Sunday, 2 August 2015

याकूब मेमन पर महाप्रलाप?

डॉ. दीपिका उपाध्याय
अंतत: याकूब मेमन को फांसी हो ही गई। वह आतंकी जिसके 22 साल पहले किये गये वीभत्स कारनामे आज भी आंखों में आंसू ला देते हैं, आखिर अंजाम को प्राप्त हो ही गया। दुर्भाग्य की पराकाष्ठा देखिये कि उसी आतंकी के लिए हमारे देश के मुट्ठी भर बुद्धिजीवी बहस कर रहे हैं कि वह आतंकी था भी या नहीं। बहुत पहले पूर्व प्रधानमंत्री पी़ वी़ नरसिम्हा राव ने कहा था कि इस देश में मानवाधिकार सिर्फ आतंकियों के पास है। लगता तो यही है क्योंकि जब भी किसी आतंकी को पकड़ा जाता है तो उसकी दया याचिका के पक्षधर पहले खड़े हो जाते हैं मानवाधिकार की दुहाई देने लग जाते हैं, अहिंसा के सिद्धान्त जपने लग जाते हैं और साथ ही मृत्युदण्ड की समाप्ति की पुरजोर वकालत करने लगते हैं लेकिन इस शोर के बीच उन लोगों की सिसकियों की आवाज दब जाती है जिनके परिजन उन आतंकी कार्यवाहियों में जान गंवा बैठे। क्या उन मासूमों की जान का मोल नहीं? क्या उनके परिजनों के मानवाधिकार नहीं? जब देश में आतंकी हमलों में निर्दोष जाने जाती हैं, तब अहिंसा के सिद्धान्त कहां चले जाते हैं?
सत्य तो यह है कि यह मौकापरस्तों के लिए अपने चेहरे चमकाने का एक अवसर मात्र है जिसमें वे संवेदनाशून्य बयान देकर अपना मंतव्य पूरा करते हैं। आजकल मृत्युदण्ड की समाप्ति के पक्ष में तमाम दलीलें रखी जा रही हैं। मृत्युदण्ड का प्रावधान कानून में रखा जाये या नहीं, ये कानूनविदों की बहस का विषय है किन्तु अपनी मांगें मनवाने के लिए आतंकवादी मासूमों की जान से खिलवाड़ करते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। बड़ा अजीब लगता है कि अपने संगठन, विचार या यूं कहें कि जिद को मान्यता दिलवाने के लिए जब आतंकवादी सैकड़ों निर्दोषों की जान लेते हैं तब बुद्धिजीवी मौनव्रत धारण कर लेते हैं, किन्तु जब इनमें से किसी एकाध आतंकवादी पर सैन्य या कानूनी कार्यवाही होती है तो इनका मानवतावादी स्वर मुखर हो उठता है। शायद ये तथाकथित सेलिब्रिटी उस वक्त ये भूल जाते हैं कि इन आतंकवादी कार्यवाहियों में मरने वाले भी मानव थे, उनके भी कुछ मानवाधिकार थे। सत्य तो यह है कि इस प्रकार के स्वघोषित बुद्धिजीवी आतंकवाद को परोक्ष रूप से प्रश्रय दे रहे हैं क्योंकि आतंवादियों का प्रत्यक्ष समर्थन, आतंकी कार्यवाहियों को जायज ठहराने के समान है। इस समय न्यायपालिका की भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही है। लोग कहते नहीं थक रहे हैं कि पूरी रात माननीय सुप्रीम कोर्ट एवं माननीय न्यायाधीशों के घर पर सुनवाई हुई, न्याय के लिए अन्तिम समय तक सकारात्मक प्रयास हुए वगैरह-वगैरह। कुछ लोग दबे स्वर में यह भी कह रहे हैं कि चलो देरी से ही सही न्याय तो मिला, किन्तु प्रश्न यह है कि जिन सिलसिलेवार विस्फोटों में एक लम्बी-चौड़ी टीम ने काम किया उनके लिए सिर्फ एक को ही फांसी क्यों? क्या उन तीन सौ के लगभग मौतों, हजारों घायलों और अरबों रुपये की सम्पत्ति के नुकसान की भरपाई सिर्फ याकूब मेमन को फांसी से हो जायेगी? क्या इस प्रकार की आतंकी कार्यवाहियां अब इसके बाद रुक जायेंगी? उत्तर तो पता नहीं किन्तु न्यायपालिका को इन पर गम्भीर मंथन की आवश्यकता है।
गुरुदासपुर में हुए विस्फोटों से हमारी माननीय न्यायपालिका के फैसलों में तेजी आनी चाहिए, ऐसा विश्वास है। यह सत्य है कि भारत प्रजातांत्रिक मूल्यों में दृढ़ आस्था रखता है। यहां न्याय में समय लगने और दोषी को बार-बार अवसर देने का कारण यही है कि भारतीय न्याय व्यवस्था किसी निर्दोष को दण्डित करने की पक्षधर नहीं है किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं लगना चाहिए कि हमारे देश की आम जनता के प्राणों की कीमत नहीं। हम आतंकियों के सॉफ्ट टारगेट नहीं हैं, यह अब न्यायपालिका को स्पष्ट करना होगा। न्यायपालिका के साथ-साथ केन्द्र तथा राज्य सरकारों को भी यह स्पष्ट रूप से समझना होगा कि देश की बाहरी और आंतरिक सुरक्षा से खिलवाड़ असहनीय है। आंकड़े बताते हैं कि सन् 2005 से 2007 के बीच तीन हजार से ज्यादा मृत्युदण्ड के फैसले बदले गये, ये कहीं न कहीं हमारी प्रजातांत्रिक आस्था की ओर संकेत करते हैं। देश की जनता को भी समझना होगा कि उसके प्राण कीमती हैं और वो किसी बुद्धिजीवी, राजनेता या तथाकथित समाज-सुधारक के पास गिरवी नहीं रखे हैं। जो लोग आज तक आतंकियों की पैरवी कर रहे हैं निश्चित ही ये देश की सुरक्षा के लिए खतरे को निमंत्रण दे रहे हैं। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने बयान दिया था कि आतंकवाद जैसे मुद्दे पर सभी पार्टियों को एकमत होना चाहिए, किन्तु राजनेताओं की ओछी बयानबाजी यह सिद्ध कर रही है कि उन्हें मात्र राज करने की नीति चलानी है, जनता जाये भाड़ में। येन-केन-प्रकारेण किसी न किसी वर्ग के वोट हासिल करने के लिए ये नेता जन-सामान्य की लाशों को भुनाने से नहीं चूक रहे हैं। याकूब मेमन की फांसी को प्रजातंत्र की हत्या के रूप में देखने वाले ये लोग अपने निजी स्वार्थों के लिए एक तरफ माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर प्रश्नचिह्न लगाकर राष्ट्रद्रोही होने का परिचय दे रहे हैं तो दूसरी तरफ एक व्यक्ति को तीन सौ जानों से ज्यादा कीमती सिद्ध करके मानवता के भक्षक बन बैठे हैं। इस तरह की बयानबाजी जनता को आतंक की राह चुनने का गलत संदेश दे रही है। उनकी ओछी बयानबाजी से जनता के समक्ष यही संदेश जायेगा कि तीन सौ निर्दोष मरे तो कोई हिमायती नहीं बोला किन्तु एक दोषी पर कार्यवाही हुई तो सैकड़ों हिमायती खड़े हो गये। यदि इसके स्थान पर जनता के प्रति संवेदना तथा आतंकवाद का कड़ा विरोध किया जाये तो यह सामयिक परिस्थितियों में अधिक समीचीन होगा। फांसी, आतंक, दयायाचिका और न्यायपालिका की इस बड़ी और हंगामाखेज बहस में एक व्यक्तित्व कहीं दबकर रह गया है और वह हैं हमारे देश के महामहिम राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी। अपने तीन वर्ष के कार्यकाल में प्रजातंत्र के तीन गुनाहगारों की दयायाचिका उन्होंने जिस तरह खारिज कर उनके अंजाम तक पहुंचाया, इसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं। यह सच है कि फांसी एकमात्र विकल्प नहीं किन्तु जिस नृशंस तरीके से सैकड़ों बेगुनाहों का खून बहा, देश को तोड़ने की साजिश रची गयी है उन पर विकल्पों की चर्चा बेमानी है। यह बात हमारे महामहिम राष्ट्रपति जी के साहसी एवं दृढ़ रुख ने स्पष्ट कर दी है। वे मितभाषी अवश्य हैं किन्तु उनके कार्य बोलते हंै, वे मृदु एवं सरल दिखते हैं, किन्तु इरादों के दृढ़ हैं। वस्तुत: अजमल कसाब, अफजल गुरु और अब याकूब मेमन की फांसी पर मुहर लगाकर उन्होंने देश को स्वतंत्रता दिवस का उपहार दे दिया है, साथ ही विश्व भर के आतंकी संगठनों को संदेश दिया है कि भारत सहिष्णु है, कायर नहीं। वैसे तो वांछितों की सूची अभी लम्बी है, देश के गद्दारों को अभी उनके अंजाम तक पहुंचाना अभी बाकी है किन्तु फिर भी कहा जा सकता है कि आतंकियों के बुरे दिन अवश्य आ गये हैं।

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