जितनी बड़ी चादर हो, उतने ही पैर पसारो। यह कहावत नहीं बल्कि नसीहत है। सिकन्दर के देश यूनान के हुक्मरानों ने इस नसीहत को न मानकर ही अपनी आवाम को संकट में डाल दिया है। यूनान के मौजूदा वित्तीय संकट के लिए उसकी सहखर्ची और 2004 के ओलम्पिक खेलों को माना जा रहा है। आज दुनिया के कई मुल्क आर्थिक विकास की मृग मरीचिका, भ्रष्टाचार और अविचारित विलासिता के दुष्परिणाम का शिकार हैं। यूनान के लिए आने वाले कुछ दिन न बिसरने वाला लम्हा साबित हो सकते हैं। फिलवक्त यूनान लगभग दिवालिया होने की स्थिति में पहुंच चुका है। वहां के बैंकों को जहां बंद कर दिया गया है वहीं लोगों को एटीएम से सीमित राशि ही निकालने की इजाजत है। उद्योग-धंधे ठप होने से बेरोजगारी सातवें आसमान पर पहुंच गई है। सरकार कर्जदाताओं के आगे लाचार है।
मानव समाज में जो पहले पहल आधुनिक सभ्यता और आर्थिक समृद्धि पनपी, उसमें यूनान अग्रणी देशों में रहा है। यूनान के बहाने आज दुनिया पूंजीवादी आर्थिक साम्राज्यवाद का विध्वंस बिल्कुल करीब देख रही है। जिस यूरोप की धरती से इस साम्राज्य का विस्तार हुआ, उसी यूरोप का एक छोटा देश पूंजीवादी आर्थिक उदारवाद के चंगुल में फंसकर अपनी आर्थिक हैसियत को लगभग चौपट कर चुका है। यूनान को अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से लिया डेढ़ अरब यूरो कर्ज चुकाना है। यह आसान नहीं है क्योंकि यूरोपियन सेण्ट्रल बैंक ने उसे आपातकालीन निधि देने से इनकार कर दिया है। यूनान पर आये इस आर्थिक संकट से दुनिया के शेयर बाजार लगातार गिर रहे हैं। यूनान में जो घटित हुआ, यह सब अचानक एक दिन की बात नहीं है, वहां पिछले कई वर्षों से इस दिवालियेपन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी। बार-बार चेतावनी के संकेत भी मिल रहे थे बावजूद इसके वहां की सरकार और प्रशासन ने खस्ताहाल स्थिति की अनदेखी कर शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर डाले रखा ताकि संकट दिखे ही नहीं। यूनान को इस संकट का शिकार इसलिए होना पड़ा क्योंकि उसने अपनी आर्थिक हैसियत से ज्यादा सहखर्ची को प्राथमिकता देने का गुनाह किया।
यूनान यूरोपीय देश होने के बावजूद कभी साम्राज्यवादी देश तो नहीं रहा लेकिन उसने पूंजीवाद की हिमायत जरूर की। यूनान की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के लिए वर्तमान वामपंथी सरकार पर दोष मढ़ा जा रहा है। दरअसल, यूरोपीय संघ में शामिल होने के बाद यूनान से कुछ ऐसी चूक हुर्इं जिनका खामियाजा आज उसे भुगतना पड़ रहा है। उसने यूरो को ही मुद्रा के रूप में अपनाया बगैर यह विचार किए कि अपनी मुद्रा बनाए रखने के क्या फायदे हैं। सच यह है कि अपनी मुद्रा का अधिकार जब देश के पास रहता है तो जरूरत पड़ने पर वह रोजगार सृजित करने, निर्यात बढ़ाने के साथ ही उसका मूल्य अपनी शर्तों पर निर्धारित कर सकता है। बाजार में स्थिरता लाने के लिए मुद्रा की आपूर्ति कितनी हो यह सुनिश्चित करने को भी वह स्वतंत्र होता है। दुर्भाग्य से यूरो के साथ यह छूट यूनान नहीं ले पाया। जनवरी 2015 में सम्पन्न यूनान के चुनावों में साम्यवादी नेता एलेक्सिस सिपरास की जीत ने पूरे यूरोप की आर्थिक व्यवस्था में खलबली मचा दी थी। एलेक्सिस सिपरास ने इस मुद्दे पर चुनाव लड़ा था कि जीतने के बाद वे यूरोजोन के अन्य देशों द्वारा निर्देशित यूनान के सरकारी खर्च में किसी भी प्रकार की कटौती को स्वीकार नहीं करेंगे। यूरो बेशक मजबूत मुद्रा है, लेकिन उसकी यह मजबूती फ्रांस, जर्मनी जैसी मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देशों के कारण है।
यूनान के नये नेतृत्व का कहना है कि यूरो जोन के अन्य देशों द्वारा कटौती थोपे जाने और आईएमएफ, यूरोपीय समुदाय के केन्द्रीय बैंक और यूरोपीय आयोग की तिकड़ी की हिटलरशाही के चलते उनका मुल्क बर्बाद हो रहा है। सरकार कुछ भी कहे पर यूनान में आर्थिक संकट की शुरुआत बहुत पहले ही हो गई थी। दुनिया को ओलम्पिक से परिचित कराने वाले यूनान को वर्ष 2004 में इस खेल महाकुम्भ की मेजबानी बहुत महंगी पड़ी। पश्चिमी सभ्यता की जन्मस्थली माने जाने वाले यूनान में कालांतर में हर चार साल में ओलम्पिक खेलों का आयोजन होता था। इसकी शुरुआत 776 ईसा पूर्व में हुई थी। ईसा पूर्व पांचवीं तथा छठी शताब्दी में ये खेल अपने चरम पर थे लेकिन यूनान पर रोमनों के आधिपत्य के बाद इन खेलों की महत्ता धीरे-धीरे समाप्त हो गयी। इसके बाद पहले आधुनिक ओलम्पिक खेलों का आयोजन भी यूनान की राजधानी एथेंस में ही वर्ष 1896 में हुआ था। यूनान ने आधुनिक ओलम्पिक के 100 साल पूरे होने पर 1996 में भी इन खेलों की मेजबानी की कोशिश की थी, पर वह नाकाम रहा। वर्ष 2004 में यूनान को ओलम्पिक की मेजबानी मिली और उसने खेल महाकुम्भ को यादगार बनाने की खातिर भारी कर्ज ले लिया। उसने इन खेलों पर लगभग 11 अरब डॉलर खर्च किए थे। तब ओलम्पिक मेजबानी से यूनानवासी गर्व से फूले नहीं समा रहे थे लेकिन आज यही आयोजन देश में रोष की वजह बन गया है। माना जाता है कि ओलम्पिक के आयोजन पर अनाप-शनाप खर्च, पिछली सरकारों की भ्रष्टाचार में संलिप्तता और उसके बाद 2007-08 में भयावह यूरोपीय मंदी के चलते ही उसकी हालत खस्ता हुई है।
दुनिया में सिर्फ यूनान ही नहीं साइप्रस, आयरलैंड, इटली, पुर्तगाल, स्पेन आदि भी आर्थिक खस्ताहाल स्थिति से गुजर रहे हैं। आर्थिक संकट से जूझ रहे यूरोपीय देशों को राहत देने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, यूरोपीय केन्द्रीय बैंक और यूरोपीय आयोग आदि ने सहायता पैकेज तो दिये लेकिन इन सहायता पैकेजों का इस्तेमाल पुराने कर्जे चुकाने पर ही हो गया। पिछले पांच साल में यूनान की जीडीपी 25 प्रतिशत कम हुई तो बेरोजगारी 60 प्रतिशत तक पहुंच गई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कर्जदाताओं ने उस पर कटौतियों और टैक्स लगाने की सख्त शर्तें भी थोप दीं। मौजूदा हालातों में यूनान सरकार अपनी आवाम को दो विकल्प देते हुए जनमत संग्रह करा रही है तो यूरोपीय समुदाय के नेता जनमत संग्रह नहीं होने देना चाहते। आर्थिक संकट से जूझ रहे यूनानवासियों के सामने न केवल जीवनयापन बल्कि सम्मान और गरिमा के साथ जीने पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है। यूनान में जो हुआ उससे सबक लेते हुए अन्य लोकतांत्रिक देशों की सरकारों को भी समझना चाहिए कि जब वे मनमानी भरे निर्णय लेते हैं तो उसका असर किस तरह जनता पर पड़ता है। यूनान संकट से फिलहाल भारत चिन्तामुक्त है क्योंकि उसके यूनान से ज्यादा गहरे आर्थिक सम्बन्ध नहीं हैं। दूसरी बात यह कि वह न तो उत्पादक देश है और न ही बड़ा उपभोक्ता रह गया है। भारत सरकार को यूनान से सबक लेते हुए बड़ी-बड़ी बातों और घोषणाओं से तो परहेज करना ही चाहिए।
मानव समाज में जो पहले पहल आधुनिक सभ्यता और आर्थिक समृद्धि पनपी, उसमें यूनान अग्रणी देशों में रहा है। यूनान के बहाने आज दुनिया पूंजीवादी आर्थिक साम्राज्यवाद का विध्वंस बिल्कुल करीब देख रही है। जिस यूरोप की धरती से इस साम्राज्य का विस्तार हुआ, उसी यूरोप का एक छोटा देश पूंजीवादी आर्थिक उदारवाद के चंगुल में फंसकर अपनी आर्थिक हैसियत को लगभग चौपट कर चुका है। यूनान को अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से लिया डेढ़ अरब यूरो कर्ज चुकाना है। यह आसान नहीं है क्योंकि यूरोपियन सेण्ट्रल बैंक ने उसे आपातकालीन निधि देने से इनकार कर दिया है। यूनान पर आये इस आर्थिक संकट से दुनिया के शेयर बाजार लगातार गिर रहे हैं। यूनान में जो घटित हुआ, यह सब अचानक एक दिन की बात नहीं है, वहां पिछले कई वर्षों से इस दिवालियेपन की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी। बार-बार चेतावनी के संकेत भी मिल रहे थे बावजूद इसके वहां की सरकार और प्रशासन ने खस्ताहाल स्थिति की अनदेखी कर शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर डाले रखा ताकि संकट दिखे ही नहीं। यूनान को इस संकट का शिकार इसलिए होना पड़ा क्योंकि उसने अपनी आर्थिक हैसियत से ज्यादा सहखर्ची को प्राथमिकता देने का गुनाह किया।
यूनान यूरोपीय देश होने के बावजूद कभी साम्राज्यवादी देश तो नहीं रहा लेकिन उसने पूंजीवाद की हिमायत जरूर की। यूनान की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के लिए वर्तमान वामपंथी सरकार पर दोष मढ़ा जा रहा है। दरअसल, यूरोपीय संघ में शामिल होने के बाद यूनान से कुछ ऐसी चूक हुर्इं जिनका खामियाजा आज उसे भुगतना पड़ रहा है। उसने यूरो को ही मुद्रा के रूप में अपनाया बगैर यह विचार किए कि अपनी मुद्रा बनाए रखने के क्या फायदे हैं। सच यह है कि अपनी मुद्रा का अधिकार जब देश के पास रहता है तो जरूरत पड़ने पर वह रोजगार सृजित करने, निर्यात बढ़ाने के साथ ही उसका मूल्य अपनी शर्तों पर निर्धारित कर सकता है। बाजार में स्थिरता लाने के लिए मुद्रा की आपूर्ति कितनी हो यह सुनिश्चित करने को भी वह स्वतंत्र होता है। दुर्भाग्य से यूरो के साथ यह छूट यूनान नहीं ले पाया। जनवरी 2015 में सम्पन्न यूनान के चुनावों में साम्यवादी नेता एलेक्सिस सिपरास की जीत ने पूरे यूरोप की आर्थिक व्यवस्था में खलबली मचा दी थी। एलेक्सिस सिपरास ने इस मुद्दे पर चुनाव लड़ा था कि जीतने के बाद वे यूरोजोन के अन्य देशों द्वारा निर्देशित यूनान के सरकारी खर्च में किसी भी प्रकार की कटौती को स्वीकार नहीं करेंगे। यूरो बेशक मजबूत मुद्रा है, लेकिन उसकी यह मजबूती फ्रांस, जर्मनी जैसी मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देशों के कारण है।
यूनान के नये नेतृत्व का कहना है कि यूरो जोन के अन्य देशों द्वारा कटौती थोपे जाने और आईएमएफ, यूरोपीय समुदाय के केन्द्रीय बैंक और यूरोपीय आयोग की तिकड़ी की हिटलरशाही के चलते उनका मुल्क बर्बाद हो रहा है। सरकार कुछ भी कहे पर यूनान में आर्थिक संकट की शुरुआत बहुत पहले ही हो गई थी। दुनिया को ओलम्पिक से परिचित कराने वाले यूनान को वर्ष 2004 में इस खेल महाकुम्भ की मेजबानी बहुत महंगी पड़ी। पश्चिमी सभ्यता की जन्मस्थली माने जाने वाले यूनान में कालांतर में हर चार साल में ओलम्पिक खेलों का आयोजन होता था। इसकी शुरुआत 776 ईसा पूर्व में हुई थी। ईसा पूर्व पांचवीं तथा छठी शताब्दी में ये खेल अपने चरम पर थे लेकिन यूनान पर रोमनों के आधिपत्य के बाद इन खेलों की महत्ता धीरे-धीरे समाप्त हो गयी। इसके बाद पहले आधुनिक ओलम्पिक खेलों का आयोजन भी यूनान की राजधानी एथेंस में ही वर्ष 1896 में हुआ था। यूनान ने आधुनिक ओलम्पिक के 100 साल पूरे होने पर 1996 में भी इन खेलों की मेजबानी की कोशिश की थी, पर वह नाकाम रहा। वर्ष 2004 में यूनान को ओलम्पिक की मेजबानी मिली और उसने खेल महाकुम्भ को यादगार बनाने की खातिर भारी कर्ज ले लिया। उसने इन खेलों पर लगभग 11 अरब डॉलर खर्च किए थे। तब ओलम्पिक मेजबानी से यूनानवासी गर्व से फूले नहीं समा रहे थे लेकिन आज यही आयोजन देश में रोष की वजह बन गया है। माना जाता है कि ओलम्पिक के आयोजन पर अनाप-शनाप खर्च, पिछली सरकारों की भ्रष्टाचार में संलिप्तता और उसके बाद 2007-08 में भयावह यूरोपीय मंदी के चलते ही उसकी हालत खस्ता हुई है।
दुनिया में सिर्फ यूनान ही नहीं साइप्रस, आयरलैंड, इटली, पुर्तगाल, स्पेन आदि भी आर्थिक खस्ताहाल स्थिति से गुजर रहे हैं। आर्थिक संकट से जूझ रहे यूरोपीय देशों को राहत देने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, यूरोपीय केन्द्रीय बैंक और यूरोपीय आयोग आदि ने सहायता पैकेज तो दिये लेकिन इन सहायता पैकेजों का इस्तेमाल पुराने कर्जे चुकाने पर ही हो गया। पिछले पांच साल में यूनान की जीडीपी 25 प्रतिशत कम हुई तो बेरोजगारी 60 प्रतिशत तक पहुंच गई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कर्जदाताओं ने उस पर कटौतियों और टैक्स लगाने की सख्त शर्तें भी थोप दीं। मौजूदा हालातों में यूनान सरकार अपनी आवाम को दो विकल्प देते हुए जनमत संग्रह करा रही है तो यूरोपीय समुदाय के नेता जनमत संग्रह नहीं होने देना चाहते। आर्थिक संकट से जूझ रहे यूनानवासियों के सामने न केवल जीवनयापन बल्कि सम्मान और गरिमा के साथ जीने पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है। यूनान में जो हुआ उससे सबक लेते हुए अन्य लोकतांत्रिक देशों की सरकारों को भी समझना चाहिए कि जब वे मनमानी भरे निर्णय लेते हैं तो उसका असर किस तरह जनता पर पड़ता है। यूनान संकट से फिलहाल भारत चिन्तामुक्त है क्योंकि उसके यूनान से ज्यादा गहरे आर्थिक सम्बन्ध नहीं हैं। दूसरी बात यह कि वह न तो उत्पादक देश है और न ही बड़ा उपभोक्ता रह गया है। भारत सरकार को यूनान से सबक लेते हुए बड़ी-बड़ी बातों और घोषणाओं से तो परहेज करना ही चाहिए।
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