Tuesday, 30 May 2017

हौसले का दूसरा नाम मानसी जोशी


एक पैर खोने के बाद बैडमिंटन में जीता देश के लिए पदक
कहते हैं कि हिम्मत बंदे, मदद खुदा। जी हां जो मुसीबतों के सामने हार नहीं मानते उन्हीं की भगवान भी मदद करते हैं। दुर्घटना में अपना एक पैर खोने के बाद यदि मानसी जोशी हिम्मत हार गई होतीं तो शायद आज उन्हें लोग बेचारी कहकर सम्बोधित कर रहे होते। वह बैडमिंटन में देश का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही होतीं। मुश्किलें, मुसीबतें या बुरा वक्त कभी बताकर नहीं आता है। कभी-कभी इंसान की जिन्दगी एक पल में ही पूरी तरह से बदल जाती है। हम रोज अपने दैनिक कार्य करते हैं। घर से बाहर निकलते हैं लेकिन वक्त का कुछ नहीं पता होता कि कब क्या हो जाये। कौन-सी मुसीबत, कौन-सी अनहोनी हमारा इंतजार कर रही है, हमें नहीं पता होता। कब हमारी हंसती-खेलती जिन्दगी खत्म हो जाये, कब हमारे सपने चकनाचूर हो जाएं किसी को नहीं पता होता। अनहोनी किसी के साथ भी हो सकती है। कुछ लोग इन्हें अपना दुर्भाग्य मानकर सारी जिन्दगी बैठकर रोते रहते हैं तो कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो परिस्थितियों को स्वीकार करके उनका हिम्मत से सामना करते हैं और कुछ ऐसा कर जाते हैं जो दूसरों के लिए एक मिसाल बन जाता है, प्रेरणा बन जाता है। मानसी जोशी ने भी अपनी हिम्मत और हौसले से यही कुछ किया है।
मानसी जोशी मुम्बई में रहती हैं। एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर के साथ ही वह बैडमिंटन की राष्ट्रीय खिलाड़ी भी हैं। मानसी 10 वर्ष की उम्र से बैडमिंटन खेल रही हैं। भारत की इस बेटी की बड़ी हंसी-खुशी से जिन्दगी गुजर रही थी। इसकी आंखों में बैडमिंटन चैम्पियन बनने का सपना था लेकिन एक दिन एक दर्दनाक हादसे ने इनकी जिन्दगी बदलकर रख दी। रोजाना की तरह एक दिन वे अपनी स्कूटी से ऑफिस को निकलीं। कुछ ही दूर चलने पर रास्ते में एक ट्रक के साथ उनका एक्सीडेंट हो गया। ट्रक टक्कर मारकर उनके पैर को कुचलते हुए निकल गया। दरअसल गलती ट्रक ड्राइवर की भी नहीं थी। एक पिलर की वजह से ट्रक ड्राइवर मानसी को देख नहीं पाया और हादसा घटित हो गया। लोगों की मदद से मानसी को अस्पताल पहुँचाया गया। डॉक्टरों ने उनके पैर को बचाने की बहुत कोशिश की लेकिन पैर में इन्फेक्शन बहुत ज्यादा बढ़ जाने के कारण कुछ दिनों बाद मानसी के पैर को काटना पड़ा।
पैर काटने से पहले डॉक्टरों ने जब मानसी को बताया कि उसका पैर काटना पड़ेगा तो उसने कहा कि मुझे मालूम था कि मेरे साथ कुछ ऐसा ही होने वाला है। हॉस्पिटल में मानसी से जब कोई मिलने आता तो वह उन्हें जोक्स सुनाती और हंसी-मजाक करती ताकि उन्हें देखकर कोई रोये नहीं। मानसी बताती हैं कि इस घटना के बाद उनके मन में सबसे बड़ा डर यही था कि अब वे अपना प्रिय खेल बैडमिंटन नहीं खेल पाएंगी। मानसी कहती हैं कि पैर कटने के बाद उनके सामने सिर्फ दो ही रास्ते थे। पहला ये कि वे इसे अपना दुर्भाग्य मानकर सारी जिन्दगी रोती रहें और दूसरा ये कि वे इस स्थिति को स्वीकार करें और आगे बढ़ें। मानसी बताती हैं कि जब लोग उनसे यह पूछते हैं कि वह इतना सब कुछ कैसे कर लेती हैं तो उनका सीधा सा जवाब होता है कि आपको कुछ करने से कौन रोक रहा है।
यह हादसा किसी को भी तोड़ने के लिए काफी था। कुछ दिन पहले तक हंसती-खेलती-कूदती लड़की के लिए एक पैर कट जाने का मतलब था कि उसका जैसे सब कुछ छिन जाना। एक पैर गंवा देने के बाद मानसी ने गजब की हिम्मत और हौसला दिखाया। मानसी ने अपने भविष्य के लिए एक ऐसा सफर चुना जिसके बारे में बहुत ही कम लोग सोच पाते हैं। मानसी ने बैडमिंटन के क्षेत्र में ही आगे बढ़ने का संकल्प लिया। करीब डेढ़ महीने हॉस्पिटल में रहने और तीन महीने इलाज के बाद मानसी को कृत्रिम पैर लगाया गया। इसके बाद फिजियोथेरेपी और अपने कृत्रिम पैर के सहारे मानसी ने चलना सीखा। इसके बाद बैडमिंटन की प्रैक्टिस की और फिर खेलना शुरू कर दिया। जीवन के सफर में आगे बढ़ने के लिए मानसी ने प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना शुरू कर दिया और ढेरों मैडल जीत दिखाए। फिर क्या था मानसी में विश्वास जागा और उन्होंने राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भी हिस्सा लिया और कई मैच और मैडल जीते। इसके बाद सितम्बर 2015 में इन्होंने इंग्लैंड में आयोजित पैरा-बैडमिंटन इंटरनेशनल टूर्नामेंट में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए रजत पदक जीता। अब मानसी जोशी का सपना 2020 में टोक्यो में होने वाले पैरालम्पिक में देश का प्रतिनिधित्व करते हुए मैडल जीतना है।
दरअसल मानसी की यह कहानी पढ़ने-सुनने में बहुत आसान लग सकती है लेकिन हकीकत में यह सफर बहुत दर्द भरा रहा होगा। वह कितनी बार गिरी होंगी, कितनी बार सम्हली होंगी और न जाने कितनी बार नकारात्मक विचार मन में आए होंगे। न जाने कितनी बार अपने नकली पैर को देखकर अपने पुराने दिनों की याद आई होगी। दिन में जितनी बार भी नकली पैर पर नजर पड़ती होगी उतनी बार ही मन में संत्रास पैदा होता होगा लेकिन चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान लिए इस लड़की ने अपनी जिजीविषा, मजबूत इच्छाशक्ति, साहस, जज्बे और दृढ़ता से अपने आपको बहुत ऊपर उठा लिया है। मानसी आज लोगों के लिए एक मिसाल और प्रेरणास्रोत बन गई हैं। मानसी से प्रेरणा लेकर हम भी अपनी जिन्दगी की किसी भी मुसीबत, मुश्किल, अप्रिय घटना या अनहोनी से अपने आपको मानसिक तौर पर मजबूत बना सकते हैं तथा मजबूत इच्छाशक्ति और साहस से अपने सपनों को साकार कर सकते हैं।




Sunday, 28 May 2017

पुष्पांजलि ने योग साधना को बनाया अपना लक्ष्य

 काशी की तारणहार बनी सासाराम की बेटी
              श्रीप्रकाश शुक्ला
 मुसाफिर वह है जिसकी हर कदम मंजिल की चाहत हो,
 मुसाफिर वह नहीं जो दो कदम चलकर के थक जाए।
जी हां सासाराम जिला रोहतास (बिहार) की बेटी पुष्पांजलि शर्मा न थकने वाली पथिक है। इन दिनों योग के माध्यम से वह काशी की तारणहार साबित हो रही हैं। समाज की दुखियारी बेटियों के जीवन में पुष्पांजलि ने इच्छाशक्ति की जो ज्योति जलाई है उसकी जितनी तारीफ की जाए वह कम है। कहने को तो पुष्पांजिल काशी में बहू बनकर आईं लेकिन आज वह सबके दिलों में बेटी बनकर छा गई हैं। काशी में आज शायद ही कोई ऐसा हो जो योग गुरु पुष्पांजलि शर्मा से परिचित न हो। दूरभाष पर हुई बातचीत में पुष्पांजलि ने बताया कि मैं मूलतः सासाराम की रहने वाली हूं लेकिन पिताजी शासकीय मुलाजिम थे सो वह जहां भी गये हम वहीं के हो गये। बचपन से ही मेरे मन में कुछ विशेष करने की ललक थी सो अपनी सकारात्मक सोच को दीन-दुखियों की सेवा में लगाने का संकल्प लिया। पढ़ाई की, उसके बाद केरल से योग की तालीम हासिल करने के बाद मन में विचार आया कि योग के माध्यम से समाज को क्यों न निरोगी रखा जाए।
फिलवक्त पुष्पांजिल वाराणसी में रहकर दुनिया भर में योग और फिटनेस की ज्योति जला रही हैं। पुष्पांजलि शर्मा एक पत्नी और मां होने के बाद भी जिस तरह योग की अलख जगा रही हैं वह आसान बात नहीं है। वह कहती हैं कि योग और जीवन को नियम-अनुशासन में बांधकर चलने से तन-मन सब अजेय रूप में परिलक्षित होने लगते हैं। पुष्पांजिल आज पत्नी, मां और बहू के धर्म का निर्वाह करते हुए समाज सेवा की डगर पर चलने वाली खास शख्सियत बन गई हैं। उसके मार्गदर्शन से हताश, निराश, बीमार और लाचार लोगों को नई रोशनी,  नई ऊर्जा मिलती है। सच कहें तो काशी की यह बहुरिया आज दुखियारी बेटियों की मशाल है।
पुलिस विभाग में सम्मानित पद पर कार्यरत पिता को देखकर पुष्पांजलि ने कभी सिविल सेवा में जाने का ख्वाब संजोया था। तैयारी भी शुरू कर दी थी। उस युग में शहरों में कम्प्यूटर सामान्य घरों के लिए दुर्लभ हुआ करता था, पुष्पांजलि की जिद पर पिता ने पिछड़े कस्बे में तैनाती होने के बावजूद कम्प्यूटर खरीदने का साहस किया। हालांकि तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों में जब भी पुष्पांजलि उच्च शिक्षा और सिविल सेवा में जाने का अपना इरादा जतातीं तो पिता को छोड़ बाकी परिजन उन्हें हतोत्साहित करते। कुछ लोग तो यहां तक तंज कसते कि अब ससुराल में जाकर हाकिम बनने का सपना पूरा करना।  यहां तो कामभर की पढ़ाई करा दी गई है। गंवई मानसिकता के बीच झल्लाती, घुटती पुष्पांजलि की डोली सजने की बारी आई तो पिता के सामने विद्वान ससुर ने भरोसा दिया कि बेटा तुम जितना पढ़ना चाहोगी, हम तुम्हें पढ़ाएंगे। यहां तक कि प्राचीन विचारों, परम्पराओं की पोषक सास ने भी मुस्कराकर कहा था कि तुम बहू नहीं बेटी हो हमारी। हम तुम्हें बेटी की तरह ही प्यार और आजादी देंगे।
बकौल पुष्पांजलि उस दिन सासू मां का प्यार जन्मदात्री माता से कहीं ज्यादा दिल की गहराइयों में नरम थपकी की मानिंद महसूस हुआ था। सासू मां ने विवाह से पहले जो कहा था उसे चरितार्थ भी किया। मुझे लगा ही नहीं कि मैं ससुराल में हूं। यद्यपि कुछ लोगों ने विरोध के स्वर भी मुखरित किए लेकिन हमारी सासू मां हमेशा मेरे साथ खड़ी रहीं। उन्होंने मेरे उच्च शिक्षा का रास्ता सुगम किया। देर रात तक पढ़ाई के दौरान चुपके से किचन में चली जातीं और चाय बनाकर पहुंचा देतीं। सिर पर हाथ फेरते हुए कहतीं- बहुत देर हो गई है बेटा, अब सो जाओ। सासू मां की ममताभरी छांव ने पुष्पांजलि को संवेदनाओं की ऐसी थाती दी कि उसे वह पल-पल सहेजती हैं। हर पक्ष, हर स्तर पर न्याय करती हैं।
घर में अवस्थागत व्याधियों से पीड़ित ससुर की देखरेख, दो बच्चों के करियर की चिन्ता और पति का ख्याल, यह सब पूरी शिद्दत से निबाहते हुए आज पुष्पांजलि ग्रामीण महिलाओं की सेहत, शिक्षा और स्वावलम्बन के लिए समर्पित हैं। पुष्पांजलि ने बताया कि किसी ने राह सुझाई कि योग और फिटनेस के नियम से तन-मन को स्वस्थ बनाया जा सकता है। नियम, अनुशासन और निरंतरता से स्वस्थ जीवन का निर्माण किया जा सकता है। फिर क्या था मैंने योग और फिटनेस के प्रमुख कोर्स पूरे मनोयोग से पूरे किए। केरल के योग आश्रम में गुरुकुल पद्धति से मिली शिक्षा को आत्मसात किया। आधुनिक फिटनेस कोर्स के लिए महानगरों में शिक्षार्थी बनीं। अनुभव के लिए वहीं कई प्रतिष्ठित जिमों में फिटनेस ट्रेनर के रूप में नौकरी की और जब वाराणसी लौटीं तो धन्वंतरि, चरक की नगरी को प्राचीन योग और स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक नए अवतार का आभास हुआ। अपने क्षेत्र में वर्षों-वर्षों से एकाधिकार रखने वालों के लिए पुष्पांजलि की दक्षता जलन का कारण भी बनी लेकिन जिद्दी और दृढ़ निश्चयी पुष्पांजलि ने हार नहीं मानी बल्कि पूर्ण मनोयोग से उसे कुछ दिनों में ही अलग पहचान दे दी। पुष्पांजलि ने अपनी इस विधा को कभी कमाई का साधन नहीं बनाया बल्कि इसे उन्होंने जरूरतमंद, गरीबों, असहायों की मदद के रूप में ही इस्तेमाल कर रही हैं।
पुष्पांजलि को जैतपुरा स्थित नारी संरक्षण गृह और रामनगर स्थित बाल सुधार गृह के रहवासियों की मनोदशा के बारे में जब पता चला तब उन्होंने वहां अपने खर्चे पर कैम्प लगाना शुरू किया। प्रशासनिक अनुमति से वहां लड़कियों, बच्चों में नकारात्मकता के बादल छांटने के लिए योगाभ्यास और मोटीवेशन क्लासेज चालू कीं। यही नहीं स्वावलम्बन के लिए प्रोफेशनल कोर्स की सम्भावनाओं को भी साकार किया। कुछ ही महीनों में नारी संरक्षण गृह की लड़कियों ने अपने कल से तौबा कर आज की सुखद राह थाम ली। कुछ ने कुटीर उद्योग के गुर सीख लिये तो एक-दो ऐसी भी थीं जिन्होंने नर्स की ट्रेनिंग लेकर बीमारों की सेवा शुरू कर दी। पुष्पांजलि के इस सकारात्मक अभियान की चर्चा पूरे देश में ही नहीं विदेशों में भी होने लगी है। पिछले दिनों वर्ल्ड बाडी बिल्डिंग और फिटनेस स्पोर्ट्स फाउंडेशन के जनरल सेक्रेटरी डी. पाल चुआ ने पुष्पांजलि को फिटनेस के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान और महिलाओं के सामाजिक उत्थान के बेहतरीन काम करने के लिए रजत पदक प्रदान किया।
पुष्पांजलि ने बनारस के आदर्श गांव आयर की लड़कियों में शिक्षा और सेहत की अलख जगाई। जिनके घर वाले कभी स्कूल जाने की बात कहने पर खीझ जाते थे, वहां हर घर से लड़कियां पास के स्कूल में नियमित पढ़ाई करने जाती हैं। इन लड़कियों ने सुबह योगाभ्यास का अपना रूटीन बना लिया है। इस दौरान गांव की विवाहिताएं और बुजुर्ग महिलाएं भी योग करने आती हैं। गांव की दलित बस्ती में योग ने सोच और शिक्षा का अलग माहौल बना दिया है। इस गांव की कुछ लड़कियों ने पुष्पांजलि की पहल पर जूडो-कराटे और स्वयं सुरक्षा के गुर भी सीख लिये हैं। पुष्पांजलि ने उन बच्चों के लिए भी अलग-अलग समय में शिविर लगाए जो अपने माता-पिता के साथ कूड़ा बीनकर जीवन यापन करते हैं। उन्हें पढ़ाई की तरफ प्रेरित किया। यह एक जटिल काम था लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। आज की तारीख में दर्जनों ऐसे बच्चे हैं जो सुबह-शाम माता-पिता के साथ कूड़ा बीनते हैं लेकिन दोपहर में पास के ही सरकारी स्कूल में पढ़ाई करने भी जाते हैं। इन बच्चों के लिए कापी, किताब, ड्रेस, फीस का इंतजाम खुद पुष्पांजलि शर्मा कराती हैं। उन्हें कैसे सरकारी मदद मिले, इसके लिए भी वह प्रयास करती हैं।




















Wednesday, 24 May 2017

भारत में महिला कुश्ती की पहचान है मेरठ की बिटिया


अलका तोमर ने मुश्किलों पर पाई फतह
श्रीप्रकाश शुक्ला
पहलवानी महिलाओं के बूते बात नहीं है, यह कहने वालों के लिए मेरठ की बिटिया और भारत में महिला कुश्ती की पहचान अलका तोमर एक नजीर है। आमिर खान बेशक दंगल फिल्म के बाद दुनिया में चर्चा का विषय हों। उनकी फिल्म को दुनिया भर में सराहा जा रहा हो लेकिन उनसे कहीं न कहीं कुछ त्रुटि भी रह गई है। मसलन इस फिल्म में फोगाट बहनों का ही अधिकतर जिक्र हुआ है जबकि फोगाट बहनों से इतर अलका तोमर, गीतिका जाखड़ जैसी जांबाज पहलवानों ने दुनिया में भारतीय महिला कुश्ती का परचम फहराया है। इनका जिक्र कहीं न कहीं होना चाहिए था। खैर, भारत की जो बेटियां सामाजिक बंधनों को तोड़कर खेल मैदानों में अपने पराक्रम का जलवा दिखा रही हैं, उन पर हर खेलप्रेमी को नाज होना ही चाहिए। लाइम-लाइट से दूर ऐसी बेटियों की सफलताओं को भुलाया नहीं जाना चाहिए। कुश्तीप्रेमियों को यह जानकर अचरज होगा कि मेरठ की महिला पहलवान अलका तोमर ने विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप में सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त से पहले भारत के भाल को ऊंचा किया था।
असल जिन्दगी से प्रेरित दंगल फिल्म की कहानी अलका तोमर से भी काफी कुछ मिलती-जुलती है। देश को राष्ट्रमण्डल खेलों में पहली बार महिला कुश्ती में गोल्ड मैडल दिलाने वाली अलका तोमर ने केवल अपने पिता की मेहनत को ही साकार नहीं किया बल्कि देश का नाम भी सुनहरे अक्षरों में लिखवा दिया। अलका की कहानी फोगाट परिवार से कम नहीं है। अलका का कहना है कि मेरे पिता को कुश्ती का काफी शौक था। उन्होंने कुश्ती में मैडल का सपना अपने बेटे में ही देखा था। मेरे भाई ने कुश्ती भी की लेकिन जहां तक पहुंचना चाहिए था वहां तक नहीं पहुंच सका। मेरे पिता ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने मुझे कुश्ती में डाला। जब मैं 10 साल की थी तभी से पिता नैन सिंह तोमर ने मुझे कुश्ती के लिए तैयार करना शुरू कर दिया था। उन्होंने मुझे भी उसी माहौल में पाला जिस माहौल में मेरे दोनों भाई थे। उन्होंने मुझमें और दोनों भाइयों में कोई फर्क नहीं रखा।
मेरठ की इस बेटी के लिए पहलवानी आसान बात नहीं थी। अपने इस शौक के लिए अलका तोमर को सबसे पहले समाज के साथ दंगल करना पड़ा। सिर्फ 10 साल की उम्र में अखाड़े पर कदम रखने वाली अलका बताती है कि एक रोज पापा ने मुझसे पूछा तुम अखाड़े में दमखम दिखाने के लिए क्या लोगी। एक बच्ची के रूप में मैंने भी कहा कि चॉकलेट चाहिए, कपड़े चाहिए। कोल ड्रिंक पीना है। मैं कुश्ती में दांव-पेच दिखाऊं इसके लिए मेरे पापा ने वो सब किया जो मैंने चाहा। मैं भी तैयार हो गई। मेरे बाल कट गए। ट्रैकशूट पहनकर अखाड़ा जाने लगी तो गांव वाले कमेंट करते थे- लड़कियों को बर्बाद कर दिया। बाल कटवा दिए और अजीब कपड़े पहन रही है। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मुझे तो अपने पापा का सपना हर हाल में पूरा करना था, सो मैं विचलित नहीं हुई।
अर्जुन अवार्डी पहलवान अलका तोमर बताती हैं कि कुश्ती में प्रैक्टिस के लिए मुझे अपने गुरुजी के पास जाना पड़ता था। मेरे साथ मेरे परिवार का कोई न कोई जरूर होता था लेकिन एक दिन भाई ने मेरे साथ जाने से मना कर दिया। उसे अजीब लगता था कि मेरी बहन कुश्ती के लिए जाती है। मुझे लोग बड़े ही अजीब तरीके से देखते थे। भाई के मना करने के बाद मेरे पिता ही सामने आए और वही मुझे गुरुजी के पास लेकर जाने लगे। मेरे पिताजी स्कूल में हर तरह के खेलों में भाग लेने को मुझसे कहते थे। मेरे पिता रोज मुझे दौड़ाया करते थे। उन्होंने मेरे साथ काफी मेहनत की। अलका की कही सच मानें तो जब वह कुश्ती के लिए घर से निकलती तो आसपास के लोग कहते थे कि ये लड़की क्या पहलवानी करेगी। पहलवानी लड़कों के लिए होती है। अजीब-अजीब बातें होती थीं। पिताजी ने मेरे दिल और दिमाग में कुश्ती में नाम कमाने का ऐसा जज्बा भर दिया कि उसके अलावा कुछ और सूझता ही नहीं था। सुबह छह बजे चले जाना और शाम को आना। मेरा सिर्फ कुश्ती पर फोकस रहता था। मेरे पिता और मेरा एक ही मकसद बन गया था कि कुश्ती में नाम कमाना है। उसके अलावा हम दोनों को न तो कुछ सुनाई देता था और न ही कुछ दिखाई देता था।
गीता फोगाट को दो बार रिंग में पराजय का सबक सिखाने वाली अलका बताती हैं कि मैंने जैसे ही स्कूल स्तर से कुश्ती में सफलता हासिल और कई ट्रॉफियां जीतीं समाचार-पत्रों में मेरा नाम छपने लगा। फिर क्या था गांव वाले भी मेरी इज्जत करने लगे। 1999 में जब वूमेन रेसलिंग शुरू हुई तो कोच जबर सिंह ने मेरे पापा से कहा कि कोई लड़की सम्पर्क में हो तो बताओ। पापा ने कहा मेरी बेटी तो है लेकिन एक तो उसकी उम्र कम है और दूसरे वह बड़ी ही दुबली-पतली सी है। उन्होंने कहा ले आओ उसे पहलवान बनाऊंगा। नेशनल के लिए टीम भी पूरी हो जाएगी। फिर क्या था पापा खुश हो गए। मेरे अखाड़ा ज्वाइन करने के 15-20 दिन बाद ही मथुरा में सब-जूनियर नेशनल था। मैंने वहां सिल्वर मैडल जीता। उस वक्त ये सिल्वर मेरे लिए किसी ओलम्पिक मैडल से कम नहीं था। अलका कहती हैं कि मैंने दंगल फिल्म देखी है। यह काफी शानदार है। फिल्म में एक पिता की कहानी है जो अपनी बेटियों को एक ऐसा खिलाड़ी बनाता है जिसने देश में महिला खेलों की दशा और दिशा बदल दी। अलका कहती हैं कि बबीता और गीता फोगाट ने काफी मेहनत की है। उन्होंने वह कर दिखाया जो आज तक कोई नहीं कर सका।
              अपनी बेटी और बेटे को बनाऊंगी पहलवानः अलका तोमर
उत्तर प्रदेश के यश भारती सम्मान से विभूषित सिसोली गांव के नैन सिंह तोमर-मुन्नी देवी की बेटी पहलवान अलका तोमर आज अपने पारिवारिक जीवन से बेहद खुश हैं। अलका का कुश्ती के प्रति लगाव घटने की बजाय और बढ़ गया है। ससुरालीजनों के प्रोत्साहन ने अलका में एक नया जोश और जुनून पैदा कर दिया है। प्रतिस्पर्धी कुश्ती को अलविदा कह चुकी अलका तोमर फिलवक्त जहां लगातार प्रतिभाशाली पहलवानों को दांव-पेच सिखा रही हैं वहीं बड़ी संजीदगी से बताती हैं कि वह अपनी बेटी और बेटे को भी सिर्फ पहलवान बनाने का ही सपना देख रही हूं। अलका कहती हैं कि मेरा बेटा बेशक दूसरे खेल को आत्मसात कर ले लेकिन बेटी बनेगी तो सिर्फ पहलवान। अलका अपनी बेटी के साथ हर पल जीना चाहती हैं। बकौल अलका मैं चाहती हूं कि मेरी बेटी भारतीय उम्मीदों को पंख लगाए।
वर्ष 1998 से प्रतिस्पर्धी कुश्ती में दांव-पेच दिखाने वाली अलका तोमर कुश्ती में अपनी सफलता का श्रेय परिजनों के साथ-साथ अपने प्रशिक्षक जबर सिंह सोम जी  और नोएडा कालेज आफ फिजिकल एज्यूकेशन के संचालक सुशील राजपूत को देती हैं। अलका कहती हैं कि सुशील राजपूतजी मेरे लिए भगवान से कम नहीं हैं। उनकी मदद से ही मैं इस मुकाम तक पहुंचने में सफल हुई। श्री राजपूत ने 2001 से 2011 तक मेरे खान-पान का न केवल पूरा खर्चा वहन किया बल्कि मुझे अपने कालेज में निःशुल्क तालीम भी प्रदान की। मुझे ही नहीं वह लगातार अन्य खिलाड़ियों की भी मदद कर रहे हैं। एक पहलवान के लिए बेहतर डाइट जरूरी होती है। श्री राजपूत ने काजू-बादाम से लेकर खानपान का हर खर्च वहन किया। आज के युग में जब इंसान अपने परिजनों को दो जून की रोटी मुहैया न करा रहा हो ऐसे में 10 साल तक श्री राजपूत ने मेरी डाइट की व्यवस्था न की होती तो मेरे परिवार के लिए बहुत मुश्किल होता। सच कहें तो सुशील राजपूत जैसे खेल और खिलाड़ी हितैषी लोग बिरले ही होते हैं।       



Tuesday, 23 May 2017

अलका तोमर ने मुश्किलों पर पाई फतह

 भारत में महिला कुश्ती की पहचान है मेरठ की बिटिया
श्रीप्रकाश शुक्ला
पहलवानी महिलाओं के बूते बात नहीं है, यह कहने वालों के लिए मेरठ की बिटिया और भारत में महिला कुश्ती की पहचान अलका तोमर एक नजीर है। आमिर खान बेशक दंगल फिल्म के बाद दुनिया में चर्चा का विषय हों। उनकी फिल्म को दुनिया भर में सराहा जा रहा हो लेकिन उनसे कहीं न कहीं कुछ त्रुटि भी रह गई है। मसलन इस फिल्म में फोगाट बहनों का ही अधिकतर जिक्र हुआ है जबकि फोगाट बहनों से इतर अलका तोमर, गीतिका जाखड़ जैसी जांबाज पहलवानों ने दुनिया में भारतीय महिला कुश्ती का परचम फहराया है। इनका जिक्र कहीं न कहीं होना चाहिए था। खैर, भारत की जो बेटियां सामाजिक बंधनों को तोड़कर खेल मैदानों में अपने पराक्रम का जलवा दिखा रही हैं, उन पर हर खेलप्रेमी को नाज होना ही चाहिए। लाइम-लाइट से दूर ऐसी बेटियों की सफलताओं को भुलाया नहीं जाना चाहिए। कुश्तीप्रेमियों को यह जानकर अचरज होगा कि मेरठ की महिला पहलवान अलका तोमर ने विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप में सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त से पहले भारत के भाल को ऊंचा किया था।
असल जिन्दगी से प्रेरित दंगल फिल्म की कहानी अलका तोमर से भी काफी कुछ मिलती-जुलती है। देश को राष्ट्रमण्डल खेलों में पहली बार महिला कुश्ती में गोल्ड मैडल दिलाने वाली अलका तोमर ने केवल अपने पिता की मेहनत को ही साकार नहीं किया बल्कि देश का नाम भी सुनहरे अक्षरों में लिखवा दिया। अलका की कहानी फोगाट परिवार से कम नहीं है। अलका का कहना है कि मेरे पिता को कुश्ती का काफी शौक था। उन्होंने कुश्ती में मैडल का सपना अपने बेटे में ही देखा था। मेरे भाई ने कुश्ती भी की लेकिन जहां तक पहुंचना चाहिए था वहां तक नहीं पहुंच सका। मेरे पिता ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने मुझे कुश्ती में डाला। जब मैं 10 साल की थी तभी से पिता नैन सिंह तोमर ने मुझे कुश्ती के लिए तैयार करना शुरू कर दिया था। उन्होंने मुझे भी उसी माहौल में पाला जिस माहौल में मेरे दोनों भाई थे। उन्होंने मुझमें और दोनों भाइयों में कोई फर्क नहीं रखा।
मेरठ की इस बेटी के लिए पहलवानी आसान बात नहीं थी। अपने इस शौक के लिए अलका तोमर को सबसे पहले समाज के साथ दंगल करना पड़ा। सिर्फ 10 साल की उम्र में अखाड़े पर कदम रखने वाली अलका बताती है कि एक रोज पापा ने मुझसे पूछा तुम अखाड़े में दमखम दिखाने के लिए क्या लोगी। एक बच्ची के रूप में मैंने भी कहा कि चॉकलेट चाहिए, कपड़े चाहिए। कोल ड्रिंक पीना है। मैं कुश्ती में दांव-पेच दिखाऊं इसके लिए मेरे पापा ने वो सब किया जो मैंने चाहा। मैं भी तैयार हो गई। मेरे बाल कट गए। ट्रैकशूट पहनकर अखाड़ा जाने लगी तो गांव वाले कमेंट करते थे- लड़कियों को बर्बाद कर दिया। बाल कटवा दिए और अजीब कपड़े पहन रही है। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मुझे तो अपने पापा का सपना हर हाल में पूरा करना था, सो मैं विचलित नहीं हुई।
अर्जुन अवार्डी पहलवान अलका तोमर बताती हैं कि कुश्ती में प्रैक्टिस के लिए मुझे अपने गुरुजी के पास जाना पड़ता था। मेरे साथ मेरे परिवार का कोई न कोई जरूर होता था लेकिन एक दिन भाई ने मेरे साथ जाने से मना कर दिया। उसे अजीब लगता था कि मेरी बहन कुश्ती के लिए जाती है। मुझे लोग बड़े ही अजीब तरीके से देखते थे। भाई के मना करने के बाद मेरे पिता ही सामने आए और वही मुझे गुरुजी के पास लेकर जाने लगे। मेरे पिताजी स्कूल में हर तरह के खेलों में भाग लेने को मुझसे कहते थे। मेरे पिता रोज मुझे दौड़ाया करते थे। उन्होंने मेरे साथ काफी मेहनत की। अलका की कही सच मानें तो जब वह कुश्ती के लिए घर से निकलती तो आसपास के लोग कहते थे कि ये लड़की क्या पहलवानी करेगी। पहलवानी लड़कों के लिए होती है। अजीब-अजीब बातें होती थीं। पिताजी ने मेरे दिल और दिमाग में कुश्ती में नाम कमाने का ऐसा जज्बा भर दिया कि उसके अलावा कुछ और सूझता ही नहीं था। सुबह छह बजे चले जाना और शाम को आना। मेरा सिर्फ कुश्ती पर फोकस रहता था। मेरे पिता और मेरा एक ही मकसद बन गया था कि कुश्ती में नाम कमाना है। उसके अलावा हम दोनों को न तो कुछ सुनाई देता था और न ही कुछ दिखाई देता था।
गीता फोगाट को दो बार रिंग में पराजय का सबक सिखाने वाली अलका बताती हैं कि मैंने जैसे ही स्कूल स्तर से कुश्ती में सफलता हासिल और कई ट्रॉफियां जीतीं समाचार-पत्रों में मेरा नाम छपने लगा। फिर क्या था गांव वाले भी मेरी इज्जत करने लगे। 1999 में जब वूमेन रेसलिंग शुरू हुई तो कोच जबर सिंह ने मेरे पापा से कहा कि कोई लड़की सम्पर्क में हो तो बताओ। पापा ने कहा मेरी बेटी तो है लेकिन एक तो उसकी उम्र कम है और दूसरे वह बड़ी ही दुबली-पतली सी है। उन्होंने कहा ले आओ उसे पहलवान बनाऊंगा। नेशनल के लिए टीम भी पूरी हो जाएगी। फिर क्या था पापा खुश हो गए। मेरे अखाड़ा ज्वाइन करने के 15-20 दिन बाद ही मथुरा में सब-जूनियर नेशनल था। मैंने वहां सिल्वर मैडल जीता। उस वक्त ये सिल्वर मेरे लिए किसी ओलम्पिक मैडल से कम नहीं था। अलका कहती हैं कि मैंने दंगल फिल्म देखी है। यह काफी शानदार है। फिल्म में एक पिता की कहानी है जो अपनी बेटियों को एक ऐसा खिलाड़ी बनाता है जिसने देश में महिला खेलों की दशा और दिशा बदल दी। अलका कहती हैं कि बबीता और गीता फोगाट ने काफी मेहनत की है। उन्होंने वह कर दिखाया जो आज तक कोई नहीं कर सका।



Monday, 22 May 2017

डोपिंग के साये में भारतीय खेल

नामी खिलाड़ी के कमरे से मिला ड्रग्स
इंचियोन एशियाई खेलों में दो स्पर्धाओं में रहा था चौथे स्थान पर
श्रीप्रकाश शुक्ला
हाल ही पटियाला में नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी (नाडा) की छापामार कार्रवाई में एक नामचीन एथलीट के कमरे से ड्रग्स के साथ ही इंजेक्शन बरामद हुए हैं। यह खिलाड़ी इंचियोन एशियाई खेलों की दो स्पर्धाओं में चौथे स्थान पर रहा था। देश में डोपिंग के खिलाफ यह कोई पहला मामला नहीं है। हाल ही भारतीय फुटबाल गोलकीपर सुब्रत पाल पर भी डोपिंग का डंक लगा है। रियो ओलम्पिक के दरम्यान चार भारतीय खिलाड़ियों के साथ जो हुआ वह कितना शर्मनाक था। लगातार भारतीय खिलाड़ियों का डोपिंग में पकड़ा जाना बताता है कि खेलों में सफलता पाने और सबसे बेहतर साबित होने के लिए प्रतिबंधित शक्तिवर्धक औषधियां लेने का चलन किस तरह विस्तार पा चुका है। चिन्ता की बात तो यह है कि अपनी क्षमता और मेहनत पर भरोसा न कर तत्काल ऊर्जा भर देने वाले ड्रग्स लेकर खेलभावना को कलुषित करने वाले खिलाड़ियों को किसी भी तरह की सजा का खौफ भी नहीं रह गया है। नियम कड़े हो रहे हैं और सजा का प्रावधान विस्तृत होता जा रहा है बावजूद इसके खिलाड़ी ड्रग्स का सहारा लेने का मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं। यह प्रवृत्ति देश में लगातार बढ़ रही है और इस पर रोक नहीं लग पा रही है।
दो साल पहले यमुना नगर (हरियाणा) में हुई राष्ट्रीय युवा व जूनियर वेटलिफ्टिंग चैम्पियनशिप और तिरुवंनतपुरम में हुए राष्ट्रीय खेलों के दौरान अंतरराष्ट्रीय नियमों के तहत खिलाड़ियों के सैम्पल लिए गए थे। परीक्षण के जो नतीजे आए वे चौंकाने वाले हैं। पता चला कि विभिन्न खेलों के दो दर्जन से ज्यादा खिलाड़ियों ने प्रतिबंधित ड्रग्स का सेवन किया था। इनमें सबसे ज्यादा 21 वेटलिफ्टर शामिल हैं। वेटलिफ्टरों में पंजाब की गीता रानी भी हैं जो राष्ट्रीय खेलों में 75 किलो से ज्यादा के वर्ग का स्वर्ण जीतने में सफल रही थीं। 2006 के दोहा में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में भी उन्होंने स्वर्ण पदक जीता था। 58 किलो वर्ग में हरियाणा की हरजीत कौर, 75 किलो वर्ग में चंडीगढ़ की मांगती पी कॉम और 75 किलो से ज्यादा के वर्ग में महाराष्ट्र की कोमल वकाले राष्ट्रीय खेलों में ड्रग्स की बदौलत तिरुवंनतपुरम में रजत पदक जीतने में सफल हो गई थीं। डोप टेस्ट में पंजाब की एथलीट के एम. रचना भी दोषी पाई गईं। हैमर थ्रो में उन्होंने रजत पदक जीता था।
पहली बार ड्रग्स के सेवन का दोषी पाए जाने वाले खिलाड़ियों के लिए नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी ने अब सजा की मियाद दो साल से बढ़ाकर चार साल कर दी है। नाडा ने अब धोखेबाज खिलाड़ियों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाना शुरू कर दिया है। पहले अपराध के लिए चार साल का प्रतिबंध और वही अपराध फिर करने पर आजीवन प्रतिबंध का प्रावधान किया गया है। लेकिन समस्या ज्यादा विकराल है। ड्रग्स लेकर अपना प्रदर्शन बेहतर करने की ललक युवा खिलाड़ियों में ज्यादा बढ़ गई है। स्थापित खिलाड़ियों के लिए तो एक बार को यह तर्क समझ में आता है कि आगे बने रहने के लिए अपने भविष्य या सजा की परवाह किए बिना वे ड्रग्स लें। लेकिन जिन खिलाड़ियों का खेलजीवन अभी शुरू ही हुआ है, ईमानदार खेलभावना विकसित होने की जगह ड्रग्स का इस्तेमाल कर सफलता का शॉर्टकट रास्ता अपनाने की प्रवृत्ति उनमें घर कर जाए तो यह न खेल के लिए अच्छा है और न खिलाड़ी के लिए। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए नाडा ने पांच साल पहले योजना बनाई थी कि सभी स्तर की क्षेत्रीय व राष्ट्रीय स्तर की खेल स्पर्धाओं के दौरान सभी खिलाड़ियों के सैम्पल लिए जाएं। समस्या यह है कि नाडा के पास न तो इतना स्टाफ है और न ही जांच करने की इतनी विस्तृत सुविधा कि वह बड़े पैमाने पर खिलाड़ियों के सैम्पल लेकर सही और गलत खिलाड़ी का पता लगा सके। नाडा अधिकारियों की मौजूदगी और औचक रूप से कुछ खिलाड़ियों के सैम्पल लेने की प्रक्रिया से तो खिलाड़ी सुधरे नहीं हैं। प्रतिबंध लगता है। पदक छिनते हैं। विजेता होने के नाते मिल सकने वाले मान-सम्मान से हाथ धोना पड़ता है। फिर भी लत है कि छूटती नहीं।
सवाल यह उठता है कि खिलाड़ी प्रतिबंधित ड्रग्स क्यों लेते हैं। बहुत सी दवाएं तो ऐसी हैं जो काफी महंगी और आसानी से उपलब्ध नहीं हैं। जर्मनी के एकीकरण से पहले जब पूर्वी जर्मनी अस्तित्व में था तो वहां के कम्युनिस्ट शासन ने खेलों के जरिए अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए खिलाड़ियों को शक्तिवर्धक दवाएं देने का चलन शुरू किया। खूब सफलता भी पाई। उसी की नकल पर पूरी दुनिया में इस तरह की दवाओं के इस्तेमाल की परम्परा चल निकली। ये दवाएं तात्कालिक तौर पर खिलाड़ी की क्षमता और ऊर्जा को बढ़ा देती हैं। यही पहलू सबसे ज्यादा खिलाड़ियों को ललचाता है। इस प्रवृत्ति को थामने के लिए वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) ने कई दवाओं को प्रतिबंधित सूची में डाल दिया है। खिलाड़ियों के लिए उनका इस्तेमाल वर्जित है। इसके बावजूद इनका इस्तेमाल हो रहा है। खिलाड़ियों को ड्रग्स लेने से रोकने के पीछे यह सैद्धांतिक मुद्दा तो है ही कि खेल स्पर्धाओं में ईमानदारी बरती जाए। लेकिन इसमें खिलाड़ियों के दीर्घकालीन भविष्य की चिन्ता भी है। जर्मन दीवार ढहने के बाद यह रहस्य खुला कि ओलम्पिक या अन्य अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में तहलका मचाने वाले पूर्वी जर्मनी के ज्यादातर खिलाड़ी ड्रग्स के सेवन से अपंग हो गए या गम्भीर व्याधियों का शिकार हो गए।
यही सबसे बड़ा खतरा है। इसे न समझते हुए छोटी उम्र में खिलाड़ियों को प्रतिबंधित दवाओं का सेवन करने के लिए उकसाने वाले प्रशिक्षकों, इस प्रवृत्ति को अनदेखा करने वाले प्रशासकों और खिलाड़ियों को भी प्रताड़ित किया जाना जरूरी है। नाडा ने इसके लिए अपना दायरा बढ़ाया है। दोषी खिलाड़ियों पर पचास हजार रुपए का जुर्माना करने पर विचार किया जा रहा है। एक नियम यह भी बनाने पर मंथन हो रहा है कि जिस राज्य के ज्यादा खिलाड़ी डोपिंग के दोषी पाए जाएं उस राज्य के खिलाड़ियों को कुछ समय के लिए किसी भी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। फिलहाल यह व्यावहारिक नहीं होगा। खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों को ईमानदार खेल के लिए प्रेरित करना ज्यादा जरूरी है।
ड्रग्स का असर भारतीय खेलों के लिए कई बार अप्रिय स्थितियां पैदा करता रहा है। सबसे ज्यादा दुखद यह था कि 4 गुणा 400 मीटर रिले दौड़ में भारतीय महिला एथलीट लंदन में जुलाई 2012 में हुए ओलम्पिक खेलों में हिस्सा नहीं ले पाईं। महिला टीम के लंदन ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई करने में अड़चन तो तभी खड़ी हो गई थी जब 2010 के राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों में 4 गुणा 400 मीटर रिले दौड़ का स्वर्ण पदक जीतने वाली चौकड़ी की तीन खिलाड़ियों मनदीप कौर, अश्विनी एसी व सिनी जोसे पर शक्तिवर्धक ड्रग्स लेने के आरोप में एक साल का प्रतिबंध लगा दिया गया था। उम्मीद की जो थोड़ी-बहुत गुंजाइश बची थी उसे वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी की नेशनल एंटी डोपिंग अपील पैनल (एनडीपी) से की गई गुजारिश ने खत्म कर दिया। वाडा ने तो निर्देश दे दिया कि स्टेरॉयड का सेवन करने वाली तीनों खिलाड़ियों पर प्रतिबंध एक साल से बढ़ाकर दो साल कर दिया जाए। राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों की स्वर्ण पदक विजेता टीम का हिस्सा रहीं उपरोक्त तीनों खिलाड़ियों के अलावा जाउना, मुर्म, प्रियंका पंवार व टियाना मेरी थॉमस को भी उसी अपराध का दोषी मानकर 2012 में प्रतिबंधित कर दिया गया था। रियो ओलम्पिक के दौरान नरसिंह यादव, धावक धरमवीर, गोला फेंक खिलाड़ी इंदरजीत सिंह भी डोप टेस्ट में फंसे जिससे भारत की दुनिया में खूब किरकिरी हुई।
भारतीय खेलों के लिए यह बहुत बड़ा आघात था। खासतौर से तब जब पहली बार ओलम्पिक खेलों में महिला टीम के बेहतर सफलता पाने के आसार बन रहे थे। ओलम्पिक इतिहास में पहली बार एथलेटिक्स में कोई पदक जीतने का सपना टूटने से ज्यादा पीड़ादायक यह रहा कि महिला खिलाड़ी ड्रग्स का इस्तेमाल करने की दोषी पाई गई हैं। दुनिया भर में खिलाड़ी अवैध रूप से ड्रग्स का सेवन करते हैं। पकड़े जाते हैं तो अपमानित होते हैं और सजा पाते हैं। भारत में इस तरह के मामले इससे पहले छिटपुट तौर पर ही हुए।
2006 के राष्ट्रमंडल खेलों में पदक जीतने वाले कुछ भारोत्तोलक ड्रग्स का इस्तेमाल करने के दोषी पाए गए थे। लेकिन कुल मिलाकर यही धारणा बनी हुई थी कि भारतीय खिलाड़ी इस व्याधि से अछूते हैं। महिला एथलीटों का मामला सामने आने के बाद खुलासा हुआ कि राष्ट्रीय स्तर तक पर खिलाड़ी ताकत और क्षमता बढ़ाने के लिए प्रतिबंधित दवाओं का सेवन कर रहे हैं। प्रशिक्षण शिविरों या प्रतियोगिता स्थलों में खिलाड़ियों के हॉस्टल के आसपास भारी मात्रा में खाली सीरिंज मिलने से संदेह तो पैदा हुआ लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया गया। वैसे भी खिलाड़ियों की नियमित जांच की कोई पुख्ता व्यवस्था तब तक नहीं थी। वैश्विक दबाव में नाडा का गठन हुआ और उसने थोड़ी सक्रियता दिखाई तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। 2012 में लुधियाना में हुई राष्ट्रीय स्कूल एथलेटिक्स प्रतियोगिता में दो एथलीट स्टेनोजोलोल व मीथेन डायनोन के इस्तेमाल के दोषी पाए गए। इसके अलावा जिन 80 खिलाड़ियों के नमूने लिए गए उनमें से 11 के नमूनों में प्रतिबंधित ड्रग्स मिले। इससे पहले हुए राष्ट्रीय स्कूल खेलों में कुश्ती, मुक्केबाजी व भारोत्तोलन स्पर्धा के 14 प्रतियोगियों के सैम्पल पॉजिटिव रहे थे। यह क्योंकि सिर्फ स्कूल स्तर का मामला था और साधनों की कमी की वजह से सभी प्रतियोगियों की जांच नहीं की जा सकी। हो पाती तो शायद ज्यादा खतरनाक नतीजे सामने आते। लेकिन इससे यह अंदाजा तो हो गया कि राष्ट्रीय स्तर पर तस्वीर कितनी भयावह हो गई है।

जब उद्देश्य किसी भी कीमत पर सफलता पाने तक सीमित हो जाए तो क्षमता, ताकत या ऊर्जा बढ़ाने के लिए खिलाड़ी ड्रग्स का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। यह जानते हुए भी ऐसा करना खेलभावना के प्रतिकूल है और अपराध भी जिसके लिए उन्हें अपने खेल जीवन से हाथ भी धोड़ा पड़ सकता है। इससे बड़ा खतरा यह भी है कि इस तरह की प्रतिबंधित दवाएं तात्कालिक रूप से फायदा भले ही पहुंचा दें, बाद में शरीर पर बुरा प्रभाव डाल सकती हैं। चिंता की बात यह है कि कुछ प्रतिबंधित ड्रग्स आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं और अक्सर प्रशिक्षक ही इन्हें इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं। तत्काल सफलता पा लेने के धुन में खिलाड़ी जाने-अनजाने आने वाले खतरे को भांप नहीं पाते। एक साल का प्रतिबंध झेलने वाली महिला एथलीटों का कहना है कि उन्होंने वही दवा ली जो प्रशिक्षक यूरी ओगोरदोनिक ने उन्हें दी। उन्हें पता ही नहीं था कि दवा क्या थी। यूरी को तो तत्काल बर्खास्त कर दिया गया लेकिन मूल समस्या का समाधान करने की कोशिश नहीं हुई। हर खेल के लिए विदेशी प्रशिक्षकों पर निर्भरता कम नहीं हुई है। ज्यादातर पूर्वी यूरोप के देशों के होते हैं। खिलाड़ियों में ड्रग्स के सेवन की परम्परा इन देशों में ज्यादा है। प्रशिक्षकों को भारी-भरकम वेतन दिया जाता है तो उसे न्यायसंगत ठहराने के लिए उन पर जल्दी और बेहतर नतीजा देने का अतिरिक्त दबाव रहता है। यहीं से शार्ट कट रास्ता अपनाने की शुरुआत हो जाती है। हमारे देश में खिलाड़ियों के उचित खान-पान की सुविधा भी नहीं है लिहाजा कई खिलाड़ी इससे भी डोप में फंस जाते हैं। 

Friday, 19 May 2017

साक्षी बनी कुश्ती की मलिका

वाह बिटिया कमाल कर दिया
श्रीप्रकाश शुक्ला
अनादिकाल से भारत वीरांगनाओं का देश रहा है और आगे भी रहेगा। भारत में अब नारी शक्ति को अबला नहीं कह सकते वजह बेटियां हर क्षेत्र में ऐसा करिश्मा कर रही हैं जिसे दुरूह माना जाता रहा है। ब्राजील में दुनिया ने देखा कि भारतीय बेटियों में बला की शक्ति है। वे फौ
लाद की बनी हैं। हरियाणा की साक्षी मलिक ने कुश्ती में भारत का मान बढ़ाकर इस बात के संकेत दिए कि यदि बेटियों को और प्रोत्साहन तथा आजादी मिले तो वे पुरुषों को भी मात दे सकती हैं। भारत बदल रहा है। उसकी कारोबारी विकास के साथ सामाजिक मान्यताएं भी बदल रही हैं। एक वक्त था जब कहा जाता था कि बेटियां पहलवानी करती अच्छी नहीं लगतीं। पिछले कुछ समय में साक्षी मलिक जैसी अनेक होनहारों की ऐसी पौध तैयार हुई है, जिन्होंने पुरानी मान्यताओं का लबादा उतार फेंका है। ओलम्पिक खेलों में कर्णम मल्लेश्वरी के फौलादी प्रदर्शन के बाद से तो मैदानों का नजारा ही बदल गया है। बेटियां न केवल मौका जुटा रही हैं बल्कि उन्हें भुना भी रही हैं।
एक समय वह भी था जब आमतौर पर गांवों के पास बने अखाड़ों में लंगोट कसे पहलवान ही अपना दमखम दिखाते नजर आते थे। महिलाओं का अखाड़ों की तरफ न केवल प्रवेश वर्जित था बल्कि वे उधर देख भी नहीं सकती थीं। अब बेटियां देश का नाम ऊंचा कर रही हैं। फोगाट बहनों के बाद तो महिला कुश्ती में पहलवानों की बाढ़ सी आ गई है। ओलम्पिक में साक्षी ने कांस्य पदक जीतकर ऑनरकिलिंग जैसे जुमले से बदनाम हरियाणा प्रदेश की बेटियों के लिए एक नयी राह बना दी है। साक्षी का भी अखाड़े की तरफ रुख करना उतना आसान नहीं था लेकिन इस बेटी को मां का प्रोत्साहन मिला और उसने वह कर दिखाया जिसे आज तक कोई नहीं कर सका। साक्षी के पहलवान बनने के पीछे एक खास वजह यह भी रही है कि उनके दादा बदलू भी नामी पहलवान रहे हैं। पिता समेत परिवार के दूसरे सदस्यों का भी कुश्ती से विशेष लगाव रहा है।
साक्षी के मन में कुश्ती का प्रेम 2004 में पैदा हुआ। पहले तो बेटी को पहलवान बनाने में परिवार के लोग हिचक रहे थे लेकिन जब साक्षी ने अपनी मां सुदेश को अपनी इच्छा बतायी तो मां उसे रोहतक के छोटूराम स्टेडियम ले गईं। वहां उसे जिमनास्टिक खेलने के लिए कहा गया लेकिन साक्षी ने साफ इंकार कर दिया। फिर एथलीट व अन्य कई खेलों के खिलाड़ियों को दिखाया गया और सबसे आखिर में सुदेश साक्षी को लेकर रेसलिंग हाल पहुंचीं। वहां साक्षी को पहलवानों की ड्रेस अच्छी लगी और उसने कुश्ती को ही आत्मसात करने की इच्छा जताई। सुदेश ने बताया कि उस समय साक्षी को पहलवानों की ड्रेस अच्छी लगी थी और उसने कहा था कि यह ड्रेस अच्छी है, इसलिए वह कुश्ती ही लड़ेगी। उस समय लगा कि बेटी की इच्छा है तो खेलने देते हैं, जब तक मन होगा खेलती रहेगी लेकिन एक दिन साक्षी से कहा गया कि वह जो भी काम करे उसे पूरी मेहनत से करे। चाहे पढ़ाई हो या फिर कुश्ती। उस दिन से साक्षी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
साक्षी ने बहुत छोटी उम्र में ही सब जूनियर एशियन चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीतकर अपने सुनहरे भविष्य की आहट छोड़ दी थी। उस स्वर्णिम सफलता के बाद परिजनों को भी लगा कि उनकी बेटी ने सही खेल चुना है। फिर राष्ट्रमंडल खेलों में रजत जीता और उसके बाद भी कई मेडलों से अपने गले सजाए। रियो ओलम्पिक में साक्षी ने कांस्य पदक जीतकर यह साबित कर दिखाया कि मेहनत से कोई भी मंजिल हासिल की जा सकती है। आज सारा देश गर्व और गौरव से आह्लादित है तो खेलों से जुड़ी अन्य बेटियां भी पुलकित हैं।
साक्षी मलिक  का जन्म तीन सितम्बर, 1992 को रोहतक जिले के मोखरा गांव में हुआ था। 2004 में 12 साल की उम्र में उसने छोटूराम स्टेडियम स्थित ईश्वर सिंह का अखाड़ा ज्वाइन किया था। साथ ही साथ वैश्य पब्लिक स्कूल और फिर वैश्य महिला कॉलेज से पढ़ाई जारी रखी। साक्षी के पिता सुखबीर सिंह मलिक दिल्ली परिवहन निगम में परिचालक हैं जबकि मां सुदेश आंगनबाड़ी में सुपरवाइजर। साक्षी का एक भाई है। सुखबीर मलिक और सुदेश मलिक कहते हैं कि उन्हें पूरी उम्मीद थी कि उनकी बेटी अपने दादा बदलू के सपने को अवश्य साकार करेगी। साक्षी ने रियो ओलम्पिक में पदक जीतकर न केवल अपने परिजनों का सपना साकार किया बल्कि मुल्क के सामने एक नजीर भी पेश की है।
वर्ष 2011 में जम्मू में हुई जूनियर नेशनल प्रतियोगिता में साक्षी ने स्वर्ण पदक, जकार्ता में हुई जूनियर एशियन चैम्पियनशिप में कांस्य, गोंडा में हुई सीनियर नेशनल में रजत, सिरसा में ऑल इंडिया विश्वविद्यालय प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक, वर्ष 2012 में देवघर में जूनियर नेशनल प्रतियोगिता में स्वर्ण, कजाकिस्तान में हुई जूनियर एशियन चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक, गोंडा सीनियर नेशनल में कांस्य, अमरावती ऑल इण्डिया विश्वविद्यालय में गोल्ड, 2013 में कोलकाता में हुई सीनियर नेशनल प्रतियोगिता में गोल्ड, वर्ष 2014 में यूएसए में देन सतलुज मेमोरियल प्रतियोगिता में गोल्ड, मेरठ में हुई ऑल इंडिया यूनिवर्सिटी प्रतियोगिता में गोल्ड व वर्ष 2016 में रियो ओलम्पिक में कांस्य पदक के साथ ही एशियन कुश्ती चैम्पियनशिप में चांदी का पदक जीतकर महिला कुश्ती को गौरव दिलाया।

रियो ओलम्पिक में पदक जीतने के बाद अलसुबह जब साक्षी ने अपनी मां को फोन किया तो खुशी के मारे एक बार तो मां की जुबान ही रुक गयी। मां-बेटी भावनाओं के समुंदर में बहने सी लगीं। साक्षी ने मां को कहा कि मैंने अपना वादा पूरा कर दिया है। यह सुन उसकी मां सुदेश की खुशी का ठिकाना नहीं रहा और बोलीं। वाह साक्षी! कमाल कर दिया। साथ में साक्षी के पिता सुखबीर मलिक भी खड़े थे। उन्होंने भी बेटी को जीत की बधाई दी। सुदेश मलिक ने बताया कि रियो ओलम्पिक क्वालीफाई करने के बाद साक्षी ने वादा किया था कि वह मेडल जरूर लेकर आएगी। रियो में जाने के बाद जब भी साक्षी से बात होती थी तो वह यही कहती थी कि मां बिना पदक के नहीं लौटूंगी। यह तो अभी शुरुआत है। साक्षी ने जो कमाल किया है उससे इस बात के संकेत मिलते हैं कि अगले ओलम्पिक में भारत की दूसरी पहलवान बेटियां भी मादरेवतन का मान बढ़ाएंगी। साक्षी ने अपने पहलवान साथी को ही जीवनसंगी
चुना है। साक्षी को शानदार उपलब्धियों के लिए खेलरत्न से नवाजा जा चुका है।

भारतीय चिकित्सा पद्धति और खेलों को मथुरा में मिलेगा नया आयाम

संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलपति सचिन गुप्ता ने लिया संकल्प
एक साल में आयुर्वेद हास्पिटल और दो खेल एकेडमियां खुलेंगी
श्रीप्रकाश शुक्ला
मथुरा। शिक्षा और स्वास्थ्य के मामले में भारत की गिनती दुनिया के पिछड़े देशों में होती है। हमारे संविधान में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का वादा करने के साथ ही इसे दस साल में पूरा करने का लक्ष्य भी तय किया गया था लेकिन यह पूरा नहीं हो सका। धनाभाव के चलते राष्ट्रीय स्तर पर किसी ठोस योजना की शुरुआत नहीं हो सकी। राज्यों के स्तर पर भी अलग-अलग प्रयास किए गए लेकिन वे भी फलीभूत नहीं हुए। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में हुकूमतों की उदासीनता को देखते हुए इस दिशा में दिल्ली के एक युवा मन में कुछ लीक से हटकर करने का जुनून सवार हुआ है। संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलपति सचिन गुप्ता ने भगवान श्रीकृष्ण की नगरी मथुरा को शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल और हेल्थ टूरिज्म के क्षेत्र में एक नई पहचान दिलाने का संकल्प लिया है, वह लगातार इस दिशा में ठोस प्रयास भी कर रहे हैं। उम्मीद है कि वर्ष 2018 तक मथुरा जनपद में आयुर्वेद हास्पिटल, ब्लड बैंक, कैंसर टेस्ट लैब के साथ ही कुछ खेल एकेडमियां मूर्तरूप ले लेंगी।
देखा जाए तो संकल्प हर कोई लेता है लेकिन उसे अमलीजामा पहनाना बड़ी बात होती है। 29 दिसम्बर, 1977 को श्री रामकैलाश गुप्ता-श्रीमती कुसुम गुप्ता के घर जन्मा शिशु आज देश का दूसरा युवा कुलपति है। एक शिक्षक परिवार में जन्मे कुलपति सचिन गुप्ता के मन में शिक्षा, स्वास्थ्य और खेल की दिशा में बहुत कुछ करने का जुनून सवार है। अपने बड़े भाई राजेश गुप्ता के सहयोग से दो साल पहले 30 सितम्बर को मथुरा में खुले संस्कृति विश्वविद्यालय को लेकर कुलपति सचिन गुप्ता का कहना है कि वह चाहते हैं कि यह एक आदर्श शिक्षण संस्थान बने और यहां पढ़कर निकले छात्र-छात्राएं शिक्षा के क्षेत्र में देश के सामने नजीर स्थापित करें। इस युवा मन में मथुरा को और भी बहुत कुछ देने का विचार है। सादा जीवन और उच्च विचार रखने वाले कुलपति गुप्ता चाहते हैं कि मथुरावासियों को भारतीय चिकित्सा पद्धति से स्वस्थ रखने के साथ ही यहां के युवाओं को खेलों की दिशा में आगे बढ़ने का मौका मिले।
कुलपति गुप्ता संस्कृति विश्वविद्यालय में मास कम्युनिकेशन पाठ्यक्रम को शामिल करने के साथ ही उसके सामने आयुर्वेद हास्पिटल, कैंसर टेस्ट लैब और ब्लड बैंक खोलने का इरादा है। श्री गुप्ता मथुरा जनपद में भारतीय चिकित्सा पद्धति को नया धरातल देने के साथ ही युवाओं को कुश्ती, टेनिस तथा एथलेटिक्स के क्षेत्र में आगे बढ़ाने की भी पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए वह शीघ्र ही कुछ खेल एकेडमियां खोलेंगे जिनमें देश के जाने-माने प्रशिक्षक प्रतिभाओं को प्रशिक्षण देकर उन्हें बड़ा खिलाड़ी बनाएंगे। श्री गुप्ता का कहना है कि मथुरा में कैंसर टेस्ट की कोई सुविधा नहीं होने के साथ ही प्रायः यहां ब्लड के अभाव में लोगों की जान चली जाती है, लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। हम खुद की ब्लड बैंक के माध्यम से गरीब-असहाय लोगों को मुफ्त में ब्लड मुहैया कराएंगे। श्री गुप्ता कहते हैं कि मथुरा धर्मनगरी है। हमारा प्रयास इसे हेल्थ टूरिज्म के रूप में विकसित करने का भी है। इसके लिए हमारी कई संस्थाओं से बात चल रही है। हम चाहते हैं कि यहां जो भी श्रद्धालु आएं उन्हें भगवान के दर्शन के साथ ही हेल्थ टूरिज्म का भी लाभ मिले।
प्रतिवर्ष एक करोड़ की मुफ्त शिक्षा देती है संस्कृति सोसायटी
आज निजी शिक्षण संस्थानों द्वारा जहां उच्च शिक्षा के नाम पर अभिभावकों से अनाप-शनाप पैसे वसूले जाते हैं वहीं संस्कृति सोसायटी देश की ऐसी बिरली संस्था है जोकि प्रतिवर्ष गरीब और निर्धन पालकों के बच्चों को एक करोड़ रुपये से अधिक की शिक्षा मुफ्त में प्रदान करती है। गरीबों के प्रति संस्था की इस उदारता की सबदूर चर्चा हो रही है।
आठ सौ दिव्यांगों को मुफ्त तालीम
संस्कृति सोसायटी दिल्ली, हरियाणा और मथुरा में पांच ऐसे विद्यालयों का संचालन भी कर रही है जहां आठ सौ से अधिक दिव्यांगों को खाने-रहने के साथ ही मुफ्त में तालीम दी जा रही है। इन दिव्यांगों को न केवल मुफ्त में शिक्षित किया जा रहा है बल्कि उन्हें रोजगार से भी लगाया जा रहा है। दिल्ली जैसे महानगर में आज यहां से तालीम हासिल पांच सौ से अधिक दिव्यांग डाक वितरण का कार्य कर एक नजीर स्थापित कर रहे हैं। मथुरा जनपद के लिए यह खुशी की बात है कि यहां शीघ्र ही दिव्यांगों के लिए एक औद्योगिक इकाई स्थापित की जाएगी जिसमें सिर्फ दिव्यांग ही रोजगार हासिल कर अपने सपनों को साकार कर सकेंगे।  
         
  


आस और विश्वास पर खरे उतरे मोदी

श्रीप्रकाश शुक्ला
नरेन्द्र दामोदर दास मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री अपने कार्यकाल के तीन साल पूरे कर लिए हैं। मोदी ने अपनी कार्यशैली, निर्णय लेने की क्षमता और कुछ नया करने की दृढ-इच्छाशक्ति पर खरा उतरते हुए जनमानस के आस तथा विश्वास को और पुख्ता किया है। पिछले तीन साल में प्रधानमंत्री मोदी के प्रति लोगों का लगाव कुछ ऐसा बढ़ा कि उनकी लोकप्रियता का ग्राफ नीचे आने की बजाय शिखर छू रहा है। अब मोदी को इस बात का इल्म होना चाहिए कि शिखर सीधी-सपाट जगह नहीं जहां मनचाहे समय तक टिका जा सके। तीन साल में उन्होंने कुछ ऐसे काम किए हैं जिन पर विपक्ष ने लाख टीका-टिप्पणी की हो लेकिन भारतीय जनमानस ने उन्हें सराहा है। भारतीय राजनीति का नजीर बन चुके नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के मन की बात, स्वच्छता अभियान, समय का पालन, सर्जिकल स्ट्राइक, भ्रष्टाचार पर अंकुश की कोशिशें, नोटबंदी, डिजिटल भारत की मुहिम, कैशलेश मुहिम, पुराने कानूनों का खात्मा, नीति आयोग का गठन ऐसे काम हैं जिनसे लोगों में विश्वास जागा है। बेशक तीन साल में जनता जनार्दन को महंगाई से निजात न मिली हो लेकिन मोदी के प्रति लोगों का विश्वास कतई नहीं डिगा।
तीन साल पहले जब मोदी ने देश की सल्तनत सम्हाली थी तभी उन्होंने सबका साथ, सबका विकास की बात कही थी। उन्होंने देश को यह संदेश देने की कोशिश की थी कि अब गुरबत के दिन खत्म हुए और अच्छे दिनों की शुरुआत होगी। यूपीए सरकार के 10 साल के राजकाज में भारत की अर्थव्यवस्था को जो घुन लगा था, वह शिथिल तो हुआ है लेकिन उसके विनाश में अभी कुछ और वक्त लगने से इंकार नहीं किया जा सकता। नरेन्द्र मोदी की साफ-सुथरी छवि से बीते तीन साल में न केवल दुनिया भर में भारत की लोकप्रियता बढ़ी बल्कि भारतीय जनता पार्टी भी बेहद मजबूत हुई है। लोकतंत्र में बोलने, जनता से संवाद करने और जनता को बोलने की आजादी देने के कायदे हैं, जिनका तीन साल में कुछ हद तक सम्मान हुआ है। बीते तीन साल में देश की अस्मिता पर चौथे स्तम्भ से भी कुछ चूक हुई हैं। कई बार ऐसा लगा मानो कोई पत्रकार नहीं बल्कि विपक्षी दल का प्रवक्ता बात कर रहा हो। यह कहना उचित नहीं कि मोदी राज में सब कुछ अच्छा ही हुआ लेकिन ऐसा भी कुछ गलत नहीं हुआ जिससे मुल्क की साख पर बट्टा लगा हो।
कह सकते हैं कि तीन साल के अपने कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी के पास ऐसा बहुत कुछ है जिसे वे अपने शासन की उपलब्धि बता सकते हैं। आज देश की औद्योगिक विकास दर दुनिया में सम्भवतः सबसे अधिक है, जिसे उद्योग जगत की हस्तियां सराह रही हैं। मुल्क की एक तिहाई जनता भ्रष्टाचार रहित सरकार को उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि बताती है तो 37 फीसदी लोगों का मानना है कि आधारभूत ढांचे को मजबूत बनाने की दिशा में भी शानदार प्रगति हुई है। 10 प्रतिशत लोग कालेधन पर मोदीजी के हमले की सराहना कर रहे हैं। मोदी सरकार के पिछले तीन साल के कार्यकाल में हुए काम को 17 प्रतिशत लोग आशातीत मान रहे हैं तो लगभग 44 प्रतिशत लोगों को यह आशा के अनुरूप लग रहा है। जिन्हें यह अपेक्षा से कम लग रहा है उनकी संख्या 39 प्रतिशत है। किसी भी सरकार के लिए ऐसे आंकड़े उसके संतोष का कारण हो सकते हैं। तीन साल में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने महाराष्ट्र, हरियाणा, असम और मणिपुर में पहली बार अपने बूते तो जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई है। झारखंड, उत्तराखंड और गोवा में फिर से भाजपा सत्ता में आई तो बिहार की पराजय का बदला उसने उत्तर प्रदेश की सल्तनत पर कब्जा करके लिया है।
भाजपा की इन चुनावी सफलताओं को पराजित पार्टियां पचा नहीं पाईं और आरोप भी लगाए लेकिन भाजपा के इस विजय अभियान में प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिगत भूमिका के महत्व को खारिज नहीं किया जा सकता। सामान्यजन की कही सच मानें तो मोदी के शासन में सबका विकास भले ही न हुआ हो लेकिन सरकार ने लीक से हटकर जनहितैषी कार्य जरूर किए हैं। इस बात में लेशमात्र भी संदेह नहीं कि लाख कमियों के बावजूद भाजपा यह छवि बनाने में सफल रही है कि उसके नेतृत्व वाली सरकार पिछली सरकार की तुलना में अधिक सक्रिय है। राजनीति में छवि का बहुत महत्व होता है। यह भाजपा की खुशनसीबी ही कहेंगे कि उसे नरेन्द्र मोदी जैसा कर्मठ मिला। प्रधानमंत्री मोदी का स्वच्छता के प्रति झुकाव देशवासियों ने देखा। स्वच्छता को एक अभियान बनाना, अभियान का हिस्सा बनना और खुद झाड़ू लेकर मैदान में उतरना और लाखों लोगों को इसके लिए प्रेरित करना आसान बात नहीं थी लेकिन मोदी ने स्वच्छता अभियान में जान फूंककर यह संदेश तो दिया ही है कि स्वच्छता से ही स्वस्थ भारत के सपने को साकार किया जा सकता है। मोदी प्रतिदिन 18 घंटे काम करते हैं, समय की पाबंदी उन्हें पसंद है। मोदी के प्रयासों का ही नतीजा है कि कई मंत्रालयों में जहां कर्मचारी 11 बजे के बाद दिखाई देते थे और तीन बजे तक कुर्सियां छोड़ देते थे, वहां की परिस्थितियां अब बदली हैं। लोगों में ईमानदारी का भाव कुछ हद तक ही सही जगा है।
नरेन्द्र मोदी सरकार का पाकिस्तान के नियंत्रण वाले कश्मीरी हिस्से में सर्जिकल स्ट्राइक को मंजूरी देना सेना के टूटते मनोबल के लिए जरूरी था। यह बात अलग है कि कांग्रेस की ओर से कहा गया कि उसके कार्यकाल के दौरान भी ऐसा हुआ लेकिन उसने ढिंढोरा नहीं पीटा। सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने अपने मन की बात के माध्यम से जनता से जो जुड़ाव स्थापित किया उसकी भी चहुंओर सराहना हो रही है। मोदी ने सत्ता में आते ही यह प्रयास किए कि भ्रष्टाचार पर हर प्रकार का अंकुश लगे। इसके लिए सरकार ने सभी सरकारी भुगतान ऑनलाइन करने का निर्णय लिया तो टेण्डरिंग को पूरी तरह से ऑनलाइन करने का आदेश देकर कुछ हद तक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सफल हुई। मोदी सरकार के लिए यह संतोष की बात है कि तीन साल में उसके किसी मंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे। योजना आयोग अब इतिहास हो गया है। इसके स्थान पर प्रधानमंत्री मोदी ने नीति आयोग का गठन किया जिसके सुफल मिलेंगे पर समय जरूर लग सकता है।
राजनीति में न कोई किसी का स्थायी मित्र होता है और न ही शत्रु, यह बात उत्तर प्रदेश के विधान सभा सत्र में हर किसी ने देखी। जब समाजवादी पार्टी के लोग मायावती के पक्ष में लामबंद हुए। सच कहें तो आज विपक्ष बिखरा हुआ है। कांग्रेस के लिए कई दलों को एक मंच पर लाना और आने वाले राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के विरुद्ध साझा प्रत्याशी खड़ा कर ताल ठोकना किसी चुनौती से कम नहीं है। देश के मौजूदा हालात पर यदि नजर डालें तो यह साफ हो जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता इस समय चरम पर है जिसका परिणाम भाजपा को हालिया विधानसभा चुनावों और कई नगर निगम के चुनावों में देखने को मिला है। वैसे तो 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने की आवाजें उठती रही हैं लेकिन भाजपा का मुकाबला करने के लिए आज तक एक मंच नहीं बन सका। इसकी वजह हर दल के अपने-अपने निजी स्वार्थ हैं। यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा एकमात्र राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरी है जिसका प्रभाव और संगठन भारत के कोने-कोने तक पैर पसार चुका है। सड़क से संसद तक उसने उन मुद्दों को आत्मसात कर लिया है जो कई दशकों तक कांग्रेस की राजनीतिक पूजी हुआ करते थे। कभी अर्श पर रहने वाली कांग्रेस पार्टी आज कमजोर नेतृत्व, वैचारिक असमंजस और गुटबाजी के चलते फर्श पर है। इन विषम परिस्थितियों में उसकी मजबूरी है कि वह क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर ऐसा कुनबा तैयार करे जोकि सत्ता बेशक हासिल न कर सके लेकिन भाजपा को कड़ी चुनौती जरूर दे सके।
भारतीय जनता पार्टी के लिए यह अवसर आत्म-अवलोकन का है। हर भाजपाई को इस बात की चिन्ता होनी चाहिए कि जनता की जो उम्मीदें अभी पूरी नहीं हुई हैं उन्हें समय से पूरा किया जाए। राजनीतिक ईमानदारी का तकाजा है कि वर्तमान सरकार अपने कार्यकाल के बाकी बचे दो साल में वे काम कर दिखाए जो उसकी प्राथमिकता में हैं और जो लोकसभा चुनाव के समय जनता से कहे गये थे। यह तो कोई नहीं कहेगा कि तीन साल की अवधि में सबका विकास हो जाना चाहिए था, पर यह तो लगना ही चाहिए कि यह सिर्फ जुमलेबाजी नहीं है। आज सामाजिक शांति देश की एक बहुत बड़ी समस्या है जो देश का चेहरा बदलने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की सबसे बड़ी शर्त भी है। विपक्ष तो उकसाएगा कि भाजपा से कोई भूल हो। देश में फिलवक्त धर्म और जाति के नाम पर जिस तरह का माहौल बनाया जा रहा है, वह किसी भी संवेदनशील सरकार के लिए चिन्ता का विषय होना चाहिए। सच्चा और अच्छा नेतृत्व वही होता है जिसके समर्थक और अनुयायी उसके इशारों को समझें। हिन्दुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब है। इस देश में सभी धर्मों, जातियों, वर्णों और वर्गों में समरसता का अहसास पलना चाहिए। किसी भी तरह का बंटवारा इस देश को न केवल कमजोर करेगा बल्कि विकास भी बेपटरी हो जाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि भाजपा दो साल में न केवल समरसता के बीज बोएगी बल्कि जनमानस की उम्मीदों को भी पर लगाएगी।   


Wednesday, 17 May 2017

खेलों की हरफनमौला अविनाश कौर सिद्धू

बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी
श्रीप्रकाश शुक्ला
खेलों में मध्य प्रदेश की महिला खिलाड़ियों में अविनाश कौर सिद्धू वह नाम है जिसे हम महायोद्धा कहें तो अतिश्योक्ति न होगी। यद्यपि उन्हें वह सम्मान नहीं मिला जिसकी कि वह हकदार हैं। मध्य प्रदेश महिला हाकी एकेडमी की पहली प्रशिक्षक अविनाश कौर सिद्धू रहीं। उनका अनुशासन लोगों को रास नहीं आया और वह खिलाड़ियों को अपना हुनर लम्बे समय तक नहीं सिखा सकीं। शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि वह हाकी के साथ-साथ वालीबाल की भी आला खिलाड़ी रहीं। सच कहें तो अविनाश कौर खेलों के लिए ही पैदा हुईं।
कड़ी प्रतिस्पर्धा के कारण जब एक खेल में भारत के लिए प्रतिनिधित्व करना मुश्किल हो तब दो खेलों में देश का प्रतिनिधित्व करना विशिष्ट उपलब्धि ही कही जाएगी। इस उपलब्धि को जबलपुर की डा. अविनाश कौर सिद्धू ने हासिल किया। उन्होंने वर्ष 1967 से वर्ष 1975 तक भारतीय महिला हॉकी टीम और वर्ष 1970 में भारतीय वालीबाल टीम का प्रतिनिधित्व किया। अविनाश कौर का बहुआयामी व्यक्तित्व है। वे लगभग चार दशक से हॉकी से जुड़ी हुई हैं। डा. सिद्धू तीन दशक से भी अधिक समय से विभिन्न संस्थाओं, विश्वविद्यालयों और प्रदेश की टीमों को हॉकी का प्रशिक्षण दे रही हैं।
डा. सिद्धू ने जर्मन कॉलेज आफ फिजिकल कल्चर से स्पोट्‌र्स साइकोलॉजी में मास्टर आफ स्पोर्ट की डिग्री प्राप्त की और इसी संस्थान से उन्होंने स्पोट्‌र्स साइकोलॉजी में डॉक्टरेट भी किया। उन्होंने सन्‌ 1972 से वर्ष 2001 तक ग्वालियर के लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा संस्थान में अध्यापन कार्य किया। डा. सिद्धू ने वर्ष 2001 में प्रोफेसर पद से वालियंटरी रिटायरमेंट ले लिया। डा. सिद्धू ने वर्ष 2001 से वर्ष 2005 तक बांग्लादेश इंस्टीट्‌यूट आफ स्पोर्ट ढाका में स्पोट्‌र्स साइकोलॉजिस्ट के रूप में कार्य करने के साथ हॉकी, बॉस्केटबाल, बाक्सिंग, फुटबाल, जिम्नास्टिक, शूटिंग, स्वीमिंग, टेनिस और ट्रैक एण्ड फील्ड में बांग्लादेश की राष्ट्रीय टीमों को सहायता प्रदान की। मैनचेस्टर कॉमनवेल्थ गेम्स 2004 में बांग्लादेश के स्वर्ण पदक जीतने वाले शूटर मोहम्मद आसिफ को डा. अविनाश सिद्धू ने मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार किया था। वर्ष 2004 के इस्लामाबाद सैफ गेम्स में स्वर्ण पदक जीतने वाले मोहम्मद आसिफ और शर्मीन को भी डा. सिद्धू की मनोवैज्ञानिक सहायता मिली थी।
डा. सिद्धू वर्ष 1968 में आयोजित प्रथम एशियन महिला हॉकी चैम्पियनशिप में भारतीय टीम की कप्तान रहीं। भारतीय टीम ने इस प्रतियोगिता में तीसरा स्थान प्राप्त किया था। इसी प्रतियोगिता के प्रदर्शन के आधार पर उन्हें ऑल स्टार एशियन इलेवन में चुना गया। इसके पश्चात डा. अविनाश सिद्धू ने श्रीलंका, आस्ट्रेलिया, जापान, हांगकांग, यूगांडा, सिंगापुर, न्यूजीलैंड, स्पेन, स्कॉटलैंड के विरुद्ध खेली गई टेस्ट सीरीज में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया और इन देशों के विरुद्ध टेस्ट सीरीज में विजय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डा. सिद्धू ने ऑकलैंड (न्यूजीलैंड), बिलबाओ (स्पेन) और एडिनबर्ग (स्कॉटलैंड) में आयोजित इंटरनेशनल फेडरेशन वूमेन हॉकी एसोसिएशन के टूर्नामेंट जोकि विश्व कप के समकक्ष माना जाता है, में भी भारतीय महिला हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व किया।
डा. सिद्धू ने वर्ष 1962 से वर्ष 1974 तक महाकौशल महिला हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने वर्ष 1963, 1965 और 1966 में अंतर विश्वविद्यालयीन महिला हॉकी प्रतियोगिता में जबलपुर विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। वर्ष 1965 में जबलपुर विश्वविद्यालय की टीम उपविजेता रही। इस टीम का नेतृत्व भी अविनाश सिद्धू ने ही किया था। डा. सिद्धू ने वर्ष 1968 में पंजाबी यूनिवर्सिटी का प्रतिनिधित्व भी किया। डा. अविनाश सिद्धू ने सक्रिय हॉकी से निवृत्त होने के पश्चात्‌ कई अंतरराष्ट्रीय हॉकी प्रतियोगिताओं में अम्पायरिंग भी की, जिसमें 10वें एशियन गेम्स सियोल, द्वितीय इंदिरा गांधी इंटरनेशनल वूमेन हॉकी टूर्नामेंट नई दिल्ली, एशियन जूनियर वूमेन हाकी वर्ल्ड कप क्वालीफाइंग टूर्नामेंट, तृतीय इंटरनेशनल कप फार वूमेन हॉकी, 11वें एशियन गेम्स बीजिंग (फाइनल मैच में आफिशियल), चतुर्थ इंदिरा गांधी इंटरनेशनल वूमेन हॉकी टूर्नामेंट जैसी प्रमुख प्रतियोगिताएं शामिल हैं। डा. सिद्धू 1994 हिरोशिमा गेम्स में भी अम्पायर के रूप में चुनी गई थीं। डा. अविनाश सिद्धू ने भारतीय महिला हॉकी टीम की मैनेजर के रूप में भी अपनी सेवाएं दी हैं। वे 1983 से 1985 तक भारतीय टीम की सिलेक्टर रही हैं। उन्होंने भारतीय महिला हॉकी टीम के लिए स्पोट्‌र्स साइकोलॉजिस्ट के रूप में भी अपनी सेवाएं दी हैं। उनकी पहचान एक श्रेष्ठ कोच के रूप में भी है।

सन्‌ 1970 में डा. अविनाश सिद्धू ने भारतीय महिला वालीबाल टीम का नेतृत्व भी किया। इसके अलावा राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कई बार उन्होंने मध्यप्रदेश की टीम का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने एथलेटिक्स (ट्रैक एण्ड फील्ड) के अंतर्गत 20वें नेशनल गेम्स में 4 गुणा 100 मीटर रिले और 800 मीटर दौड़ में भाग लिया और रिले में कांस्य पदक जीता। 1963-64 में उन्हें जबलपुर विश्वविद्यालय का सर्वश्रेष्ठ एथलीट घोषित किया गया। 1964 में नेशनल बास्केटबाल चैम्पियनशिप में मध्यप्रदेश टीम का प्रतिनिधित्व किया। वर्ष 1963 एवं 1965 में डा. सिद्धू ने इंटर यूनिवर्सिटी बास्केटबाल टूर्नामेंट में जबलपुर विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। दोनों प्रतियोगिताओं में वे टीम की कप्तान भी रहीं। वर्ष 1975 में हॉकी में उत्कृष्ट और उल्लेखनीय प्रदर्शन के लिए डा. सिद्धू को मध्यप्रदेश शासन ने विक्रम अवार्ड से सम्मानित किया। सच कहें तो डा. अविनाश कौर खेलों को समर्पित मध्य प्रदेश की महानतम शख्सियत हैं।