Thursday, 24 August 2017

लंदन से भी लौटे खाली हाथ


अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय एथलीटों का प्रदर्शन दयनीय क्यों ?
श्रीप्रकाश शुक्ला
उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर में जुलाई महीने में हुई एशियाई एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में भारतीय एथलीटों ने अपने शानदार प्रदर्शन का जो विश्वास खेलप्रेमियों में जगाया था उसकी अगस्त महीने में लंदन में हुई विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में जरा भी झलक नहीं दिखी। पौरुष के इस इम्तिहान में हमेशा की तरह इस बार भी अमेरिकी एथलीट ही छाए रहे। अमेरिकी एथलीटों ने 30 पदक जीते और सूची में सिरमौर रहे। 14वीं विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में 42 देशों के एथलीट जहां कोई न कोई पदक हासिल कर पोडियम तक पहुंचे वहीं भारत के 25 सदस्यीय दल में से एक भी एथलीट पदक तो क्या उसके करीब तक भी नहीं पहुंचा 1983 से इस प्रतियोगिता में हिस्सा ले रहे भारतीय एथलीटों के लिए लांग जम्पर अंजू बॉबी जॉर्ज आज भी एक नजीर हैं। विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में पदक जीतने वाली अंजू बॉबी जॉर्ज एकमात्र भारतीय एथलीट हैं। अंजू ने 2003 में पेरिस में हुई विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप की लम्बीकूद स्पर्धा में कांसे का तमगा जीता था। 14 साल से भारतीय एथलीटों का खाली हाथ लौटना खेलप्रेमियों के लिए निराशा का सबक तो है लेकिन हमारे खेलतंत्र के लिए यह मामूली बात है। भारतीय एथलीट सौ साल से ओलम्पिक खेलों में भी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं लेकिन वहां भी आज तक निराशा के सिवा कुछ भी हाथ नहीं लगा।
विश्व एथलेटिक्स स्पर्धाओं में जहां छोटे-छोटे देशों के खिलाड़ी बड़े-बड़े कारनामे दिखाते रहे हैं वहीं एक अरब 30 करोड़ की आबादी वाले देश में अभी तक कोई ऐसा सूरमा एथलीट पैदा नहीं हुआ जिस पर भारतीय खेलप्रेमी ताली पीट सकें। लंदन में हुई विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में अमेरिका 10 स्वर्ण, 11 रजत, नौ कांस्य पदक के साथ पहले, केन्या पांच स्वर्ण, दो रजत, चार कांस्य के साथ दूसरे तथा दक्षिण अफ्रीका तीन स्वर्ण, एक रजत, दो कांस्य पदक के साथ तीसरे स्थान पर रहा। तीन स्वर्ण और दो रजत पदक के साथ फ्रांस चौथे, दो स्वर्ण, तीन रजत और दो कांस्य पदक के साथ चीन पांचवें तथा मेजबान ग्रेट ब्रिटेन दो स्वर्ण, तीन रजत और एक कांस्य पदक के साथ छठे स्थान पर रहा। यहां सोचने वाली बात है कि भुवनेश्वर में हुई एशियाई एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में भारत से पिछड़ने वाला चीन विश्व मंच पर जहां एक बड़ी ताकत के रूप में उभरा वहीं हमारे एथलीट उसके आसपास भी नहीं फटके। दरअसल, एशियाई एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में चीन, जापान, कतर आदि ने अपने सर्वश्रेष्ठ एथलीट उतारे ही नहीं थे जबकि भारतीय खिलाड़ी और खेलनहार सिरमौर होने का जश्न मनाने में मशगूल रहे। विश्व एथलेटिक्स मंच पर एशियाई एथलीट बेशक बड़ी ताकत न हों लेकिन लंदन में चीन, जापान, कतर और कजाकिस्तान के एथलीटों ने 13 पदक जीतकर अमेरिकी और यूरोपीय देशों को चौंकाया जरूर है। विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप से पूर्व हर भारतीय को भालाफेंक खिलाड़ी नीरज चोपड़ा से ही एकमात्र पदक की उम्मीद थी लेकिन वह पहले ही दौर में बाहर हो गये। नीरज की नाकामयाबी के बावजूद देविन्दर सिंह कंग इस प्रतियोगिता के फाइनल तक तो जरूर पहुंचे लेकिन वहां वह अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दोहराने से चूक गये। भारतीय एथलीटों में मध्यम दूरी के धावक लक्ष्मणन जहां अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने में सफल रहे वहीं शेष खिलाड़ी सेमीफाइनल और फाइनल तक भी नहीं पहुंच सके। भारतीय एथलीटों के इस शर्मनाक प्रदर्शन पर थू-थू करने की बजाय खेलप्रेमियों को भारतीय खेलतंत्र की लचर खेल-नीतियों पर रंज दिखानी चाहिए।    
किसी राष्ट्र की प्रतिष्ठा खेलों में उसकी उत्कृष्टता से बहुत कुछ जुड़ी होती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलों में अच्छा प्रदर्शन केवल पदक जीतने तक सीमित नहीं होता बल्कि यह किसी राष्ट्र के स्वास्थ्य, मानसिक अवस्था एवं लक्ष्य के प्रति सजगता को भी सूचित करता है। ओलम्पिक में भारत द्वारा अब तक जीते कुल 27 पदकों से अधिक तो अमेरिकी तैराक माइकल फेल्प्स (28 पदक) ने अकेले ही जीत लिए हैं। प्रत्येक ओलम्पिक और विश्वस्तरीय स्पर्धाओं के बाद भारतीय खिलाड़ियों के निराशाजनक प्रदर्शन पर बहुत कुछ कहा-सुना जाता है लेकिन सुधार के प्रयास कभी नहीं होते। खेलों में सुधार की जहां तक बात है भारत में इसकी शुरुआत बहुत ही निचले स्तर से किए जाने की आवश्यकता है। जानकर ताज्जुब होगा कि एक अरब तीस करोड़ की आबादी वाले देश में 15 फीसदी से भी कम लोगों की खेलों में रुचि है। खेलों के आधारभूत ढांचे में परिवर्तन के कसीदे तो खूब गढ़े जाते हैं लेकिन जमीनी धरातल पर कुछ होता नहीं दिखता। खेलों को स्वास्थ्य और शिक्षा से जोड़ने की भी कोशिशें आज तक नहीं हुईं। भारत में युवा जनसंख्या अपेक्षाकृत अन्य मुल्कों से अधिक है। भारतीय युवाओं में शक्ति एवं ऊर्जा की भी कोई कमी नहीं है लेकिन उन्हें वे खेल अवसर और सुविधाएं मयस्सर नहीं हैं जोकि उन्हें मिलनी चाहिए।
देखा जाए तो दो दशक से भारत तेजी से आर्थिक प्रगति कर रहा है लेकिन खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर की खेल सुविधाएं देने में हमेशा गरीबी का रोना रोया जाता है। खेलों में उत्कृष्टता के लिए राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक प्रतिबद्धता अनिवार्य है। इसके लिए दूरगामी सोच, सक्रिय योजनाएं एवं उनके क्रियान्वयन के साथ ही खेलों के प्रति लोगों के दृष्टिकोण को बदलने और उनमें जागरूकता लाने की भी आवश्यकता है। मानव के समग्र विकास में खेलों की अहम भूमिका रही है। खेल मनोरंजन का साधन और शारीरिक दक्षता हासिल करने का सशक्त माध्यम हैं। बुनियादी स्तर पर खेल सुविधाएं उपलब्ध कराना, बच्चों में खेलों के प्रति रुचि पैदा किया जाना, खेल और शिक्षा का एकीकरण, प्रारम्भिक स्तर पर प्रतिभा परख कर उन्हें देश-विदेश में उच्चस्तर का प्रशिक्षण प्रदान करवाना, खिलाड़ियों को अधिकाधिक खेल प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के अवसर प्रदान करना, खेलों के बारे में जानकारी प्रदान करना तथा उचित चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाएं मयस्सर कराए बिना भारत खेलों की महाशक्ति कभी नहीं बन सकता। भारतीय खिलाड़ी खेल क्षेत्र में लगातार प्रगति कर रहे हैं लेकिन अभी भी इनमें और बेहतर करने की क्षमता है। सरकार को चाहिए कि वह शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं में धनराशि बढ़ाकर खेल क्षमता का विकास करे। अगर हम चीन का उदाहरण लें तो 1952 के ओलम्पिक में उसने एक भी पदक नहीं जीता था। उसने 32 वर्षों तक ओलम्पिक से दूर रहने के बाद 1984 में 15 स्वर्ण पदक जीते। इसी प्रकार रियो में ग्रेट ब्रिटेन का प्रदर्शन आश्चर्य का विषय बना हुआ है। दरअसल, इन देशों की सरकारों ने खेलों को प्राथमिकता में शामिल कर खेल नीतियों पर ईमानदार प्रयास किए नतीजन ये लगातार पदक तालिका में आगे बढ़ते चले गए। भारत में खेलों को राजनीति से दूर रखना सबसे जरूरी है। खेलों में आज तक के भारतीय प्रदर्शन को देखते हुए ऐसा लगता ही नहीं कि इस खास विधा के लिए बनाया गया खास खेल मंत्रालय कुछ सार्थक कर पाया हो। अमेरिका में कोई खेल मंत्रालय नहीं है बावजूद खेलों में वह सिरमौर है। खेल मंत्रालय की समाप्ति के बाद राष्ट्रीय खेल परिषद का गठन किया जाना समय की मांग है। सरकार राष्ट्रीय खेल परिषद को न केवल वित्तीय सहायता दे बल्कि उसे स्वतंत्र काम करने की आजादी भी मिले। खेलों में राष्ट्रीय लक्ष्य पाने के लिए इस परिषद में स्वास्थ्य, फिटनेस एवं दक्षता से जुड़े अनेक विशेषज्ञ शामिल किए जाएं जोकि भारतीय ओलम्पिक संघ के साथ कदम से कदम मिलाकर चलें। खेलों में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए जरूरी है कि उसकी डोर सही हाथों में हो। तेली का काम तमोली से कराने का ही हश्र है कि हमारे खिलाड़ी बार-बार बड़ी प्रतियोगिताओं से बेआबरू होकर लौटते हैं।
भारत में हर खेल संघ राजनीतिज्ञों के हाथ है, जिनकी खेल समझ शून्य है। खेल संघों में राजनेताओं की जगह यदि पूर्व खिलाड़ियों को रखने की पहल हो तो उसके सकारात्मक परिणाम मिल सकते हैं वजह एक खिलाड़ी की मनःस्थिति और जरूरत को उस दौर से गुजर चुका खिलाड़ी ही बेहतर समझ सकता है। अमेरिका, चीन, आस्ट्रेलिया, ग्रेट ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस आदि में बच्चों को जमीनी स्तर से ही ट्रेनिंग दी जाती है जबकि भारत में प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को सही प्रशिक्षण ही नहीं मिलता। यहां खेल एकेडमियों के अभाव के साथ ही खेलों के प्रथम प्लेटफार्म स्कूलों की स्थिति भी काफी दयनीय है। अब हर खेल में टेक्नोलॉजी का समावेश है। आज जरूरत ऐसे प्रशिक्षण की है जिसमें तकनीक का बेहतर प्रयोग हो। हर खेल से जुड़ी टेक्नोलॉजी हमारे खिलाड़ियों और कोचों को उपलब्ध कराई जाए। यूरोपीय देशों में टेक्निकल ट्रेनिंग पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया जाता है, वहां कुश्ती, फुटबॉल, हॉकी, बॉक्सिंग जैसे खेलों के लिए उचित टर्फ और संसाधन हैं जबकि भारत में जहां मैदान हैं वहां खिलाड़ियों का अभाव है और जहां खिलाड़ी हैं वहां संसाधन नगण्य हैं। खेल आयोजनों पर अनाप-शनाप पैसे की फिजूलखर्ची की बजाय इस पैसे का इस्तेमाल खेल एकेडमी बनाने और प्रतिभाओं की खोज में लगाया जाए तो निश्चित रूप से हमारी स्थिति सुधरेगी। भारत सरकार को खेल बजट में भी बढ़ोत्तरी करनी चाहिए क्योंकि बेहतरीन खिलाड़ियों को तैयार करने के लिए जिन सुविधाओं की जरूरत है, उनको पाने के लिए ज्यादा पैसा चाहिए। खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने के लिए उन्हें बेहतर सुविधाएं देनी होंगी। देश के युवा खिलाड़ियों को बेहतर विदेशी खिलाड़ियों के साथ खेलने के मौके मिलना चाहिए ताकि वे अपने खेल को और बेहतर कर सकें। हर बड़ी खेल प्रतियोगिता के बाद हमें विधवा विलाप और बहानेबाजी करने की बजाय खिलाड़ियों से कहां चूक हुई उस पर ध्यान देना बेहतर होगा।
                      महान एथलीट उसेन बोल्‍ट की मायूसी भरी विदाई
कभी-कभी शानदार कहानी का अंत इतना लाजवाब नहीं होता जितनी हम उम्मीद करते हैं। विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप से पहले हर खेलप्रेमी को उसेन बोल्ट से बहुत उम्मीदें थीं। हर कोई मानता रहा कि ट्रैक एण्ड फील्ड का यह जादूगर लंदन में भी अपनी शानदार कामयाबी की दास्तां लिखेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ। लंदन में हुई विश्व चैम्पियनशिप उसेन बोल्ट के करियर की आखिरी स्पर्धा थी। 100 मीटर दौड़ में बोल्ट को कांस्य पदक से संतोष करना पड़ा तो चोट की वजह से वह चार गुणा 100 मीटर रिले रेस पूरी ही नहीं कर सका। अपनी टीम जमैका के लिए बोल्ट आखिरी धावक थे। वह अभी अपनी 100 मीटर की रेस आधी ही पूरी कर पाए थे कि उनकी मांसपेशियों में खिंचाव आ गया और ट्रैक पर ही गिर पड़े। लंदन में लगभग 60000 लोग बोल्ट की आखिरी जीत देखने को आतुर थे लेकिन उन्हें मायूसी ही हाथ लगी। बोल्ट का करियर अब खत्म हो गया है। उसेन बोल्ट के नाम 14 विश्व मैडल तो आठ ओलम्पिक गोल्ड मैडल दर्ज हैं। 100 और 200 मीटर का विश्व रिकॉर्ड भी फिलहाल बोल्ट के ही नाम है लेकिन ट्रैक के इस शहंशाह का रोते-बिलखते मैदान छोड़ना हर खेलप्रेमी को अखर रहा है। बिजली सी गति वाले अब तक धरती के सबसे तेज धावक उसेन बोल्‍ट ने भले ही संन्‍यास लेकर अपने करियर पर विराम लगा दिया हो लेकिन वह इस दौर के सबसे महान एथलीटों में हमेशा शुमार रहेंगे। अपनी अंतिम 100 मीटर की रेस में भले ही बोल्ट को प्रतिद्वंद्वी जस्टिन गैटलिन के हाथों पराजय स्वीकारनी पड़ी हो लेकिन उनके स्‍वर्णिम करियर की चमक आने वाले एथलीटों के लिए एक मिसाल ही रहेगी। बोल्‍ट ने भले ही एथलेटिक्‍स की दुनिया में नाम कमाया लेकिन उनके शब्‍दों में यदि कहा जाए तो क्रिकेट उनका पहला प्‍यार है। गौरतलब है कि बोल्ट पहले क्रिकेटर ही बनना चाहते थे। बोल्‍ट जमैका के एक छोटे से कस्‍बे से ताल्‍लुक रखते हैं। उनके पिता की अब भी किराने की दुकान है और कस्‍बे के लोगों की जरूरत का सामान वहीं मिलता है। इस तरह एक साधारण परिवार से ताल्‍लुक रखने वाले उसेन बोल्‍ट की कामयाबी की इबारत दूसरों के लिए एक मिसाल है। बोल्‍ट जमैका के जिस शेरवुड कंटेंट से मूल रूप से ताल्‍लुक रखते हैं, उस इलाके में पानी की बेहद समस्‍या है। बोल्‍ट के अंतरराष्‍ट्रीय फलक पर छाने के बाद इस इलाके की बदहाली को दुरुस्त करने का सरकार ने काम किया। इससे इस क्षेत्र के लोगों की परेशानियां कम होने से बोल्ट अपने इलाके के हीरो माने जाते हैं। सच कहें तो उसेन बोल्ट एथलेटिक्स की दुनिया के हीरों हैं और उनका प्रदर्शन एथलीटों के लिए हमेशा एक नजीर रहेगा।


Wednesday, 16 August 2017

गीता ने पहलवानी में लिखी नई पटकथा



महिला पहलवानों की बनीं आदर्श
कर्णम मल्लेश्वरी की जीत से महावीर को मिली प्रेरणा
श्रीप्रकाश शुक्ला
हरियाणा के भिवानी जिले में एक छोटा सा गांव है बिलाली। एक वक्त था जब इस गांव में बेटी का होना अभिशाप माना जाता था। बेटी के पैदा होते ही खुशियों की जगह दुःख का मातम छा जाता था। इतना ही नहीं लड़कियों का स्कूल जाना भी मना था। इन विकट परिस्थितियों के बीच 15 दिसम्बर, 1988 को बिलाली गांव में गीता फोगाट का जन्म हुआ। आज भी हमारे देश में केवल बेटों की चाह रखने वालों की कमी नहीं है। शुरुआत में कुछ ऐसी ही सोच गीता के माता-पिता की भी थी। बेटे की चाह में फोगाट दम्पति भी चार बेटियों के पिता बन गए, जिनमें गीता सबसे बड़ी हैं। लेकिन बाद में गीता के पिता महावीर सिंह फोगाट को एहसास हुआ कि बेटियां भी बेटों से कम नहीं होतीं और उन्होंने अपनी बेटियों को उस राह पर चलाने का फैसला कर लिया जिसके बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। महावीर सिंह फोगाट गीता और उसकी बहनों को पहलवान बनाने में जुट गए। महावीर सिंह फोगाट अपने इस प्रयास में न केवल सफल हुए बल्कि उनकी बड़ी बेटी गीता फोगाट भारत की तरफ से ओलम्पिक कुश्ती में उतरने वाली पहली महिला होने का गौरव भी हासिल हुआ। गीता और बबिता ही नहीं महावीर फोगाट की सभी बेटियां पहलवान हैं। यहां तक कि उनकी भतीजी और राष्ट्रमण्डल खेलों की स्वर्ण पदक विजेता विनेश फोगाट तो सबसे अधिक प्रतिभाशाली है। विनेश में तो ओलम्पिक में भी पदक जीतने की काबिलियत है।
महावीर सिंह फोगाट जब अपनी बेटियों को अखाड़े की तरफ ले जाते तो समाज के लोग कहते देखो कितना बेशर्म पिता है। बेटी को ससुराल भेजने के बजाय उनसे कुश्ती लड़वाता है। इस पर महावीर सिंह फोगाट कहते जब लड़की देश की प्रधानमंत्री बन सकती है तो पहलवान क्यों नहीं बन सकती। गीता फोगाट का बचपन बहुत संघर्ष भरा रहा। पर कहते हैं न कि अगर इरादे मजबूत हों और हौंसले बुलंद हों तो दुनिया की कोई भी ताकत आपको आगे बढ़ने से नहीं रोक सकती। गीता और उनके पिता को भी कोई नहीं रोक पाया और आगे चलकर गीता ने कुश्ती में वह कीर्तिमान स्थापित किए जोकि इसके पहले किसी अन्य भारतीय महिला ने नहीं कायम किये थे। सिडनी ओलम्पिक में जब कर्णम मल्लेश्वरी ने वेटलिफ्टिंग में कांस्य पदक जीता तो वह ओलम्पिक में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं। कर्णम मल्लेश्वरी की इसी जीत का गीता के पिता महावीर सिंह फोगाट पर गहरा असर हुआ उन्हें लगा जब कर्णम मैडल जीत सकती है तो मेरी बेटियां भी मैडल जीत सकती हैं और यहीं से उन्हें अपनी बेटियों को चैम्पियन बनाने की प्रेरणा मिली। इसके बाद ही उन्होंने गीता-बबिता को पदक जीतने के लिए तैयार करना शुरू कर दिया। महावीर ने कसरत से लेकर खाने-पीने की हर चीज के नियम बना दिए और गीता-बबिता को पहलवानी के गुर सिखाने लगे। गीता के पिता 1980 के दशक के एक बेहतरीन पहलवान थे और अब वह गीता के लिए एक सख्त कोच भी थे। गीता बताती हैं कि पापा मुझसे अक्सर कहते थे कि तुम जब लड़कों की तरह खाती-पीती हो तो फिर लड़कों की तरह कुश्ती क्यों नहीं लड़ सकती। इसलिए मुझे कभी नहीं लगा कि मैं पहलवानी नहीं कर सकती।
कहते हैं होनहार बिरवान के होत चीकने पात- गांव के दंगल से आगे बढ़ते हुए गीता ने जिला और राज्य स्तर तक कुश्ती में सभी को पछाड़ा और नेशनल व इंटरनेशनल मुकाबलों के लिए खुद को तैयार करने लगीं। गीता कहती है कि मेरे पिता ने हमेशा मुझे इस बात का एहसास कराया कि मैं लड़कों से कम नहीं हूँ। गांव वालों को बेटियों का पहलवानी करना कतई पसंद नहीं था लेकिन पापा ने कभी उनकी परवाह नहीं की। महावीर सिंह की कोचिंग और गीता की कड़ी मेहनत का ही परिणाम था कि जालंधर में 2009 में राष्ट्रमंडल कुश्ती चैम्पियनशिप में उन्होंने स्वर्ण पदक जीता। इसके बाद गीता ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और कुश्ती का अपना सफर जारी रखते हुए साल 2010 में दिल्ली के राष्ट्रमंडल खेलों में फ्रीस्टाइल महिला कुश्ती के 55 किलोग्राम कैटेगरी में गोल्ड मैडल हासिल किया और ऐसा करने वाली वह पहली भारतीय महिला पहलवान बन गईं। गीता ने 2012 में एशियन चैम्पियनशिप में स्वर्ण जीतकर इतिहास रच दिया।
बिलाली हरियाणा के उन दकियानूसी गाँवों में आता है जो जन्म से पहले ही बेटी की भ्रूण हत्या के लिए बदनाम है। ऐसे गाँव की बेटी होने के बावजूद गीता ने जो किया वह किसी करिश्मे से कम नहीं है। कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड मैडल जीतकर जब गीता पहली बार गाँव पहुंचीं तो वही लोग जो कभी उसे ताना मारने से नहीं थकते थे, बैंडबाजे और फूलों का हार लेकर खड़े थे। गीता की जीत ने गाँव वालों की दकियानूसी सोच को भी हरा दिया। गीता की दादी जो लड़की के जन्म को बोझ समझती थीं वह भी अब कहती हैं कि ऐसी बेटियां भगवान सौ दे दे तो भी कम है। अब बिलाली ही नहीं हरियाणा के सैकड़ों गाँव बदल चुके हैं। अब यहाँ बेटियों को लोग प्यार करने लगे हैं। बेटी के जन्म पर जश्न मनाए जाते हैं और लड़कियों को भी लड़कों की तरह खेलने-कूदने और घूमने की आजादी दी जाने लगी है। गीता फोगाट के जीवन पर आधारित फिल्म दंगल को भारतीय दर्शकों ने जिस तरह सराहा उससे लगने लगा है कि अब समाज बदल रहा है। अंतरराष्ट्रीय कुश्ती में गीता के योगदान को देखते हुए ही 18 अक्टूबर, 2016 में इन्हें हरियाणा पुलिस का डिप्टी सुपरिंटेंडेंट बनाया गया। आज पूरे देश को गीता पर गर्व है। महावीर सिंह फोगाट और गीता की सफलता की ये कहानी करोड़ों हिन्दुस्तानियों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। यह संघर्षगाथा यही साबित करती है कि चाहे कितनी भी मुश्किलें आएं अगर इंसान के अन्दर दृढ़ इच्छाशक्ति है तो वह उसके बल पर असम्भव को भी सम्भव बना सकता है। अगर आपका भी कोई सपना है जो आज असम्भव लगता है तो उसे सम्भव बनाने में जुट जाइए क्योंकि असम्भव कुछ भी नहीं।
फोगाट बहनों पर बनी फिल्म दंगल बेशक कामयाबी के झंडे गाड़ रही हो पर इसको लेकर कहीं न कहीं अन्य महिला पहलवानों में रंज भी है। देखा जाए तो दंगल फिल्म की कहानी इतनी काल्पनिक नहीं है क्योंकि गीता फोगाट और बबिता फोगाट ने साल 2010 में दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में अपना जलवा स्वर्ण और रजत पदक जीतकर तो दिखाया ही था। दंगल फिल्म में दिखाया गया है कि गीता और बबिता के पिता महावीर फोगाट की राष्ट्रीय कोच से कुश्ती के दांव-पेच को लेकर तकरार चलती रहती है। महावीर फोगाट खुद एक राष्ट्रीय स्तर के पहलवान रह चुके हैं। यहां तक कि फिल्म के क्लाइमेक्स में दिखाया गया है कि महावीर फोगाट को एक कमरे में बंद कर दिया जाता है ताकि फाइनल मुक़ाबले में वे अपनी ही कोचिंग देना न शुरू कर दें लेकिन हकीकत इससे अलग है। साल 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान भारतीय महिला पहलवान टीम के चीफ कोच रहे प्यारा राम सोंधी का कहना है कि महावीर फोगाट बेहद सज्जन व्यक्ति हैं और उन्हें कमरे में बंद करने वाली बात पूरी तरह से गलत है। उन्होंने कभी भी नेशनल कैम्प के दौरान गीता और बबिता की ट्रेनिंग को लेकर कोई वाद-विवाद नहीं किया। यहां तक कि फिल्म में गीता और कोच के बीच दिखाए गए मतभेद की बात से भी सोंधी इनकार करते हैं।
कोच प्यारा राम सोंधी के मुताबिक महावीर फोगाट अमूमन चुपचाप रहने वाले व्यक्ति हैं। इसके अलावा गीता और बबिता ने ट्रेनिंग कैम्प के दौरान कभी कोई फिल्म सिनेमा हॉल जाकर नहीं देखी। प्यारा राम सोंधी कहते हैं कि महावीर फोगाट तो नहीं लेकिन एक दूसरे पूर्व पहलवान प्रशिक्षकों की गैरमौजूदगी में अपनी बेटी को ट्रेनिंग देने के कुछ अलग तरीके जरूर बताते थे। आखिरकार उन्हें समझाया गया कि गांव-देहात की कुश्ती प्रतिस्पर्धाओं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली प्रतियोगिताओं की ट्रेनिंग में बहुत अंतर है। बाद में वह भी मान गए कि सच क्या है। प्यारा राम सोंधी कहते हैं कि उनकी कभी भी महावीर फोगाट से बहस तो क्या लम्बी बातचीत तक नहीं हुई। यहां तक कि जब गीता और बबिता कामयाबी की दास्तान लिख रही थीं तब उन्हें यह तक पता नहीं था कि महावीर फोगाट दर्शकों के बीच कहां बैठे हैं। उन दिनों तो पूरी भारतीय महिला टीम और कोच खेलगांव में ठहरे थे। महावीर फोगाट और उनका परिवार एक दर्शक के रूप में ही स्टेडियम में मौजूद था। लड़कों से लड़कियों की ट्रेनिंग की बात को लेकर प्यारा राम सोंधी ने कहा की जब उन्होंने विदेशों में ऐसा देखा तो उनके भी विचार बदले लेकिन बड़े वजन की लड़कियों की ट्रेनिग कम वजन के पहलवानों से कराई जाती थीं। प्यारा राम सोंधी इस बात को स्वीकार करते हैं कि गीता और बबिता को लड़कों के साथ बचपन से मुकाबला करने की आदत ने बड़ा पहलवान बनाया। इसका सीधा सा कारण है कि लड़कों के पास लड़कियों के मुकाबले बेहतर तकनीक होती है। सोंधी यह भी बताते हैं कि गीता और बबिता ट्रेनिंग के दौरान शाकाहारी थीं। हालांकि फिल्म में उन्हें प्रोटीन के लिए नॉनवेज खाते हुए दिखाया गया है।


Thursday, 10 August 2017

पूनम तिवारी ने लिखी संघर्ष की नई पटकथा

अब हरदोई की प्रतिभाओं में भर रहीं जीत का जज्बा
दक्षिण कोरिया में पावरलिफ्टिंग में फहराया तिरंगा
श्रीप्रकाश शुक्ला
कहते हैं कि यदि इंसान में कुछ हासिल करने का जोश और जुनून सवार हो तो लाख बाधाएं आ जाएं वह अपनी मंजिलें जरूर हासिल कर ही लेता है। 40 बसंत पार कर चुकी हरदोई की जांबाज बेटी पूनम तिवारी ने भी जीवन में आई हर मुफलिसी का न केवल डटकर सामना किया बल्कि अपना लक्ष्य हासिल करके ही दम लिया। बचपन से ही खेलों को समर्पित इस जांबाज वेटलिफ्टर और पावरलिफ्टर ने न केवल राष्ट्रीय स्तर पर पदकों के ढेर लगाए बल्कि 2002 में दक्षिण कोरिया में हुई एशियन पावर लिफ्टिंग चैम्पियनशिप में चांदी का पदक जीतकर देश और उत्तर प्रदेश के सामने भारतीय मातृशक्ति का नायाब उदाहरण पेश किया। पूनम को दक्षिण कोरिया जाने से पहले सामाजिक शब्दबाणों का भी सामना करना पड़ा लेकिन उसने हर किन्तु-परन्तु को नकारते हुए अपने बीमार पिता के सपने को साकार करना ही उचित समझा। आर्थिक तंगहाली के चलते बेशक जांबाज पूनम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी ताकत का जलवा दिखाने के पर्याप्त अवसर न मिले हों लेकिन इस खिलाड़ी बेटी की खेल इच्छाशक्ति में लेशमात्र भी बदलाव नहीं आया। पूनम तिवारी ने खेल के क्षेत्र में न केवल संघर्ष की नई पटकथा लिखी बल्कि आज वह हरदोई की प्रतिभाओं में जीत का जज्बा जगा रही हैं। पूनम शुक्रगुजार हैं राज्य सरकार के खेल महकमे का जिसने उन्हें संविदा प्रशिक्षक बतौर हरदोई के स्टेडियम में प्रतिभाओं का कौशल निखारने की जवाबदेही दे रखी है।       
समाज बदल रहा है। सामाजिक परम्पराएं बदल रही हैं। बेटियों को भी बेटों की तरह खुले आसमान में स्वच्छंद उड़ान भरने के अवसर मिल रहे हैं बावजूद इसके हमारे देश की अधिकांश महिला खिलाड़ी आज भी हालात और मजबूरियों के चलते अपने सपने साकार नहीं कर पा रही हैं। पूनम के जीवन में भी तरह-तरह की मुसीबतें आईं लेकिन उन्होंने मुसीबतों से हार मानने की बजाय उनका डटकर सामना किया। हरदोई की इस नारी शक्ति ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पचासों पदक जीतने के साथ ही खेल प्रतिभाओं को कुछ देने की गरज से ही प्रशिक्षण का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज एन.आई.एस. डिप्लोमा भी हासिल किया। पूनम चाहती हैं कि अब हरदोई के बेटे-बेटियां वेटलिफ्टिंग और पावलिफ्टिंग में प्रदेश तथा देश का नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रोशन करें।  
उत्तर प्रदेश में वेटलिफ्टिंग की पहली महिला एन.आई.एस. पूनम तिवारी का जन्म सात अगस्त, 1976 को गोलोकवासी सुरेन्द्र कुमार-अन्नपूर्णा तिवारी के घर हुआ। छह भाई-बहनों में सबसे बड़ी पूनम तिवारी को बचपन से ही खेलों में विशेष रुचि रही है। हरदोई में वेटलिफ्टिंग और पावलिफ्टिंग की पहचान बन चुकी पूनम तिवारी की खेलों में अभिरुचि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह स्कूली दिनों में ही हाकी, कबड्डी, खो-खो, बास्केटबाल, वालीबाल तथा एथलेटिक्स के क्षेत्र में धूम मचाते हुए मोतियों की जगह पदकों की माला पहनने लगी थीं। 1999 में वह मण्डलस्तरीय हाकी प्रतियोगिता में अपनी टीम की कप्तान भी रहीं। पूनम ने खेलों के साथ ही सांस्कृतिक आयोजनों में भी खूब नाम कमाया और दर्जनों पदक जीते। खेलप्रेमियों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि पूनम के सभी भाई-बहन किसी न किसी खेल के राष्ट्रीय खिलाड़ी हैं। पूनम के जीवन-साथी राजधर मिश्र जहां अंतरराष्ट्रीय पावरलिफ्टर हैं वहीं उनका बेटा उदीयमान फुटबालर है जोकि फिलवक्त सैफई के साई सेण्टर में अपना खेल निखार रहा है। श्री मिश्र ने पावर लिफ्टिंग में देश के लिए कई मैडल जीते हैं। समाज शास्त्र विषय से परास्नातक पूनम तिवारी ने 1998 में इलाहाबाद से डिप्लोमा इन फिजिकल एजूकेशन (डीपीएड), 2001 में पटियाला से वेटलिफ्टिंग से एन.आई.एस. तथा 2008 में मिर्जापुर से बी.टी.सी. करने के साथ 2010 में नई दिल्ली से रेफरीशिप का डिप्लोमा हासिल किया। जांबाज पूनम ने वेटलिफ्टिंग और पावर लिफ्टिंग में राष्ट्रीय स्तर पर दर्जनों पदक जीते तो 2002 में दक्षिण कोरिया में हुई एशियन पावर लिफ्टिंग चैम्पियनशिप में चांदी का पदक जीतकर अपनी ताकत का समूचे एशिया महाद्वीप में जलवा दिखाया।
संघर्ष और पूनम एक-दूसरे के पर्याय हैं। जब पूनम के सपनों को अंतरराष्ट्रीय फलक पर उड़ान मिलने ही जा रही थी कि उनके पिता सुरेन्द्र कुमार जीवन-मौत से संघर्ष करने लगे। कोई और लड़की होती तो मुसीबत के उन क्षणों में उसकी हिम्मत दगा दे जाती लेकिन पूनम ने इसे समय का कुचक्र मानते हुए संघर्ष जारी रखा। निराशा में डूबे  भाई-बहनों को प्रोत्साहन देने के साथ ही उन्हें पढ़ाई-लिखाई के लिए प्रेरित किया। जब पूनम तिवारी दक्षिण कोरिया की उड़ान भरने को तैयार थीं ऐसे नाजुक समय में इस लड़की को प्रोत्साहन मिलने की जगह सामाजिक ताने सुनने पड़े। सामाजिक तानों की परवाह न करते हुए पूनम न केवल दक्षिण कोरिया गईं बल्कि चांदी का पदक जीतकर हरदोई ही नहीं समूचे उत्तर प्रदेश का गौरव बढ़ाया। इस पदक के बदले जो भी आर्थिक मदद मिली उसे उन्होंने अपने बीमार पिता के इलाज में खर्च कर न केवल एक नजीर पेश की बल्कि समाज को इस बात का संदेश दिया कि बेटियां भी बेटों से कम नहीं हैं। पूनम अपने पिता को तो नहीं बचा सकीं लेकिन भाई-बहनों का जीवन संवारने में उन्होंने कोई कोताही नहीं बरती। पूनम तिवारी लाजवाब वेटलिफ्टर और पावरलिफ्टर होने के साथ ही इन खेलों की अच्छी जानकार भी हैं। आज पूनम से प्रशिक्षण प्राप्त हरदोई के दर्जनों वेटलिफ्टर और पावरलिफ्टर बेटे-बेटियां राज्य तथा राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा-कौशल का जलवा दिखा रहे हैं। पूनम स्कूल-स्कूल और घर-घर जाकर बच्चों को खेल के लिए प्रेरित करती रहती हैं।  
पूनम तिवारी एक दशक तक बतौर खिलाड़ी जिस भी जूनियर और सीनियर प्रतियोगिता में उतरीं उनके हाथ कोई न कोई मैडल जरूर लगा। अब कई खेल संगठनों का सफल संचालन कर रहीं पूनम तिवारी की उपलब्धियों को न केवल समाज की स्वीकारोक्ति मिल रही है बल्कि राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय वेटलिफ्टिंग और पावरलिफ्टिंग संघ भी उनकी काबिलियत को सराह रहे हैं। पूनम तिवारी के उत्तर प्रदेश टीम का प्रशिक्षक रहते खिलाड़ियों ने नेशनल स्तर पर कई स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक भी जीते हैं। पूनम को गुवाहाटी में हुए 12वें दक्षिण एशियाई खेलों में इंटरनेशनल रेफरी की भूमिका का निर्वहन करने के साथ ही 2015 में पुणे में हुए यूथ कामनवेल्थ खेलों में टेक्निकल आफिसियल बतौर सेवा देने का अवसर मिल चुका है। यह खिलाड़ी बेटी और प्रशिक्षक 22 से 25 दिसम्बर 2012 तक हरदोई में 19वीं नेशनल पुरुष और महिला स्ट्रेंथ लिफ्टिंग प्रतियोगिता की भी सफल मेजबानी कर चुकी है। इस प्रतियोगिता में निःशक्त खिलाड़ियों ने भी शानदार कौशल दिखाकर खेलप्रेमियों को दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर किया था।     
खेलों को पूरी तरह से समर्पित पूनम तिवारी उठते-बैठते, सोते-जगते सिर्फ खेलों की बेहतरी का ही सपना देखती हैं। पूनम तिवारी को क्रिकेटर से खेल मंत्री बने चेतन चौहान से काफी उम्मीदें हैं। पूनम का कहना है कि उत्तर प्रदेश में खेल प्रतिभाओं और योग्य प्रशिक्षकों की कमी नहीं है। पूनम का मानना है कि श्री चौहान के खेल मंत्री रहते खेलों और खिलाड़ियों के साथ ही प्रशिक्षकों का जरूर भला होगा। पूनम कहती हैं कि जिस तरह सरकार बेटियों को बचाने और पढ़ाने पर अकूत पैसा खर्च कर रही है उसी तरह खिलाड़ियों पर भी एक न एक दिन धनवर्षा जरूर होगी।


Wednesday, 9 August 2017

यू.पी. में कब उदय होगा पूनम का चांद


संघर्ष का दूसरा नाम पूनम तिवारी
श्रीप्रकाश शुक्ला
हर कोई कहता है कि अब समाज बदल रहा है। सामाजिक परम्पराएं बदल रही हैं। बेटियों को बेटों की तरह खुले आसमान में स्वच्छंद उड़ान भरने के अवसर मिल रहे हैं लेकिन टके भर का सवाल यह कि क्या हमारी हुकूमतों की सोच भी बेटियों को लेकर बदली है। यदि इस गम्भीर मसले पर विचार मंथन करें तो तस्वीर बहुत ही भयावह नजर आती है। क्या यह सच नहीं कि हमारे देश की अधिकांश महिला खिलाड़ी आज भी हालात और मजबूरियों के चलते अपने सपने साकार नहीं कर पा रही हैं। सारी योग्यताएं होने के बावजूद या तो वे खेल छोड़कर अलग-अलग तरह के काम करने को मजबूर हैं या फिर आर्थिक तंगहाली के चलते खेलतंत्र के निकम्मेपन पर आंसू बहा रही हैं। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को ही लें, जहां का खेल मंत्री एक खिलाड़ी है बावजूद इसके यहां की खिलाड़ी बेटियां और खिलाड़ियों की खैर-ख्वाह महिला प्रशिक्षक सरकारी उपेक्षा के चलते गुरबत के दौर से गुजर रही हैं। हरदोई की पूनम तिवारी को ही लें, इस नारी शक्ति के पास बतौर वेटलिफ्टर और पावरलिफ्टर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पचासों पदक होने के साथ ही प्रशिक्षण का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज एन.आई.एस. डिग्री भी है लेकिन वह आधी उम्र बीत जाने के बाद भी संविदा प्रशिक्षक बतौर सेवाएं देने को मजबूर हैं, आखिर क्यों। कहने को हर राज्य सरकार के खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों को जांचने-परखने के कुछ मानक हैं लेकिन वेटलिफ्टिंग और पावर लिफ्टिंग को समर्पित जांबाज पूनम तिवारी सारी अर्हताएं पूरी करने के बाद भी हलाकान-परेशान हैं।
उत्तर प्रदेश में वेटलिफ्टिंग की पहली एन.आई.एस. पूनम तिवारी का जन्म सात अगस्त, 1976 को गोलोकवासी सुरेन्द्र कुमार-अन्नपूर्णा तिवारी के घर हुआ। छह भाई-बहनों में सबसे बड़ी पूनम तिवारी को बचपन से ही खेलों में विशेष रुचि रही है। हरदोई में वेटलिफ्टिंग और पावलिफ्टिंग की पहचान बन चुकी पूनम तिवारी (अब मिश्रा) की खेलों में अभिरुचि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह स्कूली दिनों में हाकी, कबड्डी, खो-खो, बास्केटबाल, वालीबाल तथा एथलेटिक्स के क्षेत्र में धूम मचाते हुए मोतियों की जगह पदकों की माला पहनती थीं। 1999 में वह मण्डलस्तरीय हाकी प्रतियोगिता में अपनी टीम की कप्तान भी रही हैं। पूनम ने खेलों के साथ ही सांस्कृतिक आयोजनों में भी खूब नाम कमाया और दर्जनों पदक जीते। खेलप्रेमियों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि पूनम के सभी भाई-बहन किसी न किसी खेल के राष्ट्रीय खिलाड़ी हैं। पूनम के जीवन-साथी राजधर मिश्र भी अंतरराष्ट्रीय पावरलिफ्टर हैं। श्री मिश्र ने पावर लिफ्टिंग में देश के लिए कई मैडल जीते हैं। समाज शास्त्र विषय से परास्नातक पूनम तिवारी ने 1998 में इलाहाबाद से डिप्लोमा इन फिजिकल एजूकेशन (डीपीएड), 2001 में पटियाला से वेटलिफ्टिंग से एन.आई.एस. तथा 2008 में मिर्जापुर से बी.टी.सी. किया। पूनम तिवारी ने 2010 में नई दिल्ली से रेफरीशिप का डिप्लोमा भी हासिल किया। पूनम ने वेटलिफ्टिंग में राष्ट्रीय स्तर पर दर्जनों पदक जीते तो पावर लिफ्टिंग में इस जांबाज खिलाड़ी ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि मादरेवतन का भी गौरव बढ़ाया है। पूनम ने 2002 में दक्षिण कोरिया में हुई एशियन पावरलिफ्टिंग चैम्पियनशिप में चांदी का पदक जीतकर अपनी ताकत का समूचे एशिया महाद्वीप में जलवा दिखाया।
संघर्ष और पूनम का चोली-दामन सा साथ है। जब पूनम के सपनों को अंतरराष्ट्रीय फलक पर उड़ान मिलने ही जा रही थी कि उनके सिर से पिता का साया उठ गया। कोई और लड़की होती तो मुसीबत के इन क्षणों में उसकी हिम्मत दगा दे जाती लेकिन पूनम ने अपने भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई का भार अपने कंधों पर उठा लिया। दक्षिण कोरिया में जीते चांदी के पदक के बाद उसे जो भी आर्थिक मदद मिली उसे उसने अपने पिता की बीमारी पर खर्च कर दिया। पूनम अपने पिता को तो नहीं बचा सकीं लेकिन भाई-बहनों का जीवन संवारने में कोई कोताही नहीं बरती। पूनम तिवारी लाजवाब वेटलिफ्टर और पावरलिफ्टर होने के साथ ही इन खेलों की अच्छी जानकार भी हैं। आज पूनम से प्रशिक्षण प्राप्त दर्जनों वेटलिफ्टर और पावरलिफ्टर बेटे-बेटियां राज्य तथा राष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रतिभा-कौशल का जलवा दिखा रहे हैं।
पूनम तिवारी एक दशक तक बतौर खिलाड़ी जिस भी जूनियर और सीनियर प्रतियोगिता में उतरीं उनके हाथ कोई न कोई मैडल जरूर लगा। कई खेल संगठनों का सफल संचालन कर रहीं पूनम तिवारी को उत्तर प्रदेश सरकार से बेशक न्याय न मिला हो लेकिन राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय वेटलिफ्टिंग और पावरलिफ्टिंग संघों ने उनकी काबिलियत को हमेशा ही सराहा है। पूनम तिवारी के उत्तर प्रदेश टीम का प्रशिक्षक रहते खिलाड़ियों ने नेशनल स्तर पर कई स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक भी जीते हैं। पूनम को गुवाहाटी में हुए 12वें दक्षिण एशियाई खेलों (सैफ खेलों) में इंटरनेशनल रेफरी की भूमिका का निर्वहन करने के साथ ही 2010 में दिल्ली में हुए राष्ट्रमण्डल खेलों में टेक्निकल आफिसियल के रूप में भी सेवाएं देने का अवसर मिल चुका है। पूनम 2015 में पुणे में हुए यूथ कामनवेल्थ खेलों में भी इंटरनेशनल रेफरी की भूमिका का निर्वहन कर चुकी हैं। यह खिलाड़ी बेटी 22 से 25 दिसम्बर 2012 तक हरदोई में आयोजित 19वीं पुरुष और महिला पावर लिफ्टिंग प्रतियोगिता की सफल मेजबानी भी कर चुकी है।    
खेलों को पूरी तरह से समर्पित पूनम तिवारी उठते-बैठते, सोते-जगते सिर्फ खेलों की बेहतरी का ही सपना देखती हैं। खुद को अभी तक न्याय न मिलने से व्यथित पूनम बुझे मन से कहती हैं कि उत्तर प्रदेश की सल्तनत में हुए बदलाव और क्रिकेटर से खेल मंत्री बने चेतन चौहान से उन्हें काफी उम्मीदें हैं। उत्तर प्रदेश में खेल प्रतिभाओं और योग्य प्रशिक्षकों की कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ सरकारी प्रोत्साहन की। आखिर हम लोग कब तक संविदा प्रशिक्षक बतौर सेवाएं देने को मजबूर रहेंगे। हमारे पास क्या नहीं है। आखिर हम लोगों को न्याय कब मिलेगा। यदि श्री चौहान के खेल मंत्री रहते भी इंसाफ नहीं मिला तो फिर उत्तर प्रदेश में पूनम का चांद कभी उदय नहीं होगा। सरकारें बेटियों को बचाने और पढ़ाने के नाम पर अकूत पैसा खर्च कर रही हैं लेकिन जो पढ़-लिखकर काबिल बन गई हैं उनकी तरफ किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता। आखिर उत्तर प्रदेश के संविदा प्रशिक्षक कब तक बेगार करने को मजबूर होते रहेंगे।  
देखा जाए देश के अधिकांश राज्यों में खिलाड़ियों को निखारने वाले संविदा खेल प्रशिक्षक ही सर्वाधिक पीड़ित और परेशान हैं जबकि खेलों में इनका अतुलनीय योगदान है। सरकारी उपेक्षा का दंश झेल रही पूनम तिवारी के मैडल और उनके दस्तावेज चीख-चीख कर बता रहे हैं कि समाज बेशक बदलाव की अंगड़ाई ले रहा हो हमारा सरकारी खेलतंत्र आज भी कुम्भकर्णी नींद ही सो रहा है। पूनम की ही तरह उत्तर प्रदेश की मीनाक्षी रानी 1996 और 1998 में राष्ट्रीय वेटलिफ्टिंग चैम्पियनशिप में गोल्ड मैडल जीतकर सुर्खियों में आई थीं। मीनाक्षी ने एशियन जूनियर और सीनियर चैम्पियनशिप में भी कांस्य पदक हासिल किए लेकिन आज यह महिला खिलाड़ी गरीबी से जूझ रही है। सरकार ने नौकरी का आश्वासन तो कई बार दिया लेकिन आज तक उसे नौकरी नहीं मिली। खिलाड़ी बेटियों की उपेक्षा का खेल सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं अन्य राज्यों में भी बदस्तूर जारी है। झारखंड के पथमड़ा गांव की रहने वाली निशा ने जो मुकाम हासिल किया वह हर किसी को नहीं मिलता। तीरंदाजी में महारत रखने वाली निशा ने ताईवान में सर्वश्रेष्ठ तीरंदाज का खिताब अपने नाम किया था। साउथ एशियन चैम्पियनशिप में उन्होंने सिल्वर मैडल हासिल किया और सिक्किम में आयोजित राष्ट्रीय प्रतियोगिता में बेस्ट प्लेयर का अवार्ड भी जीता लेकिन किसान परिवार से ताल्लुक रखने वाली निशा आज एक अदद नौकरी के लिए दर-दर भटक रही है।  

केन्द्रीय खेल मंत्री विजय गोयल खेल के क्षेत्र में मुल्क का नाम रोशन करने वाली महिला खिलाड़ियों के मामले में फिक्रमंद होने का हमेशा स्वांग करते रहते हैं। खेल मंत्री श्री गोयल ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर महिला खिलाड़ियों की समस्या और सुझाव सुनने तथा उनकी शिकायतों पर उचित कार्रवाई करने के लिए एक पांच सदस्यीय विशेष टीम के गठन का एलान किया था। उन्होंने कहा था कि हाई पावर कमेटी में महिला खेल पत्रकार और महिला खिलाड़ियों को विशेष रूप से शामिल किया जाएगा। यह कमेटी देश की किसी भी महिला खिलाड़ी, महिला प्रशिक्षक की शिकायत सुन सकेगी और समस्याओं का निदान भी होगा। श्री गोयल कहते हैं कि खेल मंत्रालय स्वच्छ वातावरण तैयार कर रहा है। खेल में करियर बनाने की चाह रखने वाली बेटियों को सुरक्षित माहौल प्रदान करना खेल मंत्रालय की जिम्मेदारी है ताकि महिला खिलाड़ियों के भीतर निडर व तनावमुक्त होकर खेलने का आत्मविश्वास जगे। श्री गोयल यह तो मानते हैं कि महिला खिलाड़ियों को घर-परिवार और समाज में पुरुष खिलाड़ियों के मुकाबले अधिक परेशानी का सामना करना पड़ता है लेकिन उनके लाख कहने के बाद भी किसी महिला खिलाड़ी तथा प्रशिक्षक को न्याय मिलना तो दूर उसकी सुध तक नहीं ली जा रही है। भारत में खिलाड़ियों की दुर्दशा की मुख्य वजह खेल मंत्रियों और सरकारी खेलतंत्र का घोषणा-वीर होना ही है। आजादी के 70 साल बाद भी देश में खेलों और खिलाड़ियों के उत्थान की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं हुई है। खेलों के नाम पर अरबों रुपये प्रतिवर्ष खर्च हो रहे हैं लेकिन खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों को उसका लाभ शायद ही कभी मिला हो। हमारे देश में खेल प्रतिभाओं के साथ ही अनुभवी खेल प्रशिक्षकों की कमी नहीं है लेकिन घर का जोगी जोगना आन गांव का सिद्ध की तर्ज पर भारत सरकार विदेशी प्रशिक्षकों पर धन वर्षा कर अपनी पीठ ठोक रही है और भारतीय प्रशिक्षक घुट-घुट कर मरने को मजबूर हैं। पूनम तिवारी जैसी कर्मयोगियों को ही यदि न्यान न मिला तो आखिर कोई भी अभिभावक अपनी बेटियों को खिलाड़ी क्यों बनाना चाहेगा।

Tuesday, 8 August 2017

ज्योतिर्मयी ने ट्रैक पर जलाई अपने पराक्रम की ज्योति


खेलरत्न सिकदर ने राजनीति में भी फहराया परचम
श्रीप्रकाश शुक्ला
मध्यम दूरी की धाविका ज्योतिर्मयी सिकदर उड़न परी पी.टी. ऊषा के बाद दूसरी भारतीय गोल्डन गर्ल के नाम से जानी गईं। इस धावक ने ट्रैक पर अपने पराक्रम की ऐसी ज्योति जलाई कि समूचा भारत वाह-वाह कर उठा। पूर्वी रेलवे में कार्यरत ज्योतिर्मयी सिकदर ने 1988 में अंतर विश्वविद्यालय स्तर से 1500 मीटर दौड़ में अपने पराक्रम का जलवा दिखाना शुरू किया था। उसके बाद उन्होंने इस दौड़ में दर्जनों पदक जीते। 1994 में इस धावक ने न केवल दो राष्ट्रीय कीर्तिमान अपने नाम किए बल्कि दो बार प्रसिद्ध एथलीट शाइनी विल्सन को भी हराया। 1995 की एशियाई ट्रैक एण्ड फील्ड स्पर्धा में 800 मीटर दौड़ का स्वर्ण पदक जीतने के बाद इस गोल्डन गर्ल ने 1998 के बैंकाक एशियाई खेलों में ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए 800 और 1500 मीटर की दौड़ों में भी स्वर्ण पदक जीत दिखाए। ट्रैक पर शानदार प्रदर्शन के लिए 1995 में ज्योतिर्मयी सिकदर को अर्जुन पुरस्कार तो 1998-99 में राजीव गांधी खेल रत्न और पद्मश्री से नवाजा गया। 2004 में माकपा के टिकट पर बंगाल के कृष्णनगर सीट से सांसद रहीं बनीं लेकिन 2009 में हुए चुनावों में वह अपनी सीट बचाने में नाकाम रहीं। सच कहें तो मैदानों की इस सदाबहार खिलाड़ी को राजनीति रास नहीं आई।
जब 1998 के बैंकाक एशियाई खेलों में भारतीय खिलाड़ी देश को निराश कर रहे थे तब ज्योतिर्मयी सिकदर ने भारत की रीती झोली में दो स्वर्ण तथा एक रजत पदक डालकर खेलप्रेमियों को निहाल कर दिया। ज्योतिर्मयी के इस शानदार प्रदर्शन से अन्य भारतीय खिलाड़ियों का उत्साह भी जाग उठा तथा भारतीय खेलप्रेमियों में खुशी की लहर दौड़ गई। इन खेलों में उन्होंने अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 800 और 1500 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक जीतते हुए चार गुणा चार सौ मीटर रिले दौड़ में भी भारत को चांदी का पदक दिलाया। ज्योतिर्मयी सिकदर जब एशियाई खेलों से स्वर्णिम सफलता हासिल कर लौटीं तो भारत में उनका शानदार स्वागत किया गया। फूलों से लदी खुली जीप में उनको ले जाया गया और उन्हें नई गोल्डन गर्ल का नाम दिया गया। ज्योतिर्मयी को इस विजय के लिए अन्तरराष्ट्रीय कम्पनी सैमसंग द्वारा मोस्ट वैल्यूड परफार्मेंस अवार्ड से सम्मानित करने के साथ ही 13 लाख रुपये की पुरस्कार राशि भी प्रदान की गई।
ज्योतिर्मयी का जन्म पश्चिम बंगाल के नादिया जिले में हुआ। उन्होंने अपने पिता की मदद से मैदान में दौड़-दौड़ कर स्टेमिना बनाया ताकि वह लम्बी दौड़ लगा सकें। खेलों के साथ ही साथ ज्योतिर्मयी पढ़ाई भी करती रहीं और भौतिक शास्त्र में स्नातक डिग्री हासिल की। शुरुआती दौर में ज्योतिर्मयी ने 400 मीटर दौड़ में भाग लेना आरम्भ किया फिर वह 800 मीटर और 1500 मीटर दौड़ में हिस्सा लेने लगीं। ज्योतिर्मयी ने राष्ट्रीय स्तर पर खेलों की शुरुआत 1992 में आल इंडिया ओपन मीट में 800 मीटर दौड़ में रजत पदक जीतकर की। अगले ही साल उन्होंने इस विधा का स्वर्ण पदक जीता और उन्हें 1993 में ढाका में होने वाले साउथ एशियन फेडरेशन खेलों (सैफ) के लिए भारतीय टीम में शामिल कर लिया गया। सैफ खेलों में ज्योतिर्मयी ने 1500 मीटर दौड़ में रजत पदक प्राप्त किया लेकिन इसी साल सिंगापुर ओपन में उन्होंने स्वर्ण पदक जीता। 1994 में ज्योतिर्मयी सिकदर ने 1500 मीटर का राष्ट्रीय रिकार्ड तोड़ा लेकिन हिरोशिमा में हुए एशियाई खेलों में वह विजय प्राप्त नहीं कर सकीं और चौथे स्थान पर रहीं। ज्योतिर्मयी का विवाह अपने पूर्व कोच अवतार सिंह के साथ हुआ है। ज्योतिर्मयी सिकदर 1998-99 में राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार पाने वाली पहली महिला एथलीट बनीं।
उपलब्धियां-
1994 में विश्व रेलवे मीट लन्दन में उन्होंने चार  गुणा 400 मीटर रिले दौड़ में स्वर्ण पदक जीता।
1995 की एशियन ट्रैक एण्ड फील्ड मीट (जकार्ता) में 800 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक तो चार  गुणा 400 मीटर रिले दौड़ में रजत पदक जीता।
1995 में 800 मीटर दौड़ में नया राष्ट्रीय रिकार्ड स्थापित किया।
1996 में उन्होंने चीनी ताइपेई में 400 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक जीता।
दो बार अन्तरराष्ट्रीय आईटीसी मीट में हिस्सा लिया। 1995 में कांस्य तथा 1997 में स्वर्ण व रजत पदक प्राप्त किए।
1997 में फुकुओका (जापान) में एशियन ट्रैक एण्ड फील्ड मीट में 800 मीटर तथा 1500 मीटर दौड़ में कांस्य पदक जीते तथा चार  गुणा 400 मीटर रिले दौड़ में रजत पदक जीता।
ज्योतिर्मयी को 1995 में अर्जुन पुरस्कार मिला।

1998-99  में राजीव गाँधी खेल रत्न पाने वाली प्रथम एथलीट बनीं।

Wednesday, 2 August 2017

महिला खिलाड़ियों की आदर्श उड़नपरी पी.टी. ऊषा

 दुनिया में दिलाई मुल्क को शोहरत
श्रीप्रकाश शुक्ला
उड़न परी पी.टी. ऊषा एक जानी-मानी एथलीट ही नहीं बल्कि हजारों भारतीय खिलाड़ी बेटियों की आदर्श भी हैं। पी.टी. ऊषा का नाम जुबान पर आते ही एक दुबली-पतली लड़की का चेहरा सामने आ जाता है। जो किसी भी जगह, किसी भी रेस में, किसी के साथ भी दौड़ते हुए पीछे कम ही दिखाई देती थीं। कई राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय खेल स्पर्धाओं में अपने खेल का लोहा मनवाने वाली पी.टी. ऊषा देश की अकेली ऐसी महिला खिलाड़ी हैं, जिन्होंने एशियाई तथा ओलम्पिक खेलों में भी ऐतिहासिक गौरव हासिल किया है। एक सैकड़ा से अधिक राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय पदक जीतकर ऊषा ने जताया कि यदि देश में लड़कियों को पर्याप्त प्रोत्साहन मिले तो वह भी किसी से कम नहीं हैं। यूं तो हमारा देश जनसंख्या की दृष्टि से दुनिया के दूसरे स्थान पर विराजमान है लेकिन इस जनसंख्या की कतार में हजारों लोगों को पीछे छोड़ते हुए कुछ ही ऐसे भारतीय होते हैं जो आगे निकल जाते हैं। किसी भी क्षेत्र में सबसे पहले आने की कड़ी में वे अपना नाम दर्ज करवाते हैं। जब-जब इतिहास में किसी भी खिलाड़ी ने कीर्तिमान रचा है या कोई नया रिकॉर्ड बनाया है तब-तब उसे आम जनता द्वारा कुछ अलग, कुछ हटकर नामों की उपाधि से नवाजा गया है। पी.टी. ऊषा भी उन्हीं में से एक हैं। पी.टी. ऊषा को उड़न परी, स्वर्ण परी, एशियन स्प्रिंट क्वीन, पायोली एक्सप्रेस, भारतीय ट्रैक एण्ड फील्ड की रानी आदि नामों से पुकारा जाता है। 1985  में ऊषा को पद्मश्री व अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
पी.टी. ऊषा ने अपनी कड़ी मेहनत और लगन से वह स्थान प्राप्त किया जिसकी असली हकदार थीं। अक्सर गरीब परिवार में पैदा होना इंसान की काबिलियत को मारने के लिए काफी होता है लेकिन पी.टी. ऊषा के मामले में यह बात मिथ्या साबित हो गई। पी.टी. ऊषा ने अपनी काबिलियत और मेहनत से यह साबित किया कि यदि इंसान में हौसला और कुछ कर गुजरने की इच्छाशक्ति हो तो कोई काम असम्भव नहीं। पी.टी. ऊषा ने हर मुश्किल और मुसीबत को ठेंगा दिखाते हुए संकल्प लिया कि वह आगे बढ़ेंगी और कुछ करके ही रहेंगी। पी.टी. ऊषा आज देश की हर दूसरी महिला खिलाड़ी की प्रेरणास्रोत हैं। पी.टी. ऊषा जब ट्रैक में सबसे तेज धाविका के रूप में आगे बढ़ रही थीं, जिस समय लोगों ने उन्हें पहचानना शुरू किया था उस समय भारतीय महिलाओं की दशा बहुत अच्छी नहीं थी। पी.टी. ऊषा ने खेल के क्षेत्र में जो कुछ हासिल किया वह आसान बात नहीं थी।
पी.टी. ऊषा का जन्म केरल के कालीकट (कोझिकोड) जिले के पायोली गांव में 27 जून, 1964 को हुआ था। ऊषा को पहला नाम पायोली तेवारापराम्पिल यानी कि उनके गाँव से मिला था। दक्षिण भारत में पारम्परिक नामकरण प्रणाली प्रचलित है और वहाँ पर हर व्यक्ति का नाम ऐसे ही रखा जाता है। ऊषा के माता व पिता का नाम  ई.पी.एम. पैथॉल तथा टी.वी. लक्ष्मी है। ऊषा अपने बचपन के शुरू के दिनों में बहुत बीमार रहा करती थीं लेकिन स्कूल के शुरू के दिनों से ही अच्छे एथलीट होने के गुण उनमें दिखाई देने लगे थे। उनके पिता एक छोटे-मोटे व्यापारी और उनकी माताजी सीधी-साधी गृहणी थीं। पी.टी. ऊषा की शारीरिक बनावट बचपन से ही एक एथलीट जैसी ही थी। लम्बी-लम्बी टांगें और फुर्ती से काम करने का दम उन्हें बिरासत में मिला है। घर के किसी भी कार्य को वे एकदम फुर्ती से करती थीं और हर वक्त भागती-दौड़ती रहती थीं ऐसे में उनकी एक तरह से कसरत हमेशा होती रहती थी। पी.टी. ऊषा को लम्बी-लम्बी दीवारें फांदना खूब भाता था। जब केरल में खेल विद्यालय खोला गया तब उनके मामाजी ने सलाह दी कि तू वैसे भी दिन भर यहां-वहां भागती रहती है सो तू क्यों खेल प्रतियोगिताओं में भाग नहीं लेती। मामा की बात मानकर पी.टी. ऊषा ने खेलों में रुचि दिखानी शुरू की। पी.टी. ऊषा को असल प्रेरणा अगर किसी घटना ने दी तो वह तब जब वे केवल चौथी कक्षा में पढ़ती थीं और उनके व्यायाम टीचर ने उन्हें सातवीं कक्षा की चैम्पियन छात्रा के साथ रेस लगाने को कहा। पी.टी. ऊषा जैसे ही उस रेस में जीतीं उनका आत्मविश्वास सातवें आसमान पर पहुंच गया। पी.टी. ऊषा एक गरीब परिवार में पैदा हुई थीं, इसी कारण उनका पालन-पोषण सही तरीके से नहीं हो पाया और उनकी तबियत खराब रहती थी। बुरा वक्त पी.टी. ऊषा के साथ ज्यादा समय तक नहीं रहा क्योंकि बहुत छोटी सी उम्र में ही उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाना शुरू कर दिया था।
1976 यानी जब पी.टी. ऊषा केवल 12 साल की थीं तब केरल सरकार द्वारा वहां एक खेल विद्यालय खोला गया। पी.टी. ऊषा की प्रतिभा को देखते हुए छोटी सी उम्र में ही उन्हें जिले का प्रतिनिधि चुना गया। केरल खेल परिषद द्वारा वहां हर किसी प्रतिभावान खिलाड़ी छात्र-छात्राओं को 250 रुपये हर महीने की छात्रवृत्ति के साथ-साथ फल, अण्डे, सूप आदि के रूप में पोषण से भरा आहार दिया जाता था। पी.टी. ऊषा ने 1976 में कन्नौर खेल छात्रावास में प्रवेश लिया। 1979 में उन्हें राष्ट्रीय विद्यालय खेलों में भाग लेने का मौका मिला। वहां ओ.एम. नाम्बियार की नजर पी.टी. ऊषा पर पड़ी। उन्हें लगा कि यह लड़की और लड़कियों के मुकाबले कुछ हटकर है। वैसे भी प्रतिभावान लोग अपनी एक अलग जगह बना ही लेते हैं। नाम्बियार ने पी.टी. ऊषा को प्रशिक्षण देने का निश्चय किया।
ओलम्पिक्स में पी.टी. ऊषा की शुरुआत 1980 के मास्को ओलम्पिक से हुई थी लेकिन पहले ओलम्पिक में अच्छा प्रदर्शन नहीं दिखा पाईं और सबको निराश किया। किसी ने एकदम सही कहा है कि निराशा के पीछे ही आशा छिपी होती है। यदि आपके मन में किसी चीज को पाने की सच्ची अभिलाषा हो तो उसे जरूर हासिल किया जा सकता है। 1980 की निराशा से उबर चुकी पी.टी. ऊषा ने 1982 के एशियाई खेलों में अपने करिश्माई प्रदर्शन से सबको हैरत में डाल दिया। 1982 के एशियाई खेलों में ऊषा ने 100 और 200 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक जीते। राष्ट्रीय स्तर पर ऊषा ने कई बार अपने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को दोहराने के साथ 1984 के लांस एंजिल्स ओलम्पिक खेलों में 400 मीटर हर्डल में चौथा स्थान हासिल किया। यह गौरव पाने वाली पी.टी. ऊषा भारत की पहली महिला धावक बनीं। कोई विश्वास नहीं कर पा रहा था कि भारत की धावक भी ओलम्पिक खेलों का सेमीफाइनल जीतकर अन्तिम दौर में पहुँच सकती है। वजह इससे पहले किसी भी भारतीय महिला ने ऐसा करिश्मा किया ही नहीं था। पी.टी. ऊषा ने जकार्ता में हुई एशियन चैम्पियनशिप में भी स्वर्णिम सफलता हासिल कर यह जताया कि आखिर वह किस फौलाद की बनी हैं। पी.टी. ऊषा जकार्ता एशियन चैम्पियनशिप की ट्रैक एण्ड फील्ड स्पर्धाओं में पांच स्वर्ण एवं एक रजत पदक जीतकर एशिया की सर्वश्रेष्ठ धावक बनीं। कहते हैं कि जब व्यक्ति आसमान की ऊंचाइयों को छू रहा होता है तब उसके रास्ते में कई लोग उसके मित्र बनते हैं और कई सारे खुद ही उसके शत्रु बनना पसंद करते हैं क्योंकि ईर्ष्या करना उनकी गन्दी और घटिया आदत का मापदण्ड होता है। लांस एंजिल्स ओलम्पिक में ऊषा के शानदार एवं इतिहास रच देने वाले प्रदर्शन के बाद विश्वभर के खेल विशेषज्ञ चकित रह गए। 1982 के नई दिल्ली एशियाड में उन्हें 100 मीटर व 200 मीटर दौड़ में रजत पदक मिले लेकिन एक वर्ष बाद कुवैत में एशियाई ट्रैक और फील्ड प्रतियोगिता में एक नए एशियाई कीर्तिमान के साथ उन्होंने 400 मीटर में स्वर्ण पदक जीता।

1983 से 1989 के बीच में ऊषा ने ए.टी.एफ. खेलों में 13 स्वर्ण पदक जीते। 1984 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक की 400 मीटर बाधा दौड़ के सेमीफाइनल में वह पहले स्थान पर  थीं लेकिन फाइनल में पीछे रह गईं। मिल्खा सिंह के साथ जो 1960 में हुआ वैसा ही कुछ 1984 में पी.टी. ऊषा के साथ हुआ। ऊषा सेकेण्ड के सौवें हिस्से से कांस्य पदक गंवा बैठीं। 1986 में सियोल में हुए दसवें एशियाई खेलों में पी.टी. ऊषा ने चार  स्वर्ण और एक  रजत पदक जीता। उन्होंने जितनी भी दौड़ों में भाग लिया उनमें नए एशियाई खेल कीर्तिमान स्थापित किए। 1985 में जकार्ता में हुई एशियाई दौड-कूद प्रतियोगिता में भी उन्होंने पाँच स्वर्ण पदक जीते। एक ही अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में छह स्वर्ण पदक जीतना भी एक कीर्तिमान है। ऊषा ने अपने खेलजीवन में 102 अंतरराष्ट्रीय पदक जीते।