Tuesday 28 July 2015

बहू तो बहू, सास ने भी मार ली बाजी


मेडलों के साथ बहू सुमित्रा व सास माया देवी, बीच में पोती है।
खेल विशेष हरियाणा
मैं तो घूमणे-फिरणे गई थी। मन्नै के खेलना आवै सै। बहू अर लोग कहण लाग्यै अम्मा तू भी खेलां मैं भाग ले ले अर अपना नाम लिखा दै। मन्नै सोचा मेरा किमी जा थोड़ा ही रहा है। किस्मत आजमावण मैं के जावे सै। सौ मन्नै अपना नाम लिखा दिया। बस फेर के था, मंै सबनै पटकनी देती चली गई और तीन गोल्ड (स्वर्ण) जीत लाई। यह कहना है 76 साल की माया देवी का। 3 गोल्ड जीतकर जब से वह अपने गांव लौटी हैं, फूली नहीं समा रहीं और घर आने वाले सभी लोगों को अपनी जीत का किस्सा बता रही हैं।
हुआ यह कि रेवाड़ी से मात्र पांच किलोमीटर दूर नारनौल रोड स्थित गांव हरिनगर की 35 वर्षीय सुमित्रा यादव खेलों में हिस्सा लेती रही हैं। जिला के गांव भालखी माजरा निवासी वृद्ध धावक किशन लाल प्रजापति को अपना प्रेरणास्रोत बताने वाली सुमित्रा को उनसे पता चला कि अलवर (राजस्थान) में पिछले माह जून में युवरानी एथलेटिक्स समिति द्वारा ओपन चैम्पियनशिप नेशनल मीट का आयोजन किया गया, इसमें कर्नाटक, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, झारखंड, पंजाब, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, यूपी सहित 16 राज्यों के सैकड़ों खिलाड़ियों ने भाग लिया। हरियाणा व जिला रेवाड़ी से भी अनेक खिलाड़ियों ने इसमें भाग लिया। सुमित्रा जब अलवर जाने को तैयार थी तो वह अपनी सास माया देवी से बोली कि-अम्मा तू भी म्हारे गैल चाल। घूम-फिर आइए और खेल भी देख लिए। माया उनके साथ चलने को तैयार हो गई। 26 जून की सुबह सास-बहू व किशनलाल अलवर के उस मैदान में पहुंच गए, जहां प्रतियोगिता होनी थी।
प्रतियोगिता का दौर शुरू हुआ। सुमित्रा ने अपना नाम अपने 35+ आयु वर्ग के हैमर, डिस्कस थ्रो व गोला फेंक के लिए पंजीकृत करा दिया। माया देवी ने अपनी बहू के घर में रखे मेडल तो खूब देखे थे, लेकिन वह पहली बार उसके जौहर मैदान पर देखने के लिए बेताब थी। इसी बीच सुमित्रा ने अपनी सास माया देवी को यह कहते हुए प्रेरित किया कि अम्मा तू भी अपनी मनपसंद खेलों में नाम लिखवा दे। इतना सुनते ही वहां मौजूद लोगों ने माया देवी का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। माया अपनी परम्परागत घाघरा-लूगड़ी पहने अलवर गई थी। माया को ताने चुभ गए और वह मैदान में उतरने को तैयार हो गई। उसने जब घाघरा-लूगड़ी की जगह ट्रैकसूट पहना तो सभी अचम्भित रह गए। जो लोग उस पर हंस रहे थे, वे उसके साहस पर दंग थे।
सुमित्रा ने हैमर, डिस्कस थ्रो व गोला फेंक में सभी को पछाड़ते हुए गोल्ड मेडल जीते। इधर माया देवी ने 75+ आयुवर्ग की गोला फेंक, डिस्कस थ्रो व 400 मीटर दौड़ में गोल्ड जीतकर सभी की जुबान बंद कर दी। तब तक माया देवी का आत्मविश्वास लौट आया और बॉडी लैंग्वेज भी बदल गई थी। गले में गोल्ड मेडल डालकर जब उसके फोटो खिंचे तो खुशी का कोई ठिकाना नहीं थी। दोनों सास-बहू ने 3-3 गोल्ड मेडल जीतकर जिला रेवाड़ी के लिए एक नया इतिहास रच दिया। उनके अलावा किशन लाल ने 70+ आयु वर्ग की लम्बी कूद में गोल्ड मेडल, 400 मीटर दौड़ व हाई जम्प में सिल्वर मेडल जीते।
छह गोल्ड जीतकर सास-बहू जब गांव हरिनगर लौटे तो उन्हें देखने वालों का तांता लग गया। गांव में सास-बहू की जोड़ी पलभर में मशहूर हो गई। खेती-बाड़ी करने वाले उनके पति लाल सिंह अपनी पत्नी की उपलब्धि से बेहद खुश थे। वे कहते हैं-ये तो खाली हाथ भेजी थी। मन्नै के बेरा था कि वो सोना लेकर आवैगी।
दिलचस्प बात यह है कि राष्ट्रीय स्तर की इस प्रतियोगिता को देखने के लिए सेना के कमाण्डेंट सुनील कुमार वहां आए हुए थे। उन्हें मुंबई के ताज हमले में आठ गोलियां लगी थीं। वे माया देवी को खिलाड़ी के रूप में देखकर इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने उनके गांव हरिनगर आने का वादा किया। सुमित्रा की निगाहें अब अगले साल होने वाले एशियन गेम्स पर हैं। इसके लिए उसने अभी से प्रेक्टिस भी शुरू कर दी है। वहां से गोल्ड जीतकर लाना उसका बड़ा सपना है। इस गेम्स में वह और उसकी सास दोनों भाग लेंगे। उन्हें खेलों में भाग लेने की प्रेरणा 70 बार रक्तदान कर चुके रामकृत से मिली। कोच करतार सिंह खंडोड़ा, सुमेर सिंह व युधिष्ठर रहे हैं।
बेटियां किसी पर बोझ नहीं
सुमित्रा कहती हैं कि बेटी आज किसी की मोहताज व बोझ नहीं हैं। वह अब असम्भव को सम्भव करने में सक्षम हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ मुहिम का संकुचित विचारों वाले परिवारों पर भी असर हुआ है और उनके घरों में बेटियों की कद्र होने लगी है। वह कहती हैं कि उसकी जैसी सास भगवान सभी बेटियों को दें। उसकी सास उसे बहू से भी ज्यादा बेटी मानती हैं। इसके अलावा पति व ससुर के समर्थन की बदौलत ही वह आज यहां तक पहुंची है।
सीआरपीएफ में भी हुआ था चयन
सुमित्रा का 1998 में खेलों के आधार पर 88 बटालियन सीआरपीएफ में सिपाही के पद पर चयन हो गया था लेकिन वह वहां जाने के बजाय परिवार में रहकर कुछ करना चाहती थी। इसमें परिवार का सहयोग भी मिला, फलस्वरूप उसने सीआरपीएफ ज्वाइन नहीं की।
तानों के बावजूद नहीं छोड़ा खेलना
सुमित्रा कहती हैं कि विवाह के बाद उसके खेल कई साल तक छूट गए। लोगों ने ताने दिए कि ब्याही-थ्याही छोरी अब खेलती अच्छी नहीं लगे। बच्चे होने के बाद तो खेल पर पूरी तरह से बंदिश लग गई। लेकिन मेरा मन इसे स्वीकार नहीं कर रहा था। मेरे पति जितेन्द्र व सास माया देवी का सहयोग मिला और फिर कदम मैदान की ओर बढ़ चले। मैं 15 साल के लड़के, 12 व 9 साल की बेटियों की मां हूं। मैं अपनी बेटियों को भी एथलीट बनाना चाहती हूं।
खो-खो की चैम्पियन भी रही
सुमित्रा यादव को बचपन से ही खेलों में भाग लेना अच्छा लगता था। जब वह छठी कक्षा में थी तो पहली बार दौड़ लगाई थी और ईनाम जीता था। वह 10 राष्ट्रीय व लगभग 25 राज्यस्तरीय खेलों में हिस्सा लेकर अनेक मेडल जीत चुकी है। उसके प्रिय खेल दौड़, खो-खो व मटकी रेस रहे हैं। वह 1998 में खो-खो चैम्पियन भी रह चुकी है। आंगनबाड़ी केन्द्रों द्वारा महिलाओं के लिए जब भी प्रतियोगिताएं होती हैं तो वह सबसे पहले वहां पहुंचती है। उसने मटकी रेस व दौड़ में सदैव प्रथम स्थान पाया।
पीलिया ने दिखाई दौड़ की राह
500 प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेकर 408 में प्रथम स्थान पाने वाले 70 वर्षीय भालखी माजरा निवासी किशन लाल प्रजापति को यदि पीलिया की बीमारी नहीं होती तो वह आज धावक नहीं होते। वर्ष 2008 में उन्हें पीलिया हो गया था। गुड़गांव में हुए इलाज के बाद कमजोरी के चलते उन्हें दौड़ने की सलाह दी गई थी। उस समय लगाई गई दौड़ उसके जीवन का हिस्सा बन गई और आज तक वह दौड़ लगा रहे हैं। जिला, प्रदेश व राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में जीते अनेक मेडल उन्होंने अपने घर में सजा रखे हैं।
गांव में कराऊंगी गेम्स
सुमित्रा कहती हैं मैंने फैसला लिया है कि अपने गांव हरिनगर में बच्चों व युवाओं को आगे लाने व स्वस्थ बनाने के लिए हर छह माह में गेम्स व योग कराऊंगी। गांव में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है।

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