आओ नम्बर एक खेल की भी सुध लें
श्रीप्रकाश शुक्ला
भारत युवाओं का देश है। दुनिया में सबसे अधिक
प्रतिभाएं भारत में ही हैं बावजूद नम्बर एक खेल फुटबॉल में हम अर्श से फर्श पर आ
गए हैं। भारत में फुटबॉल ही नहीं कई ऐसे खेल हैं जिनकी स्थिति में सुधार होने की
बजाय निरंतर गिरावट आई है। एक समय था जब भारतीय फुटबॉल टीम पूरे विश्व में न सही
लेकिन एशिया की सबसे अच्छी टीमों में से शुमार थी। क्रिकेट, रेसलिंग, बॉक्सिंग, हॉकी, कबड्डी, बैडमिंटन
जैसे खेलों में दुनिया के नक्शे पर भारत का नाम सम्मान से लिया जाता है लेकिन
फुटबॉल का नाम सामने आते ही निराशा हाथ लगती है। इस ग्लोबल स्पोर्ट्स में हम अभी घाना, सीरिया, युगांडा, क्रोएशिया जैसे देशों से भी काफी पीछे हैं। इसकी मुख्य वजह हम
इस खेल में लगातार खराब प्रदर्शन और खेलप्रेमियों की अनिच्छा को मान सकते हैं। देखा
जाए तो समय के साथ इस खेल में सुधार तो दिख रहा है लेकिन हम अभी ताली पीटने की
स्थिति में नहीं आ पाए हैं। फुटबॉल से जुड़े भारतीय महान खिलाड़ी गाह-बगाहे ही सही
भावनात्मक संदेश जरूर देते हैं लेकिन दर्शकों का हुजूम अभी फुटबॉल से नहीं जुड़
पाया है।
फुटबॉल जैसा शानदार खेल, अपने जोश और खेल की महानता के साथ
दुनिया भर में करोड़ों दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर लेता है। दूसरी ओर भारत में जमीनी स्तर पर अप्रयुक्त क्षमता और
निवेश की कमी ने देश की उस प्रगति में बाधा डाली है, जिसको 20वीं सदी में प्रारम्भ किया गया था। भारतीय
राष्ट्रीय फुटबॉल टीम का चरमोत्कर्ष समय 1951 से 1962 तक माना जा सकता है, जब
हमारी टीम की चर्चा एशिया ही नहीं दुनिया की अच्छी टीमों में होती रही। 1950 में, जब ब्राजील ने 12 साल के अंतराल के बाद फीफा विश्व कप की
मेजबानी की, तो कई यूरोपीय देशों के समर्थन के बाद
भारत को भी प्रतिष्ठित टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया, लेकिन भारत के फुटबॉल संचालक मंडल ने पैसे
की तंगहाली का हवाला देते हुए टीम को ब्राजील न भेजने का फैसला लिया। फुटबॉल
संचालक मंडल का तत्कालीन फैसला भारतीय फुटबॉल के लिए नासूर बन गया। उस एक अनिर्णय
से जहां इस खेल ने अपनी लोकप्रियता खो दी वहीं जल्द ही टीम एशियाई फुटबॉल के परिदृष्य
से भी बाहर हो गई। पिछले 6-7 दशकों में राष्ट्रीय टीम के हार के कई
कारक और कारण हैं लेकिन फुटबॉलप्रेमी खुश हो सकते हैं कि अब यह खेल प्रगति की राह
चल निकला है। महिला फुटबॉलरों को हम शाबासी दे सकते हैं।
खेलों में भाग्य से नहीं बल्कि पौरुष से चमत्कार
होते हैं। 1983 विश्व कप ने भारतीय क्रिकेट को संजीवनी प्रदान की और यह खेल निवेश
और व्यावसायीकरण के प्रवाह के साथ आज जनता जनार्दन के बीच एक लोकप्रिय खेल-धर्म बन
गया। एक समय था जब हाकी
और फुटबॉल
जैसे खेलों में दर्शक खूब जुटते थे लेकिन आज इन खेलों को देखने वाले ही नहीं हैं।
सच कहें तो भारत में क्रिकेट
की लोकप्रियता ने अन्य खेलों से दर्शक छीन लिए हैं। पिछले कुछ वर्षों में, भारतीय फुटबॉल टीम के खिलाड़ी देश में बुनियादी
ढांचे की कमी के बारे में कहते रहे हैं। देखा जाए तो 2015 तक देश में एक भी ऐसा स्टेडियम नहीं था जो फीफा
द्वारा निर्धारित मानदंडों पर खरा उतरता रहा हो। 2017 में हुए अंडर-17 फीफा विश्व कप से केवल एक साल पहले, फीफा ने दिल्ली, गुवाहाटी, नवी मुंबई, कोच्चि और कोलकाता में टूर्नामेंट के
लिए मेजबान स्टेडियमों सहित कई स्टेडियमों को ग्रेडिंग दी थी लेकिन अधिकांश घरेलू
स्टेडियम आज भी फीफा के मानकों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। देश में जमीनी स्तर पर फुटबॉल
की स्थिति काफी दयनीय है। देश में प्रतिभाशाली फुटबॉलरों के लिए मैदानों की कमी के
साथ प्रशिक्षण सुविधाएं न के बराबर हैं। यही असुविधाएं कभी-कभी खिलाड़ियों को वैकल्पिक
रूप से अपना प्रोफेशन बदलने के लिए मजबूर कर देती हैं। प्रशिक्षण के लिए उचित बुनियादी सुविधाओं के
बिना खिलाड़ियों का कौशल निखर पाना कदाचित सम्भव नहीं है।
भारत में फुटबॉल की दुर्दशा की मुख्य वजहों में
मीडिया की उदासीनता भी मानी जा सकती है। क्रिकेट की लोकप्रियता में मीडिया का बहुत
बड़ा हाथ है। मीडिया जनता के बीच जागरूकता फैलाने की महत्वपूर्ण कड़ी है। किसी खेल विशेष की पहुंच जन-जन तक पहुंचाने में
मीडिया की ही भूमिका होती है। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय मीडिया ने घरेलू और अंतरराष्ट्रीय
क्रिकेट मैचों के कवरेज के लिए अरबों डॉलर के अनुबंध किए हैं। भारतीय क्रिकेट
कंट्रोल बोर्ड आज दुनिया का सबसे धनाढ्य खेल संगठन है। जबकि इसके उलट धनाभाव के
चलते फुटबॉल सहित अन्य खेल मीडिया कवरेज के लाभों से वंचित हैं। आज भी देश के कई
क्षेत्रों में भारतीय फुटबॉलप्रेमियों को टीम के लाइव मैचों को देखने का मौका नहीं
मिल पाता। यही वजह है कि भारत में फुटबॉल के कुछ खिलाड़ियों को छोड़कर बहुत से लोग, देश का प्रतिनिधित्व करने वाले खिलाड़ियों
के नाम भी नहीं जानते।
देखा जाए तो भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं
है। भारत की अपरिपक्व प्रतिभाओं को यदि उचित प्रशिक्षण और अधिकाधिक सुविधाएं
प्रदान की जाएं तो वे भी विश्व विजेता बन सकती हैं। दुख की बात है कि आई-लीग
क्लबों के साथ-साथ अन्य क्लबों में युवा विकास कार्यक्रमों की कमी ने लाखों युवाओं
की आकांक्षाओं और उनके सपनों को नेस्तनाबूद किया है। पश्चिमी देश यह सुनिश्चित
करते हैं कि क्लबों में युवा विकास कार्यक्रम हों क्योंकि यही युवा तरुणाई किसी
राष्ट्र का भविष्य होती है। देखा जाए तो पिछले तीन-चार वर्षों में भारत में कई खेलों का विकास परिलक्षित हुआ है। भारतीय फुटबॉल की बात करें तो इंडियन
सुपर लीग की शुरुआत के साथ देश फीफा रैंकिंग में 97वें स्थान पर आ गया है। इंडियन सुपर लीग से जहां फुटबॉल को दर्शक
मिले हैं वहीं इस खेल के लिए निवेशक भी सामने आए हैं। भारतीय फुटबॉल का क्रमिक
सुधार, राष्ट्रीय टीम का प्रदर्शन और आईएसएल क्लबों की बढ़ती लोकप्रियता ने इस खेल
को चार चांद लगाए हैं। फुटबॉल तेजी से उन क्षेत्रों में भी जगह बना रहा है जहां अब
तक क्रिकेट को धर्म माना जाता रहा है। फीफा (एफआईएफए) और कई अन्य हितधारकों के
सहयोग से अखिल भारतीय फुटबाल महासंघ (एआईएफएफ) यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि उनींदे भारतीय
खेलप्रेमी जागें और देखें कि हमारे फुटबॉलर भी अपने बुरे प्रदर्शन से बाहर आकर वैश्विक
स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। भारतीय पुरुष और महिला खिलाड़ी उत्साह और उमंग के
साथ इस खेल को उच्च मुकाम तक पहुंचाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।
देश में खेल संस्कृति नहीं है, ऐसा कहना शायद ठीक नहीं होगा क्योंकि
दुनिया के 20 देश क्रिकेट खेलते हैं और हम उनमें सिरमौर
हैं। ओलम्पिक से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों में कम ही सही, लेकिन भारतीय खिलाड़ी लगातार पदक जीत
रहे हैं। समय के साथ भारतीय एथलीटों के प्रदर्शन में भी सुधार हुआ है लेकिन दुनिया
का नम्बर एक खेल फुटबॉल अभी भी भारतीयों के दिल में जगह नहीं बना सका है। भारतीय फुटबॉल
टीमों ने जिस तरह जीतने की आदत डाली है, ऐसे में अब फुटबॉल को फैशन से नहीं पैशन
के साथ खेलना जरूरी हो गया है। भारत में फुटबॉल को बढ़ावा देने के लिए अधिक से
अधिक लीग तथा विश्वस्तरीय आयोजनों की मेजबानी जरूरी है।
फीफा की भविष्य की योजनाओं पर गौर करें तो 2026
विश्व कप में 32 की बजाय 48 टीमें खेल सकती हैं। यदि ऐसा सम्भव हुआ तो 2026 में एशिया
महाद्वीप की आठ टीमों को विश्व कप खेलने का मौका मिलेगा। भारतीय फुटबॉल संगठन को इस मौके का फायदा उठाना चाहिए। भारतीय खिलाड़ियों के मौजूदा प्रदर्शन
को देखते हुए हम 2026 में विश्व कप खेलने का अपना सपना साकार कर सकते हैं। देखा
जाए तो भारतीय अंडर-17 टीम एशिया में काफी अच्छा प्रदर्शन कर
रही है। अगर हमें विश्व कप खेलना है तो इसके लिए हमें ज्यादा से ज्यादा
अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने होंगे और एक नहीं कम से कम तीन राष्ट्रीय टीमें तैयार करनी होंगी। तीन टीमों
से हमारे पास विकल्प बढ़ जाएंगे और खिलाड़ियों का चयन नाम से नहीं बल्कि उनके
प्रदर्शन के आधार पर किया जा सकेगा। भारत
में फुटबॉल के प्रति रुझान बढ़ना अच्छी बात है। भारतीय फुटबॉल टीम के पूर्व कोच और
दिग्गज खिलाड़ी सैयद नईमुद्दीन कहते हैं कि भारतीय फुटबॉल को एक भारतीय कोच ही
उबार सकता है। फुटबॉल में अर्जुन और द्रोणाचार्य अवॉर्ड जीतने वाले नईम कहते हैं
कि भारतीय प्रबंधन चाहता है कि खिलाड़ी डेविड बेकहेम जैसा बने, लेकिन वक्त और पैसा खर्च करने के लिए
कोई तैयार नहीं है। अगर बच्चों को पैसा और सुविधाएं नहीं मिलेंगी तो मुफ्त में कौन
जान देने को तैयार होगा। नईम की बात में दम है। आओ दुनिया के नम्बर एक खेल के लिए
हम सब ताली पीटें और क्रिकेटरों की ही तरह भारतीय फुटबॉलरों के लिए दुआ मांगें।