2013 में आई.पी.एल. स्पॉट फिक्सिंग की जांच करने वाले पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस मुकुल मुदगल ने गत दिनों एक समाचार पत्र को दिए गए साक्षात्कार में कहा कि भारत में जब घुड़दौड़ पर बेटिंग लीगल है तो क्रिकेट में लीगल क्यों नहीं की जा सकती। उनका कहना था कि बेटिंग या शर्तबाजी को लीगल कर देना चाहिए। इसको लीगलाइज करेंगे तो ब्लैकमनी व्हाइट और टैक्सेबल हो जाएगा और अंडरवर्ल्ड की फंडिंग भी रुक जाएगी। मेरी समझ में जस्टिस मुकुल मुदगल ने बहुत महत्वपूर्ण सामयिक मुद्दा उठाया है क्योंकि शर्त या बाजी लगाने के लिए जिसके लिए बोलचाल में सट्टा शब्द का प्रयोग किया जाता है उसके दो मापदंड नहीं होने चाहिए। दरअसल भारत में जुआ, सट्टा, लाटरी आदि को गैरकानूनी करार दिए जाने के बावजूद इनका जारी रहना भाग्यवादी व्यक्तियों की वह चाहत होती है कि बिना पुरुषार्थ व परिश्रम के भाग्य या संयोग से बड़ी धनराशि मिल जाया करे।
इसलिए सट्टा तथा जुए के दांव लगाने के कोई न कोई तरीके खोज लिए जाते हैं। इसलिए खेलों तथा चुनाव के समय सट्टेबाजी जोरों पर रहती है। जहां तक क्रिकेट का सवाल है, यदि इंग्लैंड में क्रिकेट का इतिहास देखें तो पता चलता है कि इस खेल के जन्म के समय से ही इसका तथा सट्टेबाजी का चोली-दामन का साथ रहा है। क्रिकेट की जन्मस्थली ब्रिटेन के क्रिकेट इतिहासकारों के अनुसार, अन्य खेलों की तुलना में क्रिकेट के तेजी से लोकप्रिय होने का एक बड़ा कारण इस पर भारी पैमाने पर होने वाला सट्टा था, जिसे वहां कानूनी मान्यता मिली हुई थी। वहां के समाचार-पत्रों में प्रमुखता से बेटिंग या सट्टा लगाने हेतु जीत-हार व खिलाड़ियों द्वारा बनाए जाने वाले रनों के पूर्वानुमान प्रकाशित किए जाते थे। ब्रिटेन के समान ही आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी क्रिकेट पर सट्टा को गैरकानूनी नहीं रहा। चूंकि भारत धर्मभीरुओं का देश है क्योंकि यहां के अधिकांश धर्मों में जुआ तथा सट्टा खेलना बुरा या अनैतिक माना जाता है संभवत: इसीलिए सरकार ने नैतिकता की रक्षा हेतु सट्टे या शर्तबाजी को जुआ मानकर गैरकानूनी करार कर रखा है।
भारत में 1960 के दशक के बाद क्रिकेट टेस्ट मैचों के समय सट्टेबाजी के समाचार यदा-कदा सुर्खियों में आने प्रारम्भ हुए। एक दिवसीय क्रिकेट के प्रारम्भ होने पर इनमें कुछ बढ़ोतरी हुई। आई.पी.एल. सीजन मैचों में सट्टेबाजी अपने चरम पर पहुंच गई है, इसमें तो फ्रेंचाइजी और खिलाड़ियों की नीलामी से लेकर लीग मैच के फायनल होने तक पुलिसिया धर-पकड़ के बावजूद सट्टेबाजी चलती रहती है। 2008 के प्रथम आई.पी.एल. सीजन मैच में लगभग 800 करोड़ रुपए सट्टेबाजी का अनुमान लगाया गया था जो 2015 में सम्पन्न 9वें सीजन मैच में 50,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गया। इस बड़े पैमाने पर होने वाले सट्टे में 70 फीसदी योगदान आॅन लाइन बेटिंग का है। भारतीय पुलिस भारत की धरती पर होने वाले सटोरियों की धर-पकड़ तो कर लेती है किन्तु ये सभी विदशों से संचालित होने वाली इन वेबसाइटों के माध्यम से आॅनलाइन बेटिंग के विरुद्ध सरकार कुछ भी करने में बेबस है, क्योंकि विदेशों में बेटिंग पर प्रतिबंध नहीं है। आई.पी.एल. सीजन मैचों पर आॅनलाइन सट्टेबाजी इतनी अधिक लोकप्रिय हो गई है कि इंटरनेट में आई.पी.एल. आॅन लाइन बेटिंग सर्च करिए आपको दर्जनों वेबसाइटों की सूची एवं उनके विज्ञापन मिल जाएंगे। आॅनलाइन सट्टे के लोकप्रिय होने का एक कारण यह भी है कि सट्टा लगाने वालों को बुकिंग की खोज के लिए कहीं दूर नहीं जाना पड़ता है। अपने निवास स्थान, कार्यालय या व्यावसायिक परिसर के कम्प्यूटर पर ही नहीं, बल्कि कहीं भी सफर करते हुए अपने लैपटॉप पर आसानी से बुकिंग की जा सकती है। दो साल पहले तक आॅनलाइन सट्टे के बुकिंग की सबसे बड़ी समस्या थी कि एजेंसी विदेशी होने के कारण विदेशी करेंसी डॉलर में भुगतान लेना पसन्द करती थी। आम भारतीय के लिए डॉलर में बुकिंग भुगतान सम्भव नहीं था। किन्तु अब बेट 365, बेटफेयर, सैडब्रोक्स, विलियम हिल, पैडीपावर तथा पिनेक्कल स्पोटर््स आदि बेटिंग एजेंसियों द्वारा रुपये में भुगतान की सुविधा प्रदान करने से इस समस्या का हल भी निकल आया है। अब इंटरनेट पर आॅनलाइन आईपीएल सट्टा धड़ल्ले से खेला जा रहा है। भारतीय पुलिस लाचार है, वह विदेशों में स्थित बेटिंग एजेंसियों के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर पा रही है। घुड़दौड़ में शर्तबाजी लगाने या बेट लगाने को सर्वाेच्च न्यायालय ने 1996 में एक निर्णय में पुलिस एक्ट 1888 तथा गेमिंग एक्ट 1930 के तहत जुआ मानने से इंकार करते हुए इसको गैरकानूनी करार देने से इंकार कर दिया था। न्यायालय का कहना था कि घोड़ों पर बाजी लगाना स्पेकुलेशन नहीं है बल्कि अध्ययन करके सोच-समझकर बाजी लगाने का कौशल है। इसलिए यह अपराध नहीं है। सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णय के बाद से भारत के सभी 5 टर्फ क्लब 9 स्थानों पर बेखौफ घुड़दौड़ का संचालन कर रहे हैं। घुड़दौड़ स्पर्धा के समान ही क्रिकेट के मैचों को भी जुआ न मानकर इसे सोच-समझकर बेटिंग या शर्तबाजी मानकर इसे कानून-सम्मत करार दिए जाने की जरूरत है। यह इसलिए भी कि प्राय: देखा गया है कि घुड़दौड़ या अन्य प्रकार की सटट्ेबाजी या जुए की तरह क्रिकेट में शर्तबाजी स्वयं के लकी नम्बर, साधू, फकीर-पीरबाबा की सलाह पर नहीं की जाती, बल्कि अध्ययन या अनुभव के आधार पर की जाती है। इसके लिए क्रिकेट सट्टाबाजी प्रेमी यदि सर्वाेच्च न्यायालय में घुड़दौड़ के सम्बन्ध में उसके 1996 के निर्णय का संदर्भ देते हुए याचिका दायर करते हैं तो इसको अपराध श्रेणी से हटाकर कानून-सम्मत निर्णय प्राप्त किया जा सकता है। यदि सरकार क्रिकेट में सचमुच अपराध मानती है तो उसे स्कूल में बच्चों तथा वयस्कों को पंचायत के माध्यम से इस अपराध से बचने के लिए शिक्षित करना चाहिए। भारत में सरकार ही नहीं, बल्कि गैर-सरकारी संगठन इस अपराध से बचने के लिए लोगों को जागृत करने में असफल रहे हैं। हमारी सरकार क्रिकेट सट्टेबाजी को हतोत्साहित करने के लिए शिक्षा की बजाय इसकी रोकथाम हेतु धर-पकड़ का रास्ता अपनाती है। हमारा सुझाव है कि क्रिकेट बेटिंग को अनैतिक व जुआ मानने की बजाय इसे दिमागी कसरत माननी चाहिए। इसलिए सरकार को एक क्रिकेट बेटिंग रेग्युलेटरी अथॉरिटी का गठन करके क्रिकेट शर्त बदने को विनियामित करना चाहिए।
-डॉ. हनुमंत यादव
इसलिए सट्टा तथा जुए के दांव लगाने के कोई न कोई तरीके खोज लिए जाते हैं। इसलिए खेलों तथा चुनाव के समय सट्टेबाजी जोरों पर रहती है। जहां तक क्रिकेट का सवाल है, यदि इंग्लैंड में क्रिकेट का इतिहास देखें तो पता चलता है कि इस खेल के जन्म के समय से ही इसका तथा सट्टेबाजी का चोली-दामन का साथ रहा है। क्रिकेट की जन्मस्थली ब्रिटेन के क्रिकेट इतिहासकारों के अनुसार, अन्य खेलों की तुलना में क्रिकेट के तेजी से लोकप्रिय होने का एक बड़ा कारण इस पर भारी पैमाने पर होने वाला सट्टा था, जिसे वहां कानूनी मान्यता मिली हुई थी। वहां के समाचार-पत्रों में प्रमुखता से बेटिंग या सट्टा लगाने हेतु जीत-हार व खिलाड़ियों द्वारा बनाए जाने वाले रनों के पूर्वानुमान प्रकाशित किए जाते थे। ब्रिटेन के समान ही आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी क्रिकेट पर सट्टा को गैरकानूनी नहीं रहा। चूंकि भारत धर्मभीरुओं का देश है क्योंकि यहां के अधिकांश धर्मों में जुआ तथा सट्टा खेलना बुरा या अनैतिक माना जाता है संभवत: इसीलिए सरकार ने नैतिकता की रक्षा हेतु सट्टे या शर्तबाजी को जुआ मानकर गैरकानूनी करार कर रखा है।
भारत में 1960 के दशक के बाद क्रिकेट टेस्ट मैचों के समय सट्टेबाजी के समाचार यदा-कदा सुर्खियों में आने प्रारम्भ हुए। एक दिवसीय क्रिकेट के प्रारम्भ होने पर इनमें कुछ बढ़ोतरी हुई। आई.पी.एल. सीजन मैचों में सट्टेबाजी अपने चरम पर पहुंच गई है, इसमें तो फ्रेंचाइजी और खिलाड़ियों की नीलामी से लेकर लीग मैच के फायनल होने तक पुलिसिया धर-पकड़ के बावजूद सट्टेबाजी चलती रहती है। 2008 के प्रथम आई.पी.एल. सीजन मैच में लगभग 800 करोड़ रुपए सट्टेबाजी का अनुमान लगाया गया था जो 2015 में सम्पन्न 9वें सीजन मैच में 50,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गया। इस बड़े पैमाने पर होने वाले सट्टे में 70 फीसदी योगदान आॅन लाइन बेटिंग का है। भारतीय पुलिस भारत की धरती पर होने वाले सटोरियों की धर-पकड़ तो कर लेती है किन्तु ये सभी विदशों से संचालित होने वाली इन वेबसाइटों के माध्यम से आॅनलाइन बेटिंग के विरुद्ध सरकार कुछ भी करने में बेबस है, क्योंकि विदेशों में बेटिंग पर प्रतिबंध नहीं है। आई.पी.एल. सीजन मैचों पर आॅनलाइन सट्टेबाजी इतनी अधिक लोकप्रिय हो गई है कि इंटरनेट में आई.पी.एल. आॅन लाइन बेटिंग सर्च करिए आपको दर्जनों वेबसाइटों की सूची एवं उनके विज्ञापन मिल जाएंगे। आॅनलाइन सट्टे के लोकप्रिय होने का एक कारण यह भी है कि सट्टा लगाने वालों को बुकिंग की खोज के लिए कहीं दूर नहीं जाना पड़ता है। अपने निवास स्थान, कार्यालय या व्यावसायिक परिसर के कम्प्यूटर पर ही नहीं, बल्कि कहीं भी सफर करते हुए अपने लैपटॉप पर आसानी से बुकिंग की जा सकती है। दो साल पहले तक आॅनलाइन सट्टे के बुकिंग की सबसे बड़ी समस्या थी कि एजेंसी विदेशी होने के कारण विदेशी करेंसी डॉलर में भुगतान लेना पसन्द करती थी। आम भारतीय के लिए डॉलर में बुकिंग भुगतान सम्भव नहीं था। किन्तु अब बेट 365, बेटफेयर, सैडब्रोक्स, विलियम हिल, पैडीपावर तथा पिनेक्कल स्पोटर््स आदि बेटिंग एजेंसियों द्वारा रुपये में भुगतान की सुविधा प्रदान करने से इस समस्या का हल भी निकल आया है। अब इंटरनेट पर आॅनलाइन आईपीएल सट्टा धड़ल्ले से खेला जा रहा है। भारतीय पुलिस लाचार है, वह विदेशों में स्थित बेटिंग एजेंसियों के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर पा रही है। घुड़दौड़ में शर्तबाजी लगाने या बेट लगाने को सर्वाेच्च न्यायालय ने 1996 में एक निर्णय में पुलिस एक्ट 1888 तथा गेमिंग एक्ट 1930 के तहत जुआ मानने से इंकार करते हुए इसको गैरकानूनी करार देने से इंकार कर दिया था। न्यायालय का कहना था कि घोड़ों पर बाजी लगाना स्पेकुलेशन नहीं है बल्कि अध्ययन करके सोच-समझकर बाजी लगाने का कौशल है। इसलिए यह अपराध नहीं है। सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णय के बाद से भारत के सभी 5 टर्फ क्लब 9 स्थानों पर बेखौफ घुड़दौड़ का संचालन कर रहे हैं। घुड़दौड़ स्पर्धा के समान ही क्रिकेट के मैचों को भी जुआ न मानकर इसे सोच-समझकर बेटिंग या शर्तबाजी मानकर इसे कानून-सम्मत करार दिए जाने की जरूरत है। यह इसलिए भी कि प्राय: देखा गया है कि घुड़दौड़ या अन्य प्रकार की सटट्ेबाजी या जुए की तरह क्रिकेट में शर्तबाजी स्वयं के लकी नम्बर, साधू, फकीर-पीरबाबा की सलाह पर नहीं की जाती, बल्कि अध्ययन या अनुभव के आधार पर की जाती है। इसके लिए क्रिकेट सट्टाबाजी प्रेमी यदि सर्वाेच्च न्यायालय में घुड़दौड़ के सम्बन्ध में उसके 1996 के निर्णय का संदर्भ देते हुए याचिका दायर करते हैं तो इसको अपराध श्रेणी से हटाकर कानून-सम्मत निर्णय प्राप्त किया जा सकता है। यदि सरकार क्रिकेट में सचमुच अपराध मानती है तो उसे स्कूल में बच्चों तथा वयस्कों को पंचायत के माध्यम से इस अपराध से बचने के लिए शिक्षित करना चाहिए। भारत में सरकार ही नहीं, बल्कि गैर-सरकारी संगठन इस अपराध से बचने के लिए लोगों को जागृत करने में असफल रहे हैं। हमारी सरकार क्रिकेट सट्टेबाजी को हतोत्साहित करने के लिए शिक्षा की बजाय इसकी रोकथाम हेतु धर-पकड़ का रास्ता अपनाती है। हमारा सुझाव है कि क्रिकेट बेटिंग को अनैतिक व जुआ मानने की बजाय इसे दिमागी कसरत माननी चाहिए। इसलिए सरकार को एक क्रिकेट बेटिंग रेग्युलेटरी अथॉरिटी का गठन करके क्रिकेट शर्त बदने को विनियामित करना चाहिए।
-डॉ. हनुमंत यादव
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