Saturday, 29 March 2014

सियासत के मैदान में खिलाड़ियों की ताल

खेल के मैदान में अपने पौरुष का कमाल दिखाने वाले खिलाड़ियों के लिए सियासत का मैदान कभी भी मुफीद नहीं रहा बावजूद समय-समय पर खिलाड़ियों ने विभिन्न राजनीतिक दलों से चुनावी मैदान में ताल जरूर ठोकी है। असलम शेरखान, कीर्ति आजाद, नवजोत सिंह सिद्धू और मोहम्मद अजहरुद्दीन जैसे नामचीन खिलाड़ी जीत वरण कर संसद तो पहुंचे पर इससे मुल्क के खिलाड़ियों का तनिक भी भला नहीं हुआ। सच तो यह है कि राजनीतिक दलों ने खिलाड़ियों की भलाई के लिए नहीं बल्कि अपनी सियासत को मुकम्मल करने की खातिर ही इन्हें मैदान में उतारा। बीते साल सचिन तेंदुलकर को भी कांग्रेस ने राज्यसभा की चौखट तक पहुंचाया था। कांग्रेस की मंशा तो सचिन को वाराणसी में नरेन्द्र मोदी के खिलाफ चुनावी मैदान में उतारने की भी थी लेकिन वह तैयार नहीं हुए। कांग्रेस ने सचिन तो क्या हरभजन सिंह और युवराज को भी सियासत के मैदान में उतारने की पुरजोर कोशिश की लेकिन इन्होंने भी साफ मना कर दिया। जो भी हो लोकतंत्र के सोलहवें महाकुम्भ में फुटबालर बाईचुंग भूटिया, ओलम्पिक पदक विजेता राज्यवर्धन सिंह राठौड़, क्रिकेटर मोहम्मद कैफ तथा भारतीय हाकी की दीवार कहे जाने वाले पूर्व कप्तान दिलीप टिर्की जैसे नामचीन खिलाड़ी विभिन्न राजनीतिक दलों से अपनी राजनीतिक पारी के आगाज को तैयार हैं। अटकलें तो हाकी के सचिन कहे जाने वाले धनराज पिल्लै के भी चुनावी समर में कूदने की सरगर्म हैं। धनराज पिल्लै आम आदमी पार्टी में शामिल हो चुके हैं। अब तक सियासत के मैदान में उतरने वाले खिलाड़ियों में क्रिकेटरों की संख्या ही अधिक रही है।
मौजूदा लोकसभा चुनाव में भारत के पूर्व कप्तान और देश के सबसे अनुभवी फुटबालर बाइचुंग भूटिया दार्जिलिंग लोकसभा सीट से तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार हैं। अर्जुन पुरस्कार और पद्मश्री समेत कई पुरस्कार और सम्मान हासिल कर चुके भूटिया ने अगस्त 2011 में अंतरराष्ट्रीय फुटबाल को अलविदा कह दिया था। अपने चुस्त क्षेत्ररक्षण के लिये मशहूर पूर्व क्रिकेटर मोहम्मद कैफ उत्तरप्रदेश की फूलपुर लोकसभा सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी हैं। कैफ ने भारत के लिये 13 टेस्ट और 125 वनडे खेले हैं। आखिरी बार वे भारतीय टीम से 2006 में खेले थे लेकिन उत्तर प्रदेश के लिये घरेलू सर्किट पर आज भी खेलते हैं। 33 साल के कैफ को राजनीतिक अनुभव नहीं है लेकिन कांग्रेस को कम उम्र में उन्हें मिली उपलब्धियों पर भरोसा है। भारत की अण्डर 19 टीम के सदस्य के रूप में उन्होंने सबसे पहले सुर्खियां बटोरीं। उनकी कप्तानी में टीम ने 2000 में युवा विश्व कप जीता था।
कैफ के अलावा भारत के पूर्व कप्तान और सांसद मोहम्मद अजहरुद्दीन राजस्थान के टोंक सवाई माधोपुर से चुनावी मैदान में हैं। अजहर ने 99 टेस्ट और 334 वनडे खेले हैं। अजहर मुरादाबाद से कांग्रेस के सांसद हैं लेकिन इस बार उनकी सीट से टिकट बेगम नूर बानो को दिया गया है। अजहर का 15 साल का अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट कैरियर 2000 में मैच फिक्सिंग के आरोपों के बाद खत्म हो गया लेकिन बाद में उन्होंने राजनीति में पदार्पण किया और खुद पर लगे आजीवन प्रतिबंध के खिलाफ अदालत में अपील की।  2012 में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने अजहर पर लगा प्रतिबंध हटा दिया।
भाजपा ने राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को जयपुर (ग्रामीण) से उतारा है। एथेंस ओलम्पिक 2004 में पुरुषों की डबल ट्रैप निशानेबाजी में रजत जीतने वाले राठौड़ 1900 के पेरिस ओलम्पिक के बाद भारत के लिये व्यक्तिगत स्पर्धा का रजत पदक जीतने वाले पहले खिलाड़ी थे। वह राजस्थान के जैसलमेर से ताल्लुक रखते हैं। पूर्व हाकी कप्तान और राज्यसभा सदस्य दिलीप टिर्की ओड़िशा के सुंदरगढ़ से बीजेडी के उम्मीदवार हैं। उनका सामना पूर्व केन्द्रीय मंत्री भाजपा के जुआल ओरम और पूर्व मुख्यमंत्री कांग्रेस के हेमानंदा बिस्वाल से है। कुरुक्षेत्र फतह करने उतरे कांग्रेस के नवीन जिंदल भी स्कीट निशानेबाजी में राष्ट्रीय रिकार्डधारी हैं।
ओड़िशा में मोदी लहर नहीं नवीन लहर: दिलीप टिर्की
अपने बेहतरीन डिफेंस के कारण भारतीय हाकी की दीवार कहे जाने वाले पूर्व कप्तान दिलीप टिर्की को यकीन है कि ओड़िशा में हाकी की नर्सरी सुंदरगढ़ के लिये किया गया उनका काम लोकसभा चुनाव में जुआल ओरम और पूर्व मुख्यमंत्री हेमानंदा बिस्वाल जैसे दिग्गजों के खिलाफ राजनीति के मैदान का डिफेंस साबित होगा। टिर्की का कहना है कि ओड़िशा में मोदी लहर नहीं बल्कि नवीन लहर है। सुंदरगढ़ में अपने काम और हाकी की लोकप्रियता के दम पर जीत का यकीन रखने वाले टिर्की का मानना है कि यह मुकाबला काफी कठिन है। बकौल टिर्की मैं इन अनुभवी नेताओं के सामने नया हूं लेकिन मैंने अपने पूरे कैरियर में चुनौतियों का डटकर सामना किया है। सुंदरगढ़ हाकी की नर्सरी कहा जाता है और पिछले दो साल में मंैने अधिकांश समय यहीं बिताया है। हाकी के मिस्टर कूल कहे जाने वाले टिर्की ने कहा कि सक्रिय राजनीति में आने का फैसला उन्होंने क्षेत्र के विकास के लिये लिया है।
इन्होंने भी खेली सियासती पारी
असलम शेरखान
हाकी के इस पुरोधा ने खेल से संन्यास के बाद सियासत में कदम रखा। कांग्रेस की नीति-रीति से प्रभावित असलम मध्यप्रदेश की राजनीति में हमेशा सक्रिय रहे और यहीं से वे संसद तक भी पहुंचे। असलम शेरखान  सियासत में रहते हुए खिलाड़ियों की भलाई के लिए कुछ खास नहीं कर सके।
कीर्ति आजाद को केसरिया भाया
सियासत की पारी खेलने वाले कीर्ति आजाद बिहार के एकमात्र क्रिकेटर हैं जिन्हें टीम इण्डिया के लिए खेलने का मौका मिला। उन्होंने भारत के लिए सात टेस्ट और 25 वनडे मैच खेले। साथ ही वह 1983 की विश्व विजेता टीम के सदस्य भी रहे। वह क्रिकेट से संन्यासी बनने के बाद सियासत के मैदान में आये। कीर्ति आजाद बिहार के मुख्यमंत्री भगवत झा आजाद के बेटे हैं और दरभंगा से भाजपा के सांसद चुने गये।
बेबाक नवजोत सिंह सिद्धू
बेबाक नवजोत सिंह सिद्धू भारत के बेजोड़ उद्घाटक बल्लेबाज रहे। आक्रामक सिद्धू ने मुल्क की तरफ से 51 टेस्ट और 136 एकदिनी मुकाबले खेले। जनवरी, 1999 में क्रिकेट से संन्यास लेने के बाद नवजोत सिंह सिद्धू ने राजनीति में अपने कदम रखे और भाजपा के टिकट पर पंजाब की अमृतसर संसदीय सीट से दो बार संसद पहुंचे। इस बार उनकी इस सीट से उनके ही राजनीतिक गुरु अरुण जेटली ताल ठोंक रहे हैं।
मुरादाबाद के मुरीद बने अजहर
भारत के सफल कप्तानों में शुमार मोहम्मद अजहरुद्दीन का विवादों से चोली दामन का साथ रहा। कभी वह संगीता बिजलानी व शटलर ज्वाला गुट्टा के प्रेम प्रसंग को लेकर विवादों में रहे तो वर्ष 2000 में उन पर मैच फिक्सिंग का आरोप भी लगा। भारत के लिए 99 टेस्ट खेलने वाले इस स्टायलिस बल्लेबाज ने सियासत के लिए कांग्रेस का हाथ थामा और अपनी जन्मभूमि हैदराबाद से इतर उत्तर प्रदेश की मुरादाबाद सीट के मुरीद बने।
राठौर संसद पहुंचने को बेकरार
डबल ट्रैप निशानेबाज राज्यवर्धन सिंह राठौर भारत के ऐसे पहले निशानेबाज हैं जिन्होंने देश को ओलम्पिक में सफलता दिलाई। एथेंस ओलम्पिक 2004 में राठौर ने डबल ट्रैप में रजत पदक जीता था। निशानेबाजी के बाद अब वह राजनीति में भी अचूक निशाना लगाने की तैयारी कर रहे हैं। कुछ समय पहले वह जयपुर में भारतीय जनता पार्टी के नेता नरेन्द्र मोदी की मौजूदगी में पार्टी की सदस्यता ली। भाजपा ने राज्यवर्धन सिंह राठौड़ को जयपुर (ग्रामीण) से चुनावी मैदान में उतारा है।
भूटिया ममता की ममता से अभिभूत
बाइचुंग भूटिया भारतीय फुटबाल के बेहद लोकप्रिय खिलाड़ी रहे हैं। वह भारत की राष्ट्रीय फुटबॉल टीम के लम्बे समय तक कप्तान रहे। भूटिया को क्रिकेट से इतर अन्य खेलों की सबसे बड़ी हस्ती माना जाता है। फुटबॉल से संन्यास के बाद भूटिया बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ममता से अभिभूत हैं। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने उन्हें दार्जिलिंग लोकसभा क्षेत्र से सियासती मैदान में उतारा है। मजे की बात तो यह है कि भूटिया और मुक्केबाज मैरीकाम सोलहवें लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के दिग्गज अजय माकन के लिए भी प्रचार करते दिखेंगे। इन दोनों खिलाड़ियों का तर्क है कि अजय माकन ने खिलाड़ियों की बेहतरी के जितने काम किए उतने आजाद भारत में कोई राजनीतिज्ञ नहीं कर सका।
धनराज आप के साथ
धनराज पिल्लै ने दो दशक तक भारतीय हाकी में अपना जौहर दिखाया और मुल्क की झोली में कई शानदार सफलताएं भी डालीं। वे भारतीय हाकी के लगातार गिरते प्रदर्शन से आहत हैं। राजीव गांधी खेल रत्न से सम्मानित धनराज पिल्लै अभी चुनाव लड़ेंगे या नहीं तय नहीं हो सका है। सम्भावना है कि अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी उन्हें महाराष्ट्र के किसी लोकसभा क्षेत्र से टिकट दे सकती है।
विनोद काम्बली और कृष्णा पूनिया ने भी भाग्य आजमाया
 इन खिलाड़ियों के अलावा सियासत के मैदान में सचिन के बालसखा विनोद काम्बली और एथलीट कृष्णा पूनिया भी भाग्य आजम चुके हैं। काम्बली ने मुंबई के विखरोली से लोक भारती पार्टी के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़ा था तो कृष्णा पूनिया 2013 के विधानसभा चुनाव में राजस्थान से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ीं लेकिन जीत इनसे दूर रही।

Thursday, 27 March 2014

श्रीनिवासन या दुशासन

क्रिकेट अब न धर्म रही, न ही इसे खेलने वाला भगवान, इस सच से पर्दा उठ चुका है। सर्वोच्च न्यायालय को सौंपी गई फिक्सिंग रिपोर्ट इस बात का चीख-चीख कर खुलासा कर रही है कि धन कुबेर क्रिकेट के मुखिया के सगे-सम्बन्धी ही नहीं बल्कि दुनिया के कई खिलाड़ी भी उसकी आड़ में अनैतिक कार्यों को अंजाम दे  रहे हैं। भद्रजनों के खेल क्रिकेट में बेईमानी कोई नई बात नहीं है। गाहे-बगाहे इस खेल से कई बार बेईमानी का जिन्न बाहर निकला पर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद की भ्रष्टाचार रोधी इकाई की विभिन्न जांचों पर कठोर कार्रवाई करने की बजाय धनलोलुपता के फेर में इन पर पर्दा डाले रखा। नतीजन भ्रष्टाचार की जड़ें इस कदर गहरे पहुंच गर्इं कि अब उन्हें उखाड़ फेंकना दुरूह कार्य लगने लगा है। भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड की बात करें तो 1990 के दशक से ही इस पर कब्जे को लेकर धनकुबेरों की महत्वाकांक्षा परवान चढ़ने लगी थी। आश्चर्य की बात है कि भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड अपने आपको मुल्क की सल्तनत से बड़ा मानता है। उसके मुखिया की आसंदी सरकारी दिशा-निर्देशों को रद्दी की टोकरी में डालने की हिमाकत के बावजूद सुरक्षित रहती है। यह सब क्यों और किसकी शह पर होता है यह जानकर भी अनजान बनना भारत सरकार की मजबूरी है। भला हो  न्यायालय का जिसने समय-समय पर भ्रष्टाचार के समूल नाश के न केवल प्रयास किए बल्कि हठधर्मियों को ताकीद किया कि कानून के हाथ कितने लम्बे हैं।
भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड की आसंदी का मोह कितना प्रबल होता है, इसका ताजा प्रमाण एन. श्रीनिवासन को देखकर सहज लगाया जा सकता है। पिछले साल इण्डियन प्रीमियर लीग में स्पॉट फिक्सिंग से निकले जिन्न ने टीमों के मालिकानों और कई क्रिकेटरों को बेनकाब किया था पर बीसीसीआई प्रमुख श्रीनिवासन उन पर कठोर कार्रवाई करने की बजाय कसूरवारों को बचाने में ही लगे रहे। इसकी वजह उनके दामाद गुरुनाथ मयप्पन की मैच फिक्सिंग में संलिप्तता रही है। क्रिकेट में फिक्सिंग से पहले खेल मुरीद बड़े चाव से हर गेंद और बल्ले के धमाल को देखते तथा हर चौके-छक्के पर तालियां पीटते थे पर मैच फिक्सिंग मामले के बाद हर मन में एक शक घर कर गया है। अब मैच कैसा भी हो, कितना भी रोमांचक हो, एकबारगी यह सवाल मन में अवश्य पैदा होता है कि कहीं ये भी तो फिक्स नहीं? स्पॉट फिक्सिंग में संलिप्त हर शख्स खेलभावना ही नहीं बल्कि खेलप्रेमियों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ का भी कसूरवार है।
आईपीएल स्पॉट फिक्सिंग में श्रीसंत, अंकित चव्हाण और अजीत चण्डीला जैसों को तो दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया पर इस खेल में शामिल बड़ी मछलियां आज भी क्रिकेट के महासमुद्र में बेखौफ तैर रही हैं। श्रीसंत और अंकित चव्हाण पर तो भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड ने आजीवन प्रतिबंध लगा दिया पर उन बड़ी मछलियों पर कार्रवाई कब होगी जो आज भी क्रिकेट को कलंकित कर रही हैं। पिछले साल कई सटोरिए भी पुलिस की गिरफ्त में आए थे। मुम्बई पुलिस ने रुस्तमे हिन्द दारा सिंह के बेटे विन्दू दारा सिंह और श्रीनिवासन के दामाद गुरुनाथ मयप्पन को भी गिरफ्तार किया था लेकिन इन पर रसूखदारों का वरदहस्त होने के चलते ये जमानत पर स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं। फिक्सिंग के सच को सामने लाने की खातिर एक टेलीविजन चैनल ने आईपीएल पर स्टिंग आॅपरेशन भी किया था, जिसमें विन्दू दारा सिंह ने जो कुछ कहा उसे देख कर नहीं लगा कि उन्हें अपने किए पर कोई पछतावा है या फिक्सिंग को वे कुछ गलत मानते हैं। यह सच है कि आज सट्टेबाजी क्रिकेट का हिस्सा बन गई है। टी-20 क्रिकेट पर घर-घर, गांव-गांव दांव लग रहे हैं। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि आज क्रिकेट के पट्ठे ही सट्टे में संलिप्त हैं। विचारणीय है कि जिस तमाशा क्रिकेट में धन, ग्लैमर और रोमांच का तड़का पहले से ही चरम पर रहा हो उसमें धनकुबेरों ने अपने हित संवर्धन के लिए अपराध तत्व समाहित करने की निर्लज्ज कोशिश आखिर क्यों की? एन. श्रीनिवासन भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष हैं। उनके स्वामित्व वाली कम्पनी चेन्नई सुपर किंग्स का नाम भी स्पॉट फिक्सिंग में शामिल है। तमाम जांचों के बाद गुरुनाथ मयप्पन और भारतीय टीम के एक बड़े खिलाड़ी सहित कुछ अन्यों के कसूरवार पाये जाने पर उन्हें अपनी आसंदी स्वयं छोड़ देनी थी बावजूद श्रीनिवासन दुशासन बने रहे। कुछ अर्से के लिए कुर्सी से हटे भी पर पुन: जोड़तोड़ कर बीसीसीआई पर कब्जा कर लिया। श्रीनिवासन की इस मंशा के पीछे अपने दामाद को बचाने के साथ ही दुनिया के सबसे धनकुबेर बोर्ड के सहारे अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद के नियमों में बदलाव कर उसकी आसंदी भी कब्जाना रहा। श्रीनिवासन की आईसीसी के आसन तक पहुंचने की कुचेष्टा यह साबित करती है कि क्रिकेट में पैसे का किस कदर बोलबाला है। क्रिकेट में अकूत पैसे के सामने आचार संहिता और आदर्शवादी बातों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। सर्वोच्च न्यायालय क्रिकेट में फिक्सिंग के फसाद की तह तक पहुंच चुका है। उसकी मंशा है कि जब तक मामले का पटाक्षेप नहीं हो जाता तब तक बीसीसीआई प्रमुख श्रीनिवासन अपना आसन छोड़ दें ताकि जांच प्रभावित न हो। पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मुकुल मुद्गल की अध्यक्षता में 2013 में स्पॉट फिक्सिंग की जांच के लिए तीन सदस्यीय एक समिति बनी थी जिसने अपनी जांच रिपोर्ट फरवरी में सुप्रीम कोर्ट को सौंपी थी। जांच के इन दस्तावेजों में श्रीनिवासन के दामाद सहित क्रिकेट के कुछ पट्ठों के नाम शामिल हैं। इन दस्तावेजों में कुछ ऐसी संगीन और गम्भीर सूचनाएं भी हैं, जिनकी निष्पक्ष जांच श्रीनिवासन के रहते सम्भव नहीं दिखती। सर्वोच्च न्यायालय ने इसी गरज से श्रीनिवासन से बीसीसीआई प्रमुख की आसंदी छोड़ने तथा जब तक स्पॉट फिक्सिंग की जांच पूरी न हो जाए पूर्व क्रिकेटर सुनील गावस्कर को इस पद की गरिमा बढ़ाने की इच्छा जताई है। अदालत की फटकार के बाद भी श्रीनिवासन की हठधर्मिता क्रिकेट में बड़े गड़बड़झाले की ओर संकेत करती है। होना तो यह चाहिए कि बीसीसीआई प्रमुख इस मामले में नैतिकता दिखाते हुए स्वयं कुर्सी त्याग देते पर उनके ऐसा न करने से भारतीय क्रिकेट ही नहीं उनकी विश्वसनीयता पर भी सीधे-सीधे प्रश्नचिह्न लग रहा है।
(लेखक पुष्प सवेरा से जुड़े हैं।)

Wednesday, 26 March 2014

खेलों के बाद अब चुनावी मैदान में जलवा दिखाने को बेताब भूटिया, राठौड़ और कैफ

फुटबालर बाईचुंग भूटिया से लेकर ओलंपिक पदक विजेता राज्यवर्धन सिंह राठौड़, क्रिकेटर मोहम्मद कैफ तक लोकसभा चुनाव में इस बार खेलों के कई नामचीन सितारे अपनी राजनीतिक पारी के आगाज की तैयारी में हैं।
भारत के पूर्व कप्तान और देश के सबसे अनुभवी फुटबालर भूटिया दार्जिलिंग लोकसभा सीट से तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार हैं। अर्जुन पुरस्कार और पद्मश्री समेत कई पुरस्कार और सम्मान हासिल कर चुके भूटिया ने अगस्त 2011 में अंतरराष्ट्रीय फुटबाल को अलविदा कह दिया था। अपने चुस्त क्षेत्ररक्षण के लिये मशहूर पूर्व क्रिकेटर मोहम्मद कैफ उत्तरप्रदेश की फूलपुर लोकसभा सीट से कांग्रेस के प्रत्याशी हैं। कैफ ने भारत के लिये 13 टेस्ट और 125 वनडे खेले  हैं। आखिरी बार उन्होंने 2006 में खेला था लेकिन उत्तर प्रदेश के लिये घरेलू सर्किट पर आज भी खेलते हैं। 33 बरस के कैफ को राजनीतिक अनुभव नहीं है लेकिन कांग्रेस को कम उम्र में उन्हें मिली उपलब्धियों पर भरोसा है। भारत की अंडर 19 टीम के सदस्य के रूप में उन्होंने सबसे पहले सुर्खियां बटोरीं। उनकी कप्तानी में टीम ने 2000 में युवा विश्व कप जीता। कैफ के अलावा भारत के पूर्व कप्तान और सांसद मोहम्मद अजहरुद्दीन राजस्थान के टोंक सवाई माधोपुर से चुनावी मैदान में हैं। अजहर ने 99 टेस्ट और 334 वनडे खेले हैं। अजहर मुरादाबाद से कांग्रेस के सांसद हैं लेकिन इस बार उनकी सीट से टिकट बेगम नूर बानो को दिया गया है।
अजहर का 15 साल का अंतरराष्ट्रीय कैरियर 2000 में मैच फिक्सिंग के आरोपों के बाद खत्म हो गया लेकिन बाद में उन्होंने राजनीति में पदार्पण किया। उन्होंने अपने पर लगे आजीवन प्रतिबंध के खिलाफ अदालत में अपील की और 2012 में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने उन पर लगा प्रतिबंध हटा दिया।
भाजपा ने राठौड़ को जयपुर (ग्रामीण) से उतारा है। एथेंस ओलंपिक 2004 में पुरुषों की डबल ट्रैप निशानेबाजी में रजत जीतने वाले राठौड़ 1900 के पेरिस ओलंपिक के बाद भारत के लिये व्यक्तिगत स्पर्धा का रजत जीतने वाले पहले खिलाड़ी थे। वह राजस्थान के जैसलमेर से ताल्लुक रखते हैं। पूर्व हाकी कप्तान और राज्यसभा सदस्य दिलीप टिर्की ओड़िशा के सुंदरगढ़ से बीजेडी के उम्मीदवार हैं। उनका सामना पूर्व केंद्रीय मंत्री भाजपा के जुआल ओरम और पूर्व मुख्यमंत्री कांग्रेस के हेमानंदा बिस्वाल से है। कुरुक्षेत्र से कांग्रेस के नवीन जिंदल भी स्कीट निशानेबाजी में राष्ट्रीय रिकार्डधारी हैं।

Friday, 21 March 2014

मैदान में मुजरिम

भारतीय लोकतंत्र के सोलहवें महाकुम्भ का आगाज हो चुका है। हमेशा की तरह इस बार भी राजनीतिक दलों ने आपराधिक लोगों और बाहुबलियों पर निष्ठा जताकर अपने अंतस के राक्षस को जिन्दा रखा है। पिछले साल संसद से सड़कों तक चले राजनीतिक शुद्धिकरण के सारे दावे-प्रतिदावे सत्ता के लालच के सामने हवा-हवाई साबित हो रहे हैं। हमारी पवित्र संसद उन राजनीतिक पुजारियों की बाट जोह रही है जिनमें मुल्क की आवाम को खुशियों की सौगात देने का जज्बा हो। लोकतंत्र में मतदाता ही भगवान होता है। उसके हाथ असीमित अधिकार होते हैं, जिनका इस्तेमाल उसे पांच साल में एक बार ही करना होता है। वह पल आ चुका है। मतदाता अपने मत रूपी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर लोकतंत्र की गंगोत्री को शुद्ध कर सकता है बशर्ते उसे अपने मन से लोभ-लालच को दूर भगाना होगा।
इस बार के चुनाव यूं तो कई मायनों में खास होने जा रहे हैं मसलन सबसे लम्बी अवधि में होने वाले चुनाव, मतदाताओं की अधिक संख्या, पहले से प्रधानमंत्री प्रत्याशी घोषित कर व्यक्ति आधारित चुनाव लड़ने की नई परम्परा, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ सोशल मीडिया का बोलबाला, कांग्रेस, भाजपा के अलावा आम आदमी पार्टी की मजबूत दखल, तीसरे मोर्चे के साथ-साथ चौथे मोर्चे के लिए जमीन तलाशना यह सब पहली बार महसूस किया जा रहा है। सोलहवीं लोकसभा के गठन से पूर्व अपनी पार्टियों से जिस तरह राजनीतिज्ञों का मोहभंग हो रहा है वह भी राजनीतिक शुचिता का सूचक नहीं है। आज धर्मनिरपेक्षता, साम्प्रदायिकता, समाजवाद, पूंजीवाद, क्षेत्रीयता का एक-दूसरे में इस कदर घालमेल हो गया है कि किसी का असली चेहरा पहचानना भी कठिन है, विचारधारा तो दूर की बात है। कल तक एक-दूसरे को पानी पी-पीकर कोसने वाले राजनीतिज्ञ आज उनसे गलबहियां कर रहे हैं।
भारत का संविधान दो वर्ष 11 माह और 18 दिनों की सघन चर्चाओं, विचार-विमर्श व अनथक मेहनत के बाद तैयार हुआ। यह सर्वोच्च नागरिक धर्म ग्रंथ सत्ता के चाकरों की नजर में बेफजूल की किताब हो सकता है पर इसमें लिखे एक-एक शब्द के निहितार्थ हैं जिनका सम्यक ज्ञान सभी को होना जरूरी है। आजाद भारत की पवित्र संसद में सांसद ही उसकी गरिमा से खिलवाड़ कर रहे हैं तो सड़कों पर चिल्लाने वाले नेता संविधान का मखौल उड़ाने से कभी बाज नहीं आते। आज लोकतांत्रिक राजनीति से जनता का विश्वास डिगाने के कुत्सित प्रयास और साजिशें रची जा रही हैं तो संविधान का पाठ स्कूल के बस्तों में बंद कर दिया गया है। हमारा गणतंत्र दिवस अब शायद ही किसी के लिए नसीहत हो। यह पवित्र दिन संविधान के भावों को समझने की जगह मौज-मस्ती का दिन हो गया है। समाज में इन विद्रूपताओं के विस्तारीकरण का ही नतीजा है कि आज राजनीतिज्ञ अपने आपको संविधान से बड़ा मानने की कुचेष्टा कर रहे हैं।
देश की राजनीति को अपराधियों से निजात दिलाने के लिए समय-समय पर बहुत कुछ कहा-सुना जा चुका है पर उसमें अमल की बात हमेशा बेमानी साबित हुई है। हमारी धर्म संसद ने जुलाई, 2013 में अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने की व्यवस्था दी थी तो उच्चतम न्यायालय ने सांसदों और विधायकों के खिलाफ लम्बित आपराधिक मामलों की सुनवाई एक साल के भीतर पूरी करने का फरमान भी सुना रखा है। देखा जाए तो मुल्क में फिलवक्त अनुमानत: 14 फीसदी सांसद और 31 फीसदी विधायकों के खिलाफ अदालतों में संगीन अपराधों में संलिप्त होने के आरोप में मुकदमे चल रहे हैं। इस गम्भीर स्थिति को देखते हुए ही न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा आठ के दायरे में आने वाले अपराधों के आरोप में संलिप्त सांसदों और विधायकों के खिलाफ लम्बित मुकदमों की सुनवाई एक साल के भीतर पूरी करने के निर्देश निचली अदालतों को दिये हैं। इस निर्देश में स्पष्ट है कि इस कानून की धारा आठ के दायरे में आने वाले अपराधों के सन्दर्भ में उन सांसदों और विधायकों के खिलाफ लम्बित मुकदमों की सुनवाई एक साल के भीतर पूरी की जाये, जिनमें अदालतों में अभियोग निर्धारण करने की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है।
जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 की धारा आठ में सभी प्रकार के गंभीर किस्म के अपराध शामिल हैं। इसके दायरे में भारतीय दण्ड संहिता के अंतर्गत आने वाले कई अपराधों को शामिल किया गया है। मसलन इसकी धारा 153-ए के तहत धर्म, मूलवंश, जन्म स्थान, निवास स्थान, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच सौहार्द्र बिगाड़ने के अपराध, धारा 171-ई के तहत रिश्वतखोरी, धारा 171-एफ के तहत चुनाव में फर्जीवाड़े के अपराध, धारा 376 के तहत बलात्कार और यौन शोषण सम्बन्धी अपराध, धारा 498-ए के तहत अर्धांगिनी के प्रति पति या उसके रिश्तेदारों के क्रूरता के अपराध, धारा 505 (2) या (3) के तहत किसी धार्मिक स्थल या धार्मिक कार्यों के लिये एकत्र समूह में विभिन्न वर्गों में कटुता, घृणा या वैमनस्यता पैदा करने वाले बयान देने से सम्बन्धी अपराध के लिये दोषी ठहराये जाने की तिथि से छह साल तक ऐसा व्यक्ति चुनाव लड़ने के अयोग्य होता है।
मुल्क में पारदर्शितापूर्ण राजनीति की मुखालफत आमजन के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय और चुनाव आयोग भी कर रहा है। पिछले साल अपराधियों को चुनाव से दूर रखने के लिए लगभग सभी राजनीतिक दल एक राय थे, पर चुनावी रणभेरी बजते ही लोग अपने उसूलों को भूल बैठे। कांग्रेस हो या भाजपा या दीगर दल सोलहवीं लोकसभा की वैतरणी पार करना ही सबका एकमात्र मकसद हो गया है। सोलहवीं लोकसभा की तस्वीर पूरी तरह से साफ नहीं हुई है लेकिन अब तक घोषित प्रत्याशियों पर नजर डालें तो नहीं लगता कि अपराधियों से पिण्ड छुड़ाने को राजनीतिक दल तैयार हैं। यही वजह है कि अमूमन हर दल से अपराधी दम ठोक रहे हैं। जिस तरह से अपराधी चुनावी रण में उतर रहे हैं, उसे सोलहवीं लोकसभा के लिए खुशखबर नहीं कहा जा सकता। उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बाद ऐसे आपराधिक नेताओं के लिये आने वाला समय परेशानी का सबब हो सकता है। ऐसे नेताओं की सदस्यता खत्म होने के कारण सम्बन्धित निर्वाचन क्षेत्र में फिर से उपचुनाव कराने की नौबत जरूर आएगी। मुल्क बार-बार चुनाव के फेर में न फंसे इसलिए बेहतर होगा कि सभी राजनतिक दल ऐसे व्यक्तियों को चुनाव में टिकट दें जोकि साफ-सुथरी छवि के हों। अपराधी किसी का सगा नहीं होता इस बात का भान सभी पार्टी प्रमुखों को होना चाहिए।  

Thursday, 20 March 2014

हॉकी में बेईमानों का बोलबाला

चौथी हॉकी इण्डिया प्रतियोगिता में कई राज्यों के पास खिलाड़ियों का टोटा
आगरा। चौथी हॉकी इण्डिया प्रतियोगिता बेईमानी के साये में खेली जा रही है। कई राज्य यूनिटों के पास खिलाड़ी ही नहीं हैं बावजूद वे खिलाड़ियों की अदला-बदली कर प्रतियोगिता में दम ठोक रहे हैं। हॉकी में यह नंगनाच किसकी शह पर चल रहा है यह तो हॉकी इण्डिया के महासचिव नरिन्दर बत्रा ही जाने पर ऐसी प्रतियोगिताएं धन और समय की बर्बादी के सिवाय कुछ भी नहीं हैं।
इस समय देश के तीन प्रमुख शहरों लखनऊ, भोपाल और मैसूर में चौथी हॉकी इण्डिया प्रतियोगिता खेली जा रही है। यह प्रतियोगिता जिस तरह बेईमानी के साये में खेली जा रही है उससे आयोजन पर ही प्रश्नचिह्न लग रहा है। यह प्रतियोगिता इस साल प्रत्येक आयु समूह में दो वर्गों में खेली जा रही है। ए और बी समूह में परवान चढ़ रही इस प्रतियोगिता में जो नहीं होना चाहिए वह हो रहा है। पिछले सप्ताह जूनियर बालिका वर्ग के बी समूह में छत्तीसगढ़ ने केरल को 6-1 से पराजित कर अगले साल ए समूह से खेलने की पात्रता हासिल कर ली। इस विजय से बेशक छत्तीसगढ़ की जय-जयकार हो रही हो पर अफसोस इस विजेता टीम के पास सलीके की 11 खिलाड़ी भी नहीं थीं फिर भी वह ग्वालियर (मध्यप्रदेश) की 10 खिलाड़ियों के बूते चैम्पियन बन गई।
खिलाड़ियों की अदला-बदली के लिए सिर्फ छत्तीसगढ़ ही गुनहगार नहीं है बल्कि महाराष्ट्र पुरुष टीम भी मुकम्मल नहीं थी पर वह भी सेना, रेलवे और पुलिस के खिलाड़ियों को बटोर कर मैदान फतह करने उतरी। कमोबेश यही हाल सीनियर महिला हॉकी में भोपाल टीम का है। इस टीम में रेलवे सहित उत्तर प्रदेश की खिलाड़ी खेल रही हैं। यही हाल मध्यप्रदेश राज्य पुरुष हॉकी टीम का भी है। लखनऊ में यह टीम भी आयातित खिलाड़ियों के बूते पाला फतह करने तो उतरी पर सेमीफाइनल में भी नहीं पहुंच सकी। अब सवाल यह उठता है कि जब राज्य यूनिटों के पास खिलाड़ी ही नहीं हैं तो राष्ट्रीय प्रतियोगिता के क्या मायने?
देश में जहां तक महिला हॉकी की बात है यह कुछ शहरों तक सीमित है। फिलवक्त महिला हॉकी का गढ़ शाहाबाद मारकंडा (हरियाणा) है। यहां द्रोणाचार्य अवार्डी बल्देव सिंह की देखरेख में एक से बढ़कर एक कुड़ियां निकल रही हैं। बल्देव ने देश को 40 से अधिक महिला खिलाड़ी दी हैं। शाहाबाद के बाद ग्वालियर स्थित राज्य महिला हॉकी एकेडमी में भी युवा तरुणाई पुश्तैनी खेल की बारीकियां सीख रही है। मध्यप्रदेश सरकार के शानदार प्रयासों का ही नतीजा है कि सात-आठ साल में ही यहां से एक दर्जन से अधिक खिलाड़ियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का गौरव बढ़ाया है। झारखण्ड और राउरकेला में भी महिला हॉकी की तरफ ध्यान दिया जा रहा है। मुल्क के अन्य क्षेत्रों में हॉकी मर चुकी है। हॉकी इण्डिया फिलवक्त इसके दफन की तैयारी कर रही है।
इस प्रतियोगिता ने इस साल कई समीकरण बदल दिए हैं। मसलन जो मुम्बई की महिला टीम हर प्रतियोगिता में मजबूत टीमों में शुमार की जाती रही वह इस साल खिलाड़ियों की अदला-बदली की छूट के चलते भोपाल में अपने तीनों मुकाबले हारकर अगले साल बी डिवीजन से खेलेगी। दरअसल मुम्बई की टीम हमेशा सेण्ट्रल रेलवे और वेस्टर्न रेलवे की खिलाड़ियों से लैश रहती रही। इस बार सेण्ट्रल रेलवे की अधिकांश खिलाड़ियों के भोपाल टीम से जुड़ जाने से मुम्बई टीम अदनी टीमों में शुमार हो गई। हॉकी के इस नंगनाच की प्रमुख वजह विभिन्न राज्यों द्वारा दी जा रही प्राइज मनी है। खिलाड़ियों के मन में लालच इस कदर समा गया है कि उन्हें अपनी जन्मभूमि से भी लगाव नहीं रहा। लालची खिलाड़ी अपनी टीमों से तौबा कर दूसरे राज्यों से पाला लड़ा रहे हैं। जो भी हो राष्ट्रीय हॉकी प्रतियोगिता का अपने मकसद से भटकना आठ बार के ओलम्पिक चैम्पियन भारत के लिए शर्मनाक फलसफा है।
इस हमाम में सब नंगे हैं..
इस गड़बड़झाले पर जब हॉकी इण्डिया के जवाबदेह लोगों से बात की तो उन्होंने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि हम लोग हॉकी इण्डिया से जुड़े होने के चलते कुछ नहीं बता सकते पर इस हमाम में सभी नंगे हैं। यह आयोजन सिर्फ पैसे की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है। हॉकी इण्डिया खेल संस्था नहीं बल्कि एक कम्पनी बन गई है। 

Friday, 14 March 2014

आंतरिक सुरक्षा में सेंध

हर हमला कई सवाल छोड़ जाता है। इन सवालों पर कुछ समय के लिए चिन्तन-मनन भी होता है लेकिन समय गुजरते ही सब कुछ ऐसे भुला दिया जाता मानो अब कुछ होगा ही नहीं। हमारे देश के भाग्य विधाता हमेशा चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश और दीगर पड़ोसियों की कारगुजारियों पर उंगली उठाते हैं लेकिन उन्हें अपनी आवाम की सुरक्षा का भान न होना दिनोंदिन परेशानी का सबब बनता जा रहा है। मुल्क की आवाम की सुरक्षा में सुराख की बात करें तो ऐसे अनगिनत वाक्ये हैं जिनमें निर्दोष लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। सोलहवीं लोकसभा के महाकुम्भ से पहले छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने जिस तरह हमारे सुरक्षा बलों के साथ खून की होली खेली है उसे देखते हुए लोगों में अनचाहा डर घर कर गया है। राजनीतिज्ञ कुछ भी कहें मुल्क का एक तिहाई हिस्सा फिलवक्त दुर्दांतों की निगहबानी में है तो अन्य हिस्सों के लोग भी सुरक्षा व्यवस्था को लेकर डरे-सहमे से हैं।
सोलहवीं लोकसभा चुनावों में मतदान की पूर्णाहुति से पहले 16 सुरक्षा जवानों की मौत ने एक बार फिर इस खतरे की भयावहता और इससे निपटने की हमारी रणनीतिक खामियों को उजागर कर दिया है। सुकमा जिले में तोंगपाल और जीरम के बीच सड़क निर्माण कार्य को सुरक्षा प्रदान करने के लिए तैनात केन्द्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स और स्थानीय पुलिस के इन जवानों को नक्सलियों ने उस वक्त अपना निशाना बनाया जब वे गश्त पर निकले थे। यह वही क्षेत्र है, जहां पिछले साल नक्सलियों ने कई प्रमुख कांग्रेस नेताओं के साथ खून की होली खेली थी। दक्षिणी बस्तर में ही वर्ष 2010 में नक्सलियों ने केन्द्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स के 76 जवानों को हलाक करने का दुस्साहस दिखाया था। ये तमाम लोमहर्षक घटनाएं हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर सवालियां निशान लगाती हैं। हाल ही हमलावरों ने जिस बर्बरतापूर्ण तरीके से कुल्हाड़ी से सुरक्षा जवानों के हाथ-पैर काटे और शवों के साथ विस्फोटक लगाए यह उनकी दरिन्दगी और हमारी सुरक्षा व्यवस्था की बड़ी चूक का ही नतीजा है।
लोकसभा चुनावों से पहले सरकारी मशनरी मतदाता जागरूकता की अलख जगा रही है तो दूसरी तरफ नक्सली और दीगर विघ्नसंतोषी लोग अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों में दहशत फैलाकर मतदाताओं को चुनाव के पुनीत कार्य से दूर रखना चाहते हैं। यह अपराधियों का पहला और अंतिम प्रयास नहीं है बल्कि हर चुनाव से पहले मतदाता को इसी तरह की परीक्षा देनी पड़ती है। फख्र की बात है कि हर बार मुल्क की आवाम ने अपनी दिलेरी और हिम्मत का परिचय देते हुए भारतीय लोकतंत्र को सम्बल प्रदान किया है। मुल्क की आवाम बेशक बार-बार अपने पौरुष का इम्तिहान दे रही हो पर उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी से सरकार पीछे नहीं हट सकती। यह बेहद निराशाजनक है कि नक्सलवाद को बार-बार देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती बताने वाली केन्द्र और राज्य सरकारें इससे निपटने की कोई कारगर रणनीति आज तक नहीं बना पाई हैं। दरअसल मौत के ये आंकड़े सरकारों की नाकामी की ही कहानी बयां करते हैं कि पिछले पांच साल में सुरक्षा बलों के जितने जवान और नागरिक आतंकवाद के शिकार हुए हैं, उससे कहीं ज्यादा नक्सलवाद की भेंट चढ़े हैं। यह खबर और भी चौंकाने वाली है कि खुफिया एजेंसियों द्वारा लोकसभा चुनाव के मद्देनजर ऐसे नक्सली हमलों के प्रति आगाह किये जाने के बावजूद हमारा सरकारी तंत्र सुरक्षा व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने में सुस्ती दिखाता रहा। बेशक तीन राज्यों की सीमा पर स्थित होने तथा घने जंगलों के चलते जीरम घाटी जैसे क्षेत्रों में नक्सलियों के लिए हमले कर फरार हो जाना आसान तथा सुरक्षा बलों के लिए उनके विरुद्ध अभियान चला पाना बेहद मुश्किल हो जाता हो, बावजूद इसके हमारी सरकारों को इस लाल आतंक के खात्मे का संकल्प तो लेना ही होगा।
यह सच है कि स्थानीय लोगों के सहयोग और समर्थन के बिना हमारी सरकारें मुल्क से दुर्दान्तों का भय समाप्त नहीं कर सकतीं पर यह भी सोचनीय है कि आखिर सरकारी तंत्र लोगों का विश्वास जीतने में नाकारा क्यों साबित हो रहा है? लोगों का विश्वास न जीत पाने की अपनी वजह हैं लेकिन इस सच्चाई से भी तो इंकार नहीं किया जा सकता कि नक्सली हिंसाग्रस्त इलाकों में सुरक्षा बलों के आॅपरेशन में जो सावधानियां बरती जानी चाहिए उनमें भी भारी खोट है। जीरम घाटी में कांग्रेस नेताओं के काफिले पर नक्सली हमले की घटना के बाद इस घाटी की संवेदनशील इलाके के रूप में पहले ही पहचान हो चुकी थी बावजूद इसके सड़क निर्माण कार्य में लगे लोगों की सुरक्षा के लिए लगाए गए जवानों को पीछे से सुरक्षा कवर देने की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी और न ही किसी हमले की आशंका के मद्देनजर जवानों को समूह में चलने की बजाय टोलियों में चलने की सतर्कता बरती गई। बस्तर में नक्सली हमले की घटनाओं पर तात्कालिक चिन्ता जताने और इन हमलों के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराने के बाद सब कुछ बिसरा दिए जाने का ही नतीजा है कि ऐसे हमलों को रोकने की आज तक ठोस नीति ही नहीं बन पाई। केन्द्र सरकार लाख यह दावा करे है कि वह नक्सली समस्या से निपटने के लिए राज्यों को हरसम्भव मदद दे रही है, पर यह समस्या सिर्फ राज्य ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण आवाम के सुरक्षा की बात है लिहाजा मुल्क की आंतरिक सुरक्षा में बार-बार लगती सेंध केन्द्र सरकार की भी बड़ी नाकामी है।
केन्द्र सरकार को लगातार हो रहे नक्सली हमलों और इन हमलों में बड़ी संख्या में सुरक्षा बल के जवानों की शहादत को गम्भीरता से लेते हुए इन्हें रोकने के उपायों की रणनीति तैयार करने में भी राज्य सरकारों के साथ प्रत्यक्ष भागीदारी के लिए आगे आना चाहिए। मुल्क से हर किस्म के आतंकवाद के खात्मे के लिए आज विशेष सजगता की जरूरत है। इस गम्भीर मसले पर सियासत नहीं होनी चाहिए। अपराधी किसी का सगा नहीं होता लिहाजा यदि मुल्क से डर भगाना है तो सभी को सामूहिक प्रयास करने होंगे। लोकसभा चुनाव सामने हैं इस बीच नक्सली ही नहीं अन्य आतंकी भी मुल्क की आंतरिक सुरक्षा में सेंध की साजिश रच सकते हैं लिहाजा सुरक्षा उपायों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। राजनीतिज्ञ दूसरे मुल्कों पर उंगली उठाने की बजाय अपनी आंतरिक सुरक्षा को फौलादी बनाने की पहल करें ताकि फिर किसी सुरक्षा जवान का सिर न कटे और कोई निर्दोष न मारा जाए।

Sunday, 9 March 2014

सियासी नारे: तब और अब

समाजवादी पार्टी (सपा) ने ‘उम्मीद की साइकिल’ का नारा देकर 2012 के विधानसभा चुनाव में 224 सीटें जीतीं और उत्तर प्रदेश में स्पष्ट बहुमत की सरकार बनाई। अब लोकसभा चुनाव का वक्त है तो एक बार फिर चुनावी फिजां में पूरे देश में कई नारे हवा में तैरते नजर आ रहे हैं।
दरअसल, नारे चुनावी फिजां में रंग भरते हैं और चुनाव की दिशा-दशा बदलने की ताकत रखते हैं। चंद शब्दों से बने इन नारों में बड़ा संदेश देने व विरोधियों को बेनकाब करने का माद्दा होता है। चुनावों में नारों के इतिहास पर नजर डालें तो जीत के लिए इसका जोर-शोर से प्रचलन इंदिरा गांधी ने तेज किया था। निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण जैसे बड़े निर्णय के बाद इंदिरा गांधी जब वर्ष 1971 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव में गई तो उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया। इस नारे से उनकी छवि गरीबों की मसीहा की तरह उभरी। गरीबों में उनकी बनती पैठ से चिंतित विरोधियों ने ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के काउंटर के लिए नया नारा गढ़ा ‘इंदिरा हटाओ-देश बचाओ’, जो कारगर साबित नहीं हुआ। इस मध्यावधि चुनाव में कांग्रेस ने 352 संसदीय क्षेत्रों में जीत दर्ज कर ताकतवर सरकार बनाई। इंदिरा गांधी की यह जीत विरोधियों से ज्यादा उन बागी नेताओं को करारा जवाब थी, जिन्होंने पार्टी तोड़ी और कांग्रेस के समानान्तर संगठन खड़ा किया। हालांकि बहुमत के बावजूद इस सरकार को चलाना इंदिरा गांधी के लिए आसान नहीं रहा, क्योंकि गैर कांग्रेसी दलों ने विभिन्न आंदोलनों के माध्यम से घेराबंदी जारी रखी।
इसी दौरान कांग्रेस की हुकूमत के खिलाफ ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा देश में गूंजा। इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल घोषित कर आंदोलन की रहनुमाई कर रहे नेताओं को जेल में डाल दिया, इनमें जयप्रकाश नारायण, विजयाराजे सिंधिया, राजनारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, चौधरी चरण सिंह, आचार्य कृपलानी आदि शामिल थे। 22 महीने के आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी ने 23 जनवरी, 1977 को देश में चुनाव कराने का ऐलान किया। इस चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ ‘लोकतंत्र बनाम तानाशाह’ और जेपी के आंदोलन के दौर में दिए ‘सम्पूर्ण क्रांति’ नारे को पसंद किया गया, क्योंकि आपातकाल की ज्यादतियां लोगों के जेहन में ताजा थीं।
नतीजतन, कांग्रेस बुरी तरह ध्वस्त हो गई। यहां तक कि इंदिरा गांधी और संजय गांधी चुनाव में पराजित हुए। कांग्रेस के हारने वाले दिग्गजों में रामपुर के नवाब जुल्फिकार अली, कुंवर जितेंद्र प्रसाद, राजा दिनेश सिंह, शीला कौल, आनंद सिंह आदि के नाम शामिल थे। जनता पार्टी के नेतृत्व में मोरारजी देसाई की सरकार बनी, जो आपसी खींचतान के कारण अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी। पर इस सरकार ने इंदिरा गांधी को एक सप्ताह के लिए जेल भेजकर सनसनी फैला दी। वर्ष 1980 के लोकसभा चुनाव में प्रचार अभियान के दौरान इंदिरा गांधी ने ‘मजबूत सरकार’ का नारा दिया। इस नारे और इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी से उपजी सहानुभूति ने विरोधियों का सूपड़ा साफ कर दिया। वोट की इस जंग में कांग्रेस ने 356 लोकसभा क्षेत्रों में सफलता पायी। इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या के बाद पार्टी की कमान राजीव गांधी ने संभाली। उनके नेतृत्व में कांग्रेस ने 1984 में आठवीं लोकसभा के लिए चुनाव लड़ा।
इस चुनाव में कांग्रेस ने नारा दिया ‘जब तक सूरज चांद रहेगा, इंदिरा तेरा नाम रहेगा।’ यह नारा जनता में सहानुभूति लिए हुए लोगों के मन में ऐसा उतरा कि विरोधियों का सफाया हो गया। प्रचार के दौरान कांग्रेस की ओर से एक और नारा ‘इंदिरा तेरा यह बलिदान याद करेगा हिन्दुस्तान’ दिया गया, जो बड़ी संख्या में मतदाताओं को कांग्रेस के पक्ष में मतदान स्थल तक ले जाने में कामयाब रहा। इस चुनाव में कांग्रेस ने न केवल पड़े वोटों का 50 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त किया, बल्कि सर्वाधिक 404 सीटें जीत कर एक कीर्तिमान भी बनाया। वर्ष 1989 में हुए लोकसभा चुनाव में वीपी सिंह ने बोफोर्स के मुद्दे पर गैर-कांग्रेसी दलों का मोर्चा जनता दल की शक्ल में बनाया, जिसने नारा दिया ‘राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है’।
प्रचार के दौरान जनता दल की ओर से बोफोर्स के मुद्दे को इतना गरमाया गया कि जनता के बीच राजीव गांधी अलोकप्रिय होते चले गए। नतीजतन उनकी पार्टी सिमट कर 197 लोकसभा क्षेत्रों में रह गई और वीपी सिंह के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी। वर्ष 1991 में देश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा, जिसमें वी.पी. सिंह की हुकूमत में मंडल कमीशन सिफारिश पर लागू आरक्षण व्यवस्था से नाराज लोगों ने भारतीय जनता पार्टी के नारे ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे’ पर भरोसा किया। इस चुनाव में भाजपा 120 सांसदों की ताकत लेकर लोकसभा पहुंची, जिससे राष्ट्रीय राजनीति में उसकी बड़ी पहचान बनी। वर्ष 1996 में ग्यारहवीं लोकसभा चुनाव में दो नारों की धूम रही, कांग्रेस का नारा ‘जात पर न पात पर मुहर लगेगी हाथ पर’ और भाजपा का ‘अबकी बारी अटल बिहारी’। भाजपा ने यह नारा अटल बिहारी वाजपेयी की लखनऊ की चुनावी सभा में दिया, जिसकी देश में गूंज हुई, लेकिन दोनों ही दलों को खंडित जनादेश मिला। इस चुनाव में भाजपा गठबंधन को 161 और कांग्रेस को 140 लोकसभा क्षेत्रों में सफलता मिली। 12वीं लोकसभा के चुनाव में भाजपा ने हिंदुत्व को उभारने के लिए एक बार फिर ‘रामलला हम आएंगे’ नारा बुलंद किया और कांग्रेस ने ‘स्थायित्व’ के नारे पर वोट मांगा लेकिन जनता प्रभावित नहीं हुई। देश को एक बार फिर खंडित जनादेश का सामना करना पड़ा। वर्ष 1999 के चुनाव में जिस नारे के सहारे भाजपा ने देश में हुकूमत बनायी, उससे उसे स्पष्ट बहुमत तो नहीं मिला, पर वह 269 सदस्यों के साथ सबसे बड़े गठबंधन के रूप में उसे ताकत मिली। कांग्रेस सोनिया गांधी के नेतृत्व में यह चुनाव लड़ रही थी। भाजपा ने ‘स्वदेशी बनाम विदेशी’ का नारा देकर चुनावी जंग को अटल और सोनिया के बीच ला खड़ा किया। भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने यहां तक ऐलान कर दिया कि अगर सोनिया गांधी देश की प्रधानमंत्री बनीं तो वह अपना सिर मुड़वा देंगी। यह फायर ब्रांड नारा भी देश की जनता को भाजपा के पक्ष में एकतरफा खड़ा करने में कामयाब नहीं हो सका। देश में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्टÑीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार बनी, जिसने कार्यकाल पूरा किया।
वर्ष 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की उपलब्धियों को भाजपा ने ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा दिया, जो मतदाताओं को पसंद नहीं आया और राजग 181 सीटों पर सिमट कर रह गई। इस चुनाव में संप्रग को 218 सीटों पर सफलता मिली और कांग्रेस के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनाई। 2009 के चुनाव में कांग्रेस ने संप्रग-1 की उपलब्धियों पर वोट मांगा। कहा गया ‘जो कहा वो कर दिखाया’ और फिर संप्रग की सरकार बनी। ‘युवा जोश’ की टक्कर में गूंजा ‘कांग्रेस मुक्त’ नारे के बीच देश में 16वीं लोकसभा के लिए चुनाव की तैयारी चल रही है। राजनीतिक दल मतदाताओं का भरोसा जीतने के लिए हर कोशिश में जुटे हैं।
पार्टी और नेतृत्व के समर्थन में नारे दिए जा रहे हैं। कांग्रेस ने ‘कट्टर सोच नहीं युवा जोश’ नारे से यह संदेश देने की कोशिश की है कि उनका नेतृत्व कल भी धर्मनिरपेक्ष था और आज भी है। पार्टी की ओर से एक और नारा ‘हर हाथ शक्ति-हर हाथ तरक्की’ गढ़ा गया है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ‘भारत निर्माण’ के स्लोगन के साथ किये गये जनकल्याण के कार्यों का ब्योरा दे रही है तो भाजपा की ओर से ‘कांग्रेस मुक्त’ नारा दिया जा रहा है। समाजवादी पार्टी ने ‘देश बचाओ-देश बनाओ’ का नारा लगाया है। चुनाव प्रचार के दौरान अभी और नारे गढ़े जाएंगे और हवा में गूंजेंगे। देखना यह होगा कि किस नारे की गूंज मतदाताओं के कानों के जरिए दिलो-दिमाग में उतरती है और कौन से नारे सिर्फ शोर मचाकर उड़ जाते हैं।

Saturday, 8 March 2014

अन्नदाता का करुण क्रंदन

भारतीय अर्थव्यवस्था दिनोंदिन कमजोर होती जा रही है। हमारी सरकारें खस्ताहाल स्थिति के कारण तो अनगिनत बताती हैं लेकिन इनके निवारण की दिशा में ठोस प्रयास होते कभी नहीं दिखते। हमारी अर्थव्यवस्था का मुख्य घटक कृषि, दैवीय आपदा और कुप्रबंधन का शिकार है। मुल्क की 62 फीसदी जनसंख्या की उदरपूर्ति और 56 फीसदी लोगों को रोजगार देने वाला अन्नदाता गुरबत में जी रहा है। चुनावी वैतरणी पार करने की खातिर राजनीतिक दल सरकारी मातहतों को तो बिन मांगे खैरात बांटते हैं लेकिन किसानों की माली हालत कैसे सुधरे इस पर हर दल गूंगा-बहरा हो जाता है। आजादी के 67 साल बाद भी सरकार की कोई ऐसी मुकम्मल व्यवस्था परवान नहीं चढ़ी जो धरती पुत्रों के मायूस चेहरे पर मुस्कान ला सके। कहने को 1980 के प्रारम्भिक वर्षों में किसानों की माली हालत सुधारने की दिशा में कृषि बीमा योजना को व्यापक स्तर पर लागू किये जाने को खूब हाथ-पैर चलाए गये थे लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति में खोट के चलते तीन दशक बाद भी अन्नदाता वहीं खड़ा है, जहां वह पहले था।
एक बार फिर बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि ने धरती पुत्रों पर तबाही मचा दी है। इस प्राकृतिक आपदा ने किसान के मुंह का निवाला छीन लिया है। खेतों में खड़ी फसलें तबाह हो गई हैं। गेहूं के फूल नष्ट हो गये तो बालियां टूटकर बिखर गई हैं।  किसान खून के आंसू रो रहा है लेकिन सरकारी अमला उससे बेखबर है। अन्नदाता की उम्मीदों पर वज्राघात कोई नई बात नहीं है। पिछले तीन साल से किसानों पर कुदरत ऐसा ही कहर बरपा रही है। वर्ष 2012 में पाला-तुषार और अतिवृष्टि तो 2013 में पहले पाला और अब ओलावृष्टि की मार से किसानों का सब कुछ जमींदोज हो गया है। धरती पुत्रों पर आई इस विपदा का त्वरित आकलन कर उसे मदद देने की बजाय सरकारी अमला कागजी घोड़े दौड़ाने में मस्त है। किसानों से कोरे कागजों पर दस्तखत कराकर तहसीलों में मनगढ़ंत कहानियां दर्ज की जा रही हैं। यह जो हो रहा है वह अन्नदाता के साथ सरासर धोखा और छल है। जिनके पास खेती-किसानी ही दो वक्त की उदरपूर्ति का सहारा है, वे गरीब होकर न मुफ्त का सरकारी अनाज खाने के हकदार हैं और न ही सरकारी इमदाद के। विरासत में मिली सामाजिक तंगहाली और मध्यमवर्गीय होने का दर्द ओढ़कर खून के आंसू रोने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है।
भारत का किसान सिर्फ दैवीय आपदा से ही आजिज नहीं है बल्कि नौकरशाह उसकी सबसे बड़ी समस्या है। निकम्मा सरकारी अमला कृषि योजनाओं का स्वरूप इतना जटिल बना देता है कि आम किसान उसे समझ ही नहीं पाता और उसे मजबूरन नौकरशाही के चंगुल में फंसकर भ्रष्टाचार का शिकार होना पड़ता है। एक ओर भारत सरकार अपने कृषि निर्यात को बढ़ाने को फिक्रमंद है तो दूसरी तरफ लगभग 32 करोड़ लोगों को दो वक्त की रोटी भी मयस्सर नहीं है। देश में भूखे और कुपोषित लोगों की संख्या पर नजर डालें तो यह अमेरिका की कुल आबादी के बराबर है। अंतरराष्ट्रीय फूड पॉलिसी पर गौर करें तो भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता दिनोंदिन घट रही है। 1992 में आर्थिक सुधार के बाद प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता जहां 480 ग्राम थी वहीं 2010 में घटकर 441 ग्राम ही रह गई है।
देश में धरती पुत्रों की हालत में सुधार के लिए समय-समय पर फसल बीमा योजनाएं अमल में तो आर्इं लेकिन जमीनी रूप में वे कभी फलीभूत नहीं हो सकीं। 1985-86 में समग्र फसल बीमा योजना लागू हुई लेकिन यह योजना 1999 में बंद हो गई। यही हाल प्रायोगिक फसल बीमा योजना का रहा। 1997-98 में यह योजना अस्तित्व में आने से पहले ही उसी साल बंद कर दी गई। वर्ष 1999-2000 में राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना का शिगूफा भी खास प्रभावी नहीं रहा। हालांकि इसमें 2010 में कुछ संशोधन हुए लेकिन यह योजना भी किसानों की पीड़ा दूर नहीं कर सकी। 2003-04 में सरकार ने धरती पुत्रों को कृषि आमदनी बीमा योजना का सब्जबाग भी दिखाया लेकिन यह योजना भी उसी साल बंद कर दी गई। 2010-11 में संशोधित कृषि बीमा योजना में निजी कम्पनियों को भी शामिल किया गया लेकिन इन बीमा कम्पनियों ने ऐसी शर्तें तय कर दीं कि किसानों का हर्जाना दावा मान्य होने पर इन्हें मामूली भुगतान करना पड़े। निजी क्षेत्र की कृषि बीमा कम्पनियां व्यक्तिगत बीमा करने से कतराती हैं। किसानों की कृषि बीमा किस्त देने में भी हमारी सरकारें कभी उदार नहीं रहीं। अभी देश के किसानों की 10 फीसदी किस्त सरकार देती है जबकि अमेरिका में किसानों की किस्त का दो तिहाई हिस्सा सरकार वहन करती है।
देश में किसानों की माली हालत में सुधार के लिए सरकार को आर्थिक मदद के द्वार खोलने के साथ ही बड़े पैमाने पर मौसम केन्द्र खोले जाने की भी दरकार है ताकि किसानों को मौसम का पूर्वानुमान हो सके। अभी देश में लगभग दो सैकड़ा मौसम केन्द्र हैं जबकि खेती का कुल रकबा 14.1 करोड़ हेक्टेयर के आसपास है। देश में खेती के कुल रकबे को देखते हुए कम से कम छह हजार मौसम केन्द्र होने चाहिए। आदर्श तौर पर हर 15 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में एक मौसम केन्द्र होना समयानुकूल होगा। आजादी के बाद से अब तक बेशक बागड़ खेत चरते रहे हों पर सोलहवीं लोकसभा चुनावों की पूर्णाहुति के बाद बनने वाली नई सरकार से अपेक्षा है कि वह कृषि आबादी के लगातार बढ़ रहे चिन्ताजनक यक्ष प्रश्नों की सच्चाई को न केवल समझेगी वरन निराकरण के प्रयास भी सुनिश्चित करेगी। सच कहें जब तक मुल्क का धरती पुत्र खुश नहीं होगा, हमारी पवित्र धरा कभी नहीं खिलखिलाएगी।  किसी भी देश का विकास रथ किसानों की उपेक्षा से कभी आगे नहीं बढ़ सकता।


Friday, 7 March 2014

खून के आंसू रोता अन्नदाता

भारतीय अर्थव्यवस्था दिनोंदिन कमजोर होती जा रही है। हमारी सरकारें खस्ताहाल स्थिति के कारण तो अनगिनत बताती हैं लेकिन इनके निवारण की दिशा में ठोस प्रयास होते कभी नहीं दिखते। हमारी अर्थव्यवस्था का मुख्य घटक कृषि, दैवीय आपदा और कुप्रबंधन का शिकार है। मुल्क की 62 फीसदी जनसंख्या की उदरपूर्ति और 56 फीसदी लोगों को रोजगार देने वाला अन्नदाता गुरबत में जी रहा है। चुनावी वैतरणी पार करने की खातिर राजनीतिक दल सरकारी मातहतों को तो बिन मांगे खैरात बांटते हैं लेकिन किसानों की माली हालत कैसे सुधरे इस पर हर दल गूंगा-बहरा हो जाता है। आजादी के 67 साल बाद भी सरकार की कोई ऐसी मुकम्मल व्यवस्था परवान नहीं चढ़ी जो धरती पुत्रों के मायूस चेहरे पर मुस्कान ला सके। कहने को 1980 के प्रारम्भिक वर्षों में किसानों की माली हालत सुधारने की दिशा में कृषि बीमा योजना को व्यापक स्तर पर लागू किये जाने को खूब हाथ-पैर चलाए गये थे लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति में खोट के चलते तीन दशक बाद भी अन्नदाता वहीं खड़ा है, जहां वह पहले था।
एक बार फिर बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि ने धरती पुत्रों पर तबाही मचा दी है। इस प्राकृतिक आपदा ने किसान के मुंह का निवाला छीन लिया है। खेतों में खड़ी फसलें तबाह हो गई हैं। गेहूं के फूल नष्ट हो गये तो बालियां टूटकर बिखर गई हैं।  किसान खून के आंसू रो रहा है लेकिन सरकारी अमला उससे बेखबर है। अन्नदाता की उम्मीदों पर वज्राघात कोई नई बात नहीं है। पिछले तीन साल से किसानों पर कुदरत ऐसा ही कहर बरपा रही है। वर्ष 2012 में पाला-तुषार और अतिवृष्टि तो 2013 में पहले पाला और अब ओलावृष्टि की मार से किसानों का सब कुछ जमींदोज हो गया है। धरती पुत्रों पर आई इस विपदा का त्वरित आकलन कर उसे मदद देने की बजाय सरकारी अमला कागजी घोड़े दौड़ाने में मस्त है। किसानों से कोरे कागजों पर दस्तखत कराकर तहसीलों में मनगढ़ंत कहानियां दर्ज की जा रही हैं। यह जो हो रहा है वह अन्नदाता के साथ सरासर धोखा और छल है। जिनके पास खेती-किसानी ही दो वक्त की उदरपूर्ति का सहारा है, वे गरीब होकर न मुफ्त का सरकारी अनाज खाने के हकदार हैं और न ही सरकारी इमदाद के। विरासत में मिली सामाजिक तंगहाली और मध्यमवर्गीय होने का दर्द ओढ़कर खून के आंसू रोने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है।
भारत का किसान सिर्फ दैवीय आपदा से ही आजिज नहीं है बल्कि नौकरशाह उसकी सबसे बड़ी समस्या है। निकम्मा सरकारी अमला कृषि योजनाओं का स्वरूप इतना जटिल बना देता है कि आम किसान उसे समझ ही नहीं पाता और उसे मजबूरन नौकरशाही के चंगुल में फंसकर भ्रष्टाचार का शिकार होना पड़ता है। एक ओर भारत सरकार अपने कृषि निर्यात को बढ़ाने को फिक्रमंद है तो दूसरी तरफ लगभग 32 करोड़ लोगों को दो वक्त की रोटी भी मयस्सर नहीं है। देश में भूखे और कुपोषित लोगों की संख्या पर नजर डालें तो यह अमेरिका की कुल आबादी के बराबर है। अंतरराष्ट्रीय फूड पॉलिसी पर गौर करें तो भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता दिनोंदिन घट रही है। 1992 में आर्थिक सुधार के बाद प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता जहां 480 ग्राम थी वहीं 2010 में घटकर 441 ग्राम ही रह गई है।
देश में धरती पुत्रों की हालत में सुधार के लिए समय-समय पर फसल बीमा योजनाएं अमल में तो आर्इं लेकिन जमीनी रूप में वे कभी फलीभूत नहीं हो सकीं। 1985-86 में समग्र फसल बीमा योजना लागू हुई लेकिन यह योजना 1999 में बंद हो गई। यही हाल प्रायोगिक फसल बीमा योजना का रहा। 1997-98 में यह योजना अस्तित्व में आने से पहले ही उसी साल बंद कर दी गई। वर्ष 1999-2000 में राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना का शिगूफा भी खास प्रभावी नहीं रहा। हालांकि इसमें 2010 में कुछ संशोधन हुए लेकिन यह योजना भी किसानों की पीड़ा दूर नहीं कर सकी। 2003-04 में सरकार ने धरती पुत्रों को कृषि आमदनी बीमा योजना का सब्जबाग भी दिखाया लेकिन यह योजना भी उसी साल बंद कर दी गई। 2010-11 में संशोधित कृषि बीमा योजना में निजी कम्पनियों को भी शामिल किया गया लेकिन इन बीमा कम्पनियों ने ऐसी शर्तें तय कर दीं कि किसानों का हर्जाना दावा मान्य होने पर इन्हें मामूली भुगतान करना पड़े। निजी क्षेत्र की कृषि बीमा कम्पनियां व्यक्तिगत बीमा करने से कतराती हैं। किसानों की कृषि बीमा किस्त देने में भी हमारी सरकारें कभी उदार नहीं रहीं। अभी देश के किसानों की 10 फीसदी किस्त सरकार देती है जबकि अमेरिका में किसानों की किस्त का दो तिहाई हिस्सा सरकार वहन करती है।
देश में किसानों की माली हालत में सुधार के लिए सरकार को आर्थिक मदद के द्वार खोलने के साथ ही बड़े पैमाने पर मौसम केन्द्र खोले जाने की भी दरकार है ताकि किसानों को मौसम का पूर्वानुमान हो सके। अभी देश में लगभग दो सैकड़ा मौसम केन्द्र हैं जबकि खेती का कुल रकबा 14.1 करोड़ हेक्टेयर के आसपास है। देश में खेती के कुल रकबे को देखते हुए कम से कम छह हजार मौसम केन्द्र होने चाहिए। आदर्श तौर पर हर 15 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में एक मौसम केन्द्र होना समयानुकूल होगा। आजादी के बाद से अब तक बेशक बागड़ खेत चरते रहे हों पर सोलहवीं लोकसभा चुनावों की पूर्णाहुति के बाद बनने वाली नई सरकार से अपेक्षा है कि वह कृषि आबादी के लगातार बढ़ रहे चिन्ताजनक यक्ष प्रश्नों की सच्चाई को न केवल समझेगी वरन निराकरण के प्रयास भी सुनिश्चित करेगी। सच कहें जब तक मुल्क का धरती पुत्र खुश नहीं होगा, हमारी पवित्र धरा कभी नहीं खिलखिलाएगी।  किसी भी देश का विकास रथ किसानों की उपेक्षा से कभी आगे नहीं बढ़ सकता।


Wednesday, 5 March 2014

आगरा में गरीबों की कमाई पर चिटफण्डियों का डाका

एमपी की चिटफण्ड कम्पनियां आगरा सहित आसपास के जिलों में  कर रही हैं गोरखधंधा
केएमजे लैण्ड डवलपर्स इण्डिया के मालिक संतोषीलाल राठौर ने उगले कई राज
चिटफण्ड कम्पनियों ने अरबों रुपये की जुटा ली है बेनामी सम्पत्ति
आगरा। गरीबों की गाढ़ी कमाई पर डाका डालने वाली गैर फाइनेंसिंग कम्पनियों ने आगरा सहित आसपास के जिलों में न केवल अपना संजाल बिछा लिया है बल्कि अब तक अरबों रुपये की बेनामी सम्पत्ति भी जुटा ली है। इस बात का खुलासा हाल ही मध्य प्रदेश की ग्वालियर पुलिस के हत्थे चढ़े केएमजे लैण्ड डवलपर्स इण्डिया के मालिक संतोषीलाल राठौर ने किया है।
कभी एक खचाड़ा साइकिल में दूध बेचने वाला आज गरीबों की खून-पसीने की कमाई हड़प कर अरबों का मालिक बन बैठा है। अकेला संतोषीलाल राठौर ही नहीं कई और भी हैं जोकि मध्य प्रदेश में गरीबों से ठगी कर अब उत्तर प्रदेश के आगरा सहित दर्जनों शहरों के गरीबों को अपना शिकार बना रहे हैं लेकिन शासन-प्रशासन की उन पर नजर नहीं है। वर्ष 2008 में गरीबों को सब्जबाग दिखाकर करोड़ों की चल-अचल सम्पत्ति बनाने वाले संतोषीलाल राठौर ने पुलिस को बताया कि आगरा के संजय प्लेस व फिरोजाबाद के चन्द्र कॉम्प्लेक्स सुहाग नगर चौराहा से उसका कारोबार खूब फला-फूला। आगरा का उसका कारोबार अटल नगर मुस्तफा क्वार्टर आगरा निवासी गोपाल प्रसाद पुत्र रामचन्द्र गुप्ता ने सम्हाल रखा है। संतोषीलाल राठौर ने स्वीकार किया कि मध्य प्रदेश में पुलिस और प्रशासन के बढ़ते दबाव के चलते ही उसने उत्तर प्रदेश के आगरा, फिरोजाबाद, बरेली, झांसी, फतेहपुर, वाराणसी सहित देश के दूसरे शहरों में अपने कारोबार को मजबूती प्रदान की। इस नटवरलाल ने यह भी स्वीकार किया कि मध्य प्रदेश की दूसरी चिटफण्ड कम्पनियां भी आगरा सहित दूसरे शहरों में अपने पैर जमा चुकी हैं।
सनद रहे वर्ष 2011 में तत्कालीन ग्वालियर कलेक्टर आकाश त्रिपाठी ने अवैधानिक रूप से वित्तीय कारोबार कर रही 33 गैर फाइनेंसिंग कम्पनियों पर नकेल कसते हुए इनके कार्यस्थलों को न केवल सील करवा दिया था बल्कि इनके मालिकों के भूमिगत हो जाने पर इनके खिलाफ तीन-तीन हजार रुपये का ईनाम भी घोषित कर दिया था। प्रशासनिक दबाव के चलते इन चिटफण्डियों ने आगरा, झांसी सहित आसपास के जिलों में अपनी ठगी का अड्डा बना लिया। सुभाष नगर हजीरा, ग्वालियर निवासी चिटफण्डी संतोषीलाल पुत्र ग्यासीलाल राठौर पुलिस की सख्ती के सामने न केवल टूट गया बल्कि उसने अपने कारिन्दों के नाम भी उजागर कर दिये। उसने अटल नगर मुस्तफा क्वार्टर आगरा निवासी गोपाल प्रसाद पुत्र रामचन्द्र गुप्ता को अपना प्रमुख गुर्गा बताया। चिटफण्ड के कारोबार पर अंकुश लगाने की खातिर 30 जनवरी, 2012 को ग्वालियर कलेक्टर पी. नरहरि ने 53 गैर फाइनेंसिंग कम्पनियों की जांच कराई थी, जिनमें उस समय कुछ कम्पनियां मिली नहीं और जो मिलीं उन 45 गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों के संचालकों के पते पर नोटिस भिजवा दिए थे। इन अवैधानिक कम्पनियों में आनर डवलपमेंट आगरा और विनम्र फाइनेंस आगरा भी शामिल थीं।
बिना दस्तावेज बनाई अरबों की सम्पत्ति
पुलिस जांच में पता चला कि गैर बैंकिंग फाइनेंसिंग धंधे में लगी अधिकांश कम्पनियों के पास भारतीय रिजर्व बैंक में पंजीयन सम्बन्धी कोई दस्तावेज नहीं है। बिना दस्तावेजों के ही इन चिटफण्ड कम्पनियों ने अरबों की सम्पत्ति का साम्राज्य स्थापित कर लिया। नियमत: भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 की धारा 45 आई.ए. के अनुसार कोई भी नॉन बैंकिंग कम्पनी रिजर्व बैंक में पंजीयन कराये बगैर आम जनता से धन संग्रहण व निक्षेप स्वीकार नहीं कर सकती।
47 शहरों में संतोषी ने किया 500 करोड़ का खेल
केएमजे लैण्ड डवलपर्स इण्डिया लिमिटेड देश के 47 शहरों में 500 करोड़ का अवैध कारोबार कर चुकी है। नटवरलाल संतोषीलाल राठौर स्वयं तो इस ठगी के खेल में शामिल है ही उसकी गोसपुरा ग्वालियर निवासी पहली पत्नी निर्मला पुत्री चेतराम राठौर और बालाजीपुरम गुढ़ागुढ़ी का नाका ग्वालियर निवासी दूसरी पत्नी कंचन पुत्री अशोक कुशवाह भी कम्पनियों की डायरेक्टर हैं। शातिर कंचन ने ही दिल्ली आॅफिस के कागजातों को इधर-उधर कर ग्वालियर पुलिस को गुमराह कर दिया। फिलहाल पुलिस कंचन की तलाश में है।
सावधान! ये कम्पनियां बनाती हैं ठगी का शिकार
आनर डवलपमेंट आगरा और विनम्र फाइनेंस आगरा, एनबी प्लांटेशन भोपाल, हिमालय ई कॉम मार्केटिंग लिमिटेड नई दिल्ली, हाईलेस फाइनेंस इन्वेस्टमेंट लि. पटना, रेड कॉरपेट प्रा.लि. मुम्बई, वीटेल एवरेस्ट कैप सालूसन हैदराबाद, पीजीएफ लि. नई दिल्ली, सहारा कॉमर्शियल ग्वालियर, मेसर्स संचयनी इंदौर, म.प्र. लोक विकास फाइनेंस लि., समृद्धि जीवन फूड्स इण्डिया लिमिटेड, गरिमा रियल एस्टेट एण्ड एलाइड, सक्षम डेयरी एण्ड एलाइड लि., ग्रीन फिंगर्स एग्रो लैण्ड मेंटीनेंस एक्स प्रा.लि., रायल सन मार्केटिंग एण्ड इंश्योरेंस सर्विसेज, स्थायी लॉर्क लैण्ड डवलपर्स एण्ड इन्फ्रास्ट्रक्चर इण्डिया लि., आधुनिक हाउसिंग डवलपमेंट प्रा.लि., जीवन सुरभि डेयरी एण्ड एलाइड, परिवार डेयरी एण्ड एलाइड लि., जेएसवी डवलपर्स इण्डिया लि., केएमजे लैण्ड डवलपर्स इण्डिया लि., इण्डिया रियल एस्टेट, मधुर रियल एस्टेट एण्ड एलाइड, बीपीएन रियल एस्टेट एण्ड एलाइड, प्रवचन डेयरी एण्ड एलाइड लि., अनोल सहारा मार्केटिंग इण्डिया लि., केबीसीएल प्रा.लि., जीएन लैण्ड डवलपर्स, किम फ्यूचर विजन, पीएसीएल इण्डिया लि., एमकेडी लैण्ड डवलपर्स इण्डिया लि., कमाल इण्डिया रियल एस्टेट एण्ड एलाइड लि., सार्थक इण्डिया लि., आरबीएन लि., सार्इं प्रसाद फूड्स इण्डिया लि.,गालव लीजिंग एण्ड फाइनेंस लि., जेसीए मार्केटिंग लि., चन्द्रलोक फाइनेंस कम्पनी, स्टेट सिटीजन साख सहकारी मर्यादित, मधुर टूरिज्म एण्ड मर्केण्टाइल प्रा.लि., मधुर डेयरी एण्ड एलाइड लि., रायल सन मार्केटिंग सर्विसेज प्रा.लि. आदि।