Friday, 27 October 2017

आओ हॉकी से अनुराग दिखाएं, खिलाड़ियों को गले लगाएं

  
भरोसा जगाती भारतीय हॉकी
 अब विश्व कप होगी अगली कसौटी
 श्रीप्रकाश शुक्ला
भारतीय हॉकी का इतिहास बड़ा ही रोचक रहा है। एक समय जहां भारत ने हॉकी की दुनिया पर राज किया वहीं हमने वह बुरा दौर भी देखा जब हम ओलम्पिक भी नहीं खेल सके। हाल ही भारतीय युवा तुर्कों ने बांग्लादेश में एशिया कप जीतकर अपने पुराने चावल होने का भान कराया है। भरोसा जगाती भारतीय हॉकी से नाउम्मीद हो चुके उसके मुरीदों में एक हलचल सी देखी जा रही है। फर्श से अर्श की तरफ जाती भारतीय हॉकी में बदलाव के जो लक्षण दिख रहे हैं, उसके कई कारण हैं। पिछले कुछ वर्षों में हॉकी इण्डिया ने भारतीय हॉकी के शिखर से फिसलने की पहेली को सुलझाने की जहां कोशिश की है वहीं  भारतीय खिलाड़ियों का हॉकी इंडिया लीग में विदेशी खिलाड़ियों के साथ खेलना, एक साथ एक ही ड्रेसिंग रूम में रहना तथा लगातार संवाद करना सबसे अहम है। हॉकी इंडिया लीग से हमारे खिलाड़ियों की झिझक खुली है तो पाश्चात्य हॉकी के तौर-तरीकों से रू-ब-रू होने के अवसर भी मिले हैं। चार क्वार्टर में खेले जाने वाली हॉकी इंडिया लीग में खेलने का लाभ भी खिलाड़ियों को मिला क्योंकि वर्तमान अंतरराष्ट्रीय हॉकी इसी तर्ज पर खेली जा रही है। हॉकी इंडिया लीग में नीलामी में मिलने वाले अकूत पैसे से खिलाड़ियों में अपने प्रति सम्मान का भाव भी पैदा हुआ है।
भारतीय हॉकी में ज्यादातर खिलाड़ी ग्रामीण बैकग्राउंड से आते हैं, ऐसा पहले भी था। देखा जाए तो हॉकी के जादूगर दद्दा ध्यानचंद के वक्त से ही भारतीय हॉकी की ताकत उसकी कलात्मकता रही है। कलात्मक हॉकी परम्परा को ध्यानचंद के भाई रूप सिंह, बेटे अशोक कुमार सिंह और हरबिंदर सिंह, मोहम्मद शाहिद, जफर इकबाल तथा उनके बाद धनराज पिल्लै, बलजीत सिंह ढिल्लो सरीखे खिलाड़ियों ने आगे बढ़ाया। इन सभी ने अपने जमाने में अपनी रफ्तार के साथ गेंद के चतुर डॉज से दुनिया भर की मजबूत से मजबूत रक्षापंक्ति को छकाया। अतीत पर नजर डालें तो के.पी.एस. गिल के जमाने में जिस तरह एक के बाद एक कोच बदले गये उसका सबसे बुरा असर यह हुआ कि भारत ने अपनी परम्परागत शैली छोड़कर बेजा प्रयोग शुरू कर दिए। इससे बेचारे खिलाड़ी इस उलझन में फंसे रहे कि अपनी एशियाई शैली पर काबिज रहें या फिर गोरों की दमखम वाली हिट हार्ड, रन फास्ट स्टाइल को अपना लें। इस गफलत में हमारी युवा हॉकी पीढ़ी अपना असली खेल ही भूल गई।  
रविवार 22 अक्टूबर की रात को ढाका में एशिया कप हॉकी चैम्पियनशिप में भारत ने जो खिताबी जीत हासिल की उसकी अहमियत इसलिए भी है कि भारत एक बार फिर इस खेल में विश्व पटल पर अपनी धमक कायम करने में कामयाब हो रहा है। पाकिस्तानी पराभव के बाद एशिया महाद्वीप में मलेशियाई टीम एक ताकत के रूप में उभरी है। फाइनल में मलेशिया से कड़ी चुनौती मिलने के बावजूद भारत दस साल बाद एशिया कप का खिताब जीतने में सफल हुआ। एशिया कप की जहां तक बात है भारत और पाकिस्तान ने इस कप पर तीन-तीन बार कब्जा जमाया है जबकि अब तक चार बार खिताबी जश्न मनाने वाली दक्षिण कोरियाई टीम तीसरे स्थान के लिए हुए मुकाबले में पाकिस्तान से हार गई। एशिया कप के मौजूदा संग्राम में भारतीय खिलाड़ी न केवल अच्छा खेले बल्कि अपराजेय भी रहे लेकिन भारत की मेजबानी में होने वाले विश्व कप के मद्देनजर इसे बड़ी कामयाबी मानने की भूल नहीं की जानी चाहिए। एशिया कप फतह करने वाली भारतीय हॉकी टीम में अभी भी निरंतरता की कमी है और शीर्ष टीमों की बराबरी के लिए खिलाड़ियों को इस पर काम करना होगा। टीम में अभी भी स्थिरता और सामंजस्य का अभाव है। दक्षिण कोरिया के खिलाफ 1-1 से बराबर खेलना और फाइनल में मलेशिया से 2-1 के मामूली अंतर से जीतना कई सवाल खड़े करता है। यह खुशी की बात है कि हमारे युवाओं ने अच्छी आक्रामक हॉकी खेली और कुछ अच्छे मैदानी गोल भी किए लेकिन टीम निरंतर एक जैसा प्रदर्शन नहीं कर पाई। आठ बार के ओलम्पिक चैम्पियन भारत ने एशिया कप में आक्रामक खेल के दम पर कुल 21 मैदानी गोल किए। कप्तान मनप्रीत सिंह के नेतृत्व क्षमता की भी तारीफ करनी होगी जिन्होंने साथी खिलाड़ियों का न केवल लगातार उत्साह बढ़ाया बल्कि रक्षापंक्ति को मजबूत करने की जिम्मेदारी खुद भी सम्हाली।
हॉकी एक तेज गति का खेल है और इसमें जीत के लिए रक्षात्मक होने के बजाय आक्रामक रुख अख्तियार करना हमेशा फायदेमंद होता है। भारतीय खिलाड़ियों ने पिछले कुछ सालों में अपने खेल के तौर-तरीके में काफी बदलाव किया है। रक्षात्मक खेलने की भारत की छवि जहां टूटी है वहीं प्रतिद्वंद्वी टीमों का गोलपोस्ट खटकाने का हौसला बढ़ा है। बांग्लादेश में मिली खिताबी जीत में भारतीय टीम का यह रुख साफ दिखा। खेल विश्लेषकों ने इस बदलाव को भारतीय टीम की ताकत के रूप में देखना शुरू कर दिया है। अगर हमारी हॉकी टीम रणनीति के स्तर पर मैदान में रक्षा और आक्रमण दोनों के संतुलित प्रयोग में महारत हासिल कर ले तो वह फिर से अंतरराष्ट्रीय हॉकी का चेहरा बन सकती है। पिछले कुछ सालों के दौरान भारतीय हॉकी टीम के प्रदर्शन में लगातार सुधार हुआ है और अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में देश भर की निगाहें इस पर लगी रहती हैं। सीनियर या फिर जूनियर टीमों ने कई अहम प्रतियोगिताओं में बाकी सशक्त मानी जाने वाली टीमों के मुकाबले काफी बेहतर प्रदर्शन किया और कई खिताबी जीत हासिल की हैं। हां, पेनाल्टी कार्नरों को गोल में तब्दील न कर पाने की हमारी कमजोरी यथावत है। भारतीय हॉकी टीम को यदि दुनिया फतह करनी है तो उसे अपनी इस कमजोरी हर हाल में दूर करना होगा। भारत को अब विश्व कप के महासंग्राम में अपने दर्शकों और अपने मैदानों में दुनिया की ताकतवर टीमों से लोहा लेना है ऐसे में उसका हर क्षेत्र में ताकतवर होना निहायत जरूरी है।   
देखा जाए तो हॉकी की दुनिया में लम्बे समय तक कोई बड़ी उपलब्धि हाथ नहीं आने और नतीजों की तालिका में कोई सम्मानजनक जगह नहीं मिल पाने की वजह से हॉकी मुरीदों में इस खेल के प्रति निराशा घर कर गई थी। हाल के वर्षों में भारतीय हॉकी ने जो ऊर्जा हासिल की है अगर उसे बनाए रखना और आगे बढ़ाना है तो देश भर में एक ही सिस्टम यानी शैली अपनाई जाए। खिलाड़ियों को शुरू से ही एस्ट्रोटर्फ पर हॉकी खेलने का मौका मुहैया हो तो मुल्क के पुराने उस्तादों को जूनियर और सीनियर नेशनल चैम्पियनशिप के बाद ऊर्जावान युवा पलटनें सौंपी जाएं जो ऊन्हें डॉज और फ्लिक में पारंगत कर सकें। परगट सिंह, मोहिन्दर पाल सिंह और माइकल किंडो सरीखे अपने जमाने के नामी फुलबैक युवाओं को रक्षापंक्ति की बारीकियां बता सकते हैं, तो अजित पाल सिंह, हरमीक सिंह, कर्नल बलबीर सिंह सरीखे पूर्व ओलम्पियन मध्य पंक्ति के खिलाड़ियों के साथ अपने अनुभव बांट सकते हैं। गोलरक्षक के रूप में आशीष बलाल और ए.बी. सुब्बैया बढ़िया गाइड साबित होंगे।
देखा जाए तो 2012 के बाद भारतीय हॉकी टीम ने कई सफलताएं हासिल की हैं। 2012 के लंदन ओलम्पिक में आखिरी पायदान पर रहने वाली भारतीय हॉकी टीम ने रियो ओलम्पिक में जबरदस्त प्रदर्शन दिखाया और टीम क्वार्टर फाइनल तक पहुंची। बेल्जियम से हार का सामना करने के बाद  भारतीय टीम भले ही पदक नहीं जीत पाई हो लेकिन उसने जिस तरह का खेल दिखाया उससे हर कोई हैरान था। गोलकीपर श्रीजेश की अगुआई में भारतीय हॉकी टीम से ऐसे शानदार प्रदर्शन की किसी को भी उम्मीद नहीं थी। रियो ओलम्पिक में भारतीय हॉकी टीम बेशक 36 साल बाद पदक से चूक गई लेकिन उसने एशियन चैम्पियंस ट्रॉफी के फाइनल मुकाबले में पाकिस्तान को 3-2 से हराकर देशवासियों को दिवाली का सबसे बड़ा तोहफा दिया था। हमारी सीनियर हॉकी टीम ने एशियन चैम्पियंस ट्रॉफी चूमी तो भारतीय जूनियर हॉकी टीम ने बेल्जियम को 2-1 से हराकर 15  साल बाद जूनियर विश्व कप जीता। इससे पहले 2001 में भारतीय जूनियर टीम ने खिताबी जश्न मनाया था।
भारतीय सीनियर हॉकी खिलाड़ियों ने जहां बांग्लादेश में अपनी ताकत और दमखम का जलवा दिखाया वहीं जूनियर खिलाड़ियों ने मलेशिया में खेले गये सुल्तान जौहर कप में अपना जौहर दिखाया। भारतीय जूनियर खिलाड़ियों ने पहले जापान फिर मेजबान मलेशिया को पराजय का पाठ पढ़ाया तो 25 अक्टूबर  बुधवार को अमेरिका पर 22-0 की धांसू जीत हासिल कर सबको हैरत में डाल दिया। इस एकतरफा मुकाबले में टीम इण्डिया के जांबाजों ने अमेरिकी टीम की एक नहीं चलने दी और मैच में गोलों की झड़ी लगा दी। इस मुकाबले में भारत की ओर से चार खिलाड़ियों विशाल अंतिल, दिलप्रीत सिंह, हरमनजीत सिंह और अभिषेक ने गोल की हैटट्रिक बनाई। हरमनजीत सिंह पांच गोल कर इस मुकाबले टॉप स्कोरर रहे। इस मैच में भारत की ओर से कुल 10 खिलाड़ियों ने गोल दागे। आस्ट्रेलिया से 4-3 से पराजय के बावजूद जूनियर खिलाड़ियों ने जोरदार खेल दिखाकर अपने स्वर्णिम भविष्य का संकेत दिया है।
भारतीय हॉकी इतिहास का सबसे स्वर्णिम समय मेजर ध्यानचंद के दौर को कहा जाता है। भारत की टीम ने 1928, 1932 और 1936 के ओलम्पिक में स्वर्णिम सफलता हासिल की। हॉकी के इतिहास में सबसे ज्यादा गोल लगाने का रिकॉर्ड भी ध्यानचंद के नाम है। दुनिया के हॉकी इतिहास में ध्यानचंद जैसा कोई खिलाड़ी अब तक न तो हुआ है और न शायद होगा भी। ध्यानचंद के बाद यदि किसी हॉकी खिलाड़ी ने अपनी मौजूदगी से हॉकी को अमर किया है तो वह हैं बलबीर सिंह सीनियर। बलबीर सिंह सीनियर को भारतीय हॉकी के अब तक के सबसे बेहतरीन सेण्टर फॉरवर्ड खिलाड़ी के तौर पर याद किया जाता है। बलबीर सिंह सीनियर भारत की तरफ से केवल दूसरे ऐसे हॉकी खिलाड़ी हैं जिन्होंने ओलम्पिक में खेलते हुए भारत के लिए लगातार तीन बार गोल्ड मैडल जीते हैं। 1948 लंदन ओलम्पिक, 1952 के हेलसिंकी ओलम्पिक तो 1956 के मेलबर्न ओलम्पिक में भारत को गोल्ड मैडल जिताने में बलबीर सिंह की खास भूमिका रही थी। 1958 और 1962 में हुए एशियन गेम्स में सिल्वर मैडल जीतने वाली भारतीय टीम में भी बलबीर सिंह सीनियर शामिल थे। बलबीर सिंह के नाम एक मैच में सबसे ज्यादा गोल दागने का रिकॉर्ड भी है। 1952 के ओलम्पिक में नीदरलैंड के खिलाफ हुए मैच में उन्होंने लगातार पांच गोल दागकर इतिहास रचा था। यह रिकॉर्ड आज तक कोई भी हॉकी खिलाड़ी नहीं तोड़ पाया है।
बलबीर सिंह सीनियर पहले ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्हें पद्मश्री से नवाजा गया था। हॉकी से रिटायर होने के बाद भी बलबीर सिंह हॉकी के लिए काम करते रहे। 1975 में जब भारतीय हॉकी टीम विश्व कप में गोल्ड मैडल जीती थी तब बलबीर सिंह सीनियर कोच के साथ-साथ टीम के मैनेजर भी थे। बलबीर सिंह को लंदन ओलम्पिक 2012 में ओलम्पिक आईकॉन चुना गया था। बलबीर सिंह का नाम गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड में भी दर्ज है। मोहम्मद शाहिद भारत के बेहतरीन उम्दा हॉकी खिलाड़ियों में से एक रहे हैं। 14 अप्रैल, 1960 को पैदा हुए मोहम्मद शाहिद ने अपने खेल से भारतीय हॉकी को नई पहचान दी। खासकर हॉकी खेलने के उनके तरीके सबसे जुदा थे। मोहम्मद शाहिद को उनकी ड्रिबलिंग कौशल क्षमता के लिए हमेशा याद किया जाता है। गेंद को अपनी हॉकी स्टिक से विपक्षी टीमों से अलग ले जाने में मोहम्मद शाहिद का कोई जवाब नहीं था। 1980 की चैम्पियंस ट्रॉफी में बेस्ट फॉरवर्ड का खिताब अपने नाम करके शाहिद ने भारतीय हॉकी को अपने खेल से मोहित कर दिया था। शाहिद 1980 मास्को ओलम्पिक की स्वर्ण पदक विजेता भारतीय टीम का हिस्सा भी रहे थे। मोहम्मद शाहिद और उनके साथी खिलाड़ी जफर इकबाल की जोड़ी को विश्व हॉकी में आज भी सबसे मजबूत डिफेंस के तौर पर याद किया जाता है।
धनराज पिल्लै ने भारतीय हॉकी को एक अलग पहचान दिलाई। जिस दौर में हॉकी का खेल भारत में अपनी लोकप्रियता खोने लगा था उस समय धनराज पिल्लै ने सिर्फ अपने खेल से हॉकी के खेल को भारत में बचाए रखा। मोहम्मद शाहिद की ही तरह धनराज पिल्लै अपने खेल में तेज रफ्तार के लिए जाने जाते थे। विपक्षी टीम के खिलाड़ियों के आगे अपनी हॉकी के सहारे पल भर में ही गेंद को काबू में कर लेना और गेंद को गोल के दरवाजे के पार ढकेलने में इनका कोई सानी नहीं था। धनराज पिल्लै के खेल का जादू ऐसा था कि पूरी दुनिया में हॉकी के चाहने वाले उनके मुरीद थे। 1999 में भारत सरकार ने धनराज पिल्लै को राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड दिया तो इसके अलावा 2000 में पद्मश्री के खिताब से सम्मानित किया। धनराज पिल्लै ने अपने करियर में तीन ओलम्पिक, तीन विश्व कप के साथ चार बार एशियन गेम्स में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया। किसी भी भारतीय हॉकी खिलाड़ी के द्वारा बनाया गया यह एक रिकॉर्ड है।
संसारपुर के अजीत पाल सिंह ने भारतीय हॉकी टीम में कप्तान के तौर पर अपनी खास पहचान बनाई थी। अजीत पाल सिंह अपने दौर में भारत के सबसे बेहतरीन सेण्टर हाफ खिलाड़ी के तौर याद किए जाते हैं। अजीत पाल सिंह 1975 क्वालालम्पुर में भारतीय टीम को पहली बार वर्ल्ड कप जिताने वाली टीम का हिस्सा रहे थे। ऊधम सिंह को भारतीय हॉकी में एक मजबूत स्तम्भ के तौर पर याद किया जाता है। उम्दा खेल दिखाकर ऊधम सिंह ने भारतीय हॉकी में अपनी एक खास जगह बनाई। 1949 में अफगानिस्तान के खिलाफ अपने करियर की शुरुआत करने वाले ऊधम सिंह चार ओलम्पिक खेलों में भारतीय टीम का हिस्सा रहे। लेस्ली क्लॉडियस के बाद ऊधम सिंह ओलम्पिक में तीन गोल्ड और एक सिल्वर मैडल जिताने वाले भारत के दूसरे खिलाड़ी हैं। ऊधम सिंह के बारे यह भी कहा जाता है कि यदि चोट के चलते उनका करियर जल्दी खत्म न हुआ होता तो वह लगातार चार ओलम्पिक खेलने वाले पहले खिलाड़ी बन जाते। ऊधम सिंह भारतीय टीम के कोच भी रहे।
हॉकी खिलाड़ी अजीत पाल सिंह के बेटे गगन अजीत सिंह ने भी अपने खेल से भारतीय हॉकी इतिहास में खुद के नाम का डंका बजाया। गगन अजीत सिंह भारत के बेहतरीन स्ट्राइकर के रूप में याद किए जाते हैं। गगन अजीत सिंह मैदान के बीचोंबीच अपनी आक्रामक स्टाइक क्षमता के सहारे कई बार विपक्षी टीमों पर भारी पड़े थे। 1997 में रूस के साथ हुई टेस्ट सीरीज में अपने करियर की शुरुआत करने वाले गगन अजीत सिंह ने अपने करियर में कई कीर्तिमान अपने नाम किए। गगन की कप्तानी में भारतीय जूनियर टीम 2001 में विश्व विजेता बनी थी। गगन अजीत सिंह के करियर की सबसे खास बात रही कि उन्हें क्लब हॉकी टूर्नामेंट में भारत से बाहर जाकर अपने खेल का जौहर दिखाने का मौका मिला।
ध्यानचंद के बेटे अशोक कुमार ने भी अपने पिता की ही तरह भारतीय हॉकी में कई प्रतिमान स्थापित किए। जब मैदान पर अशोक कुमार होते थे तो उनके हत्थे आई गेंद उनके पास से कहीं नहीं जाती थी। काफी समय तक गेंद को कंट्रोल कर गोल के मुहाने तक ले जाने के मामले में अशोक कुमार अद्वितीय थे। अशोक कुमार उन हॉकी खिलाड़ियों में शामिल हैं जिन्होंने चार बार विश्व कप हाकी खेली। 1975 में भारत को विश्व चैम्पियन बनाने में अशोक कुमार का अहम रोल था। वर्ल्ड कप 1975 में ही पाकिस्तान के खिलाफ विजयी गोल दागकर अशोक कुमार ने भारत को पहली बार विश्व चैम्पियन बनाया था। भारतीय हॉकी इतिहास में लेस्ली क्लॉडियस का नाम बेहद ही स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है। ध्यानचंद के दौर में लेस्ली क्लॉडियस का नाम भारतीय हॉकी प्रशंसकों में काफी मशहूर था। लेस्ली क्लॉडियस भारत के उस टीम का हिस्सा रहे जिसने 1948, 1952 और 1956 में स्वर्णिम सफलता हासिल की थी। क्लॉडियस 1960 में रजत पदक जीतने वाली भारतीय टीम में भी शामिल थे। भारतीय हॉकी इतिहास में एक से बढ़कर एक बेजोड़ खिलाड़ी हुए हैं। सबका अपना-अपना हुनर और कौशल था। आज भी हमारे पास बेहतरीन खिलाड़ियों की फौज है, दुनिया की मजबूत टीमों से लोहा लेने की क्षमता भी है। अफसोस की बात है हम भारतीय क्रिकेटरों से इतर हॉकी खिलाड़ियों का हौसला ही नहीं बढ़ाना चाहते। आओ हॉकी से अनुराग दिखाएं, खिलाड़ियों को गले लगाएं।   


Tuesday, 24 October 2017

स्वतंत्र पत्रकारिता का अवसान

भारत में पिछले तीस वर्षों में स्वतंत्र पत्रकारिता लगभग समाप्त हो गई है। अखबारों के दफ्तर मीडिया हाउस में परिवर्तित हो गए हैं और जैसा कि कोई भी कारोबारी संस्था करती है, खबरों का बाजारीकरण होता गया है।
एक छोटा-सा सुझाव है, जो बड़ा बदलाव ला सकता है। सुझाव पत्रकारों और पत्रकारिता से संबंधित है, जिन पर विगत कुछ बरसों से कई तरह के आरोप लग रहे हैं। फेक मीडिया, गोदी मीडिया और एंटी नेशनल मीडिया आदि नाम पत्रकारिता को दिए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि मीडिया संस्थान अपने निजी स्वार्थों के लिए वे सब हथकंडे इस्तेमाल कर रहे हैं, जिनसे लोकहित लाभहित की बलि चढ़ गया है।  वैसे तो ज्यादातर आरोप राजनीति से प्रेरित हैं, पर कुछ ऐसे दमदार वाकए हैं, जिनकी वजह से आत्मचिंतन की जरूरत महसूस की जा रही है। वास्तव में मीडिया संस्थानों, खासकर न्यूज टेलीविजन, को लेकर यह बात आम चर्चा में है कि वे खबरों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं और अपनी निजी पसंद और नापसंद या किसी कारोबारी स्वार्थ की वजह से खबरों को तोड़-मरोड़ कर परोस रहे हैं।
यह सच भी है और सभी मीडियाकर्मी इस बात से भली भांति परिचित हैं। खबरों को एंगल देने की प्रथा सिर्फ भारत में नहीं, पूरे विश्व में, जहां भी ‘फ्री मीडिया’ है, शुरू से स्थापित है। कहीं-कहीं यह जरूरी भी है, क्योंकि अमूमन यह एंगल लोकहित के लिए दिया जाता है। इसका एक उदाहरण सरकार द्वारा जारी आकड़े हैं, जिनकी विवेचना पत्रकार सरकारी बयान से अलग हट कर अपनी तरह से करते रहे हैं। पहले भी और आज भी सरकारें इस पर झल्लाती रही हैं, क्योंकि ऐसी व्याख्या उनके नैरेटिव पर प्रश्नचिह्न लगाती है। अगर देखा जाए तो भारत में पिछले तीस वर्षों में स्वतंत्र पत्रकारिता लगभग समाप्त हो गई है। अखबारों के दफ्तर मीडिया हाउस में परिवर्तित हो गए हैं और जैसा कि कोई भी कारोबारी संस्था करती है, खबरों का बाजारीकरण होता गया है। जहां एक ओर मीडिया संस्थान दिन दोगुनी रात चौगुनी कारोबारी तरक्की करते गए हैं, वहीं दूसरी ओर इसी अनुपात में पत्रकार और पत्रकारिता की विश्वसनीयता पाताल में धंसती चली गई है। आज कोई भी यह मानने को तैयार नहीं है कि पत्रकार निष्पक्ष और विश्वसनीय हो सकता है।
वैसे सच यह है कि ज्यादातर पत्रकार अपना काम प्रोफेशनल तरीके से करते हैं। वे आज भी तटस्थ हैं, पर उनकी पत्रकारिता कॉरपोरेट जाल में फंस गई है। एक तरह से वे तथाकथित मीडिया हाउसों के बंधक बन गए हैं और अपनी रोजी-रोटी के लिए उनके मोहताज हो गए हैं। ऐसी स्थिति में जब नौकरी जाने का खतरा हमेशा बना रहता है, यह अपेक्षा करना कि वे कारोबारी हितों के खिलाफ और पत्रकारीय मूल्यों के पक्ष में आवाज उठाएंगे, पूरी तरह गलत है। वे तो अब सिर्फ नौकरी करने आते हैं, क्योंकि पत्रकारिता उनसे मीडिया हाउसों ने लूट ली है। पत्रकारिता और पत्रकार को पुन: स्थापित करने के लिए हमें वे उपाय तलाशने हैं, जिनसे पत्रकार को आर्थिक सबलता मिल सके और वह मीडिया हाउसों के मालिकाना दबाव से मुक्त हो सके। ऐसा शायद भारत में ही हो सकता है, क्योंकि यही दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जिसने पत्रकार और पत्रकारिता की आजादी को महफूज रखने के लिए कई संवैधानिक और कानूनी प्रावधान किए हैं। हमारे संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी के साथ संसद ने वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट 1955 भी पास किया था, जिसमें वेज बोर्ड का प्रावधान है। इसके साथ पत्रकारों को फैक्ट्रीज एक्ट, शॉप्स ऐंड कमर्शियल एस्टेब्लिशमेंट एक्ट, लेबर एक्ट, प्रोविडेंट फंड आदि के तहत भी लाया गया था। अमेरिका और यूरोप में भी ऐसा संवैधानिक और कानूनी संरक्षण पत्रकारों को नहीं मिलता है।
यह सब स्वस्थ पत्रकारिता के लिए काफी था, जब तक अखबारों का कॉरपोरेटीकरण नहीं हुआ था। पर आज 1955 की क्रांतिकारी सोच से सरकार को एक कदम और आगे बढ़ना है, जिससे श्रमजीवी पत्रकार अपने दायित्व का निर्वाह आत्मविश्वास से कर सकें। यह कदम बहुत छोटा-सा है और इसकी नजीर अन्य श्रमिकों की व्यवस्था में उपलब्ध भी है, पर इसका प्रभाव हमारे लोकतंत्र के लिए दूरगामी होगा। 1996 में संसद ने भवन निर्माण में लगे मजदूरों की आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक सुरक्षा को मजबूत करने के लिए एक कानून बनाया था, जिसमें प्रावधान किया गया कि किसी भी निजी या सरकारी निर्माण पर, जिसकी कीमत दस लाख रुपए से ज्यादा है, एक प्रतिशत कर श्रम विभाग को देय होगा। इस धनराशि का उपयोग भवन निर्माण में लगे श्रमिकों की बेहतरी के लिए किया जाएगा। पिछले बीस साल में इस कोष में कई सौ करोड़ रुपए जमा हो चुके हैं, पर उसका समुचित उपयोग अभी तक नहीं हो पाया है।
इस कानून से नजीर लेकर श्रमजीवी पत्रकारों को आर्थिक सबलता प्रदान करने के लिए, ताकि वे कॉरपोरेट और राजनीतिक दबाव से बच सकें एक नया कानून या फिर 1955 के कानून में संशोधन करना चाहिए, जिसमें न्यूज मीडिया के अंतर्गत अखबार, टेलीविजन और डिजिटल चैनल अपने विज्ञापन से अर्जित सालाना आय का दो प्रतिशत हिस्सा पत्रकार कल्याण कोष में डालने को बाध्य हो जाएं। एक सरकारी रेपोर्ट के अनुसार 2016-17 में सिर्फ प्रिंट मीडिया की आय 4.15 अरब डॉलर थी, जिसमें देश के सिर्फ तीन बड़े अखबारों की आय लगभग पंद्रह हजार करोड़ रुपए थी।ऐसी में आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर पत्रकार कल्याण कोष की स्थापना हो, तो उसमें काफी धन जमा हो सकता है, जिससे पश्चिमी देशों में चलने वाले सोशल सिक्यूरिटी नेटवर्क जैसा कोष पत्रकारों में लिए बनाया जा सकता है। इसके तहत सम्मानजनक बेरोजगारी भत्ता और पेंशन का प्रावधान श्रमजीवी पत्रकारों के लिए किया जा सकता है, जिससे वे अपना काम निर्भीकता से, कॉरपोरेट जाल से परे, लोकहित में कर सकें। मीडिया संस्थाओं को इस ओर प्रोत्साहित करने के लिए सरकार उन्हें कॉरपोरेट टैक्स आदि में छूट का प्रावधान भी कर सकती है। कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी के प्रावधान की तरह।
ऐसा एक छोटा-सा प्रयोग उत्तर प्रदेश में एक कर्मठ अधिकारी ने लगभग डेढ़ दशक पहले किया था। पत्रकार कल्याण निधि बनाने के लिए उन्होंने शासनादेश जारी किया था, जिसमें सरकार मीडिया को विज्ञापन ऐड एजेंसी के पंद्रह प्रतिशत कमीशन से पांच प्रतिशत काट कर कोष में जमा कराने का प्रावधान था, पर मामला न्यायालय में फंस कर रह गया और एक अच्छी पहल ठंडे बस्ते में चली गई। श्रमजीवी पत्रकारों (मीडिया संस्थानों की नहीं) को आर्थिक सबलता और माफिक माहौल देने के लिए कल्याण कोष बनाना जरूरी हो गया है। फेक न्यूज, दलालवादी मीडिया, कॉरपोरेट दलदल में फंसने की वजह से पेशेवर पत्रकारों का नुकसान तो हो ही रहा है, पर उससे कई गुना बड़ा नुकसान हमारे लोकतंत्र का हो रहा है। भारतीय लोकतंत्र की जान स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता है और उसकी सबसे पहली रक्षापंक्ति लोक निर्वाचित सरकार है। उसको लोकतंत्र के प्रति अपनी निष्ठा स्थापित करने के लिए पत्रकारिता को सशक्त करना ही होगा।

Saturday, 7 October 2017

हरफनमौला मीनू ने लिखी संघर्ष की नई पटकथा


                  खेलों के साथ मिरर राइटिंग में गढ़ रहीं नित नए कीर्तिमान
                        मुसाफिर वह है जिसका हर कदम मंजिल की चाहत हो,
                        मुसाफिर वह नहीं जो दो कदम चल कर के थक जाए।
                                     श्रीप्रकाश शुक्ला
यह फौरी अल्फाज नहीं किसी कवि का संदेश है जिसे आत्मसात किया है भिवानी  जिले (हरियाणा) के जुईखुर्द गांव में जन्मीं और राजस्थान की बहुरिया बनीं मीनू पूनिया ने। जिस उम्र में लोग खेलों को अलविदा कहने का मन बना लेते हैं, उस उम्र में मीनू अथक मेहनत कर मादरेवतन का मान बढ़ाने की कोशिश में लगी हैं। सिर्फ खेल ही नहीं वह मिरर राइटिंग में अपनी बेटी काव्या के साथ एशिया बुक, लिम्का बुक और गिनीज बुक में रिकार्ड दर्ज कराने को तैयार हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कभी अपनी तेज गेंदबाजी से बल्लेबाजों में खौफ पैदा करने वाली मीनू अब वुशू में भी कमाल का प्रदर्शन कर रही हैं। देखा जाए तो किसी भी देश की प्रतिष्ठा खेलों में उसकी उत्कृष्टता से बहुत कुछ जुड़ी होती है लेकिन हमारे देश में भाई-भतीजावाद की जड़ें इतनी गहरी पैठ बना चुकी हैं जिन्हें उखाड़ फेंकना असम्भव नहीं तो आसान बात भी नहीं है। मीनू को असम्भव शब्द से चिढ़ है। वह बेबाकी से कहती हैं कि संघर्ष से कुछ भी हासिल किया जा सकता है। उनकी राह में लाख बाधाएं खड़ी की गई हों लेकिन उनके पैर मंजिल की तरफ ही बढ़े हैं और बढ़ते रहेंगे।
हरियाणा का देश-दुनिया में नाम रोशन करने का सपना देखने वाली मीनू का जन्म आठ मई, 1989 को   भिवानी  जिले (हरियाणा) के जुईखुर्द गांव में हुआ। रेलवे में कार्यरत रहे मीनू के पिता और डाक्टर मां की ख्वाहिश रही कि उनकी बेटी खेल के क्षेत्र में भारत का नाम दुनिया में रोशन करे। तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ी मीनू भारतीय सेना में रहे नाना को अपना आदर्श मानती हैं। अपने हक के लिए लड़ना, अनुशासित जिन्दगी जीना, आत्मविश्वास और सुदृढ़ता जैसे मूलमंत्र मीनू ने अपने नाना से ही सीखे हैं। मीनू के माता-पिता ने भी उसे लड़की होने का कभी एहसास नहीं होने दिया। कक्षा 12 तक की पढ़ाई गांव में ही करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए मीनू ने आदर्श महिला विश्वविद्यालय भिवानी में दाखिला लिया। अंग्रेजी और हिन्दी से परास्नातक मीनू का खेलों के प्रति रुझान भिवानी से ही परवान चढ़ा और उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ क्रिकेट में हाथ आजमाने शुरू कर दिए। अथक मेहनत और जुनून के चलते मीनू ने साल भर में ही अपनी तेज गेंदबाजी और मध्यक्रम में ठोस बल्लेबाजी के बूते आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी टीम में अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया। अपने याराना खेल से मीनू ने पहले साल ही इतनी शोहरत बटोर ली कि दूसरे साल उनके चयन में कोई संशय था ही नहीं लेकिन चयन समिति की नादरशाही के चलते यह कहकर उनका मनोबल तोड़ दिया गया कि आपने एक नेशनल खेल लिया अब इस साल किसी और को खेलने का मौका मिले। खेलों में ऐसा सिर्फ मीनू के साथ ही नहीं हुआ इस तरह के अनगिनत मामले भारतीय खेल इतिहास को मुंह चिढ़ा रहे हैं।
मीनू ने हिम्मत हारने की बजाय कड़ी मेहनत व संघर्ष की बदौलत अंतर-जिला और राज्य स्तर पर अपनी तेज गेंदबाजी से हर किसी को दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर कर दिया बावजूद इसके उन्हें फिर उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। प्रतियोगिता समापन पर सर्वश्रेष्ठ गेंदबाजी का जो अवार्ड मीनू को मिलना था वह अवार्ड उस खिलाड़ी को दिया गया जोकि प्लेइंग एकादश में भी नहीं थी। लगातार उपेक्षा का दंश सहती मीनू की जगह कोई और होता तो खेल को विराम दे देता लेकिन हिम्मती मीनू ने हार मानने की बजाय अपने खेल पर फोकस करना ही मुनासिब समझा। मीनू महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी रोहतक से आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी खेलीं। मीनू के शानदार खेल को देखते हुए उनका चयन अण्डर-19 राष्ट्रीय महिला क्रिकेट टीम में हुआ और उन्होंने यहां भी अपनी गेंदबाजी से सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। नेशनल खेलने के बाद मीनू ने हरियाणा पुलिस में भर्ती होने के प्रयास किए। अफसोस की बात है कि राष्ट्रीय स्तर पर शानदार खेल का आगाज करने वाली मीनू को अपने आपको क्रिकेटर साबित करने के लिए जिला क्रिकेट एसोसिएशन से फरियाद करनी पड़ी। इसके लिए मीनू अपने पिता के साथ भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पूर्व चेयरमैन रणवीर महेन्द्रा से भी मिलीं लेकिन उन्हें वहां भी न्याय नहीं मिला।
महिलाओं का खेलों में सफलता हासिल करना पुरुषों की अपेक्षा अधिक परेशानी भरा सफर होता है। निराशा के भंवरजाल से निकलने में मीनू को कुछ वक्त लगा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानीं। कहते हैं मेहनत कभी अकारथ नहीं जाती यह बात मीनू ने आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी में महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी रोहतक को तीसरा स्थान दिलाकर सिद्ध कर दिखाया। मीनू को शानदार प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का सम्मान प्रदान किया गया। इतना ही नहीं मीनू को पूर्व मुख्यमंत्री बनारसी दास गुप्ता तथा पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र हुड्डा की धर्मपत्नी द्वारा भी सम्मानित किया गया। मीनू ने स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करने के बाद बीएड में दाखिला लिया उसी साल छह मई, 2011 को मीनू की शादी व्यवसायी राजेश पूनिया के साथ हो गई। अब मीनू चूरू जिले (राजस्थान) की सादुलपुर तहसील के जैतपुरा गांव की बहुरिया हैं। मीनू को 2012 में रेलवे में सेवा का अवसर भी मिलते-मिलते रह गया। रेलवे में नौकरी के लिए सात माह की प्रगनेंट होने के बावजूद मीनू ने अपने पति के साथ सादुलपुर स्टेडियम में कड़ी मेहनत की और दिल्ली में ट्रायल भी दिया लेकिन उसे मेडिकल अनफिट करार दिया गया। मीनू को नौकरी तो नहीं मिली लेकिन काव्या के रूप में एक प्यारी राजकुमारी जरूर मिल गई।
खेल के साथ सरकारी सेवा का सपना संजोने वाली मीनू 2013 में राजस्थान पटवार भर्ती की लिखित परीक्षा उत्तीर्ण कर दस्तावेज जांच के लिए जब उदयपुर गईं तो उनसे कहा गया कि यह पद तो अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी के लिए है जबकि भर्ती विज्ञप्ति में राज्य और राष्ट्रीय खिलाड़ियों का जिक्र था। मीनू की बदकिस्मती कहें या कुछ और वह तीसरी बार सरकारी सेवा से वंचित रह गईं। अपनी पत्नी के साथ हुई इस नाइंसाफी के खिलाफ राजेश पूनिया ने जयपुर हाईकोर्ट में वाद दायर किया जिस पर आज भी सुनवाई चल रही है। साल 2015 मीनू के लिए काफी कामयाबी भरा रहा। इस साल उन्हें रोमित पूनिया के रूप में एक बेटा तो 95 एफ.एम. तड़का जयपुर की तरफ से स्पोर्ट्स स्टार अवार्ड से नवाजा गया। अप्रैल 2016 में द अलवर सेण्ट्रल को-आपरेटिव बैंक की तरफ से मीनू को बैंकिंग सहायक के पद पर सेवा का अवसर प्रदान किया गया। वह न केवल पूर्ण मनोयोग से बैंक की सेवा कर रही हैं बल्कि दिसम्बर 2016 में डूंगरपुर (राजस्थान) में आयोजित राज्यस्तरीय को-आपरेटिव बैंक स्पोर्ट्स की बैडमिंटन और दौड़ स्पर्धा में क्रमशः पहला और दूसरा स्थान हासिल कर अपने शानदार हरफनमौला खिलाड़ी होने का सुबूत पेश किया। मीनू को शानदार प्रदर्शन के लिए सहकारिता एवं गोपालन मंत्री राजस्थान अजय सिंह किलक द्वारा सम्मानित किया गया।
मीनू अब अपने आपको न केवल मार्शल आर्ट खेलों में पारंगत कर रही हैं बल्कि प्रतियोगिताओं में पदक भी जीत रही हैं। मीनू ने मई 2017 में हनुमानगढ़ में आयोजित राजस्थान सीनियर वुशू चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीतकर अपने जिले को गौरवान्वित किया। मीनू एशियन गेम्स, राष्ट्रमण्डल खेल और ओलम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करने का सपना देख रही हैं। मीनू बहुआयामी प्रतिभा की धनी हैं। वह न सिर्फ एक शानदार खिलाड़ी हैं बल्कि मिरर राइटिंग में भी नित नए कीर्तिमान रच रही हैं। सितम्बर 2017 में मीनू ने देश के राष्ट्रगान को सबसे कम समय में मिरर राइटिंग में लिखकर इंडिया बुक आफ रिकार्ड में अपना नाम दर्ज कराया। मीनू की बेटी काव्या भी मिरर राइटिंग में नित नई सफलताएं हासिल कर रही है। मीनू कविताएं लिखने और रक्तदान करने में भी रुचि लेती हैं। वह हर छह महीने में एक बार रक्तदान अवश्य करती हैं। दो विषयों (अंग्रेजी और हिन्दी साहित्य) में परास्नातकोत्तर की डिग्री हासिल कर चुकी मीनू अब योगा में भी मास्टर डिग्री हासिल करने जा रही हैं। मीनू एक पुस्तक मेरे अहसास भी लिख चुकी हैं।  

मीनू अपनी सफलता का श्रेय अपने पति को देते हुए कहती हैं कि राजेश पूनिया जी ने न केवल हर पल मेरा हौसला बढ़ाया बल्कि हर मुश्किल समय में साथ भी दिया। मीनू अपने सास-ससुर का आभार मानते हुए कहती हैं कि इन्होंने मुझे हमेशा अपनी बेटी की तरह माना और प्रोत्साहित किया। मीनू अब अपनी बेटी काव्या के साथ मिरर राइटिंग में एशिया बुक, लिम्का बुक और गिनीज बुक में रिकार्ड दर्ज कराने की तैयारी कर रही हैं। मुश्किल से लाखों में कोई एक सफल हो पाता है। उसके पीछे कितना संघर्ष, कितनी मेहनत छुपी होती है, इसका अहसास बहुत कम लोगों को होता है। मीनू जिस लगन और मेहनत के साथ मंजिल दर मंजिल हासिल कर रही हैं, उससे अन्य महिलाओं को नसीहत लेनी चाहिए।