Thursday 23 July 2015

दिल्ली की रंज और जंग



देश की राजधानी दिल्ली में इन दिनों जो राजनीतिक महाभारत चल रहा है, उसे देखते हुए दिल्लीवासी पशोपेश में हैं। आम आदमी पार्टी की सरकार और दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच जो चल रहा है, उससे देशवासियों को बेशक कोई लेना-देना न हो लेकिन दिल्लीवासियों का इन बातों से गहरा वास्ता है। गुरुवार को दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने केन्द्र सरकार पर बदले की भावना से काम करने की तोहमत लगाई है। यह पहला वाक्या नहीं है जब आप ने केन्द्र पर नाराजगी जताई हो। उपराज्यपाल नजीब जंग और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के बीच की रंज उस दिन से महसूस की जा रही है, जिस दिन से आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की सल्तनत सम्हाली है। दिल्ली के चुनावी नतीजों के बाद बेशक संवैधानिक मर्यादा का पालन किया गया हो लेकिन उसके बाद लोकतांत्रिक परम्पराओं और शिष्टाचार को तार-तार करने का कोई मौका जाया नहीं हुआ। अरविन्द केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के साथ ही दिल्ली में निरंतर संवैधानिक व्यवस्थाओं का हवाला देते हुए निर्वाचित सरकार और उपराज्यपाल के बीच तनातनी की स्थिति बनी हुई है, जो कभी-कभी इतनी अप्रिय और नागवार होने की हद तक पहुंच जाती है कि लगता ही नहीं दो जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों के बीच ऐसी लड़ाई हो रही हो। कभी नियुक्तियों तो कभी अन्य अधिकारों को लेकर केजरीवाल और जंग निरंतर एक-दूसरे पर निशाना साधते रहे हैं। ताजा विवाद दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल को लेकर है। केजरीवाल सरकार ने स्वाति मालीवाल को जब से यह पद सौंपा, तभी से विरोधियों ने इस नियुक्ति पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। स्वाति को अरविन्द केजरीवाल का रिश्तेदार बताया गया, जब उन्होंने इसका खण्डन किया तो उसके बाद यह कहा गया कि वे नवीन जयहिन्द की पत्नी हैं, जो आप के नेता और अरविंद केजरीवाल के करीबी हैं। इस बात से कोई इनकार नहीं कि स्वाति मालीवाल प्रारम्भ से आप के आंदोलन से जुड़ी रही हैं और इस नियुक्ति के पूर्व दिल्ली सरकार में मुख्यमंत्री के सलाहकार के रूप में काम कर रही थीं। सोमवार को उन्होंने महिला आयोग का अध्यक्ष पद सम्हाला और कहा कि मैं आम आदमी पार्टी की कार्यकर्ता के रूप में नहीं बल्कि एक महिला और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करूंगी। जो काम आठ साल में नहीं हुए, वे आठ महीने में कर दिखाएंगी। वे अपने कामकाज का श्रीगणेश करतीं कि उपराज्यपाल ने उनकी नियुक्ति रद्द कर दी और दिल्ली एक बार फिर संवैधानिक अधिकारों की उलझनों में फंस गई। अधिकारों को लेकर ऐसी खींचातानी दिल्ली के लिए खतरनाक है। जनता ने अपना फैसला दोनों सरकारों के लिए सुनाया है लेकिन दोनों ही सरकारें जनता की उपेक्षा कर अपने हक और अहंकार की रक्षा में लगी हैं। लोकतंत्र केवल नियमों और संविधान की किताब से नहीं चलता, थोड़ा महत्व परम्पराओं का भी होता है, जिसका निर्वहन किया जाना चाहिए। 

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