Wednesday 22 July 2015

हॉकी का कबाड़ा

हॉकी इण्डिया (एचआई) के पदाधिकारियों की नासमझी और अहंकार के कारण रियो ओलम्पिक की तैयारी में जुटी भारतीय टीम की नैया मझधार में फंस गई है। एचआई अध्यक्ष नरिंदर बत्रा से मतभेद के कारण कोच पॉल वान एस ने चुपचाप पद छोड़ दिया। रियो के लिए रवानगी में महज एक बरस बचा है और नए हॉकी प्रशिक्षक की खोज शुरू हो गई है। नए कोच का अर्थ है नए ढंग से प्रशिक्षण, नए स्टाइल से तालमेल बिठाना। पक चुके प्लेयर्स ही नहीं, टीम के युवा सदस्यों के लिए भी यह कठिन है। ऐसे में रियो में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
क्रिकेट से जुड़े घोटालों के शोर में अक्सर अन्य खेलों में चल रही उठा-पटक की अनदेखी हो जाती है। हॉकी को ही लें। पिछले पांच वर्षों में भारतीय टीम के चार कोच बदले जा चुके हैं। कोई न कोई कारण बताकर औसतन एक वर्ष के भीतर कोच की छुट्टी कर दी जाती है। पॉल वान एस तो मात्र पांच माह के भीतर बाहर हो गए। केपीएस गिल ने 17 वर्ष तक भारतीय हॉकी महासंघ पर एकछत्र राज किया, तब भी 14 कोच बदले गए थे। इससे टीम का प्रदर्शन बुरी तरह प्रभावित हुआ था। लम्बे झगड़े के बाद जब 2010 में हॉकी इण्डिया का जन्म हुआ तो खेलप्रेमियों को लगा था कि अब हॉकी के दिन फिर जाएंगे, लेकिन अभी तो इस आशा पर पानी फिरता लग रहा है।
पिछले साल दक्षिण कोरिया के इंचियोन में भारत ने एशियाड हॉकी का गोल्ड मेडल जीत रियो ओलम्पिक में जगह पक्की की थी। देश को 16 वर्ष बाद एशियाड में हॉकी का ताज मिला था। फाइनल में पाकिस्तान पर मिली जीत केवल जोश और जुनून नहीं, अच्छी रणनीति, बेहतर तकनीक और शानदार तालमेल का परिणाम थी। इस विजय से हमें क्वॉलीफाइंग मैच खेलने की जलालत से मुक्ति मिल गई। टीम के पास ओलम्पिक की तैयारी के लिए पूरे दो बरस का समय था, मगर हॉकी इण्डिया के आकाओं ने विजेता टीम के कोच टेरी वॉल्श को हटाकर एक साल यूं ही गंवा दिया। फिर पॉल वान को कोच नियुक्त किया गया लेकिन उनके कार्यकाल में टीम की कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं रही। हमने अजलान शाह प्रतियोगिता में तीसरा और हॉकी वर्ल्ड लीग में चौथा स्थान पाया। हॉकी वर्ल्ड लीग के सेमीफाइनल में वान ने छह खिलाड़ियों का स्थान बदल दिया और हम हार गए।
कभी भारत में हॉकी खिलाड़ी ही असली स्पोर्ट्स स्टार थे। उन्हीं के कारण आज भी हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। जिस तरह फिलहाल फुटबॉल की दुनिया पर यूरोप के देश हावी हैं, लेकिन इस खेल की कलात्मक शैली का जनक लैटिन अमेरिकी देशों को ही माना जाता है, उसी तरह तमाम बदहाली के बावजूद कलात्मक हॉकी का गढ़ भारत ही है। इसी कारण दुनिया के नामी कोच बेझिझक हमारे यहां खिंचे चले आते हैं। पैसा उनके आने का दूसरा कारण है। जितना वेतन भारत के हॉकी कोच पाते हैं, उतना अन्य कोई देश नहीं देता। पिछले पांच वर्ष में आने वाले हर विदेशी कोच को भारतीय खेल प्राधिकरण ने सात से दस लाख रुपये प्रतिमाह दिए हैं। रकम बड़ी है, लेकिन इसके अनुपात में परिणाम नहीं मिले। सन 2013 में हॉकी इण्डिया लीग शुरू हुई और इस खेल से जुड़े हर शख्स की किस्मत बदल गई। लीग में खेलने वाले अच्छे खिलाड़ी आज 50-50 लाख रुपये के अनुबंध पर हैं। कोच और अन्य स्टाफ की भी पौ-बारह हो गई है। हॉकी में पैसा तो आ गया है पर भारत अपनी खोई प्रतिष्ठा वापस पाने से अभी कोसों दूर है। इसका सबसे बड़ा कारण है खराब प्रबंधन। अन्य खेल संगठनों की तरह हॉकी इण्डिया के पदाधिकारी भी निरंकुश हैं। वे खेल को नहीं, अपने हित और अहंकार को प्राथमिकता देते हैं। निरंतर कोच बदलने का मूल कारण भी यही है। मजे की बात यह है कि कोच नियुक्त करने का काम भारतीय खेल प्राधिकरण का है। उन्हें वेतन भी प्राधिकरण देता है। लेकिन प्राधिकरण को यह नहीं पता होता कि कोई कोच कब हटा दिया गया और फैसला किसके आदेश पर हुआ। पॉल वान के केस से यह कड़वा सच एक बार फिर सामने आया है। ऐसे में सरकार को हाथ पर हाथ रखकर बैठने के बजाय सच का पता कर दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई करनी चाहिए। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि यदि किसी अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेण्ट में भारत की टीम हारती है तो खिलाड़ियों और कोच के साथ-साथ संबंधित खेल संघ के पदाधिकारियों के खिलाफ भी कार्रवाई हो।
तय हो जवाबदेही
भारत में खेल संगठनों की जवाबदेही तय करने और उनके निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने स्पोर्ट्स डवलपमेंट बिल पारित कराने का विफल प्रयास किया था। अन्य बातों के अलावा इस बिल में खेल संगठनों के पदाधिकारियों की आयु सीमा और कार्यकाल भी तय कर दिया गया था। आज देश के अनेक खेल संगठन घोटालों की चपेट में हैं, जिसका नुकसान खेलों को हो रहा है। हॉकी कोच विवाद एकदम ताजा उदाहरण है। यदि मोदी सरकार स्पोर्ट्स डवलपमेंट बिल फिर से लेकर आए तो खेल और खिलाड़ियों का कुछ न कुछ कल्याण तो जरूर होगा।
-धर्मेन्द्र पाल सिंह

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