कोच नया, मर्ज पुराना
श्रीप्रकाश शुक्ला
पुश्तैनी खेल, गौरवमयी इतिहास, आठ ओलम्पिक-एक विश्व खिताब का मदमाता गर्व और गौरव हॉकी के हुक्मरानों ने विदेशी हाथों में गिरवी रख दिया है। 35 साल से उसे हासिल करने की जद्दोजहद तो हो रही है लेकिन उसे पाना तो दूर हमारे लड़ाका खिलाड़ी उस तक पहुंत भी नहीं पा रहे हैं। पिछले दिनों भारतीय हॉकी टीम के कोच नीदरलैण्ड के पॉल फान एस ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि हॉकी इण्डिया ने उन्हें उनके पद से हटा दिया है। इसके बाद घटनाचक्र तेजी से बदला और हॉकी इण्डिया ने नीदरलैण्ड के ही रोलेंट ओल्टमंस को भारतीय टीम का कोच बनाकर खेलप्रेमियों को इस बात का अहसास कराया है कि रियो ओलम्पिक में हमारी तूती बोलेगी। काश ऐसा हो। ओल्टमंस इससे पहले हॉकी इण्डिया में बतौर हाई परफॉरमेंस डायरेक्टर तैनात थे।
हॉकी इण्डिया की इस कारगुजारी से यह तो साफ हो गया है कि भारतीय हॉकी टीम का कोच देसी नहीं विदेशी ही होगा। अब सबसे बड़ा सवाल कि रियो ओलम्पिक की तैयारियों में जुटी भारतीय टीम के पदक जीतने की कितनी सम्भावनाए हैं और उसका मनोबल कैसा है? उल्लेखनीय है कि रियो ओलम्पिक खेलों का आयोजन 5 से 12 अगस्त, 2016 तक किया जाएगा। इससे पहले भारतीय टीम पिछले 2012 लंदन ओलम्पिक में 12वें और आखिरी पायदान पर रही थी।
इस पूरे मुद्दे पर पूर्व ओलम्पियन अशोक कुमार कहते हैं कि भारत सरकार, स्पोर्ट्स अथॉरिटी आॅफ इण्डिया के अलावा हॉकी इण्डिया हर तरह से भारतीय खिलाड़ियों की मदद कर रही है। ऐसे में कोच का हटाया जाना टीम के हित में नहीं है। पिछले कुछ सालों में नीदरलैण्ड, जर्मनी, स्पेन और आॅस्ट्रेलिया से कोच आए हैं लेकिन हॉकी की सेहत सुधरने की बजाय बिगड़ती ही चली गई। अशोक कुमार का मानना है कि यह अहंकार की लड़ाई है। हर साल कोच बदलने से टीम जीतना शुरू नहीं कर देगी। कोच ऐसा हो जिस पर खिलाड़ी भरोसा कर सकें। अब इस घटना से भारतीय खिलाड़ियों का मनोबल उपर उठने की बजाय गिरेगा।
पॉल फान एस को हटाकर रोलेंट ओल्टमंस को कोच बनाने की सिफारिश करने वाले पूर्व ओलम्पियन हरविन्दर सिंह का कहना है कि पिछले दिनों यह देखने में आया कि कमजोर टीमों के खिलाफ हमारी जीत का अंतर बहुत कम था जबकि मजबूत टीमों के खिलाफ हार का अंतर बेहद अधिक था। अब जबकि रियो ओलम्पिक में केवल एक साल बचा है तो टीम क्या करे इन सभी बातों पर समिति ने अपनी रिपोर्ट हॉकी इण्डिया को दे दी है जिस वह विचार करेगी। हरविन्दर सिंह ने आगे कहा कि टीम के मनोबल पर कोई असर नहीं पड़ेगा। खिलाड़ियों से बातचीत के बाद पाया गया कि वह उनकी रणनीति के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पा रहे थे।
भारत के एक और पूर्व ओलम्पियन और दो बार भारत को एशियाई खेलों का स्वर्ण पदक दिला चुके एमके कौशिक कहते हैं कि विदेशी कोच का काम पैसा कमाना है। वे सब अपना पद छोड़ने के बाद ही रोते हैं, काम करते समय क्यों नहीं? दरअसल आज हॉकी इण्डिया को लगता है कि वर्तमान हॉकी में विदेशी कोच की मदद से ही टीम का स्तर ऊंचा किया जा सकता है इसलिए पिछले कुछ समय में विदेशी कोच आए। वैसे वे भी मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आठवें पायदान पर मौजूद भारतीय टीम के लिए रियो में पदक जीतना आसान नहीं है। काउंटर अटैक पर खिलाड़ियों का गेंद को अपने कब्जे में लेकर आगे बढ़ना, पेनाल्टी कॉर्नर को गोल में बदलना और विरोधी टीमों को अधिक पेनाल्टी कॉर्नर ना देना जैसी बुनियादी बातों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है।
वैसे यह मर्ज तो पुराना है, कोच भले ही नया हो। फर्क सिर्फ इतना है कि पिछले कुछ सालों से टीम के साथ हाई परफॉरमेंस डायरेक्टर के रूप में साथ रहे ओल्टमंस को सभी खिलाड़ी जानते हैं, उनसे तालमेल बन जाएगा। इसके बावजूद रातों-रात भारतीय हॉकी की किस्मत बदल जाएगी मुश्किल ही लगता है।
...तो हॉकी में भारत मेडल कैसे जीतेगा?
भारतीय हॉकी में पिछले कुछ सालों में दो बड़े परिवर्तन आए हैं। एक है खेल में पैसा और दूसरा है हॉकी का निरंतर गिरता स्तर। अक्सर भारतीय खिलाड़ियों को पैसे की कमी खलती है। लेकिन कम से कम हॉकी खिलाड़ी यह शिकायत नहीं कर सकते। विदेश में किसी भी टूर्नामेण्ट में जीत के बाद हॉकी इण्डिया ने खिलाड़ियों को अच्छी खासी रकम देने का सिलसिला शुरू किया और राष्ट्रीय टीम के खिलाड़ियों को सुविधाओं की भी कोई कमी नहीं होने दी जा रही। विडम्बना यह है कि हॉकी इण्डिया के अध्यक्ष नरेन्द्र बत्रा पर हॉकी के गिरते स्तर का जिम्मेदार होने के आरोप भी लगते हैं। सच्चाई यह है कि हॉकी इण्डिया के अध्यक्ष नरेन्द्र बत्रा एक कारोबारी हैं और वह पैसा इकट्ठा करना जानते हैं। वे कॉलेज स्तर पर हॉकी खेले भी हैं लेकिन उनके करीबी मानते हैं कि बत्रा में औरों के पक्ष को समझने की सहनशीलता की कमी है। शायद यही कारण है कि साल 2010 में उनके हॉकी इंडिया की कमान सम्हालने के बाद पांच साल में चार विदेशी प्रशिक्षकों की छुट्टी हो चुकी है। होजे ब्रासा, माइकल नोब्स और टेरी वॉल्श के बाद कुछ दिन पहले पॉल वान एस को निलम्बित किया गया। बत्रा से पहले हॉकी महासंघ के अध्यक्ष केपीएस गिल के 14 साल के कार्यकाल में 16 कोच बर्खास्त हुए जिनमें जफर इकबाल, भास्करन, परगट सिंह और महाराज किशन कौशिक जैसे मंझे हुए पूर्व खिलाड़ी भी शामिल रहे। लेकिन बत्रा से खेलप्रेमी शिकायत ज्यादा करते हैं। उन्होंने भारत में कई बड़े टूर्नामेण्ट करवाए और सफल लीग भी लेकिन आरोप है कि वे सिर्फ अपने स्वभाव की वजह से मात खा गए।
अगर देश की आजादी से पहले के भारतीय हॉकी के स्वर्ण युग को छोड़ भी दें तो भी 1948, 1952 और 1956 में भारत ने लगातार तीन ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीते। 1960 में रोम में पाकिस्तान से फाइनल में हारने के बाद 1964 में टोक्यो में भारत ने फिर गोल्ड मेडल पर कब्जा किया था। तो कुल मिला कर इन 25 सालों को स्वतंत्र भारत की हॉकी का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। लेकिन उसके बाद देश की हॉकी पिछड़ती गई। तीसरे और चौथे स्थान पर सरकने के बाद सेमीफाइनल में प्रवेश भी दूभर हो गया।
कितनी उम्मीद?
साल 2006 में दोहा एशियाई खेलों में सेमीफाइनल में न पहुंचने के कारण भारतीय टीम बीजिंग ओलम्पिक में भाग लेने से भी वंचित रह गई थी। यह भारतीय हॉकी के लिए किसी काले दिन से कम नहीं था। इसके बाद तो स्तर लगातार गिरता ही गया। जिस तरह बत्रा ने काम शुरू किया था उससे कुछ उम्मीद बंधी थी। अगले साल रियो में ओलम्पिक गेम्स हैं. अच्छी बात यह है कि भारत ने रियो के लिए क्वालीफाई कर लिया है। लेकिन भारतीय हॉकी के वर्तमान हालात देखते हुए यह कहना बहुत मुश्किल है कि भारतीय टीम से पदक की उम्मीद की जा सकती है।
श्रीप्रकाश शुक्ला
पुश्तैनी खेल, गौरवमयी इतिहास, आठ ओलम्पिक-एक विश्व खिताब का मदमाता गर्व और गौरव हॉकी के हुक्मरानों ने विदेशी हाथों में गिरवी रख दिया है। 35 साल से उसे हासिल करने की जद्दोजहद तो हो रही है लेकिन उसे पाना तो दूर हमारे लड़ाका खिलाड़ी उस तक पहुंत भी नहीं पा रहे हैं। पिछले दिनों भारतीय हॉकी टीम के कोच नीदरलैण्ड के पॉल फान एस ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि हॉकी इण्डिया ने उन्हें उनके पद से हटा दिया है। इसके बाद घटनाचक्र तेजी से बदला और हॉकी इण्डिया ने नीदरलैण्ड के ही रोलेंट ओल्टमंस को भारतीय टीम का कोच बनाकर खेलप्रेमियों को इस बात का अहसास कराया है कि रियो ओलम्पिक में हमारी तूती बोलेगी। काश ऐसा हो। ओल्टमंस इससे पहले हॉकी इण्डिया में बतौर हाई परफॉरमेंस डायरेक्टर तैनात थे।
हॉकी इण्डिया की इस कारगुजारी से यह तो साफ हो गया है कि भारतीय हॉकी टीम का कोच देसी नहीं विदेशी ही होगा। अब सबसे बड़ा सवाल कि रियो ओलम्पिक की तैयारियों में जुटी भारतीय टीम के पदक जीतने की कितनी सम्भावनाए हैं और उसका मनोबल कैसा है? उल्लेखनीय है कि रियो ओलम्पिक खेलों का आयोजन 5 से 12 अगस्त, 2016 तक किया जाएगा। इससे पहले भारतीय टीम पिछले 2012 लंदन ओलम्पिक में 12वें और आखिरी पायदान पर रही थी।
इस पूरे मुद्दे पर पूर्व ओलम्पियन अशोक कुमार कहते हैं कि भारत सरकार, स्पोर्ट्स अथॉरिटी आॅफ इण्डिया के अलावा हॉकी इण्डिया हर तरह से भारतीय खिलाड़ियों की मदद कर रही है। ऐसे में कोच का हटाया जाना टीम के हित में नहीं है। पिछले कुछ सालों में नीदरलैण्ड, जर्मनी, स्पेन और आॅस्ट्रेलिया से कोच आए हैं लेकिन हॉकी की सेहत सुधरने की बजाय बिगड़ती ही चली गई। अशोक कुमार का मानना है कि यह अहंकार की लड़ाई है। हर साल कोच बदलने से टीम जीतना शुरू नहीं कर देगी। कोच ऐसा हो जिस पर खिलाड़ी भरोसा कर सकें। अब इस घटना से भारतीय खिलाड़ियों का मनोबल उपर उठने की बजाय गिरेगा।
पॉल फान एस को हटाकर रोलेंट ओल्टमंस को कोच बनाने की सिफारिश करने वाले पूर्व ओलम्पियन हरविन्दर सिंह का कहना है कि पिछले दिनों यह देखने में आया कि कमजोर टीमों के खिलाफ हमारी जीत का अंतर बहुत कम था जबकि मजबूत टीमों के खिलाफ हार का अंतर बेहद अधिक था। अब जबकि रियो ओलम्पिक में केवल एक साल बचा है तो टीम क्या करे इन सभी बातों पर समिति ने अपनी रिपोर्ट हॉकी इण्डिया को दे दी है जिस वह विचार करेगी। हरविन्दर सिंह ने आगे कहा कि टीम के मनोबल पर कोई असर नहीं पड़ेगा। खिलाड़ियों से बातचीत के बाद पाया गया कि वह उनकी रणनीति के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पा रहे थे।
भारत के एक और पूर्व ओलम्पियन और दो बार भारत को एशियाई खेलों का स्वर्ण पदक दिला चुके एमके कौशिक कहते हैं कि विदेशी कोच का काम पैसा कमाना है। वे सब अपना पद छोड़ने के बाद ही रोते हैं, काम करते समय क्यों नहीं? दरअसल आज हॉकी इण्डिया को लगता है कि वर्तमान हॉकी में विदेशी कोच की मदद से ही टीम का स्तर ऊंचा किया जा सकता है इसलिए पिछले कुछ समय में विदेशी कोच आए। वैसे वे भी मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आठवें पायदान पर मौजूद भारतीय टीम के लिए रियो में पदक जीतना आसान नहीं है। काउंटर अटैक पर खिलाड़ियों का गेंद को अपने कब्जे में लेकर आगे बढ़ना, पेनाल्टी कॉर्नर को गोल में बदलना और विरोधी टीमों को अधिक पेनाल्टी कॉर्नर ना देना जैसी बुनियादी बातों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है।
वैसे यह मर्ज तो पुराना है, कोच भले ही नया हो। फर्क सिर्फ इतना है कि पिछले कुछ सालों से टीम के साथ हाई परफॉरमेंस डायरेक्टर के रूप में साथ रहे ओल्टमंस को सभी खिलाड़ी जानते हैं, उनसे तालमेल बन जाएगा। इसके बावजूद रातों-रात भारतीय हॉकी की किस्मत बदल जाएगी मुश्किल ही लगता है।
...तो हॉकी में भारत मेडल कैसे जीतेगा?
भारतीय हॉकी में पिछले कुछ सालों में दो बड़े परिवर्तन आए हैं। एक है खेल में पैसा और दूसरा है हॉकी का निरंतर गिरता स्तर। अक्सर भारतीय खिलाड़ियों को पैसे की कमी खलती है। लेकिन कम से कम हॉकी खिलाड़ी यह शिकायत नहीं कर सकते। विदेश में किसी भी टूर्नामेण्ट में जीत के बाद हॉकी इण्डिया ने खिलाड़ियों को अच्छी खासी रकम देने का सिलसिला शुरू किया और राष्ट्रीय टीम के खिलाड़ियों को सुविधाओं की भी कोई कमी नहीं होने दी जा रही। विडम्बना यह है कि हॉकी इण्डिया के अध्यक्ष नरेन्द्र बत्रा पर हॉकी के गिरते स्तर का जिम्मेदार होने के आरोप भी लगते हैं। सच्चाई यह है कि हॉकी इण्डिया के अध्यक्ष नरेन्द्र बत्रा एक कारोबारी हैं और वह पैसा इकट्ठा करना जानते हैं। वे कॉलेज स्तर पर हॉकी खेले भी हैं लेकिन उनके करीबी मानते हैं कि बत्रा में औरों के पक्ष को समझने की सहनशीलता की कमी है। शायद यही कारण है कि साल 2010 में उनके हॉकी इंडिया की कमान सम्हालने के बाद पांच साल में चार विदेशी प्रशिक्षकों की छुट्टी हो चुकी है। होजे ब्रासा, माइकल नोब्स और टेरी वॉल्श के बाद कुछ दिन पहले पॉल वान एस को निलम्बित किया गया। बत्रा से पहले हॉकी महासंघ के अध्यक्ष केपीएस गिल के 14 साल के कार्यकाल में 16 कोच बर्खास्त हुए जिनमें जफर इकबाल, भास्करन, परगट सिंह और महाराज किशन कौशिक जैसे मंझे हुए पूर्व खिलाड़ी भी शामिल रहे। लेकिन बत्रा से खेलप्रेमी शिकायत ज्यादा करते हैं। उन्होंने भारत में कई बड़े टूर्नामेण्ट करवाए और सफल लीग भी लेकिन आरोप है कि वे सिर्फ अपने स्वभाव की वजह से मात खा गए।
अगर देश की आजादी से पहले के भारतीय हॉकी के स्वर्ण युग को छोड़ भी दें तो भी 1948, 1952 और 1956 में भारत ने लगातार तीन ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीते। 1960 में रोम में पाकिस्तान से फाइनल में हारने के बाद 1964 में टोक्यो में भारत ने फिर गोल्ड मेडल पर कब्जा किया था। तो कुल मिला कर इन 25 सालों को स्वतंत्र भारत की हॉकी का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। लेकिन उसके बाद देश की हॉकी पिछड़ती गई। तीसरे और चौथे स्थान पर सरकने के बाद सेमीफाइनल में प्रवेश भी दूभर हो गया।
कितनी उम्मीद?
साल 2006 में दोहा एशियाई खेलों में सेमीफाइनल में न पहुंचने के कारण भारतीय टीम बीजिंग ओलम्पिक में भाग लेने से भी वंचित रह गई थी। यह भारतीय हॉकी के लिए किसी काले दिन से कम नहीं था। इसके बाद तो स्तर लगातार गिरता ही गया। जिस तरह बत्रा ने काम शुरू किया था उससे कुछ उम्मीद बंधी थी। अगले साल रियो में ओलम्पिक गेम्स हैं. अच्छी बात यह है कि भारत ने रियो के लिए क्वालीफाई कर लिया है। लेकिन भारतीय हॉकी के वर्तमान हालात देखते हुए यह कहना बहुत मुश्किल है कि भारतीय टीम से पदक की उम्मीद की जा सकती है।
No comments:
Post a Comment