Thursday 23 July 2015

आखिर इस मर्ज की दवा क्या है?

भारतीय शिक्षा की सबसे कमजोर कड़ी कही जाती है माध्यमिक शिक्षा। यह हास्यास्पद नहीं दुखद है और चिंताजनक भी क्योंकि उच्च शिक्षा की ज्यादातर समस्यायें सीधे तौर पर माध्यमिक शिक्षा से जुड़ी दिखाई देती हैं। भारत एक तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था है साथ ही मानव संसाधन की अपार सम्भावनाओं से युक्त भी। इसी को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों जब कहा कि अब देश को आईआईटी नहीं आईटीआई पेशेवरों की जरूरत है तो जाहिर तौर पर माध्यमिक शिक्षा पर एक बड़ी बहस शुरू होनी ही थी।
 हमारे शिक्षाविदों को दशकों से यही प्रश्न परेशान करता रहा है कि आखिर क्यों हमारी माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्य केवल विद्यार्थियों को एक अच्छे कॉलेज के लिए तैयार करना है? क्यों स्कूल के तुरन्त बाद एक अच्छे, सम्मानजनक रोजगार ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ जैसा है? क्यों सभी जगह से विफल होने के बाद युवा वर्ग स्कूल-शिक्षण का व्यवसाय अपनाता है? और क्यों हमारे विद्यालय मात्र परीक्षा बोर्डों की श्रेष्ठता को अपनी पहचान मानते हैं? निश्चित तौर पर यह प्रश्न इंगित करता है कि आजादी से लेकर अब तक हमारी माध्यमिक शिक्षा नहीं बदली है। वर्तमान समय में इसमें एक आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है क्योंकि यह अभी भी विकराल समस्याओं से जूझ रही है। नीरस पाठ्यक्रम, महंगी फीस, बोझिल वातावरण, बस्ते का अनावश्यक बोझ, छुट्टियों की बड़ी संख्या और इस सबके ऊपर अवैज्ञानिक एवं अमनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियां माध्यमिक शिक्षा के सुधार की दिशा में रोड़ा हैं। तिस पर रही सही कसर शिक्षकों की उदासीनता, ट्यूशन की प्रवृत्ति और धनलोलुपता पूरी कर देती है। शिक्षक दिवस पर मिलने वाले कीमती उपहारों का ढेर शिक्षक की वह सालाना वेतन वृद्धि है जिसे प्राप्त करना वह न केवल अपना अधिकार समझता है बल्कि उसके लिए वह किसी भी सीमा तक गिर भी सकता है। सच तो यह है कि शिक्षकों के नैतिक पतन के लिए स्कूलों की यह उपहार संस्कृति बड़ी ही घातक है। वेतन के साथ मिलने वाला यह बोनस युवाओं को आकर्षित करता है तिस पर वर्ष भर में होने वाले लगभग 180 अवकाश इस व्यवसाय को ‘गुड़ की भेली’ बना देता है। जब ऐसी व्यावसायिक मानसिकता वाले शिक्षक माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में आते हैं तो वे येन-केन-प्रकारेण धनार्जन के तरीके ही सोचते हैं, शिक्षा का उन्नयन नहीं।  ऊबाऊ  एवं निरुद्देश्य पाठ्यक्रम मात्र विद्यार्थियों को किसी भी प्रकार से पास होने के लिए प्रेरित करता है। पाठ्यक्रम में क्रियात्मकता का अभाव न तो विद्यार्थियों की रुचि जागृत कर पाता है और न ही उसके मस्तिष्क पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ पाता है। प्रधानमंत्री ने जब आईटीआई की आवश्यकता पर बल दिया तो सम्पूर्ण जगत में खलबली मच गयी। स्पष्ट है कि आईआईटी पेशेवर तैयार करने में संसाधन तो देश के लगते हैं, पैसा भी बहुत खर्च होता है, किन्तु लाभ विदेशों को मिलता है क्योंकि अच्छे इंजीनियर विदेशों की राह पकड़ते हैं। इससे हमारे देश के उद्योग-धन्धों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। स्कूली शिक्षण से जुड़ी इन समस्याओं को दूर करने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि हम माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य वर्तमान आवश्यकताओं को देखकर निर्धारित करें, शिक्षण विधियों को सहज, रोचक और मनोवैज्ञानिक बनायें। इस कठिन कार्य को करने के लिए हमें ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता है जो माध्यमिक शिक्षा में अच्छे वेतन के बदले बेहतरीन सेवायें देने को तत्पर हों क्योंकि सरकारी स्कूलों में तो माध्यमिक शिक्षा की तस्वीर बदरंग ही नहीं बल्कि भयानक भी है। ऐसे में शिक्षकों की ‘12 माह का वेतन 6 महीने काम’ वाली मानसिकता को बदलना फौरी तौर पर जरूरी हो गया है। केन्द्र एवं राज्य सरकारों को भी अवकाशों की संख्या घटानी होगी ताकि विद्यालयों में शिक्षा का वातावरण बने। वोटों की राजनीति के लिए स्कूलों में अनावश्यक अवकाश हमारी आगामी पीढ़ियों को न केवल अकर्मण्य और आलसी बना रहे हैं बल्कि उन्हें एक अंधेरे भविष्य की ओर भी धकेल रहे हैं, यह तथ्य अभिभावकों को भी समझना होगा। आगरा शहर के एक नामी स्कूल के प्रधानाचार्य फादर पॉल थानिकल के नाम से भले ही देश के अधिकांश शिक्षाविद् अनभिज्ञ हों लेकिन अपने स्तर पर वे माध्यमिक शिक्षा में सकारात्मक परिवर्तन करने का प्रयास कर रहे हैं। अनावश्यक छुट्टियों में भी विद्यालय में पढ़ाई करवाने के कारण वे भले ही प्रशासन और कट्टरपंथियों की आलोचना झेल रहे हों किन्तु माध्यमिक शिक्षा में छाये अंधकार के लिए वे सतत निष्कम्प जलते दीप हैं। दम तोड़ती माध्यमिक शिक्षा को ऐसे ही कुछ साहसी प्रधानाचार्यों की आवश्यकता है तब कहीं जाकर कलाम का ‘मिशन 2020’ और मोदी के सपनों का भारत साकार होगा और शायद माध्यमिक शिक्षा पर सबसे कमजोर कड़ी होने का अपमानजनक तमगा भी हट सकेगा।
           

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