Monday, 23 April 2018

मध्य प्रदेश में रंग ला रही है संविदा हाकी प्रशिक्षकों की मेहनत


 अब प्रदेश की बेटियों से होगी महिला हाकी एकेडमी गुलजार
                                     श्रीप्रकाश शुक्ला
मध्य प्रदेश सरकार द्वारा महिला हाकी के उत्थान की दिशा में किए गये कार्यों के नतीजे अब दिखने लगे हैं। 12 साल पहले जहां खोजने से भी प्रतिभाएं नहीं मिल रही थीं वहीं आज स्थिति बिल्कुल अलग है। अब सिर्फ ग्वालियर ही नहीं दमोह, मंदसौर, मुरैना, बालाघाट, नीमच, सिवनी, होशंगाबाद आदि जिलों के फीडर सेण्टरों से भी प्रतिभाएं निकल कर आ रही हैं। हम कह सकते हैं कि सरकार ने संविदा प्रशिक्षकों को बेशक उनका वाजिब हक न दिया हो लेकिन उनकी मेहनत रंग लाने लगी है। संविदा प्रशिक्षकों की लगन से तैयार हुई प्रतिभाशाली बालिकाओं की यह पौध अब मध्य प्रदेश महिला हाकी एकेडमी में रोपी जाएगी। मध्य प्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग की मंशा है कि अब महिला हाकी एकेडमी में प्रदेश के फीडर सेण्टरों की बेटियों को ही अधिकाधिक मौका मिले। खेल विभाग के इन प्रयासों को अमलीजामा पहनाया जाए इससे पहले जरूरी है कि संविदा प्रशिक्षकों को नियमित कर फीडर सेण्टरों को और सुविधाएं मयस्सर कराई जाएं।
अब मध्य प्रदेश की बेटियां हाकी उठा चुकी हैं। उनकी प्रतिभा भी परवान चढ़ने लगी है। प्रदेश की हाकी बेटियों का कारवां आहिस्ते-आहिस्ते टीम इण्डिया की तरफ बढ़ रहा है। आज प्रदेश सरकार यदि खिलाड़ियों को सुविधाएं मुहैया करा रही है तो उसके अच्छे परिणाम भी मिलने लगे हैं। 12 साल पहले शून्य से शुरू हुआ महिला हाकी के उत्थान का सफर अब प्रदेश की बेटियों की सफलता का पैगाम साबित हो रहा है। 12 साल पहले देश की 23 प्रतिभाशाली खिलाड़ियों से ग्वालियर में खुली महिला हाकी एकेडमी आज हिन्दुस्तान की सर्वश्रेष्ठ हाकी पाठशाला है। ग्वालियर में जब यह एकेडमी खुली थी उस समय मध्य प्रदेश में हाकी बेटियों का अकाल सा था लेकिन अब ऐसी बात नहीं है। आज मध्य प्रदेश में इतनी प्रतिभाएं हैं कि हर आयु समूह की टीमें तैयार हो सकती हैं।
कभी मध्य प्रदेश की हाकी एकेडमी को चलाने के लिए प्रशिक्षकों को उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मणिपुर, मिजोरम, दिल्ली, झारखण्ड आदि राज्यों की हाकी बेटियों का मुंह ताकना पड़ता था लेकिन मध्य प्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग द्वारा हर जिले में खोले गए फीडर सेण्टरों से स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिल रहा है। यद्यपि फीडर सेण्टरों की प्रतिभाओं को वह सारी सुविधाएं नहीं मिल रहीं जिनकी कि घोषणा की गई थी। दरअसल हाकी जैसे खेल में गरीब-मध्यवर्गीय परिवारों की बेटियां ही रुचि लेती हैं। ऐसे में यदि इन बेटियों को एक हाकी किट की बजाय खेल विभाग दो-दो किट मयस्सर कराने के साथ इन्हें प्रतिदिन कुछ पौष्टिक आहार भी प्रदान करे तो सच मानिए मध्य प्रदेश की बेटियां भी मादरेवतन का मान बढ़ा सकती हैं।
मध्य प्रदेश की प्रतिभाओं को खेलों की तरफ आकर्षित करने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की पहल पर प्रतिवर्ष ग्रीष्मकालीन खेल प्रशिक्षण शिविर के आयोजन के साथ दर्जनों हाकी के फीडर सेण्टर खोले गये लेकिन खेल विभाग की अनिच्छा के चलते इस महत्वाकांक्षी योजना का जो लाभ मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा। दरअसल, खेल वर्ष भर चलने वाली प्रक्रिया है। हाकी हो या दीगर खेल यदि विभाग के पास बारहमासी खेल नीति नहीं होगी तो बेहतर परिणाम कभी नहीं मिलेंगे। महिला हाकी और फीडर सेण्टरों की जहां तक बात है ग्वालियर के अविनाश भटनागर, संगीता दीक्षित, मंदसौर के अविनाश उपाध्याय, रवि कोपरगांवकर जैसे प्रशिक्षकों के जुनून के चलते ही प्रतिभाशाली हाकी बेटियों ने मैदानों की तरफ रुख किया है। इसमें विभाग के क्वार्डिनेटरों के योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता।
सिवनी की क्वार्डिनेटर सुषमा डेहरिया का कहना है कि लड़कियों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है, जरूरत है उन्हें सही दिशा एवं अवसर प्रदान करने की। सुषमा कहती हैं कि सरकार के प्रयासों से अब मध्य प्रदेश हाकी का हब बन रहा है, इस खेल में अपार सम्भावनाएं हैं। इसलिए लड़कियों को हाकी में बढ़ावा देने के लिए विशेष प्रयास किये जाने चाहिए। संविदा प्रशिक्षकों के साथ ही खेलों से जुड़े अन्य लोगों को नियमित किया जाना भी जरूरी है। सुषमा कहती हैं कि फीडर सेण्टरों में हाकी बेटियों को कुछ डाइट मिलना भी जरूरी है। मंदसौर के स्पोर्ट्स टीचर रवि कोपरगांवकर का भी कहना है कि मध्य प्रदेश की प्रतिभाओं में खेल कौशल की कमी नहीं है। यदि खिलाड़ियों को कुछ पौष्टिक आहार मिलने लगे तो हमारे खिलाड़ी किसी भी टीम से लोहा ले सकते हैं।
मध्य प्रदेश के फीडर सेण्टरों से निकलने वाली हाकी बेटियों के बारे में एकेडमी के मुख्य प्रशिक्षक परमजीत सिंह बरार का कहना है कि ग्वालियर को छोड़ दें तो दमोह, मंदसौर, मुरैना, बालाघाट, नीमच, सिवनी और होशंगाबाद के फीडर सेण्टरों से ट्रायल देने आई प्रतिभाओं ने जहां मुझे काफी प्रभावित किया है वहीं इनका शारीरिक दमखम सोचनीय बात है। हाकी में दमखम की जरूरत होती है। बेहतर होगा फीडर सेण्टरों के खिलाड़ियों को प्रतिदिन कुछ न कुछ पौष्टिक आहार दिया जाए। मध्य प्रदेश और अन्य प्रदेशों की प्रतिभाओं के प्रश्न पर श्री बरार का कहना है कि हाकी ही नहीं खेल कोई भी हो जब तक प्रतिस्पर्धा नहीं होगी परिणाम सकारात्मक नहीं मिल सकते। खुशी की बात है कि अब मध्य प्रदेश के पास भी प्रतिभाएं हैं, जिन्हें अवसर की दरकार है।
                               जबलपुर में हाकी का गिरता ग्राफ  
भारतीय महिला हाकी को छह अंतरराष्ट्रीय महिला खिलाड़ी देने वाले जबलपुर में महिला हाकी का गिरता ग्राफ चिन्ता की बात है। जबलपुर की जहां तक बात है यहां की अविनाश कौर सिद्धू, गीता पण्डित, कमलेश नागरत, आशा परांजपे, मधु यादव, विधु यादव ने भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया है। मधु यादव हाकी में एकमात्र मध्य प्रदेश की महिला अर्जुन अवार्डी हैं। स्वर्गीय एस.आर. यादव की बेटी मधु ने लम्बे समय तक मुल्क की महिला हाकी का गौरव बढ़ाया। वह 1982 एशियन गेम्स की स्वर्ण पदक विजेता टीम का सदस्य भी रहीं। मधु यादव के परिवार की जहां तक बात है इस यदुवंशी परिवार की रग-रग में हाकी समाई हुई है। मधु और विधु ने भारत का प्रतिनिधित्व किया तो इसी घर की बेटी वंदना यादव ने भारतीय विश्वविद्यालयीन हाकी में अपना कौशल दिखाया। छह अंतरराष्ट्रीय महिला हाकी खिलाड़ी देने वाले जबलपुर की गीता पंडित, कमलेश नागरत तथा आशा परांजपे भारत छोड़ विदेश जा बसी हैं। संस्कारधानी जबलपुर में हाकी का गिरता ग्राफ चिन्ता की ही बात है।


Friday, 20 April 2018

गोल्ड कोस्ट में भी दिखा नारी शक्ति का जलवा


दमखम दिखाते हिन्दुस्तानी
श्रीप्रकाश शुक्ला
आस्ट्रेलिया के गोल्ड कोस्ट में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में भारत का शीर्ष तीन देशों में शुमार तथा नारी शक्ति का जलवा इस बात का संकेत है कि खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर की निगहबानी में खिलाड़ियों में जोश और जज्बे का संचार हो रहा है। हरियाणावासियों के लिए तो यह सबसे ज्यादा गौरवशाली घड़ी है कि उसके 37 में से 22 खिलाड़ियों ने पदकों से अपने गले सजाये हैं। राष्ट्रमंडल खेलों में भारत ने 26 स्वर्ण सहित कुल 66 पदक जीते। कुल पदकों के एक तिहाई तमगे हरियाणा की झोली में जाना इस बात का सूचक है कि मुल्क की दो फीसदी जनसंख्या वाले राज्य ने खेलों को अपने जीवन का हिस्सा बना लिया है। नई दिल्ली में हुए 2010 राष्ट्रमंडल खेलों में भारत ने कुल 101 पदक जीते थे तो 2014 में हुए ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों में भारत पदक तालिका में 15 स्वर्ण पदकों समेत कुल 64 पदकों के साथ पांचवें पायदान पर रहा था। यूं तो गोल्ड कोस्ट में ग्लासगो से दो ही पदक ज्यादा मिले हैं लेकिन स्वर्ण पदकों की तालिका में 11 पदकों की छलांग का विशेष महत्व है।
राष्ट्रमंडल खेलों में भारत की जहां तक बात है वह अब तक 207 स्वर्ण, 195 रजत और 168 कांस्य के साथ कुल 570 पदक जीत चुका है। भारतीय खेल प्रबंधन को यह भी गौर करना होगा कि भारत को तीसरे स्थान तक पहुंचाने में शूटरों का योगदान सबसे अहम रहा जो हमारे लिए अपेक्षाकृत नया क्षेत्र है। अगले राष्ट्रमंडल खेलों में अभी से निशानेबाजी पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं, ऐसे में भारत को आस्ट्रेलिया में अच्छे प्रदर्शन के बाद भी कुछ खेलों पर ध्यान देने की जरूरत है। देखा जाए तो गोल्ड कोस्ट में राज्यों में हरियाणा तो खेलों में शूटिंग, टेबल टेनिस, भारोत्तोलन, कुश्ती और बैडमिंटन के सितारे तो चमके लेकिन परम्परागत हाकी तथा एथलेटिक्स में हमें अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई। जहां तक राज्यों की बात है तो कभी शीर्ष पर रहने वाले पंजाब समेत देश के विशाल राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार आदि को हरियाणा जैसे छोटे किन्तु बेहद प्रतिस्पर्धी विजेता से खेलों के उत्थान के दांव-पेच सीखने चाहिए।
स्ट्रेलिया के गोल्ड कोस्ट में भारत का मान बढ़ाने वाले पदक विजेताओं को सिर-आंखों पर बिठाया जाना अच्छी पहल है। इसलिए भी कि पदक विजेताओं में युवा और लड़कियों की बड़ी भागीदारी एक बड़े बदलाव और बेहतर भविष्य का संकेत दे रही है। खुशी इसलिए भी कि अधिकांश खिलाड़ियों की उपलब्धियां सरकार और खेल संगठनों के सहयोग से नहीं बल्कि उन्होंने खेलों में काबिज राजनीति के बावजूद हासिल की हैं। अच्छे प्रदर्शन के बावजूद भारतीय खिलाड़ियों और खेल नुमाइंदों को आत्ममुग्धता की आत्मघाती प्रवृत्ति से बचना चाहिए। यह जानते हुए कि गिने-चुने देशों में ही खेली जाने वाली क्रिकेट को अपवाद मान लें तो एशियाई खेल, राष्ट्रमंडल खेल और ओलम्पिक खेल समेत ज्यादातर महत्वपूर्ण वैश्विक खेलों में भारत का प्रदर्शन कभी उसके आकार तथा आबादी के अनुरूप नहीं रहा। हाल के राष्ट्रमंडल खेलों की ही बात करें तो भारत के कुछ प्रदेशों से भी आकार और आबादी में कम आस्ट्रेलिया के 474 खिलाड़ियों ने 42 प्रतिशत सफलता के साथ 198 पदक जीते तो इंग्लैंड के 396 खिलाड़ी भी 34 प्रतिशत सफलता के साथ 136 पदक जीतने में सफल रहे। बेशक अतीत के मद्देनजर 66 पदकों के साथ पदक तालिका में तीसरे स्थान पर रहना भारत के लिए बड़ी उपलब्धि है लेकिन पहले और दूसरे स्थान पर रहे आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड से पदकों का फासला बताता है कि हम वास्तव में कहां खड़े हैं। भारत ने गोल्ड कोस्ट में 218 खिलाड़ी भेजे थे जो 30 प्रतिशत सफलता के साथ 66 पदक ही जीत पाये।
सच तो यह है कि राष्ट्रमंडल खेलों में भाग लेने वाले देशों की आबादी भारत के कई राज्यों से भी कम है पर उपलब्धियां बेहद शानदार। बेशक कम आकार और आबादी के बावजूद भारत से अधिक पदक जीतने वाले आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड की गिनती विकसित देशों में होती है लेकिन हमने देखा है कि ओलम्पिक सरीखे खेल महाकुम्भ में तो गरीबी और भुखमरी से त्रस्त देश भी भारत से बेहतर प्रदर्शन कर जाते हैं। देखा जाए तो आजादी के सात दशक बाद भी भारत में खेल संस्कृति आकार नहीं ले पाई है। हर क्षेत्र की तरह भारत में खेलों पर भी राजनीति हावी है। ज्यादातर खेल संघों पर ऐसे राजनेता-नौकरशाह काबिज हैं जिनका खेलों से दूर-दूर तक कभी कोई रिश्ता नहीं रहा। राजनेताओं और नौकरशाहों की आजीवन खेल संघों पर काबिज रहने की अंतहीन लालसा के पीछे मुख्य वजह खेल संघों में निहित अकूत धन और दबदबा है। विश्व की सर्वाधिक धनी संस्थाओं में शुमार भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और हॉकी संघों समेत कई संस्थाओं पर कब्जे का झगड़ा अदालतों तक पहुंचना इसी बात का संकेत है।
भारत की जहां तक बात है यहां खिलाड़ी सरकारी मंशा से नहीं बल्कि अभिभावकों के कठोर त्याग से कुंदन बनते हैं। अगर यह अतिरंजना लगती है तो फिर कोई बताये कि 15 साल के अनीश भानवाल, 16 साल की मनु भाकर तथा दो स्वर्ण समेत चार पदक जीतने वाली गोल्डन गर्ल मनिका बत्रा की सफलता में सरकार और खेल संघों का कितना योगदान है। ज्यादातर भारतीय पदक विजेताओं की संघर्ष गाथा एक जैसी ही है जिन्होंने समाज और सरकार की उपेक्षा के बावजूद अपनी जिजीविषा और परिजनों के बेमिसाल सहयोग से यह मुकाम हासिल किया है। देश की मात्र दो प्रतिशत आबादी वाले हरियाणा के खिलाड़ियों ने राष्ट्रमंडल खेलों में 22  पदक जीते। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर शेष 98 फीसदी आबादी वाले राज्य क्या कर रहे हैं। खासकर पंजाब, जिसे कभी खेलों का पॉवर हाउस कहा जाता था। हरियाणा के 37 खिलाड़ियों में से 22 ने  पदक जीते, जबकि पंजाब के 28  खिलाड़ी मात्र तीन पदक ही जीत सके और उनमें भी कोई स्वर्ण नहीं। जिस पंजाब से कभी हॉकी स्टार और एथलीट निकलते थे, वह राज्य आज ड्रग्स की तस्करी और माइनिंग माफिया के लिए सुर्खियां बनता है। पंजाब ही नहीं यह शेष सभी राज्यों के लिए भी आत्मविश्लेषण का समय है कि वह हरियाणा से सबक और प्रेरणा लें, जहां के खिलाड़ियों ने अपनी संकल्प शक्ति और कड़ी मेहनत के बूते अपने परिवार और राज्य का ही नहीं बल्कि देश का भी मान बढ़ाया है। यह अस्वाभाविक नहीं कि बिना योगदान हरियाणा सरकार इन उपलब्धियों का श्रेय ले।
देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है जरूरत उन्हें ऊंची उड़ान भरने के लिए अनुकूल माहौल देने की है। पदक जीतने पर खिलाड़ियों को लाखों-करोड़ों के ईनाम मिलना अपनी जगह सही है लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है कि तैयारियों के लिए मदद और सही ढांचा मिले, जिसका सर्वथा अभाव नजर आता है। राष्ट्रमंडल के 88 साल के इतिहास में भारत का यह तीसरा सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। भारत के इस नायाब प्रदर्शन में पुरुषों से कहीं अधिक महिलाएं शाबासी की पात्र हैं। भारत की बेटियों ने अपने शानदार प्रदर्शन से भारतीय दल के प्रदर्शन को यादगार बना दिया। प्रतियोगिता के पहले दिन जहां भारोत्तोलन में मीराबाई चानू ने भारत को स्वर्णिम शुरुआत दिलाई तो अंतिम दिन साइना और सिंधु ने बैडमिंटन में स्वर्ण और रजत पदक जीतकर धाक जमा दी। भारोत्तोलन में तीन महिलाओं ने सबसे अधिक पदक जीतकर भारत के लिए स्वर्ण अपने नाम किए, इनमें मीराबाई चानू, संजीता चानू और पूनम यादव शामिल हैं। निशानेबाजी में 16 वर्षीय मनु भाकर ने स्वर्ण पर निशाना साधकर अपना नाम इतिहास के पन्नों में लिखाया। निशानेबाजी में मिले सात स्वर्ण पदकों में से चार स्वर्ण पदक तो भारतीय महिला निशानेबाजों ने ही जीते। टेबल टेनिस में भारतीय महिला टीम ने पहली बार राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीता तो मनिका बत्रा ने महिला एकल में स्वर्ण जीतकर प्रतियोगिता में अपना दूसरा स्वर्ण हासिल किया। अनुभवी एमसी मैरीकॉम ने मुक्केबाजी में स्वर्ण जीतकर एक और उपलब्धि हासिल की तो कुश्ती में विनेश फोगाट ने अपने सभी मुकाबले जीतकर स्वर्ण पदक से अपना गला सजाया।
अब सवाल यह उठता है कि जब अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर गरीबतम परिवार और उनके बच्चे अपने प्रयासों से देश का परचम फहरा सकते हैं तो अगर सरकारें और समाज उनके साथ सच्चे दिल से खड़े हों तो वे भारत को खेलों में तो कम से कम उसके आकार अनुरूप सम्मान दिला ही सकते हैं। फिलहाल तो उनकी मुख्य भूमिका यही नजर आती है कि जब ये खिलाड़ी अपने परिवारों के तमाम बजट को निचोड़ कर, एड़ी-चोटी का जोर लगाकर पदक जीत लेते हैं तो स्वनाम धन्य लोगों की इनके साथ फोटो खिंचवाने की होड़ सी लग जाती है। जिस समय ये खिलाड़ी आर्थिक, सामाजिक यानि तमाम तरह की विपरीत परिस्थितियों से जूझ रहे होते हैं, उस समय विरले ही इनका हाथ थामने को आगे आते हैं। महिलाओं, दलितों व अल्पसंख्यक सामाजिक पृष्ठभूमि से आने वाले खिलाड़ियों के संदर्भ में यह हकीकत और भी भयावह है। कई प्रतिभाएं उपयुक्त खेल सुविधाओं, सही कोचिंग, किट व डाइट के अभाव में रास्ते में ही दम तोड़ जाती हैं। चयन में व्याप्त भाई-भतीजावाद द्वारा कितनों के ही पंख कतर दिए जाते हैं। कितनी ही यौन शोषण की शिकार प्रतिभाएं सालों साल अपना दर्द साथ लिए रास्ते तलाशने को मजबूर होती हैं। सच कहें तो आज अपनी हिम्मत और हौसले के आधार पर अपना स्थान बनाती प्रतिभाओं के विचारों, अनुभवों और आकांक्षाओं को शामिल करने से ही भारतीय खेल दर्शन समृद्ध होगा। दुनिया की खेल ताकतों द्वारा उनके यहां विकसित की गई खेल संस्कृतियों का रास्ता इन्हीं मुकामों से होकर गुजरा है।
                                 हरियाणा का जवाब नहीं
हरियाणा सरकार की नई खेल नीति जहां व्यावहारिक नजर आती है वहीं इसमें नये खिलाड़ियों के लिये प्रेरक तत्व भी हैं। विडम्बना है कि देश के लिये युवा अवस्था में खून-पसीना एक करने वाले खिलाड़ियों को ढलती उम्र में अपना भविष्य अंधकारमय नजर आने लगता है। प्रतिष्ठा, अप्रत्याशित पैसा और वाहवाही के बाद जिन्दगी अर्श से फर्श का मुहावरा दोहराती दिखती है। खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन के हिसाब से हरियाणा प्रशासनिक सेवा और हरियाणा पुलिस सेवा में सम्मानजक नौकरी देने का मनोहर लाल खट्टर सरकार का फैसला प्रशंसनीय कदम है। हरियाणा की वर्ष 2015 की खेल नीति में हुड्डा सरकार ने स्वर्ण पदक विजेताओं को सीधे डीएसपी बनाने की नीति को अपनाया था। खिलाड़ियों को नौकरी देने की पहल करने वाला हरियाणा देश का पहला राज्य है। खुशी की बात है कि अब हरियाणा के खिलाड़ी ओलम्पिक, विश्वस्तरीय स्पर्धा, राष्ट्रमंडल खेल, एशियाई खेल तथा अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयीन खेलों में भी पदक जीतकर नौकरी हासिल कर सकेंगे तो निचले पदकों के विजेताओं, वैश्विक स्पर्धाओं में सेमीफाइनल व क्वार्टर फाइनल तक पहुंचने वाले खिलाड़ियों को भी निर्धारित श्रेणियों में नौकरी हासिल करने की पात्रता होगी। सरकार के इस फैसले से जहां खिलाड़ियों का आर्थिक पक्ष सुरक्षित होगा वहीं हरियाणा में स्वस्थ खेल संस्कृति का विकास होने से इंकार नहीं किया जा सकता। देखा जाए तो पूरे देश में खेल प्रतिभाएं ऐसे समाज से आती हैं जहां जीवन का संघर्ष बेहद कठिन हो चला है। मां-बाप अपनी पूंजी दांव पर लगाकर अपने बच्चों को खेल के मैदान पर उतारते हैं। उन पर परिवार की आर्थिक उम्मीदें भी टिकी होती हैं। यह भी जरूरी नहीं है कि हर खिलाड़ी कामयाब हो जाये। फिर यदि कामयाब हो भी जाये तो फिर समृद्धि चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात वाली होती है। ईनाम की राशि से आखिर कब तक जीवन जिया जा सकता है। हरियाणा की नई खेल नीति से प्रतिभाओं को अपना भविष्य सुरक्षित नजर आयेगा और अभिभावक कह सकेंगे, खेलोगे कूदोगे बनोगे नवाब।


भारत के भाल पर मनिका बत्रा का तिलक



राष्ट्रमंडल खेलों में जीते चार पदक
लक्ष्य स्पष्ट हो, कुछ कर गुजरने की तमन्ना हो और प्रयास पूरे मनोयोग से हों तो सफलता जरूर कदम चूमती है। ऐसी खुशी परिवार-कुटुम्ब से लेकर पूरा देश महसूस करता है। सफलता की नई इबारत लिखने वाली मनिका बत्रा इसकी जीवंत मिसाल हैं। गोल्ड कोस्ट राष्ट्रमंडल खेलों में एक-दो नहीं पूरे चार पदक लेकर आई भारत की इस बेटी ने सोने, चांदी और कांसे के पदकों से न केवल अपना गला सजाया बल्कि मुल्क के भाल पर अपनी कामयाबी का ऐसा तिलक लगा दिया जिसे खेलप्रेमी असम्भव मान बैठे थे। टेबल टेनिस की जहां तक बात है यह खेल भारत में अपेक्षाकृत कम खेला जाता है। इस खेल में प्रायः सिंगापुर के खिलाड़ियों की ही तूती बोलती रही है। गोल्ड कोस्ट से पहले इस खेल में सिंगापुर राष्ट्रमंडल खेलों में कभी हारा ही नहीं था। खैर, समय दिन और तारीख देखकर आगे नहीं बढ़ता। भारत के दिल दिल्ली की बेटी ने आस्ट्रेलिया के गोल्ड कोस्ट में ओलम्पिक विजेता और अपने से बहुत ऊंची रैंकिंग की खिलाड़ियों का मानमर्दन कर इस बात के संकेत दिए कि भारतीय बेटियां अब किसी से कम नहीं हैं। टेबल टेनिस के लिए मनिका ने बहुत कुछ खोया भी, मगर जो पाया वह किसी करिश्मे से कम नहीं है।
एक सामान्य पृष्ठभूमि से आने वाली मनिका के पांव पालने में ही नजर आने लगे थे। 15 जून, 1995 को जन्मी मनिका का परिवार दिल्ली के नारायण विहार में रहता है। उसने चार साल की उम्र में ही टेबल टेनिस खेलना शुरू कर दिया था। खेलते तो उसके भाई साहिल और बहन आंचल भी थे, मगर मनिका की बात ही कुछ और थी। वह जैसे इस खेल के लिए ही पैदा हुई हो। खेल के लिहाज से उसने स्कूल बदला और कोच की सलाह पर हंसराज मॉडल स्कूल में पढ़ाई पूरी की। वह जीसस एण्ड मैरी कॉलेज भी गई, मगर जल्दी ही उसे लगा कि खेल और पढ़ाई साथ-साथ नहीं चलेंगे। कॉलेज के लिए समय नहीं मिलता था सो इस बेटी ने पत्राचार से पढ़ाई पूरी की।
मनिका ने जो स्वर्णिम सफलता हासिल की, उसके लिए उसने बहुत कुछ खोया भी है। आकर्षक, मनमोहक व्यक्तित्व की धनी मनिका के लिए मॉडलिंग के प्रस्ताव भी आये। जब वह 16 साल की थी तो स्वीडन में पीटर कालर्सन अकादमी में प्रशिक्षण हेतु छात्रवृत्ति का प्रस्ताव मिला। मगर उसने ऐसे कई प्रस्ताव ठुकरा दिए। उसे अपना लक्ष्य पता था और अपना सौ प्रतिशत इसी को देना था। खेल में स्वर्णिम सफलता के लिए उसने कॉलेज और मॉडलिंग का त्याग किया, जिसके परिणाम सबके सामने हैं। आज वह भारत की नम्बर एक टेबल टेनिस खिलाड़ी है। कहते हैं पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं, मनिका बचपन से ही माणिक की भांति चमकने लगी थी। कड़ी मेहनत और लगन से मनिका बत्रा ने राज्यस्तरीय प्रतियोगिताओं से लेकर राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। वर्ष 2011 में मनिका ने चिली ओपन में अंडर-21 आयु वर्ग में रजत पदक जीतकर अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में दमखम दिखाया। वर्ष 2014 में ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों में उसने भारत का प्रतिनिधित्व किया, मगर उसकी पहुंच क्वार्टर फाइनल तक ही रही। इसी तरह वर्ष 2014 के एशियाई खेलों में वह तीसरे दौर तक ही पहुंच पाई लेकिन उसने अपनी खामियों को दूर करते हुए वर्ष 2015 में सम्पन्न राष्ट्रमंडल टेबल टेनिस चैम्पियनशिप में तीन पदक अपने नाम किए। इसमें टीम, एकल व युगल स्पर्धाएं शामिल थीं। इसी तरह मनिका ने वर्ष 2016 के दक्षिण एशियाई खेलों में मिश्रित युगल, टीम और महिला युगल वर्ग में तीन स्वर्ण पदक देश के नाम किए। इसके बाद मनिका ने वर्ष 2016 के ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक खेलों के लिए भी क्वालीफाई किया। इन तमाम पड़ावों से गुजरते हुए मनिका ने गोल्ड कोस्ट राष्ट्रमंडल खेलों में सर्वोत्तम प्रदर्शन का मार्ग प्रशस्त किया।
यह अलग बात है कि अब तक मनिका की पहचान भारतीय खेलप्रेमियों में मेरीकॉम, साइना नेहवाल, सानिया मिर्जा, पी.वी. सिंधु जैसी नहीं है मगर राष्ट्रमंडल खेलों के बाद उसने अपनी अलग पहचान जरूर बना ली है। एक बात यह भी कि अब तक टेबल टेनिस बहुत लोकप्रिय खेलों में शुमार नहीं रहा लेकिन अब जब मनिका ने महिला एकल में टेबल टेनिस का पहला स्वर्ण पदक भारत को दिला ही दिया तो बच्चे-बच्चे की जुबान पर उसका नाम है। यह विडम्बना ही है कि सरकार और खेल संघ प्रतिभाओं को निखारने में अपने दायित्वों का ईमानदारी से निर्वाह नहीं कर रहे। मनिका के खेल में जो निखार राष्ट्रमंडल खेलों में नजर आया, उसमें खेलों से पहले जर्मनी में ली गई एक महीने की स्पेशल ट्रेनिंग की भी बड़ी भूमिका है। वहां उसने खेल में तेज सर्विस, स्मैश और गेंद को नियंत्रित करने का कड़ा अभ्यास किया। इसका बहुत अधिक प्रभाव उसके खेल में नजर आया। यही वजह है कि राष्ट्रमंडल खेलों में टेबल टेनिस शुरू होने से ही अपराजेय मानी जाने वाली सिंगापुर की टीम को भारत ने हराकर एक साथ कई मिथक तोड़ दिए।
गोल्ड कोस्ट राष्ट्रमंडल खेलों में चार पदक जीतने वाली भारत की टेबल टेनिस खिलाड़ी मणिका बत्रा को यदि इन खेलों की पदक तालिका में अकेले रखा जाए तो उन्हें 18वां स्थान मिलता। मणिका ने गोल्ड कोस्ट में महिला एकल का स्वर्ण पदक, महिला टीम स्पर्धा का स्वर्ण, महिला युगल टीम में मौमा दास के साथ रजत पदक और जी. साथियान के साथ मिश्रित युगल में कांस्य पदक जीता। भारत की टेबल टेनिस टीम ने कुल सात पदक अपने नाम किये जिसमें चार पदक मणिका के हैं। मणिका इस तरह इन खेलों में सर्वाधिक चार पदक जीतने वाली सबसे सफल भारतीय खिलाड़ी बन गईं।
गोल्ड कोस्ट राष्ट्रमंडल खेलों में शानदार प्रदर्शन कर सुर्खियां बटोरने वाली मणिका बत्रा को उम्मीद है कि अब देश में टेबल टेनिस में क्रांति जरूर आएगी। 23 साल की इस खिलाड़ी ने राष्ट्रमंडल खेलों में अपनी सभी चार स्पर्धाओं में पदक जीते जिसमें महिला एकल और टीम चैम्पियनशिप के ऐतिहासिक स्वर्ण पदक भी शामिल हैं। इस उपलब्धि पर मणिका का कहना है कि चार पदक जीतना मेरे आत्मबल में जरूर इजाफा करेगा। उम्मीद करती हूं कि यह प्रदर्शन हमारे खेल को बैडमिंटन की राह पर ले जाने के लिए पर्याप्त साबित हो। अगर यह भारत में टेबल टेनिस को उस राह पर ले जाता है तो यह उपलब्धि मेरे लिए और अधिक महत्वपूर्ण होगी।
अपनी इस उपलब्धि के दौरान मणिका ने तीन बार की ओलम्पिक पदक विजेता और दुनिया की चौथे नम्बर की खिलाड़ी सिंगापुर की फेंग तियानवेई को दो बार हराया। फेंग को दो बार हराने के बारे में मनिका कहती हैं कि उसे दो बार हराना संतोषजनक रहा और ऐसा करने के लिए दोनों ही मैचों में मुझे अपना खेल बदलना पड़ा। इससे मेरे आत्मविश्वास में काफी इजाफा हुआ है। मनिका की विश्व रैंकिंग 58वीं है। एक अच्छी बात है कि भारतीय खिलाड़ी ऐसे खेलों में दस्तक देकर सफलता के झंडे गाड़ रहे हैं जो भारत में कम ही खेले जाते हैं। ये खेल नये खिलाड़ियों के लिए भविष्य की राह खोल रहे हैं। इन नये खेलों में दमखम दिखाने वाले खिलाड़ियों में देश के लिए कुछ कर गुजरने का दमखम है। मैच के दौरान मनिका के नाखूनों में तिरंगे का अक्स कुछ यही बयां कर रहा था। भारत की यह बेटी इस खेल को वैश्विक मंच पर और शोहरत प्रदान करे यही देश का हर खेलप्रेमी चाहता है।

Thursday, 12 April 2018

मनमोहिनी मनु भाकर


वाह! तीन माह में सात स्वर्णिम निशाने
श्रीप्रकाश शुक्ला
तीन माह में मनमोहिनी मनु भाकर के सात अंतरराष्ट्रीय स्वर्णिम निशाने न केवल हर भारतीय का मन पुलकित करते हैं बल्कि इस बात का संकेत देते हैं कि आने वाला वैश्विक खेल मंच हिन्दुस्तानियों की बाट जोह रहा है। जिस देश में खेल संस्कृति का पूर्णतः अभाव नजर आता हो, वहां 16 साल की उम्र में किसी भारतीय बेटी का ऐसा कमाल कल्पना से परे लगता है। मनमोहिनी मनु अपने लिए कोई लक्ष्य तय नहीं करती बल्कि तकनीक से काम लेती है। सीनियर और जूनियर विश्व कप में स्वर्णिम सफलता से आगाज करने वाली गोरिया गांव की इस बेटी का आज हर कोई मुरीद है। आस्ट्रेलिया के गोल्ड कोस्ट में हासिल स्वर्णिम सफलता कोई तुक्का नहीं है, बल्कि यह इस बेटी की अदम्य इच्छाशक्ति का परिचायक है। मनु की तो यह अभी शुरुआत है।  
दो साल पहले तक किसी ने सोचा भी न था कि झज्जर के गोरिया गांव की मनु ऐसे निशाने साधेगी कि सोने की बरसात होने लगेगी। हां, यह बेटी जन्मजात खिलाड़ी तो थी। कभी बॉक्सिंग में, कभी एथलेटिक्स, कभी टेनिस तो कभी ताइक्वांडो में हाथ आजमाती रही। कभी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के नाम मनु से प्रेरित होकर मां सुमेधा भाकर ने जब बेटी का नाम मनु रखा था तो वीरांगना के सपने जरूर संजोये होंगे। मनु की मां सुमेधा स्वयं जीवट किस्म की महिला हैं। परम्परा के चलते छोटी उम्र में शादी होने से वह अपने सपने तो पूरे न कर सकीं लेकिन उन सपनों को बेटी मनु ने पंख जरूर दिये। मनु की मां ने ससुराल आकर परम्परागत समाज से लोहा लेकर आगे की पढ़ाई की। जीवटता देखिये कि तड़के चार बजे मनु पैदा हुई और सुबह दस बजे मां सुमेधा पेपर देने गईं। उन्होंने परीक्षकों से बड़ी मिन्नतें करके परीक्षा दी।
यह वही झज्जर की मनमोहिनी मनु है, जिसे वर्ष 2017 में झज्जर के प्रशासन ने विदेश से पिस्तौल मंगवाने हेतु लाइसेंस देने में ढाई महीने लगाये थे। मीडिया में मामला उछलने के बाद एक हफ्ते में लाइसेंस मिला। यह वही झज्जर है जहां अब तक लिंगानुपात का अंतर हरियाणा में सबसे ज्यादा रहा है। यही वजह है जब वह गोल्ड कोस्ट में मेडल जीतने की तैयारी में थी तो मां ने कहा- बेटी याद रहे तुम्हें बाकी लड़कियों के लिये भी खेल व पढ़ाई की राह खोलनी है। मनु का सौभाग्य यह था कि उसे जीवट के धनी मां-बाप मिले। पिता ने उसके लिये मर्चेंट नैवी की नौकरी छोड़ दी तो कुछ खेल मनु को विरासत में भी मिले। मनु के दादा भारतीय सेना में थे और कुश्ती के लिये क्षेत्र में विशिष्ट पहचान रखते थे। मगर शूटिंग में उनके परिवार से कोई नहीं था।
शूटिंग एक महंगा खेल है, जिसके लिये एक साल में माता-पिता ने दस लाख रुपये तक खर्च किये। एक पिस्तौल ही दो लाख तक की आती है। आजकल मनु के माता-पिता एक स्कूल के जरिये गृहस्थी चला रहे हैं। अंग्रेजी माध्यम के इस सीबीएसई बोर्ड के स्कूल में तीरंदाजी, कबड्डी और बाक्सिंग आदि खेलों की सुविधाएं उपलब्ध हैं। खास बात यह है कि यहां झज्जर के आसपास की सैकड़ों खेल प्रतिभाओं को सीखने का मौका मिल रहा है। हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि इस गांव से कुछऔर मनु जल्दी ही करिश्मा दिखाती नजर आएं। गोल्ड कोस्ट में सोने पर निशाना साधने वाली मनु की झोली में पिछले एक साल में प्रतिष्ठित स्पर्धाओं के दस स्वर्ण पदक आए हैं, सात अंतरराष्ट्रीय स्वर्ण पदक तो इस बेटी ने तीन महीने में ही जीत दिखाए हैं। अब से दो साल पहले तक जिस लड़की ने कभी पिस्तौल नहीं उठायी हो, वह तमाम अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में सोने पर निशाना साधने लगे तो आश्चर्य होता है। मनु की किस्मत यह थी कि उसके स्कूल के पास शूटिंग रेंज उपलब्ध थी। स्कूल में जब पहली बार मनु ने पिस्तौल उठायी तो दस में से दस निशाने सटीक लगाए। उसके शिक्षक व कोच हैरत में पड़ गये। फिर इसके बाद तो मनु ने पीछे मुड़कर ही नहीं देखा। पिता नौकरी पर न जाकर उसे शूटिंग के लिये जगह-जगह लेकर जाते। सोलह साल की होने के कारण वह वाहन नहीं चला सकती थी। सार्वजनिक वाहन में पिस्तौल लेकर नहीं चल सकती थी, यही वजह रही कि पिता साये की तरह उसके साथ रहे।
होनहार बिरवान के होत चीकने पात की कहावत को चरितार्थ करने वाली मनु बचपन से ही पढ़ने-लिखने और खेल में उम्मीद जगाती नजर आती थी। वर्ष 2017 में हुई नेशनल शूटिंग चैम्पियनशिप में तो उसने मेडलों की बरसात कर दी थी। तब उसने कुल 15 मेडल जीते थे। मनु दस मीटर एयर पिस्टल श्रेणी में राष्ट्रीय चैम्पियन है। बीते साल उसने हिना सिद्धू को हराकर स्वर्ण पदक जीता था। मैक्सिको में सम्पन्न इंटरनेशनल शूटिंग स्पोर्ट्स फेडरेशन में मनु ने दो स्वर्ण पदक जीतकर देश का गौरव बढ़ाया। पहला स्वर्ण 10 मीटर एयर पिस्टल महिला वर्ग तो दूसरा मिश्रित वर्ग में जीता। झज्जर के यूनिवर्सल स्कूल में ग्यारहवीं की छात्रा मनु पढ़ाई में भी अव्वल है। निशानेबाजी के साथ मनु मेडिकल की पढ़ाई कर डॉक्टर बनने का सपना भी देख रही है। उसकी पढ़ाई में स्कूल उसे पूरा सहयोग करता है मगर धीरे-धीरे उसे एहसास हो चला कि शूटिंग और पढ़ाई साथ-साथ चलाना इतना आसान नहीं है। अभी तो मनु को बहुत दूर और ऊंचाई तक जाना है। इस साल उसे यूथ ओलम्पिक में भाग लेना है। फिर उसका सारा ध्यान 2020 के टोक्यो ओलम्पिक पर रहेगा।
अपनी बेटी की जीत से गौरवान्वित मनु के पिता रामकिशन भाकर कहते हैं कि आस्ट्रेलिया जाने से पहले ही हमें उम्मीद थी कि मनु जीतेगी क्योंकि वह कभी किसी टूर्नामेंट से खाली हाथ नहीं लौटी। अपने पहले ही कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड जीतने वाली युवा निशानेबाज मनु भाकर के पिता अपनी 16 साल की बेटी की सफलता से बेहद खुश और गर्व महसूस कर रहे हैं। श्री भाकर कहते हैं कि उन्होंने आस्ट्रेलिया जाने से पहले मैंने मनु से कहा था कि खेल में हार-जीत होती रहती है। बस अच्छे से खेलना और खेल का आनंद लेना। मुझे पता है कि मनु कभी दबाव नहीं लेती और हमेशा मस्ती में खेलती है। वह कहती है- हार गए तो हार गए, जीत गए तो जीत गए। बस अच्छे से खेलना है। वह हर शॉट पर फोकस करती है न कि पूरे गेम पर। वह अगला शॉट बेहतर करने के इरादे से खेलती है। मनु को उसके स्कूल के सहपाठी ऑलराउंडर कहते हैं। वह पढ़ाई के साथ-साथ तमाम खेलों में भी हाथ आजमाती है। घर पर मां के अनुशासन में वह मानसिक एकाग्रता के लिये ध्यान व योग का सहारा लेती है। देश का मन जीतने वाली मनु से हमें ढेर सारी उम्मीदें हैं। काश यह बेटी एशियाई खेलों के साथ टोक्यो ओलम्पिक में भी स्वर्णिम सफलता हासिल कर मादरेवतन का मान बढ़ाए।




Saturday, 7 April 2018

अन्याय की टीस से न्याय की कुर्सी तक



भारत की पहली ट्रांसजेंडर जज बनीं जोयिता मंडल
आज भी समाज में ट्रांसजेंडर को वह इज्जत नहीं मिलती जिनके कि वह हकदार हैं लेकिन जोयिता मंडल उन लोगों के लिए एक नजीर बनकर सामने आई हैं जो ट्रांसजेंडर को आम लोगों से अलग मानते हैं। 29 साल की जोयिता मंडल देश की पहली ट्रांसजेंडर जज बनी हैं। वह अन्याय की टीस से निकल कर न्याय की कुर्सी पर बिराजी हैं। जोयिता को आठ जुलाई, 2017 को पश्चिम बंगाल के इस्लामपुर की लोक अदालत में जज नियुक्त किया गया। जज बनने से पहले जोयिता मंडल को तरह-तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ा। यहां तक कि उदरपूर्ति के लिए इन्होंने भीख तक मांगी। जोयिता मंडल देश के ट्रांसजेंडर समुदाय के उन चंद लोगों में से एक हैं, जिन्होंने पूरी जिंदगी कठिनाईयों से लड़ते हुए एक सफल मुकाम हासिल किया है। जोयिता मंडल वर्ष 2010 से नई रोशनी नाम की एक संस्था में ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों के लिए भी काम कर रही हैं। जोयिता के सराहनीय प्रयासों का नतीजा है कि धीरे-धीरे लोग इस संस्था से जुड़ रहे हैं।
जोयिता मंडल की जहां तक बात है इन्हें बचपन से ही भेदभाव का सामना करना पड़ा। जब जोयिता मंडल छोटी थीं तो उन्हें हर बात पर घरवालों से डांट सुनने को मिलती। स्कूल में भी उन्हें ताने सुनने को मिलते थे। इन सभी चीजों से तंग आकर आखिर एक दिन इन्होंने घर छोड़ दिया। घर छोड़ने के बाद जब जोयिता ने कॉल सेंटर में नौकरी की तो उनका वहां भी मजाक उड़ाया गया, जिसके बाद उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी। घर और नौकरी छोड़ने के बाद जोयिता के लिए हर दिन काटना लोहे के चने चबाने जैसा था। उनके पास सर ढंकने के लिए छत नहीं थी। कोई भी उन्हें किराये पर कमरा देने के लिए तैयार नहीं होता था, ऐसे में सर्दी हो या गर्मी उन्हें खुले आसमान के नीचे रात गुजारनी पड़ती तो पेट की खातिर इन्हें कई बार भीख भी मांगनी पड़ी।
भीख मांगने से लेकर किसी लोक अदालत की जज बनने तक का सफर ट्रांसजेंडर जोयिता मंडल ने इसी जिंदगी में देखा है। आज जोयिता की जिंदगी किसी मिसाल से कम नहीं है। उन्होंने ये साबित कर दिया कि कुछ अलग और बेहतर करने के लिए सच्ची मेहनत और दृढ़ संकल्प की जरूरत होती है। जोयिता शुरू से ही पढ़ने में तेज थीं। प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के बाद जब उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तो लोग उन पर फब्तियां कसते थे। जब बात सहन से बाहर हो गई तो वह पढ़ाई छोड़कर सामाजिक कार्यकर्ता बन गईं तथा लोगों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए सहायता करना शुरू कर दिया।
कुदरत के कानून की विसंगति से अपूर्णता का संत्रास झेलना कितना पीड़ादायक और अपमानजनक होता है यह वही बता सकता है, जिसने यह यथार्थ भोगा है। बिना गलती के जीवनपर्यंत हिकारत, उपहास, तंज, दुत्कार और मर्म को भेदने वाले दुरूह स्वप्नों से उबरकर नई मंजिल तय करने के उदाहरण दुर्लभ ही मिलते हैं। पश्चिम बंगाल के एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्मीं जोयिता मंडल जीवन की तमाम ऐसी दुश्वारियों से गुजरीं। ईश्वर ने ‍‍उन्हें एक ऐसे बच्चे के रूप में जन्म दिया जिसे भारतीय समाज स्वीकार नहीं करता। लोकलाज के भय से परिवार ने उसकी परवरिश एक लड़के के रूप में की। ढांपने और छिपाने का यह सिलसिला आखिर कब तक चलता। उम्र बढ़ने के साथ शारीरिक भाषा व मन की सुकोमल भावनाएं बोलने लगीं। यहीं से सिलसिला शुरू हुआ तंज, हिकारत, दुत्कारने, मार-पिटाई और उपहास का। एक ऐसा दण्ड, जिसमें उसका कोई कसूर नहीं था।
जोयिता मंडल को स्कूल से कालेज तक तमाम त्रासदियों से गुजरना पड़ा। एक बार जोयिता मंडल दुर्गा महोत्सव के लिये सज-धज कर और साड़ी पहनकर मंडप में उन्मुक्त जीवन जी आईं। पंडाल में तो साड़ी में सजी-धजी जोयिता को किसी ने नहीं पहचाना, मगर घर लौटते ही उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। महिलाओं के कपड़े पहनने पर पिता ने इतनी निर्ममता से पीटा कि एक सप्ताह तक बिस्तर से न उठ सकीं। अस्पताल जा नहीं सकती थीं क्योंकि आस-पड़ोस व डॉक्टर को उसके ट्रांसजेंडर होने का पता चल जाता। मन व शरीर के जख्म लिये वह यूं ही कसमसाती रहीं। फिर एक दिन जोयिता ने स्वाभिमान की जिंदगी अपने अंदाज में जीने के लिये घर छोड़ने का फैसला लिया। घर छोड़ना भी जोयिता के लिये कोई आसान राह नहीं थी। कदम-कदम पर मुसीबतेंथीं। कानून की पढ़ाई बीच में छूट गई। होटल में रहने गईं तो ट्रांसजेंडर कहकर भगा दिया गया। हालात यहां तक जा पहुंचे कि उन्हें बस स्टैंड पर रात गुजारनी पड़ी और भीख मांगकर गुजारा करना पड़ा।
दर-दर भटकने और तमाम मुश्किलों के बावजूद जोयिता मंडल ने हौसला नहीं खोया। मगर जीवन के संघर्षों ने एक बार उन्हें उस चौखट तक पहुंचा दिया जहां ट्रांसजेंडरों द्वारा सदियों से नाच-गाकर जीवन का उपार्जन किया जाता है। मगर जोयिता को लगता था कि यह उनके जीवन की मंजिल नहीं है। जोयिता में समाज के लिये कुछ कर गुजरने की तमन्ना थी। जोयिता के मन में एक हूक थी कि अपने समुदाय के लोगों को कैसे शिक्षित करके सम्मानजनक ढंग से जीवनयापन का मार्ग प्रशस्त किया जाये। इसके लिए इन्होंने कानून की पढ़ाई पूरी करने की ठानी। साथ ही ट्रांसजेंडर वर्ग के अधिकारों की रक्षा के लिये मुहिम शुरू कर दी। जोयिता ने नई रोशनी नामक स्वयंसेवी संगठन के बैनर तले ट्रांसजेंडरों के लिये शिक्षा व रोजगार का मुद्दा उठाया ताकि वे आम नागरिकों की तरह जीवन-यापन कर सकें।
उस समय जोयिता की खुशी का पारावार न रहा जब सुप्रीमकोर्ट ने इस समुदाय को ट्रांसजेंडर के रूप में मान्यता दी। फिर जैसे उनके सपनों को पंख लग गये। नौकरियों में इस वर्ग को जगह मिलने लगी। अब तक जहां सरकारी कागजों में महिला-पुरुष कालम होते थे, अब उन्हें अन्य की श्रेणी में जगह मिली। निश्चय ही सदियों से जलालत की जिंदगी जी रहे इस समुदाय को सम्मान से जीने का अवसर नजर आया। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने तीसरे जेंडर को मान्यता दी थी, जिसके बाद ट्रांसजेंडर्स की स्थिति में काफी बदलाव आये हैं। कोर्ट ने सरकारी नौकरियों और कॉलेजों में भी ट्रांसजेंडर्स के लिए कोटा सुनिश्चित किया है। ट्रांसजेंडर्स के अधिकारों का एक बिल अब भी संसद में लम्बित है। लोक अदालत में आम तौर पर तीन सदस्यीय न्यायिक पैनल शामिल होता है जिसमें एक वरिष्ठ न्यायाधीश, एक वकील और एक सामाजिक कार्यकर्ता शामिल होता है। जोयिता मंडल एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में न्यायाधीश के पद पर नियुक्त हैं। जोयिता बताती हैं कि उनके साथी जज भी बहुत सहयोगी हैं और उनके साथ सम्मान से पेश आते हैं लेकिन अब भी कुछ लोग हैं जो उन्हें अजीब निगाहों से देखते हैं। कई लोग तो ऐसे हैं जो उन्हें जज की भूमिका में देखकर चौंक जाते हैं।
भारत में यह अधिकार मिलने में लम्बा वक्त लगा। देर आये दुरस्त आये की तर्ज पर आये इस फैसले ने जोयिता मंडल के मन की मुराद पूरी कर दी। आखिर वह समय ऐसा आया जब पश्चिम बंगाल के इस्लामपुर की लोक अदालत में जोयिता मंडल को जज की कुर्सी पर बैठने का अवसर मिला। जीवन भर कुदरत के फैसले के चलते अन्याय से जूझती जोयिता मंडल को अब न्याय की कुर्सी पर बैठने पर आत्मसंतुष्टि मिलती है। निश्चय ही उनका संघर्ष ट्रांसजेंडर बिरादरी के लिये प्रेरणा है। जोयिता का मानना है कि समाज के नजरिये में बदलाव आएगा, जरूर आएगा लेकिन उसमें अभी वक्त लगेगा।