बेटियों
ने बचाई भारत की लाज
रियो ओलम्पिक में भारतीय खिलाड़ियों के शर्मनाक
प्रदर्शन के बाद भारतीय ओलम्पिक महासंघ, भारतीय खेल प्राधिकरण और भारतीय खेल
मंत्रालय की उम्मीदों पर तुषारापात हो गया। रियो जाने से पहले दावे किए गए थे कि
इस बार हमारे खिलाड़ी लंदन ओलम्पिक से कहीं बेहतर प्रदर्शन करेंगे लेकिन ऐसा नहीं
हुआ। भला हो बेटियों शटलर पी.वी. सिन्धू और पहलवान साक्षी मलिक का जिन्होंने अपने
शानदार प्रदर्शन से मादरेवतन को बैरंग लौटने से बचा लिया। अब तक के सबसे बड़े दल-बल
के साथ रियो गए खिलाड़ियों का पराक्रम और परिणाम लंदन और बीजिंग ओलम्पिक से भी
कमतर रहा। पहलवान योगेश्वर दत्त की शिकस्त के साथ ही रियो में हमारी आकांक्षाओं और
हसरतों पर पूर्णविराम लग गया। शटलर पी.वी. सिन्धू और पहलवान साक्षी मलिक के दो पदक
भारतीय खेलप्रेमियों को ढांढस बंधाने के लिये जरूर हैं लेकिन ये पदक रियो ओलम्पिक
में भाग लेने वाली शरणार्थियों की टीम की सफलता से भी कम हैं। सोचनीय बात तो यह है
कि सवा अरब की आबादी वाले देश भारत से अकेला अमेरिकी तैराक माइकल फेल्प्स भी बहुत
आगे है।
हर ओलम्पिक के बाद भारत में सामीक्षाओं का दौर
चलना दस्तूर बन गया है। रियो ओलम्पिक में खिलाड़ियों के लचर प्रदर्शन पर भी विधवा
विलाप हो रहा है। बेहतर तो यह है कि हम रियो से सबक लेकर टोक्यो की तैयारी में अभी
से जुट जाएं ताकि खिलाड़ियों पर किसी तरह का दबाव न रहे और वे ओलम्पिक खेलने की
लालसा में शक्तिवर्धक दवाओं के कुलक्षण से अपने आपको बचाए रख सकें। खराब प्रदर्शन
का सारा दोष खिलाड़ियों पर मढ़ देने की बजाय यह आत्ममंथन का समय है कि क्यों सवा
अरब जनशक्ति वाला देश होने के बावजूद हम कई छोटे-छोटे देशों से भी पीछे रह जाते
हैं। निःसंदेह ओलम्पिक में भाग लेने गये 118 भारतीय खिलाड़ी अपनी प्रतिभा के दम पर ही वहां
पहुंचे। कुछ भारतीय खिलाड़ी जहां अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर सके वहीं कुछ
खिलाड़ियों ने नई उम्मीदें भी जगाई हैं। इनमें जिमनास्ट दीपा कर्माकर, किदाम्बी
श्रीकांत, भारतीय नौका चालक दत्तू बब्बन भोकानल, बबिता शिवाजी बाबर आदि के नाम
शुमार हैं। यदि यह खिलाड़ी अपनी मेहनत को पदक में तब्दील नहीं कर पाये तो इसकी वजह
तलाशने की जरूरत है। हर बड़े खेल आयोजन के बाद हमारे खेल प्रबंधन की तमाम खामियां
उजागर होती हैं लेकिन कुछ दिन की समीक्षा के बाद हम सब कुछ बिसर जाते हैं। सफलता
के कई बाप होते हैं। बेटियों के पराक्रमी प्रदर्शन के बाद श्रेय लेने की होड़ मची
हुई है लेकिन खिलाड़ियों के नाकारा प्रदर्शन की जवाबदेही लेने को कोई तैयार नहीं
है। जब तक खिलाड़ियों को खेल से ऊपर नहीं रखा जाता खेल मैदानों के शर्मनाक लम्हे
मादरेवतन का मान-सम्मान गिराते ही रहेंगे।
भारतीय खेल नीति-नियंताओं को समझना होगा कि हर
ओलम्पिक से पहले खिलाड़ियों की परीक्षा लेने के बजाय उन्हें अंतरराष्ट्रीय
प्रशिक्षण और सुविधाएं मुहैया कराई जाएं। सरकार भी चाहती है कि खेलों को बढ़ावा
मिले। तमाम सुविधाओं के लिये पैसा भी खर्च किया जाता है। मगर क्या पूरा का पूरा पैसा
खिलाड़ियों के उन्नयन में खर्च हो रहा है, इसकी हकीकत को समझना होगा। देखा जाए तो
भारत के तमाम खेल संघों पर राजनेता काबिज हैं, इनकी वजह से खिलाड़ियों के चयन में
पारदर्शिता नहीं रह पाती। बैडमिंटन के खेल पर नजर डालें तो पाएंगे कि यह अभी
राजनेताओं की गिरफ्त से मुक्त है और हमारे शटलर देश-दुनिया में बेहतर प्रदर्शन कर
रहे हैं। पी.वी. सिंधू और उनके कोच पुलेला गोपीचंद की कामयाबी इसका उदाहरण है कि
इन्होंने निजी प्रयासों से सफलता की इबारत लिखी। यह सवाल जरूर कचोटता है कि जितने
स्वर्ण पदक हम 116 साल में हासिल नहीं कर पाये, तैराक माइकल फेल्प्स ने अकेले कैसे
हासिल कर लिये। दरअसल विकसित देशों में खिलाड़ी तैयार करने की प्रक्रिया वर्षों तक
चलती है। एक खिलाड़ी तैयार करने में ब्रिटेन में 55 लाख पाउंड खर्च किये जाते हैं। भारत एक गरीब
मुल्क है, यहां इतना खर्च करना सम्भव नहीं। ऐसे में कुछ व्यापारिक घराने
खिलाड़ियों को गोद लेकर उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं लायक बना सकते हैं। ऐसा
प्रयास लंदन में भारतीय व्यवसायी लक्ष्मी नारायण मित्तल ने किया भी था। हमें उस
तकनीक के बारे में भी गम्भीरता से मंथन करना होगा जो खिलाड़ी की मेहनत को पदक में
बदलने में सक्षम होती है।
रियो ओलम्पिक में भारतीय खिलाड़ियों के लचर
प्रदर्शन पर हायतौबा मचाने की बजाय पाठकों को हम बता दें कि ओलम्पिक में दल भेजने
वाले भारतीय खेल प्राधिकरण ने खेल मंत्रालय को भेजी अपनी रिपोर्ट में 12 से 19 पदक जीतने की उम्मीद जताई थी। 240 पृष्ठ की इस रिपोर्ट में हर खिलाड़ी का
रिपोर्ट कार्ड था। उसके प्रदर्शन का हिसाब सरकार को बताया गया था। करोड़ों रुपये
खर्च हुए, विदेशों में खिलाड़ियों की ट्रेनिंग हुई, विदेशी कोच रखे गए लेकिन नतीजा
वही ढाक के तीन पात ही रहा। सवाल यह है कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है। वे खिलाड़ी
जो रियो गए या भारतीय खेल प्राधिकरण के वे अधिकारी जो पिछले चार साल से इन
खिलाड़ियों को ओलम्पिक के लिए तैयार करने के दावे कर रहे थे। यह रिपोर्ट भारतीय खेल प्राधिकरण की मिशन ओलम्पिक सेल ने तैयार की थी। भारत को
सबसे बड़ा झटका निशानेबाजी में लगा। रिपोर्ट में निशानेबाजी में हिस्सा लेने गए
भारत के 12 में से 10 निशानेबाजों को पदक का दावेदार माना गया था।
सबसे ज्यादा उम्मीदें जीतू राय से थीं लेकिन हकीकत में हमारे सात शूटर फाइनल के
लिए भी क्वालीफाई नहीं कर पाए। तीरंदाजी में दीपिका कुमारी और लक्ष्मी रानी से
बड़ी उम्मीद थी लेकिन इनके तीर भी दिशा भटक गये। इसी तरह टेनिस में लिएंडर पेस और
रोहन बोपन्ना के क्वार्टर फाइनल तक पहुंचने की उम्मीद जताई गई थी लेकिन यह उम्मीद
पहले ही मैच में टूट गई। एक बड़ा सवाल यह भी कि जो भारतीय खिलाड़ी ओलम्पिक के
अलावा दूसरी जगहों पर अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं वे अगर ओलम्पिक में अच्छा नहीं
कर पाए तो इसकी वजह क्या है। रियो में कई अच्छे खिलाड़ी भी जिस तरह दबाव में खेलते
नजर आए उससे तो यही लगता है कि उनकी ट्रेनिंग में कहीं न कहीं कमी जरूर रह गई।
खैर, भारतीय खेल मंत्रालय और खेल प्राधिकरण
ओलम्पिक की तैयारी के नाम पर करोड़ों रुपए खर्च करते हैं लेकिन यह पैसा अगर
खिलाड़ियों की सही ट्रेनिंग पर खर्च होता तो भारत के खिलाड़ी भी पदक की दौड़ में
इतना पीछे नहीं रहते। एक अनुमान के मुताबिक भारत सरकार ने ओलम्पिक की तैयारियों के
नाम पर एक अरब रुपये से ज्यादा खर्च किए लेकिन नतीजा थू-थू करने वाला ही रहा। भारत
में खिलाड़ियों की व्यथा किसी से छिपी नहीं है। जानकर ताज्जुब होगा कि रियो गये 118 भारतीय खिलाड़ियों में से कम से कम 25 ही ऐसे होंगे जिन्हें बचपन में दो वक्त की रोटी
बड़ी मुश्किल से मिली होगी। इनमें कम से कम 25 एथलीट ऐसे होंगे जिनके लिए जिंदगी आज भी किसी
चुनौती से कम नहीं है। इनमें से 50 खिलाड़ी ऐसे होंगे जिनका नाम पूरे हिन्दुस्तान ने रियो ओलम्पिक में उनके क्वालीफाई
करने के बाद सुना होगा। नाम भी सिर्फ उन लोगों ने सुना होगा जो खेलों में दिलचस्पी
रखते हैं। यह सब जानते हुए आप खुद तय कीजिए कि ओलम्पिक में पदक नहीं जीतने
पर खिलाड़ियों की आलोचना कितना जायज है। रोइंग में इतिहास रचने
वाले दत्तू भोकानल बचपन में अपने पिता के साथ कुआं खोदा करते थे। जब पिता नहीं रहे
तो उन्होंने खुद भी कुआं खोदा, पेट्रोल पम्प पर काम किया, आज की तारीख में भी उनकी
मां अस्पताल में भर्ती है, उन्हें होश नहीं है। एथलीट ओपी जैशा के परिवार ने
मुफलिसी के वे दिन भी देखे हैं, जब उन्हें सड़क किनारे कीचड़ खाकर पेट भरना पड़ता
था। तीरंदाज दीपिका कुमारी के पिता ऑटो चलाते हैं, दीपिका की मां नर्स हैं। हॉकी
खिलाड़ी रानी रामपाल के पिता रेहड़ी चलाते थे। भारतीय हॉकी टीम के कप्तान पीआर श्रीजेश
के पिता मामूली किसान हैं, एथलीट खेता राम को बचपन में स्कूल जाने के लिए
रेगिस्तान में चार किलोमीटर दौड़ना पड़ता था।
हर बात में क्रिकेट से तुलना करने वाले देश को
ये समझना चाहिए कि क्रिकेट प्रोफेशनल हो गया बाकी खेल अनप्रोफेशनल रह गए। आज भी
लिएंडर पेस अगर सड़क पर निकल जाएं तो उनके साथ फोटो खिंचाने की गुजारिश 10 लोग करेंगे और शायद इतने ही उनसे ऑटोग्राफ
मांगेंगे लेकिन अगर सिर्फ दो वनडे और एक टेस्ट मैच खेलने
वाला क्रिकेटर सड़क पर निकल जाए तो लोग उसे घेर लेंगे। क्रिकेट में तमाम राजनीतिक
दांवपेंच और दखंलदाजी के बाद भी एक बात अच्छी हुई कि आज क्रिकेटर्स को पैसा खूब
सारा मिल रहा है। एक छोटे से गांव में पैदा हुए मुनाफ पटेल करोड़पति हो गए, कभी
मस्जिद में रहने वाले इरफान पठान के पास अच्छी खासी दौलत आ गई, पिता के साथ अनाज
का धंधा करने से मना करने वाले वीरेंद्र सहवाग हर लिहाज से कामयाब हो गए। इसमें इन
खिलाड़ियों की मेहनत है, उनकी काबिलियत है लेकिन बाकी खेलों में यह स्थिति नहीं आ
पाई है।
आज भी हमारे पास खेल की बुनियादी सुविधाओं की
कमी है। आज भी सरकारी स्कूलों में खेल के नाम पर कुछ नहीं है। हमारे यहां जिला
स्तर पर स्पोर्ट्स हॉस्टल जैसी सुविधाएं नहीं हैं। स्पोर्ट्स हॉस्टल तो दूर देश के
तमाम जिले ऐसे हैं जहां खेलने के लिए एक अदद ढंग का मैदान नहीं है। मैदान है भी तो
कोई सिखाने वाला नहीं है। खेल हमारी जिंदगी का हिस्सा नहीं है। पाठ्यकम्र का
हिस्सा होना तो दूर की बात है। महानगरों में तो स्थिति और भी खराब है। घर के आसपास
खेलने के लिए पार्क तक नहीं बचे हैं। हमारे आपके घरों में पैदा हुए तमाम लिएंडर पेस,
सुशील कुमार, पी.वी. सिंधू और सानिया मिर्जा सिर्फ इसलिए गुम हो गए क्योंकि उन्हें
खेलाने के लिए स्टेडियम ले जाने का वक्त हमारे पास नहीं है। घर के पास पार्क नहीं
हैं तो स्टेडियम घर से 10-15 किलोमीटर दूर है, यही वजह है कि जनसंख्या के
लिहाज से हमारे पास गिने-चुने एथलीट हैं और उससे भी कम गिने-चुने चैम्पियन। सच तो
यह भी कि रोइंग, जिमनास्टिक, गोल्फ, स्वीमिंग, टेनिस ये सब हमारे परम्परागत खेल
हैं भी नहीं। इन खेलों में हमने जब शुरुआत की है तब बाकी दुनिया चैम्पियन बन चुकी
थी। हमने इन खेलों को सीखा है, हम इन खेलों में अच्छा करना शुरू कर चुके हैं लेकिन
ओलम्पिक स्तर पर इन खेलों में जीत हासिल करने के लिए हमें इंतजार करना होगा।
किसका कैसा रहा प्रदर्शन
बैडमिंटन स्टार पी.वी. सिन्धू के रजत की चमक और
महिला पहलवान साक्षी मलिक के कांस्य की धमक के साथ रियो ओलम्पिक में भारत का
अभियान दो पदकों के साथ समाप्त होना वाकई अखरने वाली बात है लेकिन इससे सबक लेकर
भारतीय खेल तंत्र महिलाओं के प्रोत्साहन की दिशा में यदि सच्चे मन से पहल करे तो
इसके परिणाम और बेहतर हो सकते हैं। रियो ओलम्पिक में भारत ने अब तक का सबसे बड़ा दल
उतारा था लेकिन कई दिग्गजों के सुपर फ्लॉप प्रदर्शन से भारत की झोली में उम्मीदों
से कहीं कम पदक ही आ सके। भारत ने 2012 के पिछले लंदन ओलम्पिक में दो रजत और चार कांस्य सहित छह पदक जीते थे जबकि 2008 के बीजिंग ओलम्पिक में भारत ने एक स्वर्ण और दो कांस्य पदकों पर कब्जा जमाया था। शटलर पी.वी. सिन्धू और साक्षी मलिक की तारीफ
करनी होगी कि उन्होंने अपने जांबाज प्रदर्शन से देश को शर्मसार होने से बचा लिया। भारत
की इन बेटियों के अलावा महिला जिम्नास्ट दीपा करमाकर का वॉल्ट फाइनल में चौथा
स्थान हासिल करना, निशानेबाज अभिनव बिंद्रा का 10 मीटर एयर राइफल स्पर्धा में चौथे स्थान पर
रहना, एथलीट ललिता बाबर का 3000 मीटर स्टीपलचेज़ में 10वें नम्बर पर रहना, सानिया मिर्जा और रोहन बोपन्ना का कांस्य पदक मुकाबले में
हारना, किदांबी श्रीकांत का बैडमिंटन के पुरुष क्वार्टर फाइनल में हारना, पुरुष
तीरंदाज अतनु दास का क्वार्टर फाइनल तक पहुंचना, मुक्केबाज विकास कृष्णन यादव का
भी क्वार्टर फाइनल में पहुंचना, 18 वर्षीय महिला गोल्फर अदिति अशोक का 41वां स्थान हासिल करना और युवा निशानेबाज जीतू राय का 10 मीटर एयर पिस्टल में 8वें स्थान पर रहना इस निराशाजनक अभियान के बीच
कुछ उल्लेखनीय प्रदर्शन कहे जा सकते हैं।
रियो में भारतीय खिलाड़ियों के सुपर फ्लॉप
प्रदर्शन की बात की जाये तो कई दिग्गज सितारों ने बहुत निराश किया। लंदन ओलम्पिक
के पिछले छह पदक विजेताओं में से तीन कांस्य पदक विजेता निशानेबाज गगन नारंग, बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल और
पहलवान योगेश्वर दत्त इस बार रियो में उतरे लेकिन तीनों ने ही बहुत ज्यादा निराश
किया। अपना सातवां ओलम्पिक खेलने उतरे लिएंडर पेस पुरुष डबल्स के
पहले ही राउंड में बाहर हो गये तो साइना नेहवाल एक राउंड जीतीं और फिर घुटने की
चोट के कारण दूसरा मैच हारकर बाहर हो गयीं। गगन नारंग तीन स्पर्धाओं में उतरे लेकिन एक के भी फाइनल में नहीं पहुंच पाये। अपना आखिरी ओलम्पिक
खेले बीजिंग के व्यक्तिगत स्वर्ण पदक विजेता अभिनव बिंद्रा चौथे स्थान पर रहकर
खेलों से विदा हुए तो पहलवान योगेश्वर दत्त भी पहले ही राउंड में हारकर बाहर हो
गए। लंदन ओलम्पिक के फाइनलिस्ट डिस्कस थ्रोअर विकास गौड़ा इस बार फाइनल में भी नहीं
पहुंच सके। दुती चंद और टिंटू लुका जैसी धाविकायें सेमीफाइनल में भी नहीं पहुंच
सकीं तो ज्वाला गुट्टा और अश्विनी पोनप्पा की स्टार बैडमिंटन जोड़ी ग्रुप चरण में
ही बाहर हो गई। चैम्पियंस ट्राफी की रजत पदक विजेता पुरुष हॉकी टीम क्वार्टर फाइनल
में बेल्जियम की बाधा पार नहीं कर पाई और वह 8वें स्थान पर रही जो पिछले लंदन ओलम्पिक के 12वें स्थान से चार स्थान का सुधार है। सानिया
मिर्जा और रोहन बोपन्ना की जोड़ी पहले मिक्स्ड डबल्स के सेमीफाइनल में और फिर
कांस्य पदक के मुकाबले में हार गयी। 36 साल बाद ओलम्पिक खेलने उतरी महिला हॉकी टीम ने भी काफी
निराश किया और मात्र एक अंक लेकर अपने ग्रुप में छठे स्थान पर रही। भारतीय महिला
हाकी टीम का अंतिम पायदान पर रहना हाकी इण्डिया के लिए एक सबक है। साइना नेहवाल और
महिला पहलवान विनेश फोगाट की चोट भारत के लिये भारी पड़ी। घुटने की चोट के कारण
साइना का खेल प्रभावित हुआ और उन्हें जल्द ही बाहर हो जाना पड़ा। विनेश ने अपना
पहला मुकाबला 11-0 से जीता लेकिन दूसरे मैच में घुटने की चोट ने
उन्हें भी बाहर कर दिया। भारतीय एथलीटों में गणपति कृष्णन और गुरमीत सिंह 20 किलोमीटर पैदल चाल में और पुरुषों की चार गुणा
400 मीटर रिले टीम अयोग्य
करार दी गयी। सपना पूनिया 20 किलोमीटर पैदल चाल स्पर्धा पूरी ही नहीं कर सकी। रियो में एथलीटों का
प्रदर्शन काफी शर्मनाक रहा जबकि इन पर सरकार ने अथाह पैसा खर्च किया था। 112 साल बाद ओलम्पिक में लौटे गोल्फ में भारत को
अपने स्टार खिलाड़ी अनिर्बाण लाहिड़ी और एसएसपी चौरसिया से काफी उम्मीदें थीं लेकिन
दोनों ने ही खासा निराश किया। चौरसिया 50वें और लाहिड़ी 57वें स्थान पर रहे जबकि 18 वर्षीय अदिति अशोक महिला गोल्फ में 41वें स्थान पर रहीं।
भारत ने पिछले तीन ओलम्पिक में निशानेबाजी में पदक जीते थे लेकिन इस बार निशानेबाजों का हाथ
खाली रहा। रियो में उतरे 12 निशानेबाजों में सिर्फ जीतू राय और अभिनव बिंद्रा ही फाइनल में पहुंच सके।
बिंद्रा ने 10 मीटर एयर राइफल
स्पर्धा में चौथा स्थान और जीतू ने 10 मीटर एयर पिस्टल स्पर्धा में आठवां स्थान हासिल किया। अन्य निशानेबाजों ने भी निराश किया और कोई भी चुनौती
पेश नहीं कर पाया। तीरंदाजी में अतनु दास, दीपिका कुमारी और बोम्बायला देवी प्री
क्वार्टर फाइनल में हारे जबकि लक्ष्मीरानी माझी पहले राउंड में ही बाहर हो गई। दीपिका,
बोम्बायला और लक्ष्मी की टीम क्वार्टर फाइनल में पराजित हुयी। मुक्केबाजी में
विकास कृष्णन यादव क्वार्टर फाइनल, मनोज कुमार प्री क्वार्टर फाइनल और शिवा थापा
पहले राउंड में बाहर हुए। जूडो में अवतार सिंह कोई कमाल नहीं दिखा सके और दूसरे
राउंड में ही बाहर हो गये। रोइंग में
दत्तू बब्बन भोकानल ने संतोषजनक प्रदर्शन करते हुये 13वां स्थान हासिल किया। तैराकी में साजन प्रकाश 200 मीटर बटरफ्लाई में 28वें और शिवानी कटारिया 200 मीटर फ्रीस्टाइल में 41वें स्थान पर रहे। टेबल टेनिस में अचंत शरत कमल,
सौम्यजीत घोष, मणिका बत्रा औैर मौमा दास पहले राउंड की बाधा भी पार नहीं कर सके। भारोत्तोलन
में सतीश शिवालिंगम 77 किलोग्राम वर्ग
में 11वें स्थान पर रहे
जबकि सैखोम मीराबाई चानू 48 किलोग्राम वर्ग में अपनी स्पर्धा पूरी नहीं कर सकी। कुश्ती में फ्री स्टाइल
में संदीप तोमर, ग्रीको रोमन में रविन्दर खत्री और हरदीप सिंह तथा महिलाओं में
बबीता कुमारी ने भी निराश किया। एथलेटिक्स में दूती चंद 100 मीटर दौड़, श्रावणी नंदा 200 मीटर दौड़ और निर्मला श्योरण 400 मीटर दौड़ की हीट में ही बाहर हो गईं। मनप्रीत कौर को
शॉटपुट में 23वां और सीमा
पूनिया को डिस्कस थ्रो में 20वां स्थान मिला। महिला मैराथन में ओपी जैशा 89वें और कविता रावत 120वें स्थान पर रहीं। पुरुष एथलीटों में मोहम्मद
अनस 400 मीटर दौड़ और
जिनसन जॉनसन 800 मीटर दौड़ की
हीट में ही बाहर हो गये। 20 किलोमीटर पैदल चाल में मनीष सिंह 13वें स्थान पर रहे। अंकित शर्मा लम्बी कूद में 24वें, रंजीत माहेश्वरी तिहरी कूद में 30वें और विकास गौड़ा डिस्कस थ्रो में 28वें स्थान पर रहे। पुरुष रिले टीम अयोग्य करार
दी गई जबकि महिला रिले टीम फाइनल में भी नहीं पहुंच सकी।