ओलम्पिक के आठ स्वर्ण और एक विश्व खिताब का मदमाता गर्व हर भारतीय को कालजयी दद्दा ध्यानचंद की याद दिलाता है। नपे-तुले पास, चीते सी चपलता, दोषरहित ट्रेपिंग, उच्च स्तर का गेंद नियंत्रण और सटीक गोलंदाजी हॉकी के मूल मंत्र हैं, दद्दा ध्यानचंद की हॉकी भी मैदान में प्रतिद्वंद्वी को कुछ यही पाठ पढ़ाती थी। 29 अगस्त, 1905 को परतंत्र भारत के प्रयाग नगर में एक तंगहाल गली में सोमेश्वर दत्त सिंह के घर जन्मे ध्यानचंद अब इतिहास के पन्नों में दफन हैं, पर उनका असाधारण खेल कौशल आज भी जिन्दा है।
बचपन में पहलवानी का शौक रखने वाले दद्दा की हॉकी प्रतिभा के असल पारखी सूबेदार मेजर बाले तिवारी रहे। पिता सोमेश्वर सिंह और बड़े भाई मूलचंद के सेना में होने के चलते दद्दा ने 16 साल की उम्र में ही वर्ष 1922 में फर्स्ट ब्राह्मण रेजीमेंट में एक सिपाही से अपनी नौकरी प्रारम्भ की। सेना में बाले तिवारी ने न केवल दद्दा ध्यानचंद की छुपी खेल प्रतिभा को पहचाना बल्कि हॉकी के प्रारम्भिक गुर भी सिखाए। तिवारी की देख-रेख में कुछ समय में ही दद्दा की हॉकी में ऐसी तूती बोली कि दुनिया वाह-वाह कर उठी। दद्दा ध्यानचंद की हॉकी जब परवान चढ़ी तब भारत आजाद नहीं था। तब हॉकी में ही एकाध लम्हे ऐसे आते थे, जब गुलाम भारत को गर्व और गौरव का अहसास होता था। इन्हीं लम्हों के बीच महसूस होता था कि इस मुल्क से जो सोने की चिड़िया उड़ गई है वह कभी-कभार भारतीय हॉकी के ऊपर आ बैठती है। समय बदल चुका है अब देश आजाद है पर हमारी हॉकी गुलाम हो चुकी है। अब हमारे पास कोई हॉकी का जादूगर नहीं है। एक लम्हा बर्लिन ओलम्पिक 1936 का, जब हिटलर का जलजला था लेकिन तब भी हॉकी में भारतीय बादशाहत का ही डंका पिटता था। 15 अगस्त, 1936 को बर्लिन ओलम्पिक हॉकी का खिताबी मुकाबला देखने तानाशाह हिटलर मैदान में आया था। हिटलर मैदान में इसलिए आया था कि जर्मनी जीतेगी और वह अपने खिलाड़ियों को सोने से मढ़ देगा लेकिन जादूगर दद्दा ध्यानचंद ब्रिगेड ने जर्मनी को 8-1 से ध्वस्त कर उसका गुरूर चूर-चूर कर दिया। पराजय से स्तब्ध जर्मन जहां हिटलर के न्याय को ताक रहा था वहीं तानाशाह उमंगित था तो बस जादूगर की जादूगरी से। वाकई उस दिन दो भाइयों (ध्यान और रूप) की जोड़ी ने ही जर्मनी का मानमर्दन किया था। उस दिन दोनों भाइयों को हिटलर ने जर्मनी से खेलने का आमंत्रण भी दिया पर ध्यानचंद ने उसका टका सा जवाब दिया कि मुझे हॉकी से भी अधिक अपने देश और उसकी मिट्टी से प्यार है। यदि हॉकी खेलूंगा तो सिर्फ अपने वतन के लिए। हालांकि तब भारत ने कोई नई जमीन नहीं तोड़ी थी, इससे पूर्व एक्सटर्डम (1928) और लॉस एंजिल्स (1932) में भारत हॉकी का स्वर्ण तमगा गले लगा चुका था, फिर भी खुशी थी तो बस इसलिए कि परतंत्र भारत की स्वतंत्र हॉकी ने जहां लगातार तीसरी बार दुनिया जीती वहीं दद्दा ध्यानचंद ने भी तीन ओलम्पिक मजमों में बडेÞ ही शान से 33 गोलों का अद्भुत कीर्तिमान बना डाला। उस बर्लिन की शाम को जब भारतीय तिरंगा फहराया गया तब वह 15 अगस्त की शाम थी। यह तिथि आज भी भारतीय गौरवगाथा और उसकी स्वतंत्रता का सूचक है। समय ठहर गया। दूसरे विश्व युद्ध की प्रतिछाया के चलते दुनिया ओलम्पिक में फिर जादूगर की जादूगरी नहीं देख सकी। भारत को हॉकी में अपनी चौथी फतह के लिए 12 वर्ष लम्बा इंतजार करना पड़ा। सच तो यह है कि दद्दा की दमदार हॉकी से ही पूरबी जादू और जादूगर जैसे विशेषण निकले। समय और उम्र कुदरत की नियामत है। समय बदला भारतीय परतंत्रता की बेढ़ियां कटीं लेकिन तब तक दद्दा बूढेÞ हो चुके थे और उन्होंने भी खेलभावना के साथ 1949 में प्रथम श्रेणी हॉकी को विश्राम दे दिया। देश आजाद हुआ पर दुनिया पर राज करने वाली हमारी हॉकी भारत-पाकिस्तान के बीच बंट गई। भारतीय हॉकी ने ओलम्पिक में चैम्पियन बने रहने का सिलसिला तो कायम रखा पर उसकी जादूगरी वाली बात फिर नजर नहीं आई। किशनलाल ने आजाद भारतीय हॉकी की कमान सम्भाली और भारत पहली बार ध्यानचंद के बिना भी जीता लेकिन दद्दा के शून्य की कमी कभी नहीं भरी जा सकी। हॉकी के चक्रवर्ती अभियान में पद्मभूषण दद्दा ने जर्मनी, स्पेन, मलेशिया, अमेरिका, इंग्लैण्ड, डेनमार्क आदि मुल्कों के साथ 133 मैच खेलकर जहां 307 गोल किए वहीं न्यूजीलैण्ड दौरे पर गई टीम की तरफ से मेजर ध्यानचंद ने 43 मैचों में ही 201 बार गोलंदाजी कर दुनिया को चकाचौंध कर दिया था।
लगभग ढाई दशक तक भारतीय हॉकी को अपने कंधों का सहारा देकर दद्दा ध्यानचंद तो अमर हो गए पर भारत से हॉकी की बादशाहत छिन गई। उम्मीद है कि मरती नहीं, हॉकी टीम के प्रदर्शन पर लोग चाहे लाख उंगलियां उठाएं लेकिन किसी खेल मजमे से पूर्व मन के किसी कोने में अपने पुराने चावल होने का भाव आज भी जिन्दा रहता है। दद्दा ध्यानचंद तीन दिसम्बर, 1979 को हमारे बीच से जुदा हो गए लेकिन उनकी हॉकी आज भी भारतीय हृदय को उन्मादित करती है। आज दद्दा ध्यानचंद के जन्मदिन पर एक बार पुन: भारतीय हॉकी का अतीत उनकी अमरता में खोजना पडेÞगा।
बचपन में पहलवानी का शौक रखने वाले दद्दा की हॉकी प्रतिभा के असल पारखी सूबेदार मेजर बाले तिवारी रहे। पिता सोमेश्वर सिंह और बड़े भाई मूलचंद के सेना में होने के चलते दद्दा ने 16 साल की उम्र में ही वर्ष 1922 में फर्स्ट ब्राह्मण रेजीमेंट में एक सिपाही से अपनी नौकरी प्रारम्भ की। सेना में बाले तिवारी ने न केवल दद्दा ध्यानचंद की छुपी खेल प्रतिभा को पहचाना बल्कि हॉकी के प्रारम्भिक गुर भी सिखाए। तिवारी की देख-रेख में कुछ समय में ही दद्दा की हॉकी में ऐसी तूती बोली कि दुनिया वाह-वाह कर उठी। दद्दा ध्यानचंद की हॉकी जब परवान चढ़ी तब भारत आजाद नहीं था। तब हॉकी में ही एकाध लम्हे ऐसे आते थे, जब गुलाम भारत को गर्व और गौरव का अहसास होता था। इन्हीं लम्हों के बीच महसूस होता था कि इस मुल्क से जो सोने की चिड़िया उड़ गई है वह कभी-कभार भारतीय हॉकी के ऊपर आ बैठती है। समय बदल चुका है अब देश आजाद है पर हमारी हॉकी गुलाम हो चुकी है। अब हमारे पास कोई हॉकी का जादूगर नहीं है। एक लम्हा बर्लिन ओलम्पिक 1936 का, जब हिटलर का जलजला था लेकिन तब भी हॉकी में भारतीय बादशाहत का ही डंका पिटता था। 15 अगस्त, 1936 को बर्लिन ओलम्पिक हॉकी का खिताबी मुकाबला देखने तानाशाह हिटलर मैदान में आया था। हिटलर मैदान में इसलिए आया था कि जर्मनी जीतेगी और वह अपने खिलाड़ियों को सोने से मढ़ देगा लेकिन जादूगर दद्दा ध्यानचंद ब्रिगेड ने जर्मनी को 8-1 से ध्वस्त कर उसका गुरूर चूर-चूर कर दिया। पराजय से स्तब्ध जर्मन जहां हिटलर के न्याय को ताक रहा था वहीं तानाशाह उमंगित था तो बस जादूगर की जादूगरी से। वाकई उस दिन दो भाइयों (ध्यान और रूप) की जोड़ी ने ही जर्मनी का मानमर्दन किया था। उस दिन दोनों भाइयों को हिटलर ने जर्मनी से खेलने का आमंत्रण भी दिया पर ध्यानचंद ने उसका टका सा जवाब दिया कि मुझे हॉकी से भी अधिक अपने देश और उसकी मिट्टी से प्यार है। यदि हॉकी खेलूंगा तो सिर्फ अपने वतन के लिए। हालांकि तब भारत ने कोई नई जमीन नहीं तोड़ी थी, इससे पूर्व एक्सटर्डम (1928) और लॉस एंजिल्स (1932) में भारत हॉकी का स्वर्ण तमगा गले लगा चुका था, फिर भी खुशी थी तो बस इसलिए कि परतंत्र भारत की स्वतंत्र हॉकी ने जहां लगातार तीसरी बार दुनिया जीती वहीं दद्दा ध्यानचंद ने भी तीन ओलम्पिक मजमों में बडेÞ ही शान से 33 गोलों का अद्भुत कीर्तिमान बना डाला। उस बर्लिन की शाम को जब भारतीय तिरंगा फहराया गया तब वह 15 अगस्त की शाम थी। यह तिथि आज भी भारतीय गौरवगाथा और उसकी स्वतंत्रता का सूचक है। समय ठहर गया। दूसरे विश्व युद्ध की प्रतिछाया के चलते दुनिया ओलम्पिक में फिर जादूगर की जादूगरी नहीं देख सकी। भारत को हॉकी में अपनी चौथी फतह के लिए 12 वर्ष लम्बा इंतजार करना पड़ा। सच तो यह है कि दद्दा की दमदार हॉकी से ही पूरबी जादू और जादूगर जैसे विशेषण निकले। समय और उम्र कुदरत की नियामत है। समय बदला भारतीय परतंत्रता की बेढ़ियां कटीं लेकिन तब तक दद्दा बूढेÞ हो चुके थे और उन्होंने भी खेलभावना के साथ 1949 में प्रथम श्रेणी हॉकी को विश्राम दे दिया। देश आजाद हुआ पर दुनिया पर राज करने वाली हमारी हॉकी भारत-पाकिस्तान के बीच बंट गई। भारतीय हॉकी ने ओलम्पिक में चैम्पियन बने रहने का सिलसिला तो कायम रखा पर उसकी जादूगरी वाली बात फिर नजर नहीं आई। किशनलाल ने आजाद भारतीय हॉकी की कमान सम्भाली और भारत पहली बार ध्यानचंद के बिना भी जीता लेकिन दद्दा के शून्य की कमी कभी नहीं भरी जा सकी। हॉकी के चक्रवर्ती अभियान में पद्मभूषण दद्दा ने जर्मनी, स्पेन, मलेशिया, अमेरिका, इंग्लैण्ड, डेनमार्क आदि मुल्कों के साथ 133 मैच खेलकर जहां 307 गोल किए वहीं न्यूजीलैण्ड दौरे पर गई टीम की तरफ से मेजर ध्यानचंद ने 43 मैचों में ही 201 बार गोलंदाजी कर दुनिया को चकाचौंध कर दिया था।
लगभग ढाई दशक तक भारतीय हॉकी को अपने कंधों का सहारा देकर दद्दा ध्यानचंद तो अमर हो गए पर भारत से हॉकी की बादशाहत छिन गई। उम्मीद है कि मरती नहीं, हॉकी टीम के प्रदर्शन पर लोग चाहे लाख उंगलियां उठाएं लेकिन किसी खेल मजमे से पूर्व मन के किसी कोने में अपने पुराने चावल होने का भाव आज भी जिन्दा रहता है। दद्दा ध्यानचंद तीन दिसम्बर, 1979 को हमारे बीच से जुदा हो गए लेकिन उनकी हॉकी आज भी भारतीय हृदय को उन्मादित करती है। आज दद्दा ध्यानचंद के जन्मदिन पर एक बार पुन: भारतीय हॉकी का अतीत उनकी अमरता में खोजना पडेÞगा।