Friday, 23 December 2016

पैरों बिना कमाल

 अपने डांस से हरदिल अजीज बने विनोद ठाकुर
कहते हैं कि इंसान में यदि कुछ करने का जज्बा और लगन हो तो वह कुछ भी कर सकता है। सवाल यह कि जो बिना पैरों ही जन्मा हो क्या वह भी रंगमंच पर धाक जमा सकता है, उसके डांस की दुनिया मुरीद हो सकती है। एकबारगी तो यह सच नहीं लगता क्योंकि डांस के लिए पैरों का होना जरूरी है। आपको यह जानकर अचरज होगा कि दिल्ली के एक छोरे विनोद ठाकुर ने बिना पैरों डांस में इतनी शोहरत बटोरी है कि आज भारत ही नहीं पूरी दुनिया उसके प्रतिभा की कायल है। यह परीलोक की कथा नहीं बल्कि जमीनी हकीकत है। विनोद ठाकुर इण्डिया गाट टैलेण्ट और नच बलिए छह में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके हैं। विनोद के डांस को सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया के दर्जनों देश सराह रहे हैं।
विनोद ठाकुर की जिन्दगी के अनछुए पहलुओं पर नजर डालते ही यह शख्स औरों से बिल्कुल अलग दिखाई देता है। इस शख्स के पैर नहीं लेकिन इसने अपने करिश्माई प्रदर्शन से हर किसी का दिल जीत रखा है। विनोद ठाकुर के अंदर हौसले की कमी नहीं है। अपने हौसले की वजह से इस शख्स ने जो मुकाम हासिल किया है वहां तक पहुंचना हर किसी के लिए मुमकिन नहीं है। बचपन के शरारती विनोद ठाकुर को आज अपनी दिव्यांगता पर कतई अफसोस नहीं है। वह दिव्यांगता को ईश्वर का अनमोल तोहफा मानते हुए कहते हैं कि किसी अंग विशेष के कमजोर होने से जिन्दगी खत्म नहीं हो जाती। विनोद ठाकुर का जीवन संघर्षों की ऐसी दास्तां है जिसे सुनकर हर मन व्यथित हो जाता है।
नच बलिए के मंच पर सबको कड़ी टक्कर देने वाले विनोद ठाकुर बताते हैं कि बचपन में मुझे नाचना और गाना बिल्कुल पसंद नहीं था। मैं नाचना जानता भी नहीं था, वजह भगवान ने मुझे जिस रूप में धरती पर भेजा, वह अपने आप में अधूरा था। यही वजह थी कि नाच-गाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी आखिरकार मुझे कुछ खास दोस्तों ने डांस का क्षेत्र चुनने के लिए प्रेरित किया। पहले तो मुझे अपने दोस्तों की बात समझ में नहीं आई लेकिन उनकी जिद की वजह से मैंने नाचने की प्रैक्टिस शुरू कर दी। मैंने संकल्प लिया कि मुझे कुछ ऐसा करना है जोकि सबसे अलग हो और उसकी हर कोई तारीफ करे। अपनी लगन और मेहनत से मैं डांस में पारंगत हो गया। मुझे पहली बार 2010 में अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका इण्डिया गॉट टैलेंट में मिला। इसके बाद मैंने डांस को ही अपना मकसद और लक्ष्य मान लिया। विनोद ठाकुर बताते हैं कि मेरे घर की माली हालत ठीक नहीं थी। मेरे पिता जगदीश ठाकुर एक ट्रक ड्राइवर थे। मां उर्मिला ने मेरा और मेरे दो भाई तथा दो बहनों का पालन पोषण किया। जगदीश ठाकुर मूलतः बिहार के बेगूसराय के रहने वाले थे लेकिन विनोद का जन्म दिल्ली में ही हुआ।
विनोद ठाकुर बताते हैं कि मैं जब कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ ही रहा था कि मेरी मुलाकात रक्षा से हो गई। रक्षा ठाकुर के परिजन भी बिहार के मुजफ्फरपुर के ही रहने वाले हैं लेकिन रक्षा का जन्म भी दिल्ली में ही हुआ। विनोद बताते हैं कि मेरी और रक्षा की पहली मुलाकात दिल्ली के एक डांस क्लास में डांस सीखने के दौरान हुई। हम दोनों के बीच प्यार परवान चढ़ा और 2012 में हम दोनों ने शादी कर ली। दोनों पैर से विकलांग विनोद के साथ रक्षा ने परिवार की मर्जी के बिना नजफगढ़ के आर्य समाज मंदिर में शादी की थी। दोनों को अपनी शादी धूमधाम से नहीं होने का मलाल था। उनकी इस मंशा को नच बलिए के सेट पर पूरा किया गया था। विनोद कहते हैं कि रक्षा और मेरी शादी पुच्छल तारे की तरह साबित हुई। कटाक्ष भरे स्वर में वह कहते हैं कि कुत्ते को घी अच्छा नहीं लगा। खैर दो साल से अब मैं नहीं जानता कि रक्षा कहां और कैसे है। मैं जानना भी नहीं चाहता क्योंकि उसने मुझे धोखा दिया, वह मेरी कामयाबी को भुनाना चाहती थी। विनोद कहते हैं कि मेरे अपने कुछ लक्ष्य हैं, जीवन के उसूल हैं जिनसे मैं समझौता नहीं कर सकता। मैं अपने लक्ष्य हर हाल में हासिल करना चाहता हूं।
विनोद ठाकुर ने अपनी डांस कला से सिर्फ भारत ही नहीं अमेरिका, ताईवान, कोरिया, मैक्सिको, हांगकांग, दुबई सहित दुनिया भर के दर्जनों मुल्कों के कलाप्रेमियों को अपना मुरीद बनाया है। अंधेरी मुम्बई में अपनी टीम के साथ रह रहे विनोद ठाकुर इन दिनों पंख बिना उड़ान मूवी पर काम कर रहे हैं। इस मूवी में विनोद ठाकुर के सम्पूर्ण जीवन को ही फिल्माया जा रहा है। उम्मीद है कि यह मूवी दो साल बाद दर्शकों के दीदार को आ जाएगी। विनोद ठाकुर द इण्डियन डिसेबल्ड टैलेण्ट हण्ट नाम की खुद की एक संस्था चलाते हैं, जहां वह डांस के इच्छुक ऐसे बच्चों को डांस सिखाते हैं जोकि दिव्यांग हैं। इस संस्थान को चलाने के लिए विनोद कोई सरकारी मदद नहीं लेते बल्कि अपने स्टेज शो से मिलने वाली धनराशि का 20 फीसदी हिस्सा द इण्डियन डिसेबल्ड टैलेण्ट हण्ट पर ही खर्च कर देते हैं। संघर्ष ही विनोद ठाकुर का मूलमंत्र है। इस शख्स को बेवजह की तारीफ करना और सुनना कतई पसंद नहीं है। विनोद को खाने में बैंगन का भरता और भिण्डी का भुजिया बेहद पसंद है।

अपनी भविष्य की योजनाओं पर विनोद ठाकुर का कहना है कि वह चाहते हैं कि देश का हर दिव्यांग अपने पैरों पर खड़ा हो। वह कहते हैं कि हर किसी के जीवन में मुश्किलें आती हैं, जो मुश्किलों का डटकर मुकाबला करता है वही सफलता भी हासिल करता है। शादी के सवाल पर विनोद ठाकुर का कहना है कि मैं चाहता हूं कि मेरी जीवन संगिनी न केवल आर्टिस्ट हो बल्कि आत्मनिर्भर भी हो। वह कहते हैं कि मुझे दिव्यांग महिला से शादी करने में भी गुरेज नहीं होगा बशर्ते वह अपने कामकाज स्वयं करने में समर्थ हो। विनोद ठाकुर कहते हैं कि मैंने जीवन की हर मुफलिसी के दौर को देखा है। सच तो यह है कि दिव्यांगता ही मेरी ताकत है। यह ईश्वर का मेरे लिए अनमोल तोहफा है।  

राजिंदर सिंह रहेलू यानि मुल्क का असली हीरो

                    
नामुमकिन को मुमकिन करने वाला जांबाज

क्या आप सोच सकते हैं कि जो व्यक्ति कमजोर पैरों की वजह से जिंदगी में अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सका हो वह 185 किलोग्राम वजन उठा सकता है। शायद इस शख्स का नाम न सुना हो क्योंकि यह क्रिकेटर या फिल्मी हीरो नहीं बल्कि एक गरीब का दिव्यांग बेटा है। जी हां हम बात कर रहे हैं पैरालम्पिक पदकधारी राजिन्दर सिंह रहेलू की। बहुत ही गरीब परिवार में जन्मा यह शख्स कभी अपने पैरों पर नहीं चल सका क्योंकि महज आठ महीने की उम्र में ही वह पोलियो का शिकार हो गया था। कहते हैं कि यदि इंसान में कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो वह नामुमकिन काम को भी हंसते हुए कर सकता है। अर्जुन अवार्डी राजिन्दर सिंह रहेलू ने भी कुछ ऐसा ही किया है। वर्ष 2014 के कामनवेल्थ खेलों में हैवीवेट पावर लिफ्टिंग में 185 किलोग्राम वजन उठाकर रजत पदक जीत चुके राजिन्दर सिंह रहेलू उन लोगों के लिए प्रेरणा हैं जो शारीरिक अक्षमता से पीड़ित हैं।
22 जुलाई, 1973 को जन्मे राजिन्दर सिंह रहेलू को आठ महीने की उम्र में ही पोलियो हो गया था। उनका बचपन गरीबी और विकलांगता से लड़ने में बीता लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। वर्ष 1996 में उन्होंने अपने मित्र से प्रेरणा लेकर वेटलिफ्टिंग में करियर बनाने की सोची। वे प्रैक्टिस करने के लिए ट्राइसाइकिल पर जाते थे और जहाँ ट्राइसाइकिल नहीं ले जा सकते थे वहां वे अपने हाथों से चलकर जाते थे। इस जांबाज के जीवन में कई मुसीबतें आईं लेकिन इसने हार नहीं मानी और बहुत जल्द ही राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना ली। राजिन्दर सिंह रहेलू अपनी मेहनत से पॉवर लिफ्टिंग में कामयाब होते गए। सन् 2004 में उन्होंने 56 किलोग्राम वर्ग में एथेंस पैरालम्पिक खेलों में कांस्य पदक जीतने के साथ ही 2008 और 2012 पैरालम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया। 2012 पैरालम्पिक खेलों में वे 175 किलोग्राम वजन उठाने में अपने तीनों प्रयासों में चूक गए लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और 2014 कॉमनवेल्थ खेलों में शानदार प्रदर्शन कर 185 किलोग्राम वजन उठाकर चांदी का पदक अपने नाम किया। सही मायने में राजिन्दर सिंह रहेलू एक सच्चे हीरो हैं। उनके जैसे लोग हमारे लिए हर रोज एक नई आशा की किरण लेकर आते हैं जो यह साबित करती है कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। राजिन्दर सिंह रहेलू जैसे लोगों ने यह साबित किया है कि यदि हिम्मत और हौसला हो तो असम्भव कुछ भी नहीं है। राजिन्दर सिंह रहेलू कहते हैं कि जीवन में नामुमकिन कुछ भी नहीं। हम वो सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वो सब सोच सकते हैं, जो आज तक हमने नहीं सोचा।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 2004 में हुए एथेंस पैरालम्पिक में कांस्य तथा 2014 के ग्लास्गो राष्ट्रमण्डल खेलों की पैरा पावरलिफ्टिंग में चांदी का पदक जीतने वाले राजिन्दर सिंह रहेलू की मां सत्तर साल की गुरदयाल कौर इस उम्र में ठीक से चल नहीं पाती हैं। राजिन्दर सिंह रहेलू की पत्नी उनका सहारा बनी हुई हैं। गुरदयाल कौर कहती हैं कि पांच भाई-बहनों में सबसे छोटे बेटे राजिन्दर की वजह से ही आज आसपास के गांवों में उनकी पहचान है। गुरदयाल कौर बताती हैं कि जब सोढ़ी (रहेलू का निकनेम) आठ महीने का था तो एक दिन दोपहर के समय तेज बुखार हुआ। मैं उसे नहाने लेकर गई। थोड़ी देर बाद ही उसके पैरों ने काम करना बंद कर दिया। दिल घबरा गया। उसी समय घर से बीस किलोमीटर दूर चहला वाले संत के यहां उसे लेकर गए तो उन्होंने बताया कि इसे तो पोलियो हो गया है। इतना सुनते ही मेरा दिल बैठ गया। लेकिन मैंने हिम्मत नहीं हारी। लोगों ने जहां बताया वहां बेटे का इलाज करवाने गई। सुबह रोटी बांध कर जाती थी लेकिन खा नहीं पाती थी। पानी भी पीना होता था तो ट्यूबवेल से पीती थी। बेटे को गोद में लेकर पटियाला, अमृतसर, लुधियाना, चंडीगढ़, मोगा के अलावा अन्य जिलों में चक्कर लगाती रही। मां को टोकते हुए सोढ़ी कहते हैं कि आठ वर्ष की उम्र तक मां मुझे गोद में ले जाकर इलाज करवाती रही। मुझे भी लगता था कि शायद पोलियो ठीक हो जाता है। 21 साल की उम्र तक मैं इलाज करवाने के लिए घूमता रहा। इसके बाद मुझे लगा कि अब यह ठीक नहीं होगा।
राजिन्दर सिंह रहेलू बताते हैं अगर मेरे पास ट्राइसाइकिल नहीं होती तो शायद आज मैं वेटलिफ्टर नहीं बन पाता क्योंकि ट्राइसाइकिल चलाने की वजह से ही मेरे हाथ बहुत मजबूत हो गए। आठवीं की पढ़ाई करने के बाद जब घर से तीन किलोमीटर दूर पढ़ने जाना हुआ तो घर वाले साइकिल से छोड़ने जाते थे। इस पर जंजाकलां की टीचर जसवीर कौर को मेरे हालात पर तरस आई और उन्होंने मुझे ट्राइसाइकिल दी। इसके बाद ट्राइसाइकिल से लुधियाना, फगवाड़ा, जालंधर के अलावा कई जगहों पर जाना शुरू किया। इसके कारण मेरे हाथों में अजीब सी ताकत आ गई। इसके बाद इंटरनेशनल प्लेयर सुरेंद्र सिंह राणा का साथ मिला और मैंने प्रैक्टिस शुरू की, जो आज तक जारी है। गुरदयाल कौर कहती हैं कि दो बड़े बेटों से कहीं अधिक मान-सम्मान मुझे सोढ़ी से मिला। आज वह हमारे घर की शान है। एक समय था जब वह चल नहीं सकता था तो कुछ लोग कहते थे कि यह तो परिवार पर बोझ बन गया है। जब तुम नहीं होगी तो इसकी देखभाल कौन करेगा। आज उन्हीं लोगों को मेरे बेटे ने अपनी इच्छाशक्ति से जवाब दिया है। अब तो मुझे उसकी चिन्ता ही नहीं होती और वह मुंबई तो कभी चेन्नई जाता रहता है। हवा में उड़ने वाले जहाज से भी मेरा बेटा चलता है। यह सब उसकी मेहनत से उसे मिला। राजिन्दर सिंह कहते हैं कि इंसान कुछ भी कर सकता है बशर्ते वह हिम्मत न हारे। वह कहते हैं कि मैं चाहता हूं कि देश का हर दिव्यांग हिम्मत दिखाए और मादरेवतन का नाम रोशन करे।



Thursday, 22 December 2016

जैसा नाम, वैसा काम

विराट कोहली
श्रीप्रकाश शुक्ला
विराट, विराट, विराट। क्रिकेट की दुनिया में आज हर तरफ बस यही नाम गूंज रहा है, वजह इस खिलाड़ी का फौलादी प्रदर्शन और इसकी कुशल नेतृत्व क्षमता है। भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां क्रिकेटर आम इंसान नहीं भगवान माना जाता है। क्रिकेट में भगवान का दर्जा प्राप्त सचिन तेंदुलकर ने जब इस खेल को अलविदा कहा था तब एक स्वर से यही बात सामने आई थी कि आखिर इस खिलाड़ी की जगह कौन लेगा। भारत के पास प्रतिभाएं तो थीं लेकिन संशय बरकरार था। आज विराट कोहली का बल्ला जिस तरह बोल रहा है उसे देखते हुए तो यहां तक कहा जाने लगा है कि देर सबेर ही सही सचिन के कीर्तिमान जरूर टूटेंगे और उन्हें तोड़ेगा भी तो विराट कोहली। इसमें कोई दो-मत नहीं कि क्रिकेट के भगवान सचिन तेंदुलकर के बाद विराट कोहली देश के सबसे पसंदीदा और लोकप्रिय खिलाड़ी हैं।
भारतीय कप्तान और रन मशीन विराट के प्रशंसक आपको हर घर में मिल जाएंगे। विराट कोहली ने विश्व क्रिकेट में अपने लाजवाब प्रदर्शन से तहलका मचा रखा है। हर एक मैच के साथ उनका प्रदर्शन निखरता जा रहा है। वह इस समय एकदिनी क्रिकेट और टी-20 में दुनिया के नम्बर एक बल्लेबाज हैं तो टेस्ट क्रिकेट में दूसरे पायदान पर काबिज हैं। तेजी से कामयाबी की सीढ़ियों को लांघते विराट कोहली को लेकर अपने जमाने के महान सलामी बल्लेबाज सुनील गावस्कर का यह कहना कि आपको यदि एक अच्छा खिलाड़ी बनना है तो आपके पास टैलेंट होना जरूरी है लेकिन यदि आपको महान खिलाड़ी बनना है तो आपके पास विराट कोहली जैसा एटीट्यूड होना चाहिए, यह बड़ी बात है। 2016 में विराट कोहली ने बल्ले से कई कीर्तिमान अपने नाम किए हैं। जिस रफ्तार से कोहली टीम इण्डिया के पूर्व बल्लेबाजों के कीर्तिमान ध्वस्त कर रहे हैं, उससे वह कई मामलों में जल्द ही शिखर पर विराजमान हो जाएं तो किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए। विध्वंसक विराट कोहली जिस तरह बल्लेबाजी कर रहे हैं, उसे देखते हुए महान सचिन तेंदुलकर के रिकार्ड भी खतरे में दिखने लगे हैं। क्रिकेट की तीनों फार्मेट में 50 की औसत से रन बनाना महान खिलाड़ी की ही निशानी है।
अगर टेस्ट क्रिकेट की बात करें तो विराट कोहली न्यूजीलैण्ड के खिलाफ 211, वेस्टइण्डीज के खिलाफ 200 और अभी हाल ही में अंग्रेजों के खिलाफ मुम्बई के वानखेड़े मैदान में 235 रनों की शानदार पारी खेलकर लगातार तीन सीरीज में तीन दोहरे शतक लगाने वाले दुनिया के पहले बल्लेबाज के साथ ही पहले भारतीय कप्तान भी बन गये। 2016 के टी-20 विश्व कप में उन्हें प्लेयर आफ द टूर्नामेंट घोषित किया गया था तो आईसीसी ने विराट कोहली को टी-20 विश्व एकादश का कप्तान भी नियुक्त किया। आई.पी.एल. में भी विराट के बल्ले की जमकर तूती बोली लिहाजा इन्हें ओरेंज कैप के साथ ही प्रतियोगिता के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का पारितोषिक प्रदान किया गया। कोहली ने आई.पी.एल. में 973 रन बनाए थे। 2008 में अण्डर-19 विश्व कप जीतने वाली टीम के कप्तान रहे विराट कोहली अपने आदर्श सचिन तेंदुलकर की ही तरह सामाजिक सरोकारों से भी जुड़े हुए हैं। वह अपने नाम से गरीब बच्चों के लिए एक संस्था चलाते हैं, जिसका नाम विराट कोहली फाउण्डेशन है। 
हाल ही विराट कोहली के नेतृत्व में टीम इण्डिया ने टेस्ट क्रिकेट में इंग्लैण्ड पर जीत का चौका लगाकर एक नया मील का पत्थर स्थापित किया है। इस सीरीज में खुद कप्तान विराट कोहली का बल्ला खूब बोला और उन्होंने टीम को फ्रंट से लीड किया जो उनकी कप्तानी की खासियत रही है। विराट के अलावा बल्लेबाजों में मुरली विजय, चेतेश्वर पुजारा ने भी रन बनाए वहीं गेंदबाजी में रविचंद्रन अश्विन और रवीन्द्र जड़ेजा छाए रहे। इन दोनों ने बल्ले से भी कमाल का प्रदर्शन किया। यदि चेन्नई टेस्ट की बात करें, तो यहां करुण नायर, लोकेश राहुल का बल्ला खूब बोला, जड़ेजा ने पहली बार मैच में 10 विकेट लिए लेकिन मैन ऑफ द मैच का खिताब करुण नायर को तो मैन ऑफ द सीरीज का खिताब विराट कोहली को मिला जबकि पूरी सीरीज में अश्विन ने जादुई गेंदबाजी की थी और वह इसके प्रबल दावेदार थे। चेन्नई टेस्ट में मैन ऑफ द मैच के लिए दो दावेदार थे। बाएं हाथ के स्पिनर रवीन्द्र जड़ेजा ने जहां इंग्लैंड को पहली पारी में 477 रन पर समेटने में अहम भूमिका निभाई वहीं दूसरी पारी में ड्रॉ की ओर बढ़ते मैच को अपने दम पर टीम इण्डिया की झोली में डाल दिया लेकिन मैन आफ द मैच का खिताब ले गए करियर के पहले ही शतक को तिहरे शतक में बदलने वाले करुण नायर। वास्तव में नायर को इसलिए प्लेयर ऑफ द मैच चुना गया क्योंकि टीम इण्डिया को पहली पारी में ऐसी बढ़त चाहिए थी जिससे उसे दूसरी पारी में बैटिंग न करनी पड़े और नायर ने सबसे पहले लोकेश राहुल (199) के साथ 151 रनों की पारी खेली, फिर अश्विन के साथ 181 रन और रवीन्द्र जड़ेजा के साथ 138 रन जोड़े। इस प्रकार उन्होंने न केवल 303 रन नाबाद बनाकर इतिहास रचा बल्कि टीम इंडिया को 282 रनों की निर्णायक बढ़त दिला दी। फिर क्या था इंग्लैंड टीम दबाव में आ गई और उसे मैच बचाने के लिए खेलना पड़ा लेकिन वह दबाव नहीं झेल पाई और जड़ेजा की फिरकी में फंस गई।
अंतिम टेस्ट में टीम इण्डिया के प्रशंसकों को उम्मीद थी कि विराट कोहली सुनील गावस्कर का (774 रन) सीरीज में सबसे अधिक रन बनाने का 45 साल पुराना रिकॉर्ड तोड़ देंगे लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाए। गावस्कर ने यह रिकॉर्ड 1970-71 में उस समय की धुरंधर वेस्टइण्डीज टीम के खिलाफ बनाया था। हालांकि विराट पूरी सीरीज में एक दोहरे शतक के साथ सबसे अधिक रन बनाने वाले बल्लेबाज रहे। उनके बल्ले से 655 रन (दो शतक, दो पचासे) निकले। मैन ऑफ द सीरीज को लेकर उनका मुकाबला टीम इण्डिया के ऑफ स्पिनर रविचंद्रन अश्विन से रहा। अश्विन ने पूरी सीरीज में 28 विकेट और रवीन्द्र जड़ेजा ने 26 विकेट चटकाए और सीरीज जीतने में अहम भूमिका निभाई। लाजवाब फिरकी गेंदबाजी के चलते अश्विन और रवीन्द्र जड़ेजा टेस्ट रैंकिंग में क्रमशः पहले और दूसरे पायदान पर पहुंच गये। 48 साल बाद यह करिश्मा करने वाली यह दूसरी स्पिन जोड़ी है। दरअसल विराट कोहली को मैन आफ द सीरीज का खिताब दिए जाने की वजह यह रही कि उन्होंने ऐसी परिस्थितियों में रन बनाए जिनमें बल्लेबाजी करना कतई आसान नहीं रहा। वैसे भारत के स्पिन विकेट पर बल्लेबाजी आसान नहीं होती और विराट ने टीम को कई मौकों पर संकट से निकालते हुए सुरक्षित स्थिति में पहुंचाया जिससे गेंदबाजों का काम आसान हो गया और वह चढ़कर गेंदबाजी कर पाए।
आप सीरीज के टॉप स्कोररों पर नजर डालें तो अपने आप समझ जाएंगे कि विराट की इतनी अहमियत क्यों रही। कोहली (655) के अलावा चेतेश्वर पुजारा ही एकमात्र भारतीय बल्लेबाज रहे जिसने सीरीज में 400 से अधिक रन बनाए हैं। वह भी कोहली से 254 रन पीछे रहे। इंग्लैंड के बल्लेबाज रूट ने 491 रन ठोके लेकिन वह भी कोहली से काफी पीछे रहे। गेंदबाजी में इंग्लैंड के आदिल राशिद भी कमतर नहीं रहे और 23 विकेट लिए जो अश्विन-जड़ेजा से कम घातक नहीं रहे। ऐसे में विराट कोहली निर्विवाद सबकी पसंद रहे। भारत और इंग्लैंड के बीच चेन्नई में हुए पांचवें और अंतिम टेस्ट में जीत के साथ ही विराट कोहली ने कप्तान के तौर पर एक और उपलब्धि अपने नाम कर ली। टीम इंडिया ने यह टेस्ट पारी के अंतर से जीता। इस जीत के साथ ही विराट कोहली ब्रिगेड ने 18 मैचों से अजेय रहते हुए कप्तान के तौर पर सुनील गावस्कर की टीम के रिकॉर्ड की बराबरी कर ली। इससे पहले टीम इंडिया ने मुंबई टेस्ट में जीत हासिल करते हुए महान हरफनमौला कपिलदेव के नेतृत्व वाली टीम के 17 मैचों में अजेय रहने के रिकॉर्ड की बराबरी की थी।
विराट कोहली संघर्ष का ही दूसरा नाम है। क्रिकेट के इस मुकाम तक पहुंचने के लिए इस धाकड़ बल्लेबाज ने एक बार नहीं अनेकों बार अग्निपरीक्षा दी है। कोहली का जन्म 5 नवम्बर, 1988 को दिल्ली में एक पंजाबी परिवार में हुआ। इनके पिता प्रेम कोहली आपराधिक केस लड़ने वाले एक वकील रहे तो माता सरोज कोहली एक गृहिणी हैं। विराट के बड़े भाई का नाम विकास और बड़ी बहन का नाम भावना है। कोहली जब तीन साल के ही थे तभी उन्होंने क्रिकेट का बल्ला हाथ में थाम लिया था। कोहली उत्तम नगर में बड़े हुए और विशाल भारती पब्लिक स्कूल से शिक्षा ग्रहण की। 1998 में पश्चिमी दिल्ली में खुली क्रिकेट एकेडमी में कोहली ने नौ साल की आयु में दाखिला लिया था। कोहली के पिता ने तभी कोहली को एकेडमी में शामिल किया जब उनके पड़ोसी ने उनसे कहा कि विराट को गली क्रिकेट में समय व्यर्थ नहीं करना चाहिये बल्कि उसे किसी एकेडमी में व्यावसायिक रूप से क्रिकेट सीखना चाहिये। राजीव कुमार शर्मा की देखरेख में कोहली की क्रिकेट परवान चढ़ी। खेलों के साथ ही कोहली पढ़ाई में भी अच्छे थे।
18 दिसम्बर, 2006 को ब्रेन स्ट्रोक की वजह से उनके पिता की मृत्यु हो गयी। अपने प्रारम्भिक जीवन को याद करते हुए कोहली ने एक साक्षात्कार में बताया था कि मैंने अपने जीवन में बहुत कुछ देखा है। मैंने युवा दिनों में ही अपने पिता को खो दिया, जिससे पारिवारिक व्यापार डगमगा गया और मुझे किराये के कमरे में रहना पड़ा। वह समय मेरे और मेरे परिवार के लिए काफी मुश्किल था। आज भी उस समय को याद करते हुए मेरी आँखें नम हो जाती हैं। कोहली के अनुसार, बचपन से ही क्रिकेट प्रशिक्षण में उनके पिता ने उनकी सहायता की थी। मेरे पिता ही मेरे लिए सबसे बड़ा सहारा थे। वही थे जो रोज मेरे साथ खेलते थे। आज भी कभी-कभी मुझे उनकी कमी महसूस होती है। कोहली ने भारतीय टीम का नेतृत्व करने से पहले घरेलू क्रिकेट में विविध-उम्र की टीम में दिल्ली का प्रतिनिधित्व किया है। वे अंडर-19 टीम में भारत के कप्तान थे जिसने 2008 में मलेशिया में अंडर-19 विश्व कप में इतिहास रचा था। इसके कुछ महीनों बाद ही उन्होंने श्रीलंका के विरुद्ध अपने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट करियर की शुरुआत की थी। शुरू-शुरू में उन्हें टीम में आरक्षित खिलाड़ी के रूप में रखा गया लेकिन जल्द ही इस खिलाड़ी ने वन-डे क्रिकेट में ताबड़तोड़ रन बनाकर अपने आपको साबित किया। 2011 विश्व कप जीतने वाली भारतीय टीम में भी विराट कोहली शामिल थे।
कोहली ने 2011 में वेस्टइण्डीज के खिलाफ किंगस्टन में अपना पहला टेस्ट मैच खेला। 2013 में ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका में जमाए गये उनके शतकों के कारण उन पर वन-डे स्पेशलिस्ट बल्लेबाज की छाप लग गई। इसी साल विराट आई.सी.सी. की वन-डे रैंकिंग में शीर्ष स्थान पर भी पहुंचे। बाद में उन्हें टी-20 प्रारूप में भी सफलता मिली। कोहली को 2012 में भारतीय वन-डे टीम के उप-कप्तान के रूप में नियुक्त किया गया। महेन्द्र सिंह धोनी के 2014 में टेस्ट क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद से ही कोहली भारतीय टेस्ट टीम की कप्तानी कर रहे हैं। कोहली ने अपनी दमदार बल्लेबाजी से कई कीर्तिमान अपने नाम किए जिसमें सबसे तेज वन-डे शतक, वन-डे क्रिकेट में सबसे तेज 5000 रन और सबसे तेज 10 वन-डे शतक बनाना भी शामिल है। वे विश्व के अकेले ऐसे बल्लेबाज हैं जिन्होंने लगातार चार साल तक वनडे क्रिकेट में 1000 या उससे भी ज्यादा रन बनाये हैं। 2015 में वह टी-20 में 1000 रन बनाने वाले दुनिया के सबसे तेज बल्लेबाज बन गये। कोहली को कई पुरस्कारों से भी नवाजा गया। 2012 में उन्हें आई.सी.सी. एकदिनी प्लेयर ऑफ द ईयर तो 2011-12 में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड द्वारा सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर चुना गया। 2013 में विराट कोहली को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में अपने अतुलनीय योगदान के लिए अर्जुन पुरस्कार से नवाजा गया। कोहली आई.एस.एल. की टीम एफ.सी. गोवा और आई.पी.टी.एल. फ्रेंचाइजी यू.ए.ई. रॉयल्स के सह-मालिक भी हैं।
सफलता के रथ पर सवार विराट कोहली के लिए साल 2016 बहुत अच्छा रहा। इस साल भारत ने तीन टेस्ट सीरीज अपने नाम कीं और कोई भी टेस्ट नहीं हारा है। भारत ने इस साल 11 टेस्ट मैच खेले जिसमें से नौ टेस्ट मैचों पर जीत हासिल की और दो टेस्ट ड्रा रहे हैं। भारत ने इस साल वेस्टइण्डीज, न्यूजीलैण्ड और इंग्लैण्ड से टेस्ट सीरीज जीती हैं। भारत ने टेस्ट सीरीज में जीत की शुरुआत वेस्टइण्डीज को हराकर की। वेस्टइण्डीज को तीन मैचों की टेस्ट सीरीज में 2-0 से हराया। इस सीरीज में एक टेस्ट मैच ड्रा रहा। इसके बाद भारत ने तीन टेस्ट मैचों की सीरीज में न्यूजीलैंड का क्लीनस्वीप किया। इस कामयाबी के बाद भारत टेस्ट रैंकिंग में नम्बर वन पायदान में आ गया। भारत ने इंग्लैण्ड के खिलाफ भी अपनी जीत का सिलसिला जारी रखा। भारत ने पांच टेस्ट मैचों की सीरीज 4-0 से अपने नाम की। भारतीय कप्तान विराट कोहली की यह टीम जीत का सिलसिला जारी रखना चाहेगी लेकिन उसके सामने चुनौतियां भी कम नहीं हैं। 2017 में सबसे पहले बांग्लादेश टीम भारत आएगी और एक टेस्ट मैच खेलेगी। यह टेस्ट मैच आठ फरवरी से हैदराबाद में खेला जाएगा। इसके बाद ऑस्ट्रेलिया की टीम भारत दौरे पर आएगी। ऑस्ट्रेलिया की टीम के साथ भारत की चार टेस्ट मैचों की सीरीज होगी। यह सीरीज 23 फरवरी से शुरू होगी। इस टेस्ट सीरीज के बाद जून में भारत आईसीसी चैम्पियंस ट्रॉफी में हिस्सा लेगा। चैम्पियंस ट्रॉफी में भारत का पहला मुकाबला पाकिस्तान के साथ होगा। हर दिल अजीज विराट कोहली अपनी ठोस बल्लेबाजी और कुशल नेतृत्व क्षमता से 2017 में भी भारतीय क्रिकेट को बुलंदियों पर जरूर पहुंचाएंगे, इसकी वजह उनका सकारात्मक रवैया है।


Wednesday, 21 December 2016

आंखों बिना जीता जहां


पैरा ओलम्पिक में भाग लेने वाला पहला ब्लाइंड एथलीट अंकुर धामा
छह साल की उम्र में अपनी आंखों की रोशनी खो देने वाले अंकुर धामा ने दिव्यांगता को कुछ ऐसी चुनौती दी है कि उसके जज्बे को आज सभी सलाम करते हैं। आंखों की रोशनी खो जाने या शरीर के किसी भी अंग में अपंगता आ जाने से कइयों का हौसला पस्त हो जाता है लेकिन अंकुर के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ। पैरा एथलीट अंकुर धामा बेशक रियो पैरालम्पिक में पदक नहीं जीत सका लेकिन उसका रिकॉर्ड समय टोक्यो पैरालम्पिक में पदक दिलाने के लिए काफी है। दरअसल ट्रैक में गिर जाने की वजह से ही अंकुर धामा रियो पैरालम्पिक में पदक जीतने से वंचित रह गया था। अंकुर की उम्मीदें जिन्दा हैं, उसे भरोसा है कि वह टोक्यो में पदक जरूर जीतेगा।
अंकुर धामा की जहां तक बात है वह पैरालम्पिक की 15 सौ मीटर दौड़ में हिस्सा लेने वाला देश का पहला नेत्रहीन एथलीट है। अंकुर का कहता है कि मेरा लक्ष्य देश को पदक दिलाना है। मैं रियो की असफलता से निराश नहीं हूं बल्कि इसके लिए अभी से तैयारी में जुटा हूं। उत्तर प्रदेश के खेकड़ा की पट्टी रामपुर के किसान परिवार में जन्में अंकुर की आंखों में रोशनी नहीं है लेकिन उसने अपने हौसले की बदौलत न केवल नई जिन्दगी शुरू की बल्कि वह आज देश के टॉप एथलीटों में शामिल है। इंचियोन एशियन खेलों में एक रजत और दो कांस्य पदक जीतकर अंकुर ने कामयाबी की नई इबारत लिखी थी। ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में पदक न जीत पाने का इस खिलाड़ी को मलाल तो है लेकिन वह बेबाकी से कहता है वह भविष्य में पैरालम्पिक में पदक जरूर जीतेगा। द्रोणाचार्य अवार्डी कोच डॉ. सत्यपाल सिंह के निर्देशन में वह लगातार अपनी प्रतिभा को निखार रहा है। अंकुर के गाइड विपिन कुमार को उम्मीद है कि यह जांबाज पैरालम्पिक में एक न एक दिन पदक जरूर जीतेगा।
भाई गौरव धामा के अनुसार अंकुर ने अपने दम पर अपनी पहचान बनाई है। गौरव कहते हैं कि उसकी आंखों की रोशनी तो जरूर चली गई लेकिन उसकी जिंदगी रोशन है। खेकड़ा के किसान इंद्रपाल सिंह के बेटे अंकुर की आंखों में बचपन के दिनों में दुल्हैड़ी के दिन केमिकल वाला रंग गिर गया था। खूब इलाज कराया लेकिन रोशनी चली गई। मां संतोष देवी, भाई गौरव धामा और बहन अंशु धामा निराश तो थे लेकिन नाउम्मीद कभी नहीं रहे। एक व्यक्ति के कहने पर अंकुर का एडमीशन दिल्ली के ब्लाइंड बच्चों के स्कूल में करा दिया गया। यहीं से अंकुर की जिंदगी बदल गई। अंकुर ने पहली बार वर्ष 2012 में हुई एशियन चैम्पियनशिप में दो स्वर्ण पदक जीतकर तहलका मचाया था, इसके बाद दौड़ में माहिर इस खिलाड़ी ने 800, 1500 और 5000 मीटर में कई मेडल जीत दिखाए। अंकुर ने वर्ष 2014 में इंचियोन के पैरा एशियन खेलों की 800 मीटर दौड़ में रजत, 1500 और 5000 मीटर दौड़ में कांस्य पदक जीते थे। वर्ष 2014 में शारजहां में हुई ओपन एशियन चैम्पियनशिप में भी उसने 1500 मीटर में स्वर्ण और 800 मीटर में कांस्य पदक जीता था। इसी साल दुबई में हुई इंटरनेशनल एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में अंकुर ने 800 मीटर में रजत तो 1500 मीटर में कांस्य पदक जीता था। अंकुर ने सेंट स्टीफंस कॉलेज से ग्रेजुएशन किया है। अंकुर के कोच और द्रोणाचार्य अवार्डी सत्यपाल सिंह कहते हैं कि इस धावक में बला की तेजी है। इस धावक से देश को बहुत सम्भावनाएं हैं।


Monday, 19 December 2016

फौलादी मेजर देवेन्द्र पाल सिंह

जिन्दगी एक परीक्षा

जिसे मुर्दा समझा था, उसका आज मैराथन में है जलवा
महान मुक्केबाज़ मोहम्मद अली ने एक बार कहा था कि जिमखाने में कसरत करने से विजेता तैयार नहीं होते बल्कि विजेता तैयार होते हैं अपने भीतर पल रही इच्छाओं, सपनों और दूरदर्शिता से। अपनी प्रबल इच्छाशक्ति से कुछ ऐसा ही साबित किया भारतीय सेना में रहे मेजर देवेन्द्र पाल सिंह ने। वर्ष 1999 में कारगिल की लड़ाई के दौरान एक पल ऐसा भी आया था जब डोगरा रेजीमेंट के मेजर देवेन्द्र पाल सिंह को मृत घोषित कर उनके शरीर को शव गृह में भेजने का आदेश दे दिया गया था लेकिन एक अनुभवी डॉक्टर की नजरों ने उनकी डूबती सांसों को पहचान लिया और उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया। अस्पताल में महीनों बेहोश रहने के बाद जब मेजर देवेन्द्र पाल को होश आया तो उनसे कहा गया कि उनकी जान बचाने के लिए उनका एक पांव काटना पड़ेगा। ऐसे हालात में भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वह कहते हैं कि मौत को चकमा देने के बाद किसी भी चीज में इतनी ताकत नहीं थी कि उनके जीने के जज्बे को हरा पाती। शायद इसीलिए आज उन्हें भारत का पहला ब्लेड रनर कहा जाता है। यह नाम उन्हें दक्षिण अफ्रीका के बिना पैरों वाले धावक ऑस्कर पिस्टोरियस के नाम पर दिया गया है। देवेन्द्र पाल सिंह अब तक एक दो नहीं लगभग दो दर्जन मैराथन दौड़ों में हिस्सा लेकर अपने आपको फौलादी साबित कर चुके हैं।
कारगिल की लड़ाई के दौरान मेजर देवेन्द्र पाल सिंह के शरीर में कई गंभीर चोटें आई थीं। उनके शरीर में कई जगहों पर अब भी बारूद की चिंगारियों का असर मौजूद है। इस चोट का असर उनके पूरे शरीर पर हुआ। उनकी पसलियों, लीवर, घुटने, कोहनी, आंत और यहां तक कि सुनने की शक्ति भी प्रभावित हुई, जो उन्हें कभी भी पूरी तरह से दर्दमुक्त रहने नहीं देती। देवेन्द्र पाल सिंह को अपने शरीर को क्रियाशील रखने के लिए सामान्य से ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है। जीवन की मुख्यधारा में लौटने और एक सामान्य जीवन जीने के लिए देवेन्द्र पाल सिंह ने खेल के मैदान को अपनी कार्यशाला के रूप में चुना। उन्होंने शुरुआत गोल्फ, स्क्वैश और वॉलीबाल खेलने से की और इस दौरान लगातार व्यायाम भी करते रहे ताकि उनके शरीर को फिर से दबाव सहने की आदत हो जाए। लेकिन यह सब करते हुए भी दौड़ना सम्भव नहीं था क्योंकि उस वक्त जिस कृत्रिम पैर के सहारे वे चलते थे, वह दौड़ने योग्य नहीं थी। इस सब के बावजूद वर्ष 2009 में उन्होंने दिल्ली और मुम्बई में होने वाली हाफ मैराथन दौड़ में शिरकत करने का निश्चय किया। मेजर सिंह अगले दो साल तक आयोजित होने वाली मैराथन दौड़ों में चलने वाली टांग से ही भाग लेते रहे। उनके जज्बे को देखते हुए भारतीय सेना का ध्यान भी इस ओर गया और वर्ष 2011 में भारतीय सेना ने उन्हें दौड़ने के उद्देश्य से खासतौर से बनाई गई नकली टांग यानी ब्लेड प्रोस्थेसिस उन्हें भेंट की। इस ब्लेड से मेजर देवेन्द्र पाल सिंह दोनों पांवों से दौड़ने लगे हालांकि इससे उनको थकावट भी ज्यादा होती है बावजूद इसके वह इन्हीं ब्लेड के सहारे मैराथन दौड़ों में हिस्सा ले रहे हैं। उनकी दौड़ने की अवधि अब चार घंटे से घटकर दो घंटे की हो गई है। देवेन्द्र पाल सिंह के इस जज्बे ने कई लोगों को उनका मुरीद बना दिया है। फिल्म कलाकार राहुल बोस और मिलिंद सोमण भी उनसे काफी प्रभावित हुए। वह कहते हैं कि कारगिल की लड़ाई के बाद जब मैं महीनों अस्पताल में पड़ा रहा तो न जाने कितने हिन्दुस्तानियों ने अपना खून देकर मेरी जान बचाई थी, इसलिए मेरी रगों में सैकड़ों हिन्दुस्तानियों का खून दौड़ रहा है। मेजर सिंह कहते हैं कि उनकी इस कोशिश को न सिर्फ लोगों की सराहना मिली बल्कि लोगों ने उन्हें प्रोत्साहित भी किया। मेजर देवेन्द्र पाल सिंह ने भी लोगों को निराश नहीं किया और अपनी दिनचर्या को निभाते हुए वह उन लोगों का मार्गदर्शन कर रहे हैं जो अपना कोई अंग गंवा चुके हैं।
मेजर सिंह कहते हैं कि जिस किसी ने भी मेरी तरह किसी हादसे में अपना कोई अंग गंवा दिया है, मैं चाहता हूं कि वे भी हिम्मती बनें। इसलिए मैंने फेसबुक पर एक कम्युनिटी बनाई है ताकि ऐसे सभी लोगों को एक मंच पर इकट्ठा कर उन्हें प्रोत्साहित कर सकूं। लड़ाई के मैदान से लेकर निजी जीवन तक मेजर देवेन्द्र पाल सिंह कई मोर्चों पर न सिर्फ लड़े बल्कि उसमें जीत भी हासिल की। वह पिछले 17 साल से अकेले ही अपने बेटे का पालन पोषण कर रहे हैं। वह कहते हैं कि मुझे कुछ अजीब नहीं लगता। मैं अपने बेटे की देखभाल उसी तरह से कर रहा हूं जैसे कोई भी सामान्य माता-पिता करते हैं। फिलहाल दिल्ली की एक प्राइवेट बैंकिंग कम्पनी में बतौर प्रशासनिक प्रमुख काम कर रहे मेजर देवेन्द्र पाल सिंह कई निराश जिन्दगियों में आशा की किरण जगा चुके हैं। वह हर किसी की मदद में हमेशा आगे रहते हैं।
मेजर सिंह कहते हैं कि मैं कई सर्जरी और ऑपरेशन से गुजरा लेकिन मैंने इस मुश्किल समय में हार नहीं मानी। समय के साथ जिन्दगी जैसे मुड़ती चली गई। मैं उसी में ढलकर आगे बढ़ता गया।  आज मैं जिस मुकाम पर हूं वहां तक पहुंचने के लिए मैं खासतौर पर उन लोगों का भी शुक्रगुजार हूं जिन्होंने मुझे किसी काबिल नहीं समझा। अगर वे लोग मुझे इस नजरिए से नहीं देखते तो आज मैं आप लोगों के बीच नहीं होता। मेरा मानना है कि इंसान की फिजिकल स्ट्रेंथ से ज्यादा उसका दिमाग ताकतवर होता है। एक दिमाग ही है जो उसे हर परिस्थिति से लड़ना सिखाता है। मेजर सिंह कहते हैं कि इस जीत में टेक्नोलॉजी कुछ हद तक सहायक है। ब्लेड लगाने से पहले ही मैंने दौड़ना शुरू कर दिया था। शुरुआत में बहुत मुश्किलें आईं। शरीर के अलावा दिल में भी दर्द रहने लगा लेकिन मैंने हार नहीं मानी और रोज दो से तीन किलोमीटर दौड़ने की प्रैक्टिस शुरू कर दी। कुछ महीनों बाद मैंने महसूस किया कि रनिंग से मेरे शरीर की हर तकलीफ और दर्द दूर हो रहा है। उसके बाद मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
वह कहते हैं कि जिन्दगी एक परीक्षा है। हम स्कूल में पढ़ाई करके जैसे हर क्लास का इम्तिहान पास करके अगली क्लास में आते हैं वैसे ही जिन्दगी में भी पढ़ाई करनी होती है। इस दौरान जो मुश्किलें आती हैं आप उन्हें टेस्ट की तरह समझिए। जब तक युवा जीवन के इम्तिहान में इन चुनौतियों को पास नहीं करेंगे तब तक ऊपर नहीं उठ सकेंगे। जीवन का हर चैलेंज आपको ऊपर उठाने के लिए मिलता है लेकिन हम उसे मुसीबत समझ कर खो देते हैं। दो बार लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड में नाम दर्ज करा चुके मेजर देवेन्द्र पाल सिंह अब तक दो दर्जन हाफ मैराथन दौड़ों में हिस्सा ले चुके हैं। वह  खुद के जीवन को आम लोगों की तरह जीते हैं। एक्सरसाइज और रनिंग की प्रैक्टिस उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। वे खुद को और खुद जैसे अन्य लोगों को चैलेंजर्स कहलाना पसंद करते हैं। जो लोग किसी वजह से अपने पांव खो चुके हैं, उनकी मदद के लिए मेजर एक संस्था भी चला रहे हैं। जहां इन लोगों को कृत्रिम अंगों के जरिए सामान्य जीवन जीने के लिए मोटिवेट किया जाता है।

वह कहते हैं जीवन में उतार-चढ़ाव आते हैं। अलग-अलग तरह की परिस्थितियां सामने आती हैं, जिनका सामना करने की अधूरी तैयारी के चलते हम उसे समस्या के रूप में देखने लगते हैं। पर जब हम पूरी तैयारी से हालात का सामना करने को खड़े होते हैं तब वही परिस्थितियां हमें चुनौती नजर आती हैं, जिसे हमें जीतना होता है। आज देवेन्द्र पाल सिंह युवाओं के प्रेरणास्त्रोत बन हैं। वह वर्ष 1997 में आईएमए से सेना में भर्ती हुए थे। मेजर सिंह कहते हैं कि फौज में मिली ट्रेनिंग ने पांव पर खड़े होने के लिए प्रेरित किया। यह जाना कि विकलांगता कोशिश नहीं करने वालों में होती है जबकि वह चैलेंजर बनना चाहते थे और बने। डेढ़ दशक दर्द में गुजारने के बाद पहली हाफ मैराथन वह वर्ष 2009 में दौड़े जोकि देश का पहला पराक्रम बना और लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज हुआ। उनका 2013 और 2014 की मैराथन का प्रदर्शन भी लिम्का बुक में दर्ज हुआ। मेजर देवेन्द्र पाल सिंह कहते हैं मुझे दुबारा जीवन देने वाले सैन्य चिकित्सक का नाम भी नहीं पता। मेरे मन में उनसे मिलने की तमन्ना बढ़ती जा रही है। वह उस चिकित्सक को अपनी उपलब्धियां समर्पित करना चाहते हैं। यह मेजर देवेन्द्र पाल सिंह की कोशिशों का ही नतीजा है कि उनके द चैलेंजिंग वंस नामक ग्रुप से लगभग एक हजार से अधिक लोग जुड़े हैं जिनमें एक सैकड़ा से अधिक लोग दौड़, स्वीमिंग, राइडिंग व पैरा ओलम्पिक आदि में हिस्सा ले चुके हैं।

Friday, 16 December 2016

दिव्यांगता को चुनौती देती स्मिनू जिन्दल

 अपनी कमजोरी को बनाया ताकत
निःशक्तजन, यह शब्द सुनते ही हमारे जेहन में भले ही असहाय, लाचार और बेचारगी का भाव पैदा होता हो पर खुद निःशक्तजनों ने इस शब्द के मायने पूरी तरह बदल दिए हैं। वे कहने को बेशक निःशक्तजन हों पर उन्होंने अपने काम से ऐसा मुकाम हासिल किया है, जिससे वे मुल्क में बेहद खास बन गए हैं। वाकई हमारे आसपास आज ऐसे निःशक्तजनों की कमी नहीं है, जिन्होंने अपनी कमजोरी को ताकत बनाया है, उस ताकत से इरादे मजबूत किए और फिर भरी हौसलों की ऊंची उड़ान। एक ऐसी उड़ान, जिसके सफर में लाख बाधाएं आईं, पर मजबूत इरादे उन्हें डिगा नहीं पाए और वे पहुंचे अपनी मंजिल तक। इस दुनिया में रोज लाखों लोग पैदा होते हैं। रोज लाखों लोग मरते हैं। मगर दुनिया में चंद ही लोग अपना नाम, अपनी पहचान बना पाते हैं। वे लोग कोई नया काम नहीं करते, मगर हर काम को अलग ढंग से करना जानते हैं। स्मिनू जिन्दल ने भी कुछ ऐसा ही किया है।
विकलांगता हमारे देश का बहुत बड़ा अभिशाप है। आंकड़ों के अनुसार विश्व का हर छठा विकलांग व्यक्ति भारतीय है। इसका दुखद पहलू यह है कि इनमें से 75 प्रतिशत 18  से 25 वर्ष आयु वर्ग के हैं। इनमें से बहुत कम लोगों को शिक्षा, रोजगार आदि की सुविधाएँ नसीब हो पाती हैं। इनकी बदहाली का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि रोजगार में विकलांगों का हिस्सा केवल 0.4  प्रतिशत है। विकलांगों को शिक्षा और रोजगार उपलब्ध कराना एक राष्ट्रीय चुनौती है। इस काम में भी स्वयंसेवी संगठन और कुछ निजी कम्पनियाँ सक्रिय हैं। ह्वीलचेयर के सहारे चलने-फिरने वाली दिल्ली की स्मिनू जिन्दल ने अपने खुद के अनुभव से प्राप्त करुणा को सहायता में बदलने के लिए स्वयं नाम की संस्था बनाई है। स्वयं दिव्यांग व्यक्तियों के लिए बुनियादी सुविधाएं जुटाने पर ध्यान केन्द्रित कर रही है। इसका कारण यह है कि हमारी इमारतें, सड़कें, गलियाँ आदि शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के लिए सुविधाजनक नहीं हैं। स्मिनू जिन्दल इसके लिए सरकार का साथ दे रही हैं और उसका साथ ले भी रही हैं।
जिन्दल परिवार की स्मिनू उन दिव्यांगों के लिए आदर्श हैं जो जिन्दगी अपनी तरह से जीना चाहते हैं। स्मिनू जिन्दल मौजूदा समय में जिन्दल समूह की कम्पनी सॉ लिमिटेड की मैनेजिंग डायरेक्टर होने के साथ दिव्यांगता को रोज जीती हैं। उन्होंने अपनी दिव्यांगता को अपनी ताकत बनाते हुए ऐसी पहचान बनाई कि आज उनकी ह्वीलचेयर खुद को लाचार समझती है। उनकी स्वयं नाम की स्वैच्छिक संस्था दिव्यांगों के सेवाभाव को पूरी तरह से समर्पित है। स्मिनू जब 11 साल की थीं, तब जयपुर के महारानी गायत्री देवी स्कूल में पढ़ती थीं। छुट्टियों में दिल्ली वापस आ रही थीं, तभी कार का एक्सीडेंट हुआ और वह गम्भीर स्पाइनल इंजुरी का शिकार हो गईं। हादसे के बाद उनके पैरों ने काम करना बंद कर दिया और उन्हें ह्वीलचेयर का सहारा लेना पड़ा। स्मिनू जिन्दल बताती हैं कि अपने रिहैबिलिटेशन के बाद जब मैं इण्डिया वापस आई तो काफी कुछ बदल चुका था। मैंने मायूस होकर पिताजी से कहा था कि मैं स्कूल नहीं जाऊंगी, पर पिताजी ने जोर देकर मुझसे कहा कि तुम्हें अपनी बहनों की तरह ही स्कूल जाना पड़ेगा। आज मेरे पति और बच्चों के लिए भी मेरी विकलांगता कोई मायने नहीं रखती। स्मिनू कहती हैं कि आपको आपका काम स्पेशल बनाता है न कि आपकी स्पेशल कंडीशन। वह दिव्यांगों को अपने संदेश में कहती हैं खुद की अलग पहचान बनाने के लिए अपनी कमी को आड़े न आने दें, यही कमी आगे चलकर आपकी बड़ी खासियत बन जाएगी। स्मिनू जिन्दल का कहना है कि यदि हम मन से दिव्यांगता को निकाल कर लक्ष्य तय करें तो सफलता अवश्य मिलेगी। सरकार या स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद की बजाय सबसे पहले हमें अपने आपको मजबूत बनाना होगा। जब तक हम मन से मजबूत नहीं होंगे तब तक हम छोटा से छोटा काम करने में भी अपने आपको असमर्थ पाएंगे।
स्मिनू जिन्दल बताती हैं कि राजस्थान की मिट्टी से मेरा पुराना नाता रहा है। मुझे राजस्थान की अलग-अलग जगहों पर घूमना, जायकेदार खाना, कपड़े और वहां का हस्तशिल्प अभी भी बहुत याद आते हैं। आज भी लगता है जैसे कल ही जैसलमेर के रेगिस्तान में ऊंट की सवारी करके लौटी हूं। स्मिनू कहती हैं कि मैं आज भी जयपुर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती हूं क्योंकि मुझे लगता है कि अगर मैं वहां गयी और वह सब नहीं कर पाई जिनकी मीठी यादें मेरे दिल में हैं तो मुझे बहुत मायूसी होगी। सोचती हूं कि क्या मेरे जैसे और लोग राजस्थान में नहीं होंगे, क्या उन्हें भी रोजमर्रा की जिन्दगी जीने में ऐसी बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता होगा। वह कहती हैं कि जब मैं अपने पुनर्वास के उपरांत भारत वापस आई तो मैंने पाया कि सामाजिक ढांचागत सुविधाओं में सुगमता न होना एक बड़ी समस्या है। इसके अलावा भी बहुत सारी समस्याएं हैं।
मुझे लोग बेचारगी की नजर से देखते थे तब अच्छा नहीं लगता था। यद्यपि मैं एक समृद्ध परिवार से थी और मेरे पिताजी ने मेरे लिए स्कूल में रैम्प बनवा दिया जिसके चलते मैंने स्कूल की पढ़ाई थोड़ी सहजता से पूरी की। वह कहती हैं कि जब पहले दिन मैं स्कूल पहुंची तो दूसरे बच्चों का मेरी तरफ देखने का नजरिया अलग था। पर शायद बच्चे बहुत सरल होते हैं इसलिए उन्होंने खेलते-खेलते कब मुझे अपना दोस्त बना लिया, मुझे पता ही नहीं लगा। आज जब पीछे मुड़कर देखती हूं तो लगता है कि बच्चे इतने सरल होते हैं कि वे असामान्य लोगों में भी समानता खोज लेते हैं। जिन निःशक्त या सामान्य बच्चों को एक समेकित वातावरण में सामाजिक विविधता के साथ पढऩे-लिखने और खेलने का मौका नहीं मिलता वे अक्सर सम्पूर्ण विकास से महरूम रह जाते हैं। अक्सर यही बच्चे बड़े होकर सामाजिक विविधता को नहीं स्वीकार पाते और निःशक्तजनों के प्रति एक उदासीन रवैया रखने को मजबूर होते हैं। इसलिए मैं मानती हूं सभी स्कूलों का बाधामुक्त होना जरूरी है जिससे सभी स्कूलों में समावेशी शिक्षा मिल सके और निःशक्त बच्चों को निःशक्तता आधारित स्पेशल स्कूलों में जाने को बाध्य न किया जाए। स्कूलों व उच्च शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों को बाधामुक्त बनाने के साथ-साथ हमें देखना होगा कि बच्चे कैसे अपने-अपने घरों से निकल कर सुरक्षित स्कूल तक पहुंचें, इसके लिए यातायात सुगम्यता एक महत्वपूर्ण घटक है। क्या सड़क किनारे बाधामुक्त पैदल यात्री पथ हैं, क्या हमारी परिवहन व्यवस्था उनके लिए सुगम्य हैं, क्या ट्रैफिक लाइटें एक श्रवण विकलांग व एक दृष्टिबाधित व्यक्ति की आवश्कताओं को पूरा करती हैं, क्या पैदल यात्री पथ पर स्पर्श संकेतक लगे हैं जिससे हमारे दृष्टिबाधित साथी भी सबके सामान इन आवश्यक सुविधाओं का उपयोग कर सकें। परिवहन के सभी साधन जैसे रेलवे, एयरपोर्ट व एयरप्लेन, बसें, टैक्सी, रिक्शा आदि में भी सुगम्यता की कानूनी अनिवार्यताएं हैं, जिन्हें आज हमें उपलब्ध करने को कृतसंकल्पित होना चाहिए। स्मिनू जिन्दल कहती हैं कि मैं अपनी संस्था के माध्यम से दिव्यांगों की परेशानियों को दूर करने के बेशक प्रयत्न कर रही हूं लेकिन मैं इन्हें नाकाफी मानती हूं। दरअसल दिव्यांगों का यदि वाकई भला करना है तो हमें समन्वित प्रयास करने होंगे। अकेली स्मिनू जिन्दल या कोई और हर समस्या का समाधान नहीं है। आओ हम सब मिलकर दिव्यांगों की बेहतरी के काम करें।


Tuesday, 13 December 2016

चक दे इण्डिया गाना सुनकर बना चैम्पियन

 सुहास एलवाई यानि सर्वश्रेष्ठ कर्मठ
बीजिंग में फहराया भारत का परचम
जीवन की हर चुनौती एक परीक्षा है। जो दिल से चुनौती को स्वीकारता है, सफलता उसी के कदम चूमती है। एक प्रशासनिक अधिकारी पर ढेर सारी जवाबदेही होती हैं, ऐसे में वह यदि प्रतिस्पर्धी खेल-कौशल के लिए समय निकाल कर मादरेवतन का मान बढ़ाता है तो निःसंदेह यह बड़ी बात है। आजमगढ़ के मौजूदा कलेक्टर सुहास एलवाई ने बचपन की अपनी दिव्यांगता को कभी अपने मानस पर हावी होने नहीं दिया। उन्होंने न केवल लक्ष्य तय किए बल्कि अपनी लगन और मेहनत से उन्हें हासिल भी किया। पढ़ाई-लिखाई का क्षेत्र रहा हो या फिर खेल का मैदान, उन्होंने हर जगह कामयाबी की दास्तां लिखी। नवम्बर, 2016 में शटलर सुहास एलवाई ने बीजिंग में जो करिश्मा किया, उसकी जितनी तारीफ की जाए वह कम है। एशियन पैरा बैडमिंटन के फाइनल में जीत का परचम फहराने वाले सुहास एलवाई देश के इकलौते प्रशासनिक अधिकारी हैं। सरकारी फाइलों और योजनाओं को लेकर बैठक दर बैठक, दौरे पर दौरे करने वाले उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के कलेक्टर सुहास एलवाई ने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति की बदौलत ही यह इतिहास रचा है। सेमीफाइनल में कोरिया के क्योन ह्वांन सान को हराकर फाइनल में पहुंचे शटलर सुहास ने इंडोनेशिया के हरे सुशांतो को हराकर न केवल स्वर्ण पदक पर कब्जा जमाया बल्कि देशवासियों का सिर गर्व से ऊंचा कर दिया। 2007 बैच के सुहास एलवाई प्रदेश के गिने-चुने अच्छे अफसरों में शुमार होने के चलते ही समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के संसदीय क्षेत्र आजमगढ़ में कलेक्टर के पद पर तैनात हैं। खेल ही नहीं अपनी प्रशासनिक कार्यशैली के चलते उन्हें जिस जिले का भी कार्यभार मिलता है, वह वहां की सूरत और सीरत बदल देते हैं। करिश्माई व्यक्तित्व के धनी सुहास एलवाई को प्रदेश सरकार यश भारती सम्मान तो केन्द्र सरकार सर्वश्रेष्ठ कर्मठ का पुरस्कार प्रदान कर चुकी है।
बीजिंग में इतिहास रचकर देश का मान बढ़ाने वाले आजमगढ़ के जिलाधिकारी और 2007 बैच के आईएएस अधिकारी सुहास एलवाई ने अपने जज्बे और जुनून से साबित कर दिखाया कि यदि लक्ष्य के प्रति समर्पण हो तो जिन्दगी में किसी भी चुनौती से पार पाया जा सकता है। चीन की राजधानी बीजिंग में एशियन पैरा-बैडमिंटन चैम्पियनशिप जीतकर जैसे ही वह आजमगढ़ पहुंचे उनका जोरदार स्वागत किया गया। कलेक्टर सुहास एलवाई की यह सफलता उन लोगों के लिए नसीहत है, जो काम के दबाव का बहाना बनाकर अपनी लाचारी बयां करते हैं। सुहास एलवाई को खेल विरासत में मिले हैं। उन्होंने दूरभाष पर हुई चर्चा में बताया कि उनके पिताजी बॉल बैडमिंटन के अच्छे खिलाड़ी थे। वह जब खेलते तो मुझे अक्सर स्कोरिंग में लगा दिया जाता। उनके घर के पास क्लेकोर्ट था, सो मैंने पहले बॉल बैडमिंटन पकड़ा। आउटडोर खूब खेला, इनडोर के अवसर बहुत कम मिले। वह बताते हैं कि स्कूल स्तर पर उन्हें क्रिकेट और वॉलीबाल में कई अवार्ड भी मिले। नौकरी में आने के बाद ही उन्होंने बैडमिंटन में हाथ आजमाए। वह ट्रेनिंग एकेडमी में बैडमिंटन व स्क्वैश में कई बार चैम्पियन तो कई बार रनर अप रहे। अपनी सफलता पर वह कहते हैं कि मैंने खेलों को न केवल अपने जीवन का हिस्सा बनाया बल्कि प्रतिदिन एक-दो घण्टे अभ्यास भी करता हूं।
वह बताते हैं कि पढ़ाई हो या प्रशासनिक जिम्मेदारी, मैं अपने लक्ष्य के प्रति हमेशा ईमानदारी बरतने की कोशिश करता हूं। सफलता के लिए इंसान के अंदर जुनून होना चाहिए, सच कहें तो सर्वोत्तम प्रयास से ही सफलता मिलती है। वह बताते हैं कि जब मैं आजमगढ़ की सगड़ी तहसील में एसडीएम रहा तब वहां बैडमिंटन कोर्ट नहीं था। मैं रोज खेलने के लिए 18 किलोमीटर दूर आजमगढ़ जाता था। आगरा में भी रहा, वहां अच्छे खिलाड़ी थे सो भरपूर सहयोग मिला। वह कहते हैं कि पैरा स्पोर्ट्स में खिलाड़ियों को प्रोत्साहन की काफी गुंजाइश है। सरकार प्रयास भी कर रही है और खिलाड़ियों को आर्थिक सहायता भी मिल रही है। अबूह उबैदा को ही लें वह मेरे साथ ही बीजिंग चैम्पियनशिप में हिस्सा लेने गए थे। सरकार से उन्होंने सहयोग मांगा और मुख्यमंत्री ने उन्हें 1.13 लाख रुपये की मदद की। मैं अपने खर्च पर जा सकता था इसलिए मैंने सहयोग की गुहार नहीं लगाई। सुहास एलवाई कहते हैं कि खेलभावना जीवन के हर क्षेत्र में मदद करती है। जिस तरह खेलों में चुनौती होती है वैसे ही प्रशासनिक दायित्व भी चुनौतीपूर्ण होते हैं।
जीत-हार खेल का हिस्सा है। खिलाड़ी एक मुकाबला हारता है तो दूसरी प्रतिस्पर्धा के लिए दुगुनी ताकत से जुट जाता है। उसी तरह प्रशासनिक दायित्व में भी सफलता-विफलता लगी रहती है। मेरा मानना है कि विफलता पर हताश होने की बजाय उसे नसीहत के रूप में लेते हुए पुनः प्रयास करने चाहिए। बीजिंग में मिली सफलता पर वह कहते हैं कि मुझे तीन महीने पहले चैम्पियनशिप के बारे में जानकारी मिली। मैं चूंकि प्रोफेशनल नहीं शौकिया खिलाड़ी हूं सो सफलता को लेकर मन में थोड़ी हिचक सी थी। स्वर्ण पदक जीतूंगा यह सोचने की बजाय मैंने अच्छा खेलने का निश्चय किया था। वह कहते हैं कि चूंकि बैडमिंटन में चीन, इंडोनेशिया, मलयेशिया और कोरिया के नामचीन खिलाड़ियों का दबदबा रहता है सो उन्हें हराना हमेशा मुश्किल होता है। वह बताते हैं कि प्रतियोगिता में हिस्सा लेने से पहले मैंने यू ट्यूब पर इन खिलाड़ियों का खेल देखा और उन पर फतह पाने की रणनीति तय की। मेरी वर्ल्ड रैंकिंग नहीं थी इसलिए मुझे राउंड राबिन में तीन, प्रीक्वार्टर फाइनल, क्वार्टर फाइनल, सेमीफाइनल और फाइनल सहित कुल सात मैच खेलने पड़े और मैं विजेता बना।
बीजिंग के अनुभव के बारे में वह बताते हैं कि जब मैं बीजिंग पहुंचा तो वहां अधिकतम तापमान माइनस एक व न्यूनतम माइनस आठ था। हम लोगों की 15.20 डिग्री में रहने की आदत होती है। ऐसे में अपने को फिट रखना सबसे बड़ी चुनौती थी। इसके लिए अतिरिक्त वार्म-अप करना पड़ा। दूसरा वहां प्रोत्साहित करने वाले समर्थक नहीं थे, इसलिए खुद को मानसिक रूप से तैयार किया। फाइनल में मैं पहला सेट हार गया था और दूसरे सेट में 11-9 से पीछे था लेकिन आत्मविश्वास नहीं खोया और जीत हासिल की। सुहास एलवाई बताते हैं कि उन्हें गाने सुनने का शौक है। उन्होंने फाइनल खेलने से पहले चक दे इंडिया गाने को दो बार सुना था। बैडमिंटन में इस सफलता पर वह कहते हैं कि प्रोफेशनल खिलाड़ी गौरव खन्ना ने मेरी काफी मदद की। उन्होंने तमाम महत्वपूर्ण तकनीकी बातें बताईं। वह कहते हैं कि मैं जहां भी रहा, खेलों को प्रोत्साहित करने की पूरी कोशिश की। हाथरस, जौनपुर, आजमगढ़ में मैंने बैडमिंटन कोर्ट दुरुस्त कराये। खेल से जुड़ी गतिविधियों को प्रोत्साहित किया। इससे बच्चों का खेल में रुझान बढ़ता है। कलेक्टर सुहास एलवाई अपने पिता स्वर्गीय यथिराज आयंगर को प्रेरणास्रोत तो बैडमिंटन में मलेशियाई खिलाड़ी ली चांग को अपना आदर्श मानते हैं। वह बताते हैं कि मैंने यू ट्यूब पर ली चांग के सारे मैच देखे हैं। उनकी तकनीक, फुटवर्क, हैंड मूवमेंट तथा तेजी को समझा है। वह बताते हैं कि पत्नी व परिवार का प्रोत्साहन भी उनके लिए बहुत अहम है। उनका अभिभावकों को यही संदेश है कि वे अपने बच्चों को खेल के प्रति अभिप्रेरित करें ताकि वे स्वस्थ रहें और स्वस्थ भारत का सपना साकार किया जा सके।


कला की एकांत साधिका साधना ढांड

बुलंद हौसलों से बनीं रोल मॉडल
उनका मंत्र- व्यस्त रहो मस्त रहो
यदि जज्बा और हौसले बुलंद हों, तो किसी भी कठिनाई में अपना मुकाम हासिल किया जा सकता है। जिंदगी में अब तक 80 फ्रैक्चरों का सामना कर चुकी तथा ऑस्ट्रियोपॉरेसिस जैसी गम्भीर
बीमारी से परेशान साधना ढांड ने अपनी कला को ही अपनी बीमारी से लडऩे का जरिया बनाया। उनके जज्बे और हौसले का सम्मान करते हुए सामाजिक न्याय तथा अधिकारिता मंत्रालय ने उन्हें रोल मॉडल के अवार्ड से नवाजा है। 12 बरस की उम्र से श्रवण शक्ति खोने, पैरों से निःशक्त, नाटे कद के साथ जिंदगी की तमाम चुनौतियों से लड़ते हुए उन्होंने पेंटिंग, शिल्पकला तथा फोटोग्राफी के क्षेत्र में सुकून तलाशा और कई दुर्लभ आयाम स्थापित किए। मूलतः रायपुर (छत्तीसगढ़) की रहने वाली इस कला साधक को सिर्फ अपने काम पर यकीन है।
कल्पना की ऊंचाइयों पर अपने दुख विस्मृत करती साधना जिंदगी का उत्सव अपनी कला में तलाशती हैं। चित्रकला, शिल्पकला के साथ अप्रतिम फोटोग्राफी करने वाली साधना की कृतियां न केवल दर्शकों को अचंभित करती हैं, बल्कि विपरीत स्थितियों में भी जीवन कैसे जिया जा सकता है, इसकी प्रेरणा भी देती हैं। पेड़-पौधों के बीच भी उनका कलाकार अनुपम कृतियां तलाशता रहता है। फल, फूलों, सब्जियों से साकार किए 100 से अधिक गणेश के चित्र इसकी गवाही देते हैं। यह उनके भीतर बैठे कलाकार का ही करिश्मा है कि वे अपनी तस्वीरों में भी अद्भुत शेड एण्ड लाइट तथा कलर इफेक्ट का कौशल प्रदर्शित करती हैं। 1982 से अपने घर पर बच्चों को चित्रकला का प्रशिक्षण देने वाली साधना ने अब तक 20000 से ज्यादा छात्रों को प्रशिक्षित किया है। गणेश भगवान के विभिन्न स्वरूपों पर केंद्रित उनकी एकल फोटो प्रदर्शनी को देश के विभिन्न शहरों में दर्शकों ने भरपूर सराहना दी। जवाहर कला केंद्र, जयपुर के अलावा भुवनेश्वर, पूना, नागपुर, भोपाल, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली जैसे स्थानों पर उन्होंने अपने प्रदर्शनी से न केवल अपना बल्कि प्रदेश का नाम भी रोशन किया है।
स्त्री शक्ति, सृजन सम्मान, महिला शक्ति सम्मान, बेस्ट टेरेस गार्डन अवार्ड, बोंसाई- फ्लावर डेकोरेशन, लैंडस्कैप, फोटोग्राफी आदि क्षेत्रों में विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित साधना अपनी व्यस्तता और एकाग्रता के जरिए आज इस मुकाम तक पहुंची हैं। बुलंद हौसलों वाली सशक्त और नन्हें कद की साधना हालांकि विगत दो वर्षों से चलने-फिरने में असमर्थ हैं, बावजूद इसके उनकी न तो कल्पना मुरझाई है, न ही एकाग्रता विचलित हुई है। बदलते परिवेश में उनका मानना है कि लोगों के पास समय नहीं है, जाहिर है इससे एकाग्रता कहां मिलेगी। निश्चित रूप से साधना ढांड न केवल निःशक्तजनों के लिए  बल्कि सशक्तों के लिए भी एक रोल मॉडल हैं।
चित्रों की उनकी प्रदर्शनी को देखने के बाद लगता ही नहीं कि ये कृतियां अस्सी फीसदी शारीरिक निःशक्तता से पीड़ित किसी महिला द्वारा रची गयी हैं। साधना जी के अन्दर के कलाकार की जिजीविषा देखते ही बनती है। वह खाली समय में अपनी कृतियों को उकेरने में ही मगन रहती हैं। साधना जी अपने घर पर ही एक शिल्प स्कूल चलाती हैं, जहां पर वे बच्चों और बड़ों को समान रूप से प्रशिक्षण देती हैं। नई पीढ़ी के कलाकारों के बारे में पूछने पर वह कहती हैं कि वे मेहनत से बचना चाहते हैं और शार्टकट में ही सफलता पा लेना चाहते हैं। मोबाईल फोन भी उनकी एकाग्रता में बाधक हो जाता है।

वर्तमान में रायपुर शहर की दिशा और दशा के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि रायपुर में तो चारों ओर कंक्रीट ही कंक्रीट पसरा हुआ है। लोगों में संवेदनशीलता भी कम होती जा रही है। बातों ही बातों में हमें पता चला कि लगभग 12 वर्ष की उम्र से ही उन्हें निःशक्तता का दंश झेलना पड़ रहा है। इसके अलावा इस दौरान उन्हें हुए लगभग अस्सी फ्रेक्चर्स, जोकि अच्छे-अच्छों का दिल हिलाने का माद्दा रखते हैं, से भी वे अप्रभावित रहीं। हमने जब इन हालातों में भी उनकी इस अतीव क्रियाशीलता का राज पूछा तो उन्होंने एक पंक्ति में उत्तर दिया व्यस्त रहो मस्त रहो। उनकी उपलब्धियों के बारे में पूछने पर उन्होंने इनकार में सिर हिला दिया इस पर मध्यस्थ शिक्षिका ने बताया कि दीदी सिर्फ काम पर यकीन रखती हैं। वे नेम एण्ड फेम से बचती हैं। बाद में मध्यस्थ शिक्षिका से ही ज्ञात हुआ कि उनकी लगभग आठ-नौ जगह प्रदर्शनियां लग चुकी हैं और लगभग सत्रह से भी अधिक संगठनों एवं संस्थाओं द्वारा उन्हें पुरस्कृत एवं सम्मानित किया जा चुका है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अपनी निःशक्तता को अभिशाप मानकर हताशा-निराशा के दलदल में फंसे हुए निःशक्तों के लिये साधनाजी आशा की किरण नहीं बल्कि आशा का सूर्य ही हैं, जिन पर पूरी उपन्यास लिखी जा सकती है।

तैराकी में पिता के सपने साकार करता बेटा

                         
सुयश के सुयश को सलाम

जब हम किसी सफल व्यक्ति को देखते हैं तो केवल उसकी सफलता को देखते हैं। इस सफलता को पाने की कोशिश में वह कितनी बार असफल हुआ है, यह कोई जानना नहीं चाहता। जबकि असफलता का सामना करे बिना शायद ही कोई सफल होता है, दरअसल असफलता सफलता के साथ-साथ चलती है। आप इसे किस तरह से लेते हैं, यह आप पर निर्भर करता है क्योंकि हर असफलता आपको कुछ सिखाती है। असफलता से मिलने वाली सीख को समझकर जो आगे बढ़ता जाता है वह सफलता को पा लेता है। सफलता के लिए जितना जरूरी लक्ष्य और योजना है, उतना ही जरूरी असफलता का सामना करने की ताकत भी। जिस दिन आप तय करते हैं कि आपको सफलता पाना है, उसी दिन से अपने आपको असफलता का सामना करने के लिए तैयार कर लेना चाहिए, क्योंकि असफलता वह कसौटी है जिस पर आपको परखा जाता है कि आप सफलता के योग्य हैं या नहीं। यदि आप में दृढ़ इच्छाशक्ति है और आप हर असफलता की चुनौती का सामना कर आगे बढ़ने में सक्षम हैं तो आपको सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। मैंने भी दोनों हाथ गंवाने के बाद मुश्किलों का सामना किया और आज मैं अपने पिता के सपनों को साकार करने के लिए दिन-रात कड़ी मशक्कत कर रहा हूं। यह कहना है पैरा स्वीमर सुयश जाधव का। सुयश कहते हैं कि रियो पैरालम्पिक में मैडल न जीत पाने का मलाल तो है लेकिन टोक्यो में मैं पदक जीतने के लिए पूरी कोशिश करूंगा।
सुयश कहते हैं कि मेरे खिलाड़ी पिता का सिर्फ एक ही सपना था कि मैं देश के लिए खेलूं और पदक जीतूं। जब मैं 11 साल का था एक हादसे ने मेरे दोनों हाथ छीन लिए। मैं निराश था कि कैसे अपने पिता के सपने साकार करूंगा। सुयश कहते हैं कि जीवन में कठिनाइयां तो आती ही हैं और कभी-कभी तो इतनी अप्रत्याशित कि सम्हलने का समय ही नहीं मिलता। यही तो जीवन की ठोकरें हैं जिन्हें खाकर ही हम सम्हलना सीख सकते हैं। मैंने तरणताल को अपनी कर्मस्थली माना और राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक भी जीते लेकिन यही मेरा शिखर नहीं है। रियो पैरालम्पिक खेलों में शिरकत करना और पदक न जीतना मेरे लिए काफी तकलीफदेह है।
दरअसल अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए गांव वेलापुर जिला सोलापुर के सुयश जाधव बचपन से ही एक इंटरनेशनल स्वीमर बनना चाहते थे। उनके पिता नारायण जाधव भी एक नेशनल लेवल के तैराक रह चुके हैं। बचपन में एक कंस्ट्रक्शन साइट पर खेलते हुए सुयश बिजली के खुले तारों से उलझ गये और गंभीर रूप से घायल हो गये। हादसे के वक्त सुयश छठवीं क्लास में पढ़ते थे और उनकी उम्र सिर्फ 11 साल थी। डॉक्टरों के प्रयास से उनकी जान तो बच गई लेकिन उनके दोनों हाथ काटने पड़े। इस दुर्घटना के बाद सुयश को छह महीने तक हॉस्पिटल में एडमिट रहना पड़ा। दोनों हाथों को गंवाने के बाद भी सुयश ने हार नहीं मानी और अपने पिता की सहायता से ट्रेनिंग शुरू की। कुछ साल तक सोलापुर में ट्रेनिंग के बाद वे पुणे के डेक्कन जिमखाना आ गए और यहां कई साल तक ट्रेनिंग की। इसके बाद वे दिव्यांगों के लिए आयोजित डोमेस्टिक गेम्स में शामिल हुए और कई पदक अपने नाम किए। एक दिन ऐसा भी आया जब उन्होंने अपने बचपन के सपने को पूरा करते हुए इंटरनेशनल लेवल पर भारत के लिए पदक जीतना शुरू किया। सुयश ने जर्मनी में आयोजित तैराकी के तीन इवेंट्स में चांदी के पदक जीते तो 2015 में पोलैंड में हुए विंटर ओपन चैम्पियनशिप में एक स्वर्ण, एक रजत तथा दो कांस्य पदक जीतकर अपने अच्छे तैराक होने का सुबूत पेश किया। इतना ही नहीं सुयश ने 2015 के वर्ल्ड गेम्स में दो स्वर्ण पदक जीतकर दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। सुयश जाधव देश के पहले इंडियन स्वीमर हैं जिन्हे पैरालम्पिक खेलों में शिरकत करने का मौका मिला। सुयश के प्रारम्भिक कोच और उनके पिता को उम्मीद है कि रियो में निराशा हाथ लगने के बाद भी सुयश एक न एक दिन भारत के लिए ओलम्पिक में पदक जरूर जीतेगा।
सुयश तैराकी के साथ ही पढ़ने में भी हमेशा अव्वल रहा है। सुयश ने अब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक स्वर्ण, पांच रजत और चार कांस्य पदक जीते हैं तो राष्ट्रीय स्तर पर उसने 30 स्वर्ण, चार रजत और एक कांस्य पदक से अपना गला सजाया है। राज्यस्तरीय प्रतियोगिता की जहां तक बात है उसका 45 स्वर्ण पदकों पर कब्जा जमाना यही साबित करता है कि वह महाराष्ट्र का असली माइकल फेल्प्स है। बातचीत में सुयश जाधव बताते हैं कि अमेरिकी माइकल फेल्प्स ही उनका आदर्श हैं। मैं हमेशा इस खिलाड़ी की ही तरह तरणताल में नए प्रतिमान स्थापित करने का सपना देखता हूं। अपनी भविष्य की योजनाओं पर वह कहते हैं कि मेरा लक्ष्य 2017 में मैक्सिको में होने वाली विश्व तैराकी प्रतियोगिता के साथ ही 2018 के एशियन गेम्स हैं। मैं 2020 में टोक्यो पैरालम्पिक में देश के लिए पदक जीतने का सपना भी देख रहा हूं। सब कुछ ठीक रहा तो निश्चित ही मेरे सिर कामयाबी का सेहर बंधेगा।