Sunday, 31 August 2014

पापा के लिए जीतना है स्वर्ण: गीतिका जाखड़

चायनीज, जापानी और मंगोलियाई पहलवानों से मिलेगी चुनौती
एक परिवार ऐसा भी जहां बाबा से नाती-नातिन तक सभी पहलवान
पुष्प सवेरा विशेष
श्रीप्रकाश शुक्ला
आगरा। ग्लास्गो में शानदार सफलता से उत्साहित भारतीय महिला पहलवान 19 सितम्बर से चार अक्टूबर तक दक्षिण कोरिया के इंचियोन शहर में होने वाले 17वें एशियाई खेलों के लिए तैयार हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में प्रशिक्षण ले रही महिला पहलवानों ने पुष्प सवेरा से बातचीत में बताया कि एशियाई खेलों में चायनीज, जापानी और मंगोलियाई पहलवान खास चुनौती होंगी। तैयारियां मुकम्मल हैं, इंतजार है तो सिर्फ एशियाई खेलों का।
दक्षिण कोरिया में होने जा रहे एशियाई खेलों में भारतीय महिला पहलवान चार वजन वर्गों में दांव-पेंच दिखाएंगी। इन पहलवानों में ग्लास्गो राष्ट्रमण्डल  खेलों की स्वर्ण पदकधारी बबिता फोगाट और विनेश फोगाट के साथ ही रजत पदक विजेता गीतिका जाखड़ शामिल हैं। ग्लासगो में पदक से चूकी ज्योति भी भारतीय महिला कुश्ती टीम का प्रतिनिधित्व करेंगी। एशियाई खेलों में कुश्ती स्पर्धा 27 सितम्बर से एक अक्टूबर के बीच होगी। कुश्ती में भारत को अपनी महिला चौकड़ी से बहुत उम्मीदें हैं। दूरभाष पर हुई बातचीत में गीतिका जाखड़ ने बताया कि ग्लास्गो में स्वर्ण पदक न जीत पाने का मुझे ही नहीं मेरे पिताजी को भी मलाल है। सच कहूं तो पिताजी मुझसे आज भी नाराज हैं। इंचियोन में मैं अपने पिताजी की हसरत हर हाल में पूरा करना चाहती हूं। मेरा लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ स्वर्ण पदक है। मुझे पता है कि राष्ट्रमण्डल खेलों से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण एशियाई खेल हैं, पर चुनौतियों से पार पाना ही मेरा मकसद है।
ग्लास्गो में भारतीय महिला और पुरुष पहलवानों ने पांच स्वर्ण, छह रजत और दो कांस्य पदक सहित कुल 13 पदक अपनी झोली में डाले थे।  राष्ट्रमंडल खेलों में ग्रीको रोमन कुश्ती स्पर्धा शामिल नहीं थी जबकि इंचियोन में भारतीय पुरुष पहलवान फ्रीस्टाइल और ग्रीको रोमन स्पर्धाओं में दांव लगाएंगे। महिला चौकड़ी केवल फ्रीस्टाइल स्पर्धा में शिरकत करेगी। कुश्ती में कुल 20 स्वर्ण पदक दांव पर होंगे। एशियाई खेलों की कुश्ती स्पर्धा में प्रत्येक देश से 14 पुरुष और चार महिला पहलवानों को दांव-पेंच दिखाने का मौका दिया जा रहा है। महिला कुश्ती की नई सनसनी 20 वर्षीय विनेश फोगाट को भरोसा है कि एशियाई खेलों में भारतीय चौकड़ी अच्छा प्रदर्शन करेगी। राष्ट्रमण्डल खेलों की स्वर्ण पदकधारी विनेश को उम्मीद है कि चारों ंंमहिला पहलवान अपने-अपने वजन वर्गों में पदक जीत सकती हैं।
कुश्ती मेरा खानदानी खेल: विनेश
भारतीय महिला कुश्ती की नई उम्मीद विनेश फोगाट ने बातचीत में बताया कि कुश्ती उसका खानदानी खेल है। हमारे घर में हर कोई पहलवान है। हरियाणा के भिवानी जिले के बलानी गांव की बलशाली विनेश ने खुलासा किया कि उसके बाबा श्रीमान सिंह, पापा स्वर्गीय शिराज पाल सिंह और ताऊ महावीर सिंह पूरी तरह से पहलवानी को समर्पित  रहे हैं। बकौल विनेश मेरा पहले कुश्ती से कोई लगाव नहीं था पर बाबा मेरे ऊपर मिट्टी डाल देते थे। बस फिर क्या था मुझे इस खेल में मजा आने लगा। मेरी मां प्रेमलता और बाबा चाहते हैं कि मैं ओलम्पिक में पदक जीतूं।  विनेश कहती है कि मैं जब घर में रहती हूं तो दो किलो दूध पी लेती हूं, प्रशिक्षण शिविरों में ऐसा नहीं हो पाता। यहां का दूध मुझे नहीं भाता। विनेश बताती है कि उसका भाई हरेन्दर और बड़ी बहन प्रियंका भी दमदार पहलवान हैं। अंतरराष्ट्रीय पहलवान और चचेरी बहन गीतिका और बबिता दीदी से तो सभी परिचित हैं ही। एशियाई खेलों में बबिता दीदी भी जा रही हैं। क्या चारों बहनों के बीच कुश्ती को लेकर बात होती है? इस पर विनेश ने कहा कि हां हम मुकाबले से पहले अपनी बड़ी बहनों से बात कर लेते हैं। कुश्ती के अलावा उसका क्या शौक है? विनेश ने बताया कि मैं चाहती हूं कि खूब घूमूं। देश-दुनिया को करीब से देखूं पर अफसोस समय नहीं मिल पाता। वह एक बार ताजमहल जरूर देखना चाहेगी।
तैलीय पदार्थ ना बाबा ना: गीतिका
अपने खानपान पर गीतिका जाखड़ ने बताया कि वह तैलीय पदार्थों से परहेज करती है। हां वह शारीरिक रूप से चुस्त-दुरुस्त रहने के लिए फल, बादाम और जूस का अधिक से अधिक इस्तेमाल करती है। पहलवानी के शौक पर गीतिका ने बताया कि पहले वह कुश्ती में नहीं आना चाहती थी लेकिन पहलवान पापा चाहते थे कि वह अन्य खेलों की अपेक्षा कुश्ती में ही करियर बनाए, लिहाजा मैंने इस खेल को आत्मसात कर लिया। गीतिका कहती है कि ग्लास्गो राष्ट्रमण्डल खेलों में रजत पदक जीतने के बाद भी पापा बहुत नाराज हैं। उनका कहना है कि उन्हें स्वर्ण पदक से कम कुछ भी मंजूर नहीं है। मैं इंचियोन में स्वर्ण जीतकर पापा को खुश करना चाहती हूं। 

Friday, 29 August 2014

प्रयोगधर्मी नरेन्द्र मोदी!

देश की सल्तनत पर काबिज होने के साथ ही कमल दल की दुश्वारियां कम होने के बजाय लगातार बढ़ती ही जा रही हैं। भाजपा में प्रयोग दर प्रयोग हो रहे हैं और नरेन्द्र मोदी चुप हैं। संस्कारित भाजपा के अंत:पुर में जो हो रहा है उससे न तो महंगाई कम हो रही है और न ही अच्छे दिनों के संकेत मिल रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ मुंह फाड़ती भारतीय जनता पार्टी के कई स्वनामधन्य आजकल मुश्किल में हैं। उनकी स्थिति सांप-छछूंदर सी हो गई है। मोदी ने जो चाहा वह तो पा लिया लेकिन कई लोग असहज स्थिति का सामना कर रहे हैं। उनकी समझ में नहीं आ रहा कि मौनी बाबा मोदी को कैसे और किस तरह घेरा जाए। हाल ही पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारक इकाई संसदीय बोर्ड से अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की विदाई के साथ ही कमल दल में पीढ़ीगत नेतृत्व परिवर्तन का एक अध्याय समाप्त हो गया।
मोदी प्रयोगधर्मी हैं, उन्हें अपना विरोध किसी भी सूरत में पसंद नहीं है। भारतीय सल्तनत में काबिज होने के साथ मोदी ने अपने मंत्रिमण्डल में लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे कद्दावर राजनीतिज्ञों को शामिल न कर पीढ़ीगत परिवर्तन की प्रक्रिया का ही संकेत दे दिया था। अमित शाह को नया भाजपा अध्यक्ष बनवाकर मोदी ने एक तीर से कई शिकार कर दिए हैं। भाजपा के नये संसदीय बोर्ड से लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और अटल बिहारी बाजपेयी जैसे लोगों को नवगठित मार्गदर्शक मंडल का सदस्य बनाने के भी निहितार्थ हैं। इस मार्गदर्शक मण्डल को बेशक सम्मान का सूचक करार दिया जा रहा हो पर इसके जरिए मोदी ने यह संकेत जरूर दिया है कि कमल दल में अब वही रहेगा जिसे वह चाहेंगे।  
कहने को इस नवगठित मार्गदर्शक मंडल में स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी हैं, लेकिन वे संसदीय बोर्ड और केन्द्रीय चुनाव समिति में भी बतौर सदस्य दखल रखेंगे। कमल दल के संसदीय बोर्ड में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को शामिल किया जाना मोदी की मजबूरी थी। दरअसल, शिवराज न केवल नेक इंसान हैं बल्कि विरोधी दलों में भी खासे लोकप्रिय हैं। शिवराज सिंह चौहान प्रपंच की राजनीति नहीं करते, वे सत्यं ब्रूयात, प्रियम् ब्रूयात के पक्षधर हैं। चुनावी महाभारत के समय जब लोगों की जुबां पर सच बोलने का माद्दा नहीं था उस समय भी उन्होंने संघ की परवाह किए बिना मोदी के मुकाबले आडवाणी को पेश करने की भरसक कोशिश की थी। शिवराज सिंह चौहान को संसदीय बोर्ड में शामिल करने के दो ही अर्थ हैं। एक, लगातार तीसरी बार उनका मुख्यमंत्री बनना और दूसरा, सभी को साथ लेकर चलने की उनकी काबिलियत।
भाजपा की राजनीति में छल-प्रपंच का चलन पुरानी बात है। कटु सत्य तो यह है कि छल-प्रपंच बिना राजनीति की कंटीली पगडंडी पर चला भी नहीं जा सकता। भाजपा में जो हुआ और जो आगे होगा उसमें आश्चर्यजनक जैसी बात बिल्कुल नहीं है। अतीत पर नजर डालें तो स्वयं अटल बिहारी बाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने भी बलराज मधोक जैसे काबिल शख्स को किनारे लगाकर ही पार्टी पर अपनी पकड़ मजबूत बनाई थी। सच कहें तो मोदी ने कुछ नया नहीं किया बल्कि कमल दल में इतिहास दोहराया गया है। दरअसल हमारे मुल्क में प्राय: भावनाएं व्यावहारिकता पर हावी हो जाती हैं, इसलिए आडवाणी और जोशी के साथ जो हुआ उसका विश्लेषण भावुकता के साथ किया जा रहा है। कोई इसे आडवाणी और जोशी को वानप्रस्थ में भेजना कह रहा है, तो कोई ओल्ड एज होम में घर के बुजुर्गों को भेजना ठहरा रहा है। हकीकत यह है कि कमल दल में इन बुजुर्गवारों का क्या स्थान रहेगा, इसके संकेत लम्बे समय से दिए जा रहे थे। सत्ता मोह आडवाणी या जोशी ही नहीं अमूमन हर राजनीतिज्ञ की कमजोरी होती है।
खैर, कमल दल के अंत:पुर में हुए इस बदलाव का भविष्य में क्या असर होगा और युवा चेहरों पर जो जिम्मेदारी दी गई है, उसमें जनता उनका कितना साथ देती है, यह देखने वाली बात होगी। केन्द्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार है बावजूद इसके एनडीए के गठबंधन को और मजबूत करना तथा पुराने साथियों को जोड़े रखना आसान बात नहीं होगी। आम चुनाव के पहले भाजपा में नए-नए दल उसी भांति आकर मिले थे, जैसे छोटी-छोटी नदियां बड़ी नदी से मिल जाती हैं। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतेगा, इन दलों की अपनी महत्वाकांक्षाएं कमल दल के सामने मुश्किलातें नहीं खड़ी करेंगी इसकी कोई गारण्टी नहीं है। ताजा प्रकरण हरियाणा में तीन साल पुराने साथी हरियाणा जनहित कांग्रेस का एनडीए से अलग होना है। हरियाणा में शीघ्र ही विधानसभा चुनाव होने हैं, इसके ठीक पहले हजकां सुप्रीमो कुलदीप बिशनोई की भाजपा से खुट्टी को अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता। राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं पल भर में गठबंधन की गांठ ढीली कर देती हैं। यही वजह है कि हजकां की ही तरह शिवसेना भी भाजपा से अपने सम्बन्धों पर पुनर्विचार कर रही है।
राजनीति में गुरूर कभी नहीं पालना चाहिए। कमल दल का नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना बेशक सफल दांव साबित हुआ हो लेकिन उसका हर दांव इसी तरह सफल हो और हर कदम राह को आसान बनाए, ऐसा नहीं होता। राजनीतिक सफर में अनगिनत अंधे मोड़ आते हैं। भारतीय राजनीति पर गौर करें तो कई बार दिग्गजों के आकलन और अनुमान भी गलत साबित हो चुके हैं। कमल दल के उत्थान में लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के योगदान को कमतर नहीं आंका जा सकता। राम मंदिर मुद्दे को देशव्यापी प्रचार दिलाने और इसके लिए रथयात्रा निकालने वाले लालकृष्ण आडवाणी के कारण ही भाजपा लोकसभा में दो से दो सौ तक पहुंची थी। गोधरा काण्ड के बाद मोदी जब मुश्किल में थे तब आडवाणी ही न केवल उनकी ढाल बने थे बल्कि  हिन्दुत्व के एजेण्डे को आगे ले जाने का मार्ग भी प्रशस्त किया था। राजनीति में कभी-कभी बहुत चतुराई भी विधवा विलाप का कारण बन जाती है। भाजपा में जब भी हिन्दुत्व की बात होगी आडवाणी का नाम प्रमुखता से लिया जाएगा। इसी तरह मुरली मनोहर जोशी के बौद्धिक कौशल को चुनौती नहीं दी जा सकती। यह दोनों बेशक उम्र के अंतिम पड़ाव पर हों पर इनकी अहमियत थी और आगे भी महसूस की जाएगी।

Thursday, 28 August 2014

झूठा निकला कृपाशंकर पर लगा आरोप

आगरा। भारतीय खेल प्राधिकरण और अर्जुन अवॉर्डी पहलवान कृपाशंकर बिशनोई के बीच चल रही झूठ और सच की लड़ाई में एक बार फिर भगवान ने कृपाशंकर पर कृपा कर उन्हें शर्मसार होने से बचा लिया। कभी हार न मानने वाला शख्स लखनऊ में हुए वाक्ये के बाद टूट चुका है। उस पर मारपीट का आरोप लगाने वाली हॉकी खिलाड़ी प्रिया राय ने बेशक अपना गुनाह कुबूल कर लिया हो पर प्रशिक्षक कृपाशंकर साई के रवैये से काफी आहत हैं।
यह मामला 25 अगस्त का है। जानकारी के अनुसार भारतीय कुश्ती फेडरेशन ने भारतीय खेल प्राधिकरण के सुभाष साई सेण्टर लखनऊ के  कृत्रिम हॉकी मैदान में सप्ताह में दो बार विश्व चैम्पियनशिप और एशियाड में शिरकत करने वाली महिला पहलवानों के अभ्यास की अनुमति ली हुई   है। अनुमति मिलने के बाद महिला पहलवान जब वहां अभ्यास कर रही थीं उसी समय हॉकी खिलाड़ी भी प्रशिक्षण के लिए मैदान में आ गर्इं। अभ्यास के दौरान बार-बार गेंद पहलवानों के पास पहुंच रही थी, इस पर कोच कृपाशंकर बिशनोई ने एतराज जताते हुए कहा कि इससे पहलवानों को चोट लग जाएगी। उनके ऐसा कहने पर हॉकी प्रशिक्षक ने आपा खोते हुए कुश्ती प्रशिक्षक कृपाशंकर को खूब खरी-खोटी सुनार्इं। कुश्ती प्रशिक्षक ने सब्र से काम लिया और महिला पहलवानों को बास्केटबाल मैदान पर ले गये तथा अभ्यास कराया।
मामला शांत हो गया लेकिन हॉकी प्रशिक्षक ने बदले की भावना में बहते हुए एक बालिका हॉकी खिलाड़ी से कृपाशंकर के खिलाफ थाने में मारपीट करने की रिपोर्ट दर्ज करा दी। जब इस बात की जानकारी कुश्ती प्रशिक्षक को हुई तो वे परेशान हो गये। महिला पहलवानों की कही सच मानें तो इस मामले में बेवजह तिल का ताड़ बनाया गया। दरअसल, कृपाशंकर बिशनोई और भारतीय खेल प्राधिकरण के बीच लम्बे समय से सच और झूठ की लड़ाई चल रही है। पूर्व में भी भारतीय खेल प्राधिकरण कुश्ती प्रशिक्षक कृपाशंकर पर बंदूक दिखाने और धमकाने का इल्जाम लगा चुका है। अदालती जंग में मुंह की खा चुके भारतीय खेल प्राधिकरण ने अपनी हठधर्मी के चलते ग्लासगो राष्ट्रमण्डल खेलों में महिला पहलवानों के साथ गये कृपाशंकर को खेलगांव में प्रवेश से वंचित करा दिया था। लखनऊ प्रकरण भी साई की खुराफात का ही नतीजा है। यह मामला कुछ भी नहीं था पर साई सेण्टर लखनऊ की रीजनल डायरेक्टर रचना गोविल ने समझदारी दिखाने के बजाय झूठ को सच साबित करने का स्वांग रचवाकर बनती बात बिगाड़ दी। भला हो हॉकी खिलाड़ी प्रिया राय का जिसने अपनी गलती स्वीकारते हुए दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया।
निर्दोष हैं हमारे सर: विनेश फोगाट
राष्ट्रमण्डल खेलों की स्वर्ण पदकधारी पहलवान विनेश फोगाट ने पुष्प सवेरा को दूरभाष पर बताया कि हमारे सर निर्दोष हैं। उनकी न जाने ईश्वर क्यों बार-बार परीक्षा ले रहा है। महिला कुश्ती के उत्थान के लिए कृपाशंकर  सर ने जो कुछ किया वह दूसरा नहीं कर सकता। वह हमेशा खिलाड़ियों के हक के लिए लड़ते हैं और बार-बार संकट में फंस जाते हैं। ग्लासगो और लखनऊ में उनके साथ जो हुआ वह भारतीय खेलों का बेहद शर्मनाक पहलू है। विनेश ने बताया कि ग्लासगो में महिला पहलवानों की कामयाबी में हमारे सर का अमूल्य योगदान है। ऐसे प्रशिक्षकों को प्रोत्साहित करने के बजाय हतोत्साहित किया जाना अक्षम्य है।
एफआईआर साई का षड्यंत्र: गीतिका जाखड़
राष्ट्रमण्डल खेलों की रजत पदक विजेता पहलवान गीतिका जाखड़ ने बताया कि हम लोग मैदान में थे। हमारे सर के साथ जो बर्ताव हो रहा था उससे हम सब गुस्से में थे, बावजूद उन्होंने चुपचाप हॉकी मैदान छोड़ दिया। शाम को सर भारतीय खेल प्राधिकरण के षड्यंत्र का शिकार हो गये। उन पर एक लड़की से थाने में हॉकी से मारने का इल्जाम लगवाकर साई ने हदें पार कर दीं। गीतिका स्वयं भी पुलिस आॅफिसर है। उसका कहना है कि जो शख्स हम सब को अपनी बेटियों की तरह तालीम देता हो। हर सुख-दु:ख में साथ देता हो उस पर ऐसे घिनौने आरोप की जितनी निन्दा की जाए वह कम है।
गलतफहमी में हो गया गुनाह: प्रिया राय
25 अगस्त को कुश्ती प्रशिक्षक कृपाशंकर बिशनोई पर हॉकी से मारपीट करने की एफआईआर 122-14 करने वाली हॉकी खिलाड़ी प्रिया राय पुत्री सतीश चन्द्र राय ने बुधवार 27 अगस्त को थाने पहुंच कर अपना गुनाह कुबूल करते हुए आवेदन दिया है कि वह गलतफहमी का शिकार हो गई थी, लिहाजा इस प्रकरण पर आगे कोई कार्रवाई न की जाए। मेरे और कोच के बीच कुछ भी नहीं हुआ। 

Saturday, 23 August 2014

खेलों में प्रतिभा नहीं गॉड फादर जरूरी

एशियाई खेलों की चयन ट्रायल में हुआ गड़बड़झाला
56 में से 19 खिलाड़ी ही छू सके निर्धारित मानक लक्ष्य
आगरा। खेलों में आपके पास कितनी भी प्रतिभा क्यों न हो यदि आपका कोई गॉड फादर नहीं है तो देश के लिए खेलना बेहद मुश्किल काम है। अगले महीने दक्षिण कोरिया के इंचियोन में होने जा रहे एशियाई खेलों के खिलाड़ी चयन ट्रायल में एथलेटिक्स फेडरेशन आॅफ इण्डिया ने अपने ही बनाए नियम-कायदों का तमाशा बना दिया। जिन 56 महिला-पुरुष खिलाड़ियों का चयन किया गया है उनमें कुछ जहां अनफिट हैं वहीं सिर्फ 19 खिलाड़ी ही एशियाई खेलों के मानक लक्ष्य को छू सके हैं। चयन में उन प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की अनदेखी की गई है जिनका चयन समिति में कोई माई-बाप नहीं था। आगरा जिले का पिनाहट निवासी उदीयमान लांग जम्पर अंकित शर्मा भी अपनी उपेक्षा से आहत है।
एशियाई खेलों की 56 सदस्यीय भारतीय एथलेटिक्स टीम में 26 पुरुष और 30 महिला एथलीट शामिल हैं। हाल ही पटियाला में सम्पन्न फेडरेशन कप सीनियर एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में सात पुरुष और 12 महिला एथलीट ही एशियाई खेलों के मानक स्तर को छू पाये बावजूद चयन मण्डली ने 56 खिलाड़ियों को इंचियोन ले जाने की तैयारी कर ली है। अब सवाल यह उठता है कि यदि इसी तरह चयन करना था तो फिर चोचलेबाजी क्यों की गई? एएफआई लाख पारदर्शिता और खिलाड़ियों के पिछले प्रदर्शन की दुहाई दे पर जो कुछ हुआ उसमें संदेह जरूर है। चयन समिति का कहना है कि उसने टीम चयन करने से पहले कई बातों को ध्यान में रखा जिनमें राष्ट्रमंडल खेल 2014 में कुछ एथलीटों का लचर प्रदर्शन और शीर्ष एथलीटों की वर्तमान फार्म और फेडरेशन कप का प्रदर्शन शामिल है। दरअसल, फेडरेशन ने चयन में पिछले छह माह के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन को पैमाना बनाया था लेकिन यह कुचेष्टा कुछ खिलाड़ियों को उपकृत करने का ही नाटक था। यदि नियमों का इसी तरह चीरहरण करना था तो  चयन समिति के सदस्यों जीएस रंधावा, शाइनी विल्सन, मेर्सी कुट्टन, जेएस सैनी, बहादुर सिंह, राधाकृष्णनन आदि को उन खिलाड़ियों का चयन जरूर करना था जिन्होंने पटियाला में स्वर्णिम सफलता हासिल की है।
एशियाई खेलों की टीम इस प्रकार है-
 पुरुष:- 400 मीटर: के. मोहम्मद, अरोकिया राजीव, 800 मीटर: सजीश जोसेफ, 5000 मीटर: खेता राम, सुरेश कुमार पटेल, 10000 मीटर: राहुल कुमार पाल, 3000 मीटर स्टीपलचेज: नवीन कुमार, 110 मीटर बाधा दौड़: जितिन पाल, जोसेफ अब््रााहम, ऊंची कूद : निखिल चित्रांसु, त्रिकूद: अरपिंदर सिंह, रंजीत माहेश्वरी, गोला फेंक: इंदरजीत, ओमप्रकाश करहाना, चक्का फेंक: विकास गौड़ा, तार गोला फेंक : चंद्रोदय नारायण सिंह, भाला फेंक: राजिंदर सिंह, 20 किमी पैदल चाल: केटी इरफान, के गणपति, 50 किलोमीटर पैदल चाल: संदीप कुमार, बसंत बहादुर राणा, चार गुणा 400 मीटर रिले: के मोहम्मद, अरोकिया राजीव, जिबिन सेबेस्टियन, केजे अरुण, जितु बेबी, संदीप।
महिला:- 100 मीटर: शारदा नारायण, 200 मीटर: आशा राय, श्रावणी नंदा, 400 मीटर: एमआर पूवम्मा, 800 मीटर: टिंटु लुका, सुषमा देवी, 1500 मीटर: ओपी जैशा, सिनी ए मार्कोस, 5000 मीटर: ओपी जैशा, प्रीजा श्रीधरन, 10000 मीटर: प्रीजा श्रीधरन, 3000 मीटर स्टीपलचेज: ललिता बब्बर, सुधा सिंह, 400 मीटर बाधा दौड़: अश्विनी अकुंजी, ऊंची कूद: सहाना कुमारी, लम्बी कूद: एमए प्रजूषा, मयूखा जानी, त्रिकूद: एमए प्रजूषा, मयूखा जानी, चक्का फेंक: सीमा पूनिया, कृष्णा पूनिया, तार गोला फेंक: मंजू बाला, भाला फेंक: अनु रानी, हेप्टाथलान: सुष्मिता सिंघा राय, स्वप्ना बर्मन, 20 किलोमीटर पैदल चाल: खुशबीर कौर, चार गुणा 100 मीटर रिले: श्रावणी नंदा, आशा राय, मर्लिन के जोसेफ, सिनी एस, शांतनी वी, एचएम ज्योति, चार गुणा 400 मीटर रिले: एमआर पूवम्मा, प्रियंका पवार, देबाश्री मजूमदार, मनदीप कौर, अश्विनी अकुंजी, आर्या सी।
केवल इन्होंने ही छुआ क्वालीफाइंग मार्क
पुरुष: सिद्धनाथ थिंगल्या, निखिल चित्रांसु, अरपिन्दर सिंह, इन्द्रजीत सिंह, राजिन्दर सिंह, खेता राम, सुरेश कुमार पटेल, (विकास गौड़ा का चयन राष्ट्रमण्डल खेलों के प्रदर्शन के आधार पर हुआ।)
महिला: आशा राय, एमआर पूवम्मा, टिंटू लुका, सुषमा देवी, ओपी जायशा,  सिनी ए मार्कोस, ललिता बब्बर, सुधा सिंह, सहाना कुमारी, एमए प्रजूषा, मंजू बाला, अन्नू रानी। (सीमा पूनिया का चयन राष्ट्रमण्डल खेलों के प्रदर्शन के आधार पर हुआ।)
...फिर अंकित शर्मा का चयन क्यों नहीं?
एएफआई  का देश के उदीयमान लांग जम्पर आगरा जिले के अंकित शर्मा का चयन न किया जाना हैरानी भरा फैसला है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अब तक एक स्वर्ण, एक रजत और दो कांस्य पदक जीत चुके 22 वर्षीय अंकित की सर्वश्रेष्ठ जम्प 7.91 मीटर है जोकि उसने पटियाला में ही 25 अप्रैल, 2013 को लगाई थी। इस साल की बात करें तो अंकित ने लखनऊ में छह जून, 2014 को 7.66 मीटर छलांग लगाकर स्वर्ण पदक जीता था। पटियाला में भी उसने स्वर्णिम छलांग लगाई बावजूद उसका चयन नहीं किया जाना खेलों में बड़े गड़बड़झाले की ओर इशारा करता है। लम्बीकूद में एशियाई खेलों का मानक 7.63 मीटर निर्धारित किया गया था।   

Friday, 22 August 2014

ताक पर राजनीतिक मर्यादा

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और भारतीय संस्कृति को आखिर क्या हो गया है। मोदी जहां जा रहे हैं, उनके साथ मंच साझा करने वाले राज्य के अलम्बरदारों की जमकर हूटिंग हो रही है। जो हो रहा है वह नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता से कहीं अधिक राजनीतिक अवनति का सूचक है। कैथल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभा में हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा की हूटिंग के बाद रांची में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भी  हूटिंग हुई। कैथल और रांची में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यक्रमों के दौरान भाजपाइयों द्वारा मुख्यमंत्रियों की हूटिंग व महाराष्ट्र में मोदी के खिलाफ किया गया प्रदर्शन न केवल अशोभनीय है बल्कि भारतीय राजनीति के गिरते स्तर का भी सूचक है। किसी भी योजना का लोकार्पण क्यों न हो उस राज्य के मुखिया की उपस्थिति प्रोटोकाल के तहत लाजिमी होती है लिहाजा ऐसे कार्यक्रमों को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए।
राजनीति में लोक रुझान अपनी जगह है लेकिन सामान्य शिष्टाचार समाज और राजनीति से अलग नहीं हो सकते। यदि हम राजनेताओं से साफ-सुथरी आचार संहिता की अपेक्षा रखते हैं तो हमारा भी दायित्व बनता है कि लोकतंत्र की इकाई के रूप में अमर्यादित व्यवहार न किया जाए। भारतीय जनता पार्टी और उसके कार्यकर्ता सुसंस्कारित आचरण के लिए जाने जाते हैं, उन्हें अपनी इस छवि को बरकरार रखना चाहिए। बात हरियाणा की हो, झारखण्ड या फिर महाराष्ट्र की, हमारा अमर्यादित व्यवहार दुनिया में मुल्क को लजाता है। देशकाल परिस्थितियों के अनुरूप केन्द्र में सत्ता परिवर्तन हुआ, नये नेतृत्व ने आसंदी सम्हाली, यही तो भारतीय लोकतंत्र की खासियत  है। भाजपा कार्यकर्ताओं को उन्माद में बहने की बजाय देश की आवाम ने जो दायित्व सौंपा है, उसकी समृद्धि पर मंथन करना चाहिए। प्रधानमंत्री की सभा में मुख्यमंत्री किसी भी दल विशेष का क्यों न हो भारतीय संस्कृति इस बात की इजाजत नहीं देती कि उसके विरुद्ध नारे लगाए जाएं या उसकी हूटिंग हो।
भारतीय राजनीति खराब दौर से गुजर रही है। किसी भी समाज में विभिन्न वर्गों के बीच अमन और भाईचारा हो, ऐसी बातों और कोशिशों से भला किसी को क्या गिला हो सकता है? आज जब पड़ोसी देश हमें आंखें तरेर रहे हों, ऐसे नाजुक समय में ऐसी कोशिशों की दरकार है जिससे मुल्क में सद्भाव पैदा हो। हाल ही संघ प्रमुख मोहन भागवत ने प्रखर हिन्दुत्व का राग अलाप कर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है। भागवत कुछ भी कहें पर केवल दलितों, आदिवासियों और हिन्दू धर्म के विभिन्न समूहों के बीच जब वे हिन्दू की अपनी परिभाषा में दलितों और आदिवासियों को शामिल करते हैं, तो क्या वह यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि अब किसी दलित को मंदिर जाने से नहीं रोका जाएगा, उसके घोड़ी चढ़ने पर किसी सवर्ण को आपत्ति नहीं होगी और कोई भी हज्जाम दलित के बाल काटने से मना नहीं करेगा।
दिल्ली की सल्तनत के लिए भारतीय जनता पार्टी का चुनावी नारा सबका साथ-सबका विकास था, ऐसे में यदि उनके ही लोग सार्वजनिक कार्यक्रमों में अमर्यादित आचरण करेंगे तो उससे प्रतिकूल संदेश जाने का डर है। हिन्दुत्व के प्रबल हिमायती मोदी ने प्रधानमंत्री की आसंदी सम्हालने के बाद जिस तरह दुश्मन देशों को दोस्ती का पैगाम भेजा उसकी सर्वत्र प्रशंसा हुई है। जाहिर है कि नरेन्द्र मोदी ऐसे किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते, जो उनकी सर्व समावेशी नीति को प्रभावित करे। मोदी जनप्रिय हैं यह बात उन्होंने चुनावी प्रचार से लेकर अब तक अपनी असरदार वाणी से सिद्ध किया है। स्वतंत्रता दिवस पर लालकिले की प्राचीर से दिया गया उनका उद्बोधन लोगों के मानस में अमिट है। अब तक लोगों ने न केवल मोदी को ध्यान से सुना है बल्कि उनमें उत्साही रंग भी भरा है। आसमान छूती महंगाई के बावजूद लोगों को भरोसा है कि देश में अच्छे दिन आएंगे। यहां इस कहावत को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता कि एक मछली सारे तालाब को तो गंदा कर सकती है लेकिन अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। एक तरफ मोदी मुल्क के समुन्नत विकास के लिए मेक इन इण्डिया कहकर विदेशी निवेश को निमंत्रण दे रहे हैं तो दूसरी ओर मेड इन इण्डिया के माध्यम से देश की आवाम को राष्ट्रयज्ञ में पूर्णाहुति देने का आग्रह करना उनकी नेक-नीयत का सूचक है।
खैर, हरियाणा के मुख्यमंत्री की हूटिंग के बाद उनका निकट भविष्य में प्रधानमंत्री की जनसभा में भाग नहीं लेने या फिर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चह्वाण का मोदी के साथ मंच साझा नहीं करने का फरमान यही साबित करता है कि आज देश का प्रधानमंत्री अपने ही कार्यकर्ताओं के कारनामों से अछूत हो रहा है। कार्यकर्ताओं की ऐसी कुचेष्टाएं विस्तार लें इससे पहले भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की जिम्मेदारी बनती है कि वह अपनी वानर सेना को मर्यादा का पाठ पढ़ाये। जिस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री एक साथ हों ऐसा व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए। इससे कोई सकारात्मक संकेत नहीं जाता। यह तो भारतीय परम्परा और संस्कृति का भी तकाजा है कि तमाम मतभेदों के बजाय भी हमें अपने परिवार के मुखिया का लिहाज और उसकी मर्यादा का ख्याल रखना चाहिए।
दरअसल, यह सब लोकतंत्र के भीड़तंत्र में तब्दील होने की मानसिकता का ही परिचायक है, जिससे बचा जाना चाहिए। समय रहते इस मनोवृत्ति को स्वस्थ लोकतंत्र में परिपाटी और परम्परा बनने से नहीं रोका गया तो उसके परिणाम भयावह हो सकते हैं। आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने आम आदमी की उम्मीदों पर खरा उतरने की कठिन चुनौती है। जब देश आकंठ महंगाई से जूझ रहा हो ऐसे नाजुक समय में भाजपा कार्यकर्ताओं को आग में काठ की हांडी चढ़ाने के बजाय आमजन की पीड़ा दूर करने का संकल्प लेना चाहिए। भाजपा ने समान नागरिक संहिता के आधार पर अगड़ों-पिछड़ों, अमीरों-गरीबों और अल्पसंख्यकों-बहुसंख्यकों को एक घाट का पानी पिलाने की मंशा पाली थी, जिसे उसके ही लोग हुल्लड़बाजी में अकारथ कर रहे हैं।

Thursday, 21 August 2014

टिंटू लुका सहित 56 खिलाड़ी एशियाई खेलोंं की एथलेटिक्स टीम में

पदक के प्रबल दावेदार अरपिंदर सिंह, विकास गौड़ा और टिंटु लुका को अगले महीने दक्षिण कोरिया के इंचियोन में होने वाले एशियाई खेलों की 56 सदस्यीय भारतीय एथलेटिक्स टीम में शामिल किया गया है। टीम में 30 महिला एथलीट हैं।
हाल में सम्पन्न फेडरेशन कप सीनियर एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में 110 मीटर बाधा दौड़ में स्वर्ण पदक जीतने वाले सिद्धांत थिंगालया, चक्का फेंक की एथलीट कृष्णा पूनिया, 400 मीटर की धाविका एमआर पूवम्मा भी पदक के दावेदार हैं और उन्हें टीम में रखा गया है।
इस साल के शुरू में एशियाई चैम्पियनशिप में 20 किलोमीटर पैदल चाल में कांस्य पदक जीतने वाले गुरमीत सिंह और ग्लास्गो राष्ट्रमंडल खेलों में भाग लेने वाले तार गोला फेंक के एथलीट कमलप्रीत सिंह टीम में जगह बनाने में नाकाम रहे। भारतीय एथलेटिक्स महासंघ की चयनसमिति ने बुधवार को टीम का चयन किया।
एएफआई के अनुसार, चयन समिति ने टीम का चयन करने से पहले कई बातों को ध्यान में रखा जिनमें राष्ट्रमंडल खेल 2014 में कुछ एथलीटों का लचर प्रदर्शन और शीर्ष एथलीटों की वर्तमान फार्म और फेडरेशन कप का प्रदर्शन शामिल हैं। एशियाई खेल 2010 की स्वर्ण पदक विजेता सुधा सिंह (महिलाओं की 3000 मीटर स्टीपल चेज), जोसेफ अब्राहम (पुरुषों की 400 मीटर बाधा दौड़) अश्विनी अंकुजी (महिलाओं की 400 मीटर बाधा दौड़) और प्रीजा श्रीधरन (महिलाओं की 10,000 मीटर दौड़) भी टीम में शामिल हैं।
टीम का चयन अंतिम सूची जारी करने की समयसीमा के आखिरी दिन किया गया। भारतीय ओलम्पिक संघ ने एएफआई के आग्रह पर इंचियोन एशियाई खेलों के आयोजकों से समयसीमा बढ़ाने के लिये कहा था। आईओए सूत्रों के अनुसार अंतिम सूची सौंपने की आखिरी तिथि 15 अगस्त थी। तीन एथलीटों त्रिकूद के रंजीत माहेश्वरी, लम्बी कूद और त्रिकूद की महिला एथलीट मयूखा जानी और गोला फेंक के एथलीट ओमप्रकाश करहाना को 15 सितंबर को एनआईएस पटियाला में एक और ट्रायल देने के लिये कहा गया है। उन्हें 56 सदस्यीय टीम में शामिल किया गया है लेकिन उनका आखिरी चयन ट्रायल्स के आधार पर होगा। इन तीनों ने फेडरेशन कप में खराब प्रदर्शन किया था जो एशियाई खेलों के लिये चयन ट्रायल्स भी था।
टीम इस प्रकार है (पुरुष)
 400 मीटर: के मोहम्मद, अरोकिया राजीव,  800 मीटर: सजीश जोसेफ, 5000 मीटर: खेता राम, सुरेश कुमार पटेल, 10000 मीटर: राहुल कुमार पाल, 3000 मीटर स्टीपलचेज: नवीन कुमार, 110 मीटर बाधा दौड़: जितिन पाल, जोसेफ अब््रााहम,ऊंची कूद : निखिल चित्रांसु, त्रिकूद: अरपिंदर सिंह, रंजीत माहेश्वरी, गोला फेंक: इंदरजीत, ओमप्रकाश करहाना, चक्का फेंक: विकास गौड़ा, तार गोला फेंक : चंद्रोदय नारायण सिंह, भाला फेंक: राजिंदर सिंह, 20 किमी पैदल चाल: केटी इरफान, के गणपति, 50 किलोमीटर पैदल चाल: संदीप कुमार, बसंत बहादुर राणा, चार गुणा 400 मीटर रिले: के मोहम्मद, अरोकिया राजीव, जिबिन सेबेस्टियन, केजे अरुण, जितु बेबी, संदीप।
महिला:- 100 मीटर: शारदा नारायण, 200 मीटर: आशा राय, श्रावणी नंदा, 400 मीटर: एमआर पूवम्मा, 800 मीटर : टिंटु लुका, सुषमा देवी, 1500 मीटर: ओपी जैशा, सिनी ए मार्कोस, 5000 मीटर: ओपी जैशा, प्रीजा श्रीधरन, 10000 मीटर: प्रीजा श्रीधरन, 3000 मीटर स्टीपलचेज: ललिता बब्बर, सुधा सिंह, 400 मीटर बाधा दौड़: अश्विनी अंकुजी, ऊंची कूद: सहाना कुमारी, लम्बी कूद: एमए प्रजूषा, मयूखा जानी, त्रिकूद : एमए प्रजूषा, मयूखा जानी, चक्का फेंक: सीमा पूनिया, कृष्णा पूनिया, तार गोला फेंक : मंजू बाला, भाला फेंक : अनु रानी, हेप्टाथलान : सुष्मिता सिंघा राय, स्वप्ना बर्मन, 20 किलोमीटर पैदल चाल: खुशबीर कौर, चार गुणा 100 मीटर रिले: श्रावणी नंदा, आशा राय, मर्लिन के जोसेफ, सिनी एस, शांतनी वी, एचएम ज्योति, चार गुणा 400 मीटर रिले: एमआर पूवम्मा, प्रियंका पवार, देबाश्री मजूमदार, मनदीप कौर, अश्विनी अकुंजी, आर्या सी।

Wednesday, 20 August 2014

ट्रेनों में यात्रियों से सुनियोजित तरीके से होती है अवैध वसूली


रात को रेलगाड़ियां होती हैं जीआरपी और आरपीएफ के हवाले
आगरा। एक्सप्रेस ट्रेनों में मुसाफिरों की सुरक्षा के नाम पर भले कितना भी ढिंढोरा पीटा जाए, असलियत इसके विल्कुल विपरीत है। इस मामले में जीआरपी और आरपीएफ के जवानों की भूमिका संदेहजनक है। दिन और रात के वक्त मुसाफिरों की सुरक्षा इन्हीं दो फोर्स के जिम्मे रहती है। मंडल रेलवे के सेक्शन में दौड़ने वाली ज्यादातर रेलगाड़ियां दिन में बेशक टिकट परीक्षकों (टीटीई) की निगहबानी में चलती हों, लेकिन रात में ये पूरी तरह जीआरपी और आरपीएफ जवानों के हाथ का खिलौना होती हैं। बताते चलें कि यात्रियों की सुरक्षा व्यवस्था का दायित्व रेलवे का होता है, लेकिन रात में यही रक्षक भक्षक हो जाते हैं। ट्रेन स्क्वायड में चलने वाले जीआरपी और रेलवे सुरक्षा बल के जवान यात्रियों की सुरक्षा करने की बजाय सुनियोजित तरीके से उनसे अवैध वसूली में जुट जाते हैं।
जीआरपी और आरपीएफ के जवानों का अवैध वसूली का यह खेल रात में अमूमन हर रेलगाड़ी में होता है। मरता क्या नहीं करता की तर्ज पर यात्री भी अपनी इज्जत बचाने और अपने गंतव्य स्टेशन तक पहुंचने के लिए न चाहकर भी सब कुछ सहन करते हैं। सच्चाई यह है कि इस काम को कोई एक रेलवे पुलिस का जवान अंजाम नहीं देता बल्कि पूरी ट्रेन में चलने वाले स्क्वायड में तैनात समूचा सुरक्षा अमला इस गोरखधंधे में लिप्त होता है। ऐसा नहीं कि इसकी जानकारी ट्रेन के कोच में चल रहे टिकट परीक्षकों को न हो। कटु सत्य तो यह है कि इस काम में उनकी भी मौन स्वीकृति होती है। यात्रियों से अवैध वसूली का यह खेल प्राय: स्लीपर से लेकर जनरल कोचों में होता है।
बताते चलें कि लगभग सभी एक्सप्रेस और सुपरफास्ट ट्रेनों में जनरल के डिब्बे चार-पांच होते हैं, जबकि साधारण टिकट से यात्रा करने वालों की संख्या बहुत अधिक होती है। दिन हो या रात जनरल डिब्बों में यात्रा करना आसान बात नहीं है। जनरल डिब्बों में आराम से बैठना तो दूर उनमें प्रवेश करना ही कठिन बात होती है। यात्रियों को अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए प्राय: जानते हुए भी मजबूरी में स्लीपर कोचों में प्रवेश करना पड़ता है। बस फिर क्या इन डिब्बों में सवार जीआरपी और आरपीएफ के जवान ऐसे यात्रियों से अवैध वसूली में मशगूल हो जाते हैं। पैसे न देने या न होने पर यात्रियों को जलालत झेलनी पड़ती है।
अरे भाई अंदर चलो-अंदर चलो...
जनरल का टिकट होने पर यात्री प्राय: स्लीपर कोचों में या तो गेट के पास खड़ा हो जाता है या फिर टॉयलेट के पास। स्टेशन से गाड़ी जैसे ही आगे के लिए रवाना होती है टिकट परीक्षक ऐसे यात्रियों से अरे भाई अंदर चलो-अंदर चलो कहता है। टिकट परीक्षक के इस शिष्टाचार या यूं कहें रहम पर यात्री बाग-बाग हो जाता है। टिकट परीक्षक तो चला जाता है लेकिन उसके बाद समूह में आते रेलवे पुलिस के जवान यात्रियों की आंख में टार्च मारते हुए टिकट चेकिंग का आडम्बर करने लगते हैं। मजबूर यात्रियों को न केवल डराया-धमकाया जाता है बल्कि उनसे जमकर चौथवसूली की जाती है। इसका कोई मानक नहीं होता।
 आगरा से दिल्ली और आगरा से झांसी के देने होते हैं 100 रुपये
रेलवे पुलिस की चौथवसूली का वैसे तो कोई मानक तय नहीं है पर आगरा से दिल्ली और आगरा से झांसी के बीच का रेट 100 रुपये है। आप सौ रुपये टिकट परीक्षक को देकर स्लीपर में यात्रा करने के पात्र हो जाते हैं।
वर्षों से हो रही है जनरल बोगियां बढ़ाने की मांग
साधारण टिकट होने पर स्लीपर में यात्रा करना कानूनन जुर्म है, लेकिन यह जुर्म हर रोज करना यात्रियों का शगल बन गया है। वर्षों से यात्रियों द्वारा रेल मंत्रालय से एक्सप्रेस और सुपरफास्ट ट्रेनों में जनरल बोगियों की संख्या बढ़ाने की मांग की जा रही है, किन्तु इस दिशा में आज तक कुछ नहीं हुआ।      
ट्रेनों में बढ़ रही है बेटिकट यात्रियों की संख्या
रेल मंत्री सदानंद गौड़ा ने संसदकाल के दौरान एक प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया था कि रेलवे ने 2011-12 में 1.15 करोड़ लोगों को बिना टिकट यात्रा करते हुए पकड़ा था जो 2012-13 में बढ़कर 1.37 करोड़ रुपये हो गया। वर्ष 2013-14 के दौरान बिना टिकट यात्रा करने वाले यात्रियों की संख्या बढ़कर 1.48 करोड़ हो गई। 2014 में जून तक 49.01 लाख लोगों को बेटिकट यात्रा करते हुए पकड़ा गया। रेलवे ने बेटिकट यात्रियों से 2011-12 में 477.81 करोड़ रुपया, 2012-13 में 572.61 करोड़ रुपया और 2013-14 में 637.40 करोड़ रुपया जुर्माना वसूला जबकि चालू साल 2014 में जून तक 227.67 करोड़ रुपया जुर्माना वसूला जा चुका है। 

Monday, 18 August 2014

धोनी पर बरसे वेंगसरकर, सहयोगी स्टाफ हो बर्खास्त

पूर्व भारतीय कप्तान दिलीप वेंगसरकर ने इंग्लैंड के हाथों शर्मनाक हार के बाद आज कोच डंकन फ्लैचर और अन्य सहयोगी स्टाफ को तुरंत बर्खास्त करने की अपील की तथा साथ ही कप्तान महेंद्र सिंह धोनी को स्पष्ट गलतियों के लिये आड़े हाथों लिया।
वेंगसरकर ने कहा कि धोनी ने श्रृंखला में शुरू से ही खराब तरीके से टीम की अगुआई की। उनकी क्षेत्ररक्षण की सजावट और रणनीति व्यावहारिक समझ की कमी दिखी लेकिन अभी कोई ऐसा नहीं है जो कप्तानी का बोझ उठा सके। उन्होंने साक्षात्कार में कहा, धोनी ने टीम की अगुआई अच्छी तरह से नहीं की। उसकी चयन नीति, रणनीति, क्षेत्ररक्षण की सजावट और गेंदबाजी में बदलाव में व्यावहारिक समझ की कमी दिखी। उसने मैच दर मैच कुछ स्पष्ट दिखने वाली गलतियां कीं जिसका खामियाजा भारत को भुगतना पड़ा।
वेंगसरकर ने फ्लैचर की कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा, यह उसका (धोनी) और भारत का दुर्भाग्य है कि उसके पास डंकन फ्लैचर जैसा कोच है जिसके पास कोई आइडिया नहीं है और वह नहीं जानता कि चीजों को कैसे बदलना है। लगता है कि वह युवा टीम को प्रेरित नहीं कर पा रहा है।
वेंगसरकर ने कहा कि पूरे कोचिंग स्टाफ को तुरंत बर्खास्त कर देना चाहिए। उन्होंने कहा, सहयोगी स्टाफ और थिंक टैंक ने टीम को बुरी तरह से नीचा दिखाया। उम्मीद है कि बीसीसीआई सीनियर खिलाड़ियों की उनके बारे में राय जानने से पहले ही उन्हें तुरंत प्रभाव से बर्खास्त करेगा। अपने करियर में 116 टेस्ट मैच खेलने वाले वेंगसरकर ने संदीप पाटिल की अगुआई वाली चयन समिति के बारे में कहा कि वह दूरदृष्टा नहीं है और वह बल्लेबाजी क्रम में विभिन्न स्थानों के लिये खिलाड़ियों को तैयार करने में नाकाम रही।
लार्ड्स में 1979, 1982 और 1986 में लगातार तीन टेस्ट शतक लगाने वाले वेंगसरकर से हुई साक्षात्कार के अंश:
सवाल : पांच टेस्ट मैचों की श्रृंखला में इस शर्मनाक हार का आपकी नजर में क्या कारण है?
उत्तर: पहला और सबसे अहम कारण बीसीसीआई टेस्ट क्रिकेट को बहुत अधिक महत्व नहीं दे रहा है और इसका सबूत यह है कि पांच टेस्ट मैचों के लिये कोई खास तैयारी नहीं की गयी। इसके अलावा कार्यक्रम भी गलत तैयार किया गया। टेस्ट मैचों के बीच में कोई अभ्यास मैच नहीं रखा गया जिससे कि खराब फार्म में चल रहे खिलाड़ी फार्म में लौट सकें और बाहर बैठे सात रिजर्व खिलाड़ियों को मैच अभ्यास का मौका मिले।
हम 18 खिलाड़ियों को लेकर गये और लगभग इतने ही तथाकथित सहयोगी स्टाफ के कर्मचारी थे। गेंदबाजी 20 विकेट लेने में सक्षम नहीं दिख रही थी और बल्लेबाज फार्म में नहीं थे। उनके पास मूव करती गेंद को खेलने के तकनीक ही नहीं प्रतिबद्धता और जुझारूपन की कमी भी थी। वे बलि के बकरे की तरह दिख रहे थे और उन्होंने लगातार एक जैसी गलतियां कीं। मुझे हैरानी है कि बल्लेबाजी, गेंदबाजी और क्षेत्ररक्षण कोच क्या कर रहे थे?
सवाल: क्या पहले यहां और बाद में इंग्लैंड में टीम का चयन गलत किया गया?
उत्तर: चयनकर्ताओं का काम आसान था क्योंकि उन्होंने सर्वश्रेष्ठ संभावित 18 खिलाड़ियों की टीम का चयन कर दिया। उन्होंने विकल्प तैयार करने के बारे में नहीं सोचा। उनमें विजन की कमी और कड़े फैसले करने का साहस नहीं था। उन्होंने सबसे सरल रास्ता चुना।
सवाल : क्या आपको लगता है कि रविंद्र जड़ेजा-जेम्स एंडरसन के बीच झगड़े और भारत का एंडरसन को प्रतिबंधित करने पर जोर देने से टीम का ध्यान भंग हुआ?
उत्तर: मैं ऐसा नहीं मानता। ऐसी घटनाएं टेस्ट क्रिकेट का हिस्सा हैं। यदि आपको ऐसी चीजें प्रभावित करती हैं तो फिर टेस्ट क्रिकेट आपके लिये सही जगह नहीं है। ऐसे में आप टेस्ट क्रिकेट नहीं हल्के फुल्के खेल का चुनाव कर सकते हैं।
सवाल: इस हार के लिये आप धोनी की कप्तानी और फ्लैचर की कोचिंग को कितना जिम्मेदार मानते हो। इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, न्यूजीलैंड और अब इंग्लैंड में लगातार हार से क्या इन दोनों को हटा देना चाहिए?
उत्तर: धोनी ने टीम की अगुआई अच्छी तरह से नहीं की। उसकी चयन नीति, रणनीति, क्षेत्ररक्षण की सजावट और गेंदबाजी में बदलाव में व्यावहारिक समझ की कमी दिखी। उसने मैच दर मैच कुछ बड़ी गलतियां कीं जिसका खामियाजा भारत को भुगतना पड़ा। यह उसका और भारत का दुर्भाग्य है कि उसके पास डंकन फ्लैचर जैसा कोच है जिसके पास कोई आइडिया नहीं है और वह नहीं जानता कि चीजों को कैसे बदलना है। लगता है कि वह युवा टीम को प्रेरित नहीं कर पा रहा है। सच्चाई यह है कि सहयोगी स्टाफ और थिंक टैंक ने टीम को बुरी तरह से नीचा दिखाया। उम्मीद है कि बीसीसीआई उन्हें तुरंत प्रभाव से बर्खास्त करेगा।

Sunday, 17 August 2014

. ब्रज में हर पल झरता है प्रेमरस


ऊधौ मोहि ब्रज बिसरत नाही..
राधा के आंसुओं से बना मानसरोवर
श्रीप्रकाश शुक्ला
आगरा। ब्रज में मेघ धोखा दे सकते हैं, पर लाख अकाल के बाद भी यहां हर दिन-हर पल प्रेमरस झरता है। ब्रज की यही खूबी देश-दुनिया को अपनी ओर बरबस आकर्षित करती है। कान्हा की नगरी में जो एक बार आता है वहां बार-बार आने की जिज्ञासा नहीं त्याग पाता। ब्रज की धरा और यहां के लोग कुछ ऐसे हैं जिनसे ताउम्र जुड़े रहने का मन करता है। ब्रज की पवित्र माटी के प्रति लगाव कुछ पल की बात नहीं होती, यही वजह है कि यहां साल भर कृष्ण भक्तों का तांता लगा रहता है। आषाढ़, सावन, भादों और क्वार मास की तो कहना ही क्या? ब्रज में कुछ भी बनावटी नहीं है, जो जैसा था वह आज भी वैसा का वैसा ही है।
मथुरा-वृन्दावन की विशेषता को शिखर तक ले जाने के लिए सरकार और स्वैच्छिक संगठन प्रयासरत तो हैं लेकिन विकास की गति बिल्कुल मंद है। कई पुरातात्विक अवशेष अपना अस्तित्व खो रहे हैं तो कुछ विकासोन्मुख शिलापट्टिकाएं  लचर व्यवस्था की चुगली कर रही हैं। वृन्दावन से तीन किलोमीटर और यमुना एक्सप्रेस-वे से कोई एक किलोमीटर दूर खादर में स्थापित राधारानी का मंदिर दूर-दूर से आते कृष्ण भक्तों के लिए कौतूहल का विषय बन चुका है। जनश्रुतियों पर यकीन करें तो कृष्ण वियोग में यहीं पर राधाजी इतना रोई थीं कि एक सरोवर बन गया था। आज यह मानसरोवर के नाम से जाना जाता है।
विश्वास धर्म का आधार है, यही वजह है कि सूरदास के कृष्ण आज भी जन-जन के आराध्य हैं। रामायण और महाभारत, दोनों ही महाकाव्य ग्रंथ अपने-अपने युग की संस्कृतियों के परिचायक हैं। द्वापर और त्रेता युग में दो प्रकार की संस्कृतियां विद्यमान थीं। एक, आर्य संस्कृति और दूसरी, अनार्य संस्कृति। रामायण के श्रीराम आर्य संस्कृति के पोषक तो रावण अनार्य संस्कृति का पालक था। इसी प्रकार महाभारत के श्रीकृष्ण आर्य मर्यादाओं के प्रतिष्ठापक हैं जबकि कंस और दुर्योधन के कार्य अनार्य प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देने वाले रहे। रामायण पूर्ण आदर्शवादी व्यवस्था की सृष्टि करती है जबकि महाभारत में घोर यथार्थ के रूप का दर्शन होता है।
प्रकृति और समय, दोनों परिवर्तनशील हैं। ब्रज पर नजर डालें तो प्रकृति  मानव के निरंतर दोहन से वैसी नहीं रही पर लोगों की मनोदशा आज भी वैसी ही है। ब्रज प्रेम और भक्ति का अद्भुत संगम है। लोकमानस में कृष्ण भक्ति और उनकी लीलाएं आज भी अमिट हैं। गोपाल कृष्ण सिर्फ ब्रज ही नहीं बल्कि देश-दुनिया की प्राणवायु हैं। ब्रज के कुंज-निकुंज, गली-चौराहे, ग्वाल-बाल, गाय-बछड़े, गोप-गोपियां, यमुना तट और पशु-पक्षी ही नहीं यहां के कण-कण तथा हर मन में आज भी राधा-कृष्ण के प्रति अगाध स्नेह और प्रेमाभाव हिलोरे मारता है।
ब्रज में मुर्गा बांग नहीं देता बल्कि वृन्दावन के आसपास स्थित गांवों की अट्टालिकाओं पर नाचते मोर और उनकी पीयू-पीयू की आवाज लोगों को भोर होने की आहट देती है। मोर समृद्धि का सूचक है। यहां का जनमानस आर्थिक तंगहाली के बावजूद मन से अमीर है। दरअसल, ब्रजवासियों के दिल में राधा-कृष्ण के सिवाय किसी अन्य के लिए जगह नहीं है। भगवान कृष्ण और गोपियों के बीच का प्रेमालाप आज भी ब्रज की चौपालों की चर्चा का विषय होता है। लोग ब्रज में जन्म लेने को अपना सौभाग्य मानते हैं। सदियां बीतने के बाद भी लोग अपने रीति-रिवाजों पर अटल हैं। ब्रजवासी जो कहते हैं वही करते हैं।
राधे-राधे, कृष्ण मिला दे...
सावन और अब जन्माष्टमी की वजह से इन दिनों ब्रजभूमि में राधे-राधे, कृष्ण मिला दे के सुर ही सुनाई दे रहे हैं। वृन्दावन से कोई ढाई किलोमीटर दूर पिपरौली गांव के सन्निकट खादर में स्थित राधारानी का मंदिर और मानसरोवर लोगों के कौतुक का विषय है। अलिया नगला के लोगों का कहना है कि महारास के बाद गोपियों के अहंकार को चूर करने के लिए अदृश्य हुए कृष्ण को खोजते-खोजते राधारानी यहीं आई थीं। कृष्ण वियोग में उनका बुरा हाल था। लोगों के लाख समझाने के बावजूद उनके आंसू रोके नहीं रुके। राधा के आंसुओं से ही मानसरोवर की उत्पत्ति हुई। जनश्रुतियों पर यकीन करें तो यहां स्थित राधारानी की मूर्ति ही असली है। बताते हैं कि बाद में राधा को मनाने को यहां कृष्णजी भी आए। यहां स्थित एक अन्य मंदिर में प्रतिष्ठापित राधा-कृष्ण की मूर्ति वाकई विलक्षण है। इस मूर्ति में कृष्ण राधाजी के पैर पकड़कर मना रहे हैं।
यहां पूर्णमासी को लगता है मेला और खुलते हैं मंदिर के पट
वैसे तो राधारानी के दर्शन को लोग यहां रोज जाते हैं लेकिन पूर्णमासी का विशेष महात्म्य है। दरअसल राधा-कृष्ण के इस मंदिर के पट पूर्णमासी को ही खुलते हैं और यहां मेला भरता है। मानसरोवर में लोग स्नान कर पुण्यलाभ कमाते हैं।
उत्तर प्रदेश पर्यटन निगम ने किए कुछ विकास कार्य
राधारानी के इस मंदिर और आसपास के क्षेत्र के विकास का जिम्मा उत्तर प्रदेश पर्यटन निगम ने अपने हाथ ले लिया है। अब मानसरोवर जहां पक्के तालाब की शक्ल ले चुका है वहीं विभाग ने स्नान करने वालों के लिए चेंजिंग रूम भी बना दिया है। कार्य प्रगति पर है और यह मंदिर अब दूर-दूर से आते कृष्ण भक्तों के लिए खास हो गया है।
 
 

Thursday, 14 August 2014

हे भगवान! कैसा सम्मान

भारतीय स्वतंत्रता के पावन मास की 29 तारीख हर खिलाड़ी के लिए खास होती है। इस दिन उन खिलाड़ियों के पराक्रम का सम्मान होता है जिन्होंने अपने खेल कौशल से मादरेवतन की शान बढ़ाई हो। खिलाड़ी का सम्मान अच्छी बात है, पर खिलाड़ी के एक दिन के सम्मान का अभिमान पालने से पहले हमें यह सोचने की भी दरकार है कि आखिर अपने वतन को गौरवान्वित करने वाले इन जांबाजों के साथ हर दिन क्या सलूक होता है? भारत में हॉकी के कालजयी दद्दा ध्यानचंद के जन्मदिन को खेल दिवस के रूप में मनाते 19 साल हो गये हैं। खिलाड़ियों के सम्मान की यह तारीख हर साल कुछ सवाल छोड़ जाती है, जिनका निदान होना चाहिए, पर नहीं होता। फिलवक्त भारत के दिल दिल्ली से लेकर मुल्क के हर कोने तक पराक्रमी खिलाड़ियों की खोज-खबर ली जा रही है। हाल ही दिल्ली में 12 सदस्यीय खेल सम्मान चयन समिति ने देश के 15 अर्जुनों पर अपनी सहमति की मुहर लगाकर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है। इस बार दिल्ली में जोे सम्मान समारोह होगा उसमें हॉकी का कोई खिलाड़ी शामिल नहीं रहेगा। देश में खेलों से खिलवाड़ का यह पहला अवसर नहीं है। आजादी के बाद से ही भारत में खेल संस्कृति के उन्नयन की बजाय अपने मातहतों को उपकृत करने का घिनौना खेल चलता रहा है।
भारत ने आजादी के बाद बेशक तरक्की के नये आयाम स्थापित किए हों पर खेलों के लिहाज से देखें तो मुल्क को अपयश के अलावा कुछ भी नसीब नहीं हुआ। सट्टेबाजी और डोपिंग जैसे कुलक्षण आजाद भारत में ही पल्लवित और पोषित हुए हैं। पिछले पांच साल में देश के पांच सौ से अधिक खिलाड़ियों का डोपिंग में दोषी पाया जाना चिन्ता की बात है। अफसोस डोपिंग का यह कारोबार भारत सरकार की मदद से चल रहे साई सेण्टरों के आसपास धड़ल्ले से हो रहा है। खेलों में जब तब आर्थिक तंगहाली का रोना रोया जाता है जबकि केन्द्र सरकार प्रतिवर्ष अरबों रुपये  खेल-खिलाड़ियों के नाम पर निसार कर रही है। सच तो यह है कि आजाद भारत में खेल पैसे के अभाव में नहीं बल्कि लोगों की सोच में खोट के चलते दम तोड़ रहे हैं। आज मुल्क तो आजाद है पर भारतीय खिलाड़ी परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। वह उनका हुक्म मानने को मजबूर है जोकि खिलाड़ी न होते हुए भी सब कुछ हैं।
खेलों में हमारा लचर प्रदर्शन सवा अरब आबादी को मुंह चिढ़ाता है तो दूसरी तरफ खेल तंत्र बड़े-बड़े आयोजनों के लिए अंतरराष्ट्रीय खेल संघों के सामने मिन्नतें करता है। आज मुल्क का खिलाड़ी अंधकूप में है, उसके साथ इंसाफ नहीं हो रहा। खिलाड़ी सम्मान के नाम फरेब चरम पर है। हर साल की तरह इस साल भी कई खिलाड़ी सम्मान न मिलने से आहत-मर्माहत हैं। खिलाड़ियों के सम्मान से इतर दद्दा ध्यानचंद को भारत रत्न देने की मांग एक बार फिर सुर्खियों में है। खेल तंत्र और सरकार के बीच जमकर नूरा-कुश्ती चल रही है। सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न मिलते ही कालजयी हॉकी महानायक मेजर ध्यानचंद लोगों की चिरस्मृतियों में पुन: जीवंत हो उठे हैं। हर खिलाड़ी चाहता है कि दद्दा को देश का सर्वोच्च सम्मान मिले क्योंकि गुलाम भारत में हॉकी का गौरव उनकी जादूगरी से ही सम्भव हो सका। कुछ इस तरह जैसे क्रिकेट में सचिन तेंदुलकर के अभ्युदय से आजाद भारत ने महसूस किया।
भारतीय सरजमीं हमेशा शूरवीरों के लिए जानी जाती रही है। बात खेलों की करें तो अंतरराष्ट्रीय खेल क्षितिज पर भारतीय हॉकी के नाम आठ ओलम्पिक और एक विश्व खिताब का मदमाता गर्व है तो क्रिकेट में भी हमने तीन बार दुनिया फतह की है। क्रिकेट और हॉकी टीम खेल हैं लिहाजा इन विश्व खिताबों के लिए कुछेक खिलाड़ियों पर सरकार की मेहरबानी खेलभावना से मेल नहीं खाती। मुल्क की कोख से कई नायाब सितारे पैदा हुए हैं, जोकि सर्वोच्च नागरिक सम्मान के हकदार हैं। बेहतर होगा कि मुल्क में एक पारदर्शी व्यवस्था कायम हो ताकि किसी खिलाड़ी को पछतावे के आंसू न रोना पड़ें। आज ध्यानचंद को भारतरत्न देने की मुखालफत तो की जा रही है लेकिन उनके अनुज कैप्टन रूप सिंह को पूरी तरह से बिसरा दिया गया है। अचूक स्कोरर, रिंग मास्टर और 1932 तथा 1936 की ओलम्पिक चैम्पियन भारतीय हॉकी टीम के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी रूप के स्वरूप को भारत सरकार तो क्या हॉकी बिरादर भी भूल चुकी है। 1932 और 1936 की ओलम्पिक हॉकी में एक कोख के दो लाल साथ-साथ खेले थे पर रूप सिंह ने बर्लिन में अपने पौरुष का डंका पीटते हुए न सिर्फ सर्वाधिक गोल किये बल्कि जर्मन तानाशाह हिटलर का भी दिल जीत लिया था। रूप सिंह के इसी नायाब प्रदर्शन के चलते 1978 में म्यूनिख में उनके नाम की सड़क बनी। अफसोस जिस खिलाड़ी को आज तक जर्मन याद कर रहा है उसे ही भारत सरकार तो क्या उसका भतीजा भी भूल चुका है।
भारतीय हॉकी दिग्गजों में बलबीर सिंह सीनियर का भी शुमार है। 91 बरस के इस नायाब हॉकी योद्धा ने भी भारत की झोली में तीन ओलम्पिक स्वर्ण पदक डाले हैं। बलबीर उस भारतीय टीम के मुख्य प्रशिक्षक और मैनेजर रहे जिसने 1975 में भारत के लिये एकमात्र विश्व कप जीता था। वर्ष 1896 से लेकर अब तक सभी खेलों के 16 महानतम ओलम्पियनों में से एक बलबीर को 2012 लंदन ओलम्पिक के दौरान अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने सम्मानित किया था पर भारत सरकार अतीत के इस सितारे को भारत रत्न का हकदार नहीं मानती। हॉकी और क्रिकेट के अलावा भारत को गौरवान्वित करने वाले खिलाड़ियों में पहलवान केडी जाधव का नाम भी आज भूल-भुलैया हो चुका है। जाधव ने 1952 हेलसिंकी ओलम्पिक की कुश्ती स्पर्धा में पहला व्यक्तिगत कांस्य पदक भारत की झोली में डाला था, पर मुल्क के ओलम्पिक पदकधारियों में एकमात्र केडी जाधव ही हैं जिन्हें पद्म पुरस्कार तक नहीं मिला, जबकि वर्ष 1996 के बाद से भारत के लिये व्यक्तिगत ओलम्पिक पदक जीतने वाले सभी खिलाड़ियों को पद्म पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। मोदी सरकार से खिलाड़ियों को पारदर्शी व्यवस्था की उम्मीद थी लेकिन जिस तरह से अंधों ने रेवड़ियां बांटी हैं उससे खेल बिरादर सकते में है। 

Friday, 8 August 2014

बाबुओं की लीला न्यारी, मजे कर रहे खूब अनाड़ी

75 फीसदी संविदा कर्मी फर्जी दस्तावेजों से कर रहे चाकरी
आठ साल बाद संविदा वालीबाल प्रशिक्षक रीमा चौहान बर्खास्त
सिवनी के दो प्रशिक्षकों को दिखाया बाहर का रास्ता
मध्य प्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग
ग्वालियर। कहते हैं कि गुनाह लाख छिपाया जाये पर वह एक न एक दिन उजागर जरूर होता है। यही कुछ हुआ है भिण्ड में आठ साल से कार्यरत रही संविदा वालीबाल प्रशिक्षक रीमा चौहान  के साथ। उनके फर्जी दस्तावेजों को लेकर पहले से ही संदेह था लेकिन खेल एवं युवा कल्याण विभाग के कर्ताधर्ता कान में उंगली डाले बैठे रहे। मामला जब हद से बाहर गया तो रीमा को बर्खास्त करने का अप्रिय निर्णय लेना पड़ा।
खेल एवं युवा कल्याण विभाग में रीमा अकेले ही कसूरवार नहीं हैं बल्कि विभाग में कार्यरत 554 संविदा कर्मियों और दो साल पहले व्यापम के माध्यम से हुई 85 नियमित बाबुओं के कागजातों को खंगाला जाए तो 75 फीसदी ऐसे लोग मिलेंगे जोकि फर्जी दस्तावेजों के जरिए विभाग की मलाई छान रहे हैं। अब सवाल यह उठता है कि इतने बड़े पैमाने पर यह फर्जीवाड़ा हुआ भी तो आखिर कैसे? सूत्रों की कही सच मानें तो इस गोरखधंधे में विभाग के आला अफसरों सहित जिला खेल अधिकारी और बाबू शामिल हैं। रीमा ही नहीं खेल विभाग में फर्जी दस्तावेजों से नौकरी हासिल करने वालों की लम्बी फेहरिस्त है। ग्वालियर-चम्बल सम्भाग में भी नियुक्तियों में जमकर गोलमाल हुआ है। संविदा खेल प्रशिक्षक (ग्रेड-2) सहित दीगर कर्मचारियों से पैसे लेकर नियुक्तियां की गर्इं। इस फर्जीवाड़े में भोपाल खेल एवं युवा कल्याण विभाग की स्थापना शाखा में कार्यरत मुख्य बाबू बाबूलाल श्रीवास्तव और रवि बंसौड़ शक के दायरे में हैं।
दरअसल खेल विभाग में लम्बे समय से तबादला नीति पर ध्यान न दिए जाने के चलते जो जहां तैनात है वह जिला खेल अधिकारी अपने आपको वहां का अलम्बरदार मान बैठा है। उसे  भोपाल का रत्ती भर भी डर नहीं है। डरे भी तो आखिर क्यों? दरअसल हर फर्जीवाड़े में ऊपर से नीचे तक लेन-देन जो होता है। सिवनी जिले में मकसूदा खान 30 साल से अड़ंगी मारे बैठी हैं, उनके खिलाफ तमाम आरोप-प्रत्यारोप हैं बावजूद इसके किसी की क्या मजाल जो मकसूदा को उनके मकसद से डिगा सके। सिवनी की मकसूदा ही नहीं इंदौर, शिवपुरी तथा अन्य जिलों में भी जिला खेल अधिकारी लम्बे समय से काबिज हैं। जो भी हो सिवनी में भी फर्जी दस्तावेजों से नौकरी कर रहे दो लोगों को विभाग से बेदखल किया गया है। मुरैना, दतिया, शिवपुरी और ग्वालियर में भी जो नियुक्तियां हुई हैं वे पाक साफ नहीं हैं। पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा खेलनहारों ने क्रीड़ाश्री तक की नियुक्तियों में गोलमाल किया है। दरअसल यह सब विभाग की कमजोर बुनियाद का ही प्रतिफल है वरना विभाग में प्रतिनियुक्ति पर आये अलम्बरदार आज कहीं और होते।
क्या सारे प्रतिभाशाली भोपाल में ही पैदा होते हैं?
दो साल पहले विभाग में हुई 85 बाबुओं की नियुक्ति भी संदेह के घेरे में है। लोग दबी जुबान यह तक कह रहे हैं कि क्या सारे प्रतिभाशाली भोपाल में ही पैदा होते हैं? बात सही भी है बाबुओं की जो नियुक्ति हुई है उनमें 50 फीसदी तो भोपाल से ही हैं। खेल विभाग में फर्जी दस्तावेजों से नौकरी हासिल करने का खेल पुराना है। कुछ साल पहले भी एक मोहतरमा फर्जी दस्तावेजों के सहारे बुलंदियों तक पहुंची थीं लेकिन अलम्बरदार की जैसे ही नजर फिरी धड़ाम से नीचे आ गिरीं। लोग आज मोहतरमा को ढूंढ़ रहे हैं लेकिन उनका कहीं अता-पता नहीं है।     

Tuesday, 5 August 2014

किताबी जंग का दौर

न खंगालो तथ्यों को, न तर्कों पर बात करो

जब भुनानी हो पुरानी अदावत, तो किताब लिख डालो
(अकबर इलाहाबादी माफ करें)
पुरानी कहावत है कि जब जहाज डूबता है तो सबसे पहले चूहे निकल भागते हैं। इस वक्त कांग्रेस पर जैसे चौतरफा हमलों का दौर चल रहा है और विरोधियों से अधिक पुराने कांग्रेसी ही सोनिया गांधी, राहुल गांधी व डा.मनमोहन सिंह को निशाना बना रहे हैं, उसे देखकर यही कहावत याद आती है। हालांकि अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि कांग्रेस डूबता जहाज है। राजनीति में कुछ भी स्थायी नहींहोता, जीत और हार भी नहीं। अभी कांग्रेस एक बेहद बुरे दौर से गुजर रही है, किंतु उसका अस्तित्व ही खत्म होने की कगार पर है, ऐसा नहींहै। उत्तराखंड में उपचुनावों में उसे मिली सफलता इस बात का प्रमाण है कि जनता का एक वर्ग अब भी कांग्रेस का समर्थक है। यह सही है कि विगत दस सालों के केेंद्र के शासन के बाद उसे लोकसभा चुनावों में ऐतिहासिक हार का सामना करना पड़ा और भाजपा को नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आश्चर्यजनक सफलता का स्वाद चखने मिला। किंतु इसमें कांग्रेस से लोगों की उठती आस्था और भाजपा पर अटूट विश्वास जैसे तथ्य केवल काम नहीं आए, बल्कि राजनीति के पर्दे के पीछे छिपे अन्य कई कारक इसके जिम्मेदार रहे। ये कारक भविष्य में कभी बेपर्दा होंगे या नहीं, कहा नहींजा सकता। क्योंकि अब किसी बात को दबा कर रखना या उजागर कर देना, किसी का वफादार सिपाही या मित्र होना, ऐसे गुणों की कोई समयसीमा नहींरह गई है। राजनीति में इस वक्त जो हलचल मची हुई है, उसे देखकर तो यही लगता है। ऐन चुनाव के वक्त संजय बारू व पी.सी.पारेख की प्रकाशित, प्रचारित किताबों ने कांग्रेस के विरोध में माहौल बनाने का काम किया। इन किताबों में मुख्यत: तत्कालीन प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह को निशाना बनाया था। अब उस कड़ी में अगली किताब है वन लाइफ इज़ नाट इनफ। पुराने वरिष्ठ कांग्रेसी, कांग्रेस सरकार में अनेक महत्वपूर्ण पद संभाल चुके, कूटनीतिज्ञ, बुद्धिजीवी डा.नटवर सिंह की यह आत्मकथा है। कभी गांधी परिवार के करीबी रहे डा.सिंह ने इस किताब में अपनी कथा के बहाने राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी सबकी बात कही है। लिहाजा इसे आत्मकथा कम और गांधी कथा अधिक कहना चाहिए। राजनीतिज्ञों, राजनेताओं पर किताबें लिखना, उनकी जीवनकथा लिखना कोई नई बात नहींहै। विशेषकर गांधी परिवार तो ऐसी किताबों का प्रिय केन्द्रीय चरित्र रहा है। नेहरूजी से लेकर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी यहां तक राहुल गांधी पर भी किताब लिखी गई है, जबकि राहुल गांधी की राजनीति में सक्रियता मात्र एक दशक की रही है। इन तमाम किताबों में भारतीय राजनीति में गांधी परिवार के योगदान और भूमिका की चर्चा की गई है, विश्लेषण में अगर आलोचना और निंदा जरूरी है, तो वह भी की गई है। किंतु डा.नटवर सिंह की किताब के जो अंश मुख्य तौर पर सामने आए हैं, उनसे यही पता चलता है कि लेखन में तटस्थता बरतना उन्होंने जरूरी नहींसमझा। वे सोद्देश्य सोनिया गांधी व राहुल गांधी की आलोचना कर रहे हैं। इस किताब के बाजार में आने के बाद कुछेक चैनलों में दिए साक्षात्कार में उन्होंने यही प्रदर्शित किया कि तेल के बदले अनाज कार्यक्रम में भ्रष्टाचार के कारण मंत्रिमंडल से बाहर कर दिए जाने की नाराजगी वे इस रूप में दिखा रहे हैं। सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री पद स्वीकार न करना, त्याग था या नाटक या बेटे राहुल गांधी का दबाव, इसका सच सिर्फ सोनिया गांधी बता सकती हैं। राहुल गांधी में राजनीति करने की योग्यता है या नहीं, राजीव गांधी ने बतौर प्रधानमंत्री क्या गलतियां की, उनके मित्र व सलाहकार कैसे उनके लिए घातक साबित हुए, किताब में लिखी इस तरह की कई बातों विश्लेषण भी तटस्थता के साथ होना चाहिए। 
नटवर सिंह की किताब के बहाने भाजपा को कांग्रेस पर प्रहार करने का एक और अवसर मिल गया है और ऐसा प्रतीत होता है कि डा. सिंह ने अपने मृतप्राय राजनीतिक जीवन में थोड़ी प्राणवायु भरने के प्रयास में इस तरह की किताब लिखी है। भारतीय राजनीति, सरकार, शासन को उन्होंने बेहद करीब से देखा है, विदेशनीति के वे जानकार रहे हैं, कूटनीति के विद्वान हैं, उनसे यह अपेक्षा स्वाभाविक थी कि वे भारतीय राजनीति पर प्रामाणिक किताब लिखते, जिसमें लिखित तथ्य इतिहास, राजनीति के विद्यार्थियों, शोधार्थियों के लिए उपयोगी होते। पर इस किताब से उनकी विश्वसनीयता ही संदिग्ध होती है। डा.नटवर सिंह की किताब से उठे विवाद के सोनिया गांधी ने कहा है कि वे भी किताब लिखेंगी, जिसमें सच होगा। पहले जुबानी जंग होती थी, अब किताबी जंग का मौसम है। किताबें लिखी जाएं, खूब पढ़ी जाएं, देश में पढऩे-लिखने की संस्कृति विकसित हो, इससे अच्छी बात क्या हो सकती है, लेकिन कम से कम आत्मकथा, जीवनी लेखन, संस्मरण जैसी विधाओं में पूर्वाग्रह से बचा जाए, तथ्यों से खिलवाड़ न हो और निष्पक्षता से सच को सामने रखा जाए, तभी ऐसी किताबों का महत्व बना रहेगा, वर्ना इनमें और लुगदी साहित्य में कोई फर्क नहींबचेगा। 

Monday, 4 August 2014

खेलों में बेशर्मी की इंतिहा

दिल्ली राष्ट्रमण्डल खेलों में भ्रष्टाचार तो ग्लास्गो में हमारे खेलनहारों के कदाचार ने भारतीय अस्मिता पर अपयश की कालिख पोत दी। अरबों रुपये की बर्बादी के बाद मैदानों में जहां भारतीय खिलाड़ी एक-एक पदक को तरसते रहे वहीं जवाबदेह खेलनहारों ने बेशर्मी की लक्ष्मण रेखा लांघकर खेलों का बेड़ा गर्क कर दिया। भारतीय ओलम्पिक एसोसिएशन के महासचिव राजीव मेहता का सुरा प्रेम तो कुश्ती प्रशिक्षक वीरेन्दर मलिक की ग्लास्गो विश्वविद्यालय के क्वीन मारग्रेथ रेजीडेंस की महिला रिसेप्शनिस्ट से छेड़छाड़ के मामलों ने दुनिया भर में मादरेवतन की जमकर थू-थू कराई है। भारतीय खेलों में महिला कदाचरण के अब तक अनेकों मामले सामने आ चुके हैं लेकिन नेक नीयत के अभाव में हर बार खेल बेटियां ही झूठी और फरेबी करार दी गर्इं। भारत की बेटियां अपने ही पूज्य गुरुओं की बेहया आंखों और बेअदब मन का शिकार हो रही हैं।
दिल्ली राष्ट्रमण्डल खेलों से पूर्व भारत में गुरु-शिष्य परम्परा के नापाक रिश्ते पर दो गुरु घण्टालों ने बुरी नजर डालकर जहां खेलों को शर्मसार किया था वहीं ठीक चार साल बाद ग्लास्गो में राजीव मेहता और वीरेन्दर मलिक की करतूतों से जगहंसाई हो रही है। 2010 में हॉकी प्रशिक्षक महाराज किशन कौशिक तो भारोत्तोलक प्रशिक्षक रमेश मल्होत्रा पर खिलाड़ी बेटियों को संत्रास की आग में झोंकने के गम्भीर आरोप लगे थे लेकिन वे न केवल जांच की आंच से बच निकले बल्कि कुदृष्टि का शिकार बेटियों पर ही बदचलनी के आरोप मढ़ दिये गये। सोचनीय बात है कि कोई शिष्या अपने गुरु पर ऐसा झूठा इल्जाम तो हरगिज नहीं लगाएगी जिससे उसका जीवन तबाह हो रहा हो। भारत में गुरु-शिष्य परम्परा के पाक रिश्ते पर बुरी नजर डालकर चुल्लू भर पानी में डूब मरने का काम सिर्फ एक-दो शख्सियतों तक सीमित नहीं है बल्कि इस घिनौने कृत्य में सैकड़ों गुरु घण्टाल शामिल हैं। भारत में खेल बेटियां खेलनहारों की बदनीयत का शिकार होती हैं, इस पर सिडनी ओलम्पिक की कांस्य पदक विजेता भारोत्तोलक कर्णम मल्लेश्वरी, पूर्व भारतीय महिला हॉकी गोलकीपर हैलेन मैरी, पूर्व भारतीय महिला हॉकी कप्तान सुरिन्दर कौर, जसजीत कौर सहित दर्जनों अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों का बेटियों पर कुदृष्टि के मसलों पर बेबाक खुलासा यह सिद्ध करता है कि भारत की सम्पूर्ण खेल गंगोत्री ही मैली है। अफसोस, देश में खेल बेटियों पर कुदृष्टि और उनका खेल जीवन तबाह करने वाले भेड़िये जांच के बाद बेदाग साबित करार दिए जाते हैं। उनको वे लोग अच्छे चरित्र का सर्टीफिकेट देते हैं जिनका स्वयं का चरित्र बदनीयत को बदनाम होता है।
भारतीय खेलों में प्रशिक्षकों और खेल पदाधिकारियों की हैवानियत के एक-दो नहीं बल्कि हजारों ऐसे मामले हैं, जिनसे सिर शर्म से झुक जाता है। यह घिनौना कृत्य अमूमन हर खेल में विषबेल की तरह फैल चुका है। चौंकाने वाली बात तो यह है कि खेल बेटियों से दुराचार का यह दु:स्वप्न शहर ही नहीं अब गांव-गलियों के क्रीड़ांगनों तक जा पहुंचा है। भारतीय खेलों से हवस रूपी दानव को दूर भगाने और बार-बार अग्नि परीक्षा देती बेटियों को इंसाफ दिलाने का भारतीय ओलम्पिक एसोसिएशन और भारत सरकार के पास भी कोई उपाय नहीं है। खेलों में खेलनहारों की हैवानियत के मामलों पर जांच समितियां तो गठित कर दी जाती हैं पर खेल बेटियां मैदान छोड़ घर में घुट-घुट कर मरने को मजबूर न हों, इसके प्रयास नहीं होते। खेलों में मादरेवतन को गौरव दिलाती बेटियां आज मैदानों में कतई महफूज नहीं हैं। इन मामलों में महिला खिलाड़ियों से अपेक्षा की जाती है कि वे सच का साथ देंगी पर ऐसे मामलों में महिला खिलाड़ियों की पदलोलुपता बार-बार दुष्ट कामांधों का हथियार बन जाती है। कदाचार में शामिल महिला खिलाड़ियों पर तो यही कहना ठीक होगा कि जाके पैर न फटे बिवार्इं वो क्या जाने पीर पराई। बेटियों के दैहिक शोषण में सिर्फ प्रशिक्षक ही नहीं बल्कि भारतीय ओलम्पिक एसोसिएशन, भारतीय खेल प्राधिकरण और खेलों में दखल देने वाले कई राजनीतिज्ञ भी शामिल हैं। भारत में खेल बेटियों के साथ न केवल ज्यादती होती है बल्कि उनके अश्लील वीडियोग्राफ भी तैयार होते हैं। वर्ष 2010 में चीन और कनाडा दौरे पर गई भारतीय महिला हॉकी टीम के साथ वीडियोग्राफर बसवराव भी गये थे और उन्होंने वहां ऐसी कारगुजारी की थी जिससे भारत शर्मसार हुआ था। तब बसवराव पर आरोप लगा था कि वह यह सब महाराज किशन कौशिक के इशारे पर करते थे, जिसके लिए उन्हें बतौर प्रोत्साहन 30 हजार रुपये भी मिलते थे। खैर, ये सब तो बीते समय की बाते हैं पर दो अगस्त को जो कुछ ग्लास्गो में हुआ उसकी जितनी निन्दा की जाए वह कम है। भारतीय खिलाड़ियों के मुखिया बतौर स्कॉटलैण्ड के ग्लास्गो गए राज सिंह लाख कहें कि ये दोनों सदस्य उनके दल का हिस्सा नहीं, पर हैं तो भारतीय खेलनहार ही। राजीव मेहता और वीरेन्दर मलिक की करतूतों से भारतीय खेल मंत्रालय लाख खफा हो, पर इनके खिलाफ कुछ होगा इसमें संदेह जरूर है। खेल मंत्री सर्बानंद सोनोवाल इस मामले पर भारतीय ओलम्पिक एसोसिएशन के महासचिव राजीव मेहता और कुश्ती रेफरी वीरेन्दर मलिक के खिलाफ शायद ही कुछ कर पाएं। वीरेन्दर मलिक भारतीय महिला कुश्ती के मुख्य प्रशिक्षक कुलदीप सिंह के भाई हैं। भारतीय खेलों में खेलनहारों की मौज-मस्ती का यह पहला और आखिरी मामला नहीं है। विदेशों में होने वाली प्राय: हर बड़ी खेल प्रतियोगिता में खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों से कहीं अधिक खेल पदाधिकारियों का जाना दस्तूर बन चुका है। मोदी सरकार को इसे हल्के से नहीं लेना चाहिए क्योंकि यह देश की अस्मिता से जुड़ा मसला है। यदि राजीव मेहता और वीरेन्दर मलिक गुनहगार हैं तो इन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिले ताकि फिर कभी कोई खेलनहार ऐसा घिनौना दुस्साहस न दिखा सके। 

Sunday, 3 August 2014

ग्लासगो में स्वर्ण रियो ओलम्पिक के लिए प्रेरणादायी: सुशील कुमार

आने वाले दो वर्ष मेरे लिए बेहद अहम
नई दिल्ली। भारत के स्टार पहलवान सुशील कुमार ने कहा कि ग्लासगो में चल रहे राष्ट्रमंडल खेलों में जीता गया स्वर्ण पदक उनके लिए रियो डी जनेरियो में होने वाले आगामी ओलम्पिक के लिए प्रेरणादायी साबित होगा।
ओलम्पिक में व्यक्तिगत स्पर्धा में दो बार पदक जीतने वाले सुशील कुमार भारत के एकमात्र खिलाड़ी हैं और अब उनका लक्ष्य ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने पर है। सुशील ने बीजिंग ओलम्पिक-2008 में जहां कांस्य पदक हासिल किया, वहीं अगले ही लंदन ओलम्पिक-2012 में एक कदम आगे बढ़ते हुए उन्होंने रजत पदक पर कब्जा जमाया।
ओलम्पिक में सुशील ने यह दोनों पदक हालांकि 66 किलोग्राम भारवर्ग में जीते हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक संघ (आईओए) ने पिछले वर्ष कुश्ती में नए भारवर्ग लागू करते हुए इस भारवर्ग को हटा दिया। सुशील अब नए भारवर्ग (74 किलोग्राम) के तहत हिस्सा लेते हैं तथा ग्लासगो में जीता गया स्वर्ण पदक नए भारवर्ग के तहत दूसरा अंतरराष्ट्रीय पदक है। लेकिन इसे उनके पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित पदक के रूप में देखा जा रहा है।
सुशील ने पाकिस्तानी पहलवान कमर अब्बास को फाइनल मुकाबले में मात्र एक मिनट 47 सेकेंड में पटखनी देकर राष्ट्रमंडल खेल-2014 में स्वर्ण पदक हासिल किया। सुशील ने कहा, ‘मेरे लिए इस पदक की बहुत अहमियत है। यह 74 किलोग्राम भारवर्ग में मेरा दूसरा स्वर्ण पदक है तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहला बड़ा पदक भी। मैंने इसके लिए कड़ी मेहनत की थी और अब मैं इसे हासिल कर बेहद खुश हूं।’ सुशील ने कहा, ‘अब मैं रियो ओलम्पिक की तैयारियों में लगूंगा और यह स्वर्ण पदक मुझे वहां अच्छा करने की प्रेरणा देता रहेगा।’ सुशील इन दिनों बेहद शानदार फॉर्म में हैं और उनके हालिया पदक दिलाने वाले मुकाबले उनके लिए काफी आसान साबित हुए हैं।
सुशील से जब पूछा गया कि क्या उनके भारवर्ग में चुनौतियां मामूली ही हैं, तो उन्होंने कहा, ‘नहीं, ऐसा नहीं है। मेरी जीत मेरी तैयारियों की वजह से आसान लगती है। इस समय मैं सबसे शानदार फॉर्म में हूं। पिछले छह महीने तैयारियों के लिहाज से वास्तव में बेहद कठिन रहे। मैं इस पदक को जीतने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ था।’ सुशील ने हालांकि आने वाले दो वर्षों को अपने लिए बेहद अहम बताया। सुशील ने कहा,‘मुझे आने वाले दो वर्षों में भार उठाने की लगातार कठिन कोशिश करनी होगी। मैंने अभी-अभी चार किलोग्राम वजन अधिक उठाना शुरू किया है और अब मैं उसे आसानी से कर ले रहा हूं। नए भारवर्ग में लड़ना चुनौतीपूर्ण है, और अब मेरा अगला लक्ष्य रियो ओलम्पिक में स्वर्ण पदक हासिल करना है।’

Saturday, 2 August 2014

अरबों निसार, महिला हॉकी फिर भी बीमार

तीन साल में 88 विदेशी कोचों पर 2569.63 करोड़ खर्च
ग्लास्गो में भी हुई फजीहत, मिला पांचवां स्थान
आगरा। खिलाड़ियों के चयन में पक्षपात, हद दर्जे की लापरवाही और विदेशी प्रशिक्षकों की आरामतलबी ने भारतीय महिला हॉकी का सत्यानाश कर दिया है। दवा हो रही है, पर मर्ज बढ़ता ही जा रहा है। पराजय दर पराजय के बाद तो बीमारी लाइलाज सी हो गई है। ग्लास्गो जाने से पहले हॉकी इण्डिया और हमारे विदेशी प्रशिक्षक नील हावर्ड ने बड़े-बड़े दावे किए थे लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात रहा। हमारे 14 महिला-पुरुष पहलवानों ने जहां भारत की झोली में 13 पदक डाले वहीं अरबों का सैर-सपाटा करने वाली भारतीय महिला हॉकी टीम एक अदद पदक के लिए तरस गई। वह दिल्ली राष्ट्रमण्डल खेलों की ही तरह ग्लास्गो में पांचवें स्थान पर रही।
भारतीय महिला हॉकी टीम के शर्मनाक प्रदर्शन के बाद देश के द्रोणाचार्य और अर्जुन अवार्डी हॉकी इण्डिया से सवाल पूछ रहे हैं कि जब हॉकी में सुखद परिणाम नहीं मिल रहे तो आखिर विदेशी प्रशिक्षकों पर अरबों रुपया क्यों बर्बाद किया जा रहा है। यह सच है कि साई की कृपा से बीते तीन साल में 88 विदेशी प्रशिक्षकों पर भारत सरकार ने 2569.63 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। आर्थिक रूप से कमजोर भारत में पैसे की यह फिजूलखर्ची आखिर क्यों? भारत ने जब से हॉकी में विदेशी प्रशिक्षकों की सेवाएं ली हैं कोई बड़ा परिणाम सामने नहीं आया है। हर दौरे से पहले दावे-प्रतिदावे परवान चढ़ते हैं लेकिन पराजय के बाद बेशर्मी ओढ़ ली जाती है। राष्ट्रमण्डल खेलों में महिला हॉकी का यह पांचवां पड़ाव था। 1998 में पहली बार महिला हॉकी को राष्ट्रमण्डल खेलों में शामिल किया गया। पहले साल भारत को चौथा स्थान मिला तो 2002 में भारतीय बेटियों ने सोने के तमगों से अपने गले सजाए थे। 2006 में भारतीय बेटियां अपने खिताब की रक्षा नहीं कर सकीं फिर भी वे उपविजेता रहीं। 2006 के बाद भारतीय हॉकी में विदेशी प्रशिक्षकों की पैठ होते ही हॉकी बंटाढार हो गया।
यदाकदा कुछ कमजोर टीमों पर विजय को छोड़ दें तो ताकतवर टीमों के सामने भारतीय हॉकी हमेशा असहाय ही नजर आई। एक समय था जब भारतीय हॉकी की दुनिया भर में तूती बोलती थी। लोग हमसे डरते थे। आज स्थिति इतनी दयनीय है कि पिद्दी टीमें भी हमें आंख दिखा रही हैं। भारतीय हॉकी का सत्यानाश होने की कई वजह हैं। हॉकी इण्डिया जब से अस्तित्व में आई है भारतीय काबिल लोगों को सिरे से खारिज किया गया है। जीहुजूरी पसंद हॉकी इण्डिया के महासचिव नरिन्दर बत्रा ने एक-एक कर उन काबिलों को खदेड़ा जिनमें भारतीय हॉकी के उत्थान की ललक थी। हॉकी के पहले द्रोणाचार्य गुरुदयाल सिंह भंगू, द्रोणाचार्य बल्देव सिंह, द्रोणाचार्य राजिन्दर सिंह, अर्जुन अवॉर्डी रेखा भिड़े, अर्जुन अवॉर्डी प्रीतम सिवाच और अर्जुन अवॉर्डी पुष्पा श्रीवास्तव आदि में महिला हॉकी के उत्थान की न केवल ललक है बल्कि यह लोग हॉकी के लिए कुछ करना चाहते हैं। अफसोस, यह सभी नरिन्दर बत्रा की आंख की किरकिरी हैं। इनका गुनाह सिर्फ यह है कि ये नहीं चाहते कि बेटियों के हक पर निठल्ले मजा करें।
गोरे हॉकी का सत्यानाश कर देंगे: बल्देव सिंह
द्रोणाचार्य अवॉर्डी बल्देव सिंह ग्लास्गो में भारतीय महिला हॉकी टीम के प्रदर्शन बेहद नाखुश हैं। इनका कहना है कि गोरे भारतीय हॉकी का सत्यानाश कर देंगे। यह हॉकी का भला नहीं बल्कि पैसा कमाने आते हैं। हम लोग ग्रासरूट से हॉकी का भला सोचते हैं लेकिन गोरे खिलाड़ियों को आपस में लड़ाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। हॉकी इण्डिया को जब ये माजरा समझ में आएगा तब तक बड़ी देर हो चुकी होगी।
हॉकी की नहीं लोगों को कुर्सी की चिन्ता: राजिन्दर सिंह
द्रोणाचार्य अवॉर्डी और भारतीय पुरुष हॉकी के कोच रहे राजिन्दर सिंह कहते हैं कि आज हमारे पुश्तैनी खेल हॉकी की चिन्ता करने की बजाए लोग अपनी कुर्सी की चिन्ता कर रहे हैं। नाजायज प्रयोगधर्मिता से हॉकी का भला नहीं हो सकता। भारतीय हॉकी को विदेशी नहीं बल्कि देशी प्रशिक्षक ही सही दिशा दे सकते हैं।
जीहुजूरों की हॉकी इण्डिया: रेखा भिड़े
अर्जुन अवॉर्डी और महिला हॉकी टीम की चयन समिति में रह चुकी रेखा भिड़े का कहना है कि हॉकी इण्डिया को हॉकी की बेहतरी से कोई सरोकार नहीं है। नरिन्दर बत्रा जैसे लोग इसे कम्पनी की तरह चलाना चाहते हैं। जो भी खिलाड़ी की बेहतरी की बात करता है उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। दरअसल हॉकी इण्डिया के साथ वही काम कर सकता है, जोकि नरिन्दर बत्रा की जीहुजूरी करे।
ग्रासरूट पर ध्यान दिए बिना नहीं बनेगी बात: प्रीतम
अर्जुन अवॉर्डी और भारतीय महिला हॉकी की कोच रह चुकी प्रीतम सिवाच का कहना है कि यदि हॉकी का भला करना है तो सबसे पहले ग्रासरूट पर ध्यान दिया जाना चाहिए। देश में हॉकी की नर्सरियां खत्म हो चुकी हैं, उन्हें पुन: पल्लवित और पोषित करने की दरकार है। विदेशी प्रशिक्षक भारतीय हॉकी की दशा नहीं सुधार सकते। जब से गोरे आए हैं हॉकी का कितना भला हुआ है, यह सबके सामने है।
विदेशी प्रशिक्षक समस्या का समाधान नहीं: पुष्पा श्रीवास्तव
अर्जुन अवॉर्डी पुष्पा श्रीवास्तव का कहना है कि किसी प्रतियोगिता में जाने से पहले हमें मजबूत टीमों से दो-दो हाथ करने चाहिए न कि मलेशिया जैसी दोयमदर्जे की टीमों के साथ। पुष्पा का कहना है कि विदेशी प्रशिक्षक समस्या का समाधान नहीं हो सकते। इतिहास गवाह है जब हमारे अपने कोच थे परिणाम सुखद आते थे। आज जो भी हो रहा है, उसे देखकर दु:ख होता है। खिलाड़ियों को सुविधाएं मिलने की जगह विदेशी आरामतलबी कर रहे हैं।
घर का जोगी जोगना आन गांव का सिद्ध
घर का जोगी जोगना आन गांव का सिद्ध यह कहावत भारतीय खेलों पर सही साबित होती है। आज भारत में कोच पैदा करने के कई स्पोर्ट्स संस्थान कार्य कर रहे हैं बावजूद देशी खेलनहार विदेशी प्रशिक्षकों का मोह नहीं त्याग पा रहे। भारत जैसे गरीब देश ने खिलाड़ियों का पेट काटकर बीते तीन साल में 88 विदेशी कोचों पर 2569.63 करोड़ रुपये निसार कर दिए हैं। इसमें भारतीय हॉकी पर लगभग डेढ़ अरब रुपया खर्च होने का अनुमान है। भारत ने 2011-12 में 31 विदेशी प्रशिक्षकों पर 790.02 करोड़ रुपये, 2012-13 में 34 प्रशिक्षकों पर 717.73 करोड़ और 2013-14 में 23 प्रशिक्षकों पर 1061.88 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। 

Friday, 1 August 2014

ग्लास्गो में भारतीय पहलवानों का जांबाज प्रदर्शन

14 पहलवान, 13 पदक
भारतीय पहलवानों ने पांच स्वर्ण, छह रजत और दो कांस्य जीते, ज्योति रही खाली हाथ
आगरा। कहते हैं कि हौसला और कुछ कर गुजरने का जुनून हो तो कठिन से कठिन बाधा भी सहजता से लांघी जा सकती है। स्काटलैण्ड के ग्लासगो में यही कुछ साबित किया है हमारे जांबाज भारतीय पहलवानों ने। जब हमारे भारतीय पहलवानों का दल ग्लासगो गया था तब उम्मीद थी कि 14 सदस्यीय (सात पुरुष और सात महिला) दल 10 पदक जीत सकता है लेकिन जांबाज पहलवानों ने 13 पदक जीत दिखाए।
ग्लासगो में चल रहे 20वें राष्ट्रमण्डल खेलों में 213 भारतीय खिलाड़ियों ने शिरकत की जिनमें 14 पहलवान हैं। कुश्ती प्रतियोगिता का समापन हो चुका है। ग्लासगो में गये सातों पुरुष पहलवानों ने जहां कोई न कोई पदक अपनी झोली में डाला वहीं महिला वर्ग में ज्योति को छोड़कर सबने पदक जीते। डबल ओलम्पिक पदकधारी सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त और अमित कुमार ने पुरुष वर्ग तो वीनेश और बबिता फोगाट ने महिला वर्ग में स्वर्णिम चमक बिखेरी वहीं  राजीव तोमर, सत्यव्रत काडियान, बजरंग, ललिता सहरावत, गीतिका जाखड़ और साक्षी मलिक ने रजत पदक जीते जबकि पवन कुमार, नवजोत कौर को कांस्य पदक से संतोष करना पड़ा। इस तरह ग्लास्गो में भारतीय महिला और पुरुष पहलवानों ने पांच स्वर्ण, छह रजत और दो कांस्य पदक सहित कुल 13 पदक अपनी झोली में डाले। राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय पहलवानों की झोली में 19 पदक गिरे थे जिनमें 10 स्वर्ण, पांच रजत और चार कांस्य थे लेकिन इस बार स्पर्धा में ग्रीको रोमन को शामिल नहीं किया गया था। भारतीय पहलवानों की इस सफलता पर हर कोई खुश है। खुश होना लाजिमी भी है।
यह देश के लिए गौरव की बात: हनुमान
पहलवानों की इस सफलता पर राजस्थान के नामचीन पहलवान हनुमान गुर्जर ने खुशी जताते हुए कहा कि यह सिर्फ पहलवान बिरादरी के लिए ही नहीं बल्कि देश के लिए गौरव की बात है। ग्लासगो में हमारे पहलवानों की सफलता यह साबित करती है कि यदि मुल्क की सभी सरकारें कुश्ती और पहलवानों को बढ़ावा दें तो इस खेल में भारत दुनिया में सिरमौर हो सकता है। श्री गुर्जर कहते हैं कि आसमान छूती महंगाई में पहलवानी का शौक आसान बात नहीं है। इस खेल को न केवल प्रोत्साहन की जरूरत है बल्कि खिलाड़ियों को रोजगार मिले इसके भी प्रयास हमारी सरकारों को करना चाहिए। श्री गुर्जर ने पहलवानों की इस सफलता पर प्रशिक्षकों और खिलाड़ियों को बधाई देते हुए कहा कि उन्हें उम्मीद है कि हमारे पहलवान एशियाई खेलों में और शानदार प्रदर्शन करेंगे।
खिलाड़ी ही होना चाहिए खेलमंत्री: राहुल
ग्लासगो में भारतीय पहलवानों के शानदार प्रदर्शन पर राजस्थान के होनहार पहलवान और अमित दहिया के रूम पार्टनर रह चुके राहुल गदरी कहते हैं कि मैं कितना खुश हूं इसे शब्दों से बयां नहीं कर सकता। राहुल कहते हैं कि देश में कुश्ती के प्रोत्साहन की दरकार है। राजस्थान सरकार को भी इस खेल पर ध्यान देना चाहिए। राहुल का कहना है कि देश में यदि सम्पूर्ण खेलों का भला करना है तो कोई भी सरकार हो उसे किसी खिलाड़ी को ही खेल मंत्री बनाना चाहिए। राहुल ने कहा कि ग्लासगो में महिला प्रशिक्षक कृपाशंकर बिशनोई के साथ जो हुआ उसकी जितनी भी निन्दा की जाए वह कम है। राहुल का मानना है कि यदि कृपाशंकर जी महिला पहलवानों के साथ होते तो परिणाम और सुखद होते। प्रशिक्षक किसी भी खेल का हो उसका सम्मान होना चाहिए क्योंकि बिना गुरु के कोई खिलाड़ी सुखद परिणाम नहीं दे सकता।

सहारा की साख पर बट्टा

सहारा समूह के दिन अच्छे नहीं चल रहे। उसकी साख को जहां बट्टा लग चुका है वहीं सल्तनत की दीवारें भी एक-एक कर दरक रही हैं। सुब्रत राय सींखचों से बाहर आने का हर जतन कर रहे हैं लेकिन न्यायपालिका मोहलत देने के मूड में नहीं है। सहारा समूह ने जिस तरह अकूत धनार्जन किया उस पर संदेह था, पर अब तो साक्ष्य भी चीख-चीख कर बता रहे हैं कि निवेशक ठगे गए। सहारा प्रमुख सुब्रत राय ही नहीं, मुल्क में हजारों ऐसे धन कुबेर हैं जिन्होंने नॉन बैंकिंग संस्थाओं के जरिए गरीबों के पैसे से अपनी सल्तनत का विस्तार किया है। आज भारत ही नहीं, दुनिया भर में शैडो बैंकिंग का चलन बढ़ा है, इससे सबसे बड़ा खतरा विकासशील देशों को है। शैडो बैंकिंग का गोरखधंधा भविष्य में विध्वंसात्मक रूप ले सकता है। शैडो बैंकिंग का कामकाज वाणिज्यिक बैंकों से भिन्न है पर इसका भूमण्डलीय वित्तीय व्यवस्था में लगभग एक चौथाई हिस्सा है। आज से दस साल पहले शैडो बैंकों की कुल परिसम्पत्ति 260 खरब डॉलर थी वहीं अब 710 खरब डॉलर से भी अधिक हो गई है।
सुब्रतो राय का साम्राज्य भी शैडो बैंकिंग के सहारे ही विस्तारित हुआ। इंजीनियरिंग में डिप्लोमाधारी सुब्रत राय ने साढ़े तीन दशक में ही अपनी सल्तनत को न केवल बुलंदियों तक पहुंचाया बल्कि बॉलीवुड कलाकारों, क्रिकेट सितारों और देश-दुनिया की नामचीन शख्सियतों की सोहबत में भी आ गये। उत्तर प्रदेश के पिछड़े इलाके गोरखपुर से चलकर देश-विदेश की नामचीन शख्सियतों तक पहुंचना आसान बात नहीं थी, पर सुब्रत राय न केवल पहुंचे बल्कि उनके ही सहारे अपने रसूख को बढ़ाने में भी आशातीत सफलता हासिल की। सुब्रत राय की पहली पसंद तो वायुसेना थी, पर वे कारोबार की दुनिया में ऐसे घुसे कि फिर बाहर नहीं निकल पाए। वायुसेना में जाने का राय का सपना भले ही साकार न हुआ हो पर उन्होंने जो चाहा कमोबेश वह सब हासिल कर लिया। उनका सहारा इण्डिया परिवार की स्थापना का मकसद जो भी रहा हो पर उन्होंने इण्डिया नाम से गरीब परवरदिगारों को कहीं का नहीं छोड़ा। एक समय सहारा इण्डिया परिवार की अपनी विमान सेवा थी, अखबार थे, टीवी चैनल थे, होटल थे, देश का हर खिलाड़ी उनका था, मैसिडोनिया में डेयरी थी तो रियल इस्टेट का कहना ही क्या? सुब्रत राय के पास यह सब गाढ़ी कमाई से नहीं आया बल्कि शैडो बैंकिंग के गोरखधंधे ने ही उन्हें सातवें आसमान पर पहुंचाया। वर्षों से सुब्रत राय रिक्शा चालकों, किसानों तथा दफ्तरों में काम करने वाले चपरासियों को आश्वस्त करते रहे कि वे अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा उन्हें सौंप दें जिस पर उन्हें अच्छा खासा ब्याज मिलता रहेगा। लोग लालच में आ गए और इसी लालच को न केवल सहारा ने भुनाया बल्कि अपने आठ करोड़ कर्मचारियों की गाढ़ी कमाई के लगभग 11 अरब डालर भी डकार लिये।
सहारा प्रमुख मुश्किल में हैं, उनका कोई मददगार दूर-दूर तक नहीं दिख रहा। वर्ष 1978 में स्थापित सहारा इण्डिया के गोरखधंधे से लगभग छह लाख से अधिक एजेण्ट जुड़े हैं। यही एजेण्ट गांवों और छोटे शहरों में जाकर छोटी आमदनी वालों को सहारा से जुड़ने के फायदे बताकर उनको चूना लगाते रहे। दरअसल, कम आमदनी का व्यक्ति अपनी अल्पबचत को अतिशीघ्र बढ़ाने की हमेशा सोचता है। उसकी इसी सोच का फायदा न केवल सहारा समूह बल्कि मुल्क में विषबेल की तरह फैली अन्य चिटफण्ड कम्पनियों ने भी उठाया है। देश में 1970 के दशक के मध्य से नॉन बैंकिंग कम्पनियां नई-नई स्कीमें लाकर कम आयवर्ग को लुभाती और फंसाती चली आ रही हैं।
सहारा के झूठे साम्राज्य को मजबूत धरातल देने का काम करने वालों में कई सफेदपोश भी शामिल हैं। इन्हीं राजनीतिज्ञों के नफा-नुकसान की गणित से ही सहारा पर संकट के बादल छाये हैं। सहारा के खिलाफ शिकवा-शिकायतों के पटाक्षेप की शुरुआत वर्ष 2008 से हुई। भारतीय रिजर्व बैंक ने सख्ती बरतते हुए आदेश दिये कि जमाकर्ताओं की कोई साढ़े चार अरब डालर की रकम अतिशीघ्र वापस की जाए। रिजर्व बैंक के आदेश के बाद सहारा समूह ने पैंतरा बदलते हुए वर्ष 2009 में ग्रामीण जनता को परिवर्तनीय बाण्ड बेचना शुरू कर दिए। सहारा प्रमुख को गुमान था कि रिजर्व बैंक उनके कारोबार में कोई दखल नहीं दे सकता, उनकी इसी सोच पर पानी फेरते हुए वर्ष 2011 में सेबी ने बाण्ड में पैसे लगाने वालों को पांच अरब डालर की रकम अतिशीघ्र लौटाने का आदेश दे सुब्रत के पैरों तले से जमीन खिसका दी। रिजर्व बैंक का दबाव पड़ते ही सहारा ने न केवल अपना कारोबार दूसरी संस्था के हवाले कर दिया बल्कि ऐलान किया कि भारतीय रिजर्व बैंक के पास इस संस्था के कार्य की छानबीन करने का कोई अधिकार नहीं है। कहते हैं कि कानून के लम्बे हाथ होते हैं अगर वह चाह ले तो कुछ भी असम्भव नहीं। सहारा प्रमुख के साथ भी यही हुआ। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती का ही असर है कि आज सुब्रत राय जेल में हैं।
सहारा प्रमुख कोर्ट को  बार-बार भरोसा दे रहे हैं कि वे अपनी सम्पत्ति बेचकर लोगों का पैसा वापस करेंगे पर कोर्ट को उनकी किसी बात पर भरोसा नहीं रहा। दरअसल यह सब सहारा की साख पर लगे बट्टे के चलते ही हो रहा है। सुब्रत की भी समझ में नहीं आ रहा कि आखिर वे गरीबों का पैसा लौटाएं तो कैसे? आज सहारा के बाण्डों में पैसा लगाने वाले मुश्किल में हैं। दरअसल राजनेताओं के पैसे भी फर्जी जमाकर्ताओं के नाम से लगाए गए हैं। वर्ष 2012 में जब जमाकर्ताओं की पड़ताल हुई तब कहीं सारे गड़बड़झाले का पता चला। सहारा प्रमुख का कहना है कि वह अपनी 36,631 एकड़ जमीन और न्यूयार्क और लंदन के होटलों को बेचकर निवेशकों का पाई-पाई चुकता करेंगे, पर लोगों का भरोसा खो चुके सुब्रत राय पर अब कोई यकीन करने को तैयार नहीं है। सुब्रत राय कहते हैं कि उन्होंने कोई गलत काम नहीं किया, पर वह यह क्यों नहीं बताते कि यह अकूत दौलत उनके पास आई भी तो कैसे? वर्ष 2013 में शारदा चिटफण्ड और उसके पहले पियरलेस का दिवाला निकल जाने के बाद कई लोगों ने खुदकुशी कर ली थी। यह अच्छी बात है कि अभी तक सहारा के खिलाफ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। सहारा प्रमुख के खिलाफ कार्रवाई न हो इसके लिए पर्दे के पीछे सारे प्रयास हुए पर रिजर्व बैंक, सेबी और सुप्रीम कोर्ट ने सख्त कदम उठाकर यह संदेश दिया कि कानून से ऊपर कोई नहीं है। अब सरकार का फर्ज बनता है कि सहारा और शारदा सहित हजारों चिटफण्ड कम्पनियों की ठगी का शिकार हो चुके लोगों को न केवल उनका पैसा वापस मिले बल्कि मुल्क में वाणिज्यिक बैंकों का दायरा भी बढ़े ताकि अधिकाधिक लोगों को बैंकिंग की सुविधाएं उपलब्ध हो सकें। देखा जाए तो अभी तक एक तिहाई से भी कम परिवारों की बचत राशि ही बैंकों में जमा होती है।