जिस मानसून सत्र से मुल्क की आवाम विकासोन्मुख विधेयकों को पारित किये जाने की उम्मीद कर रही थी, उसमें नैतिकता के नाम पर तमाशा हो रहा है। पहले दिन की ही तरह सत्र का दूसरा दिन भी ललित मोदी प्रकरण व व्यापम घोटाले की भेंट चढ़ गया। सत्तापक्ष नैतिक राह पर चलने की बजाय जहां संख्या बल पर इतरा रहा है वहीं विपक्ष भी अपनी जवाबदेही का सही निर्वहन करता नहीं दिख रहा। वैसे तो हमारे संविधान में मुल्क के संचालन की व्यवस्था के चार प्रमुख स्तम्भ तय हैं। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया का फर्ज यह है कि ये एक-दूसरे के काम में दखल न दें। आजादी के बाद से यह व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रही है। विधायिका के अलावा तीनों स्तम्भों के लिए काम और घण्टे लगभग तय हैं और वे उसी अनुरूप काम भी कर रहे हैं। अफसोस हमारी विधायिका लगभग निरंकुश हो चुकी है। विधायिका संचालन के लिए शीत, ग्रीष्म और मानसून सत्र बुलाए जाते हैं। इनमें बजट से लेकर सभी प्रकार के विकासोन्मुख मुद्दों पर चर्चा कर देश का सुचारु संचालन सुनिश्चित किया जाता है। इन सत्रों की नुमाइंदगी माननीय करते हैं। माननीय सिर्फ शब्द नहीं जवाबदेही का दूसरा नाम है। दो तीन दशक पहले तक तो यह माननीय सम्बोधन उचित लगता था। मन में अपने आप सम्मान का भाव उपजता था, लेकिन हाल के वर्षों में यह भाव तिरोहित सा हो गया है। मानसून सत्र के दो महत्वपूर्ण दिनों का हंगामे की भेंट चढ़ना इसी बात का सूचक है। सोचने वाली बात है कि जिन क्षणों का सदुपयोग जनमानस की राहत के लिए होना चाहिए था, वे क्षण नैतिकता का पाठ पढ़ाने में जाया हो गये। विपक्ष को सोचना चाहिए कि क्या शिवराज या सुषमा के इस्तीफे से मुल्क की सारी समस्याओं का निदान हो जायेगा या मोदी सरकार अल्पमत में आ जायेगी? हमें दूसरों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने की बजाय स्वयं का आत्मावलोकन जरूरी है। जनहित के कार्यों पर हंगामा बरपाने वालों को इस बात का भी उत्तर देना चाहिए कि आखिर सांसदों और विधायकों के वेतन भत्तों का कानून बिना किसी हंगामे के सर्वसम्मति से कैसे पारित हो जाता है? माननीयों को अपना वेतन खुद बढ़ा लेने की सुविधा आखिर कैसी नैतिकता है? बेहतर होता विधायिका के दायरे में आने वाले सभी कामकाज एक बैठक बुलाकर आम सहमति से मंजूर कर लिए जाएं। इसके लिए संसद या विधासभाओं का सत्र बुलाकर करोड़ों रुपए बर्बाद करने की क्या जरूरत है? हंगामा करना ही क्या सही लोकतंत्र है? आम जनता किसी राजनीतिज्ञ को अपना बहुमूल्य मत विकास के लिए देती है न कि राजहठ या अहंकार दिखाने के लिए। सदन की कार्रवाई में लगातार व्यवधान के लिए यदि मोदी सरकार जवाबदेह है तो विपक्ष भी इससे जुदा नहीं है। मौजूदा सत्र के दो दिन जिस हठधर्मी के चलते जाया हुए उसे देखते हुए नहीं लगता कि मानसूत्र सत्र में विकास की बारिश होगी।
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