सिर पर हैं लिहाजा उम्मीदों का चिराग एक बार फिर टिमटिमाने लगा है। 19 सितम्बर से चार अक्टूबर तक दक्षिण कोरिया के इंचियोन शहर में सत्रहवें एशियाई खेल होने जा रहे हैं। इन खेलों में हमारे कितने खिलाड़ी किस खेल में पौरुष दिखाएंगे इसको लेकर अभी तक फैसला नहीं हो सका है। एशियाई खेलों से ठीक पहले भारतीय खेल प्राधिकरण और भारतीय खेल मंत्रालय के बीच नूरा-कुश्ती जारी  है। भारतीय खेल प्राधिकरण हमेशा की तरह बड़े दल और बेजा खेलनहारों को साथ ले जाने की मुखालफत कर रहा है तो खेल मंत्रालय फिजूलखर्ची के खिलाफ है। भारतीय खेल प्राधिकरण ने मंत्रालय को 935 खिलाड़ियों और खेलनहारों की सूची सौंपी है जबकि खेल मंत्रालय सिर्फ 604 खिलाड़ियों को ही भेजना चाहता है। यह संख्या 2010 में ग्वांगझू में हुए एशियाई खेलों से भी अधिक है। तब भारत का 843 खिलाड़ियों का दल पौरुष दिखाने गया था और 65 जांबाज खिलाड़ियों ने ही पदकों से अपने गले सजाए थे। इस बार खिलाड़ियों की कमजोर तैयारी और नामचीन खिलाड़ियों की खराब फार्म उम्मीदों पर तुषारापात कर सकती है।
भारतीय खेलों का इतिहास जांबाज खिलाड़ियों के हैरतअंगेज कारनामों से भरा पड़ा है लेकिन इतिहास के महान खिलाड़ियों की अमरगाथा और उनके जीवंतता भरे प्रदर्शन की दुहाई देने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि मैदान में इतिहास नहीं खेला करता। मुकाबला चाहे खेल मैदान का हो या फिर जंग के मैदान का, जीत के लिए जो सब कुछ दांव पर लगाता है वही सिकंदर कहलाता है। आज हमारे पास न तो मिल्खा सिंह सा जांबाज एथलीट है और न ही पीटी ऊषा जैसी उड़नपरी जिस पर हम शर्तियां दांव लगा सकें। देखा जाए तो जिस तरह भारतीय लोकतंत्र पर वंशवाद की बेल दिनोंदिन फैलती जा रही है कमोबेश उसी तरह खेलों में भी भाई-भतीजावाद व्यापक स्तर पर अपनी पैठ बना चुका है। दक्षिण कोरिया में होने जा रहे एशियाई खेलों में ऐसे खिलाड़ी भी शिरकत करने की जुगत में हैं जिनका प्रदर्शन अंतरराष्ट्रीय मानक पर खरा नहीं उतरता। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा बल्कि भारतीय खेलों में यह अर्से से चल रहा है। बेजा खिलाड़ी तो खिलाड़ी खेलों के नाम पर भारतीय ओलम्पिक संघ और खेल संघों के पदाधिकारी भी अपने बीवी-बच्चों तथा नाते-रिश्तेदारों को आरामतलबी कराने का कोई मौका जाया नहीं करते। भारत ने आजादी के 67 वर्षों में बेशक हर क्षेत्र में खूब तरक्की की हो पर खेलों का उद्धार नहीं हो सका। इसकी वजह, खेलों का अनाड़ियों के हाथों संचालित होना है। दरअसल, भारत में खेल संघों को राजनीतिज्ञों ने अपने बुरे वक्त का आरामगाह समझ रखा है। राजनीति में पटखनी खाने के बाद कई सफेदपोशों ने खेलों में अपने रसूख को भुनाया है। खेल-खिलाड़ियों के नाम पर प्रतिवर्ष अरबों रुपये का खेल बजट खिलाड़ियों की जगह खेलनहारों की आरामतलबी पर ही खर्च हो रहा है। दरअसल, यही आरामतलबी और देश-विदेश की यात्राएं राजनीतिज्ञों को खेल संघों से जुड़ने को लालायित करती हैं। भारतीय ओलम्पिक संघ तो सिर्फ एक उदाहरण है। देश के अधिकांश खेल संघों पर उन खेलनहारों का कब्जा है जिनके बाप-दादा भी कभी नहीं खेले। दक्षिण कोरिया का इंचियोन शहर एशियाई खेलों में कोई 70 देशों के 13,000 खिलाड़ियों के पौरुष का इम्तिहान लेने को तैयार है। भारतीय खिलाड़ी भी कमतर तैयारियों के बावजूद वहां जाना चाहते हैं। भारतीय खेल प्राधिकरण और खेल संघों के पदाधिकारी अपने और खिलाड़ियों के लिए खेल मंत्रालय पर हर तरह का दबाव बना रहे हैं पर खेल सचिव एएम शरण चाहते हैं कि इंचियोन वही खिलाड़ी जाएं जिनसे पदक की उम्मीद हो। श्री शरण ने 604 सदस्यीय दल को भेजने की सिफारिश की है। इनमें फुटबाल, हैण्डबाल, वालीबाल और तैराकी की महिला टीमों सहित 14 खेलों के खिलाड़ियों को पाबंद किया गया है। खेल मंत्रालय चाहता था कि तीन खिलाड़ियों पर एक पदक के आधार पर ही खिलाड़ी भेजे जाएं पर इस नियम से खिलाड़ियों की संख्या बहुत कम होने के चलते छह खिलाड़ियों पर एक पदक की बमुश्किल सहमति बन पाई। किसी बड़े खेल आयोजन से पूर्व खिलाड़ियों को भेजने या नहीं भेजने का विवाद देश में पहली दफा हो रहा है। खेल मंत्रालय अपनी जगह सही है, लेकिन खेलों का बंटाढार करने वाले मोदी सरकार पर खेल विरोधी होने की तोहमत लगाने से बाज नहीं आ रहे। एशियाई खेलों से पूर्व चर्चा तो प्रदर्शन की होनी चाहिए पर कोई भी खेलनहार यह दावा करने की स्थिति में नहीं है कि उसके खिलाड़ी चीन, जापान और कोरिया जैसे ताकतवर देशों के खिलाड़ियों को मुंहतोड़ जवाब देंगे। सच्चाई तो यह है कि इन खेलों में भारतीय खिलाड़ी यदि सर्वश्रेष्ठता की सूची में पांचवें पायदान पर भी रहे तो बड़ी बात होगी। 1951 में दिल्ली में हुए पहले एशियाई खेलों से लेकर अब तक भारत ने हर मर्तबा इन खेलों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और 128 स्वर्ण, 168 रजत, 249 कांस्य पदकों सहित कुल 545 तमगे हासिल किए। खेलों की महाशक्ति चीन अब तक 10 बार ही इन खेलों में उतरा लेकिन उसके जांबाज खिलाड़ियों ने 1191 स्वर्ण, 792 रजत और 570 कांस्य पदकों सहित कुल 2553 पदक अपनी झोली में डाले हैं। एशियाई खेलों में चीन को चुनौती देने का जहां तक सवाल है कुछ हद तक जापान और दक्षिण कोरिया ही सफल हुए हैं। जापान ने 910 स्वर्ण, 904 रजत और 836 कांस्य तो दक्षिण कोरिया ने 617 स्वर्ण, 535 रजत और 677 कांस्य पदक जीते हैं। खेलों में जहां छोटे-छोटे मुल्क तरक्की कर रहे हैं वहीं दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला भारत दिनोंदिन पिछड़ता जा रहा है। ट्रैक एण्ड फील्ड स्पर्धाओं में बेशक भारत ने ओलम्पिक में अब तक कोई तमगा हासिल नहीं किया पर एशियाई खेलों में हमारे एथलीट ही भाग्य विधाता साबित हुए हैं। एथलीटों ने एशियाई खेलों में 70 स्वर्ण, 73 रजत और 76 कांस्य सहित 219 पदक भारत की झोली में डाले  हैं। एथलीटों के अलावा भारतीय पहलवानों, बॉक्सरों और निशानेबाजों ने भी यदा-कदा ही सही पर अपनी चमक जरूर बिखेरी है। इंचियोन में भी भारत की इन्हीं स्पर्धाओं में तूती बोल सकती है।