Wednesday, 29 January 2014

पुलेला का दिल पीवी सिन्धू के साथ

इच्छा बेटी गायत्री और बेटा साई विष्णु खेलें बैडमिंटन
ग्वालियर। वैसे तो गुरु के लिए हर शिष्य प्यारा होता है, बावजूद इसके कुछ ऐसे शिष्य भी होते हैं जिनका गुरु भी मुरीद होता है। भारतीय बैडमिंटन के आईकॉन पुलेला गोपीचन्द को साइना नेहवाल की शानदार उपलब्धियों के बावजूद पीवी सिन्धू में गजब का लैटेण्ट दिखता है। पुलेला का मानना है कि उम्र के 18 बसंत पार कर चुकी पीवी सिन्धू दो साल बाद साइना तो क्या, दुनिया की किसी भी खिलाड़ी को सहजता से परास्त करेगी।
पुष्प सवेरा से खास बातचीत में राजीव गांधी खेलरत्न सम्मान से विभूषित पुलेला का कहना था कि उनकी इच्छा है कि जिस तरह उन्होंने अपना सब-कुछ बैडमिंटन को समर्पित कर दिया कुछ इसी तरह उनकी बेटी गायत्री (10) और बेटा सार्इं विष्णु (9) भी इस खेल को न केवल आत्मसात करें बल्कि दुनिया में भारत का नाम रोशन करें। खेल से संन्यास लेने के बाद गोपीचंद ने हैदराबाद में गोपीचंद बैडमिंटन अकादमी बनाई जहां उन्होंने साइना नेहवाल, पीवी सिंधू, आरएमवी गुरुसाईदत्त और के. श्रीकांत जैसे भारत के मौजूदा शीर्ष खिलाड़ी तैयार किए। पुलेला मध्यप्रदेश बैडमिंटन अकादमी के मुख्य प्रशिक्षक और सलाहकार भी हैं। उनके अथक प्रयासों से मध्य प्रदेश के शटलर भी कम समय में ही मुल्क में नाम रोशन करने लगे हैं। देश की सर्वश्रेष्ठ बैडमिंटन शख्सियतों में से एक गोपीचंद को इस साल पद्म भूषण सम्मान के लिए चुना गया है। इस सम्मान पर पुलेला ने कहा कि वैसे तो हर सम्मान महत्वपूर्ण होता है पर पद्म भूषण उनके लिए खास है।
25 जनवरी, 2014 को लखनऊ के बनारसी दास इण्डोर बैडमिंटन कोर्ट पर खेली गई सैयद मोदी ग्रांप्री गोल्ड बैडमिंटन चैम्पियनशिप में चीनी खिलाड़ियों का मानमर्दन कर खिताबी दौर में पहुंची साइना नेहवाल और पीवी सिन्धू में श्रेष्ठ कौन, के सवाल पर पुलेला ने हंसते हुए कहा कि उनके लिए दोनों खिलाड़ी खास हैं। ऐसे अवसरों पर बतौर प्रशिक्षक उन पर कोई दबाव नहीं होता, आखिर मेरे दोनों हाथों में लड्डू (स्वर्ण और रजत पदक) जो होते हैं। पुलेला ने कहा कि सिन्धू अभी 18 साल की है। जिस तरह वह खेल के प्रति समर्पित है, वह दिन दूर नहीं जब उसके सामने दुनिया की कोई भी शटलर सहज जीत दर्ज नहीं कर सकेगी।
वह अपने शिष्यों को कौन सा गुरुमंत्र देते हैं? इस सवाल के जवाब में पुलेला ने कहा कि वह नहीं चाहते कि कोई खिलाड़ी सफलता के लिए शॉर्टकट रास्ता अपनाए। जो खिलाड़ी मैदान में ईमानदारी से अपना शत-प्रतिशत खेल कौशल दिखाएगा, सफलता उसके कदम अवश्य चूमेगी। पुलेला ने कहा कि मेरा जोर फिटनेस पर अधिक होता है, सफलता के लिए यह जरूरी भी है। खिलाड़ी फिट ही नहीं होगा तो भला हिट कैसे हो सकता है। पारिवारिक पृष्ठभूमि पर पुलेला का कहना है कि उनकी पत्नी भारत पेट्रोलियम में जॉब करती हैं और बेटी गायत्री और बेटा सार्इं विष्णु शटल-कॉक में हाथ दिखाने लगे हैं। पुलेला ने कहा कि खेल को लेकर मेरा बच्चों पर कोई दबाव नहीं है, पर मैं दिल से चाहता हूं कि गायत्री और विष्णु बैडमिंटन ही खेलें।
पुलेला गोपीचंद की उपलब्धियां
16 नवम्बर, 1963 को आंध्र प्रदेश के नागांदल प्रकासम में जन्मे इस महान शटलर को खिलाड़ी और कोच के रूप में शानदार करियर के लिए 1999 में अर्जुन पुरस्कार, 2001 में खेलरत्न, 2005 में पद्म श्री, 2009 में द्रोणाचार्य और 2014 में पद्म भूषण पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। गोपीचंद प्रकाश पादुकोण के बाद आॅल इंग्लैण्ड बैडमिंटन चैम्पियनशिप जीतने वाले भारत के दूसरे खिलाड़ी हैं। उन्होंने यह उपलब्धि 2001 में हासिल की थी। 






Saturday, 25 January 2014

आईओए: दागी लड़ेंगे नहीं लड़ाएंगे

नौ फरवरी को होने जा रहे भारतीय ओलम्पिक संघ के चुनाव के लिए खेलों के तहखाने में सियासत तेज हो गई है। अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति के हस्तक्षेप के बाद भारत सरकार और भारतीय ओलम्पिक संघ के सामने यह चुनाव नाक का सवाल बन गए हैं। इन चुनावों को लेकर लाख पारदर्शिता की बातें की जा रही हों पर आईओए को दागियों की घुसपैठ से बचाना आसान नहीं होगा। इन चुनावों में दागी बेशक ताल नहीं ठोकेंगे पर अपने लंगोटियायारों को मैदान में जरूर उतारेंगे। अभय चौटाला और ललित भनोट पर चुनाव लड़ने की मनाही है, लेकिन ये नहीं चाहेंगे कि खेलों के इस भवसागर में दूसरे खेमे के लोग डुबकी लगाएं। चुनावी बिगुल बज चुका है। अभय चौटाला ने भारतीय भारोत्तोलन महासंघ के अध्यक्ष वीरेन्द्र प्रसाद वैश्य और भारतीय स्क्वैश रैकेट महासंघ के अध्यक्ष एन. रामचंद्रन को अध्यक्ष तथा हॉकी इण्डिया के एसोसिएट उपाध्यक्ष राजीव मेहता से महासचिव पद के चुनाव के लिए तैयार रहने को कह दिया है।
भारतीय ओलम्पिक समिति की जहां तक बात है, इसका गठन 1927 में हुआ। इसका कार्य ओलम्पिक, राष्ट्रमंडल, एशियाई व अन्य अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में भारतीय खिलाड़ियों का चयन और  दल का प्रबंधन करना होता है। 86 साल के आईओए में सर दोराबजी टाटा, महाराजा भूपिन्दर सिंह, महाराजा यादविन्दर सिंह, भालिन्दर सिंह (दो बार), ओमप्रकाश मेहरा, विद्याचरण शुक्ला, सिवंथी आदित्यन, सुरेश कलमाड़ी और अभय चौटाला अध्यक्ष की आसंदी पर बिराज चुके हैं, जिनमें अभय चौटाला को अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने अध्यक्ष नहीं माना। सर दोराबजी टाटा (1927-1928) भारतीय ओलम्पिक संघ के पहले अध्यक्ष रहे, इनके प्रयासों से ही 1928 के ओलम्पिक खेलों में भारतीय दल शिरकत कर सका था। भारतीय ओलम्पिक संघ में इसके बाद लगातार 47 साल तक राजा रणधीर सिंह के परिवार का ही राज रहा। टाटा के बाद 1928 से 1938 तक रणधीर के बाबा महाराजा भूपिन्दर सिंह तो उसके बाद 1938 से 1960 तक यानि पूरे 22 साल तक उनके चाचा महाराजा यादविन्दर सिंह ने अध्यक्ष की आसंदी सम्हाली। यादविन्दर के हटने के बाद रणधीर सिंह के पिता भालिन्दर सिंह 15 साल तक आईओए के मुखिया रहे।
देखा जाए तो जिस तरह भारतीय लोकतंत्र पर वंशवाद की बेल दिनोंदिन फैलती जा रही है कमोबेश उसी तरह खेलों में भी भाई-भतीजावाद व्यापक स्तर पर अपनी पैठ बना चुका है। दरअसल खेल संघों को राजनीतिज्ञों ने अपने बुरे वक्त का आरामगाह समझ रखा है। राजनीति में पटखनी खाने के बाद कई सफेदपोशों ने खेलों में अपने रसूख को भुनाया है। खेल-खिलाड़ियों के नाम पर प्रतिवर्ष अरबों रुपये का खेल बजट खिलाड़ियों की जगह खेलनहारों की आरामतलबी पर खर्च हो रहा है। यही आरामतलबी और देश-विदेश की यात्राएं राजनीतिज्ञों को खेल संघों से जुड़ने को लालायित करती हैं। भारतीय ओलम्पिक संघ तो सिर्फ एक उदाहरण है। देश के अधिकांश खेल संघों पर उन खेलनहारों का कब्जा है जिनके बाप-दादा भी कभी नहीं खेले।
15 मई, 2013 को दिल्ली हाईकोर्ट ने सजायाफ्ता राजनीतिज्ञों को चुनाव लड़ने से रोकने की नेक पहल की तो खेल ईमानदार लोगों के हाथ हों, इस बात की पहल का श्रेय अजय माकन को जाता है। अपने खेलमंत्रित्वकाल में माकन ने खेल विधेयक के जरिये लम्बे समय से खेल संघों में बिराजे पदाधिकारियों को हटाने का फरमान जारी कर कई खेलनहारों की नींद उड़ा दी थी। भारतीय खेलप्रेमियों को जब लग रहा था कि माकन खेलों से गंदगी दूर करके ही दम लेंगे, ऐसे नाजुक क्षणों में शीला दीक्षित और सुरेश कलमाड़ी जैसे लोगों को बचाने के लिए केन्द्र की कांग्रेस सरकार ने उन्हें ही खेल मंत्री पद से हटा दिया।
भारतीय ओलम्पिक संघ के होने जा रहे चुनाव पर अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति पैनी नजर रखे हुए है। उसने साफ-साफ कह दिया है कि यदि चुनाव में घोटालेबाज खेलनहार उतरे तो आईओए को हमेशा-हमेशा के लिए विश्व खेल जमात से बेदखल कर दिया जाएगा। यह स्वतंत्र भारत के लिए शर्मनाक बात है कि उसके खिलाड़ी चार दिसम्बर, 2012 से बिना तिरंगे के आईओसी के बैनर तले खेल रहे हैं। भारतीय ओलम्पिक एसोसिएशन पर लगे प्रतिबंध की मुख्य वजह सुरेश कलमाड़ी, ललित भनोट और वीके वर्मा जैसे लोग हैं जिन्होंने दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में न केवल अरबों का घोटाला किया बल्कि लम्बे समय तक जेल में भी रहे। राष्ट्रमंडल खेलों के घोटाले में इन तीनों के अलावा कई और नाम भी हैं जिनका खुलासा दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल करने को बेताब हैं।
आईओए के चुनावों पर आईओसी के तेवर तल्ख हैं। उसने इन चुनावों के लिए आईओसी के एनओसी सम्बन्धों के निदेशक पेरे मिरो, आईओसी नैतिक आयोग के सदस्य फ्रांसिस्को जे. एलिजाल्डे और एशियाई ओलम्पिक परिषद के महानिदेशक हुसैन अल मुसल्लम को बतौर पर्यवेक्षक नियुक्त किया है। आईओए के चुनावों की नामांकन प्रक्रिया का श्रीगणेश हो चुका है। इन चुनावों के लिए पीठासीन अधिकारी न्यायमूर्ति एसएन सपरा ने 167 मतदाताओं की सूची जारी की है जिसमें राष्ट्रीय खेल महासंघों के तीन तथा राज्य ओलम्पिक संघों के दो प्रतिनिधियों को नामित किया है। इन चुनावों में 36 राष्ट्रीय खेल महासंघों के 109 सदस्य, भारत में आईओसी के सदस्य रणधीर सिंह और 30 राज्य ओलम्पिक इकाइयों के 58 सदस्य अपने मताधिकार का प्रयोग तो करेंगे ही इसके अलावा भारतीय हॉकी महासंघ और भारतीय जिम्नास्टिक महासंघ के एक अन्य गुट के तीन-तीन सदस्यों को भी अदालती आदेश के तहत मतदान का अधिकार होगा। मतदाता सूची में हरियाणा ओलम्पिक संघ के अन्य गुट के दो सदस्यों को भी अदालत ने मतदान का अधिकार दिया है। अभय चौटाला को भारतीय एथलेटिक्स महासंघ के तीसरे प्रतिनिधि के रूप में मतदान का हक मिला है। चौटाला हरियाणा एथलेटिक्स संघ के भी अध्यक्ष हैं। मौजूदा महासचिव ललित भनोट भी चौटाला की ही तरह चुनाव नहीं लड़ सकते लेकिन उन्हें दिल्ली ओलम्पिक संघ के दूसरे प्रतिनिधि के तौर पर मतदान का अधिकार जरूर मिला है। इन चुनावों में कोई भी जीते या हारे पर मादरेवतन से आईओसी का अतिशीघ्र प्रतिबंध हटे यही खेलनहारों का खेल-खिलाड़ियों पर उपकार होगा।
(लेखक पुष्प सवेरा से जुड़े हैं।)

Friday, 17 January 2014

कुपोषण कब होगा छूमंतर

 
भारतीय लोकतंत्र ने आजादी की सांस लेने के बाद से हर क्षेत्र में कामयाब दस्तक दी है। उसे कई क्षेत्रों में जहां आशातीत सफलता मिली है तो कई आज भी सुखद पड़ाव की बाट जोह रहे हैं। हाल ही भारत ने पोलियो पर फतह हासिल की है। बीते तीन साल में मुल्क में एक भी पोलियो का प्रकरण सामने न आने से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत की न केवल मुक्तकंठ से सराहना की बल्कि 24 फरवरी को भारत का नाम पोलियो की संचरण सूची से हटाने का निर्णय भीलिया है। भारत ने 1980 में चेचक पर फतह हासिल की थी तो 33 साल बाद पोलियो उन्मूलन में उसे कामयाबी मिली है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में दो महत्वपूर्ण सफलताओं के बाद भी देश से भुखमरी तथा कुपोषण दूर होना निहायत जरूरी है, क्योंकि लोकतंत्र और भूखतंत्र साथ-साथ नहीं चल सकते।
कहने को हम 21वीं सदी में विकास की नई पटकथा लिख रहे हैं पर गांवों में घोर गरीबी के साथ ही अशिक्षा आज भी बड़े पैमाने पर व्याप्त है। रूढ़िवादी परम्पराएं, अंधविश्वास और टोने-टोटके ग्रामीणों के अंत:मन से अभी दूर नहीं हुए हैं। मुल्क की बहुसंख्य आबादी आज भी सीलन भरे अंधेरे कमरों में रहने को मजबूर है। आम जनजीवन को पौष्टिक भोजन, दूध व फल तो दूर, उसे भर पेट भोजन भी मयस्सर नहीं है। गरीबी और कुपोषण का सम्बन्ध लोकतंत्र में वोट की तरह है। वोट नहीं तो लोकतंत्र के सारे प्रयास अर्थर्हीन हो जाते हैं। किसी परिवार की अच्छी आर्थिक दशा ही कुपोषण का खात्मा कर सकती है। देश में वन्य जीवन और प्राकृतिक परिस्थितियों के निरंतर दोहन से कुपोषण  ग्रामीण क्षेत्रों में निरंतर पैर पसार रहा है।
देश में हर साल पैदा होने वाले 2.6 करोड़ बच्चों में से लगभग 19 लाख बच्चे अपना पहला जन्मदिन भी नहीं देख पाते। आधे नौनिहाल तो जन्म के बाद एक माह में ही दुनिया को अलविदा कर जाते हैं। यह मां-बच्चों के स्वास्थ्य और कुपोषण का मुल्क में वीभत्स चेहरा है। आम आवाम को स्वस्थ बनाए रखना और उसका पेट भरना सरकार की पहली शर्त होनी चाहिए। हमारी सरकारें वोट की फसल काटने के लिए नित नये-नये सब्जबाग तो दिखाती हैं लेकिन लचर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा और सार्वजनिक खाद्य वितरण प्रणाली की बदहाल स्थिति पर आज तक गौर नहीं किया गया। हाल ही भारत का पोलियो मुक्त देशों में शुमार होना बड़ी खुशखबर है। भारत के लिए यह उपलब्धि काफी मायने रखती है, क्योंकि तीसरी दुनिया के देशों में चेचक, पोलियो, मलेरिया, बर्ड फ्लू, क्षय रोग और एड्स जैसी बीमारियों का डर लम्बे समय से कायम है।
स्वास्थ्य सेवा का चरमराता ढांचा, गरीबी, कुपोषण, बीमारियों के प्रति अज्ञानता, साफ-सफाई का अभाव ऐसे कई कारण हैं जिनके चलते आम आवाम के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। भारत की ही बात करें तो बरसात के मौसम में यहां मलेरिया, डेंगू  और मस्तिष्क ज्वर के मरीजों से अस्पताल पट जाते हैं तो भीषण ठण्ड में फ्लू की शिकायत आम हो जाती है। लाख प्रयासों के बावजूद मुल्क में कुपोषण लाइलाज बीमारी होती जा रही है। लोगों को इससे निजात तो नहीं मिल रही अलबत्ता मच्छर भगाने के स्प्रे, तरह-तरह के लोशन आदि का कारोबार खूब फल-फूल रहा है। सच कहें तो भारत में आमतौर पर पायी जाने वाली बीमारियां कुछ खास उद्योगों के लिए मुनाफे का कारण बन गई हैं। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि स्वास्थ्य सेवा का ढांचा मजबूत करने के लिए यहां पर्याप्त कोशिशें नहीं हुर्इं। चेचक और पोलियो की तरह मुल्क से कुपोषण भी छूमंतर हो सकता है बशर्ते इसके लिए भी जमीनी प्रयास हों।
चार साल पहले 2009 में देश में पोलियो के 741 मामले सामने आये थे, तब लगा था कि देश से विकलांगता कैसे दूर होगी? भारत ने सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक तमाम अड़चनों के बावजूद पोलियो जैसी बीमारी का उन्मूलन करने में सफलता हासिल की है। यह सम्भव हो पाया है सरकार की दृढ़ इच्छाशक्ति और इसके साथ-साथ विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनीसेफ तथा रोटरी इंटरनेशनल आदि के अंतरराष्टÑीय सहयोग से। देश से चेचक और पोलियो का खात्मा एक-दो दिन में नहीं हुआ बल्कि यह लगभग तीन दशक की अथक मेहनत का सुफल है। अतीत को देखें तो पोलियो उन्मूलन में भारत के कुछ प्रदेशों में जागरूकता का अभाव था तो धार्मिक अड़चनें भी सामने आर्इं, लेकिन मुल्क के लाखों स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने हिम्मत न हारते हुए दो बूंद जिंदगी की पिलाने के लिए घर-घर सम्पर्क किया। तो सरकार ने इसके सघन प्रचार-प्रसार में कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं पोलियो की दवा पूरे देश में कहीं भी आसानी से नौनिहालों को मिले इसके भी पुख्ता इंतजाम किए गए। कोई बच्चा छूटा तो नहीं इसके लिए दवा पिलाने की तारीख के अगले दिन स्वास्थ्य कार्यकर्ता घर-घर घूमे।
पोलियो यानि इंफेनटाइल पैरालिसिस, पोलियो माइलाइटिस की खोज 1840 में जैकब हाइन ने की थी। भारत में 2009 में 741 मामले सामने आये वहीं 2010 में यह संख्या घटकर 42 रह गई जबकि 2011 में पोलियो का एक मामला पश्चिम बंगाल में मिला था।  यह खुशी की बात है कि पिछले तीन साल में देश में पोलियो संक्रमण नहीं हो पाया अन्यथा दूषित पेयजल के सेवन से यह बीमारी नवजातों को आसानी से अपना शिकार बना लेती। देश में पोलियो उन्मूलन के बाद भी हमें निश्चिंत होकर बैठने की जरूरत नहीं है क्योंकि पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी देशों में पोलियो अब भी चिन्ता का सबब है।   पाकिस्तान में 2012 में जहां पोलियो के 58 मामले सामने आये थे वहीं 2013 में यह संख्या बढ़कर 83 तक पहुंच गई। बीते साल पश्चिमोत्तर पाकिस्तान के कबायली इलाकों में 59 मामले सामने आये। वजह, वहां कुछ कट्टरपंथी ताकतों ने पोलियो ड्राप्स पिलाने का विरोध किया, जिसका खामियाजा अब नौनिहालों को जिंदगी भर की विकलांगता के रूप में भुगतना पड़ेगा। वर्ष 2013 में दुनिया में पोलियो के 369 मामले सामने आये। नाइजीरिया में फिलवक्त पोलियो महामारी का रूप लिए है। भारत में चूंकि पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आवाजाही बनी हुई है, लिहाजा हमें अभी भी सावधान रहने की जरूरत है। चेचक और पोलियो जैसी बीमारियों पर फतह हासिल करने के बाद मुल्क में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को भी दुरुस्त किया जाना चाहिए ताकि मलेरिया, क्षय, फ्लू, डायरिया और कुपोषण जैसी बीमारियों को छूमंतर किया जा सके।



Friday, 10 January 2014

भारत रत्न, खिलाड़ी और सियासत

जिन्दा न दें कौरा, मरे उठावें चौरा। मौजूदा दौर में इंसान की अहसानफरामोशी के लिए इससे बड़ा जुमला और कोई दूसरा नहीं हो सकता। जब से केन्द्र सरकार ने सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने की घोषणा की है तभी से लगभग बिसरा दिये गये कालजयी हॉकी महानायक मेजर ध्यानचंद लोगों की चिरस्मृतियों में पुन: जीवंत हो उठे हैं। लोग हॉकी के पुरोधा दद्दा ध्यानचंद को ही देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न पहले मिले, इसके लिए सुनियोजित तरीके से लाबिंग में जुट गये हैं। यह लाबिंग कोई और नहीं दद्दा के पुत्र अशोक कुमार कर और करवा रहे हैं। दद्दा को देश का सर्वोच्च सम्मान मिलना चाहिए क्योंकि गुलाम भारत में हॉकी की बेमिशाल उपलब्धियां उनके इर्द-गिर्द ही महिमामंडित हुर्इं। कुछ इस तरह जैसे क्रिकेट में सचिन तेंदुलकर के अभ्युदय से आजाद भारत ने महसूस किया। अब सवाल यह उठता है कि आखिर भारत रत्न सचिन तेंदुलकर और मेजर ध्यानचंद को ही क्यों?
भारतीय सरजमीं हमेशा शूरवीरों के लिए जानी जाती रही है। बात खेलों की करें तो इंसान ही नहीं हर जीव जन्म से ही उछल-कूद प्रारम्भ कर देता है। कुछ इसे जीवन पर्यन्त के लिए आत्मसात कर लेते हैं तो कुछ की प्रतिभा उदरपूर्ति की भेंट चढ़ जाती है। इसे सियासत कहें या कुछ और भारत सरकार ने खिलाड़ियों को भी भारत रत्न देने का डंका पीट दिया है। सरकार का यह निर्णय वोट की फसल काटने के सिवाय कुछ भी नहीं है। सचिन का नाम भी सरकार ने कुछ इसी गरज से सर्वोपरि माना है। चूंकि क्रिकेट हर भारतवंशी की प्राणवायु बन चुकी है लिहाजा सरकार को सचिन सबसे पहले याद आये। खिलाड़ियों को भारत रत्न मिले, इसके सभी हिमायती हैं पर सचिन और ध्यानचंद पर सियासत करने की बजाय भारत सरकार को उन खिलाड़ियों का भी कद्रदान होना चाहिए जिन्होंने मादरेवतन को अपने नायाब प्रदर्शन से हमेशा गौरवान्वित किया। अंतरराष्ट्रीय खेल क्षितिज पर भारतीय हॉकी के नाम आठ ओलम्पिक और एक विश्व खिताब का मदमाता गर्व है तो क्रिकेट में हमने तीन बार दुनिया फतह की है। क्रिकेट और हॉकी टीम खेल हैं लिहाजा इन विश्व खिताबों के लिए कुछेक खिलाड़ियों पर सरकार की मेहरबानी खेलभावना के बिल्कुल खिलाफ है। खेलों के अतीत पर गौर करें तो मुल्क की कोख से कई नायाब सितारे पैदा हुए हैं, जिन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान मिलना चाहिए।
अशोक कुमार अपने पिता ध्यानचंद की जगह यदि आज अपने चाचा कैप्टन रूप सिंह के लिए लाबिंग कर रहे होते तो शायद खेलजगत उनका शुक्रगुजार होता। दद्दा ध्यानचंद के नाम को अमर रखने के लिए सरकार पहले ही खेल जमात को उनके जन्मदिन को खेल दिवस के रूप में मनाने का तोहफा दे चुकी है, पर जिस खिलाड़ी की तानाशाह हिटलर ने तारीफ की हो, उसे हिन्दुस्तान आखिर कब शाबास कहेगा? भारत सरकार ने 1932 और 1936 की ओलम्पिक चैम्पियन भारतीय टीम के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी कैप्टन रूप सिंह को आज तक किसी सम्मान के काबिल क्यों नहीं समझा? आखिर अचूक स्कोरर, रिंग मास्टर के लिए लोगों की जुबान गूंगी क्यों हो गई? 1932 और 1936 के इन दोनों ओलम्पिक में एक कोख के दो लाल साथ-साथ खेले थे पर रूप सिंह ने बर्लिन में अपने पौरुष का डंका पीटते हुए न सिर्फ सर्वाधिक गोल किये बल्कि जर्मन तानाशाह हिटलर का भी दिल जीत लिया था। यदि दद्दा वाकई तत्कालीन समय में सर्वश्रेष्ठ हॉकी महारथी थे तो 1978 में म्यूनिख में रूप सिंह के नाम की सड़क क्यों बनी? अफसोस जिस खिलाड़ी को आज तक जर्मन याद कर रहा है उसे ही भारत सरकार तो क्या उसका भतीजा भी भूल चुका है।
हॉकी में दद्दा ध्यानचंद, रूप सिंह ही नहीं दर्जनों नायाब खिलाड़ी ऐसे रहे हैं जिनकी कलात्मक हॉकी की दुनिया में जय-जयकार हुई। भारतीय हाकी दिग्गजों में बलबीर सिंह सीनियर का भी शुमार है। 90 बरस के इस नायाब हॉकी योद्धा ने भी भारत की झोली में तीन ओलम्पिक स्वर्ण पदक डाले हैं। बलबीर उस भारतीय टीम के मुख्य प्रशिक्षक और मैनेजर रहे जिसने 1975 में भारत के लिये एकमात्र विश्व कप जीता। वर्ष 1896 से लेकर अब तक सभी खेलों के 16 महानतम ओलम्पियनों में से एक बलबीर को 2012 लंदन ओलम्पिक के दौरान अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने सम्मानित किया था पर भारत सरकार अतीत के इस सितारे को भारत रत्न का हकदार क्यों नहीं मानती? बलबीर के नाम ओलम्पिक पुरुष हॉकी के फाइनल में सर्वाधिक गोल का ओलम्पिक और विश्व रिकॉर्ड है। उन्होंने 1952 में हेलसिंकी ओलम्पिक में हालैण्ड के खिलाफ भारत की तरफ से किये गये छह में से पांच गोल किये थे। वह मेलबर्न ओलम्पिक (1956) में खिताब जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान भी रहे।
 हॉकी और क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में भारत को गौरवान्वित करने वाले खिलाड़ियों में पहलवान केडी जाधव का नाम भी आज भूल-भुलैया हो चुका है। जाधव ने 1952 हेलसिंकी ओलम्पिक में पहला व्यक्तिगत कांस्य पदक भारत की झोली में डाला था।  देश के ओलम्पिक पदकधारियों में एकमात्र केडी जाधव ही हैं जिन्हें पद्म पुरस्कार नहीं मिला। वर्ष 1996 खेलों के बाद से भारत के लिये व्यक्तिगत ओलम्पिक पदक जीतने वाले सभी खिलाड़ियों को पद्म पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। सम्मान की आस में आखिर जाधव 1984 में  दुनिया को ही अलविदा कर गये। इन खिलाड़ियों के अलावा   अतीत के भारतीय नायाब सितारों में उड़न सिख मिल्खा सिंह, उड़नपरी पीटी ऊषा, सुनील गावस्कर, कपिल देव, राहुल द्रविड़ को भी हम एक सिरे से खारिज नहीं कर सकते। जहां तक दद्दा की बात है भारत सरकार ने पहले ही उनके जन्मदिन को सालाना खेल दिवस के रूप में घोषित किया हुआ है। इसी दिन खिलाड़ियों को शीर्ष खेल सम्मान अर्जुन पुरस्कार और द्रोणाचार्य भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किये जाते हैं। जब खेल मंत्रालय पहले ही भारत रत्न के लिये ध्यानचंद के नाम की सिफारिश कर चुका है तो फिर मुल्क के सर्वोच्च नागरिक सम्मान को लेकर इतनी नौटंकी क्यों? सम्मान पर सियासत करने से बेहतर होगा हमारे पूर्व खिलाड़ी रसातल पर पहुंच चुकी भारतीय हॉकी के लिए कुछ करें।

भारत रत्न, खिलाड़ी और सियासत

जिन्दा न दें कौरा, मरे उठावें चौरा। मौजूदा दौर में इंसान की अहसानफरामोशी के लिए इससे बड़ा जुमला और कोई दूसरा नहीं हो सकता। जब से केन्द्र सरकार ने सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने की घोषणा की है तभी से लगभग बिसरा दिये गये कालजयी हॉकी महानायक मेजर ध्यानचंद लोगों की चिरस्मृतियों में पुन: जीवंत हो उठे हैं। लोग हॉकी के पुरोधा दद्दा ध्यानचंद को ही देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न पहले मिले, इसके लिए सुनियोजित तरीके से लाबिंग में जुट गये हैं। यह लाबिंग कोई और नहीं दद्दा के पुत्र अशोक कुमार कर और करवा रहे हैं। दद्दा को देश का सर्वोच्च सम्मान मिलना चाहिए क्योंकि गुलाम भारत में हॉकी की बेमिशाल उपलब्धियां उनके इर्द-गिर्द ही महिमामंडित हुर्इं। कुछ इस तरह जैसे क्रिकेट में सचिन तेंदुलकर के अभ्युदय से आजाद भारत ने महसूस किया। अब सवाल यह उठता है कि आखिर भारत रत्न सचिन तेंदुलकर और मेजर ध्यानचंद को ही क्यों?
भारतीय सरजमीं हमेशा शूरवीरों के लिए जानी जाती रही है। बात खेलों की करें तो इंसान ही नहीं हर जीव जन्म से ही उछल-कूद प्रारम्भ कर देता है। कुछ इसे जीवन पर्यन्त के लिए आत्मसात कर लेते हैं तो कुछ की प्रतिभा उदरपूर्ति की भेंट चढ़ जाती है। इसे सियासत कहें या कुछ और भारत सरकार ने खिलाड़ियों को भी भारत रत्न देने का डंका पीट दिया है। सरकार का यह निर्णय वोट की फसल काटने के सिवाय कुछ भी नहीं है। सचिन का नाम भी सरकार ने कुछ इसी गरज से सर्वोपरि माना है। चूंकि क्रिकेट हर भारतवंशी की प्राणवायु बन चुकी है लिहाजा सरकार को सचिन सबसे पहले याद आये। खिलाड़ियों को भारत रत्न मिले, इसके सभी हिमायती हैं पर सचिन और ध्यानचंद पर सियासत करने की बजाय भारत सरकार को उन खिलाड़ियों का भी कद्रदान होना चाहिए जिन्होंने मादरेवतन को अपने नायाब प्रदर्शन से हमेशा गौरवान्वित किया। अंतरराष्ट्रीय खेल क्षितिज पर भारतीय हॉकी के नाम आठ ओलम्पिक और एक विश्व खिताब का मदमाता गर्व है तो क्रिकेट में हमने तीन बार दुनिया फतह की है। क्रिकेट और हॉकी टीम खेल हैं लिहाजा इन विश्व खिताबों के लिए कुछेक खिलाड़ियों पर सरकार की मेहरबानी खेलभावना के बिल्कुल खिलाफ है। खेलों के अतीत पर गौर करें तो मुल्क की कोख से कई नायाब सितारे पैदा हुए हैं, जिन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान मिलना चाहिए।
अशोक कुमार अपने पिता ध्यानचंद की जगह यदि आज अपने चाचा कैप्टन रूप सिंह के लिए लाबिंग कर रहे होते तो शायद खेलजगत उनका शुक्रगुजार होता। दद्दा ध्यानचंद के नाम को अमर रखने के लिए सरकार पहले ही खेल जमात को उनके जन्मदिन को खेल दिवस के रूप में मनाने का तोहफा दे चुकी है, पर जिस खिलाड़ी की तानाशाह हिटलर ने तारीफ की हो, उसे हिन्दुस्तान आखिर कब शाबास कहेगा? भारत सरकार ने 1932 और 1936 की ओलम्पिक चैम्पियन भारतीय टीम के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी कैप्टन रूप सिंह को आज तक किसी सम्मान के काबिल क्यों नहीं समझा? आखिर अचूक स्कोरर, रिंग मास्टर के लिए लोगों की जुबान गूंगी क्यों हो गई? 1932 और 1936 के इन दोनों ओलम्पिक में एक कोख के दो लाल साथ-साथ खेले थे पर रूप सिंह ने बर्लिन में अपने पौरुष का डंका पीटते हुए न सिर्फ सर्वाधिक गोल किये बल्कि जर्मन तानाशाह हिटलर का भी दिल जीत लिया था। यदि दद्दा वाकई तत्कालीन समय में सर्वश्रेष्ठ हॉकी महारथी थे तो 1978 में म्यूनिख में रूप सिंह के नाम की सड़क क्यों बनी? अफसोस जिस खिलाड़ी को आज तक जर्मन याद कर रहा है उसे ही भारत सरकार तो क्या उसका भतीजा भी भूल चुका है।
हॉकी में दद्दा ध्यानचंद, रूप सिंह ही नहीं दर्जनों नायाब खिलाड़ी ऐसे रहे हैं जिनकी कलात्मक हॉकी की दुनिया में जय-जयकार हुई। भारतीय हाकी दिग्गजों में बलबीर सिंह सीनियर का भी शुमार है। 90 बरस के इस नायाब हॉकी योद्धा ने भी भारत की झोली में तीन ओलम्पिक स्वर्ण पदक डाले हैं। बलबीर उस भारतीय टीम के मुख्य प्रशिक्षक और मैनेजर रहे जिसने 1975 में भारत के लिये एकमात्र विश्व कप जीता। वर्ष 1896 से लेकर अब तक सभी खेलों के 16 महानतम ओलम्पियनों में से एक बलबीर को 2012 लंदन ओलम्पिक के दौरान अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने सम्मानित किया था पर भारत सरकार अतीत के इस सितारे को भारत रत्न का हकदार क्यों नहीं मानती? बलबीर के नाम ओलम्पिक पुरुष हॉकी के फाइनल में सर्वाधिक गोल का ओलम्पिक और विश्व रिकॉर्ड है। उन्होंने 1952 में हेलसिंकी ओलम्पिक में हालैण्ड के खिलाफ भारत की तरफ से किये गये छह में से पांच गोल किये थे। वह मेलबर्न ओलम्पिक (1956) में खिताब जीतने वाली भारतीय टीम के कप्तान भी रहे।
 हॉकी और क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में भारत को गौरवान्वित करने वाले खिलाड़ियों में पहलवान केडी जाधव का नाम भी आज भूल-भुलैया हो चुका है। जाधव ने 1952 हेलसिंकी ओलम्पिक में पहला व्यक्तिगत कांस्य पदक भारत की झोली में डाला था।  देश के ओलम्पिक पदकधारियों में एकमात्र केडी जाधव ही हैं जिन्हें पद्म पुरस्कार नहीं मिला। वर्ष 1996 खेलों के बाद से भारत के लिये व्यक्तिगत ओलम्पिक पदक जीतने वाले सभी खिलाड़ियों को पद्म पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। सम्मान की आस में आखिर जाधव 1984 में  दुनिया को ही अलविदा कर गये। इन खिलाड़ियों के अलावा   अतीत के भारतीय नायाब सितारों में उड़न सिख मिल्खा सिंह, उड़नपरी पीटी ऊषा, सुनील गावस्कर, कपिल देव, राहुल द्रविड़ को भी हम एक सिरे से खारिज नहीं कर सकते। जहां तक दद्दा की बात है भारत सरकार ने पहले ही उनके जन्मदिन को सालाना खेल दिवस के रूप में घोषित किया हुआ है। इसी दिन खिलाड़ियों को शीर्ष खेल सम्मान अर्जुन पुरस्कार और द्रोणाचार्य भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किये जाते हैं। जब खेल मंत्रालय पहले ही भारत रत्न के लिये ध्यानचंद के नाम की सिफारिश कर चुका है तो फिर मुल्क के सर्वोच्च नागरिक सम्मान को लेकर इतनी नौटंकी क्यों? सम्मान पर सियासत करने से बेहतर होगा हमारे पूर्व खिलाड़ी रसातल पर पहुंच चुकी भारतीय हॉकी के लिए कुछ करें।

Saturday, 4 January 2014

खेलों में चुनौतियों का साल

यह साल भारतीय जनमानस के लिए खास है। इस साल मुल्क की सल्तनत के लिए जहां हमारा जनतंत्र अपनी समझदारी की परीक्षा देगा वहीं खेलतंत्र अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति के रहमोकरम पर आश्रित होगा। हमारे खेलनहार यदि दुनिया के लिए नजीर साबित नहीं हुए तो सच मानिए भारत अंतरराष्ट्रीय खेल बिरादर से अलग-थलग पड़ सकता है। वैसे भी हमारे खिलाड़ी दिसम्बर 2012 से बिना तिरंगे के खेल रहे हैं। भारतीय ओलम्पिक एसोसिएशन पर अपने ऊपर लगे निलम्बन के दाग को धोने का अंतिम अवसर नौ फरवरी मुकर्रर है। इस तिथि तक भारतीय ओलम्पिक एसोसिएशन को न केवल अपने चुनाव कराने हैं बल्कि इन चुनावों से दागियों को भी दरकिनार रखना है। भारत को इस साल राष्ट्रमण्डल और एशियाई खेलों में पिछले प्रदर्शन को दोहराने की चुनौती के साथ-साथ अन्य खेलों में भी अपनी खोई साख को वापस पाने की पुरजोर कोशिश करनी होगी।
देखा जाए तो वर्ष 2013 में आईओए के निलम्बन को हटाने को लेकर भारत सरकार ने अपनी तरफ से पुरजोर कोशिश की और बात बनती दिखी भी लेकिन हमारे खेलनहारों ने अपने अड़ियल रवैये से सब कुछ अकारथ कर दिया। अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने भारत को नौ फरवरी तक नए संशोधन के साथ आईओए के चुनाव कराने और दागियों को इन चुनावों से दूर रखने का अल्टीमेटम दिया है। आईओए ओलम्पिक आंदोलन में फिर से वापस लौटे इसके लिए दागियों ने सरकार को चुनाव से दूर रहने का भरोसा दिया है। भारतीय खिलाड़ी राष्ट्रमण्डल और एशियाई खेलों में तिरंगे तले हिस्सा लें, इसके लिए यह बेहद जरूरी भी है कि उस पर लगा निलम्बन जल्द से जल्द खत्म हो। आईओए में अच्छे लोग नहीं आए तो भारत पर लगा निलम्बन नहीं हटेगा और मुल्क ओलम्पिक आंदोलन तथा खेल बिरादर से अलग-थलग पड़ जाएगा।
आईओए के निलम्बन को हटाने के साथ-साथ इस साल भारत पर हॉकी में भी अच्छे प्रदर्शन का दबाव है। विश्व खेल पटल पर यूं तो अधिकांश खेलों में भारत की हालत खराब है और वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं पर पुश्तैनी खेल हॉकी को इस साल करो या मरो के दौर से गुजरना होगा। इस साल भारतीय हॉकी को एशियाई खेलों के साथ-साथ राष्ट्रमण्डल और विश्व कप जैसे बड़े खेल आयोजनों में अपने पुराने चावल होने का बोध कराने का दबाव होगा। भारत ने विश्व पटल पर हॉकी में 33 साल से कोई पदक नहीं जीता है। आलम यह है कि आठ बार की ओलम्पिक और एक बार की विश्व चैम्पियन भारतीय हॉकी अर्श से फर्श पर आ चुकी है। 2008 के ओलम्पिक के लिए जहां भारतीय हॉकी टीम क्वालीफाई नहीं कर सकी थी वहीं 2012 के लंदन ओलम्पिक में वह एक दर्जन टीमों में अंतिम पायदान पर रही। सम्पूर्ण प्रतियोगिता में भारत एक भी मुकाबला नहीं जीत सका। हॉकी के लिए 2013 भी खुशफहमी वाला नहीं रहा। भला हो भारतीय बालाओं का जिन्होंने जूनियर प्रतियोगिता में भारत की रीती झोली में कांस्य पदक डालकर हॉकी इण्डिया को खुश होने का मौका दिया। कहने को हॉकी इण्डिया ने बीते साल हॉकी की सेहत सुधारने को ऊपर से नीचे तक चोला बदला और टीम प्रबंधन से लेकर प्रशिक्षक तथा स्पोर्टिंग स्टाफ में गोरी चमड़े वाले नियुक्त कर दिये पर उन्होंने खेल-खिलाड़ियों की दशा सुधारने की बजाय भारत को हॉकी का एक बड़ा बाजार बना दिया। इस बाजार में खिलाड़ी ही नहीं भारतीय ईमान भी बिक रहा है। ओलम्पिक में अंतिम और जूनियर विश्व कप हॉकी में 10वां स्थान हमारी हॉकी की हिकारत नहीं तो आखिर क्या है?
इस साल खेलों में भारत अपना आगाज क्रिकेट से करेगा। टीम इण्डिया इसी महीने न्यूजीलैण्ड की अबूझ पट्टियों पर अपने पट्ठों का इम्तिहान देगी। धोनी के धुरंधरों को दक्षिण अफ्रीकी दौरे में मिली शर्मनाक पराजय के बाद न्यूजीलैण्ड दौरे में यह साबित करना होगा कि वे सिर्फ घरू शेर नहीं हैं बल्कि विदेशी जमीन पर भी जीतने की क्षमता रखते हंै। न्यूजीलैण्ड से इतर इस साल बंगलादेश में होने वाला ट्वंटी-20 विश्व कप भी टीम इण्डिया के लिए किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है। आईपीएल के सातवें संस्करण का साफ-सुथरा आयोजन भी अग्निपरीक्षा ही है। बात बैडमिंटन की करें तो इस साल साइना नेहवाल को पिछले साल के अपने खराब प्रदर्शन में आशातीत सुधार तो शटलर पीवी सिंधु को यह दिखाना होगा कि वह अब चीन की दीवार तोड़ने का माद्दा रखती है। पिछले साल एक अदद खिताब की तलाश में जूझती रही बैडमिंटन स्टार सायना नेहवाल ने नए साल में कम टूर्नामेंट खेलने का फैसला किया है लेकिन वह चाहेंगी कि साल के अपने पहले टूर्नामेंट में खिताबी सफलता हासिल करें। बैडमिंटन में इस साल थामस और उबेर कप भी किसी चुनौती से कम नहीं होंगे।
शतरंज में विश्व खिताब गंवाने वाले विश्वनाथन आनंद को मार्च में चैलेंजर मुकाबले में दिखाना होगा कि वही सर्वकालीन महान शातिर हैं। आनंद अपना विश्व खिताब गंवाने के बाद 2014 में इसे वापस पाने के लिए कैसी चालें चलते हैं, इस पर खेलप्रेमियों की खास दिलचस्पी होगी। जहां तक कुश्ती की बात है इस साल हमारे पहलवानों को नए नियमों और नए वजन वर्गों में दांव-पेच दिखाने होंगे। भारतीय पहलवानों के लिए नया साल काफी चुनौतीपूर्ण होगा। यह देखना दिलचस्प होगा कि ओलम्पिक पदक विजेता सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त खुद को नए वजन वर्गों में किस तरह समायोजित कर पाते हैं। नये   नियमों के मुताबिक लंदन ओलम्पिक के बाद पदक विजेता सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त अमेरिका के कोलोराडो स्प्रिंग में 30 जनवरी से एक फरवरी तक होने जा रही कुश्ती प्रतियोगिता में अपना जौहर दिखाएंगे। सुशील कुमार अब 66 की जगह 74 किलो में तो अब तक 60 किलो भार वर्ग में दम दिखाने वाले योगेश्वर दत्त 65 किलो वजन वर्ग में दांव-पेच चलाएंगे।
चालू साल में भारत युवाओं में लॉन टेनिस के प्रति दिलचस्पी जगाने के लिए एक नई मुहिम शुरू करने जा रहा है। उम्मीद है कि पहली बार ब्रिटेन से बाहर भारत में अगस्त महीने में जूनियर विम्बलडन का आगाज हो जाए। द रोड टू विम्बलडन लांच करने के लिये 11 बार के टूर चैम्पियन हेनमैन इसी महीने के आखिर में दिल्ली और मुम्बई का दौरा करेंगे और दिल्ली के आरके खन्ना टेनिस सेण्टर तथा मुंबई के एमएसएलटीए टेनिस सेण्टर में अंडर 14 राष्ट्रीय एकल टूर्नामेंट पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाएंगे। इन दोनों टूर्नामेंटों के शीर्ष 16 लड़के और लड़कियों को दिल्ली में अप्रैल में विम्बलडन फाउण्डेशन जूनियर मास्टर्स में खेलने का मौका मिलेगा। इसमें से दो लड़के और दो लड़कियों को विम्बलडन के ग्रासकोर्ट पर यूके एचएसबीसी नेशनल फाइनल्स के लिये चुना जायेगा। टेनिस में यदि ऐसा हुआ तो यह भारतीय बच्चों की पूरी पीढ़ी के लिये नयी शुरुआत होगी। खेलों में लाख जद्दोजहद के बाद भी भारत के लिए दिल्ली राष्ट्रमण्डल खेलों में 38 स्वर्ण सहित कुल 101 पदकों की अपनी ऐतिहासिक सफलता की पुनरावृत्ति जहां एक बड़ी चुनौती होगी वहीं एशियाड भारतीय खिलाड़ियों के घटते-बढ़ते पराक्रम की बानगी पेश करेगा।