Wednesday, 22 July 2015

क्रिकेट का विकास!

नो डाउट अबाउट दिस की तर्ज पर दावे के साथ कह सकता हूं कि अपना देश विडम्बनाओं से घिरा है। हम भारतवंशी एक ओर तो विकास-विकास का राग अलाप कर राजनेता से लेकर अफसरशाही तक की नींद हराम करते हैं लेकिन जब सचमुच किसी क्षेत्र का विकास होने लगता है तो इसमें हम मीन-मेख निकालने से भी नहीं चूकते। अब क्रिकेट का ही उदाहरण लीजिए। मेरे ख्याल से आजादी के बाद से देश में जितना विकास क्रिकेट का हुआ है उतना और किसी चीज का नहीं। कहां मुट्ठी भर भद्र लोगों के बीच खेला जाने वाला क्रिकेट आज देश में धर्म बन चुका है और खिलाड़ी भगवान। तो बेशक इसका कुछ श्रेय तो ललित मोदियों, श्रीनिवासनों व मयप्पनों आदि को दिया जाना ही चाहिए। आखिर इन नायाब हीरों की बदौलत ही तो आज क्रिकेट इस मुकाम तक पहुंच पाया है।
 पहले वही जाड़े में क्रिकेट के छिटपुट मुकाबले हुआ करते थे। लेकिन आज साल के बारहों महीने लीजिए क्रिकेट का मजा। मैदान में दौड़ते-भागते खिलाड़ी पसीने से तर-बतर हो रहे हैं लेकिन खेलना बदस्तूर जारी है। यह किसका कमाल है। खिलाड़ियों में इतनी निष्ठा और समर्पण भाव की प्रेरक शक्ति क्या है। यह आखिर कैसे सम्भव हो पाया है। दूसरी लाइनों की बात करें तो एक से बढ़कर  एक कारोबारी से लेकर उद्योगपति तक हमेशा घाटे का रोना रोता रहते हैं। आंसू पोछते हुए दुखड़ा रोते हैं कि पता नहीं किस जन्म में क्या अपराध किया था जो इस जन्म में यह लाइन पकड़ी। अब कान पकड़ता हूं, बच्चों को इस लाइन से दूर ही रखूंगा। लोगों में हमेशा ईर्ष्या का पात्र बने रहने वाले बड़े-बड़े अफसर भी हमेशा हैरान-परेशान ही दिखाई देते हैं। खुलते ही शुरू हो जाते हैं, उफ बहुत दबाव है काम का, समझ लीजिए नौकरी बचानी मुश्किल है। बेकार इस नौकरी में आया है। इससे तो अच्छा रहता बच्चों को ट्यूशन पढ़ा लेता, यह जिल्लत तो नहीं झेलनी पड़ती। वहीं क्रिकेट को लीजिए। कैसी शान है इससे जुड़े चिरकुटों की भी। करोड़ों लगाकर टीम खड़ी की। करोड़ों लगाकर खिलाड़ियों को खरीदा। इतना ही प्रचार पर खर्च किया और करोड़ों की राशि दादा-भाईयों में बांट दी। लेकिन इसके बाद भी करोड़ों का शुद्ध लाभ। है किसी लाइन में इतना मार्जिन। दे सकता है कोई इतना मुनाफा। क्रिकेट के इन विकास पुरुषों का काम क्या है। बारहों महीने सूटेड-बूटेड रहने वाले ये मीडिया को पोज देने के लिए कभी-कभार मैदान में दिख गए तो दिख गए। नहीं तो इनका ज्यादातर समय बड़े-बड़े लोगों से मिलने-जुलने और रंगीन पार्टियों में ही बीतता है। सुबह राजधानी में तो पता चला रात का डिनर अमेरिका में ले रहे हैं। सचमुच कैसी शान की जिंदगी है इनकी। देश के कर्णधार माने जाने वालों को भी उपकृत करने की सम्भावना महज इसी क्षेत्र में है। लेकिन नासमझी देखिए कि फिर भी रणबांकुरों की आलोचना हो रही है। सट्टेबाजी का रोना रोया जा रहा है। भैया यह विडम्बना देश के साथ जुड़ी है तो इसमें ललित-मयप्पन या कुंद्रा क्या करें। बल्कि इनकी प्रतिभा का सदुपयोग दूसरे क्षेत्रों में भी होना चाहिए। मुझे याद है देश में तब चलो पढ़ाएं, कुछ कर दिखाएं का नारा बुलंद नहीं हुआ था। साक्षरता अभियान शुरू होने से बहुत पहले की बात है। मेरे मोहल्ले में लिख लोढ़ा-पढ़ पत्थर टाइप लोगों की भरमार थी। लेकिन कमाल देखिए कि ऐसे सभी लोग दिन भर की कड़ी मशक्कत के बाद शाम को घर लौटते ही मेधावी विद्यार्थियों की तरह कागजों व हिसाब-किताब के गणित  में खो जाते। देर रात तक सम्भावित नम्बर का ही अनुमान लगाते रहते। सुबह नींद से जागते ही फिर वही गुणा-भाग। मुझे इस पर आश्चर्य होता कि हस्ताक्षर न कर पाने वाले ये मेहनतकश आखिर किस उधेड़बुन में फंसे हैं। समझ बढ़ने पर मालूम हुआ कि यह सब सट्टे का कमाल है। साक्षरता अभियान पर अरबों खर्च करके भी सरकार जो न कर सकी इन सटोरियों ने सट्टे का चस्का लगाकर चुटकियों में कर दिखाया।
 -तारकेश कुमार ओझा

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