Thursday, 29 August 2013

दद्दा ध्यानचंद: न भूतो, न भविष्यति

ओलम्पिक के आठ स्वर्ण और एक विश्व खिताब का मदमाता गर्व हर भारतीय को कालजयी दद्दा ध्यानचंद की याद दिलाता है। नपे-तुले पास, चीते सी चपलता, दोषरहित ट्रेपिंग, उच्च स्तर का गेंद नियंत्रण और सटीक गोलंदाजी हॉकी के मूल मंत्र हैं, दद्दा ध्यानचंद की हॉकी भी मैदान में प्रतिद्वंद्वी को कुछ यही पाठ पढ़ाती थी। 29 अगस्त, 1905 को परतंत्र भारत के प्रयाग नगर में एक तंगहाल गली में सोमेश्वर दत्त सिंह के घर जन्मे ध्यानचंद अब इतिहास के पन्नों में दफन हैं, पर उनका असाधारण खेल कौशल आज भी जिन्दा है।  
बचपन में पहलवानी का शौक रखने वाले दद्दा की हॉकी प्रतिभा के असल पारखी सूबेदार मेजर बाले तिवारी रहे। पिता सोमेश्वर सिंह और बड़े भाई मूलचंद के सेना में होने के चलते दद्दा ने 16 साल की उम्र में ही वर्ष 1922 में फर्स्ट ब्राह्मण रेजीमेंट में एक सिपाही से अपनी नौकरी प्रारम्भ की। सेना में बाले तिवारी ने न केवल दद्दा ध्यानचंद की छुपी खेल प्रतिभा को पहचाना बल्कि हॉकी के प्रारम्भिक गुर भी सिखाए। तिवारी की देख-रेख में कुछ समय में ही दद्दा की हॉकी में ऐसी तूती बोली कि दुनिया वाह-वाह कर उठी। दद्दा ध्यानचंद की हॉकी जब परवान चढ़ी तब भारत आजाद नहीं  था। तब हॉकी में ही एकाध लम्हे ऐसे आते थे, जब गुलाम भारत को गर्व और गौरव का अहसास होता था। इन्हीं लम्हों के बीच महसूस होता था कि इस मुल्क से जो सोने की चिड़िया उड़ गई है वह कभी-कभार भारतीय हॉकी के ऊपर आ बैठती है। समय बदल चुका है अब देश आजाद है पर हमारी हॉकी गुलाम हो चुकी है। अब हमारे पास कोई हॉकी का जादूगर नहीं है। एक लम्हा बर्लिन ओलम्पिक 1936 का, जब हिटलर का जलजला था लेकिन तब भी हॉकी में भारतीय बादशाहत का ही डंका पिटता था।  15 अगस्त, 1936 को बर्लिन ओलम्पिक हॉकी का खिताबी मुकाबला देखने तानाशाह हिटलर मैदान में आया था। हिटलर मैदान में इसलिए आया था कि जर्मनी जीतेगी और वह अपने खिलाड़ियों को सोने से मढ़ देगा लेकिन जादूगर दद्दा ध्यानचंद ब्रिगेड ने जर्मनी को 8-1 से ध्वस्त कर उसका गुरूर चूर-चूर कर दिया। पराजय से स्तब्ध जर्मन जहां हिटलर के न्याय को ताक रहा था वहीं तानाशाह उमंगित था तो बस जादूगर की जादूगरी से। वाकई उस दिन दो भाइयों (ध्यान और रूप) की जोड़ी ने ही जर्मनी का मानमर्दन किया था। उस दिन दोनों भाइयों को हिटलर ने जर्मनी से खेलने का आमंत्रण भी दिया पर ध्यानचंद ने उसका टका सा जवाब दिया कि मुझे हॉकी से भी अधिक अपने देश और उसकी मिट्टी से प्यार है। यदि हॉकी खेलूंगा तो सिर्फ अपने वतन के लिए। हालांकि तब भारत ने कोई नई जमीन नहीं तोड़ी थी, इससे पूर्व एक्सटर्डम (1928) और लॉस एंजिल्स (1932) में भारत हॉकी का स्वर्ण तमगा गले लगा चुका था, फिर भी खुशी थी तो बस इसलिए कि परतंत्र भारत की स्वतंत्र हॉकी ने जहां लगातार तीसरी बार दुनिया जीती वहीं दद्दा ध्यानचंद ने भी तीन ओलम्पिक मजमों में बडेÞ ही शान से 33 गोलों का अद्भुत कीर्तिमान बना डाला। उस बर्लिन की शाम को जब भारतीय तिरंगा फहराया गया तब वह 15 अगस्त की शाम थी। यह तिथि आज भी भारतीय गौरवगाथा और उसकी स्वतंत्रता का सूचक है। समय ठहर गया। दूसरे विश्व युद्ध की प्रतिछाया के चलते दुनिया ओलम्पिक में फिर जादूगर की जादूगरी नहीं देख सकी। भारत को हॉकी में अपनी चौथी फतह के लिए 12 वर्ष लम्बा इंतजार करना पड़ा। सच तो यह है कि दद्दा की दमदार हॉकी से ही पूरबी जादू और जादूगर जैसे विशेषण निकले। समय और उम्र कुदरत की नियामत है। समय बदला भारतीय परतंत्रता की बेढ़ियां कटीं लेकिन तब तक दद्दा बूढेÞ हो चुके थे और उन्होंने भी खेलभावना के साथ 1949 में प्रथम श्रेणी हॉकी को विश्राम दे दिया। देश आजाद हुआ पर दुनिया पर राज करने वाली हमारी हॉकी भारत-पाकिस्तान के बीच बंट गई। भारतीय हॉकी ने ओलम्पिक में चैम्पियन बने रहने का सिलसिला तो कायम रखा पर उसकी जादूगरी वाली बात फिर नजर नहीं आई। किशनलाल ने आजाद भारतीय हॉकी की कमान सम्भाली और भारत पहली बार ध्यानचंद के बिना भी जीता लेकिन दद्दा के शून्य की कमी कभी नहीं भरी जा सकी। हॉकी के चक्रवर्ती अभियान में पद्मभूषण दद्दा ने जर्मनी, स्पेन, मलेशिया, अमेरिका, इंग्लैण्ड, डेनमार्क आदि मुल्कों के साथ 133 मैच खेलकर जहां 307 गोल किए वहीं न्यूजीलैण्ड दौरे पर गई टीम की तरफ से मेजर ध्यानचंद ने 43 मैचों में ही 201 बार गोलंदाजी कर दुनिया को चकाचौंध कर दिया था।
लगभग ढाई दशक तक भारतीय हॉकी को अपने कंधों का सहारा देकर दद्दा ध्यानचंद तो अमर हो गए पर भारत से हॉकी की बादशाहत छिन गई। उम्मीद है कि मरती नहीं, हॉकी टीम के प्रदर्शन पर लोग चाहे लाख उंगलियां उठाएं लेकिन किसी खेल मजमे से पूर्व मन के किसी कोने में अपने पुराने चावल होने का भाव आज भी जिन्दा रहता है। दद्दा ध्यानचंद तीन दिसम्बर, 1979 को हमारे बीच से जुदा हो गए लेकिन उनकी हॉकी आज भी भारतीय हृदय को उन्मादित करती है। आज दद्दा ध्यानचंद के जन्मदिन पर एक बार पुन: भारतीय हॉकी का अतीत उनकी अमरता में खोजना पडेÞगा।

Tuesday, 27 August 2013

दागी पहलवानों के दम से पस्त तंत्र

आपराधिक मामलों में सजा पाए सांसदों को चुनाव मैदान से दूर रखने की सुप्रीम कोर्ट की कोशिशों को जहां हमारे माननीय सांसदों ने नकार दिया, वहीं अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति के इन्हीं प्रयासों पर भारतीय ओलम्पिक संघ ने पानी फेर दिया है। आम आवाम ने राजनीतिक अपराधीकरण के खिलाफ तो क्लीन स्पोर्ट्स इण्डिया से जुड़े खिलाड़ियों ने दागी खेलनहारों के खिलाफ खूब गाल बजाए पर उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगती नहीं दिख रही। इसे दुर्भाग्य कहें या कुछ और हमारे संविधान का यह अजीब लचीलापन है कि कानून तोड़ने वाला अपराधी ही नए कानून का निर्माता बन जाता है। जबकि देश का सामान्य नागरिक आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों और खेलनहारों से खासा परेशान है। इससे समाज में अपराधियों को प्रश्रय मिलता है और आपराधिक मानसिकता वाले लोग हावी होते हैं। गौर करें तो देश में मौजूदा 4835 सांसदों और विधायकों में से 1448 के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं। लाख प्रयासों के बावजूद आपराधिक छवि वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है।
यह अपराध का राजनीतिकरण ही है कि राजनीतिक परिदृश्य में दागियों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। नामजद और सजायाफ्ता दोषियों को चुनाव लड़ने का अधिकार जनप्रतिनिधित्व कानून के जरिये मिला हुआ था लेकिन इस विधि सम्मत व्यवस्था के विपरीत संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 में प्रावधान है कि न्यायालय द्वारा अपराधी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल नहीं किए जाने चाहिए। सवाल यह उठता है कि जब संविधान के अनुसार कोई अपराधी मतदाता नहीं बन सकता तो वह जनप्रतिनिधि बनने के लिए निर्वाचन प्रक्रिया में भागीदारी कैसे कर सकता है? जनहित याचिका इसी विसंगति को दूर करने के लिए दाखिल की गई थी। न्यायालय ने केन्द्र सरकार से पूछा था कि यदि अन्य सजायाफ्ता लोगों को निर्वाचन प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं है तो सजायाफ्ता सांसदों व विधायकों को यह सुविधा क्यों मिलनी चाहिए? लेकिन सरकार ने कहा कि वह इस व्यवस्था को नहीं बदलना चाहती और उसने नहीं बदला।
राजनीति से इतर भारतीय खेलों पर नजर डालें तो यहां की गंगोत्री भी मैली की मैली ही है। जिस देश की आन-बान-शान और आजादी के लिए हजारों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी, उसी का आज दुनिया में मजाक उड़ रहा है। खेलों पर अरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैं लेकिन खेलनहारों की काली करतूत के चलते आज हमारे खिलाड़ी देश-दुनिया में अपने राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान के बिना पौरुष दिखा रहे हैं। भारतीय खेलों में गड़बड़झाला और भाई-भतीजावाद तो लम्बे समय से चल रहा है लेकिन 2010 में देश में हुए राष्ट्रमण्डल खेलों के आयोजन में जिस तरह की अनियमितताओं का भण्डाफोड़ हुआ, उससे खेल जगत में हमारी जमकर थू-थू हुई। खेलों में होते खिलवाड़ को संज्ञान में लेते हुए अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने सरकारी हस्तक्षेप के कारण पिछले साल पांच दिसम्बर को भारतीय ओलम्पिक संघ को निलम्बित कर दिया था। भारत को खेल बिरादर में पुन: शामिल किये जाने को 15 मई को लुसाने में हुई अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति की बैठक में केन्द्रीय खेल मंत्री जितेन्द्र सिंह ने पुरजोर कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। भारतीय खेलों में पारदर्शिता लाने की असल कोशिशें केन्द्रीय खेल मंत्री अजय माकन के कार्यकाल में हुर्इं, पर अफसोस दागी खेलनहारों की एकजुटता ने न केवल उनके किए कराए पर पानी फेर दिया बल्कि केन्द्र सरकार ने दबाव में आकर माकन से खेल मंत्रालय ही छीन लिया। देखा जाए तो जिस तरह सुप्रीम कोर्ट नहीं चाहता कि कोई अपराधी जनप्रतिनिधि बने उसी तरह आईओसी भी नहीं चाहती कि खेलों में दागियों की दखलंदाजी बढ़े।
अफसोस, भारतीय ओलम्पिक संघ ने 25 अगस्त को अपनी आमसभा की महत्वपूर्ण बैठक में भ्रष्टाचार और आपराधिक मामलों के लिये नैतिक आयोग के गठन का फैसला तो लिया पर केवल दो या इससे अधिक साल तक सजायाफ्ता व्यक्तियों को चुनावों से दूर रखने का फैसला करके राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार के आरोपी सुरेश कलमाड़ी, ललित भनोट और वीके वर्मा जैसे लोगों के चुनाव लड़ने का रास्ता साफ कर दिया। बैठक में 182 में से 161 सदस्यों ने भाग लिया और आईओसी के आरोप-पत्र वाली शर्त को छोड़कर बाकी सभी शर्तें सर्वसम्मति से स्वीकार लीं। हाल ही देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कारों की जो घोषणा हुई उसमें राजीव गांधी खेल रत्न को लेकर जमकर नूरा-कुश्ती हुई। वर्ष 1991-92 से प्रारम्भ इस खेल अलंकरण को पाने वाले पहले भारतीय शतरंज खिलाड़ी विश्वनाथन आनंद रहे। उसके बाद से यह अवॉर्ड 12 खेलों के 26 खिलाड़ियों को दिया जा चुका है। इस अलंकरण के लिए विवादों की फेहरिस्त भी अर्जुन अवार्डों की ही तरह लम्बी है। वर्ष 2001 में राजीव गांधी खेल रत्न के लिए शूटर अभिनव बिन्द्रा का नाम आया। उन्हें पुरस्कार मिला भी पर तब तक अभिनव के नाम कोई बड़ी उपलब्धि नहीं थी। 2002 में एथलीट केएम बीनामोल को चुना गया लेकिन निशानेबाज अंजलि भागवत के नाम पर विवाद हो गया। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि आखिर दोनों को संयुक्त रूप से यह पुरस्कार दिया गया। विवादों के चलते ही वर्ष 2009 में महिला मुक्केबाज एमसी मैरीकाम, पहलवान सुशील कुमार और बॉक्सर विजेन्द्र सिंह को एक साथ राजीव गांधी खेल रत्न से अलंकृत किया गया। इस अलंकरण के लिए गगन नारंग ने भी विरोध का बिगुल फूंका और निशानेबाजी छोड़ने तक की धमकी दे दी। अंतत: 2011 में नारंग भी खेल रत्न बन गये। इस साल शूटर रोंजन सोढ़ी और डिस्कस थ्रोवर कृष्णा पूनिया के बीच इस अलंकरण के लिए जमकर लाबिंग हुई अंतत: रोंजन सोढ़ी बाजी मार ले गये। देखा जाए तो हितों के टकराव में सबसे पहले शुचिता पराजित होती है। जब हमारे नेता और खेलनहार ही नहीं चाहते कि राजनीति और खेलों से अपराधी दूर रहें तो लाख संशोधनों के बाद भी नेताओं और खेलनहारों का दागी अतीत, वर्तमान और भविष्य हमेशा जनप्रतिनिधित्व करता रहेगा।

Wednesday, 21 August 2013

प्रणब दा, आपका जवाब नहीं

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के एक साल के कार्यकाल और उनकी उपलब्धियों पर नजर डालें तो पाएंगे कि शांतिप्रिय इस शख्स का त्वरित कार्य निपटारे के साथ कानून पर जबर्दस्त भरोसा है। भारतीय राष्ट्राध्यक्ष मुखर्जी ने अपराधियों की दया याचिकाओं को जिस तरह दरकिनार किया है उससे आपराधिक हलकों में अच्छे संकेत पहुंचे हैं। देश की विभिन्न संवैधानिक संस्थाएं हमारे संविधान और कानून के शासन का आधार स्तम्भ हैं, इनमें किसी प्रकार की गड़बड़ी से संविधान का आदर्शवाद कायम रखने में दिक्कत आती है। अपने एक साल के कार्यकाल में मुखर्जी ने 17 दया याचिकाएं ठुकराकर जो मिसाल कायम की है, उसकी सर्वत्र प्रशंसा की जा रही है।
आज देश को अंदर और बाहर दोनों खतरों से सुरक्षित बनाए रखना सभी का कर्तव्य है। लाख कानून बनें, उनके अमल में यदि ढिलाई बरती गई तो उसके परिणाम भयावह ही होंगे। दरअसल सीमाओं पर चौकसी के समान ही आज देश के भीतर भी चौकसी जरूरी हो गई है। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह आपराधिक वारदातें बढ़ी हैं उससे मुल्क को आंतरिक खतरा पैदा हो गया है। देश को अमन का पैगाम सिर्फ बातों से नहीं मिलने वाला। यह तभी सम्भव है जब हम अपनी राजनीति, न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की विश्वसनीयता को बनाए रखें। माना कि देश में अभिव्यक्ति की आजादी है और लोगों को अपने असंतोष को व्यक्त करने का अधिकार है, परंतु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि विधायिका से कानून को या न्यायपालिका से न्याय को अलग नहीं किया जा सकता। ये सजग नागरिक के लिए सबसे जरूरी पक्ष हैं। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 17 दया याचिकाओं को ठुकराकर न केवल उनको मिली फांसी की सजा पर अपनी अंतिम मुहर लगा दी है बल्कि दिवंगत राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा द्वारा रद्द की गई 16 दया याचिकाओं से भी आगे निकल गए हैं। देश की पिछली राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के कार्यकाल में मृत्युदण्ड का प्रावधान होने के बावजूद किसी को भी फांसी नहीं दी गई। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा दया याचिका खारिज किए जाने के बाद अपराधियों को फांसी मिलना तय हो गया है। फरवरी और मार्च 2013 के बीच राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने वीरप्पन के सहयोगी सायमन, गगन प्रकाश, मदैया, बिला वंद्रन की दया याचिकाओं को खारिज किया था। इन पर 22 लोगों की हत्या का जुर्म साबित हुआ था, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें फांसी की सजा दी थी। इसके अलावा पूरे परिवार की हत्या के दोषी सुरेश और रामजी समेत गुरमीत सिंह और जफर अली की भी दया याचिका को राष्ट्रपति ने ठुकरा दिया था। हरियाणा के विधायक समेत उनके पूरे परिवार की हत्या के दोषी की दया याचिका को भी राष्ट्रपति मुखर्जी ने खारिज करने में संकोच नहीं किया। दरअसल दया याचिकाओं के निपटारे में हुई देरी को आधार बनाकर पूर्व में दर्जनों अपराधी फांसी की सजा माफ कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचे थे। जबकि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ 24 साल पहले ही कह चुकी है कि दया याचिका के निपटारे में हुई देरी अदालत में याचिका दाखिल करने का आधार तो हो सकती है, लेकिन मृत्युदण्ड से माफी का आधार नहीं हो सकती। देखा जाये तो दया याचिका में विलम्ब के चलते कई बार राष्ट्रपति और राज्यपाल के क्षमादान के विवेकाधिकार पर भी लोगों ने उंगली उठाने का दुस्साहस किया पर ऐसी याचिकाएं अब तक खारिज ही की गई हैं।
ऐसे ही एक मामले में रंगा-बिल्ला ने भी राष्ट्रपति के विवेकाधिकार को चुनौती दी थी और कहा था कि दया याचिका निपटाने के लिए कोई तय प्रक्रिया नहीं है, लेकिन याचिका खारिज कर दी गई।
इंदिरा गांधी के हत्यारे केहर सिंह और सतवंत सिंह की भी इसी तरह की दलीलें सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दी थीं। आखिरकार दोनों मामलों में फांसी पर अमल हुआ। देरी अगर आधार होती तो धनंजय चटर्जी की फांसी भी माफ हो गई होती, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसकी भी देरी की दलील खारिज कर दी थी। देखा जाये तो आपराधिक मामलों में तीसरे पक्ष को याचिका दाखिल करने का अधिकार नहीं होता। केहर और सतवंत के मामले में दया याचिका ठुकराए जाने के बाद अल्तमस रेन ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी लेकिन कोर्ट ने सिर्फ लोकस (किस अधिकार से याचिका दाखिल की) के आधार पर याचिका खारिज कर दी थी। देखा जाए तो हमारे देश में त्वरित न्याय प्रक्रिया अन्य मुल्कों की अपेक्षा काफी शिथिल है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा संगीन अपराधियों की दया याचिकाएं खारिज किए जाने को जहां एक साहसिक कदम बताया जा रहा है वहीं मानवाधिकारों के हिमायती मृत्युदण्ड का विरोध कर रहे हैं। देखा जाये तो भारत में आज हर मामले में मृत्युदण्ड के स्वर मुखरित हो रहे हैं। दुनिया में द्वितीय विश्व युद्ध के समय से मृत्युदण्ड उन्मूलन के प्रयास हो रहे हैं। 1977 में छह देशों ने मृत्युदण्ड का निषेध किया था। मौजूदा समय में 95 देशों ने मृत्युदण्ड को अलविदा कह दिया है तो नौ देशों ने इसे अन्य सभी अपराधों के लिए निषेध किया है, सिवाय विशेष परिस्थितियों के। 35 देशों ने बीते 10 साल में इस सजा के लिए किसी को आरोपित नहीं किया है। इस तरह दुनिया के लगभग 140 देश मृत्युदण्ड की परिधि से दूर होते दिख रहे हैं। साल 2009 में 18 देशों ने 714 लोगों को फांसी पर चढ़ाया था। भारत में आज भी सैकड़ों कैदी हैं जिन्हें फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है, इनमें पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के तीन कसूरवार भी शामिल हैं। भारत में 1975 से 1991 के बीच कम से कम 40 लोगों को फांसी दी गई। लेकिन तमिलनाडु के सलेम में 27 अप्रैल, 1995 को सीरियल किलर आटो शंकर को फांसी देने के नौ साल बाद अगस्त 2004 में कोलकाता में धनंजय चटर्जी को फांसी दी गई। 2004 के बाद मुम्बई आतंकी हमले के दोषी अजमल कसाब और अफजल गुरु को फांसी पर लटकाया गया। एक तरफ देश में वर्ष 2006 के अंत में विभिन्न जेलों में कैद 347 अभियुक्तों को (इनमें आठ महिलाएं शामिल) फांसी की सजा सुनाई गई जबकि इसी साल देश की जेलों में 1423 कैदियों की प्राकृतिक अथवा अप्राकृतिक कारणों से मौत हो गई। जो भी हो प्रणब मुखर्जी के राष्ट्रपति बनते ही फांसी की घटनाओं में तेजी आई है। इस तेजी को राजनीतिज्ञ अगले चुनाव से पहले लोगों की सहानुभूति हासिल करना मान रहे हैं जबकि आम अवाम में इसकी सराहना हो रही है।