Friday, 26 July 2019

पचास फीसदी प्रशिक्षक वैज्ञानिक शोध का लाभ खिलाड़ियों को नहीं दे पातेः पीयूष जैन


खेल आयोजन, खेल प्रबंधन और योग पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन
त्रिवेंदरम। त्रिवेंदरम (केरल) में स्पोर्ट्स अथॉरिटी के अंतर्गत संचालित लक्ष्मी बाई शारीरिक शिक्षा विज्ञान संस्थान, फिजिकल एजूकेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया (पेफी) एवं केरल विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में तीन दिवसीय खेल आयोजन, खेल प्रबंधन और योग पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में पेफी के राष्ट्रीय सचिव डॉ. पीयूष जैन ने कहा कि पचास फीसदी प्रशिक्षक ज्ञान की कमी के चलते वैज्ञानिक शोध का लाभ खिलाड़ियों को नहीं दे पाते।
सम्मेलन का उद्घाटन डॉ. ए. जय तिलक, केरल सरकार के प्रमुख सचिव, खेल और युवा मामलों और योजना विभाग ने किया। कार्यक्रम में अपने शोध को प्रस्तुत करते हुए फिजिकल एजूकेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया (पेफी) के राष्ट्रीय सचिव डॉ. पीयूष जैन ने खेल प्रबंधन में फिजिकल एजूकेशन शिक्षक की भूमिका पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि पांच हजार साल पुरानी हमारी शिक्षा की समृद्ध परम्परा रही है। सदियों से शारीरिक शिक्षा ही मूल शिक्षा है। आज सूचना क्रांति के युग में नित नए प्रयोग शारीरिक शिक्षा एवं खेलों में हो रहे हैं।
डॉ. पीयूष जैन कहा कि विश्वविद्यालय में कुछ ऐसे शिक्षा कार्यक्रम विकसित किए जा रहे हैं, जिससे शिक्षक स्वयं अपना शैक्षिक ज्ञान बढ़ा पा रहे हैं लेकिन अभी और प्रयास किये जाने की जरूरत है। डॉ. पीयूष जैन ने कहा कि आज संसाधनों की कोई कमी नहीं है, बस इसमें दिलचस्पी लेने तथा सही क्रियान्वयन की आवश्यकता है। सही मायने में इस शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को स्वस्थ शरीर, मन और आचरण का प्रशिक्षण देना है।
डॉ. जैन ने कहा कि स्वस्थ शरीर में एक स्वस्थ मन रखने के लिए छात्रों को नियमित शारीरिक व्यायाम की आवश्यकता होती है। उन्होंने खेलों के प्रबंधन पर चर्चा करते हुए कहा कि चरित्र निर्माण में खेलों का आयोजन, प्रबंधन जरूरी है। यह युवा पीढ़ी के स्वास्थ्य के लिए भी बहुत जरूरी है। इस सेमिनार में अपने शोध विषय पर पेफी के अध्यक्ष डॉ. अरुण कुमार उप्पल ने भी विचार रखे। इस अवसर पर केरल सरकार के साथ-साथ पूरे देश के शारीरिक शिक्षा और खेलकूद से जुड़े अन्य प्रबुद्ध लोगों ने भी अपने-अपने शोध प्रस्तुत किये। इस अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम में 150 से अधिक पेशेवर खेल और व्यायाम विज्ञान, योग और प्रबंधन के विशेषज्ञों ने भाग लिया।

कृष्णा पूनिया ने विधान सभा में जगाई खिलाड़ियों की अलख



खेल मंत्री और शिक्षा मंत्री ने की सराहना
जयपुर। खिलाड़ी से राजनीति में प्रवेश करने वाली पद्मश्री डा. कृष्णा पूनिया ने विधान सभा में राजस्थान के खिलाड़ियों का जोरदार पक्ष रखते हुए अपनी कार्यशैली की जोरदार बानगी पेश की है। इससे पहले भी सादुलपुर विधायक कृष्णा पूनिया अपनी सरकार से राजगढ़ में अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम की मांग को मनवा कर खिलाड़ियों के मायूस चेहरों पर मुस्कान लौटा चुकी हैं। विधायक कृष्णा ने न केवल स्कूल स्तर के खिलाड़ियों का पक्ष रखा बल्कि द्रोणाचार्य अवार्डियों के जीवन-बसर पर भी राजस्थान सरकार का ध्यान आकृष्ट किया है। कृष्णा के इन प्रयासों का असर देश के अन्य राज्यों पर भी पड़ेगा इसमें संदेह नहीं है।
विधायक कृष्णा पूनिया ने शिक्षा मंत्री गोविन्द सिंह से प्रश्न किया कि राजस्थान में स्कूल स्टेट, स्कूल नेशनल और इंटर यूनिवर्सिटी आदि खेलों में पदक जीतने वाले खिलाड़ियों को प्राइज मनी नहीं दी जाती, इससे खिलाड़ियों में मायूसी है। विधायक पूनिया ने कहा कि  जिस तरह से ओपन स्टेट और नेशनल चैम्पियनशिप में खेलने वाले खिलाड़ियों को नगद राशि मिलती है, उसी तरह से शिक्षा विभाग के छात्र-छात्रा खिलाड़ियों को भी प्राइज मिलनी चाहिए। कृष्णा पूनिया ने सवाल किया कि शिक्षा विभाग में भर्ती के दौरान ओपन के पदक विजेता खिलाड़ियों को बोनस अंक क्यों नहीं दिए जाते? इस पर शिक्षामंत्री ने कहा, विभागों से बात कर प्रस्ताव बनाकर कार्रवाई करेंगे। कृष्णा ने कहा कि शिक्षा विभाग ही नहीं सभी विभागों में खिलाड़ियों को नौकरियों में प्राथमिकता मिलनी चाहिए। राजस्थान को खेलों में अग्रणी राज्य बनाने के लिए जरूरी है कि खिलाड़ियों को न केवल आर्थिक मदद मिले बल्कि उन्हें नौकरी में भी प्राथमिकता दी जाए।
प्रश्नकाल के दौरान कृष्णा पूनिया ने खेल मंत्री अशोक चांदना से कहा कि राज्य सरकार अर्जुन पुरस्कार विजेता, ओलम्पिक, एशियन और कॉमनवेल्थ गेम्स के पदक विजेताओं को जिस प्रकार से 25 बीघा जमीन, जेडीए का प्लॉट आदि सुविधाएं देती है उसी प्रकार की सुविधाएं द्रोणाचार्य पुरस्कार विजेताओं को भी मिलनी चाहिए। पूनिया के इस प्रश्न पर खेलमंत्री ने कहा कि इसके लिए सभी सम्बन्धित विभागों से चर्चा करने के बाद प्रस्ताव तैयार कर मुख्यमंत्री को भेजा जाएगा। विधानसभा अध्यक्ष सी.पी. जोशी ने खेल मंत्री अशोक चांदना और शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह डोटासरा को खिलाड़ियों के हित में निर्णय लेने के लिए कहा। गौरतलब है कि विधायक कृष्णा पूनिया के पति वीरेन्द्र पूनिया स्वयं भी द्रोणाचार्य अवार्डी एथलेटिक कोच हैं। जो भी हो कृष्णा पूनिया ने खिलाड़ी हित में जो आवाज उठाई है उससे राजस्थान ही नहीं अन्य राज्यों के खिलाड़ियों और द्रोणाचार्य अवार्डियों को भी लाभ मिलेगा।

अब बीएसएफ के लिए पदक जीतना मेरा लक्ष्यः मनीषा


किसान पिता ने लगाए बेटियों के सपनों को पर
मनीषा और मोनिका एथलेटिक्स में करिश्मा करने को बेताब
श्रीप्रकाश शुक्ला
भारत गांवों का देश है। गांवों में खेल प्रतिभाएं भी हैं लेकिन उन्हें उचित परवरिश और सही मार्गदर्शन न मिलने से वे अपना तथा देश का सपना साकार करने से वंचित रह जाती हैं। उदीयमान डिस्कस थ्रोवर किसान की बेटी मनीषा और हैमर थ्रोवर मोनिका शर्मा इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। इन बेटियों ने गरीबी के बावजूद अपने राज्य और मुल्क को दर्जनों पदक दिलाए हैं लेकिन हरियाणा सरकार इन्हें आश्वासन के सिवाय कुछ भी नहीं दे सकी। अंतरराष्ट्रीय एथलीट मनीषा अब बी.एस.एफ. में हैं, जहां वह ओलम्पिक खेलने और अपनी यूनिट को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक दिलाने का सपना देख रही हैं।
हरियाणा जिसे खेलों और खिलाड़ियों का सबसे बड़ा पैरोकार माना जाता है, वहां की राष्ट्रीय खिलाड़ी बेटियां सरकार की उपेक्षा के चलते खेतों में काम करने को मजबूर हैं। पद्मश्री कृष्णा पूनिया को अपना आदर्श मानने वाली झज्जर जिले के गांव अकेहरी मदनपुर की मनीषा कहती हैं कि सरकार की उपेक्षा से दुःखी तो हूं लेकिन हौसला नहीं हारी हूं। मनीषा के पिता श्रीभगवान शर्मा का भी सपना है कि उनकी बेटियां खेलों में देश का नाम रोशन करें। मनीषा जब 14 साल की थी तभी से वह अपने पिता की देख-रेख में डिस्कस थ्रो में अपनी किस्मत आजमा रही है। मनीषा कहती हैं कि हर खिलाड़ी की तरह मेरे भी सपने हैं जिन्हें मैं बी.एस.एफ. में रहकर पूरा करना चाहती हूं।
अब तक जीते पदक
मनीषा ने हरियाणा के लिए अब तक 68 पदक जीते हैं जिनमें 40 राज्य स्तर, 26 नेशनल स्तर तो दो इंटरनेशनल स्तर पर शामिल हैं। मनीषा ने 2013 में रांची में हुई साउथ एशियन चैम्पियनशिप में रजत पदक जीता था। 18 मई, 1995 को श्रीभगवान शर्मा के घर जन्मी मनीषा स्नातक तक की तालीम हासिल कर लेने के बाद खेल के साथ ही स्नातकोत्तर की पढ़ाई भी करना चाहती हैं। मनीषा की छोटी बहन मोनिका हैमर थ्रो में न केवल हाथ आजमा रही है बल्कि दो नेशनल में उसने एक स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है। मनीषा अपनी चार बहनों और एक भाई में सबसे बड़ी है।
पिता का सपना साकार करना है
मनीषा कहती हैं कि मैं अपने प्रशिक्षक पिता की खुशी और उनके सपने को साकार करने के लिए अभी भी खेलना चाहती हूं। मेरा परिवार तंगहाली के दौर से गुजर रहा है, फिर भी पिताजी चाहते हैं कि मैं और मेरी बहनें देश के लिए खेलें और दर्जनों मेडल जीतें। बी.एस.एफ. में नौकरी न लगने से पहले मनीषा अपने पिता के साथ खेतों में काम करती थी तथा सुबह-शाम तीन-तीन घण्टे प्रैक्टिस भी करती थी ताकि परिवार को दो जून की रोटी मयस्सर हो सके। मनीषा बताती हैं कि नेशनल में मेडल जीतने पर मुझे राज्य सरकार की तरफ से कई बार सम्मानित किया गया। सम्मान से कुछ पल के लिए खुशी तो मिली लेकिन उससे पेट नहीं भरा जा सकता। भारत सरकार 2020 में होने वाले ओलम्पिक खेलों के लिए प्रतिभाएं तलाश रही है जबकि मनीषा-मोनिका जैसी प्रतिभाशाली बेटियां अपनी किस्मत पर आंसू बहा रही हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि यदि एक मामूली किसान अपने प्रशिक्षण और जुनून से देश को सितारा खिलाड़ी दे सकता है तो हमारा खेल तंत्र उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर का क्यों नहीं बना सकता।

नई पीढ़ी की प्रेरणा लिसिप्रिया


पर्यावरण के लिए जगाई अलख
आज एक दुबली-पतली बिटिया सबकी प्रिय है। उम्र बेशक बहुत कम हो लेकिन संदेश ऐसे दिए कि भारत ही नहीं दुनिया वाह-वाह करने लगी। यह सहज विश्वास नहीं होता कि कक्षा दो में पढ़ने वाली सात साल की बच्ची ग्लोबल वार्मिंगऔर क्लाइमेट चेंजजैसे मुद्दे पर पूरी दुनिया का ध्यान खींच सकती है, वह भी उस पूर्वोत्तर के मणिपुर से जो मीडिया की मुख्यधारा से हमेशा ही अलग-थलग रहता है। मणिपुर की लिसिप्रिया कंगुजम दुनिया के कई बड़े मंचों को सम्बोधित कर चुकी है। वह स्विट्जरलैंड में जिनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में आयोजित ग्लोबल प्लेटफॉर्म फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन-2019 के छठे सत्र को सम्बोधित कर आई है। यह कार्यक्रम इसी साल 13 से 17 मई के बीच आयोजित किया गयाथा। वह संयुक्त राष्ट्र और स्विट‍्जरलैंड सरकार की ओर से आमंत्रित सबसे कम उम्र की प्रतिभागी थी। उसने वहां एशिया और प्रशांत क्षेत्र के बच्चों का प्रतिनिधित्व किया।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर लिसिप्रिया ने एपीएसी क्षेत्र के बच्चों की चिन्ताओं का प्रतिनिधित्व करते हुए 140 देशों के नुमाइंदों और तीन हजार अन्य प्रतिनिधियों को सम्बोधित कर एक नई पटकथा लिख दी। मई में  लिसिप्रिया के आने-जाने की वह खबर तो आई-गई हो गई लेकिन उसने देश का ध्यान तब खींचा जब वह 21 जून को हाथमें पर्यावरण संरक्षण के नारे लिखी तख्ती लिये संसद भवन के बाहर प्रदर्शन करती नजर आई। उसने प्रधानमंत्री व सांसदों से अपील की कि वे क्लाइमेट चेंज पर कानून बनाकर हमारा भविष्य सुरक्षित करें।
दरअसल, जेनेवा में हुआ कार्यक्रम संयुक्त राष्ट्र और स्विट्जरलैंड सरकार द्वारा आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये चेतना जगाने के लिए आयोजित किया गया था। लिसिप्रिया कंगुजम अंतरराष्ट्रीय युवा समिति (आईवाईसी) में बाल आपदा जोखिम न्यूनीकरण के प्रतीकात्मक चेहरे के रूप में काम कर रही है। संसद पर प्रदर्शन के दौरान लिसिप्रिया कहती हैं कि जब मैं प्राकृतिक आपदा मसलन भूकम्प, सुनामी व बाढ़ आदि के कारण निर्दोष लोगों को मरते हुए देखती हूं तो भयभीत हो जाती हूं। बच्चों को अपने माता-पिता को खोते देख मेरा दिल भर आता है। समाज के जिम्मेदार लोगों से आग्रह करती हूं कि वे दिल-दिमाग से क्लाइमेट चेंज के प्रभावों को कम करने के लिये प्रयास करें ताकि हम एक बेहतर दुनिया का निर्माण कर सकें। दरअसल, जेनेवा में आयोजित कार्यक्रम में दुनिया के सरकारी, गैर सरकारी संगठनों, रेडक्रास के अलावा संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न संगठनों ने भागीदारी की। यह पहला मौका नहीं था जब लिसिप्रिया को किसी वैश्विक कार्यक्रम में भाग लेने को आमंत्रित किया गया था। इससे पहले वह वर्ष 2018 में मंगोलिया के उलानबटार में आपदा जोखिम न्यूनीकरण हेतु आयोजित एशिया मंत्रीस्तरीय सम्मेलन में भाग ले चुकी है। सात साल की छोटी-सी उम्र में लिसिप्रिया कंगुजम अब तक पर्यावरण चेतना जगाने के लिए आठ देशों का दौरा कर चुकी है।
नि:संदेह, लिसिप्रिया कंगुजम की सक्रियता को देखकर आश्चर्य होता है कि खेलने-खाने की उम्र में वह सारी दुनिया की फिक्र लिये घूमती रहती है। इस उम्र में बच्चों को कहां दुनिया के गम्भीर विषयों से जुड़ाव होता है। ऐसे में सवाल यह भी उठता कि क्या वाकई यह बिटिया अपना स्वाभाविक बचपन जी पा रही है? मगर, पर्यावरण के प्रति उसकी चिन्ताओं से सहमत होना पड़ता है कि बच्चे यदि अभी से जागरूक होंगे‍ तभी तो हमारा कल सुधरेगा। बच्चों को देखकर बड़ों को भी सक्रिय होना पड़ेगा।
संसद भवन के बाहर तख्ती लिये लिसिप्रिया ने कहा, ‘प्रिय मोदी जी व सांसदों, जलवायु परिवर्तन कानून बनाकर सजगता दिखाएं। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। धरती गर्म हो रही है। हमारा भविष्य बचाने के लिये हमें समस्या की जड़ों पर जल्दी ध्यान देना होगा। हमारे भविष्य को बचा लीजिए। बेहतर दुनिया बनाने के लिये हमें जुनून से जुड़ना होगा।यह संयोग ही है कि पिछले दिनों पर्यावरण संरक्षण के लिये मुहिम चलाती एक अन्य छात्रा पूरी दुनिया में सुर्खियों में थी। स्वीडन में सोलह साल की ग्रेटा को दुनिया के 25 प्रभावशाली टीनएजर्स में शामिल किया गया। यह छात्रा हर शुक्रवार को स्कूल छोड़कर स्वीडन की संसद के बाहर धरना देती रही है। वह वहां बहुचर्चित पोस्टर क्लाइमेट चेंज के लिये स्कूल हड़ताललेकर बैठी रहती है।
भारतीय ग्रेटालिसिप्रिया बहुत छोटी है मगर उसके इरादे बड़े हैं। उम्र से भले ही वह बच्ची हो, मगर उसकी पहल बड़े लोगों को भी प्रेरणा देने वाली है। नि:संदेह क्लाइमेट चेंज का सबसे ज्यादा शिकार बच्चे ही होते हैं। अब चाहे प्राकृतिक आपदाओं की तबाही हो या खाद्य श्रृंखला टूटने से उत्पन्न कुपोषण की भयावहता हो, मगर बच्चों का मुद्दा गम्भीरता से नहीं लिया जाता। नि:संदेह यदि यह जागरूकता बचपन में आयेगी तो आगे चलकर वे एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभाकर पर्यावरण संरक्षण में महती योगदान दे सकते हैं। ऐसे में लिसिप्रिया कंगुजम की पहल को नई पीढ़ी का प्रेरणादायक कहा जा सकता है। हमें छोटी लेकिन बढ़ा उद्देश्य लेकर दुनिया को संदेश देती बिटिया का हौसला बढ़ाना चाहिए ताकि समाज से और लिसिप्रिया आगे आएं।

सफलता के सातवें आसमान पर चंद्राणी


सबसे कम उम्र की सांसद
क्षेत्र कोई भी हो सफलता उसे ही मिलती है जिसमें कुछ करने का जुनून हो। राजनीति की पथरीली राह बहुत कठिन होती है। लोग जीवन भर मशक्कत करने के बाद भी संसद की चौखट पर कदम नहीं रख पाते लेकिन इसके विपरीत चंद्राणी मुर्मू ने पहली बार में ही संसद की देहरी पर कदम रख सबको चौंका दिया। चंद्राणी मुर्मू सबसे कम उम्र में संसद तक पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला हैं।
किस्मत कैसे करवट लेती है, इसकी जीवंत मिसाल हैं ओड़िशा की चंद्राणी मुर्मू। मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बी.टेक. की पढ़ाई पूरी करने के तुरंत बाद नौकरी के लिये तैयारी कर रही चंद्राणी के लिये अब नौकरी तलाशने की कोई जरूरत नहीं रह गई है। वह अब नौकरी बांटने वाली व्यवस्था का हिस्सा बन चुकी हैं। चंद्राणी मुर्मू सत्रहवीं लोकसभा के लिये ओड़िशा के केन्झार से सांसद बनी हैं। खास बात यह है कि वह सत्रहवीं लोकसभा में देश की सबसे कम उम्र की सांसद चुनी गई हैं। चंद्राणी पच्चीस साल ग्यारह महीने महीने में सांसद बनी हैं। पिछली लोकसभा में सबसे कम उम्र के सांसद हरियाणा के दुष्यंत चौटाला थे, जिनकी उम्र चुनाव के वक्त छब्बीस साल थी। यह बात अलग है कि उन्हें राजनीति विरासत में मिली है, वहीं चंद्राणी के पिता के परिवार में सक्रिय राजनीति में हाल-फिलहाल कोई नहीं है। हां, कभी नाना जरूर सक्रिय राजनीति में रहे। आदिवासी समाज में उनका नाम सम्मान से लिया जाता रहा है।
ओड़िशा ने देश को कई तरह के संदेश चुपचाप बिना किसी शोर-शराबे के दिये हैं। चक्रवाती तूफान को चकमा देने वाले ओड़िशा ने नवीन पटनायक को जहां लगातार पांचवीं बार राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया वहीं पहली बार राज्य ने 33 फीसदी महिलाओं को संसद में भेजने में सफलता हासिल की है। देखा जाए तो महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण का अधिकार देने वाला बिल राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में संसद में दशकों से लटका हुआ है। तीसरा यह कि राज्य ने सबसे कम उम्र की एक आदिवासी लड़की को संसद में भेजा है। हम कह सकते हैं कि बड़े बदलाव बिना शोरगुल के भी होते हैं, ओड़िशा इसका साक्षी बना है।
नि:संदेह भुवनेश्वर से दिल्ली के रायसीना हिल्स तक पहुंचने का चंद्राणी का सफर एक परीकथा जैसा है। भुवनेश्वर से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करके नौकरी तलाश रही चंद्राणी की किस्मत अचानक ही बदल गई। उसके मामा ने पूछा कि क्या राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाना चाहती हो।उसने तुरंत हामी भर दी। दरअसल, पार्टी किसी पढ़ी-लिखी प्रत्याशी की तलाश में थी। बीजू जनता दल के मुखिया नवीन पटनायक ने उसे टिकट दिया और वह जीत भी गई। चंद्राणी के पिता सरकारी नौकरी करते हैं। सामान्य परिवार की चंद्राणी के पास न घर है, न गाड़ी और कोई बैंक बैलेंस भी नहीं, कुल रकम बीस हजार के आसपास। चंद्राणी का किसी भी कम्पनी में कोई शेयर और बीमा पॉलिसी भी नहीं है। हां, माता-पिता द्वारा दिये गये सौ ग्राम के सोने के जेवर जरूर हैं। इसके बावजूद लोगों का इतना प्यार मिला कि सांसद बन गईं। हां, उसके नाना हरिहर सोरेन सांसद रह चुके हैं। राजनीति में जो थोड़ी-बहुत दिलचस्पी रही, वह नाना के घर के राजनीतिक माहौल के चलते ही रही। आज भी लोग ओड़िशा में कहते सुने जाते हैं कि अरे ये हरिहर सोरेन की नातिन है। चंद्राणी अपनी सफलता का सारा श्रेय नवीन पटनायक को देती हैं, जिनके प्रयासों से उसे सांसद बनने का मौका मिला।
ओड़िशा की केन्झार सीट से जीती चंद्राणी ने इस चुनाव में राजनीति के अनुभवी भाजपा नेता व दो बार सांसद रह चुके अनंत नायक को हराया। आदिवासी बहुल इलाके में उनकी जीत का अंतर 66200 वोट का है। अब चंद्राणी मुर्मू अपने इलाके में शिक्षा को प्राथमिकता देना चाहती हैं। चंद्राणी मुर्मू का मानना है कि इस आदिवासी इलाके में सरकार की तमाम योजनाएं हैं, मगर शिक्षा के अभाव में लोग इन योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाते। उन्हें अधिकारों व सुविधाओं के प्रति जागरूक बनाने की जरूरत है। कुल 21 सांसदों वाले राज्य में सात महिलाओं का चुना जाना नारी सशक्तीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। एक को छोड़कर शेष छह महिला सांसद ठीक-ठाक पढ़ी-लिखी भी हैं। इनमें पांच महिला सांसद बीजू जनता दल से तो दो भारतीय जनता पार्टी से हैं। बीजू जनता दल की सांसदों में प्रमिला बिसोयी, मंजूलता मंडल, राजश्री मलिक, शर्मिष्ठा सेठी शामिल हैं वहीं भारतीय जनता पार्टी से चुनी गई सांसदों में भुवनेश्वर से जीती अपराजिता सडांगी तथा बलंगिरी से जीती संगीता कुमारी सिंहदेव शामिल हैं।
चंद्राणी अपने शैक्षिक अनुभवों से क्षेत्र के विकास को नई दिशा देना चाहती हैं। इनका कहना है कि मैं बड़ी-बड़ी घोषणाएं करने के बजाय जमीनी स्तर पर योजनाओं के क्रियान्वयन को प्राथमिकता दूंगी। चंद्राणी मुर्मू का लक्ष्य है कि क्षेत्र में युवाओं के रोजगार तथा महिलाओं और आदिवासियों की प्राथमिकताओं परध्यान केंद्रित किया जाये। चंद्राणी कहती हैं कि उनका क्षेत्र खनिज सम्पदा से भरपूर है, मगर इसके बावजूद बेरोजगारी नीतियों की विफलता को दर्शाती है।
बहरहाल, चंद्राणी अपनी नई पारी को लेकर खासी उत्साहित हैं। वह कहती हैं कि मैंने पढ़ाई के दौरान कभी नहीं सोचा था कि राजनीति में भविष्य तलाशूंगी। अब मौका मिला है तो कुछ नया करने का प्रयास रहेगा। संयुक्त परिवार में रहने वाली चंद्राणी के माता-पिता और दो बहनें उसकी सफलता से खासी प्रफुल्लित हैं। प्रफुल्लित होना भी चाहिए आखिर चंद्राणी ने सातवें आसमान पर कदम जो रखा है।

Tuesday, 23 July 2019

हिमा की हिमालयीन सफलता को सलाम


श्रीप्रकाश शुक्ला
भारत में आज एक ही बेटी चर्चा में है। नाम है हिमा दास। हिमा की उपलब्धियों से भारत ही नहीं समूचा खेल-जगत पुलकित है। इस गौरवशाली लम्हे में हम हिमा की हिमालयीन सफलता के साथ उसके प्रशिक्षक निपोन दास को भी सलाम करते हैं। सलामी इसलिए कि उन्होंने ही एक दुबली-पतली बेटी को फौलाद की शक्ल दी है, जोकि ट्रैक पर अपनी बिजली सी फुर्ती से समूचे हिन्दुस्तान को दुनिया भर में गौरवान्वित कर रही है। हिमा दास ने दो जुलाई से 20 जुलाई तक पांच स्वर्ण पदक जीत लेने का ऐसा कारनामा किया है जोकि इससे पहले कभी नहीं हुआ।
19 साल पहले असम के नगांव जिले के एक गांव धींग में जन्मी हिमा के पिता रंजीत दास गांव के मामूली किसान हैं। चावल उगाते हैं। उनके छह बच्चे हैं जिनमें हिमा सबसे छोटी है। घर से स्कूल और खेतों तक दौड़ लगाने वाली लड़की हिमा के बारे में किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन वह ऐसे दौड़ेगी कि दुनिया सांस रोक उसे ही देखेगी और ताली पीटेगी। जैसे उत्तर भारत के लोगों में क्रिकेट का खुमार है उसी तरह असम के लोगों को सिर्फ फुटबाल से प्यार है। गुवाहाटी से काजीरंगा और तेजपुर के रास्ते में जगह-जगह आपको खाली मैदानों में युवा फुटबाल खेलते मिल जाएंगे। हिमा भी पहले फुटबाल ही खेलती थी लेकिन निपोन दास की परख ने उसे एथलीट बनने को प्रेरित किया।
एक सांवली सी मामूली नैन-नक्श वाली लड़की हिमा दास आज हर भारतीय निगाहों का नूर है। दौड़ने से ठीक पहले वह जमीन को हाथों से चूमती है और बंदूक की आवाज सुनते ही ट्रैक पर उसके पराक्रम की बिजली कौंध जाती है। जुलाई के पहले सप्ताह से ही एक तरफ जहां असम बाढ़ की त्रासदी से जूझ रहा था वहीं वहां की एक बेटी यूरोपीय देशों के ट्रैकों पर अपने पराक्रम का जादू बिखेर रही थी। जीत की खुशी के बीच उसने देश की हुकूमतों और उद्योगपतियों से कई दफा असम को बाढ़ से बचाने की करुण पुकार लगाकर खिलाड़ियों के लिए एक नजीर पेश की।  
खेलप्रेमियों ने इस माह पांच बार हिमा दास को हवा की तरह उड़ते, उसके चेहरे की चमक, सौम्यता और  हंसी को देखा है। दुबली-पतली लेकिन मजबूत भुजाओं वाली लड़की के पैरों की गति, उसकी जांघों का बल मानो नारी शक्ति की नई परिभाषा गढ़ रहा था। सच कहें तो हिमा यूरोपीय देशों में एक पिछड़े मुल्‍क की सताई हुई लड़कियों के सपनों की गति लेकर उड़ रही थी। मैं उसकी देह की ताकत, उसकी फुर्ती, तेजी और उसकी हड्डियों के बल से अभिभूत हूं। हिमा से हर भारतीय खेलप्रेमी को उम्मीद बंधी है कि वह देर-सबेर भारतीय रीती झोली को ओलम्पिक पदक से आबाद कर सकती है।  
2016 के पहले तक हिमा स्कूल स्तर तक फुटबाल खेलती थी। आगे उसे प्रोफेशनली खेलने के लिए प्रॉपर ट्रेनिंग चाहिए थी, उसमें पैसे लगते लिहाजा उसने फुटबाल को बाय-बाय कर दिया। आज की दैदीप्यमान हिमा को दौड़ने की सलाह किसी और ने नहीं उसके फुटबाल प्रशिक्षक शमसुल शेख ने दी थी। शमसुल शेख की सलाह पर ही हिमा ने दौड़ में हाथ आजमाया। मिट्टी के ट्रैक पर दौड़-दौड़कर अभ्यास किया और पहुंच गई एक राज्यस्तरीय प्रतियोगिता में हिस्सा लेने। हिमा का राज्यस्तर पर कांस्य पदक जीतना सबकी कौतुक का विषय बन गया। सब हैरान थे, ये लड़की कौन है। पहले कभी न देखा, न सुना, सब चकित हुए और फिर भूल गए।
हिमा के लिए इससे आगे की राह आसान नहीं दिख रही थी लेकिन कहते हैं हिम्मत बंदे मदद खुदा। आखिर एक दिन असम के खेल कल्याण निदेशालय में एथलेटिक कोच निपोन दास की नजर हिमा पर पड़ी। एक स्थानीय स्पर्धा में मामूली से कपड़े के जूतों में हिमा को दौड़ते देख निपोन दास बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने इस लड़की की मदद का मन बना लिया। सच कहें तो निपोन दास ही वह जौहरी हैं जिन्होंने हिमा की प्रतिभा को न केवल परखा, सराहा बल्कि उसे प्रशिक्षण से लेकर हर वह सुविधा दी जोकि एक खिलाड़ी के लिए जरूरी होती है।
हिमा की सफलता में प्रशिक्षक निपोन दास ऐसे हैं जैसे किसी वृक्ष की कहानी में मिट्टी हो। संसार में चाहे जितना फरेब, जितना दंद-फंद हो, वक्त की किताब में दर्ज वही जौहरी हुए जिन्होंने हीरों को गढ़ा। एक गरीब किसान की बेटी को जो सम्बल निपोन दास ने दिया, वह काबिलेगौर है। कहते हैं इंसान में हुनर, ईमानदारी, हिम्मत, ताकत, सौम्यता और विनम्रता हो तो उसे उसकी मंजिल से कोई विचलित नहीं कर सकता। हिमा दास का दौड़ना दरअसल सचमुच हिमा दास हो जाना है, उसका खुद को पा लेना है। आओ भारत की इस बेटी को दिल से बधाई दें ताकि अन्य बेटियां भी खेलों में जौहर दिखाने का सपना देख सकें।

अंशुला के हाथ दुनिया के खजाने की चाबी


भारतीय महिलाओं की साख में इजाफा
सच तो यह है भारतीय नारी शक्ति एक के बाद एक नए प्रतिमान स्थापित कर रही है। आज कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां भारतीय महिलाओं के पदचाप न सुनाई दे रहे हों। अंशुला कांत को ही लें उनके हाथ दुनिया के खजाने की चाबी दी गई है। यह हमारी साख का ही कमाल है कि विश्व की तमाम बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारतीय महिलाओं को बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियों से नवाज कर उनका हौसला बढ़ा रही हैं। पिछले एक साल पर नजर डालें तो दुनिया की चर्चित बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के एक दर्जन शीर्ष पदों पर भारतीय प्रतिभाओं की नियुक्तियां हुई हैं। इन चर्चित कम्पनियों में फिलिप्स लाइटिंग, जापान की प्रमुख इलेक्ट्रानिक कम्पनी पैनासॉनिक, कोका कोला, चीनी मोबाइल कम्पनी शिओमी, जीबीएस, एरिक्सन आदि का शुमार है।
महिलाओं के साख की इस कड़ी में अब एक बड़ा नाम और जुड़ गया है अंशुला कांत का। अंशुला को विश्व बैंक का एमडी और सीएफओ बनाया गया है। वे भारत के सबसे बड़े सरकारी बैंक स्टेट बैंक ऑफइंडिया में महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रही हैं। बैंकिंग क्षेत्र में सफलतापूर्वक कार्य करने के लम्बे अनुभव के चलते ही उन्हें विश्व बैंक का प्रतिष्ठित पद मिला है। अंशुला कांत की साख और प्रतिभा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी नियुक्ति के बाबत विश्व बैंक के प्रेसीडेंट डेविड मल्पास ने यहां तक कहा कि विश्व की सर्वोच्च बैंकिंग संस्था को एक ऐसी शख्सियत मिल रही है, जिसका फायदा न केवल बैंक को होगा बल्कि दुनिया के दूसरे देशों को भी लाभ मिलेगा। मैं और मेरी टीम उनके साथ काम करने को उत्साहित है। हम उनके साथ मिलकर बेहतर परिणाम देंगे।  दरअसल, अंशुला विश्व बैंक में फाइनेंशियल और रिस्क मैनेजमेंट की जिम्मेदारी सम्हालेंगी।
नये दायित्वों के अंतर्गत अंशुला कांत विश्व बैंक के प्रबंधन कार्यों के साथ वित्तीय रिपोर्टिंग, रिस्क मैनेजमेंट व अन्य वित्तीय संसाधन जुटाने का कार्य करेंगी। अपने करियर की दूसरी पारी में बैंकिंग सेक्टर में साढ़े तीन दशक के अपने अनुभव का लाभ अंशुला को मिलेगा। एसबीआई में उनकी पारी शानदार रही है। विश्व बैंक में अशुंला का कार्यकाल 30 सितम्बर, 2020 तक रहेगा। अंशुला को गत छह सितम्बर 2018 को भारतीय स्टेट बैंक का मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया गया था। इससे पहले वह स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की डिप्टी एमडी एवं सीएफओ के पद पर कार्यरत रही हैं। उत्तराखंड के रुड़की की रहने वाली अंशुला कांत का जन्म सात सितम्बर, 1960 को हुआ। गृह जनपद में प्रारम्भिक पढ़ाई के बाद उन्होंने दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज फॉर वूमेन से इकोनॉमिक्स में आनर्स के साथ ग्रेजुएशन की। कालांतर में दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की। उन्हें स्टेट बैंक के फाइनेंशियल मैनेजमेंट को और बेहतर बनाने के लिये जाना जाता है। इसके अलावा बैंकिंग सेवा में तकनीकी ज्ञान के बेहतर इस्तेमाल के लिये भी उनकी सराहना होती है।
माना जाता है कि अशुंला कांत नेतृत्व की चुनौतियों के मुकाबले में खासी निपुण हैं। उनकी उपलब्धियों में यह भी शुमार है कि उन्होंने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के सीएफओ के रूप में 38 बिलियन अमेरिकी डॉलर के राजस्व तथा पांच सौ बिलियन डॉलर की कुल सम्पत्ति का प्रबंधन किया। उन्होंने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की दीर्घकालीन स्थिरता पर फोकस रखा। साथ ही उन्होंने एसबीआई के पूंजी आधार में काफी सुधार किया। नि:संदेह इन तमाम उपलब्धियों के साथ-साथ अंशुला के पास बैंकिंग सेक्टर में 35 साल काम करने का व्यापक अनुभव है, जो निश्चित रूप से उनकी दूसरी पारी में कामयाबी की नई इबारत लिखने में काम आयेगा। आशा है कि अनुभवी और बैंकिंग सेक्टर में लीडरशिप चुनौतियों का मुकाबला करने में सक्षम अंशुला उम्मीदों की कसौटी पर खरा उतरेंगी।
बहरहाल, बनारस की इस बहू ने इस नियुक्ति से देश को गौरवान्वित किया है। साथही भारतीय महिलाओं के लिये भी प्रेरणा की मिसाल बनी हैं। उन्होंने अपनी कार्यशैली से एक नजीर पेश की हैं कि यदि कोई महिला चाहे तो कार्य के प्रति समर्पण व मेहनत से दुनिया के तमाम वे बड़े पद हासिल कर सकती है, जिन पर अब तक पुरुषों का वर्चस्व रहा है। अपने काम के प्रति समर्पित व सख्त अनुशासन की पाबंद अंशुला ने अपने गुणों के चलते करियर में विशिष्ट स्थान बनाया है। उनकी सफलता से प्रफुल्लित उनके पति संजय कांत बताते हैं कि अंशुला कालेज के दिनों से ही मेधावी रही हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत यही है कि वह जो भी काम शुरू करती हैं, उसे पूरा किये बिना नहीं रुकतीं। उसी लगन से उन्होंने पारिवारिक जिम्मेदारियां भी निभाई हैं। बच्चों के पालन-पोषण में भी वह समय की बहुत पाबंद रही हैं। संजय कांत पेशे से चार्टेड एकाउंटेंट हैं। बहरहाल, यह पूरे देशके लिये प्रतिष्ठा की बात है कि एक भारतीय महिला को विश्व बैंक का एमडी बनाया गया है। साथ ही देश के सबसे बड़े सार्वजनिक बैंक स्टेट बैंक आफ इंडिया के लिये भी कि उसके एक बैंकर को वैश्विक स्तर पर मान्यता मिली है। आज के इस प्रतिस्पर्धी दौर में अंशुला की इस उपलब्धि को कमतर नहीं माना जा सकता। यह सम्पूर्ण भारतीय नारी शक्ति के लिए गर्व और गौरव की बात है।