Wednesday, 31 August 2016

सिस्टम सुधरे तभी होगा खेलों का विकास


रातोंरात नहीं बदलेगी खेलों की बदहाल स्थिति
श्रीप्रकाश शुक्ला
रियो ओलम्पिक के समापन के बाद भारतीय खिलाड़ियों के शर्मनाक प्रदर्शन पर हर कोई अपनी-अपनी अलग राय दे रहा है। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी लगा कि सवा अरब आबादी वाले देश के लिए यह संतोषजनक स्थिति नहीं है। श्री मोदी ने इसके लिए एक माकूल कार्ययोजना को मूर्तरूप देने का मन बना चुके हैं। सवाल यह कि जब सारा का सारा सिस्टम ही खराब हो तो उसमें बदवाल की शुरुआत कैसे और किस तरह हो। किसी भी ध्वस्त सिस्टम को रातोंरात नहीं सुधारा जा सकता, इसके लिए सालोंसाल मेहनत की जरूरत होगी। अगर हमारी हुकूमतें, एसोसिएशंस और हम सब मिलकर मेहनत करें तो शायद आने वाले कुछ ही वर्षों में भारतीय खेलों की किस्मत बदल सकती है।
रियो ओलम्पिक से पूर्व खेलों के जवाबदेह तंत्र भारतीय खेल प्राधिकरण ने अपनी 240 पृष्ठों की जो रिपोर्ट भारतीय खेल मंत्रालय को सौंपी थी, उसमें भारत के 12 से 19 पदक जीतने की सम्भावना जताई गई थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। भला हो साक्षी मलिक और पीवी सिंधू का जिन्होंने अपने नायाब प्रदर्शन से भारत की झोली खाली नहीं रहने दी। असंतोष इस बात का कि क्या सवा सौ करोड़ की जनसंख्या वाला यह देश सिर्फ दो पदक ही डिजर्व करता है। कोई खिलाड़ियों को कोस रहा है तो कुछ खेलमंत्री के पीछे पड़े हैं। दरअसल, यह वक्त खेलमंत्री या खिलाड़ियों को गाली देने का नहीं है। बिना अपनी गलतियों को दुरुस्त किए रातोंरात ओलम्पिक पदक का सपना साकार नहीं किया जा सकता। खेलों में बदलाव के लिए पूरे सिस्टम को बदलना होगा।
देखा जाए तो भारत में खेल और खिलाड़ियों का ख्याल रखने के लिए एक अलग मंत्रालय है। स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया खेलों को बढ़ावा देने के लिए काम कर रही है। खेल मंत्रालय को हर साल हजारों करोड़ का बजट आवंटित किया जाता है। सवाल उठता है कि ये पैसे आखिर कहां खर्च हो रहे हैं। क्या वह पैसा सही जगह पर लग भी रहा है या बागड़ ही खेत चर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि यह समस्या आज की है। इससे पहले भी जितनी सरकारें रही हैं, किसी ने खेलों और खिलाड़ियों को कोई खास तरजीह नहीं दी। भारतीय खेलों के सत्यानाश होने की तोहमत प्रायः क्रिकेट पर लगाई जाती है, जोकि उचित नहीं है। आज हमारे यहां खेलों का जो सिस्टम है उसमें पैसा तो सरकार खर्च करती है लेकिन अधिकांश एसोसिएशन उन हाथों में हैं, जिनका खेलों से कोई वास्ता नहीं है। बावजूद इसके खिलाड़ियों के चयन में उन्हीं की मनमर्जी चलती है और खिलाड़ियों के चयन में पारदर्शिता का प्रायः अभाव रहता है।
आज लगभग आधे भारत की आबादी कुपोषण का शिकार है। आधी से अधिक जनसंख्या ऐसी है जिसे शुद्ध और न्यूट्रीशियस खाना मयस्सर नहीं है। अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, चीन की तुलना में हमारा फिजिक कमजोर है और हम उनसे प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहे हैं। इसकी वजह यह है कि हमारे देश में एथलीट्स के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वह प्रॉपर डाइट प्लान को फॉलो कर पाए। ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह खेल बजट को बढ़ाए ताकि राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों के खाने-पीने से ट्रेनिंग तक का जिम्मा उठाया जा सके। बजट बढ़ने से खिलाड़ियों की आवश्यकता को बेहतर किया जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर के कोच रखे जा सकते हैं जिनकी निगरानी में हमारे एथलीट्स तैयारी कर सकते हैं।
देखा जाए तो जब-जब ओलम्पिक या कोई बड़ी स्पर्धा आती है तब-तब हमारे एसोसिएशनों की नींद खुलती है। फिर अफरा-तफरी और आनन-फानन में खिलाड़ियों की तलाश शुरू हो जाती है। ओलम्पिक में खराब प्रदर्शन के बाद दो-चार गालियां सुनकर स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया फिर से कुम्भकर्णी नींद सो जाता है। दरअसल इस ढिलाई को दूर करने की आवश्यकता है। अगर भारत को खेल जगत में कुछ अच्छा करना है तो देश में खेलों का माहौल बनाना आवश्यक है। इसके लिए खेल मंत्रालय को स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया पर कड़ी नजर रखनी होगी। देखना होगा कि क्या राष्ट्रीय, राज्य और जिलास्तर पर खिलाड़ियों के लिए माकूल इंतजाम किये जा रहे हैं, क्या निचले स्तर पर खिलाड़ियों तक सुविधाएं पहुंच रही हैं। यह काम वातानुकूलित कमरों में बैठकर नहीं होगा। प्रतिभाओं को आगे लाने के लिए गांवों और छोटे शहरों तक पहुंच बनानी होगी। आज के समय में खेल भी करियर बनाने का एक बहुत बड़ा मौका बन चुका है। एक समय था जब कॉलेजों से राष्ट्रीय स्तर के बड़े खिलाड़ी निकलते थे लेकिन आज वह परम्परा लगभग खत्म होती सी दिखाई दे रही है। स्कूल और कॉलेजों में स्पोर्ट्स के प्रति छात्रों को प्रोत्साहित करना होगा। ज्यादातर स्कूलों में आजकल सिर्फ क्रिकेट को ही स्पोर्ट्स माना जाता है, इस सोच को बदलने की जरूरत है। स्कूल और कॉलेज वे प्लेटफार्म हैं जहां से अंतरराष्ट्रीय स्तर के स्टार की तलाश पूरी की जा सकती है। स्कूल और कॉलेजों में क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी और टेनिस के साथ-साथ एथलेटिक्स, रेसलिंग, शूटिंग, स्वीमिंग, जिमनास्टिक जैसे अन्य खेलों को भी बढ़ावा देना होगा। इसके लिए हर स्कूल में स्पेशलिस्ट स्पोर्ट्स एजूकेशन टीचरों की नियुक्ति होना भी आवश्यक है।
हमारे देश की अजीब विडम्बना है कि यहां एक मिडिल क्लास फैमिली भी अपने काम खुद से करने में अपनी तौहीन समझती है। अगर किसी को एक गिलास पानी चाहिए तो वह उनका नौकर लाकर देगा। वह खुद शारीरिक मेहनत नहीं कर सकता। यह मानसिकता बदलने की आवश्यकता है। यह बात बिल्कुल सच है कि हर इंसान भारत के लिए नहीं खेल सकता लेकिन क्या खुद को फिट रखने में कोई बुराई है। अगर हर शख्स सिर्फ अपनी फिटनेस के लिए ही खेलों को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना ले तो आने वाली पीढ़ी खुद मजबूत और स्वस्थ हो जाएगी। खेलों की बदहाल स्थिति को बदलने के लिए स्पोर्ट्स कल्चर डेवलप करना आज के समय की मांग है। साथ ही साथ स्वयंसेवी संगठन और अन्य सामाजिक संगठनों को खेल के प्रति युवाओं की रुचि जगाने के लिए निचले स्तर पर जागरूकता फैलानी होगी। गांवों, कस्बों और शहरों में छोटी-छोटी प्रतियोगिताएं आयोजित करनी होंगी। देश में खेलों का सिस्टम अकेले मोदी या खेलमंत्री नहीं सुधार सकते इसके लिए सभी का योगदान आवश्यक है।


Monday, 29 August 2016

...साक्षी बनी कुश्ती की मलिका....


बदलीं परम्पराएं, तोड़े मिथक
अनादिकाल से भारत वीरांगनाओं का देश रहा है और आगे भी रहेगा। भारत में अब नारी शक्ति को अबला नहीं कह सकते वजह बेटियां हर क्षेत्र में ऐसा करिश्मा कर रही हैं जिसे दुरूह माना जाता रहा है। हाल ही ब्राजील में दुनिया ने देखा कि भारतीय बेटियों में बला की शक्ति है। वे फौलाद की बनी हैं। हरियाणा की साक्षी मलिक ने कुश्ती में मादरेवतन का मान बढ़ाकर इस बात के संकेत दिए कि यदि बेटियों को और प्रोत्साहन तथा आजादी मिले तो वे पुरुषों को भी मात दे सकती हैं। भारत बदल रहा है। उसकी कारोबारी विकास के साथ सामाजिक मान्यताएं भी बदल रही हैं। एक वक्त था जब कहा जाता था कि बेटियां पहलवानी करती अच्छी नहीं लगतीं। पिछले कुछ समय में साक्षी मलिक जैसी अनेक होनहारों की ऐसी पौध तैयार हुई है, जिन्होंने पुरानी मान्यताओं का लबादा उतार फेंका है। ओलम्पिक खेलों में कर्णम मल्लेश्वरी के फौलादी प्रदर्शन के बाद से तो मैदानों का नजारा ही बदल गया है। बेटियां न केवल मौका जुटा रही हैं बल्कि उन्हें भुना भी रही हैं।
एक समय वह भी था जब आमतौर पर गांवों के पास बने अखाड़ों में लंगोट कसे पहलवान ही अपना दमखम दिखाते नजर आते थे। महिलाओं का अखाड़ों की तरफ न केवल प्रवेश वर्जित था बल्कि वे उधर देख भी नहीं सकती थीं। अब बेटियां देश का नाम ऊंचा कर रही हैं। फोगाट बहनों के बाद तो महिला कुश्ती में पहलवानों की बाढ़ सी आ गई है। ओलम्पिक में साक्षी ने कांस्य पदक जीतकर ऑनरकिलिंग जैसे जुमले से बदनाम हरियाणा प्रदेश की बेटियों के लिए एक नयी राह बना दी है। साक्षी का भी अखाड़े की तरफ रुख करना उतना आसान नहीं था लेकिन इस बेटी को मां का प्रोत्साहन मिला और उसने वह कर दिखाया जिसे आज तक कोई नहीं कर सका। साक्षी के पहलवान बनने के पीछे एक खास वजह यह भी रही है कि उनके दादा बदलू भी नामी पहलवान रहे हैं। पिता समेत परिवार के दूसरे सदस्यों का भी कुश्ती से विशेष लगाव रहा है।
साक्षी के मन में कुश्ती का प्रेम 2004 में पैदा हुआ। पहले तो बेटी को पहलवान बनाने में परिवार के लोग हिचक रहे थे लेकिन जब साक्षी ने अपनी मां सुदेश को अपनी इच्छा बतायी तो मां उसे रोहतक के छोटूराम स्टेडियम ले गईं, वहां उसे जिमनास्टिक खेलने के लिए कहा गया लेकिन साक्षी ने साफ इंकार कर दिया। फिर एथलीट व अन्य कई खेलों के खिलाड़ियों को दिखाया गया और सबसे आखिर में सुदेश साक्षी को लेकर रेसलिंग हाल पहुंचीं। वहां साक्षी को पहलवानों की ड्रेस अच्छी लगी और उसने कुश्ती को ही आत्मसात करने की इच्छा जताई। सुदेश ने बताया कि उस समय साक्षी को पहलवानों की ड्रेस अच्छी लगी थी और उसने कहा था कि यह ड्रेस अच्छी है, इसलिए वह कुश्ती ही लड़ेगी। उस समय लगा कि बेटी की इच्छा है तो खेलने देते हैं, जब तक मन होगा खेलती रहेगी, लेकिन एक दिन साक्षी से कहा कि वह जो भी काम करे उसे पूरी मेहनत से करे। चाहे पढ़ाई हो या फिर कुश्ती। उस दिन से साक्षी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
साक्षी ने बहुत छोटी उम्र में ही सब जूनियर एशियन चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीतकर अपने सुनहरे भविष्य की आहट छोड़ दी थी। उस स्वर्णिम सफलता के बाद परिजनों को भी लगा कि उनकी बेटी ने सही खेल चुना है। फिर राष्ट्रमंडल खेलों में रजत जीता और उसके बाद भी कई मेडलों से अपने गले सजाए। अब रियो ओलम्पिक में साक्षी ने कांस्य पदक जीतकर यह साबित कर दिखाया कि मेहनत से कोई भी मंजिल हासिल की जा सकती है। आज सारा देश गर्व और गौरव से आह्लादित है तो खेलों से जुड़ी अन्य बेटियां भी पुलकित हैं।
साक्षी मलिक  का जन्म तीन सितम्बर, 1992 को रोहतक जिले के मोखरा गांव में हुआ था। 2004 में 12 साल की उम्र में उसने छोटूराम स्टेडियम स्थित ईश्वर सिंह का अखाड़ा ज्वाइन किया था। साथ ही साथ वैश्य पब्लिक स्कूल और फिर वैश्य महिला कॉलेज से पढ़ाई जारी रखी। साक्षी के पिता सुखबीर सिंह मलिक दिल्ली परिवहन निगम में परिचालक हैं, जबकि मां सुदेश आंगनबाड़ी में सुपरवाइजर हैं। साक्षी का एक भाई है। सुखबीर मलिक और सुदेश मलिक कहते हैं कि उन्हें पूरी उम्मीद थी कि उनकी बेटी अपने दादा बदलू के सपने को अवश्य साकार करेगी। साक्षी ने रियो ओलम्पिक में पदक जीतकर न केवल अपने परिजनों का सपना साकार किया बल्कि मुल्क के सामने एक नजीर भी पेश की है।
वर्ष 2011 में जम्मू में हुई जूनियर नेशनल प्रतियोगिता में साक्षी ने स्वर्ण पदक, जकार्ता में हुई जूनियर एशियन चैम्पियनशिप में कांस्य, गोंडा में हुई सीनियर नेशनल में रजत, सिरसा में ऑल इंडिया विश्वविद्यालय प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक, वर्ष 2012 में देवघर में जूनियर नेशनल प्रतियोगिता में स्वर्ण, कजाकिस्तान में हुई जूनियर एशियन चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक, गोंडा सीनियर नेशनल में कांस्य, अमरावती ऑल इण्डिया विश्वविद्यालय में गोल्ड, 2013 में कोलकाता में हुई सीनियर नेशनल प्रतियोगिता में गोल्ड, वर्ष 2014 में यूएसए में देन सतलुज मेमोरियल प्रतियोगिता में गोल्ड, मेरठ में हुई ऑल इंडिया यूनिवर्सिटी प्रतियोगिता में गोल्ड व वर्ष 2016 में रियो ओलम्पिक में कांस्य पदक प्राप्त किया।
रियो ओलम्पिक में पदक जीतने के बाद अलसुबह जब साक्षी ने अपनी मां को फोन किया तो खुशी के मारे एक बार तो मां की जुबान भी रुक गयी। मां-बेटी भावनाओं के समुंदर में बहने सी लगीं। साक्षी ने मां को कहा कि मैंने अपना वादा पूरा कर दिया है। यह सुन उसकी मां सुदेश की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और बोली- वाह साक्षी! कमाल कर दिया। साथ में साक्षी के पिता सुखबीर मलिक भी खड़े थे। उन्होंने भी बेटी को जीत की बधाई दी। सुदेश मलिक ने बताया कि रियो ओलम्पिक क्वालीफाई करने के बाद साक्षी ने वादा किया था कि वह मेडल जरूर लेकर आएगी। रियो में जाने के बाद जब भी साक्षी से बात होती थी तो वह यही कहती थी कि मां बिना पदक के नहीं लौटूंगी। यह तो अभी शुरुआत है। साक्षी ने जो कमाल किया है, उससे इस बात के संकेत मिलते हैं कि अगले ओलम्पिक में भारत की दूसरी पहलवान बेटियां भी मादरेवतन का मान बढ़ाएंगी।


Saturday, 27 August 2016

उम्मीदों पर तुषारापात


बेटियों ने बचाई भारत की लाज
रियो ओलम्पिक में भारतीय खिलाड़ियों के शर्मनाक प्रदर्शन के बाद भारतीय ओलम्पिक महासंघ, भारतीय खेल प्राधिकरण और भारतीय खेल मंत्रालय की उम्मीदों पर तुषारापात हो गया। रियो जाने से पहले दावे किए गए थे कि इस बार हमारे खिलाड़ी लंदन ओलम्पिक से कहीं बेहतर प्रदर्शन करेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। भला हो बेटियों शटलर पी.वी. सिन्धू और पहलवान साक्षी मलिक का जिन्होंने अपने शानदार प्रदर्शन से मादरेवतन को बैरंग लौटने से बचा लिया। अब तक के सबसे बड़े दल-बल के साथ रियो गए खिलाड़ियों का पराक्रम और परिणाम लंदन और बीजिंग ओलम्पिक से भी कमतर रहा। पहलवान योगेश्वर दत्त की शिकस्त के साथ ही रियो में हमारी आकांक्षाओं और हसरतों पर पूर्णविराम लग गया। शटलर पी.वी. सिन्धू और पहलवान साक्षी मलिक के दो पदक भारतीय खेलप्रेमियों को ढांढस बंधाने के लिये जरूर हैं लेकिन ये पदक रियो ओलम्पिक में भाग लेने वाली शरणार्थियों की टीम की सफलता से भी कम हैं। सोचनीय बात तो यह है कि सवा अरब की आबादी वाले देश भारत से अकेला अमेरिकी तैराक माइकल फेल्प्स भी बहुत आगे है।
हर ओलम्पिक के बाद भारत में सामीक्षाओं का दौर चलना दस्तूर बन गया है। रियो ओलम्पिक में खिलाड़ियों के लचर प्रदर्शन पर भी विधवा विलाप हो रहा है। बेहतर तो यह है कि हम रियो से सबक लेकर टोक्यो की तैयारी में अभी से जुट जाएं ताकि खिलाड़ियों पर किसी तरह का दबाव न रहे और वे ओलम्पिक खेलने की लालसा में शक्तिवर्धक दवाओं के कुलक्षण से अपने आपको बचाए रख सकें। खराब प्रदर्शन का सारा दोष खिलाड़ियों पर मढ़ देने की बजाय यह आत्ममंथन का समय है कि क्यों सवा अरब जनशक्ति वाला देश होने के बावजूद हम कई छोटे-छोटे देशों से भी पीछे रह जाते हैं। निःसंदेह ओलम्पिक में भाग लेने गये 118 भारतीय खिलाड़ी अपनी प्रतिभा के दम पर ही वहां पहुंचे। कुछ भारतीय खिलाड़ी जहां अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर सके वहीं कुछ खिलाड़ियों ने नई उम्मीदें भी जगाई हैं। इनमें जिमनास्ट दीपा कर्माकर, किदाम्बी श्रीकांत, भारतीय नौका चालक दत्तू बब्बन भोकानल, बबिता शिवाजी बाबर आदि के नाम शुमार हैं। यदि यह खिलाड़ी अपनी मेहनत को पदक में तब्दील नहीं कर पाये तो इसकी वजह तलाशने की जरूरत है। हर बड़े खेल आयोजन के बाद हमारे खेल प्रबंधन की तमाम खामियां उजागर होती हैं लेकिन कुछ दिन की समीक्षा के बाद हम सब कुछ बिसर जाते हैं। सफलता के कई बाप होते हैं। बेटियों के पराक्रमी प्रदर्शन के बाद श्रेय लेने की होड़ मची हुई है लेकिन खिलाड़ियों के नाकारा प्रदर्शन की जवाबदेही लेने को कोई तैयार नहीं है। जब तक खिलाड़ियों को खेल से ऊपर नहीं रखा जाता खेल मैदानों के शर्मनाक लम्हे मादरेवतन का मान-सम्मान गिराते ही रहेंगे।
भारतीय खेल नीति-नियंताओं को समझना होगा कि हर ओलम्पिक से पहले खिलाड़ियों की परीक्षा लेने के बजाय उन्हें अंतरराष्ट्रीय प्रशिक्षण और सुविधाएं मुहैया कराई जाएं। सरकार भी चाहती है कि खेलों को बढ़ावा मिले। तमाम सुविधाओं के लिये पैसा भी खर्च किया जाता है। मगर क्या पूरा का पूरा पैसा खिलाड़ियों के उन्नयन में खर्च हो रहा है, इसकी हकीकत को समझना होगा। देखा जाए तो भारत के तमाम खेल संघों पर राजनेता काबिज हैं, इनकी वजह से खिलाड़ियों के चयन में पारदर्शिता नहीं रह पाती। बैडमिंटन के खेल पर नजर डालें तो पाएंगे कि यह अभी राजनेताओं की गिरफ्त से मुक्त है और हमारे शटलर देश-दुनिया में बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। पी.वी. सिंधू और उनके कोच पुलेला गोपीचंद की कामयाबी इसका उदाहरण है कि इन्होंने निजी प्रयासों से सफलता की इबारत लिखी। यह सवाल जरूर कचोटता है कि जितने स्वर्ण पदक हम 116 साल में हासिल नहीं कर पाये, तैराक माइकल फेल्प्स ने अकेले कैसे हासिल कर लिये। दरअसल विकसित देशों में खिलाड़ी तैयार करने की प्रक्रिया वर्षों तक चलती है। एक खिलाड़ी तैयार करने में ब्रिटेन में 55 लाख पाउंड खर्च किये जाते हैं। भारत एक गरीब मुल्क है, यहां इतना खर्च करना सम्भव नहीं। ऐसे में कुछ व्यापारिक घराने खिलाड़ियों को गोद लेकर उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं लायक बना सकते हैं। ऐसा प्रयास लंदन में भारतीय व्यवसायी लक्ष्मी नारायण मित्तल ने किया भी था। हमें उस तकनीक के बारे में भी गम्भीरता से मंथन करना होगा जो खिलाड़ी की मेहनत को पदक में बदलने में सक्षम होती है।
रियो ओलम्पिक में भारतीय खिलाड़ियों के लचर प्रदर्शन पर हायतौबा मचाने की बजाय पाठकों को हम बता दें कि ओलम्पिक में दल भेजने वाले भारतीय खेल प्राधिकरण ने खेल मंत्रालय को भेजी अपनी रिपोर्ट में 12 से 19 पदक जीतने की उम्मीद जताई थी। 240 पृष्ठ की इस रिपोर्ट में हर खिलाड़ी का रिपोर्ट कार्ड था। उसके प्रदर्शन का हिसाब सरकार को बताया गया था। करोड़ों रुपये खर्च हुए, विदेशों में खिलाड़ियों की ट्रेनिंग हुई, विदेशी कोच रखे गए लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात ही रहा। सवाल यह है कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है। वे खिलाड़ी जो रियो गए या भारतीय खेल प्राधिकरण के वे अधिकारी जो पिछले चार साल से इन खिलाड़ियों को ओलम्पिक के लिए तैयार करने के दावे कर रहे थे। यह रिपोर्ट भारतीय खेल प्राधिकरण की मिशन ओलम्पिक सेल ने तैयार की थी। भारत को सबसे बड़ा झटका निशानेबाजी में लगा। रिपोर्ट में निशानेबाजी में हिस्सा लेने गए भारत के 12 में से 10 निशानेबाजों को पदक का दावेदार माना गया था। सबसे ज्यादा उम्मीदें जीतू राय से थीं लेकिन हकीकत में हमारे सात शूटर फाइनल के लिए भी क्वालीफाई नहीं कर पाए। तीरंदाजी में दीपिका कुमारी और लक्ष्मी रानी से बड़ी उम्मीद थी लेकिन इनके तीर भी दिशा भटक गये। इसी तरह टेनिस में लिएंडर पेस और रोहन बोपन्ना के क्वार्टर फाइनल तक पहुंचने की उम्मीद जताई गई थी लेकिन यह उम्मीद पहले ही मैच में टूट गई। एक बड़ा सवाल यह भी कि जो भारतीय खिलाड़ी ओलम्पिक के अलावा दूसरी जगहों पर अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं वे अगर ओलम्पिक में अच्छा नहीं कर पाए तो इसकी वजह क्या है। रियो में कई अच्छे खिलाड़ी भी जिस तरह दबाव में खेलते नजर आए उससे तो यही लगता है कि उनकी ट्रेनिंग में कहीं न कहीं कमी जरूर रह गई।
खैर, भारतीय खेल मंत्रालय और खेल प्राधिकरण ओलम्पिक की तैयारी के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च करते हैं लेकिन यह पैसा अगर खिलाड़ियों की सही ट्रेनिंग पर खर्च होता तो भारत के खिलाड़ी भी पदक की दौड़ में इतना पीछे नहीं रहते। एक अनुमान के मुताबिक भारत सरकार ने ओलम्पिक की तैयारियों के नाम पर एक अरब रुपये से ज्यादा खर्च किए लेकिन नतीजा थू-थू करने वाला ही रहा। भारत में खिलाड़ियों की व्यथा किसी से छिपी नहीं है। जानकर ताज्जुब होगा कि रियो गये 118 भारतीय खिलाड़ियों में से कम से कम 25 ही ऐसे होंगे जिन्हें बचपन में दो वक्त की रोटी बड़ी मुश्किल से मिली होगी। इनमें कम से कम 25 एथलीट ऐसे होंगे जिनके लिए जिंदगी आज भी किसी चुनौती से कम नहीं है। इनमें से 50 खिलाड़ी ऐसे होंगे जिनका नाम पूरे हिन्दुस्तान ने रियो ओलम्पिक में उनके क्वालीफाई करने के बाद सुना होगा। नाम भी सिर्फ उन लोगों ने सुना होगा जो खेलों में दिलचस्पी रखते हैं। यह सब जानते हुए आप खुद तय कीजिए कि ओलम्पिक में पदक नहीं जीतने पर खिलाड़ियों की आलोचना कितना जायज है। रोइंग में इतिहास रचने वाले दत्तू भोकानल बचपन में अपने पिता के साथ कुआं खोदा करते थे। जब पिता नहीं रहे तो उन्होंने खुद भी कुआं खोदा, पेट्रोल पम्प पर काम किया, आज की तारीख में भी उनकी मां अस्पताल में भर्ती है, उन्हें होश नहीं है। एथलीट ओपी जैशा के परिवार ने मुफलिसी के वे दिन भी देखे हैं, जब उन्हें सड़क किनारे कीचड़ खाकर पेट भरना पड़ता था। तीरंदाज दीपिका कुमारी के पिता ऑटो चलाते हैं, दीपिका की मां नर्स हैं। हॉकी खिलाड़ी रानी रामपाल के पिता रेहड़ी चलाते थे। भारतीय हॉकी टीम के कप्तान पीआर श्रीजेश के पिता मामूली किसान हैं, एथलीट खेता राम को बचपन में स्कूल जाने के लिए रेगिस्तान में चार किलोमीटर दौड़ना पड़ता था।
हर बात में क्रिकेट से तुलना करने वाले देश को ये समझना चाहिए कि क्रिकेट प्रोफेशनल हो गया बाकी खेल अनप्रोफेशनल रह गए। आज भी लिएंडर पेस अगर सड़क पर निकल जाएं तो उनके साथ फोटो खिंचाने की गुजारिश 10 लोग करेंगे और शायद इतने ही उनसे ऑटोग्राफ मांगेंगे लेकिन अगर सिर्फ दो वनडे और एक टेस्ट मैच खेलने वाला क्रिकेटर सड़क पर निकल जाए तो लोग उसे घेर लेंगे। क्रिकेट में तमाम राजनीतिक दांवपेंच और दखंलदाजी के बाद भी एक बात अच्छी हुई कि आज क्रिकेटर्स को पैसा खूब सारा मिल रहा है। एक छोटे से गांव में पैदा हुए मुनाफ पटेल करोड़पति हो गए, कभी मस्जिद में रहने वाले इरफान पठान के पास अच्छी खासी दौलत आ गई, पिता के साथ अनाज का धंधा करने से मना करने वाले वीरेंद्र सहवाग हर लिहाज से कामयाब हो गए। इसमें इन खिलाड़ियों की मेहनत है, उनकी काबिलियत है लेकिन बाकी खेलों में यह स्थिति नहीं आ पाई है।
आज भी हमारे पास खेल की बुनियादी सुविधाओं की कमी है। आज भी सरकारी स्कूलों में खेल के नाम पर कुछ नहीं है। हमारे यहां जिला स्तर पर स्पोर्ट्स हॉस्टल जैसी सुविधाएं नहीं हैं। स्पोर्ट्स हॉस्टल तो दूर देश के तमाम जिले ऐसे हैं जहां खेलने के लिए एक अदद ढंग का मैदान नहीं है। मैदान है भी तो कोई सिखाने वाला नहीं है। खेल हमारी जिंदगी का हिस्सा नहीं है। पाठ्यकम्र का हिस्सा होना तो दूर की बात है। महानगरों में तो स्थिति और भी खराब है। घर के आसपास खेलने के लिए पार्क तक नहीं बचे हैं। हमारे आपके घरों में पैदा हुए तमाम लिएंडर पेस, सुशील कुमार, पी.वी. सिंधू और सानिया मिर्जा सिर्फ इसलिए गुम हो गए क्योंकि उन्हें खेलाने के लिए स्टेडियम ले जाने का वक्त हमारे पास नहीं है। घर के पास पार्क नहीं हैं तो स्टेडियम घर से 10-15 किलोमीटर दूर है, यही वजह है कि जनसंख्या के लिहाज से हमारे पास गिने-चुने एथलीट हैं और उससे भी कम गिने-चुने चैम्पियन। सच तो यह भी कि रोइंग, जिमनास्टिक, गोल्फ, स्वीमिंग, टेनिस ये सब हमारे परम्परागत खेल हैं भी नहीं। इन खेलों में हमने जब शुरुआत की है तब बाकी दुनिया चैम्पियन बन चुकी थी। हमने इन खेलों को सीखा है, हम इन खेलों में अच्छा करना शुरू कर चुके हैं लेकिन ओलम्पिक स्तर पर इन खेलों में जीत हासिल करने के लिए हमें इंतजार करना होगा।
                              किसका कैसा रहा प्रदर्शन
बैडमिंटन स्टार पी.वी. सिन्धू के रजत की चमक और महिला पहलवान साक्षी मलिक के कांस्य की धमक के साथ रियो ओलम्पिक में भारत का अभियान दो पदकों के साथ समाप्त होना वाकई अखरने वाली बात है लेकिन इससे सबक लेकर भारतीय खेल तंत्र महिलाओं के प्रोत्साहन की दिशा में यदि सच्चे मन से पहल करे तो इसके परिणाम और बेहतर हो सकते हैं। रियो ओलम्पिक में भारत ने अब तक का सबसे बड़ा दल उतारा था लेकिन कई दिग्गजों के सुपर फ्लॉप प्रदर्शन से भारत की झोली में उम्मीदों से कहीं कम पदक ही आ सके। भारत ने 2012 के पिछले लंदन ओलम्पिक में दो रजत और चार कांस्य सहित छह पदक जीते थे जबकि 2008 के बीजिंग ओलम्पिक में भारत ने एक स्वर्ण और दो कांस्य पदकों पर कब्जा जमाया था। शटलर पी.वी. सिन्धू और साक्षी मलिक की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने अपने जांबाज प्रदर्शन से देश को शर्मसार होने से बचा लिया। भारत की इन बेटियों के अलावा महिला जिम्नास्ट दीपा करमाकर का वॉल्ट फाइनल में चौथा स्थान हासिल करना, निशानेबाज अभिनव बिंद्रा का 10 मीटर एयर राइफल स्पर्धा में चौथे स्थान पर रहना, एथलीट ललिता बाबर का 3000 मीटर स्टीपलचेज़ में 10वें नम्बर पर रहना, सानिया मिर्जा और रोहन बोपन्ना का कांस्य पदक मुकाबले में हारना, किदांबी श्रीकांत का बैडमिंटन के पुरुष क्वार्टर फाइनल में हारना, पुरुष तीरंदाज अतनु दास का क्वार्टर फाइनल तक पहुंचना, मुक्केबाज विकास कृष्णन यादव का भी क्वार्टर फाइनल में पहुंचना, 18 वर्षीय महिला गोल्फर अदिति अशोक का 41वां स्थान हासिल करना और युवा निशानेबाज जीतू राय का 10 मीटर एयर पिस्टल में 8वें स्थान पर रहना इस निराशाजनक अभियान के बीच कुछ उल्लेखनीय प्रदर्शन कहे जा सकते हैं।
रियो में भारतीय खिलाड़ियों के सुपर फ्लॉप प्रदर्शन की बात की जाये तो कई दिग्गज सितारों ने बहुत निराश किया। लंदन ओलम्पिक के पिछले छह पदक विजेताओं में से तीन कांस्य पदक विजेता निशानेबाज गगन नारंग, बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल और पहलवान योगेश्वर दत्त इस बार रियो में उतरे लेकिन तीनों ने ही बहुत ज्यादा निराश किया। अपना सातवां ओलम्पिक खेलने उतरे लिएंडर पेस पुरुष डबल्स के पहले ही राउंड में बाहर हो गये तो साइना नेहवाल एक राउंड जीतीं और फिर घुटने की चोट के कारण दूसरा मैच हारकर बाहर हो गयीं। गगन नारंग तीन स्पर्धाओं में उतरे लेकिन एक के भी फाइनल में नहीं पहुंच पाये। अपना आखिरी ओलम्पिक खेले बीजिंग के व्यक्तिगत स्वर्ण पदक विजेता अभिनव बिंद्रा चौथे स्थान पर रहकर खेलों से विदा हुए तो पहलवान योगेश्वर दत्त भी पहले ही राउंड में हारकर बाहर हो गए। लंदन ओलम्पिक के फाइनलिस्ट डिस्कस थ्रोअर विकास गौड़ा इस बार फाइनल में भी नहीं पहुंच सके। दुती चंद और टिंटू लुका जैसी धाविकायें सेमीफाइनल में भी नहीं पहुंच सकीं तो ज्वाला गुट्टा और अश्विनी पोनप्पा की स्टार बैडमिंटन जोड़ी ग्रुप चरण में ही बाहर हो गई। चैम्पियंस ट्राफी की रजत पदक विजेता पुरुष हॉकी टीम क्वार्टर फाइनल में बेल्जियम की बाधा पार नहीं कर पाई और वह 8वें स्थान पर रही जो पिछले लंदन ओलम्पिक के 12वें स्थान से चार स्थान का सुधार है। सानिया मिर्जा और रोहन बोपन्ना की जोड़ी पहले मिक्स्ड डबल्स के सेमीफाइनल में और फिर कांस्य पदक के मुकाबले में हार गयी। 36 साल बाद ओलम्पिक खेलने उतरी महिला हॉकी टीम ने भी काफी निराश किया और मात्र एक अंक लेकर अपने ग्रुप में छठे स्थान पर रही। भारतीय महिला हाकी टीम का अंतिम पायदान पर रहना हाकी इण्डिया के लिए एक सबक है। साइना नेहवाल और महिला पहलवान विनेश फोगाट की चोट भारत के लिये भारी पड़ी। घुटने की चोट के कारण साइना का खेल प्रभावित हुआ और उन्हें जल्द ही बाहर हो जाना पड़ा। विनेश ने अपना पहला मुकाबला 11-0 से जीता लेकिन दूसरे मैच में घुटने की चोट ने उन्हें भी बाहर कर दिया। भारतीय एथलीटों में गणपति कृष्णन और गुरमीत सिंह 20 किलोमीटर पैदल चाल में और पुरुषों की चार गुणा 400 मीटर रिले टीम अयोग्य करार दी गयी। सपना पूनिया 20 किलोमीटर पैदल चाल स्पर्धा पूरी ही नहीं कर सकी। रियो में एथलीटों का प्रदर्शन काफी शर्मनाक रहा जबकि इन पर सरकार ने अथाह पैसा खर्च किया था। 112 साल बाद ओलम्पिक में लौटे गोल्फ में भारत को अपने स्टार खिलाड़ी अनिर्बाण लाहिड़ी और एसएसपी चौरसिया से काफी उम्मीदें थीं लेकिन दोनों ने ही खासा निराश किया। चौरसिया 50वें और लाहिड़ी 57वें स्थान पर रहे जबकि 18 वर्षीय अदिति अशोक महिला गोल्फ में 41वें स्थान पर रहीं।
भारत ने पिछले तीन ओलम्पिक में निशानेबाजी में पदक जीते थे लेकिन इस बार निशानेबाजों का हाथ खाली रहा। रियो में उतरे 12 निशानेबाजों में सिर्फ जीतू राय और अभिनव बिंद्रा ही फाइनल में पहुंच सके। बिंद्रा ने 10 मीटर एयर राइफल स्पर्धा में चौथा स्थान और जीतू ने 10 मीटर एयर पिस्टल स्पर्धा में आठवां स्थान हासिल किया। अन्य निशानेबाजों ने भी निराश किया और कोई भी चुनौती पेश नहीं कर पाया। तीरंदाजी में अतनु दास, दीपिका कुमारी और बोम्बायला देवी प्री क्वार्टर फाइनल में हारे जबकि लक्ष्मीरानी माझी पहले राउंड में ही बाहर हो गई। दीपिका, बोम्बायला और लक्ष्मी की टीम क्वार्टर फाइनल में पराजित हुयी। मुक्केबाजी में विकास कृष्णन यादव क्वार्टर फाइनल, मनोज कुमार प्री क्वार्टर फाइनल और शिवा थापा पहले राउंड में बाहर हुए। जूडो में अवतार सिंह कोई कमाल नहीं दिखा सके और दूसरे राउंड में ही बाहर हो गये। रोइंग में दत्तू बब्बन भोकानल ने संतोषजनक प्रदर्शन करते हुये 13वां स्थान हासिल किया। तैराकी में साजन प्रकाश 200 मीटर बटरफ्लाई में 28वें और शिवानी कटारिया 200 मीटर फ्रीस्टाइल में 41वें स्थान पर रहे। टेबल टेनिस में अचंत शरत कमल, सौम्यजीत घोष, मणिका बत्रा औैर मौमा दास पहले राउंड की बाधा भी पार नहीं कर सके। भारोत्तोलन में सतीश शिवालिंगम 77 किलोग्राम वर्ग में 11वें स्थान पर रहे जबकि सैखोम मीराबाई चानू 48 किलोग्राम वर्ग में अपनी स्पर्धा पूरी नहीं कर सकी। कुश्ती में फ्री स्टाइल में संदीप तोमर, ग्रीको रोमन में रविन्दर खत्री और हरदीप सिंह तथा महिलाओं में बबीता कुमारी ने भी निराश किया। एथलेटिक्स में दूती चंद 100 मीटर दौड़, श्रावणी नंदा 200 मीटर दौड़ और निर्मला श्योरण 400 मीटर दौड़ की हीट में ही बाहर हो गईं। मनप्रीत कौर को शॉटपुट में 23वां और सीमा पूनिया को डिस्कस थ्रो में 20वां स्थान मिला। महिला मैराथन में ओपी जैशा 89वें और कविता रावत 120वें स्थान पर रहीं। पुरुष एथलीटों में मोहम्मद अनस 400 मीटर दौड़ और जिनसन जॉनसन 800 मीटर दौड़ की हीट में ही बाहर हो गये। 20 किलोमीटर पैदल चाल में मनीष सिंह 13वें स्थान पर रहे। अंकित शर्मा लम्बी कूद में 24वें, रंजीत माहेश्वरी तिहरी कूद में 30वें और विकास गौड़ा डिस्कस थ्रो में 28वें स्थान पर रहे। पुरुष रिले टीम अयोग्य करार दी गई जबकि महिला रिले टीम फाइनल में भी नहीं पहुंच सकी।


Wednesday, 10 August 2016

तरणताल का बादशाह माइकल फ्लेप्स

तैराकी में जो किया वह एक नजीर
तरणताल के भीतर अपनी बादशाहत कायम रखते हुए अमेरिका के दिग्गज तैराक माइकल फ्लेप्स ने 9 अगस्त, 2016 को ओलम्पिक में दो और स्वर्ण पदक अपने नाम किये। इसके साथ ही ओलम्पिक में उनके 21 स्वर्ण पदक और कुल 25 पदक हो गये हैं। ऐसा कारनामा ओलम्पिक तो क्या किसी भी खेल में हर रोज़ नहीं होता। जितना प्यार भारत में क्रिकेट के लिए है उससे कम प्यार अब अमेरिका में माइकल फ्लेप्स के लिए नहीं होगा।
साल 2000 में ओलम्पिक की फीकी शुरूआत करने वाले माइकल फ्लेप्स ने फिर कभी मुड़कर नहीं देखा और अपने नाम ऐसे.ऐसे रिकॉर्ड दर्ज किए जिसे तोड़ पाना आने वाली पीढ़ी के लिए बिल्कुल भी आसान नहीं होगा। जिस तरह से क्रिकेट में सचिनए फुटबॉल में पेले उसी तरह से तैराकी में माइकल फ्लेप्स का नाम अब हमेशा के लिए अमर हो गया है। अपने 16 साल के करियर में फ्लेप्स शायद ही कोई बड़ी उपल्ब्धि छूने से चूके हों।
तरणताल के इस  बादशाह ने साल 2000 में अमेरिका के लिए पिछले 70 सालों में ओलम्पिक में क्वालीफाई करने वाले माइकल फ्लेप्स 15 साल की उम्र में सबसे युवा पुरुष ओलम्पियन बने। 2000 ओलम्पिक में माइकल फ्लेप्स ने 200 मीटर बटरफ्लाई के लिए क्वालीफाई किया हालांकि इस ओलम्पिक में उन्हें मेडल नहीं मिला और उन्होंने फाइनल्स में टॉम मॉलचाउ के खिलाफ लड़ते हुए पांचवां स्थान हासिल किया। उसके बाद 2001 में नेशनल्स और फीना वर्ल्ड चैम्पियनशिप में माइकल फ्लेप्स ने 15 साल की उम्र में इयान थोर्प का वर्ल्ड रिकॉर्ड तोड़ दिया। इयान थोर्प ने 400 मीटर फ्रीस्टाइल में 16 साल 10 महीने की उम्र में मेडल जीता तो माइकल फ्लेप्स ने 15 साल की उम्र में ही यह कारनामा कर दिखाया।
साल 2004 में खेले गए एथेंस ओलम्पिक में माइकल फ्लेप्स ऐसे छाए कि दुनिया भर में उनके नाम का डंका बज गया। माइकल फ्लेप्स ने एथेंस में 6 गोल्ड और 2 ब्रॉंज़ मेडल जीते। इस साल उन्होंने रिकॉर्ड टाइम में 400 मीटर रेस अपने नाम की जिसके बाद उनकी एक अलग पहचान बन गई। इसके बाद माइकल ने अपने हीरो इयान थोर्प के खिलाफ 200 मीटर फ्रीस्टाइल रेस जीतकर सनसनी फैला दी। एथेंस से और आगे बढ़ते हुए माइकल फ्लेप्स ने मानो कसम खाई हो कि अब उन्हें नहीं रूकना। जिस तरह से सचिन को क्रिकेट विश्वकप का बेताज बादशाह माना जाता है उसी तरह माइकल फ्लेप्स ने ओलम्पिक में अपना लोहा मनवाया है। माइकल फ्लेप्स ने एथेंस में अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 2ए 4 या 6 नहीं बल्कि 8 गोल्ड मेडल जीते। जिसमें 200 मीटर फ्रीस्टाइलए बटरफ्लाई और व्यक्तिगत मेडले मैन शामिल थे। इसके अलावा उन्होंने 4 गुणा 200 व्यक्तिगत मेडले मैनए 4 गुणा 100 मेडले रिले मैनए 400 मीटर व्यक्तिगत मेडले मैनए 4 गुणा 100 फ्रीस्टाइल रिले मैन और 100 मीटर बटरफ्लाई शामिल थी। बीजिंग ओलम्पिक माइकल फ्लेप्स के करियर में मील का पत्थर और सर्वश्रेष्ठ ओलम्पिक भी माना गया।
लंदन ओलम्पिक में एक बार फिर माइकल फ्लेप्स आए और 2012 के ओलम्पिक में उसेन बोल्ट के बाद दूसरे सबसे सफल ओलम्पियन साबित हुए। इस बार माइकल फ्लेप्स ने 4 गोल्ड और 2 सिल्वर मेडल जीते। हालांकि इस ओलम्पिक में फैंस को उनसे निराशा हाथ लगी क्योंकि कई मौकों पर वह अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं दे सके। रियो ओलम्पिक से पहले 18 स्वर्ण पदक अपने नाम कर चुके माइकल फ्लेप्स ने इस सीज़न तीन गोल्ड मेडल अपने नाम कर लिए हैं। पहले तैराकी के चार गुणा 100 मीटर फ्री स्टाइल रिले में नया रिकॉर्ड कायम करते हुए अपने देश को स्वर्ण पदक दिलाया जोकि उनका 19वां गोल्ड था उसके बाद उन्होंने 200 मीटर बटरफ्लाई स्पर्धा में अपने प्रतिद्वंद्वी दक्षिण अफ्रीका के चाद ले क्लोस को बहुत पीछे छोड़ते हुए अपना 20वां स्वर्ण पदक जीता। विश्व रिकार्ड धारक दिग्गज ओलम्पियन ने यह रेस एक मिनट 53ण्36 सेकेण्ड में पूरी की। इसके कुछ देर बाद माइकल फ्लेप्स ने अपने देश को एक और सोने का तमगा दिलाया। उन्होंने चार गुणा 200 मीटर फ्रीस्टाइल रिले की टीम स्पर्धा में अमेरिका को स्वर्ण पदक दिलाने में टीम की अगुवाई की।
वर्ष 2012 के लंदन ओलम्पिक में दक्षिण अफ्रीका के चाद ले क्लोस ने माइकल फ्लेप्स को 200 मीटर बटरफ्लाई स्पर्धा में स्वर्ण पदक से महरूम कर दिया था और इसके बाद उन्होंने संन्यास की घोषणा कर दी तो ऐसा लगा कि वह अपनी हार का बदला नहीं ले पायेंगे। बाद में जब उन्होंने एक बार फिर ओलम्पिक में हिस्सा लेने की घोषणा की तो उनकी निगाहें इस स्पर्धा में एक बार फिर अपनी बादशाहत कायम करने पर लगी थीं और स्पष्ट था कि किसी और स्पर्धा की तुलना में इसमें स्वर्ण पदक जीतना उनके लिए सबसे अहम था।
ओलम्पिक इतिहास में सर्वाधिक मेडल का रिकॉर्ड भी अब माइकल फ्लेप्स के नाम हो गया है। उन्होंने अब तक कुल 25 मेडल जीते हैं जबकि उनके बाद लेरिसा लेटिनिना का नम्बर है जिन्होंने जिमनास्ट में कुल 18 मेडल जीते थे। तीसरे नम्बर पर निकोलिया एंड्रियानोव हैं जिनके नाम भी जिमनास्ट में ही 15 मेडल शुमार हैं। गोल्ड मेडल जीतने के मामले में भी माइकल फ्लेप्स का कोई सानी नहीं हैए उसने अपने ओलम्पिक कार्यकाल में 21 गोल्ड मेडल अब तक जीत लिए हैंए जबकि उनके बाद पावो नुरमी का नाम आता हैए जिन्होंने साल 1920 से लेकर 1928 तक नौ गोल्ड जीते थे। किसी भी एक सिंगल ओलम्पिक में पहले स्थान पर रहते हुए सर्वाधिक 8 गोल्ड मेडल्स का रिकॉर्ड भी बीजिंग ओलम्पिक के दौरान माइकल फ्लेप्स के नाम दर्ज है।
तरणताल के ओलम्पिक शहंशाह माइकल फ्लेप्स ने बताया कि वह ज्यादा से ज्यादा गोल्ड मेडल जीतने के लिए कार्बोहायडरेडयुक्त खाने के पदार्थ का अधिक सेवन करते हैं। किसी रिकॉर्ड की बराबरी करने या टूटने में आपने कितने लम्बे वक्त के बारे में सुना हैए ज्यादा से ज्यादा 50 सालए 100 साल या 150 साल लेकिन माइकल फ्लेप्स ने 2168 साल पुराने एक रिकॉर्ड की बराबरी कर ली है। जी हां प्राचीन ओलम्पिक खेलों को भी इसमें जोड़ दिया जाए तो उन्होंने 2168 साल पुराने ओलम्पिक रनर लिओनिडास ऑफ रोड्स के रिकॉर्ड की बराबरी कर ली है।


Tuesday, 2 August 2016

डोपिंगः बात अकेले नरसिंह की नहीं


वाराणसी के नरसिंह पंचम यादव पर लगे डोप के कलंक को बेशक राष्ट्रीय डोपिंग निगरानी एजेंसी (नाडा) ने साजिश करार दिया हो लेकिन भारतीय खिलाड़ी शक्तिवर्धक दवाओं का इस्तेमाल करते हैं, इसे मिथ्या नहीं माना जा सकता। यदि इस कृत्य को देश से समूल नष्ट करना है तो भारतीय खेल तंत्र को खेलों में अनाप-शनाप पैसा खर्च करने से पहले खिलाड़ियों में यह भाव पैदा करना होगा कि वे खेलों में श्रेष्ठता को पैसे और शोहरत के ऊपर तरजीह दें। यह शर्मनाक ही नहीं चिन्ता की बात है कि 2009 में नाडा के अभ्युदय के बाद से हमारे 687 एथलीट डोपिंग में पकड़े जाने के बाद प्रतिबंधित किए जा चुके हैं। यह संख्या और अधिक होती यदि नाडा की छापामारी में भारतीय खेल प्राधिकरण के विभिन्न सेण्टरों से खिलाड़ी न भागे होते। भारतीय खिलाड़ियों में डोपिंग के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं और हालात खतरनाक हद तक पहुंच चुके हैं। भारत का खेल मंत्रालय भी मानता है कि देश में डोपिंग को लेकर स्थिति बहुत खराब हो चुकी है। सबसे खराब बात तो यह है कि इनमें जूनियर लेवल पर खेलने वाले खिलाड़ी भी शामिल हैं।
अंतरराष्ट्रीय खेल मंचों पर जाने से पहले हर बार भारतीय खिलाड़ियों का डोपिंग में फंसना चिन्ता की बात भले ही हो लेकिन हर बार खेलों से जुड़े अधिकारी, खेल संघों और महासंघों के खेलनहार तथा भारतीय खेल प्राधिकरण के आला अफसर इस डर से खिलाड़ियों के नाम और उनकी संख्या उजागर नहीं करते कि कहीं गाज उनके ऊपर ही न गिर जाए। एथलेटिक्स, वेटलिफ्टिंग और पहलवानी जैसे खेलों में खेलकौशल के साथ-साथ ताकत की बड़ी भूमिका होती है, इसी पूर्ति की खातिर ही हमारे खिलाड़ी शक्तिवर्धक दवाओं का बार-बार इस्तेमाल करते हैं। विदेशी प्रशिक्षक हमारे यहां के खिलाड़ियों को ऐसा करने को प्रोत्साहित करते हैं, ऐसा रूसी प्रशिक्षकों पर सिद्ध भी हो चुका है। हालिया मामलों को ही लें तो भारत से ओलम्पिक दल में शामिल पहलवान नरसिंह के अलावा गोला फेंक खिलाड़ी इंद्रजीत सिंह भी डोप टेस्ट में पकड़े गये। इनके साथ ही उत्तर प्रदेश के तीन नेशनल खिलाड़ियों सहित एक और पहलवान पर डोपिंग का कलंक लगा। अकेले पहलवान नरसिंह ने ही नहीं गोला फेंक खिलाड़ी इन्द्रजीत ने भी इसे साजिश करार दिया था। हालांकि केवल नरसिंह को ही नाडा की डोपिंगरोधी संहिता की धारा 10.4 का लाभ मिला, जिसमें इस तरह की छूट साजिश के सम्बन्ध में देने का उल्लेख है।
सवाल यह उठता है कि ऐसी साजिशें हमारे खिलाड़ियों में ही क्यों बार-बार मुमकिन हो पा रही हैं? क्या इस पूरे प्रकरण में इस तथ्य की अनदेखी हो सकती है कि नरसिंह के भोजन में प्रतिबंधित दवा मिलाने की साजिश भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) की कैंटीन में फलीभूत हुई। नरसिंह के साथ जो कुछ हुआ उससे एक बार फिर यह सिद्ध हो गया कि ताकत बढ़ाने वाली प्रतिबंधित दवाएं खिलाड़ियों और उनके कोचों की पहुंच में हैं, यानि भारतीय खेल प्राधिकरण के विभिन्न सेण्टरों के पास यह गोरखधंधा फलीभूत हो चुका है। 2010 में जब नाडा ने भारतीय खेल प्राधिकरण के विभिन्न सेण्टरों पर छापामारी की थी तब टेस्ट से बचने के लिए खिलाड़ी न केवल भागे थे बल्कि वहां के मेडिकल स्टोरों से बड़ी मात्रा में प्रतिबंधित दवाएं भी बरामद हुई थीं। 
डोपिंग का यह दोष भारत ही नहीं पूरी दुनिया को अपने आगोश में ले चुका है। रूस के अधिकांश खिलाड़ियों पर ओलम्पिक में शिरकत करने पर लगी रोक इसी बात का प्रमाण है। रूसी दल के दर्जनों खिलाड़ी डोप टेस्ट में पकड़े गए और उनका रियो पहुंचने का सपना चूर-चूर हो गया। आज खिलाड़ियों के अलावा उनके प्रशिक्षक भी जानते हैं कि कौन-कौन सी दवाएं शक्ति बढ़ाने में कारगर हैं। ईमामदार खिलाड़ी हमेशा इनके सेवन से बचते हैं लेकिन बेईमान खिलाड़ी और प्रशिक्षक प्रदर्शन सुधारने तथा पदक तालिका में स्थान बनाने के मकसद से नए-नए तरीकों से इन दवाओं का इस्तेमाल करते हैं। असल में, वर्ष 2009 में देश में नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी (नाडा) का इस मकसद से गठन किया गया था कि विदेशी स्पर्धाओं में हिस्सा लेने जा रहे खिलाड़ियों का वह डोप टेस्ट करे ताकि सुनिश्चित किया जा सके कि कोई भी भारतीय खिलाड़ी विदेशी जमीन पर डोप का आरोपी साबित न हो और देश बदनामी से बच सके। नाडा द्वारा अब तक हजारों खिलाड़ियों का डोप टेस्ट लिया जा चुका है, जिसमें 60 फीसदी से अधिक खिलाड़ी डोपिंग में पकड़े गये और उन पर प्रतिबंध भी लगाया गया। हैरत ही नहीं चिन्ता की बात है कि पिछले दो साल में कई स्कूल नेशनल खिलाड़ी भी डोपिंग में पकड़े जा चुके हैं, यानि भारत में यह दोष छोटे स्तर तक पहुंच चुका है। एंटी डोपिंग डिसिपिलिनरी पैनल (एडीडीपी) द्वारा प्रतिबंधित कई खिलाड़ी प्रतिबंध की अवधि समाप्ति के बाद पुनः मैदान में आ उतरे हैं, लेकिन अब वे शक्तिवर्धक दवाएं नहीं लेंगे इसकी कोई गारण्टी नहीं है।
खेलों के नाम पर भारत में जो हो रहा है उसकी तुलना पूर्वी जर्मनी के शासन-प्रायोजित कार्यक्रम से तो नहीं की जा सकती, जिसमें खुद सरकार उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए खिलाड़ियों, उनके प्रशिक्षक और खेल संगठनों के अधिकारियों को डोपिंग के लिए प्रेरित करती रही है। खिलाड़ियों का दोष इतना भर नहीं है कि प्रतिबंधित शक्तिवर्धक दवाइयां लेकर वे व्यक्तिगत प्रदर्शन सुधारने की कोशिश करते हैं, बल्कि उनका अपराध यह है कि इस तरह वे जीत के असल हकदार को शोहरत से वंचित करते हैं। मामला सात बार के टूअर डि फ्रांस का खिताब जीतने और कैंसर को मात देने वाले मशहूर साइकिलिस्ट लांस ऑर्मस्ट्रांग का हो, जिन्होंने आखिरकार स्वीकार ही लिया था कि उन्होंने प्रतिबंधित दवाओं का सेवन कर ही खिताबी सफलताएं हासिल कीं। एथलेटिक्स, वेटलिफ्टिंग ही नहीं अन्य खेलों में भी शक्तिवर्धक दवाएं लेने की कोशिशें हुई हैं। रूसी टेनिस सनसनी मारिया शारापोवा को ही लें जो 26 जनवरी, 2016 को ऑस्ट्रेलियाई ओपन के दौरान डोपिंग में पकड़ी गई। शारापोवा का कहना था कि डायबिटीज के कारण वह 2006 से ही मेल्डोनियम दवा का सेवन कर रही थी। यही वजह है कि पांच बार की ग्रैंड स्लैम चैम्पियन रह चुकी इस खिलाड़ी को तत्काल प्रभाव से निलम्बित कर दिया गया।
शक्तिवर्धक दवाओं के सहारे खेलों में अपना प्रदर्शन सुधारने की ऐसी नापाक कोशिश करते अब तक कई क्रिकेटर भी पकड़े जा चुके हैं। कुछ वर्ष पहले शेन वॉर्न का डोपिंग में फंसना चर्चा का विषय बना था, तो भारतीय क्रिकेटर मनिन्दर सिंह पर भी संदेह की जद में आए थे। भारतीय मध्यम दूरी की धाविका सुनीता रानी को नेंड्रोलॉन नामक दवा के सेवन के संदेह में बुसान एशियाड के दो पदकों की वापसी की जलालत सहनी पड़ी थी तो डिस्कस थ्रोवर सीमा अंतिल भी डोप टेस्ट में फंस चुकी है। प्रतिबंध की अवधि पूरी कर सीमा अंतलि पूनिया रियो ओलम्पिक में देश का प्रतिनिधित्व करेंगी। आज जिस तरह डोपिंग के मामले सामने आ रहे हैं, इसके सेवन के नए-नए तरीके भी ईजाद हो रहे हैं। पिछले कुछ दशकों से किसी बीमारी के इलाज या उससे बचाव के लिए जीन थेरेपी इस्तेमाल में लाई जा रही है। एक तरीका ब्लड डोपिंग का भी है। डोपिंग को लेकर जिस तरह भारत बार-बार शर्मसार हो रहा है उसे देखते हुए भारतीय खेल प्राधिकरण के साथ-साथ खेल संगठनों को भी इसके पुख्ता इंतजाम करने होंगे कि खिलाड़ियों के भोजन-पानी और दवा आदि से जुड़ी चीजों में कोई बाहरी मिलावट न हो। झूठे नाम और शोहरत से बेहतर है कि हमारे खिलाड़ी ईमानदारी से सद्भावना की अलख जगाएं ताकि मादरेवतन की साख को बट्टा न लगे।