अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय एथलीटों
का प्रदर्शन दयनीय क्यों ?
श्रीप्रकाश शुक्ला
उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर में जुलाई महीने
में हुई एशियाई एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में भारतीय एथलीटों ने अपने शानदार प्रदर्शन
का जो विश्वास खेलप्रेमियों में जगाया था उसकी अगस्त महीने में लंदन में हुई विश्व
एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में जरा भी झलक नहीं दिखी। पौरुष के इस इम्तिहान में हमेशा
की तरह इस बार भी अमेरिकी एथलीट ही छाए रहे। अमेरिकी एथलीटों ने 30 पदक जीते और सूची
में सिरमौर रहे। 14वीं विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में 42 देशों के एथलीट जहां कोई
न कोई पदक हासिल कर पोडियम तक पहुंचे वहीं भारत के 25 सदस्यीय दल में से एक भी एथलीट
पदक तो क्या उसके करीब तक भी नहीं पहुंचा 1983 से इस प्रतियोगिता में हिस्सा ले
रहे भारतीय एथलीटों के लिए लांग जम्पर अंजू बॉबी जॉर्ज आज भी एक नजीर हैं। विश्व एथलेटिक्स
चैम्पियनशिप में पदक जीतने वाली अंजू बॉबी जॉर्ज एकमात्र भारतीय एथलीट हैं। अंजू
ने 2003 में पेरिस में हुई विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप की लम्बीकूद स्पर्धा में कांसे
का तमगा जीता था। 14 साल से भारतीय एथलीटों का खाली हाथ लौटना खेलप्रेमियों के लिए
निराशा का सबक तो है लेकिन हमारे खेलतंत्र के लिए यह मामूली बात है। भारतीय एथलीट सौ
साल से ओलम्पिक खेलों में भी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं लेकिन वहां भी आज तक निराशा
के सिवा कुछ भी हाथ नहीं लगा।
विश्व एथलेटिक्स स्पर्धाओं में जहां छोटे-छोटे
देशों के खिलाड़ी बड़े-बड़े कारनामे दिखाते रहे हैं वहीं एक अरब 30 करोड़ की आबादी
वाले देश में अभी तक कोई ऐसा सूरमा एथलीट पैदा नहीं हुआ जिस पर भारतीय खेलप्रेमी
ताली पीट सकें। लंदन में हुई विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में अमेरिका 10 स्वर्ण,
11 रजत, नौ कांस्य पदक के साथ पहले, केन्या पांच स्वर्ण, दो रजत, चार कांस्य के
साथ दूसरे तथा दक्षिण अफ्रीका तीन स्वर्ण, एक रजत, दो कांस्य पदक के साथ तीसरे
स्थान पर रहा। तीन स्वर्ण और दो रजत पदक के साथ फ्रांस चौथे, दो स्वर्ण, तीन रजत
और दो कांस्य पदक के साथ चीन पांचवें तथा मेजबान ग्रेट ब्रिटेन दो स्वर्ण, तीन रजत
और एक कांस्य पदक के साथ छठे स्थान पर रहा। यहां सोचने वाली बात है कि भुवनेश्वर
में हुई एशियाई एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में भारत से पिछड़ने वाला चीन विश्व मंच पर
जहां एक बड़ी ताकत के रूप में उभरा वहीं हमारे एथलीट उसके आसपास भी नहीं फटके। दरअसल,
एशियाई एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में चीन, जापान, कतर आदि ने अपने सर्वश्रेष्ठ एथलीट
उतारे ही नहीं थे जबकि भारतीय खिलाड़ी और खेलनहार सिरमौर होने का जश्न मनाने में
मशगूल रहे। विश्व एथलेटिक्स मंच पर एशियाई एथलीट बेशक बड़ी ताकत न हों लेकिन लंदन
में चीन, जापान, कतर और कजाकिस्तान के एथलीटों ने 13 पदक जीतकर अमेरिकी और यूरोपीय
देशों को चौंकाया जरूर है। विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप से पूर्व हर भारतीय को
भालाफेंक खिलाड़ी नीरज चोपड़ा से ही एकमात्र पदक की उम्मीद थी लेकिन वह पहले ही
दौर में बाहर हो गये। नीरज की नाकामयाबी के बावजूद देविन्दर सिंह कंग इस
प्रतियोगिता के फाइनल तक तो जरूर पहुंचे लेकिन वहां वह अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दोहराने
से चूक गये। भारतीय एथलीटों में मध्यम दूरी के धावक लक्ष्मणन जहां अपना सर्वश्रेष्ठ
प्रदर्शन करने में सफल रहे वहीं शेष खिलाड़ी सेमीफाइनल और फाइनल तक भी नहीं पहुंच
सके। भारतीय एथलीटों के इस शर्मनाक प्रदर्शन पर थू-थू करने की बजाय खेलप्रेमियों
को भारतीय खेलतंत्र की लचर खेल-नीतियों पर रंज दिखानी चाहिए।
किसी राष्ट्र की प्रतिष्ठा खेलों में उसकी
उत्कृष्टता से बहुत कुछ जुड़ी होती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलों में अच्छा
प्रदर्शन केवल पदक जीतने तक सीमित नहीं होता बल्कि यह किसी राष्ट्र के स्वास्थ्य,
मानसिक अवस्था एवं लक्ष्य के प्रति सजगता को भी सूचित करता है। ओलम्पिक में भारत
द्वारा अब तक जीते कुल 27 पदकों से अधिक तो अमेरिकी तैराक माइकल फेल्प्स (28 पदक)
ने अकेले ही जीत लिए हैं। प्रत्येक ओलम्पिक और विश्वस्तरीय स्पर्धाओं के बाद भारतीय
खिलाड़ियों के निराशाजनक प्रदर्शन पर बहुत कुछ कहा-सुना जाता है लेकिन सुधार के
प्रयास कभी नहीं होते। खेलों में सुधार की जहां तक बात है भारत में इसकी शुरुआत
बहुत ही निचले स्तर से किए जाने की आवश्यकता है। जानकर ताज्जुब होगा कि एक अरब तीस
करोड़ की आबादी वाले देश में 15 फीसदी से भी कम लोगों की खेलों में रुचि है। खेलों के आधारभूत ढांचे
में परिवर्तन के कसीदे तो खूब गढ़े जाते हैं लेकिन जमीनी धरातल पर कुछ होता नहीं
दिखता। खेलों को स्वास्थ्य और शिक्षा से जोड़ने की भी कोशिशें आज तक नहीं हुईं।
भारत में युवा जनसंख्या अपेक्षाकृत अन्य मुल्कों से अधिक है। भारतीय युवाओं में
शक्ति एवं ऊर्जा की भी कोई कमी नहीं है लेकिन उन्हें वे खेल अवसर और सुविधाएं मयस्सर
नहीं हैं जोकि उन्हें मिलनी चाहिए।
देखा जाए तो दो दशक से भारत तेजी से आर्थिक
प्रगति कर रहा है लेकिन खिलाड़ियों को अंतरराष्ट्रीय स्तर की खेल सुविधाएं देने में
हमेशा गरीबी का रोना रोया जाता है। खेलों में उत्कृष्टता के लिए राजनीतिक, सामाजिक,
सांस्कृतिक प्रतिबद्धता अनिवार्य है। इसके लिए दूरगामी सोच, सक्रिय योजनाएं एवं
उनके क्रियान्वयन के साथ ही खेलों के प्रति लोगों के दृष्टिकोण को बदलने और उनमें
जागरूकता लाने की भी आवश्यकता है। मानव के समग्र विकास में खेलों की अहम भूमिका
रही है। खेल मनोरंजन का साधन और शारीरिक दक्षता हासिल करने का सशक्त माध्यम हैं। बुनियादी
स्तर पर खेल सुविधाएं उपलब्ध कराना, बच्चों में खेलों के प्रति रुचि पैदा किया
जाना, खेल और शिक्षा का एकीकरण, प्रारम्भिक स्तर पर प्रतिभा परख कर उन्हें देश-विदेश
में उच्चस्तर का प्रशिक्षण प्रदान करवाना, खिलाड़ियों को अधिकाधिक खेल प्रतियोगिताओं
में हिस्सा लेने के अवसर प्रदान करना, खेलों के बारे में जानकारी प्रदान करना तथा
उचित चिकित्सा सम्बन्धी सुविधाएं मयस्सर कराए बिना भारत खेलों की महाशक्ति कभी
नहीं बन सकता। भारतीय खिलाड़ी खेल क्षेत्र में लगातार प्रगति कर रहे हैं लेकिन अभी
भी इनमें और बेहतर करने की क्षमता है। सरकार को चाहिए कि वह शिक्षा, स्वास्थ्य
सुविधाओं में धनराशि बढ़ाकर खेल क्षमता का विकास करे। अगर हम चीन का उदाहरण लें तो 1952 के ओलम्पिक में उसने एक भी पदक नहीं
जीता था। उसने 32 वर्षों तक ओलम्पिक से दूर रहने के बाद
1984 में 15 स्वर्ण पदक जीते। इसी प्रकार रियो में ग्रेट ब्रिटेन का प्रदर्शन
आश्चर्य का विषय बना हुआ है। दरअसल, इन देशों की सरकारों ने खेलों को प्राथमिकता
में शामिल कर खेल नीतियों पर ईमानदार प्रयास किए नतीजन ये लगातार पदक तालिका में
आगे बढ़ते चले गए। भारत में खेलों को राजनीति से दूर रखना सबसे जरूरी है। खेलों में
आज तक के भारतीय प्रदर्शन को देखते हुए ऐसा लगता ही नहीं कि इस खास विधा के लिए
बनाया गया खास खेल मंत्रालय कुछ सार्थक कर पाया हो। अमेरिका में कोई खेल मंत्रालय
नहीं है बावजूद खेलों में वह सिरमौर है। खेल मंत्रालय की समाप्ति के बाद राष्ट्रीय
खेल परिषद का गठन किया जाना समय की मांग है। सरकार राष्ट्रीय खेल परिषद को न केवल वित्तीय
सहायता दे बल्कि उसे स्वतंत्र काम करने की आजादी भी मिले। खेलों में राष्ट्रीय
लक्ष्य पाने के लिए इस परिषद में स्वास्थ्य, फिटनेस एवं दक्षता से जुड़े अनेक
विशेषज्ञ शामिल किए जाएं जोकि भारतीय ओलम्पिक संघ के साथ कदम से कदम मिलाकर चलें। खेलों
में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए जरूरी है कि उसकी डोर सही हाथों में हो। तेली का काम
तमोली से कराने का ही हश्र है कि हमारे खिलाड़ी बार-बार बड़ी प्रतियोगिताओं से बेआबरू
होकर लौटते हैं।
भारत में हर खेल संघ राजनीतिज्ञों के हाथ है,
जिनकी खेल समझ शून्य है। खेल संघों में राजनेताओं की जगह यदि पूर्व खिलाड़ियों को
रखने की पहल हो तो उसके सकारात्मक परिणाम मिल सकते हैं वजह एक खिलाड़ी की मनःस्थिति
और जरूरत को उस दौर से गुजर चुका खिलाड़ी ही बेहतर समझ सकता है। अमेरिका, चीन,
आस्ट्रेलिया, ग्रेट ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस आदि में बच्चों को जमीनी स्तर से ही
ट्रेनिंग दी जाती है जबकि भारत में प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को सही प्रशिक्षण ही नहीं मिलता। यहां खेल
एकेडमियों के अभाव के साथ ही खेलों के प्रथम प्लेटफार्म स्कूलों की स्थिति भी काफी
दयनीय है। अब
हर खेल में टेक्नोलॉजी का समावेश है। आज जरूरत ऐसे प्रशिक्षण की है जिसमें तकनीक
का बेहतर प्रयोग हो। हर खेल से जुड़ी टेक्नोलॉजी हमारे खिलाड़ियों और कोचों को
उपलब्ध कराई जाए। यूरोपीय देशों में टेक्निकल ट्रेनिंग पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया
जाता है, वहां कुश्ती, फुटबॉल, हॉकी, बॉक्सिंग जैसे खेलों के लिए उचित टर्फ और
संसाधन हैं जबकि भारत में जहां मैदान हैं वहां खिलाड़ियों का अभाव है और जहां
खिलाड़ी हैं वहां संसाधन नगण्य हैं। खेल आयोजनों पर अनाप-शनाप पैसे की फिजूलखर्ची
की बजाय इस पैसे का इस्तेमाल खेल एकेडमी बनाने और प्रतिभाओं की खोज में लगाया जाए
तो निश्चित रूप से हमारी स्थिति सुधरेगी। भारत सरकार को खेल बजट में भी बढ़ोत्तरी
करनी चाहिए क्योंकि बेहतरीन खिलाड़ियों को तैयार करने के लिए जिन सुविधाओं की
जरूरत है, उनको पाने के लिए ज्यादा पैसा चाहिए। खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने के
लिए उन्हें बेहतर सुविधाएं देनी होंगी। देश के युवा खिलाड़ियों को बेहतर विदेशी
खिलाड़ियों के साथ खेलने के मौके मिलना चाहिए ताकि वे अपने खेल को और बेहतर कर
सकें। हर बड़ी खेल
प्रतियोगिता के बाद हमें विधवा विलाप और बहानेबाजी करने की बजाय खिलाड़ियों से
कहां चूक हुई उस पर ध्यान देना बेहतर होगा।
महान एथलीट उसेन बोल्ट की मायूसी भरी
विदाई
कभी-कभी शानदार कहानी का अंत इतना लाजवाब
नहीं होता जितनी हम उम्मीद करते हैं। विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप से पहले हर
खेलप्रेमी को उसेन बोल्ट से बहुत उम्मीदें थीं। हर कोई मानता रहा कि ट्रैक एण्ड
फील्ड का यह जादूगर लंदन में भी अपनी शानदार कामयाबी की दास्तां लिखेगा लेकिन ऐसा
नहीं हुआ। लंदन में हुई विश्व चैम्पियनशिप उसेन बोल्ट के करियर की आखिरी स्पर्धा
थी। 100 मीटर दौड़ में बोल्ट को कांस्य पदक से संतोष करना पड़ा तो चोट की वजह से वह
चार गुणा 100 मीटर रिले रेस पूरी ही नहीं कर सका। अपनी टीम जमैका के लिए बोल्ट
आखिरी धावक थे। वह अभी अपनी 100 मीटर की रेस आधी ही पूरी कर पाए थे कि उनकी
मांसपेशियों में खिंचाव आ गया और ट्रैक पर ही गिर पड़े। लंदन में लगभग 60000 लोग
बोल्ट की आखिरी जीत देखने को आतुर थे लेकिन उन्हें मायूसी ही हाथ लगी। बोल्ट का
करियर अब खत्म हो गया है। उसेन बोल्ट के नाम 14 विश्व मैडल तो आठ ओलम्पिक गोल्ड मैडल
दर्ज हैं। 100 और 200 मीटर का विश्व रिकॉर्ड भी फिलहाल बोल्ट के ही नाम है लेकिन
ट्रैक के इस शहंशाह का रोते-बिलखते मैदान छोड़ना हर खेलप्रेमी को अखर रहा है। बिजली
सी गति वाले अब तक धरती के सबसे तेज धावक उसेन बोल्ट ने भले ही संन्यास लेकर
अपने करियर पर विराम लगा दिया हो लेकिन वह इस दौर के सबसे महान एथलीटों में हमेशा
शुमार रहेंगे। अपनी अंतिम 100 मीटर की रेस में भले ही बोल्ट को प्रतिद्वंद्वी
जस्टिन गैटलिन के हाथों पराजय स्वीकारनी पड़ी हो लेकिन उनके स्वर्णिम करियर की
चमक आने वाले एथलीटों के लिए एक मिसाल ही रहेगी। बोल्ट ने भले ही एथलेटिक्स की
दुनिया में नाम कमाया लेकिन उनके शब्दों में यदि कहा जाए तो क्रिकेट उनका पहला प्यार
है। गौरतलब है कि बोल्ट पहले क्रिकेटर ही बनना चाहते थे। बोल्ट जमैका के एक छोटे से
कस्बे से ताल्लुक रखते हैं। उनके पिता की अब भी किराने की दुकान है और कस्बे के
लोगों की जरूरत का सामान वहीं मिलता है। इस तरह एक साधारण परिवार से ताल्लुक रखने
वाले उसेन बोल्ट की कामयाबी की इबारत दूसरों के लिए एक मिसाल है। बोल्ट जमैका के
जिस शेरवुड कंटेंट से मूल रूप से ताल्लुक रखते हैं, उस इलाके में पानी की बेहद
समस्या है। बोल्ट के अंतरराष्ट्रीय फलक पर छाने के बाद इस इलाके की बदहाली को
दुरुस्त करने का सरकार ने काम किया। इससे इस क्षेत्र के लोगों की परेशानियां कम
होने से बोल्ट अपने इलाके के हीरो माने जाते हैं। सच कहें तो उसेन बोल्ट एथलेटिक्स
की दुनिया के हीरों हैं और उनका प्रदर्शन एथलीटों के लिए हमेशा एक नजीर रहेगा।