Tuesday, 24 January 2017

तेजस्वी के तेज को सलाम



पोलियोग्रस्त युवा ने जीती हारी हुई जिन्दगी
करो योग, रहो निरोग
         जिन्दगी की असली उड़ान बाकी है, जिन्दगी के कई इम्तिहान अभी बाकी हैं,
         अभी तो नापी है मुट्ठी भर जमीं हमनें, अभी तो सारा आसमान बाकी है।
दिल्ली निवासी युवा दिव्यांग तेजस्वी शर्मा ने अपने हौसले और जुनून से न केवल नये आयाम स्थापित किए बल्कि अपने व्यक्तित्व को एक अलग पहचान दी। तेजस्वी पुरातन भारतीय योग में माहिर हैं और वे आसानी से ऐसे कठिन से कठिन योगासन कर लेते हैं जिन्हें करना किसी के लिए भी मुश्किल है। चौंकाने वाली बात तो यह है कि आज का यह युवा मात्र नौ माह की उम्र में ही पोलियो की चपेट में आ गया था तथा चलने-फिरने में भी असमर्थ हो गया। इस स्थिति के बावजूद तेजस्वी और उनके माता-पिता ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने अपने बेटे को मात्र एक वर्ष की आयु से ही योग का प्रशिक्षण दिलाना प्रारम्भ करा दिया था। कई वर्षों के अथक प्रयासों के बाद तेजस्वी ने स्वयं को योग के क्षेत्र में इतना निपुण कर लिया कि 69 प्रतिशत विकलांगता के बावजूद वे कठिन योगासनों को बड़ी सहजता के साथ कर लेते हैं। इस युवा को यूनिक वर्ल्ड रिकार्ड्स द्वारा मोस्ट फ्लेक्सिबल हैंडीकैप्ड योग चैम्पियन-2015 के खिताब से भी नवाजा जा चुका है। तेजस्वी वर्ष 2011 में दिल्ली में आयोजित वर्ल्ड कप योग प्रतियोगिता में सिल्वर मैडल, वर्ष 2012 में हांगकांग में आयोजित योग प्रतियागिता में गोल्ड मैडल और 2014 में चीन में आयोजित हुई चौथी इंटरनेशनल योग चैम्पियनशिप में सिल्वर मैडल जीत चुके हैं। सच कहें तो यह अभी तेजस्वी की शुरुआत है।
दिल्ली के विश्वप्रसिद्ध जेएनयू से जर्मन भाषा में आनर्स करने वाले तेजस्वी योग के अपने सफर के बारे में बताते हैं कि मैं अभी सिर्फ नौ महीने का ही था और घुटनों के बल चलना ही सीख रहा था कि मुझे पोलियो हो गया। मेरे माता-पिता मुझे डाक्टर के पास लेकर गए जिन्होंने मेरे अपने पैरों पर खड़े होकर चलने की सम्भावनाओं से इंकार करते हुए मुझे दिल्ली किसी अच्छे अस्पताल में दिखाने की सलाह दी। मेरे पिता मुझे दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान लाए जहां मेरे पैरों का आपरेशन किया गया। आपरेशन के बाद मेरे पैरों में रक्त का संचार सुचारु बनाए रखने के लिये पिताजी ने मात्र एक साल की आयु में ही योग का प्रशिक्षण दिलवाना प्रारम्भ कर दिया। बस एक बार योग सीखना प्रारम्भ करने के बाद सारी चीजें मेरे पक्ष में होनी शुरू हो गईं और बहुत छोटी उम्र में योगासनों का अभ्यास प्रारम्भ करने के चलते मेरा शरीर बहुत लचीला होता गया। तेजस्वी बताते हैं कि मात्र पांच वर्ष की आयु का होते-होते ही मैं प्रतिदिन 60 से 70 योगासनों का अभ्यास करने लगा। तेजस्वी बताते हैं कि पांच वर्ष का होने के बाद मेरे चाचाजी मुझे पढ़ाई के लिये दिल्ली ले आए और उन्होंने मेरा दाखिला नोएडा सेक्टर 82 स्थित महर्षि विद्या मंदिर में करवा दिया। इस स्कूल में दाखिला लेने के बाद मैं योग में और अधिक पारंगत होने में सफल रहा और इसके अलावा मैंने यहां ध्यान लगाना भी सीखा। इस प्रकार तेजस्वी स्कूल में दाखिला लेने के बाद स्वयं को योग के क्षेत्र में और अधिक पारंगत करने में सफल रहे और साथ ही साथ वे अपनी पढ़ाई भी करते रहे।
वैसे तो तेजस्वी योग की अपनी जानकारी के चलते स्कूल में काफी लोकप्रिय थे लेकिन उनके कई सहपाठी उनकी विकलांगता को लेकर लगातार उन पर तंज कसते रहते थे। उसी दौरान उनके स्कूल में एक अंतर-विद्यालय योग प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। तेजस्वी बताते हैं कि मैं पहले से ही अपना मजाक उड़ाने वाले दूसरे बच्चों को दिखाना चाहता था कि मैं क्या कर सकता हूं। मैंने अपने पीटीआई प्रवीण शर्मा की प्रेरणा से इस प्रतियोगिता में भाग लिया और अपने योगासनों के बल पर मैं इसमें प्रथम आने में सफल रहा। इसके बाद मुझे पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा और मेरा चयन पहले जनपद की टीम में हुआ और फिर वह प्रदेश स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगे। तेजस्वी बताते हैं कि योग प्रतियोगिताओं में निःशक्त की कोई श्रेणी नहीं होती है लिहाजा मुझे सामान्य बच्चों की तरह सबके साथ ही प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती। हालांकि यह बात मेरे पक्ष में ही रही है क्योंकि इस वजह से मुझे सामान्य लोगों से मुकाबला करना पड़ता है जिसके चलते मैं और अधिक बेहतर करने के लिये प्रेरित हुआ।
कुछ प्रतियोगिताएं जीतने के बाद मुझे महसूस हुआ कि अब उन्हें अपनी इस कला को प्रदर्शन में तब्दील कर देना चाहिये। वर्ष 2010 में उन्होंने पहली बार राष्ट्रीय स्तर की किसी प्रतियोगिता में भाग लिया जहां पर उन्होंने आर्टिस्टिक योग का प्रदर्शन किया। तेजस्वी बताते हैं कि असल में आर्टिस्टिक योगा में प्रतिस्पर्धी को मात्र 1.5 मिनट में अपने सर्वश्रेष्ठ आसन करके दिखाने होते हैं। इसके अलावा इन आसनों का प्रदर्शन उसे संगीत के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए करना होता है। मैंने पहली बार इतने बड़े स्तर की प्रतियोगिता में भाग लिया और कांस्य पदक जीतने में सफल रहा। एक बार पदक जीतने के बाद तेजस्वी को लगा कि अब उन्हें इस आर्टिस्टिक योग को अपने आने वाले दिनों के लिये अपनाना चाहिये और उन्होंने इसमें अपना सर्वस्व झोंकने का फैसला किया। तेजस्वी आगे कहते हैं कि अब मुझे लगने लगा था कि मुझ में कुछ खास है और मैंने यह तय किया कि अब इसे करियर के रूप में अपनाया जाए।
इसके बाद तेजस्वी कुमार शर्मा ने कुछ मशहूर टीवी शो में अपनी प्रतिभा दिखाने का फैसला किया और वे एंटरटेनमेंट के लिये कुछ भी करेगा और इंडियाज गाट टेलेंट जैसे प्रसिद्ध टीवी शो में प्रदर्शन करने में कामयाब रहे। दोनों ही शो में इनके प्रदर्शन को जजों और दर्शकों ने काफी सराहा और इन्हें काफी प्रसिद्धि मिली। इतने वर्षों तक विभिन्न योगासनों का अभ्यास करने के चलते उनके लिये कठिन से कठिन आसन भी बच्चों के खेल सरीखे हो गए हैं। इसके अलावा इन्होंने अपने कई नए आसनों को भी ईजाद किया है जो किसी सामान्य व्यक्ति के लिये बेहद मुश्किल तो हैं ही बल्कि कुछ को करना तो लगभग असम्भव ही है।

तेजस्वी ने वर्ष 2011 में दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में आयोजित हुए योग वर्ल्ड कप में हिस्सा लिया और आर्टिस्टिक योग का स्वर्ण पदक जीतने में सफल रहे। इसके बाद इन्होंने वर्ष 2012 में हांगकांग में आयोजित हुई इंटरनेशनल योगा चैम्पियनशिप में रजत पदक जीता। इसके बाद सितम्बर 2014 में इन्हें चीन के शंघाई में आयोजित हुई चौथी अंतरराष्ट्रीय योग प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिला जहां वे अंतिम छह में स्थान बनाने में कामयाब रहे और आखिरकार उन्होंने यहां भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया और रजत पदक जीता। योगासनों को करने की इनकी सुगमता और इनके शरीर के लचीलेपन के चलते इस युवा को अब तक दर्जनों पुरस्कार मिल चुके हैं। तेजस्वी कहते हैं कि अगर हम अपनी योग्यता को ठीक तरीके से पहचानें और नकारात्मकता को सकारात्मकता में बदलें तो कोई भी मंजिल असम्भव नहीं है। मैं तो सबको यही राय देता हूं कि योग करो और निरोगी रहो। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन करने वाले तेजस्वी को सिर्फ इस बात का रंज है कि सरकार ने योग को खेल का दर्जा तो दे दिया है लेकिन अभी तक इसमें विकलांग की कोई श्रेणी अलग से नहीं बनाई गई है जिसके चलते उनके जैसे कई अन्य निःशक्त प्रतिस्पर्धी इनमें भाग लेने के लिये आगे नहीं आ पाते हैं।

Monday, 23 January 2017

फिल्मों की वाहवाही, पहलवानों की तबाही


फिल्मों से नसीहत ले भारतीय कुश्ती महासंघ
कुश्ती की पृष्ठभूमि पर बनी सुल्तान फिल्म का ग्लैमर पूरे देश के सिर चढ़ कर बोला। सलमान खान अभिनीत यह फिल्म कमाई के मामले में भी ठीक रही। कुछ ऐसे ही आंकड़े आमिर खान की दंगल की कमाई के भी मिले। सुल्तान और दंगल को लेकर बना क्रेज बताता है कि देश में कुश्ती के चाहने वाले कम नहीं हैं। लेकिन विडम्बना देखिए, पहलवान होने का दिखावा (एक्टिंग) करने वाले तो करोड़ों कमा रहे हैं लेकिन असली पहलवान आर्थिक मोर्चे पर संघर्ष करते ही नजर आते हैं। कुछ नामी-गिरामी पहलवानों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश की हालत ज्यादा अच्छी नहीं कही जा सकती। खासतौर से उन पहलवानों की जिन्होंने कुश्ती का ककहरा मिट्टी के अखाड़ों में सीखा है और जिनमें आज भी पारम्परिक कुश्ती को जिंदा रखने का जज्बा है। सुल्तान और दंगल सरीखी फिल्मों से भी अखाड़ों या पहलवानों की दशा में कोई खास बदलाव आने वाला नहीं है। हां, इन फिल्मों से कुश्ती संघ यह जरूर सीख सकता है कि जब एक फिल्मकार कुश्ती की लोकप्रियता को भुनाकर करोड़ों रुपये कमा सकता है तो वह क्यों नहीं अपने लिए बाजार तैयार कर सकता। कुश्ती को इस मामले में कबड्डी और हॉकी का अनुसरण करना चाहिए। इन दोनों ही खेलों की हालत कुश्ती से इतर नहीं थी, लेकिन लीग शुरू होने के बाद आज स्थिति अलग है। कुश्ती संघ ने लीग की शुरुआत कर अच्छा प्रयास किया है, लेकिन अभी उसे लम्बा सफर तय करना होगा।
देश की ज्यादातर व्यायामशालाएं (अखाड़े) दान और चंदे पर ही निर्भर हैं। तीज-त्योहारों और खास मौकों पर दंगलों का आयोजन तो आज भी खूब हो रहा है लेकिन मिट्टी के अखाड़ों में कुश्ती के दांवपेच सीखने वाले पहलवानों के लिए अवसर सिमट रहे हैं। अब कई बड़े दंगल मिट्टी नहीं, मैट पर हो रहे हैं। गांव-देहात में मिट्टी में कुश्ती लड़-लड़कर बड़ा हुआ पहलवान मैट पर गच्चा खा जाता है। मिट्टी पर चित और पट का खेल मायने रखता है तो मैट पर अंक जुटाने की चतुराई ज्यादा काम आती है। यही वजह है कि मिट्टी पर जो पहलवान ताकतवर है वह मैट पर वैसा साबित नहीं हो पाता। पूर्व प्रसिद्ध पहलवान जगदीश कालीरमन कहते हैं, ‘सवाल मिट्टी और मैट का नहीं है। सवाल है अवसर का। अगर आप आगे बढ़ना चाहते हैं, ओलम्पिक और अन्य अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में देश का नाम रोशन करना चाहते हैं तो आपको मैट पर अपनी दक्षता साबित करनी ही होगी। पिछले दो ओलम्पिक में हमने तीन पदक मैट पर लड़कर ही जीते हैं। अगर हमारे खिलाड़ी सिर्फ मिट्टी पर अभ्यास करते तो ये पदक कैसे आते।
यह बात बेशक अपनी जगह सही है लेकिन परम्परागत कुश्ती का क्या? किसी भी पहलवान से पूछ लीजिए। उसे सोंधी-सोंधी खुशबू वाली मिट्टी ही अखाड़े में खींचती है। पर, उसी मिट्टी से पहलवानों की दूरी बढ़ रही है। पर जगदीश कालीरमन इस बात से इत्तफाक नहीं रखते। वह कहते हैं, ‘जिन अखाड़ों में मैट पर अभ्यास कराया जाता है, वहां भी मिट्टी के अखाड़े हैं। मैट पर अभ्यास करने वाला पहलवान मिट्टी के अखाड़े में भी लड़ सकता है। जब कोई बड़ा टूर्नामेंट नहीं होता तो कई नामी पहलवान दंगलों में भाग लेते हैं।
निजी या सामाजिक संस्थाओं द्वारा आयोजित दंगलों को छोड़ दिया जाए तो कुश्ती संघों से लेकर सरकार तक उन्हीं पहलवानों को तवज्जो देती है जो मैट पर लड़ते हैं। मिट्टी के अखाड़ों में लड़ने वाले पहलवानों के लिए तो गांव-कस्बों की कुश्तियों में मिलने वाला ईनाम ही आजीविका का सहारा बन पाता है। पर इसके बावजूद कुछ तो बात है कि परम्परागत कुश्ती का आकर्षण बना हुआ है। उत्तर प्रदेश के बनारस, गाजियाबाद, मेरठ, आगरा, हरियाणा के पानीपत, सोनीपत, भिवानी, मध्यप्रदेश के भोपाल, इंदौर से लेकर महाराष्ट्र के कोल्हापुर और सांगली तक के कई अखाड़े परम्परा को संजोए हुए हैं। कोल्हापुर और सांगली के दंगलों में हजारों लोगों का जुटना सामान्य सी बात है।
इस सबके बावजूद यह एक तथ्य है कि ओलम्पिक सरीखी प्रतियोगिताओं में पदक जीतकर देश का नाम रोशन करने की इच्छा युवा पीढ़ी को मैट पर कुश्ती लड़ने के लिए प्रेरित कर रही है। ओलम्पिक, राष्ट्रमंडल खेलों तथा अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त और नरसिंह यादव सरीखे पहलवानों की सफलता से यह तो हुआ कि कुश्ती को अब गंभीरता से लिया जाने लगा है। पिछले कुछ वर्षों में पहलवानों की संख्या में भी अच्छा-खासा इजाफा हुआ है। पर, अब भी यह खेल शहरी युवाओं को लुभा नहीं पाया है। जगदीश कालीरमन बताते हैं, ‘ज्यादातर बच्चे साधारण किसान परिवारों से ही आ रहे हैं।शायद इसकी एक वजह यह भी है कि अन्य खेलों के मुकाबले कुश्ती ज्यादा मेहनत और ताकत मांगती है। कुश्ती मैट पर लड़ें या मिट्टी पर तैयारी के लिए शारीरिक तपस्या एक जैसी ही है।
ओलम्पिक में भारत के लिए पहला व्यक्तिगत पदक खाशाबा जाधव ने 1952 में हेलसिंकी ओलम्पिक में कुश्ती में ही जीता था लेकिन इसके बावजूद कुश्ती और पहलवान उपेक्षा के शिकार रहे हैं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले पहलवानों को जीवनयापन के बारे में नहीं सोचना पड़ता, लेकिन आज भी ऐसे पहलवान हैं जो गरीबी में जीवन काट रहे हैं।
हां, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर सरकार ने पहलवानों की मदद के लिए जरूर अच्छी पहल की है। हरियाणा में जिलास्तरीय प्रतियोगिता से लेकर राज्यस्तरीय प्रतियोगिता के विजेताओं के लिए पुरस्कार राशि में इजाफा किया गया है। हरियाणा के खेल मंत्री अनिल विज बताते हैं, ‘हरियाणा सरकार ने गत 23 मार्च को शहीद दिवस पर राष्ट्रीय स्तर का भारत केसरी दंगल का आयोजन किया। इस प्रतियोगिता में एक लाख से लेकर एक करोड़ रुपये तक के ईनाम बांटे गए। अब हर वर्ष 23 मार्च को यह प्रतियोगिता आयोजित की जाएगी। इतना ही नहीं, हरियाणा सरकार गांवों में बंद पड़े अखाड़ों को फिर से खोलने पर भी काम कर रही है। कुछ अखाड़े तो खुलने भी शुरू हो गए हैं। अनिल विज बताते हैं, ‘योग और व्यायामशाला के लिए गांवों को जमीन दी जा रही है। सरकार ऐसे 100 अखाड़ों में जिम और मैट्स की व्यवस्था करेगी जो अच्छे खिलाड़ी निकाल रहे हैं।
हरियाणा के पुरुष पहलवान लम्बे समय से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रांत और देश का नाम रोशन करते रहे हैं। पर, हाल के वर्षों में गीता फोगाट, बबीता फोगाट, विनेश फोगाट और साक्षी मलिक सरीखी पहलवान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिला कुश्ती में भारत का परचम फहरा रही हैं। राजस्थान में उदयपुर, भरतपुर और अलवर में कुश्ती जमाने से लोकप्रिय खेल रहा है। लोगों की रुचि देखते हुए कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार ने कुश्ती अकादमी खोलने की घोषणा की थी, लेकिन सरकार बदलने के साथ ही यह मामला अधर में लटक गया। बात यदि उत्तर प्रदेश की करें तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने वाले पहलवानों का मान-सम्मान करने में सरकार पीछे नहीं रही है, लेकिन छोटे स्तर पर कामयाबी हासिल करने वाले पहलवानों को प्रोत्साहन नहीं मिल पा रहा है।
हालांकि प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार ने कई पहलवानों को यश भारती पुरस्कार से भी नवाजा है लेकिन सभी नामी-गिरामी हैं। वैसे भी प्रदेश की सपा सरकार के पहलवानों का हितैषी माने जाने के अपने कारण हैं। दरअसल, सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव स्वयं पहलवान रहे हैं। प्रसिद्ध सैफई महोत्सव में मुलायम सिंह अपनी मौजूदगी में हर वर्ष दंगल भी कराते हैं जिसमें देश भर के पहलवान हिस्सा लेते हैं। मुलायम सिंह पहलवानी अब भी नहीं भूले हैं। कुश्ती में वैसे उत्तर प्रदेश के हिस्से कुछ बड़ी उपलब्धियां भी हैं। रियो ओलम्पिक के लिए चुने गए नरसिंह यादव उत्तर प्रदेश से ही ताल्लुक रखते हैं, दुर्भाग्य से वह षड्यंत्र का शिकार हो गये।
बनारस में कुश्ती और अखाड़ों की समृद्ध परम्परा रही है। यहां कहा जाता था कि जिस युवक ने दिन में दो-तीन घंटे धूरमें लोटाई नहीं की, उसने कुछ नहीं किया। कभी यहां हर मोहल्ले का अपना अखाड़ा था मगर अब बदलते दौर में ज्यादातर बंद हो गए। पंडाजी का अखाड़ा आज भी दूर-दूर तक अपनी पहचान बनाए हुए है। राम मंदिर अखाड़ा दो सौ साल पुराना बताया जाता है। मोहल्ला बड़ा गणेश अखाड़ा डेढ़ सौ साल का इतिहास समेटे हुए है। अखाड़ा रामसिंह अब तक सात हजार से अधिक पहलवान तैयार कर चुका है। कहा जाता है कि यहां के कुन्नू जी पहलवान महीने में सवा लाख दंड पेलते थे। यह सब बातें अब गुजरे दौर की हैं। अब तो यहां मात्र बीस-पच्चीस अखाड़े ही बचे हैं जो बनारस की इस परम्परा को बचाए हुए हैं।
पहलवान विनोद यादव बताते हैं, ‘अन्य राज्य के मुकाबले उत्तर प्रदेश में पहलवानों के लिए सुविधाएं बेहद कम हैं। सरकार ने अनेक शहरों  में स्टेडियम तो बनवाए मगर वहां कोच ही नहीं हैं।विनोद गाजियाबाद के बमहैटा गांव के हैं। यह गांव विख्यात जगदीश पहलवान के गांव के रूप में जाना जाता है। गांव में इन दिनों छह अखाड़े चल रहे हैं। विनोद बताते हैं, ‘पहलवानों को अच्छी खुराक लेनी होती है अत: सक्षम परिवारों से आए युवक तो कुछ साल तक निश्चिंत होकर पहलवानी कर लेते हैं मगर जो पहलवान आर्थिक रूप से कमजोर हैं उन्हें मजबूरन पहलवानी छोड़नी पड़ती है। पहलवान सतवीर सिंह कहते हैं, ‘कुश्ती में हरियाणा और दिल्ली के आगे निकलने की वजह पहलवानों को मिली सरकारी मदद है। उत्तर प्रदेश में भी बहुत प्रतिभाएं हैं जो सरकारी सहयोग से निखर सकती हैं।
भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष ब्रजभूषण शरण सिंह बताते हैं कि 2016 में सब जूनियर एशियाई चैम्पियनशिप में उत्तर प्रदेश की दो महिला पहलवान मानसी यादव और पूजा यादव ने दांव-पेच दिखाए थे। श्री सिंह गोंडा से सांसद हैं और स्वयं अपने क्षेत्र में अखाड़ा चलाते हैं। वह कहते हैं, ‘हमारे खिलाड़ी ओलम्पिक और एशियाई खेलों में पदक ला रहे हैं। ऐसे में सरकार को इस तरफ और ध्यान देना चाहिए।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव दावा करते हैं कि उनके कार्यकाल में सरकार ने लखनऊ, गोरखपुर और सैफई में स्पोर्ट्स कॉलेज खोले हैं जहां अन्य खेलों के साथ-साथ कुश्ती पर भी पूरा ध्यान दिया जा रहा है। प्रसिद्ध पहलवान रामाश्रय सिंह भी कुश्ती को लेकर आश्वस्त नजर आते हैं। वह कहते हैं, ‘देश के पहलवानों ने माहौल बना दिया है, अब कुश्ती सबकी निगाहों में है।बड़े पहलवानों और सरकारी दावों की हवा निकालने के लिए कुश्तियों के आयोजक सतीश विधूड़ी का यह कथन काफी है कि गांव-देहात में पहलवानों की हालत खस्ता है। पहलवानी छूटने पर भी खुराक कम नहीं होती जो जेब पर बहुत भारी पड़ती है।
दरअसल, पहलवानों की खुराक हमेशा मुद्दा बनती रही है। पहलवान का सबसे ज्यादा खर्चा उसकी खुराक पर ही होता है। दूध, दही, घी और बादाम पहलवानों के भोजन का अभिन्न अंग हैं। महीने में 12 से 15 हजार रुपये एक पहलवान की खुराक पर खर्च हो जाते हैं। इसलिए यह मान लेना कि कुश्ती जैसे खेल में कुछ खर्च नहीं आता, एक भ्रांत धारणा है। फिर अब तो मैट और किट का खर्च अलग से है। यह सही है कि ज्यादातर अखाड़ों में नि:शुल्क प्रशिक्षण मिलता है। भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) भी कई योजनाएं चला रहा है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहलवान निकालने वाले अखाड़ों को साई मैट और कोच उपलब्ध कराता है। बहुत से अखाड़ों में पहलवानों के रहने की भी व्यवस्था है लेकिन उन्हें अपनी खुराक का खर्चा खुद उठाना पड़ता है। एक पहलवान पर महीने में 20-25 हजार रुपये का खर्च तो आ ही जाता है। सवाल यह है कि देश में ऐसे कितने किसान परिवार हैं जो यह खर्च उठाने में सक्षम हैं। जानकार बताते हैं कि ज्यादातर पहलवान अपनी खुराक का खर्च या तो दंगल में कुश्ती लड़कर निकालते हैं या फिर कुछ संस्थाओं या समाज के प्रभावशाली व्यक्तियों के सहयोग से उन्हें सहारा मिलता है। ऐसा नहीं है कि केंद्र या राज्य सरकारें मदद नहीं करतीं लेकिन खिलाड़ी के एक मुकाम पर पहुंचने के बाद ही यह हासिल हो पाती है।
सलमान खान की फिल्म सुल्तान की रिकॉर्ड तोड़ कमाई से यह तो साबित होता है कि भारत की जनता को स्त्री की अस्मिता से ज्यादा असहिष्णुता के मुद्दे छूते हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो सलमान के बयान के बाद सुल्तान का हाल भी शाहरुख खान की फिल्म दिलवाले की तरह होता। खैर। सलमान खान की यह फिल्म कमाई के आंकड़ों में सुल्तान बनी हुई है। चुटीले संवाद, सुल्तान बने सलमान की हाजिर जवाबी, भोला सा चेहरा और उस पर पहलवानी के दांवपेच ने इस फिल्म की कमाई के सारे आंकड़े ध्वस्त कर दिए हैं। विशुद्ध सलमान खान मार्का इस फिल्म में एक्शन की भरपाई कुश्ती से हुई है। अगर यह फिल्म सलमान की न होती तो कमाई और फिल्म की तारीफ औसत से ऊपर नहीं बढ़ पाती। पहलवान के चरित्र को जीते हुए सलमान ने जिंदगी में हारे व्यक्ति की भूमिका के जरिये भारत में पहलवानों की स्थिति पर भी रोशनी डाली है।
भारत में पहलवानी का इतिहास बहुत पुराना है। भारत भर में नागपंचमी पर दंगल लड़े जाते थे। भारत ने बड़े-बड़े पहलवान दिए मगर ये पहलवान अपने हुनर को ओलम्पिक पदक में परिवर्तित नहीं कर सके। यह दुख बहुत पुराना है कि क्रिकेट के अलावा भारत में किसी भी खेल में पैसा नहीं है। भारत में खेल का मलतब क्रिकेट ही होता है। ऐसे में सलमान की फिल्म बिना भाषण के बताती है कि एक ओलम्पिक पदक विजेता कैसे एक छोटी सी नौकरी कर आम आदमी का जीवन जीता है। बाद में जब उसे प्रायोजक की जरूरत होती है तो नामी पहलवान रह चुके उस आदमी को स्थानीय बाजार का एक दुकानदार अपने कुकर के ब्रांड के लिए प्रायोजित करता है! भारत में खेल में प्रतिभा का आकलन ओलम्पिक जैसी बड़ी स्पर्धाओं में चमकता हुआ सुनहरा तमगा है। सुल्तान भी ऐसा ही पहलवान है जो तमाम विश्वस्तरीय प्रतियोगिताएं जीतते हुए ओलम्पिक में पदक लाता है लेकिन पैसा नहीं कमा पाता। तभी एक ब्लड बैंक बनवाने की खातिर पैसा इकट्ठा करने के लिए उसे चंदा जमा करना पड़ता है। निर्देशक अली अब्बास जफर शायद इसलिए ऐसा दिखा पाए होंगे कि उन्होंने ओलम्पिक पदक विजेताओं या ऐसे ही प्रतिभावान खिलाड़ियों की दुर्दशा की खबरें अखबारों में पढ़ी होंगी।
सुल्तान ने छह जुलाई 2016 को पूरे भारत में चार हजार तीन सौ पचास स्क्रीन और भारत से बाहर 1100 स्क्रीन में अपने मुरीदों को आदाब किया था। पहले फिल्मों से कमाई का जो शिगूफा 100 करोड़ रुपये का था अब बढ़कर 300 करोड़ रुपये हो गया है। अब करोड़ी क्लब का आंकड़ा सौ नहीं बल्कि 300 करोड़ तक पहुंच गया है। सलमान बॉलीवुड के अकेले ऐसे सुपरस्टार हैं, जिनकी 10 फिल्में 100 करोड़ रुपये के क्लब में शामिल हुई हैं। इस क्लब में शाहरुख की छह, अक्षय कुमार-अजय देवगन की पांच और आमिर खान की पांच फिल्में शामिल हैं।




Friday, 20 January 2017

बेटियों के मंसूबों पर तुषारापात

श्रीप्रकाश शुक्ला
भारत में बेटियों को शिक्षित बनाने और उन्हें बचाने के लिये नित नई-नई घोषणाएं हो रही हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हरियाणा के पानीपत में 22 जनवरी, 2015 को जब बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना का शंखनाद किया तो लगा कि अब मुल्क में किसी बेटी के साथ अन्याय नहीं होगा। बेटियों के सपनों को पर लगेंगे। अफसोस हर क्षेत्र में अपनी मेधा और पराक्रम का जलवा दिखा रही बेटियों से नसीहत न लेते हुए हमारा समाज उन्हें डरा रहा है। लड़कियों की स्थिति सुधारने और उन्हें महत्व देने की कोशिशों पर नजर डालें तो नहीं लगता कि हमारे समाज की मानसिकता में जरा भी बदलाव हुआ है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना का उद्देश्य लड़कियों को सामाजिक और आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाना है जिससे वे अपने उचित अधिकार और उच्च शिक्षा का प्रयोग कर सकें। अगर हम 2011 के सेंसस रिपोर्ट पर नजर डालें तो पाएंगे कि पिछले कुछ दशकों में 0 से 6 वर्ष की लड़कियों की संख्या में लगातार गिरावट आई है। 2001 की जनगणना में जहां एक हजार पुरुषों में महिलाओं की संख्या 927 थी तो 2011 में यह गिरकर 919 ही रह गई। हमारी हुकूमतों की लाख सजगता के बावजूद समाज में फैला लैंगिक भेदभाव बेटियों को जन्म लेने से पहले ही हलाक कर रहा है।
जो बेटियां पैदा भी हो रही हैं उन्हें भेदभाव के चलते शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, खान-पान आदि मौलिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। कह सकते हैं कि हमारा समाज महिलाओं को सशक्त करने के बजाय अशक्त कर रहा है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना का उद्देश्य लड़कियों के लिये मानव के नकारात्मक पूर्वाग्रह को सकारात्मक बदलाव में परिवर्तित करने का ही एक सुगम रास्ता है। यह सम्भव है कि इस योजना से लड़कों और लड़कियों के प्रति भेदभाव खत्म हो जाए तथा कन्या भ्रूण हत्या का अंत करने में यह मुख्य कड़ी साबित हो लेकिन कैसे। हाल ही कश्मीर की एक कामयाब बेटी को जिस तरह की परेशानी का सामना करना पड़ा उसे देखते नहीं लगता कि हमारे समाज की सोच वाकई बदल रही है। आमिर खान की फिल्म दंगल अब तक महिला सशक्तीकरण के मुद्दे को उठाने के कारण खूब चर्चा में रही और इतनी हिट रही कि सफलता के नए कीर्तिमान बन गए। गीता और बबीता फोगाट को अखाड़े में उतारने के लिए उनके पिता महावीर फोगाट को कितना संघर्ष करना पड़ा, इसे समाज ने नए सिरे से देखा, समझा और दिल से सराहा भी। लेकिन अब शायद यह समझने का वक्त भी आ गया है कि फिल्मी पर्दे पर सफलता की जिन कहानियों को देखकर हम खुश होते हैं क्या हमारे समाज में ऐसे किरदार मौजूद हैं। दरअसल असल जीवन में उनका संघर्ष कहीं ज्यादा सघन होता है। दंगल की नन्हीं गीता का किरदार निभाने वाली जायरा वसीम का उदाहरण हमारे सामने है।
फिल्म में ठेठ हरियाणवी लहजे में बोलने वाली इस सोलह साल की बेटी को देखकर यह अहसास ही नहीं होता कि यह कश्मीरी है। अखाड़े में एक के बाद एक लड़कों को आसमान दिखाती जायरा जब शान से चलती है तो पार्श्व में गाना बजता है ऐसी धाकड़ है-धाकड़ है। ठेठ देशज शब्दों से बने इस गाने में न रैप है, न अंग्रेजी शब्द हैं, न सुरों का बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव है। बस ताल ठोकने के अंदाज में गाना बढ़ता जाता है और बढ़ती जाती है गीता यानी जायरा वसीम।
गीता यानी जायरा वसीम के बढ़ने का यही अंदाज देश की लाखों बच्चियों को पसंद आता है, उन्हें प्रेरित करता है कि वे भी लीक से हटकर कुछ कर सकती हैं। लड़कों का मुकाबला पूरी शक्ति से कर सकती हैं। लेकिन समाज में बदलाव की आहट उन कट्टरपंथियों को बेहद नागवार गुजरती है जो बेटियों को खौफ के किले में बांध कर रखते हैं। दरअसल कट्टरपंथी जानते हैं कि उनके तथाकथित खौफ के किले तिनकों की तरह हैं, जो बदलाव की हवा से बिखर सकते हैं। इसलिए जब उन्हें अपने किले के ढहने का डर सताता है तो वे दूसरों को डराना शुरू कर देते हैं। याद करें कि जब सानिया मिर्जा टेनिस में युवा प्रतिभा बनकर विश्व में नाम कमाने लगीं तो उनके नाम किस-किस तरह के फतवे जारी किए गए। 2012 में कश्मीर की तीन किशोरियों ने प्रगाश नाम का राक बैंड बनाया तो उन्हें भी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा। इस्लाम के नियम तोड़ने के लिए आतंकवादियों की धमकियां मिलीं, फतवा जारी हुआ और अंततः इन लड़कियों ने अपनी संगीत की प्रतिभा को दफन कर दिया। डराने-धमकाने का कुछ यही अजीब खेल जायरा के साथ भी खेला गया।
गीता यानी जायरा वसीम ने जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती से मुलाकात की और उनके साथ ली एक तस्वीर जैसे ही सोशल मीडिया पर डाली कश्मीर के दुर्दांत कशमशा उठे। जायरा को डराया-धमकाया जाने लगा। मरता क्या न करता- जायरा को न केवल अपनी पोस्ट हटानी पड़ी बल्कि इसके लिए उसे माफी भी मांगनी पड़ी। उपदेश देने के लिए यह कहा जा सकता है कि जायरा को डरना नहीं चाहिए था लेकिन कट्टरपंथ और अतिवाद से भरे जिस समाज में वह रह रही है वहां उसका डरना स्वाभाविक है। अच्छी बात यह है कि जायरा के माफीनामे के बाद उसके समर्थन में जगह-जगह से आवाजें उठ रही हैं। आमिर खान, जावेद अख्तर, अनुपम खेर एक सुर में कट्टरपंथियों और अलगाववादियों की आलोचना कर रहे हैं तो फोगाट बहनों के अलावा खेलजगत से गौतम गम्भीर जैसे लोग उसके पक्ष में खड़े हैं।
लोकगायिका मालिनी अवस्थी ने भी जायरा को धमकाने वालों की निन्दा की है लेकिन वे आमिर खान की पत्नी किरण राव से सवाल करती हैं कि क्या अब उन्हें देश छोडऩे का मन नहीं करता। जायरा वसीम के बहाने अपनी खीझ निकालने वाली मालिनी अवस्थी से मेरा कहना यह है कि हर मसले को संकीर्णता की राजनीति से जोडऩा कदाचित सही नहीं है। महिला उत्पीड़न, कट्टरता, धर्मांधता, अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार जैसे मसलों पर राजनीति ने देश को जिस तरह बांट दिया है उसी का नतीजा है कि कट्टरपंथी ताकतें दिन-ब-दिन बढ़ रही हैं और अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए जायरा जैसी बच्चियों पर भी रहम नहीं खा रहीं। जायरा वसीम मेघा की धनी है, उसने 10वीं कक्षा 92 प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण की है और उसने अभिनय में भी अपनी अलग छाप छोड़ी है। इस बेटी के सामने पूरी जिन्दगी है। वह जिस क्षेत्र में चाहे अपनी प्रतिभा दिखाए लेकिन सवाल यह कि क्या हमारा समाज उसे सहयोग देगा। कट्टरता और अलगाव केवल जम्मू-कश्मीर में ही नहीं है। लड़कियों के लिए तो फिलहाल कोई प्रदेश, कोई शहर कोई गांव सुरक्षित नहीं है। इसलिए इस मुद्दे को एक प्रदेश की समस्या न मानकर व्यापक धरातल पर समझने और सुलझाने की जरूरत है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का लोकलुभावन सब्जबाग दिखाने की बजाय हमारी हुकूमतों को समाज की उन विद्रूपताओं का समूल नाश करना होगा जिनकी वजह से बेटियां हलाकान-परेशान हैं।


Sunday, 15 January 2017

रिश्वत दी होती तो गौरव सिंह होते पायलट


अशोक ध्यानचंद के बेटे का अनुकरणीय फैसला
दद्दा के भारत रत्न पर कई बार हुआ सदमे का शिकारः अशोक ध्यानचंद
श्रीप्रकाश शुक्ला
मथुरा। पापा मैं भूखा रह लूंगा लेकिन रिश्वत देकर पायलट बनना मुझे कतई स्वीकार नहीं। पायलट की ट्रेनिंग के लिए अपने पिता अशोक ध्यानचंद की जीवन भर की कमाई को लगा देने के बाद जब गौरव सिंह उड़ान भरने के सपने देख रहा था उसी समय उससे बतौर रिश्वत तीन लाख रुपये मांगे गये। ऐसी स्थिति में कोई और होता तो शायद रिश्वत देकर आज इंडियन एयर लाइंस में उड़ान भर रहा होता लेकिन गौरव सिंह ने रिश्वत न देकर युवाओं के लिए एक अनुकरणीय फैसला लिया। इस वाकये से यह साबित हो गया कि कालजयी दद्दा ध्यानचंद की नसीहत का असर उनके बेटों ही नहीं उनके नातियों में भी बरकरार है।
गुलाम भारत को अपने शानदार खेल-कौशल से दुनिया भर में गौरवान्वित करने वाले हाकी के जादूगर दद्दा ध्यानचंद और उनके अनुज कैप्टन रूप सिंह आज बेशक हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके ऐतिहासिक विश्व विजयी आंकड़े तब तक जीवंत रहेंगे जब तक कि यह हाकी खेली जाती रहेगी। तानाशाह हिटलर की आंखों के नूर ध्यान सिंह और रूप सिंह के परिवार आज किस मुफलिसी में जी रहे हैं इसे देखने वाला कोई नहीं है। बेशक आज हर खेल संगठन में राजनीतिज्ञों की पैठ हो लेकिन उन्हें भी ध्यान सिंह और रूप सिंह के चमत्कारिक खेल-कौशल से कोई लेना-देना नहीं है। खिलाड़ियों को भारत रत्न देने की पहल करने वाली कांग्रेस हो या फिर हिन्दुत्व की अलम्बरदार भारतीय जनता पार्टी दोनों की कार्यशैली में बहुत बड़ा अंतर नहीं दिखता। कांग्रेस ने क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देकर जहां दद्दा ध्यानचंद के ऐतिहासिक प्रदर्शन की अनदेखी की थी वहीं मोदी सरकार भी इस मामले में किंकर्तव्य-विमूढ़ की स्थिति में है। खेलप्रेमियों को उम्मीद थी कि केन्द्र की मोदी सरकार ध्यान सिंह और मध्य प्रदेश की शिवराज सिंह सरकार रूप सिंह के ऐतिहासिक प्रदर्शन का सम्मान करते हुए इन विभूतियों को वाजिब सम्मान देंगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

दद्दा ध्यानचंद को भारत रत्न न दिए जाने पर उनके सुपुत्र अशोक ध्यानचंद का यह कहना कि मैं कई बार सदमे का शिकार हो चुका हूं। अब मुझे नहीं लगता कि दद्दा को भारत रत्न मिलेगा वजह हमारी हुकूमतों की राजनीतिक सोच है। खैर, खेल हमारी रग-रग में समाये हुए हैं। जब तक जिएंगे खेलों की बेहतरी के बारे में ही सोचेंगे। भारत में खेलों का माहौल बने इसके लिए ग्रामीण प्रतिभाओं के साथ-साथ प्राथमिक स्कूलों से ही खेलों और खिलाड़ियों को बढ़ावा मिलना चाहिए। खेल संगठनों में पारदर्शिता तभी आएगी जब सही चुनाव होंगे और खिलाड़ियों के हाथ खेलों की कमान होगी। हाकी में इस वैश्य परिवार की जहां तक बात है दद्दा ध्यान सिंह ने 1928, 1932 और 1936 में भारत को ओलम्पिक में स्वर्ण पदक दिलवाए थे तो कैप्टन रूप सिंह 1932 तथा 1936 ओलम्पिक के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी रहे। दद्दा ध्यानचंद भारत रत्न के पहले हकदार थे लेकिन उनकी अनदेखी की गई। इसी तरह वर्ष 2006 में शिवराज सरकार ने ग्वालियर के जिला खेल परिसर का नाम कैप्टन रूप सिंह के नाम करने के साथ ही वर्ष 2009 में इस खिलाड़ी के नाम से ही लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड देने का फैसला लिया था लेकिन इस दिशा में आज तक कुछ भी नहीं हुआ। अशोक ध्यानचंद की जहां तक बात है इस खिलाड़ी के गोल से ही भारत 1975 में विश्व विजेता बना था। अशोक कुमार ने अपने पराक्रमी खेल से एक स्वर्ण, चार रजत तथा तीन कांस्य पदक भारत की झोली में डाले हैं। इस हाकी परिवार को कभी न्याय मिलेगा, इस पर संशय बरकरार है।   

Wednesday, 11 January 2017

शादी से ज्यादा निःशक्तों की सेवा जरूरीः कंचन सिंह चौहान

                     
निःशक्तों को स्वावलम्बी बनाने का जुनून
सफलता प्राप्त करने वाले इंसान बेसुध होकर दिन भर काम करते हैं लेकिन हर काम करने का उनका एक उद्देश्य होता है। वे हमेशा परिणाम देखना चाहते हैं और वे अपना काम भी परिणाम मिलने की चाह से ही करते हैं न की काम में व्यस्त रहने के लिए। मैं जानती हूं कि दिव्यांगों में मुश्किलों को स्वीकारने की क्षमता अधिक होती है, मुश्किलों का वे आसानी से सामना करते हैं और उनसे कुछ सीखकर ही आगे बढ़ते हैं। वे खुद ही अपने आपको प्रेरित करते हैं और खुद ही अवसरों का निर्माण करते हैं। मैंने भी कुछ लक्ष्य तय किए हैं। मैं चूंकि दिव्यांगता को जी रही हूं। मैंने मुफलिसी और उपेक्षा के हर दौर को करीब से देखा है लिहाजा चाहती हूं कि देश का हर दिव्यांग स्वावलम्बी बने, इसीलिए मैं अपनी सरकारी नौकरी के बाद का हर क्षण दिव्यांगों को बीच बिताना पसंद करती हूं। यह कहना है चार दशक से पोलियो का शिकार और निःशक्तों की मददगार कंचन सिंह का।
24 जुलाई, 1975 को महादेव सिंह-बिलासकुमारी के घर कानपुर में जन्मीं और अब नवाबों के शहर लखनऊ की तहजीब को आत्मसात कर रही कंचन सिंह चौहान बताती हैं कि मैं अपने पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी हूं। जब मैं एक साल की थी तभी एक दिन आए तेज बुखार ने मुझसे हमेशा-हमेशा के लिए चल-फिर सकने की शक्ति छीन ली। मेरे माता-पिता हर उस डाक्टर से मिले जहां से मुझे ठीक होने की उम्मीद थी। अफसोस सारे प्रयास व्यर्थ चले गए। मैं छह साल तक बिस्तर में पड़े-पड़े चलने की उम्मीद में जिन्दा रही लेकिन ऐसा नहीं हुआ। पहले गर्दन फिर दाएं-बाएं पैर और उसके बाद मैं कमर से लाचार हो गई। ह्वीलचेयर ही मेरी जिन्दगी हो गई। मैंने अपने शरीर को चैतन्य रखने के लिए योगासन शुरू किए जिसका काफी लाभ मिला। परेशानियों के बीच उम्र बढ़ी और मां-बाप को मेरी शिक्षा-दीक्षा की फिक्र होने लगी। माता-पिता चाहते थे कि मेरा अच्छे स्कूल में दाखिला हो लेकिन सारे प्रयासों के बाद भी मुझे कानपुर के किसी अच्छे स्कूल में प्रवेश नहीं मिला। आखिरकार मेरी शिक्षक मां ने ही मुझे पढ़ाना-लिखाना शुरू किया और मैंने घर में रहते हुए ही कक्षा चार तक की शिक्षा पूरी कर ली, इसके बाद मैंने स्कूल जाना शुरू किया। शिक्षा से मेरा लगाव बढ़ता ही गया और मैंने डी.बी.एस. डिग्री कालेज में पढ़ते हुए पहले अंग्रेजी में मास्टर डिग्री हासिल की उसके बाद हिन्दी से भी एम.ए. किया। शिक्षा पूरी करने के बाद मुझे नौकरी भी मिल गई।
कंचन सिंह चौहान शासकीय सेवा में बतौर ट्रांसलेटर लखनऊ में कार्यरत हैं। वह कहती हैं कि शासकीय सेवा में आने के बाद मैंने दिव्यांगों की मदद का संकल्प लिय़ा। मुझे लगा कि मैं दिव्यांगों का जीवन स्तर सुधारने में मदद कर सकती हूं। आज कंचन नौकरी के बाद का शेष समय उन मायूसों को दे रही हैं जोकि निःशक्तता से आजिज हैं। कंचन समय-समय पर दो निःशक्त स्कूलों में पहुंच कर बच्चों का हौसला बढ़ाने के साथ ही उन्हें आत्मनिर्भर बनने के रास्ते भी सुझाती हैं। कंचन कहती हैं कि दिव्यांगों को भी अपनी जिन्दगी जीने का अधिकार है। मुझे अपने जैसे लोगों की सेवा से जोकि सुखानुभूति होती है, उसे शब्दों से बयां नहीं किया जा सकता। मैं जो भी कर रही हूं उसके पीछे कुछ पाने की लालसा नहीं बल्कि कुछ देने का संकल्प है। दिव्यांगों की मदद की खातिर आजीवन शादी न करने का निश्चय करने वाली कंचन सिंह चौहान कहती हैं कि मेरी इच्छा है कि मैं जब तक जियूं दिव्यांगों के लिएं जियूं।
कंचन कहती हैं कि दिव्यांग सेवा राष्‍ट्रोन्‍नति का केन्‍द्रबिन्‍दु है जिसके चारों ओर देश और समाज की प्रगति का चक्र रूपी पहिया चलता-फिरता रहता है। इनकी सेवा में क्षणिक सी कमी या शिथिलता आने पर प्रगति का चक्र डगमगाने लगता है और शनैः-शनैः राष्‍ट्र की प्रगति रुक जाती है। वैसे मानव सेवायें सदैव एक सी नहीं रहतीं क्‍योंकि समय तथा वातावरण परिवर्तनशील है, जिसके द्वारा मनुष्‍य के रंग, लिंग, स्‍वभाव, वेशभूषा, बोलचाल, रुचि, लगन तथा संस्‍कृति पर प्रभाव पड़ते हैं जिसके कारण मनुष्‍य की प्रवृत्ति में भी थोड़े-बहुत परिवर्तन होते रहते हैं। जिनसे प्रभावित होकर मनुष्‍य फिर नयी उमंग और उत्‍साह के साथ राष्‍ट्र की सेवा प्रारम्‍भ कर देता है। मानव द्वारा की गयी सत्‍यपूर्ण सेवा से ही राष्‍ट्रोन्‍नति में गति आती है। राष्‍ट्र में खुशहाली का वातावरण झलकने लगता है। मनुष्‍य असत्‍य, लोभ, घृणा, ईर्ष्‍या तथा आलस्‍य जैसे दुर्गुणों का त्‍याग करके ही सेवाभाव के पथ पर चल सकता है। सेवाभाव ही राष्‍ट्र की उन्‍नति में सहायक होने वाला एकमात्र ऐसा शब्‍द है, जिसके द्वारा देश और समाज का चहुंमुखी विकास सम्‍भव है।

कंचन कहती हैं कि राष्‍ट्रोन्‍नति के लिए आवश्‍यक है कि मनुष्‍य अपनी स्‍वार्थपरता को त्‍याग कर समस्‍त देश के लिए हमभाव की भावना अपने अन्‍दर समाहित करे। हमभाव से ही निःशक्तों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। सेवा में दिखावा नहीं बल्कि समर्पण होना चाहिए। मनुष्‍य की सच्‍ची स्‍वार्थरहित एवं निष्‍ठापूर्ण सेवाओं से ही बड़े.बड़े चमत्‍कार हुए और देश विकास के भौतिक तथा सांस्‍कृतिक पक्षों को बल मिला है। निःशक्तजन चूंकि अपने जैसे लोगों की भाषा को सहजता से स्वीकारता है लिहाजा हम जैसे लोग अपने दिली सेवाभाव से लाखों लाख लोगों के जीवन को खुशहाल बना सकते हैं। कंचन कहती हैं कि मेरी लेखन में भी काफी रुचि है बावजूद इसके मैं दिव्यांगों की बेहतरी के ही सपने देखती हूं।

पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र

के.डी. मेडिकल कालेज में जे.पी. हेल्थ साइंस दिल्ली ने लगाई पुस्तक प्रदर्शनी
मथुरा। दुःखी, चिंतित और मनोविकारों से ग्रस्त लोगों के लिए पुस्तकें अमृत के समान होती हैं जिनका सान्निध्य पाकर आदमी अपने दुःख-दर्द और क्लेश सब भूल जाता है। अच्छी पुस्तकें मनुष्य को धैर्य, शांति और सांत्वना प्रदान करती हैं। उत्तम पुस्तकों का अवलम्बन लेना सुखकर होता है। जब हम कोई अच्छी पुस्तक पढ़ते हैं या सत्संग-प्रवचन सुनते हैं तो हमारी इच्छा होने लगती है कि हम भी पुस्तक द्वारा बताये गए मार्ग पर चलें और उत्कृष्ट विचार हमारे मन में अपना स्थान जमाने लगते हैं। एक तरह से अच्छी पुस्तकें हमारा सही मार्ग प्रशस्त करती हैं और उत्तम जीवन जीने का सन्देश प्रदान करती हैं। पुस्तकें हमारी सच्ची मित्र और हितैषी होती हैं उक्त उद्गार आर.के. एजूकेशन हब के चेयरमैन डा. रामकिशोर अग्रवाल ने मंगलवार को के.डी. मेडिकल कालेज-हास्पिटल और रिसर्च सेण्टर में जे.पी. हेल्थ साइंस नई दिल्ली द्वारा लगाई गई दो दिवसीय पुस्तक प्रदर्शनी के शुभारम्भ अवसर पर व्यक्त किए।
के.डी. मेडिकल कालेज-हास्पिटल और रिसर्च सेण्टर की प्राचार्य डा. मंजुला बाई के.एच. ने दो दिवसीय पुस्तक प्रदर्शनी को काफी लाभदायक बताते हुए कहा कि इससे डाक्टरों और छात्र-छात्राओं को चिकित्सा क्षेत्र के विशेषज्ञ लेखकों के विचारों को आत्मसात करने का मौका मिलता है। चिकित्सा क्षेत्र में लगातार बदलाव हो रहे हैं, ऐसे में इस तरह की पुस्तक प्रदर्शनियां न केवल डाक्टर्स बल्कि छात्र-छात्राओं के ज्ञानवर्धन में काफी सहायक होती हैं। पुस्तकें ज्ञान का भण्डार हैं। इनमें लेखकों के जीवन भर के अनुभव होते हैं। पुस्तकों के अध्ययन से ज्ञान की वृद्धि होती है और ज्ञान-वृद्धि से सुख मिलता है। ज्ञान-वृद्धि से जो सुख मिलता है उसकी तुलना किसी भी सुख से नहीं की जा सकती। इस पुस्तक प्रदर्शनी से हम अपने आपको अपडेट कर सकते हैं। इस पुस्तक प्रदर्शनी में चिकित्सा विज्ञान की देशी और विदेशी प्रकाशकों की लगभग पांच हजार पुस्तकें लगाई गई हैं।
जे.पी. हेल्थ साइंस नई दिल्ली के प्रबंधक के.पी. सिंह ने बताया कि इस पुस्तक प्रदर्शनी का उद्देश्य डाक्टरों और चिकित्सा छात्र-छात्राओं को चिकित्सा विज्ञान की आधुनिक पुस्तकों से अवगत कराना है। जे.पी. हेल्थ साइंस की जहां तक बात है इसकी देश भर में नौ ब्रांचें हैं। इसकी एक ब्रांच अमेरिका तथा दूसरी ब्रिटेन में है। पुस्तक प्रदर्शनी के शुभारम्भ अवसर पर प्रबंध निदेशक मनोज अग्रवाल, डा. ऊषा वत्स, डा. जयकिशन, डा. विवेक पाराशर, डा. गगनदीप, डा. संजीव अग्रवाल, डा. पीयूष राज, डा. गौरव कुमार, डा. सौरभ गुप्ता, डा. आर.के. अशोका, डा. हर्ष शर्मा, डा. अक्षय कुमार पारिख, डा. मनोज कुमार तिवारी, एन.एस. शशीबाला, शुभम गर्ग, अरुण कुमार, डालचंद गौतम, राजेश कुमार, मेघश्याम शर्मा सहित बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं उपस्थित थे।


पैरालम्पिक में भारतीय दिव्यांगों का कमाल

नौ खिलाड़ियों ने जीते 12 पदक
पैरालम्पिक को दुनिया भर के दिव्यांगों का खेल महोत्सव कहा जाता है। निःशक्तजनों को सर गुडविंग गुट्टमान का अहसान मानना होगा कि उन्होंने खेलों के माध्यम से ही सही दुनिया को एक मण्डप के नीचे ला खड़ा किया। निःशक्तजनों के हौसला-अफजाई की जहां तक बात है, हमारे समाज में अब भी प्रगतिगामी नजरिया नहीं बन पाया है। दिव्यांगता को हम जीवन भर की मुसीबत के रूप में देखते हैं। भारत में दिव्यांगों को दया की नजर से देखा जाता है बावजूद इसके सारी परेशानियों को ठेंगा दिखाते हुए भारतीय दिव्यांगों ने इस कमजोरी को ही फौलादी शक्ल में बदल दिखाया। समाज और सरकार की ओर से बहुत ज्यादा सहयोग न मिलने के बावजूद पैरालम्पिक जैसे विश्वस्तरीय खेल मंचों पर यदि हमारे खिलाड़ी पदक हासिल करते हैं तो यह बड़ी उपलब्धि है।
ओलम्पिक की गहमागहमी के बाद उसी मैदान पर पैरालम्पिक खेलों में पदक जीतने की होड़ अब ओलम्पिक कैलेण्डर का नियमित हिस्सा बन गई है। दिव्यांग खिलाड़ी पूरे जोश और जज्बे के साथ पदक तालिका में अपना और अपने देश का नाम दर्ज कराने के लिए वर्षों की मेहनत को झोंक देते हैं। पैरालम्पिक खेलों की शुरुआत दूसरे विश्व युद्ध के बाद घायल सैनिकों को मुख्यधारा से जोड़ने के मकसद से हुई थी। खासतौर पर स्पाइनल इंज्यूरी के शिकार सैनिकों को ठीक करने के लिए इस खेल को शुरू किया गया। साल 1948 में विश्वयुद्ध के ठीक बाद स्टोक मानडेविल अस्पताल के न्यूरोलाजिस्ट सर गुडविंग गुट्टमान ने सैनिकों के रिहेबिलेशन के लिए खेलों को चुना, तब इसे अंतरराष्ट्रीय ह्वीलचेयर गेम्स नाम दिया गया था। गुट्टमान ने अपने अस्पताल के ही नहीं दूसरे अस्पताल के मरीजों को भी खेल प्रतियोगिताओं में शामिल कराने का अभिनव प्रयास किया जोकि काफी सफल रहा और लोगों ने इसे काफी पसंद किया। सर गुट्टमान के इस सफल प्रयोग को ब्रिटेन की कई स्पाइनल इंज्यूरी इकाइयों ने अपनाया और एक दशक तक स्पाइनल इंज्यूरी को ठीक करने के लिए ये रिहेबिलेशन प्रोग्राम चलता रहा। 1952 में फिर इसका आयोजन किया गया। इस बार ब्रिटिश सैनिकों के साथ ही डच सैनिकों ने भी इसमें हिस्सा लिया। इस तरह पैरालम्पिक खेलों के लिए एक जमीन तैयार हुई। सर गुट्टमान की सोच को पर लगे और 1960 रोम में पहले पैरालम्पिक खेलों का आयोजन किया गया। देखा जाए तो 1980 के दशक में ही इन खेलों में क्रांति आई।
आमतौर पर पैरालम्पिक खेलों से आम जनता अनजान रहती है। अब तक हुए पैरालम्पिक खेलों में भारत का प्रदर्शन कोई खास नहीं रहा बावजूद इसके कुछ ऐसे भारतीय एथलीट हैं जिन्होंने अपने लाजवाब प्रदर्शन से इन खेलों को भी यादगार बना दिया। भारतीय पैरा एथलीटों को व्यक्तिगत पदक लाने में 56 साल लगे तो पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक हासिल करने के लिए भारत को 112 साल का लम्बा इंतजार करना पड़ा। सामान्य ओलम्पिक खेलों की तरह पैरालम्पिक खेलों का भी खासा महत्व है। भारत ने सामान्य ओलम्पिक खेलों में अब तक 28 पदक जीते हैं तो पैरालम्पिक में हमारे 09 खिलाड़ियों ने ही अपनी क्षमता व लाजवाब प्रदर्शन का लोहा मनवाते हुए अब तक 12 पदक मुल्क की झोली में डाले हैं।
भारतीय खिलाड़ियों ने पैरालम्पिक खेलों में पदक जीतने का सिलसिला 1972 में शुरू किया था जब मुरलीकांत पेटकर ने भारत के लिए पैरालम्पिक खेलों का पहला स्वर्ण पदक दिलवाया। 1972 में मुरलीकांत पेटकर का जर्मनी जाना मील का पत्थर साबित हुआ और उन्होंने पैरालम्पिक खेलों में इतिहास रच दिया। सेना के इस जांबाज ने न सिर्फ भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता बल्कि सबसे कम समय में 50 मीटर की तैराकी प्रतियोगिता जीतने का पैरालम्पिक रिकार्ड भी बना डाला। भारतीय खेलों के नजरिए से देखें तो मुरलीकांत पेटकर आज तरणताल की किंवदंती हैं। पेटकर की सफलता के 12 साल बाद 1984 में न्यूयार्क के स्टोक मैंडाविल में आयोजित पैरालम्पिक खेलों में भारतीयों ने दो रजत व दो कांस्य पदक जीते। इस पैरालम्पिक में भीमराव केसरकर ने भालाफेंक तो जोगिन्दर सिंह बेदी ने गोलाफेंक में रजत पदक जीते। भारतीय पहलवान सुशील कुमार ही एकमात्र ऐसे एथलीट हैं जिन्होंने ओलम्पिक में दो बार पदक जीते हैं लेकिन पैरालम्पिक में एक बड़ा इतिहास दर्ज है। 1984 स्टोक मैंडाविल पैरालम्पिक भारत के लिहाज से सबसे सफल रहे, इसमें जोगिन्दर सिंह बेदी ने एक चांदी और दो कांसे के पदक अपने नाम किए थे। यह कारनामा उन्होंने गोला फेंक, भाला फेंक और चक्का फेंक प्रतिस्पर्धा में हासिल किया।
इस सफलता के बाद 20 साल तक भारत की पदक तालिका खाली रही और फिर 2004 के एथेंस पैरालम्पिक खेलों में देवेन्द्र झाझरिया ने भालाफेंक में भारत को स्वर्ण पदक दिलाया तो राजिन्दर सिंह रहेलू ने भारत को पावरलिफ्टिंग में कांस्य पदक दिलवाकर भारत के पदकों की संख्या दो कर दी। 2012 के लंदन पैरालम्पिक खेलों में भारत को केवल एक रजत पदक से संतोष करना पड़ा। भारत को गिरीश नागराज गौड़ा ने ऊंचीकूद में चांदी का पदक दिलाया। रियो में भारतीय पैरा एथलीटों ने दो स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य पदक जीते। भारत ने अब तक पैरालम्पिक खेलों में जीते 12 पदकों में से एथलेटिक्स में 10, तैराकी और पावरलिफ्टिंग में एक-एक पदक जीते हैं। इन एक दर्जन पदकों में चार स्वर्ण, चार रजत और चार कांस्य पदक शामिल हैं। इन 12 पदकों में से तीन स्वर्ण, चार रजत और तीन कांस्य पदक तो एथलेटिक्स में ही मिले हैं। भारत को तैराकी और पावरलिफ्टिंग में एक स्वर्ण और एक कांस्य पदक हासिल हुआ है। 2016 में हुए रियो पैरालम्पिक में चैम्पियन चीन, ब्रिटेन और अमेरिकी दिव्यांग खिलाड़ियों की अदम्य इच्छाशक्ति से परे भारतीय दिव्यांग खिलाड़ियों ने दो स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य पदक के साथ भारत को तालिका में 42वां स्थान दिलाया।
भारतीय दिव्यांग खिलाड़ियों की यह उपलब्धि कई मायनों में खास है। हमारे 117 सक्षम खिलाड़ियों ने इसी रियो में दो बेटियों शटलर पी.वी. सिन्धू और पहलवान साक्षी मलिक के पदकों की बदौलत बमुश्किल मुल्क को शर्मसार होने से बचाया था तो पैरालम्पिक खेलों में महज 19 सदस्यीय दल ने दो स्वर्ण सहित चार पदक जीतकर धाक जमा दी। पैरालम्पिक खेलों में स्वीमर से एथलीट बनी हरियाणा की दीपा मलिक गोला फेंक में चांदी का तमगा जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बनीं। मेरी लीला रो भारत की तरफ से ओलम्पिक खेलों में शिरकत करने वाली पहली महिला खिलाड़ी हैं तो पैरालम्पिक में तीरंदाज पूजा ने पहली बार लक्ष्य पर निशाने साधे हैं। दिव्यांग दीपा मलिक ने कुदरत द्वारा दी गई अपूर्णता को अपनी अदम्य इच्छाशक्ति से पूर्णता में बदल दिखाया। कितना प्रेरक है कि जिसका धड़ से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो जाये वह मुल्क को पदक दिलाने का संकल्प बना ले। 31 सर्जरी और 183 टांकों की टीस से गुजरने वाली दीपा में जीत का हौसला तब तक कायम रहा जब तक कि उसने चांदी का पदक गले में नहीं डाल लिया।
हमें सोना जीतने वाले खिलाड़ी मरियप्पन थंगवेलु, देवेन्द्र झाझरिया व कांस्य पदक विजेता वरुण भाटी को भी याद करना चाहिए। वे भी भारतीय सुनहरी कहानी के महानायक हैं। इन्होंने अपने दर्द को लाचारी नहीं बनने दिया। अपने जोश व हौसले को जिन्दा रखा। भारतीयों के सामने मिसाल रखी कि हालात कितने ही विषम हों, जीत का हौसला कायम रखो। विडम्बना है कि खाते-पीते स्वस्थ लोग जरा-सी मुश्किल से घबराकर आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठा लेते हैं लेकिन इन पदक विजेताओं को देखिये इन्हें समाज की उपेक्षा व सम्बल देने वाली नीतियों के अभाव में भी जीतना आया। रियो पैरालम्पिक में कुछ खास बातें भी हुईं जैसे ऊंची कूद में एक स्वर्ण और एक कांस्य लेकर पहली बार दो भारतीय खिलाड़ी एक साथ पोडियम पर चढ़े। मरियप्पन थंगावेलू ने स्वर्ण जीता तो इसी प्रतियोगिता में वरुण भाटी ने कांस्य पदक से अपना गला सजाया।

मरियप्पन थंगावेलू जब बहुत छोटे थे तभी नशे में धुत एक ट्रक ड्राइवर ने उन पर ट्रक चढ़ा दी थी और उन्हें अपना पैर खोना पड़ा। विकलांगता के कारण उनके पिता ने उन्हें छोड़ दिया और मां ने कठिन परिश्रम कर उन्हें पाला-पोसा। बेहद गरीबी में जीकर भी उन्होंने अपने हौसले से स्वर्ण पदक हासिल कर मुल्क का मान बढ़ाया। मरियप्पन की मां आज भी सब्जी बेचकर अपने परिवार का भरण-पोषण करती हैं। ऊंची कूद में कांस्य पदक हासिल करने वाले वरुण प्रारम्भ में बास्केटबाल खिलाड़ी थे और अच्छा खेलते भी थे लेकिन विकलांग होने के कारण उन्हें बाहर होने वाले मैचों में नहीं ले जाया जाता था और कई बार स्कूल में भी खेल से बाहर कर दिया जाता था। इस संवेदनहीनता से वरुण हारे नहीं और बास्केटबाल छोड़कर ऊंची कूद में भी अपना हुनर दिखाया और पदक विजेता बनकर सारे मुल्क का नाम रोशन किया। रियो पैरालम्पिक में दूसरा स्वर्ण पदक जीतने वाले राजस्थान के चुरू जिले के देवेंद्र झाझरिया की जितनी भी तारीफ की जाए वह कम है। इस राजस्थानी एथलीट ने भाला फेंक में न केवल स्वर्णिम सफलता हासिक की बल्कि 63.97 मीटर दूर भाला फेंककर विश्व कीर्तिमान भी रच डाला। इससे पहले 2004 के एथेंस पैरालम्पिक खेलों में भी देवेंद्र को स्वर्ण पदक हासिल हुआ था। तब उन्होंने 62.15 मीटर दूर भाला फेंका था। दुर्घटना में एक हाथ खोने वाले देवेंद्र झाझरिया ने साबित कर दिखाया कि एक ही हाथ से दो बार विश्व रिकार्ड बनाने के लिए मानसिक हौसले की जरूरत होती है। देवेन्द्र पैरालम्पिक खेलों में दो स्वर्ण पदक जीतने वाले भारत के पहले खिलाड़ी हैं। अधूरेपन से लड़ाई लड़ते हुए भी पैरालम्पिक में पदक जीतने वाले इन खिलाड़ियों की मानसिक ताकत को हर खेलप्रेमी को सलाम करना चाहिए जो बताते हैं कि मुश्किल कितनी भी बड़ी क्यों न हो, हमें हिम्मत नहीं हारनी।