ललित मोदी प्रकरण को लेकर हर दिन नए खुलासे हो रहे हैं और हर खुलासे के साथ मामले की सच्चाई समझना कठिन से कठिनतर होता जा रहा है। सबसे पहले सुषमा स्वराज का नाम आया, फिर उनके पति एवं पुत्री को भी लपेट लिया गया। उसके बाद वसुंधरा राजे पर आरोप लगना प्रारंभ हुए तथा उसमें उनके पति एवं पुत्र के नाम भी आ गए। इसके पश्चात सामने आई प्रियंका गांधी व रॉबर्ट वाड्रा की ललित मोदी के साथ कथित मुलाकात की खबर। सोमवार की शाम को एक पूर्वज्ञात सूचना को रेखांकित किया गया कि ललित मोदी का परिवार सिगरेट उत्पादन में संलग्न है, इस बिना पर क्रिकेट में घोटाले के साथ कैंसर फैलाने का आरोप भी लागू हो गया।
भारत में क्रिकेट एक बड़ा व्यवसाय बन चुका है। इसमें नैतिक-अनैतिक के बीच कोई सीमारेखा नहीं है। इस खेल का व्यापार ही ऐसा है जिसमें पार्टीगत राजनीति आड़े नहीं आती। देश के वर्तमान प्रधानमंत्री सहित अनेक नामी-गिरामी नेता क्रिकेट से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं। इनमें अधिक सक्रियजनों में शरद पवार, अरुण जेटली व राजीव शुक्ला के नाम लिए जा सकते हैं। इनसे क्रिकेट को फायदा हुआ अथवा इन्होंने क्रिकेट से लाभ उठाया, इस पर फैसला होना बाकी है। आईपीएल के प्रारंभिक दिनों में ही पत्रकार आलम श्रीनिवास ने इस विषय पर जो शोधपरक पुस्तक लिखी थी, वह खेलप्रेमियों को पढ़ लेना चाहिए। इस मुद्दे को लेकर भाजपा के भीतर ही अरुण जेटली व कीर्ति आजाद के आपसी विवाद सामने आए।
विगत तीन सप्ताह के भीतर ललित मोदी प्रकरण को लेकर जो सूचनाएं सामने आर्इं, उनसे यह तो स्पष्ट है कि ललित मोदी ने 2010 में भारत छोड़कर इंग्लैंड में शरण ले ली। उनके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय की जांच प्रारंभ की एवं उनका पासपोर्ट रद्द कर दिया गया, जो बाद में मुंबई उच्च न्यायालय ने बहाल किया किन्तु उसके खिलाफ सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर नहीं की। ललित मोदी को पुर्तगाल जाने के लिए ब्रिटिश आव्रजन कार्यालय ने भारत सरकार से अनापत्ति प्रमाण-पत्र मांगा, जो विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उपलब्ध करवाया। ललित मोदी की पत्नी का लिस्बन के जिस अस्पताल में उपचार चल रहा है, उसी को जयपुर शहर में अस्पताल खोलने के लिए वसुंधरा राजे ने कीमती सरकारी जमीन दे दी। इससे कहीं अधिक गंभीर यह तथ्य भी प्रकट हुआ कि राजस्थान विधानसभा में विपक्ष की नेता रहते हुए वसुन्धरा राजे ने ब्रिटिश सरकार को गोपनीयता की शर्त पर हलफनामा दिया कि ललित मोदी से उनके पारिवारिक संबंध हैं, इसलिए यूपीए सरकार द्वारा ललित मोदी को राजनीतिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है। सुषमा स्वराज ने तो मानवीय आधार पर सहायता की पेशकश की थी; वसुंधरा ने उसे राजनीतिक स्वरूप प्रदान कर दिया। हलफनामे को गोपनीय रखने की शर्त तो और भी विचित्र है। ललित मोदी ने लंदन के किसी रेस्तरां में रॉबर्ट वाड्रा व प्रियंका गांधी से अकस्मात भेंट हो जाने का दावा किया है। इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। वाड्रा भी आज के सुविधाभोगी समाज की युवापीढ़ी से भिन्न नहीं हैं। इस समूचे प्रकरण में कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार को लगातार घेरे हुए है व दबाव बना रही है कि स्वराज व राजे के इस्तीफे लिए जाएं। कांग्रेस के ये आक्रामक तेवर राजनीतिक दृष्टि से सही हैं। उसके प्रवक्ता दस्तावेजों एवं तर्कों के आधार पर हल्ला बोल रहे हैं। प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते यह उसका अधिकार है कि वह सत्तारूढ़ दल की कमजोरियों को उजागर करे। इसमें दिलचस्प तथ्य यह है कि शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी खुलकर विरोध करने से बच रही है तथा वही रवैया मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने भी अपना रखा है। शरद यादव के स्वराज कौशल व सुषमा स्वराज के साथ आपातकाल के दिनों से सौहार्द्रपूर्ण संबंध रहे हैं, इसलिए उनका चुप रहना समझ आता है। बहरहाल, नरेंद्र मोदी कांग्रेस पार्टी की मांग पूरी करने के मूड में नजर नहीं आते। जो अर्णव गोस्वामी एक साल पहले तक उग्र स्वर में कांग्रेस की आलोचना करते थे, वे आज उसी उग्रता के साथ भाजपा नेताओं की खबर ले रहे हैं, किंतु नरेन्द्र मोदी उनकी मांग को भी अनसुनी कर रहे हैं। प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री ने अपने दोनों कान बंद कर लिए हैं। जनता उम्मीद लगाए बैठी थी कि वह मन की बात में कुछ कहेंगे, लेकिन इस मामले में वे बिल्कुल मौन रहे। सोशल मीडिया में अब उनका नया नामकरण हो गया है- मौनेंद्र मोदी।
यह समझना होगा कि इतनी सार्वजनिक आलोचना, नेताओं की छवि एवं पार्टी की प्रतिष्ठा पर आंच आने के बावजूद वे जनापेक्षा के अनुकूल कोई निर्णय लेने से क्यों कतरा रहे हैं? इसके लिए कुछ तो इतिहास में जाना होगा और कुछ वर्तमान को देखना होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चुप्पी या अनिर्णय को समझने के लिए हमें शायद उन दिनों को ध्यान में रखना चाहिए जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। अपने बारह साल के कार्यकाल में नरेन्द मोदी ने कब किसकी बात मानी? क्या यह याद दिलाने की आवश्यकता है कि उन्होंने अपने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा राजधर्म का पालन करने की सीख को भी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया था? क्या यह आईने की तरह साफ नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने जनमत की कभी परवाह नहीं की? मोदी की आलोचना चाहे निजी जीवन को लेकर की गई हो, चाहे मुख्यमंत्री के रूप में लिए गए निर्णयों पर, उन्होंने हर अवसर पर मौन रहना ही श्रेयस्कर समझा है। आज प्रधानमंत्री के रूप में भी संभवत: वे इस पुराने आजमाए गए नुस्खे का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। देशव्यापी पैमाने पर नुस्खा कितना कारगर हो पाता है, यह कहना कठिन है, किंतु आज की सोच शायद यही है कि जो चिल्ला रहे हैं उन्हें चिल्लाने दो, एक दिन थककर सब अपने आप चुप हो जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी को शायद यह विश्वास भी है कि वे जिस शीर्ष पर हैं, वहां उनके सामने कोई चुनौती, कोई खतरा नहीं है। हमें शायद इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी का चरित्र कांग्रेस पार्टी से एकदम भिन्न है। भाजपा मूलत: एक कैडर आधारित पार्टी है, जहां आज के तमाम बड़े नेता साथ-साथ रहते हुए आगे बढ़े हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पितृ संगठन के रूप में इन्हें एक सूत्र में बांधे रखने के तमाम प्रयत्न पर्दे के पीछे से करता है। इसलिए जब किसी पर मुसीबत आन पड़े, कोई मुश्किल आ खड़ी हो जाए तो निजी मतभेदों को कुछ देर के लिए दरकिनार कर सब एकजुट हो जाते हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी रहे हों या लालकृष्ण आडवानी-वे तक फूं-फां करने से अधिक कुछ नहीं कर पाते। जिनकी पृष्ठभूमि संघ की नहीं है, मसलन यशवंत सिन्हा या कीर्ति आजाद, ऐसे लोगों का यथासमय उपयोग अवश्य किया जाता है, पर पार्टी के भीतर उनकी एक नहीं चलती। इसके बरक्स कांग्रेस एक जन आधारित पार्टी है। वह सार्वजनिक आलोचनाओं से असुविधा महसूस करती है। इसलिए केन्द्र हो या प्रदेश-पिछले 65 साल में कितनी ही बार कांग्रेसी मंत्रियों को नैतिक जिम्मेदारी लेकर पद छोड़ने पर विवश होना पड़ा है। यह बात दीगर है कि हाल के समय में पार्टी को इस्तीफे लेने में जितनी त्वरा दिखाना चाहिए थी, वह उसका परिचय नहीं दे सकी। कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी अपने परिवार के सदस्यों की देखभाल ठीक तरह से करती है। कोई बेटा नालायक निकल जाए तो उसे घर से बाहर नहीं करती।
यदि नरेंद्र मोदी अपने विवादास्पद सहयोगियों के त्याग-पत्र नहीं ले रहे हैं तो उसका एक और कारण हो सकता है। बिहार में विधानसभा चुनाव होने में मात्र 10-12 सप्ताह बाकी हैं। अगर अभी इस्तीफे मांगे गए तो इससे समीकरण बिगड़ने की आशंका बन सकती है। बेहतर है कि फिलहाल जो जहां है, उसे वहीं रहने दिया जाए। अगर कोई बड़ा फैसला लेना ही है तो वह बिहार चुनाव के बाद भी लिया जा सकता है। आज केन्द्र में भाजपा के पास स्पष्ट बहुमत है, राजस्थान विधानसभा में भी। इसलिए सरकार को तो कोई खतरा है नहीं। इस्तीफे न होने पर संसद के मानसून सत्र में हंगामा मच सकता है तो इससे क्या? अधिक से अधिक यही होगा कि कुछ और बिल शीतकालीन सत्र तक के लिए टल जाएंगे तो टल जाएं। अपने मन का कोई फैसला लागू करने के लिए अध्यादेश लाना होगा तो वह कर लिया जाएगा। सबसे बड़ी बात तो यही है कि पांच साल राज करने का अवसर मिला है तो उसमें कोई विघ्न-बाधा उत्पन्न न हो।
ललित सुरजन
भारत में क्रिकेट एक बड़ा व्यवसाय बन चुका है। इसमें नैतिक-अनैतिक के बीच कोई सीमारेखा नहीं है। इस खेल का व्यापार ही ऐसा है जिसमें पार्टीगत राजनीति आड़े नहीं आती। देश के वर्तमान प्रधानमंत्री सहित अनेक नामी-गिरामी नेता क्रिकेट से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं। इनमें अधिक सक्रियजनों में शरद पवार, अरुण जेटली व राजीव शुक्ला के नाम लिए जा सकते हैं। इनसे क्रिकेट को फायदा हुआ अथवा इन्होंने क्रिकेट से लाभ उठाया, इस पर फैसला होना बाकी है। आईपीएल के प्रारंभिक दिनों में ही पत्रकार आलम श्रीनिवास ने इस विषय पर जो शोधपरक पुस्तक लिखी थी, वह खेलप्रेमियों को पढ़ लेना चाहिए। इस मुद्दे को लेकर भाजपा के भीतर ही अरुण जेटली व कीर्ति आजाद के आपसी विवाद सामने आए।
विगत तीन सप्ताह के भीतर ललित मोदी प्रकरण को लेकर जो सूचनाएं सामने आर्इं, उनसे यह तो स्पष्ट है कि ललित मोदी ने 2010 में भारत छोड़कर इंग्लैंड में शरण ले ली। उनके खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय की जांच प्रारंभ की एवं उनका पासपोर्ट रद्द कर दिया गया, जो बाद में मुंबई उच्च न्यायालय ने बहाल किया किन्तु उसके खिलाफ सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर नहीं की। ललित मोदी को पुर्तगाल जाने के लिए ब्रिटिश आव्रजन कार्यालय ने भारत सरकार से अनापत्ति प्रमाण-पत्र मांगा, जो विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने उपलब्ध करवाया। ललित मोदी की पत्नी का लिस्बन के जिस अस्पताल में उपचार चल रहा है, उसी को जयपुर शहर में अस्पताल खोलने के लिए वसुंधरा राजे ने कीमती सरकारी जमीन दे दी। इससे कहीं अधिक गंभीर यह तथ्य भी प्रकट हुआ कि राजस्थान विधानसभा में विपक्ष की नेता रहते हुए वसुन्धरा राजे ने ब्रिटिश सरकार को गोपनीयता की शर्त पर हलफनामा दिया कि ललित मोदी से उनके पारिवारिक संबंध हैं, इसलिए यूपीए सरकार द्वारा ललित मोदी को राजनीतिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है। सुषमा स्वराज ने तो मानवीय आधार पर सहायता की पेशकश की थी; वसुंधरा ने उसे राजनीतिक स्वरूप प्रदान कर दिया। हलफनामे को गोपनीय रखने की शर्त तो और भी विचित्र है। ललित मोदी ने लंदन के किसी रेस्तरां में रॉबर्ट वाड्रा व प्रियंका गांधी से अकस्मात भेंट हो जाने का दावा किया है। इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है। वाड्रा भी आज के सुविधाभोगी समाज की युवापीढ़ी से भिन्न नहीं हैं। इस समूचे प्रकरण में कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार को लगातार घेरे हुए है व दबाव बना रही है कि स्वराज व राजे के इस्तीफे लिए जाएं। कांग्रेस के ये आक्रामक तेवर राजनीतिक दृष्टि से सही हैं। उसके प्रवक्ता दस्तावेजों एवं तर्कों के आधार पर हल्ला बोल रहे हैं। प्रमुख विपक्षी दल होने के नाते यह उसका अधिकार है कि वह सत्तारूढ़ दल की कमजोरियों को उजागर करे। इसमें दिलचस्प तथ्य यह है कि शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी खुलकर विरोध करने से बच रही है तथा वही रवैया मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने भी अपना रखा है। शरद यादव के स्वराज कौशल व सुषमा स्वराज के साथ आपातकाल के दिनों से सौहार्द्रपूर्ण संबंध रहे हैं, इसलिए उनका चुप रहना समझ आता है। बहरहाल, नरेंद्र मोदी कांग्रेस पार्टी की मांग पूरी करने के मूड में नजर नहीं आते। जो अर्णव गोस्वामी एक साल पहले तक उग्र स्वर में कांग्रेस की आलोचना करते थे, वे आज उसी उग्रता के साथ भाजपा नेताओं की खबर ले रहे हैं, किंतु नरेन्द्र मोदी उनकी मांग को भी अनसुनी कर रहे हैं। प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री ने अपने दोनों कान बंद कर लिए हैं। जनता उम्मीद लगाए बैठी थी कि वह मन की बात में कुछ कहेंगे, लेकिन इस मामले में वे बिल्कुल मौन रहे। सोशल मीडिया में अब उनका नया नामकरण हो गया है- मौनेंद्र मोदी।
यह समझना होगा कि इतनी सार्वजनिक आलोचना, नेताओं की छवि एवं पार्टी की प्रतिष्ठा पर आंच आने के बावजूद वे जनापेक्षा के अनुकूल कोई निर्णय लेने से क्यों कतरा रहे हैं? इसके लिए कुछ तो इतिहास में जाना होगा और कुछ वर्तमान को देखना होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चुप्पी या अनिर्णय को समझने के लिए हमें शायद उन दिनों को ध्यान में रखना चाहिए जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। अपने बारह साल के कार्यकाल में नरेन्द मोदी ने कब किसकी बात मानी? क्या यह याद दिलाने की आवश्यकता है कि उन्होंने अपने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा राजधर्म का पालन करने की सीख को भी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल दिया था? क्या यह आईने की तरह साफ नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने जनमत की कभी परवाह नहीं की? मोदी की आलोचना चाहे निजी जीवन को लेकर की गई हो, चाहे मुख्यमंत्री के रूप में लिए गए निर्णयों पर, उन्होंने हर अवसर पर मौन रहना ही श्रेयस्कर समझा है। आज प्रधानमंत्री के रूप में भी संभवत: वे इस पुराने आजमाए गए नुस्खे का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। देशव्यापी पैमाने पर नुस्खा कितना कारगर हो पाता है, यह कहना कठिन है, किंतु आज की सोच शायद यही है कि जो चिल्ला रहे हैं उन्हें चिल्लाने दो, एक दिन थककर सब अपने आप चुप हो जाएंगे। प्रधानमंत्री मोदी को शायद यह विश्वास भी है कि वे जिस शीर्ष पर हैं, वहां उनके सामने कोई चुनौती, कोई खतरा नहीं है। हमें शायद इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी का चरित्र कांग्रेस पार्टी से एकदम भिन्न है। भाजपा मूलत: एक कैडर आधारित पार्टी है, जहां आज के तमाम बड़े नेता साथ-साथ रहते हुए आगे बढ़े हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पितृ संगठन के रूप में इन्हें एक सूत्र में बांधे रखने के तमाम प्रयत्न पर्दे के पीछे से करता है। इसलिए जब किसी पर मुसीबत आन पड़े, कोई मुश्किल आ खड़ी हो जाए तो निजी मतभेदों को कुछ देर के लिए दरकिनार कर सब एकजुट हो जाते हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी रहे हों या लालकृष्ण आडवानी-वे तक फूं-फां करने से अधिक कुछ नहीं कर पाते। जिनकी पृष्ठभूमि संघ की नहीं है, मसलन यशवंत सिन्हा या कीर्ति आजाद, ऐसे लोगों का यथासमय उपयोग अवश्य किया जाता है, पर पार्टी के भीतर उनकी एक नहीं चलती। इसके बरक्स कांग्रेस एक जन आधारित पार्टी है। वह सार्वजनिक आलोचनाओं से असुविधा महसूस करती है। इसलिए केन्द्र हो या प्रदेश-पिछले 65 साल में कितनी ही बार कांग्रेसी मंत्रियों को नैतिक जिम्मेदारी लेकर पद छोड़ने पर विवश होना पड़ा है। यह बात दीगर है कि हाल के समय में पार्टी को इस्तीफे लेने में जितनी त्वरा दिखाना चाहिए थी, वह उसका परिचय नहीं दे सकी। कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी अपने परिवार के सदस्यों की देखभाल ठीक तरह से करती है। कोई बेटा नालायक निकल जाए तो उसे घर से बाहर नहीं करती।
यदि नरेंद्र मोदी अपने विवादास्पद सहयोगियों के त्याग-पत्र नहीं ले रहे हैं तो उसका एक और कारण हो सकता है। बिहार में विधानसभा चुनाव होने में मात्र 10-12 सप्ताह बाकी हैं। अगर अभी इस्तीफे मांगे गए तो इससे समीकरण बिगड़ने की आशंका बन सकती है। बेहतर है कि फिलहाल जो जहां है, उसे वहीं रहने दिया जाए। अगर कोई बड़ा फैसला लेना ही है तो वह बिहार चुनाव के बाद भी लिया जा सकता है। आज केन्द्र में भाजपा के पास स्पष्ट बहुमत है, राजस्थान विधानसभा में भी। इसलिए सरकार को तो कोई खतरा है नहीं। इस्तीफे न होने पर संसद के मानसून सत्र में हंगामा मच सकता है तो इससे क्या? अधिक से अधिक यही होगा कि कुछ और बिल शीतकालीन सत्र तक के लिए टल जाएंगे तो टल जाएं। अपने मन का कोई फैसला लागू करने के लिए अध्यादेश लाना होगा तो वह कर लिया जाएगा। सबसे बड़ी बात तो यही है कि पांच साल राज करने का अवसर मिला है तो उसमें कोई विघ्न-बाधा उत्पन्न न हो।
ललित सुरजन
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