Thursday 9 July 2015

बेटियों को सेल्फी का शिगूफा

समाज बदल रहा है। सरकार बदल रही है। कभी, मां-बाप की नजर में अपनी बिटिया को गोदी में लेने को अभिशप्त बेचारा बाप आज बेटी की सेल्फी के साथ आह्लादित है। समाज का यह विलक्षण बदलाव सुकून देता है। इस बदलाव को हम भारत में महिलाओं की स्थिति, बालिका शिक्षा, स्त्री विमर्श या बेटी बचाओ, बेटी बढ़ाओ, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बेटी सुरक्षा जैसे जुमलों से विश्लेषित करने के साथ ही हरियाणा के जींद जिले के बीबीपुर गांव के सरपंच सुनील जगलान के ‘सेल्फी विद डॉटर’ अभियान से जोड़कर देखें तो मन में अजीब सी बेचैनी होती है। बात सरकारी या निजी प्रयासों को नकारात्मक नजरिये से देखने की नहीं बल्कि उस सरोकार की है, जिससे हमारा समाज विमुख है। हाल ही भारत की बेटियों ने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति से उस समाज को निहाल किया है, जिस पर कमोबेश पुरुषों का अधिकार है।
प्रधानमंत्री मोदी ने इस बार मन की बात में महिला सुरक्षा पर चर्चा के बीच लोगों से अपील की थी कि वे अपनी बेटी के साथ सेल्फी भेजें। बस किसी नए शगल में व्यस्त होने की प्रतीक्षा में लगे लोगों ने इस अभियान को हाथों-हाथ लिया और अपनी-अपनी बेटियों के साथ सेल्फी को धड़ाधड़ पोस्ट कर वाहवाही लूट ली। सोशल मीडिया भी एकबारगी धन्य हो गया। दरअसल, बेटी के साथ सेल्फी किसी सामाजिक, सांस्कृतिक, नैतिक, शैक्षणिक दायित्व का बोझ उठाने को बाध्य नहीं करती। आप अपनी बेटी को उसकी जिन्दगी जीने की आजादी दें, दूसरी महिलाओं की इज्जत करें, बहुत सी सामाजिक मान्यताएं जिनके कारण महिलाओं को पुरुषों से एक पायदान नीचे रखा गया है, उन्हें खत्म करने की हिम्मत दिखाएं। घर-बाहर हर जगह महिला सुरक्षा पूर्णरूपेण कायम हो, महिला उत्पीड़न पर हर तरह से रोक लगे, लैंगिक समानता की ऐसी बहुत सी जरूरी बातें जो सेल्फी के फ्रेम से बाहर हैं, उन पर मंथन जरूरी है।
बेटी को पास बिठाकर सेल्फी लेना आसान है, इसलिए बहुत से लोगों ने सेल्फी ली। ऐसे सांकेतिक अभियान पर सवाल उठ रहे हैं तो उसका प्रतिकार भी हो रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता कविता कृष्णन और कलाकार श्रुति सेठ ने ट्विटर पर इसका विरोध किया और उसकी जगह महिलाओं के प्रति मानसिकता बदलने की बात कहने पर इन्हें तरह-तरह के अमर्यादित अल्फाजों का सामना करना पड़ा। श्रुति सेठ के पति मुस्लिम हैं, इस पर भी आपत्तिजनक टिप्पणियां सामने आर्इं। भारत की बेटियों सुश्री कृष्णन और सुश्री सेठ के साथ जो हुआ, उससे बेटी के साथ सेल्फी लेने की मानसिकता का सामाजिक सच अपने आप सामने आ आ जाता है। सवाल यह उठता है कि आखिर हमारा समाज कब तक सांकेतिक प्रयासों में उलझे रहने का ढोंग करता रहेगा?
हाल ही भारतीय हॉकी बेटियां अपने मिले-जुले प्रयासों से हॉकी वर्ल्ड लीग में पांचवें स्थान पर रहीं। यूं तो राष्ट्रीय खेल की महिला टीम का पांचवें स्थान पर आना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं कही जा सकती, लेकिन भारतीय खेल तंत्र के नजरिये से यह बहुत बड़ी बात है। वजह, यह गरीब बेटियां भारत के उन छोटे-छोटे गांवों और शहरों से आर्इं हैं, जहां साधन-सुविधा और प्रशिक्षण नाम की कोई व्यवस्था ही नहीं है। देश में खेल के नाम पर क्रिकेट की बात होती है और हाल के वर्षों में मुक्केबाजी, तीरंदाजी, बैडमिंटन, टेनिस भी इसमें शामिल हो गए हैं, पर भारत में विश्व स्तर की महिला खिलाड़ी उंगलियों पर गिनने लायक हैं। हमारे यहां प्रतिभा की कमी नहीं है, बल्कि प्रतिभा का दमन कुछ अधिक है। अगर महिला हॉकी टीम ओलम्पिक में शामिल होती है, तो देश की खिलाड़ी बच्चियों का हौसला इससे मजबूत होगा। वैसे भी आजादी के 68 साल में हमारी हॉकी बेटियां सिर्फ एक बार वर्ष 1980 में ओलम्पिक खेली हैं।
खेल से इतर शिक्षा के क्षेत्र में भी भारतीय बेटियां लगातार कुशाग्रबुद्धि होने का प्रमाण दे रही हैं। संघ लोकसेवा आयोग के नतीजों ने इस बार महिला प्रतिभा का लोहा मनवाया है। प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ पायदान पर खड़ी लड़कियों ने उस पुरुष समाज को चुनौती दी है, जो उन्हें लगातार दोयमदर्जे की मानने की भूल कर रहा है। इस परीक्षा में शिखर पर आरूढ़ इरा सिंघल शारीरिक रूप से विकलांग हैं। शारीरिक अक्षमता के चलते इस बेटी को कठिन संघर्षों से गुजरना पड़ा। इरा 2010 में भारतीय राजस्व सेवा में चयनित हुई थी लेकिन तब उसे विकलांगता का हवाला देकर नियुक्ति नहीं दी गई। आखिर उसने न केवल कानूनी लड़ाई लड़ी बल्कि फतह भी हासिल की। बार-बार अपनी प्रतिभा साबित कर इरा ने दिखला दिया कि शारीरिक विकलांगता उसके हौसलों के आड़े नहीं आती, लेकिन समाज और प्रशासन की संवेदनहीनता उसे और उसके जैसे बहुत से लोगों को याद दिलाती है कि आप अपनी विकलांगता से परेशान नहीं हों वरना हम आपको परेशान करेंगे। समाज की यह संवेदनहीनता और विद्रूपता क्या इस बात का संकेत नहीं कि हम आधी आबादी की स्वतंत्रता पर अधमने प्रयास कर रहे हैं। हम चाहे कितने ही बदलाव एवं महिलाओं के सशक्तीकरण की बात करें, पर उनकी स्थिति आज भी बहुत दयनीय है। आज जहां समाज में पुरुष और महिलाओं को बराबर का दर्जा दिये जाने की बात होती है वहीं दूसरी ओर घर की चारदीवारी में महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। इस मामले में पढ़ी-लिखी कामकाजी महिला हो या गृहिणी, उत्पीड़न सहना जैसे उसकी नियति सी बन गई है।
देश और समाज के लिए महिला कल भी एक सवाल थी तो आज भी उसके पथ पर रोड़े अटकाये जाने के कुत्सित प्रयास जारी हैं। नारी सशक्तीकरण का भोंपू बजाने से आधी आबादी को उसके अधिकार नहीं मिलने वाले। नारी शक्ति की मौजूदा सफलता उस पुरातन सोच को जरूर प्रभावित करेगी, जिसके तहत लड़कियों को आज भी पढ़ाना-लिखाना अनावश्यक माना जाता है। लड़कों की चाह में कन्या भ्रूण हत्या करने वाले भी एक बार यह जरूर सोचेंगे कि बेटियां भी कुलदीपक साबित हो सकती हैं। जब कोई बेटी बतौर कलेक्टर किसी जिले की कमान हाथ में लेगी तो उसका सीधा सम्पर्क वहां की जनता से होगा। जनता के बीच इनकी उपस्थिति न केवल प्रेरणादायक होगी बल्कि लाखों बेटियों के लिए ये प्रेरणा बनेगी और वे भी इन्हीं की तरह बनने का सपना देखेंगी। भारतीय बेटियों की सफलता नारी शक्ति का ही संकेत है।समाज का फर्ज बनता है कि वह इन प्रेरणादायी बेटियों का हौसला बढ़ाये ताकि आने वाले समय में बड़ी संख्या में भारत की बेटियां दुनिया में मादरेवतन का नाम रोशन कर सकें। भारत की बेटियों को जहां अपने स्वाभिमान के लिए चुप्पी तोड़नी होगी वहीं पुरुषों को भी अपनी सोच में बदलाव लाना होगा। आज बेटियों को सेल्फी का शिगूफा नहीं बल्कि फौलादी आत्मबल देने की दरकार है।

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