Saturday, 12 October 2013

भारतीय लोकतंत्र का शुद्धिकरण

भारतीय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार की जड़ें कितनी गहरी समा चुकी हैं इसका अंदाजा हाल ही राष्ट्रीय जनता दल सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस नेता रशीद मसूद जैसे लोगों का जेल की सींखचों में जाने से सहज लगाया जा सकता है। अदालती कामकाज में सरकारी हस्तक्षेप न किया गया तो तय मानिये एक-दो माह में कई और सफेदपोशों के चेहरे काले पड़ सकते हैं। दागी सफेदपोशों के खिलाफ जिस तरह अदालती जांच चल रही है उससे बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री नीतिश कुमार, शिवानंद सहित उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती, शिवसेन यादव, मुख्तार अंसारी, रंगनाथ मिश्र, बाबू सिंह कुशवाह, कल्याण सिंह, उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी आदि भी देर-सबेर जेल की हवा खा सकते हैं। देखा जाए तो उत्तर प्रदेश के मौजूदा 403 विधायकों में 189 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें 111 विधायक तो सत्तासीन समाजवादी पार्टी के ही शामिल हैं। दागियों की इस फेहरिस्त में बहुजन समाज पार्टी के 29, भारतीय जनता पार्टी के 25 तथा कांग्रेस के 13 विधायकों पर आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं।
भारतीय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार पर जब तब बहस होती रही है, लेकिन जब भी फैसले का वक्त आया राजनीतिक दलों को सांप सूंघ गया। अब समय ने करवट ली है। युवाओं के इस देश ने भ्रष्टाचार के खिलाफ न केवल आवाज बुलंद की बल्कि राजनीतिक दलों को शुचिता की राह चलने को विवश किया है। यह मुल्क के युवाओं के संघर्ष का ही नतीजा है कि राजनीतिक दल चाहकर भी दागियों को बचाने को आगे आने की जहमत नहीं उठा पा रहे। कांग्रेस के युवराज ने दागियों के मसले पर अपनी पार्टी की नीतियों से परे एक नजीर पेश की है। राहुल की नजीर का ही कमाल है कि सबसे पहले उन्हीं का वजीर मारा गया है। रशीद मसूद के जेल जाने के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां कांग्रेसकमजोर हो गई है वहीं उसकी और लोकदल के गठबंधन की मजबूत गांठ भी ढीली पड़ी है।
भारतीय लोकतंत्र के शुद्धिकरण की दिशा में पहली आहुति रशीद मसूद के रूप में कांग्रेस ने दी है। 17 वर्षों की लम्बी कश्मकश के बाद देश के चर्चित घोटालों में से एक चारा घोटाले में  सीबीआई की एक विशेष अदालत ने बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को दोषी करार दिया। मसूद और लालू के जेल की हवा खाने के बाद इनके लम्बे राजनीतिक जीवन पर भी ग्रहण लग गया है। दागी नेताओं की सदस्यता खत्म करने सम्बन्धी उच्च न्यायालय के आदेश पर एकबारगी कांग्रेस का अध्यादेश भारी पड़ता दिखा पर राहुल गांधी ने लोकतंत्र में शुचिता की अलख जगाकर दागियों की नींद हराम कर दी है। अध्यादेश की वापसी के बाद देश की राजनीतिक बीथिका में जो माहौल बना है उससे उम्मीद बंधी है कि भारतीय लोकतंत्र के पहरुआ न केवल कुछ नसीहत लेंगे बल्कि नौकरशाहों पर भी अंकुश लगाने की पहल करेंगे।
देखा जाए तो भारतीय लोकतंत्र से अपराधियों और भ्रष्टाचारियों को दूर रखने का जो काम राजनीतिज्ञ नहीं कर सके वो काम हमारी न्यायपालिका ने कर दिखाया है। भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए न्यायपालिका ने वर्षों से चर्चा में रहे राइट टू रिजेक्ट के उस अधिकार को 27 सितम्बर को मतदाता को सौंप दिया है जिसकी मांग हमारी आम आवाम और अनेक स्वयंसेवी संगठन लम्बे समय से कर रहे थे। उच्चतम न्यायालय ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में प्रत्याशियों को खारिज करने का बड़ा फैसला सुनाकर जो नेक काम किया है उसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। निश्चित ही इससे राजनीतिक दल साफ-सुथरे लोगों को चुनाव में उतारेंगे, इससे लोकतंत्र की जीवंतता बढ़ेगी, चुनाव में शुचिता आएगी और लोगों की भागीदारी भी व्यापक होगी। चुनाव आयोग ने 10 दिसम्बर, 2001 को सरकार को राइट टू रिजेक्ट का प्रस्ताव भेजा था। चुनाव आयोग ने चुनाव प्रक्रिया को अधिक सहभागितापूर्ण बनाने के लिए 12 वर्ष पूर्व जो कदम उठाया था, न्यायालय के फैसले ने अब इसे सार्थक कर दिया है। कुल मिलाकर यदि हम राजनीतिज्ञों के विचार, समाजसेवियों के मंथन, निर्वाचन आयोग के प्रयास और न्यायालय की कार्रवाई पर एक नजर डालें तो सबके मूल में एक बात है कि चुनाव प्रक्रिया में बेहतरी के प्रयास हों। न्यायालय के फैसले से पूर्व दुनिया के 13 देशों फ्रांस, बेल्जियम, ब्राजील, ग्रीस, यूक्रेन, चिली, बांग्लादेश, स्टेट आॅफ नेवादा, फिनलैंड, अमेरिका, कोलम्बिया, स्पेन और स्वीडन के बाद भारत 14वां देश हो गया है जहां चुनाव मैदान में मौजूदा प्रत्याशियों से संतुष्ट नहीं होने पर वोटर प्रत्याशियों को खारिज कर सकेगा।
जिस देश में क्षेत्रीयता, जाति, धर्म, विकास के जादुई आंकड़ों का गणित राजनीति की दिशा निर्धारित करने लगा हो वहां न्यायपालिका के कठोर फैसलों से राजनीतिक दशा और दिशा में निर्णायक प्रभाव दिखना तय है। समाजसेवी अन्ना हजारे ने दो साल पहले  राइट टू रिजेक्ट की मांग रखी थी। इससे पहले जयप्रकाश नारायण का आंदोलन जब शुरू हुआ, तब उसमें भी एक प्रमुख मांग थी, जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार (राइट टू रिकॉल)। इस मांग को उठाने का कारण यह था कि लोकसभा और राज्यसभा में दागी चरित्र के लोग जिनके ऊपर भ्रष्टाचार, हत्या, लूट, बलात्कार जैसे तमाम मुकदमे हैं, उन पर रोक लगाई जाए। इसे मुल्क का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि संसदीय लोकतंत्र में ऐसे जनप्रतिनिधियों को लेकर खुद सरकार की भूमिका जन चेतना के बिल्कुल विपरीत रही है।
भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका के हस्तक्षेप से इतना तो तय हुआ ही कि राजनीति में बहुत कुछ ठीक नहीं चल रहा। लालू और मसूद जैसे लोगों के जेल की हवा खाने के बाद यूपीए पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। कारण, राष्ट्रीय जनता दल यूपीए सरकार में हमेशा ही सहयोगी रहा है। लालू के जेल जाने के बाद यह सहयोग आगे किस तरह जारी रहेगा, आम चुनावों में इस गठबंधन का क्या असर होगा, यह बड़ा सवाल है। संसद में कांग्रेस को ताकतवर बनने के लिए सहयोगियों की जरूरत है, लेकिन जब उसके उपाध्यक्ष ही कहते हैं कि गठबंधन की खातिर जो समझौते हम करते हैं, वह नहीं होना चाहिए, तब राजद से किस आधार पर वह आगे सहयोग लेगी, यह देखना बाकी है। कमल दल से रिश्ते बिगड़ने के बाद उम्मीद की जा रही है कि जदयू कांग्रेस का हाथ थाम सकती है। शायद यही वजह है कि राहुल गांधी के अध्यादेश प्रकरण पर नीतिश कुमार ने उनकी तारीफ की है।
लालू मंझे खिलाड़ी हैं। वे आसानी से हार नहीं मानने वाले।मई में पटना में परिवर्तन रैली और जून में महाराजगंज लोकसभा सीट के उप चुनाव में उन्होंने अपने प्रत्याशी प्रभुनाथ सिंह को जीत दिलाकर नीतिश कुमार के लिए परेशानी पैदा कर दी थी। बिहार की स्थितियां बदल चुकी हैं बावजूद  लालू प्रसाद ने 1997 में जिस तरह राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाकर राज्य की सत्ता सम्हाली थी, वैसा ही कदम वे अब भी उठाएं तो क्या आश्चर्य। लालू को खड़ाऊं संस्कृति का राजनीति में नए तरीके से इस्तेमाल करने की कला खूब आती है। मई में अपने दो बेटों तेजप्रताप और तेजस्वी को उन्होंने राजनीति में आगे किया था, उनकी बेटी मीसा भारती भी आम चुनाव में मैदान में उतर सकती हैं। जो भी हो न्यायपालिका ने अपने नायाब फैसलों से राजनीतिक दलों के सामने धर्मसंकट खड़ा कर दिया है। अब सभी दलों की स्थिति सांप-छछूंदर सी हो गई है।

नि:शक्तजनों को रोजगार की कवायद

भारतीय न्यायपालिका ने एक और सराहनीय फैसला सुनाकर उन नि:शक्तजनों के मायूस चेहरों पर मुस्कान बिखेर दी है जोकि हमारे समाज के दयापात्र तो हैं लेकिन उन्हें बराबरी का हक देने से हर किसी को गुरेज है। वैसे हमारी सरकारें शारीरिक अक्षम लोगों के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाओं को अमलीजामा पहना चुकी हैं पर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में असल चिंतन न्यायपालिका ने ही किया है। अब सवाल यह उठता है कि नि:शक्तों को तीन फीसदी आरक्षण मिलेगा भी तो कैसे?
शारीरिक अक्षम लोग भी आत्मनिर्भर बनें, वे किसी की दया के मोहताज न हों इसके लिए उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र और राज्य सरकारों को चेताया है कि वे अपने सभी विभागों, संस्थाओं व कम्पनियों में उनके लिए तीन फीसदी आरक्षण की व्यवस्था करें। शारीरिक अक्षम लोगों के हितार्थ उच्चतम न्यायालय का यह फरमान काबिलेतारीफ है। प्रधान न्यायाधीश पी. सदाशिवम, न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की पीठ ने नि:शक्तजनों की आत्मनिर्भरता के लिए रोजगार को एक महत्वपूर्ण कारक माना है। सामाजिक नजरिये से देखें तो यह खतरनाक हकीकत है कि मुल्क में नि:शक्तों की संख्या के लिहाज से उन्हें नौकरी के बहुत कम अवसर हैं। अवसरों की कमी के चलते अधिकांश नि:शक्त सामाजिक दया के भरोसे जीवन-यापन कर रहे हैं।
नि:शक्तजन नौकरियों से इसलिए दूर नहीं हैं कि उनकी विकलांगता  कामकाज में आड़े आती है बल्कि मुल्क में कई सामाजिक और व्यावहारिक बाधाएं विद्यमान हैं जो कार्यशक्ति में उन्हें शामिल करने से रोकती हैं। विकलांगों के लिए हमारे समाज में दयाभाव तो है पर उन्हें जब भी अधिकार सम्पन्न बनाने की बात आती है हम चेतनाशून्य हो जाते हैं। नि:शक्तता आज समाज के सामने कोढ़ बन गई है। बस स्टैण्डों, रेलवे स्टेशनों या फिर पर्यटक स्थलों में दया की भीख मांगते लोगों को सहज देखा जा सकता है। विकलांगता जन्मजात हो या किसी दुर्घटना से उपजी नि:शक्तता, हमारे समाज में इन्हें दया और बेचारगी का पात्र तुरंत बना दिया जाता है। अफसोस हम इनके मनोवैज्ञानिक पहलू पर जरा भी विचार नहीं करते। हमारी दयादृष्टि उनका सहारा तो नहीं बनती पर उनके अंतस को भीतर ही भीतर जरूर बेध देती है।
सामान्य लोगों की तरह चलने-फिरने, बातें करने या देखने में अक्षम होने की पीड़ा नि:शक्त तो भुगतते ही हैं, ऐसे में उन्हें यह एहसास कराना कि वे किसी के रहमोकरम पर जिन्दा हैं, उनकी पीड़ा को और बढ़ाना ही है। नि:शक्तों को प्राय: कुछ लोगों की ही दया नसीब होती है अधिकांशत: इन्हें लोगों की उपेक्षा का दंश ही भुगतना होता है। नि:शक्तजन सिर्फ समाज ही नहीं बल्कि घर-परिवार के लोगों के लिए भी बोझ बन जाते हैं। यूं तो हमारी सरकारें नि:शक्तजनों के हितार्थ नित नई-नई कल्याणकारी योजनाएं बनाती हैं, लेकिन इन योजनाओं को कभी पूरी ईमानदारी से अमल में नहीं लाया जाता। यही वजह है कि सारी की सारी योजनायें नि:शक्तों को खून के आंसू रुलाती हैं।
गौरतलब है कि मुल्क में 1995 में नि:शक्तजन अधिनियम तैयार हुआ लेकिन इसके अमल में कोताही बरतने के चलते 18 साल बीत जाने के बाद भी नि:शक्तों के चेहरे नहीं खिलखिलाए। नि:शक्तों की जीवनशैली में कोई गुणात्मक सुधार नहीं आया। अंतत: अपने अधिकारों की रक्षा के लिए नि:शक्तों के राष्ट्रीय संगठन को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ा। नि:शक्तों की भलाई के लिए इसी साल सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अंतर्गत गठित नए नि:शक्तता कार्य विभाग ने नि:शक्तजन अधिनियम 1995 में संशोधन मसौदा तैयार किया और इसे 1995 के पुराने कानून की जगह लागू करने का प्रस्ताव दिया, जिसके बारे में ज्यादातर लोगों की राय है कि यह नि:शक्तजनों के अधिकारों की रक्षा करने में अक्षम साबित हुआ है। देखा जाए तो कानून अधिसूचित होने के बावजूद विकलांगों को आरक्षण नहीं मिल पाता।
नि:शक्तजनों के कल्याण की दिशा में केन्द्र सरकार भी गम्भीर नहीं है। यदि वह गम्भीर होती तो दिल्ली हाईकोर्ट में दायर की गई याचिका के खिलाफ उच्चतम न्यायालय न गई होती। केन्द्र ने नि:शक्तजनों को तीन फीसदी आरक्षण देने पर दलील दी कि अनुसूचित जाति का 15 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति का सात प्रतिशत और पिछड़े वर्ग का 27 प्रतिशत आरक्षण मिलाकर 49 प्रतिशत हो जाता है, ऐसे में तीन प्रतिशत आरक्षण और जोड़ने से यह पचास प्रतिशत की सीमा को पार कर जाएगा। उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र की इस दलील को  खारिज करते हुए कहा कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के आरक्षण का आधार सामाजिक है, जबकि नि:शक्तों की श्रेणी में सभी जाति, वर्ग और धर्म के लोग आते हैं। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि नि:शक्तजनों को आरक्षण देते वक्त 50 फीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिए जाने के सिद्धांत को लागू नहीं किया जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद केन्द्र और राज्य सरकारों के पास कोई बहाना नहीं रह जाता कि वे नि:शक्तजनों को आरक्षण देकर उन्हें रोजगार हासिल करने के अवसरों से वंचित रखें। न्यायालय ने साफ-साफ चेताया है कि नि:शक्तजनों के आरक्षण की व्यवस्था का पालन नहीं करने को अवज्ञा मानते हुए सम्बद्ध नोडल अधिकारियों के खिलाफ विभागीय कार्यवाही शुरू की जाएगी। उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के बाद अब केन्द्र और राज्य सरकारों को सभी प्रतिष्ठानों में उपलब्ध रिक्तियों की संख्या की गणना करने के साथ तीन महीने के भीतर नि:शक्तों के लिए पदों की पहचान कर बिना हीलाहवाली उन्हें रोजगार देना होगा। उच्चतम न्यायालय के इस फैसले से विकलांगों के मायूस चेहरों पर बेशक मुस्कान लौटी हो पर वे समाज की मुख्यधारा से तभी जुड़ पाएंगे जब विद्यालयों, सार्वजनिक स्थलों, यातायात आदि में भी उनके लिए बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हों। वे स्वरोजगार करना चाहें तो बैंकों से ऋण लेने में उन्हें दिक्कतें न आएं। निजी शिक्षण संस्थानों और कार्यालयों में भी उनके लिए ऐसी ही व्यवस्था हो जाए तो उन्हें अपने जीवन-यापन के लिए किसी के सामने हाथ नहीं पसारना पड़ेगा। समय की दरकार है कि नि:शक्तों को न केवल रोजगार मिले बल्कि इनके प्रति समाज का दृष्टिकोण भी बदले।