देश की आवाम को आजादी की सांस लिए साढ़े छह दशक से अधिक समय हो चुका है पर जय जवान, जय किसान, सबको रोटी, कपड़ा और मकान रूपी सरकारी फलसफे आज भी करोड़ों लोगों से बहुत दूर हैं। लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। राजनीतिक दल हमेशा की तरह फिर वायदों की झमाझम बारिश कर रहे हैं। चुनावी वैतरणी पार करने की होड़ और प्रधानमंत्री पद की लालसा में अधिकांश दल किसी न किसी जाति की अलम्बरदारी के बूते मुल्क की सल्तनत पर काबिज होने की पृष्ठभूमि तैयार करने में जुटे हुए हैं। सभी दलों के अपने-अपने वोट बैंक हैं लिहाजा दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों को लुभाने की अपनी-अपनी तरह से कोशिशें जारी हैं। लोकतंत्र के सोलहवें महायज्ञ में अपने मतों की आहुति से पहले आहत-मर्माहत आम आवाम दुविधा में है, उसे फिर ठगे जाने का डर सता रहा है। मुल्क का युवा वर्ग भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर दिख रहा है तो दूसरी तरफ आधी आबादी जाति-धर्म से परे महंगाई से मुंह फुलाए बैठी है। होम मिनिस्टरों का यह गुस्सा किस पर फूटेगा यह तो समय बताएगा पर राजनीतिज्ञ अपने दोनों हाथों से खैरातों की खुशफहमी लुटाने का कोई मौका जाया नहीं कर रहे। इसे मौकापरस्ती कहें या भारतीय लोकतंत्र की विडम्बना कि राजनीतिज्ञों का अपनी वाणी पर भी संयम नहीं रहा।
यह सच है कि मुल्क की अर्थव्यवस्था संकट में है। महंगाई सुरसा के मुंह की तरह आम आदमी की खुशियों को निगल जाना चाहती है बावजूद सरकारें अपनी उपलब्धियों का गुणगान करने में इस कदर मस्त हैं कि उन्हें गरीब परवरदिगारों की मुश्किलें दिखाई ही नहीं दे रहीं। कांग्रेस इस भरोसे में जी रही है कि खाद्य सुरक्षा, मनरेगा, गैर सब्सिडी और कैश फॉर सब्सिडी आमजन के गमों को भुला देगी, पर कैसे? खैरातों के इस दौर पर हमारी शीर्ष अदालत की चिन्ता बिल्कुल जायज है। आजादी के बाद से ही राजनीतिक दलों ने सत्ता की खातिर आम आवाम को गहरे जख्म दिए हैं। गरीबों के यही जख्म अब नासूर बन चुके हैं। किसी काम को कर सकने की सामर्थ्य और आर्थिक क्षमता का आकलन किए बिना लोकलुभावन घोषणाएं राजनीतिज्ञों का शगल बन गई हैं। चुनाव पूर्व सत्तासीन केन्द्र ही नहीं राज्य सरकारें भी अपनी जर्जर अर्थव्यवस्था से बेखबर ऐसी घोषणाएं कर रही हैं जिन्हें पूरा कर पाना भविष्य में असम्भव होगा।
आगत ही नहीं विगत चुनावों में भी विकास पर खर्च होने वाला अकूत पैसा चुनावी चकल्लस में खर्च होता रहा है। राजनीतिक दलों के इस फरेबी कृत्य पर शीर्ष अदालत ही नहीं चुनाव आयोग की मुस्तैदी काबिलेगौर है, पर पहले भी आयोग राजनीतिक दलों को घोषणा-पत्र के लिए दिशा-निर्देश जारी करता रहा है ताकि वे अपने वायदों के व्यावहारिक पहलुओं का आकलन कर ही कोई घोषणा करें। अफसोस, चुनाव आयोग की इस चिन्ता को राजनीतिक दलों ने कभी गम्भीरता से नहीं लिया। सरकारों ने न कभी आर्थिक विकास को गति दी, न सुशासन स्थापित किया और न ही आर्थिक संसाधनों के विकास की पहल होती दिखी। सच्चाई यह है कि देश में ऐसा कोई नियम-कानून नहीं है जो राजनीतिक दलों को बाध्य कर सके कि वे कैसी घोषणाएं कर सकते हैं और कैसी नहीं। जब तक इसको लेकर कोई स्थायी व्यवस्था हमारी शीर्ष अदालत और चुनाव आयोग नहीं देते, तब तक राजनीतिज्ञों की हिमाकत पर अंकुश नहीं लगेगा। आज शायद ही कोई दल या राजनेता हो जो वायदों की नैतिकता की कसौटी पर खरा उतरता हो। अब तो राजनीतिज्ञों की नजर में वायदे हैं वायदों का क्या, रूपी जुमला आम हो गया है। लाखों-करोड़ों के कर्ज में डूबी उत्तर प्रदेश सरकार दिल्ली की सल्तनत की खातिर लैपटॉप और बेरोजगारी भत्ता सहित अनगिनत सौगातें बांटने में लगी है तो दूसरे सूबे के राजनीतिक दल भूखे पेट भरने की जगह उनसे दैनिक उपयोग की वस्तुएं देने का वायदा कर रहे हैं। यह सब किसी भी सरकार के लिए नामुमकिन है।
हर चुनाव से पहले खैरातें बंटना चलन सा हो गया है लेकिन कोई भी दल उनके अनुपालन के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने पर विचार नहीं करता। यही वजह है कि सल्तनत मिलने के बाद सरकारों की वादाखिलाफी के विरोध में सड़कों पर नंगनाच होता है। वास्तविकता तो यह है कि सरकारों की लोकलुभावन नीतियां ही जनता के लिए मुसीबत का सबब बन रही हैं। पिछले तीन साल में खाद्य पदार्थों की कीमतें 48 फीसदी बढ़ चुकी हैं वहीं हमारा धरती पुत्र कर्ज के बोझ तले दब गया है। देश की जीडीपी में कृषि का योगदान बराबर गिरता जा रहा है। खेती-किसानी दिन-प्रतिदिन घाटे का सौदा होती जा रही है, इसलिए 60 प्रतिशत से अधिक किसान दो जून की रोटी के लिए मनरेगा पर निर्भर हैं। कृषि की बदहाली का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2007 से 2012 के बीच करीब 3.2 करोड़ किसानों ने खेती से तौबा कर ली है और पेट भरने के लिए शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं। जो लोग कृषि छोड़ रहे हैं, अपना घर-बार छोड़ रहे हैं और बेहतर जीवन के लिए शहर जा रहे हैं वे वहां मजदूरी करने या फिर रिक्शा खींचने को मजबूर हैं। आजादी के बाद से ही हमारे राजनीतिज्ञ झूठे वायदों के सहारे आम आवाम को खून के आंसू रुला रहे हैं। यही वजह है कि आज का राजनीतिज्ञ आवाम की नजर में औरंगजेब, नैपोलियन बोनापार्ट और हिटलर की ही तरह हेयदृष्टि से देखा जाने लगा है। अपवाद गिने नहीं जाते। अशोक सम्राट युद्ध में लाशों के ढेर के कारण अशोक महान नहीं कहलाये वरन उनका लाशों के प्रति प्रायश्चित और लोगों के प्रति सहानुभूति ने उन्हें महान बनाया। यह कुदरत का नियम है जो हंसाता है वही हंसी का लाभ भी उठाता है और जो समाज को रुलाता है वह देर-सवेर ही सही, रोता भी है।
यह सच है कि मुल्क की अर्थव्यवस्था संकट में है। महंगाई सुरसा के मुंह की तरह आम आदमी की खुशियों को निगल जाना चाहती है बावजूद सरकारें अपनी उपलब्धियों का गुणगान करने में इस कदर मस्त हैं कि उन्हें गरीब परवरदिगारों की मुश्किलें दिखाई ही नहीं दे रहीं। कांग्रेस इस भरोसे में जी रही है कि खाद्य सुरक्षा, मनरेगा, गैर सब्सिडी और कैश फॉर सब्सिडी आमजन के गमों को भुला देगी, पर कैसे? खैरातों के इस दौर पर हमारी शीर्ष अदालत की चिन्ता बिल्कुल जायज है। आजादी के बाद से ही राजनीतिक दलों ने सत्ता की खातिर आम आवाम को गहरे जख्म दिए हैं। गरीबों के यही जख्म अब नासूर बन चुके हैं। किसी काम को कर सकने की सामर्थ्य और आर्थिक क्षमता का आकलन किए बिना लोकलुभावन घोषणाएं राजनीतिज्ञों का शगल बन गई हैं। चुनाव पूर्व सत्तासीन केन्द्र ही नहीं राज्य सरकारें भी अपनी जर्जर अर्थव्यवस्था से बेखबर ऐसी घोषणाएं कर रही हैं जिन्हें पूरा कर पाना भविष्य में असम्भव होगा।
आगत ही नहीं विगत चुनावों में भी विकास पर खर्च होने वाला अकूत पैसा चुनावी चकल्लस में खर्च होता रहा है। राजनीतिक दलों के इस फरेबी कृत्य पर शीर्ष अदालत ही नहीं चुनाव आयोग की मुस्तैदी काबिलेगौर है, पर पहले भी आयोग राजनीतिक दलों को घोषणा-पत्र के लिए दिशा-निर्देश जारी करता रहा है ताकि वे अपने वायदों के व्यावहारिक पहलुओं का आकलन कर ही कोई घोषणा करें। अफसोस, चुनाव आयोग की इस चिन्ता को राजनीतिक दलों ने कभी गम्भीरता से नहीं लिया। सरकारों ने न कभी आर्थिक विकास को गति दी, न सुशासन स्थापित किया और न ही आर्थिक संसाधनों के विकास की पहल होती दिखी। सच्चाई यह है कि देश में ऐसा कोई नियम-कानून नहीं है जो राजनीतिक दलों को बाध्य कर सके कि वे कैसी घोषणाएं कर सकते हैं और कैसी नहीं। जब तक इसको लेकर कोई स्थायी व्यवस्था हमारी शीर्ष अदालत और चुनाव आयोग नहीं देते, तब तक राजनीतिज्ञों की हिमाकत पर अंकुश नहीं लगेगा। आज शायद ही कोई दल या राजनेता हो जो वायदों की नैतिकता की कसौटी पर खरा उतरता हो। अब तो राजनीतिज्ञों की नजर में वायदे हैं वायदों का क्या, रूपी जुमला आम हो गया है। लाखों-करोड़ों के कर्ज में डूबी उत्तर प्रदेश सरकार दिल्ली की सल्तनत की खातिर लैपटॉप और बेरोजगारी भत्ता सहित अनगिनत सौगातें बांटने में लगी है तो दूसरे सूबे के राजनीतिक दल भूखे पेट भरने की जगह उनसे दैनिक उपयोग की वस्तुएं देने का वायदा कर रहे हैं। यह सब किसी भी सरकार के लिए नामुमकिन है।
हर चुनाव से पहले खैरातें बंटना चलन सा हो गया है लेकिन कोई भी दल उनके अनुपालन के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने पर विचार नहीं करता। यही वजह है कि सल्तनत मिलने के बाद सरकारों की वादाखिलाफी के विरोध में सड़कों पर नंगनाच होता है। वास्तविकता तो यह है कि सरकारों की लोकलुभावन नीतियां ही जनता के लिए मुसीबत का सबब बन रही हैं। पिछले तीन साल में खाद्य पदार्थों की कीमतें 48 फीसदी बढ़ चुकी हैं वहीं हमारा धरती पुत्र कर्ज के बोझ तले दब गया है। देश की जीडीपी में कृषि का योगदान बराबर गिरता जा रहा है। खेती-किसानी दिन-प्रतिदिन घाटे का सौदा होती जा रही है, इसलिए 60 प्रतिशत से अधिक किसान दो जून की रोटी के लिए मनरेगा पर निर्भर हैं। कृषि की बदहाली का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2007 से 2012 के बीच करीब 3.2 करोड़ किसानों ने खेती से तौबा कर ली है और पेट भरने के लिए शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं। जो लोग कृषि छोड़ रहे हैं, अपना घर-बार छोड़ रहे हैं और बेहतर जीवन के लिए शहर जा रहे हैं वे वहां मजदूरी करने या फिर रिक्शा खींचने को मजबूर हैं। आजादी के बाद से ही हमारे राजनीतिज्ञ झूठे वायदों के सहारे आम आवाम को खून के आंसू रुला रहे हैं। यही वजह है कि आज का राजनीतिज्ञ आवाम की नजर में औरंगजेब, नैपोलियन बोनापार्ट और हिटलर की ही तरह हेयदृष्टि से देखा जाने लगा है। अपवाद गिने नहीं जाते। अशोक सम्राट युद्ध में लाशों के ढेर के कारण अशोक महान नहीं कहलाये वरन उनका लाशों के प्रति प्रायश्चित और लोगों के प्रति सहानुभूति ने उन्हें महान बनाया। यह कुदरत का नियम है जो हंसाता है वही हंसी का लाभ भी उठाता है और जो समाज को रुलाता है वह देर-सवेर ही सही, रोता भी है।