Monday, 22 April 2019

फुटबॉल अर्श से फर्श पर क्यों?



आओ नम्बर एक खेल की भी सुध लें
श्रीप्रकाश शुक्ला
भारत युवाओं का देश है। दुनिया में सबसे अधिक प्रतिभाएं भारत में ही हैं बावजूद नम्बर एक खेल फुटबॉल में हम अर्श से फर्श पर आ गए हैं। भारत में फुटबॉल ही नहीं कई ऐसे खेल हैं जिनकी स्थिति में सुधार होने की बजाय निरंतर गिरावट आई है। एक समय था जब भारतीय फुटबॉल टीम पूरे विश्व में न सही लेकिन एशिया की सबसे अच्छी टीमों में से शुमार थीक्रिकेट, रेसलिंग, बॉक्सिंग, हॉकी, कबड्डी, बैडमिंटन जैसे खेलों में दुनिया के नक्शे पर भारत का नाम सम्मान से लिया जाता है लेकिन फुटबॉल का नाम सामने आते ही निराशा हाथ लगती है। इस ग्लोबल स्पोर्ट्स में हम अभी घाना, सीरिया, युगांडा, क्रोएशिया जैसे देशों से भी काफी पीछे हैं। इसकी मुख्य वजह हम इस खेल में लगातार खराब प्रदर्शन और खेलप्रेमियों की अनिच्छा को मान सकते हैं। देखा जाए तो समय के साथ इस खेल में सुधार तो दिख रहा है लेकिन हम अभी ताली पीटने की स्थिति में नहीं आ पाए हैं। फुटबॉल से जुड़े भारतीय महान खिलाड़ी गाह-बगाहे ही सही भावनात्मक संदेश जरूर देते हैं लेकिन दर्शकों का हुजूम अभी फुटबॉल से नहीं जुड़ पाया है।
फुटबॉल जैसा शानदार खेल, अपने जोश और खेल की महानता के साथ दुनिया भर में करोड़ों दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर लेता है। दूसरी ओर भारत में जमीनी स्तर पर अप्रयुक्त क्षमता और निवेश की कमी ने देश की उस प्रगति में बाधा डाली है, जिसको 20वीं सदी में प्रारम्भ किया गया था। भारतीय राष्ट्रीय फुटबॉल टीम का चरमोत्कर्ष समय 1951 से 1962 तक माना जा सकता है, जब हमारी टीम की चर्चा एशिया ही नहीं दुनिया की अच्छी टीमों में होती रही। 1950 में, जब ब्राजील ने 12 साल के अंतराल के बाद फीफा विश्व कप की मेजबानी की, तो कई यूरोपीय देशों के समर्थन के बाद भारत को भी प्रतिष्ठित टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया, लेकिन भारत के फुटबॉल संचालक मंडल ने पैसे की तंगहाली का हवाला देते हुए टीम को ब्राजील न भेजने का फैसला लिया। फुटबॉल संचालक मंडल का तत्कालीन फैसला भारतीय फुटबॉल के लिए नासूर बन गया। उस एक अनिर्णय से जहां इस खेल ने अपनी लोकप्रियता खो दी वहीं जल्द ही टीम एशियाई फुटबॉल के परिदृष्य से भी बाहर हो गई। पिछले 6-7 दशकों में राष्ट्रीय टीम के हार के कई कारक और कारण हैं लेकिन फुटबॉलप्रेमी खुश हो सकते हैं कि अब यह खेल प्रगति की राह चल निकला है। महिला फुटबॉलरों को हम शाबासी दे सकते हैं।
खेलों में भाग्य से नहीं बल्कि पौरुष से चमत्कार होते हैं। 1983 विश्व कप ने भारतीय क्रिकेट को संजीवनी प्रदान की और यह खेल निवेश और व्यावसायीकरण के प्रवाह के साथ आज जनता जनार्दन के बीच एक लोकप्रिय खेल-धर्म बन गया। एक समय था जब हाकी और फुटबॉल जैसे खेलों में दर्शक खूब जुटते थे लेकिन आज इन खेलों को देखने वाले ही नहीं हैं। सच कहें तो भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता ने अन्य खेलों से दर्शक छीन लिए हैं। पिछले कुछ वर्षों में, भारतीय फुटबॉल टीम के खिलाड़ी देश में बुनियादी ढांचे की कमी के बारे में कहते रहे हैं। देखा जाए तो 2015 तक  देश में एक भी ऐसा स्टेडियम नहीं था जो फीफा द्वारा निर्धारित मानदंडों पर खरा उतरता रहा हो। 2017 में हुए अंडर-17 फीफा विश्व कप से केवल एक साल पहले, फीफा ने दिल्ली, गुवाहाटी, नवी मुंबई, कोच्चि और कोलकाता में टूर्नामेंट के लिए मेजबान स्टेडियमों सहित कई स्टेडियमों को ग्रेडिंग दी थी लेकिन अधिकांश घरेलू स्टेडियम आज भी फीफा के मानकों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। देश में जमीनी स्तर पर फुटबॉल की स्थिति काफी दयनीय है। देश में प्रतिभाशाली फुटबॉलरों के लिए मैदानों की कमी के साथ प्रशिक्षण सुविधाएं न के बराबर हैं। यही असुविधाएं कभी-कभी खिलाड़ियों को वैकल्पिक रूप से अपना प्रोफेशन बदलने के लिए मजबूर कर देती हैंप्रशिक्षण के लिए उचित बुनियादी सुविधाओं के बिना खिलाड़ियों का कौशल निखर पाना कदाचित सम्भव नहीं है।
भारत में फुटबॉल की दुर्दशा की मुख्य वजहों में मीडिया की उदासीनता भी मानी जा सकती है। क्रिकेट की लोकप्रियता में मीडिया का बहुत बड़ा हाथ है। मीडिया जनता के बीच जागरूकता फैलाने की महत्वपूर्ण कड़ी है  किसी खेल विशेष की पहुंच जन-जन तक पहुंचाने में मीडिया की ही भूमिका होती है। पिछले कुछ वर्षों में  भारतीय मीडिया ने घरेलू और अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैचों के कवरेज के लिए अरबों डॉलर के अनुबंध किए हैं। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड आज दुनिया का सबसे धनाढ्य खेल संगठन है। जबकि इसके उलट धनाभाव के चलते फुटबॉल सहित अन्य खेल मीडिया कवरेज के लाभों से वंचित हैं। आज भी देश के कई क्षेत्रों में भारतीय फुटबॉलप्रेमियों को टीम के लाइव मैचों को देखने का मौका नहीं मिल पाता। यही वजह है कि भारत में फुटबॉल के कुछ खिलाड़ियों को छोड़कर बहुत से लोग, देश का प्रतिनिधित्व करने वाले खिलाड़ियों के नाम भी नहीं जानते।
देखा जाए तो भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। भारत की अपरिपक्व प्रतिभाओं को यदि उचित प्रशिक्षण और अधिकाधिक सुविधाएं प्रदान की जाएं तो वे भी विश्व विजेता बन सकती हैं। दुख की बात है कि आई-लीग क्लबों के साथ-साथ अन्य क्लबों में युवा विकास कार्यक्रमों की कमी ने लाखों युवाओं की आकांक्षाओं और उनके सपनों को नेस्तनाबूद किया है। पश्चिमी देश यह सुनिश्चित करते हैं कि क्लबों में युवा विकास कार्यक्रम हों क्योंकि यही युवा तरुणाई किसी राष्ट्र का भविष्य होती है। देखा जाए तो पिछले तीन-चार वर्षों में भारत में कई खेलों का विकास परिलक्षित हुआ है। भारतीय फुटबॉल की बात करें तो इंडियन सुपर लीग की शुरुआत के साथ देश फीफा रैंकिंग में 97वें स्थान पर आ गया है। इंडियन सुपर लीग से जहां फुटबॉल को दर्शक मिले हैं वहीं इस खेल के लिए निवेशक भी सामने आए हैं। भारतीय फुटबॉल का क्रमिक सुधार, राष्ट्रीय टीम का प्रदर्शन और आईएसएल क्लबों की बढ़ती लोकप्रियता ने इस खेल को चार चांद लगाए हैं। फुटबॉल तेजी से उन क्षेत्रों में भी जगह बना रहा है जहां अब तक क्रिकेट को धर्म माना जाता रहा है। फीफा (एफआईएफए) और कई अन्य हितधारकों के सहयोग से अखिल भारतीय फुटबाल महासंघ (एआईएफएफ) यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि उनींदे भारतीय खेलप्रेमी जागें और देखें कि हमारे फुटबॉलर भी अपने बुरे प्रदर्शन से बाहर आकर वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। भारतीय पुरुष और महिला खिलाड़ी उत्साह और उमंग के साथ इस खेल को उच्च मुकाम तक पहुंचाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।
देश में खेल संस्कृति नहीं है, ऐसा कहना शायद ठीक नहीं होगा क्योंकि दुनिया के 20 देश क्रिकेट खेलते हैं और हम उनमें सिरमौर हैं। ओलम्पिक से लेकर राष्ट्रमंडल खेलों में कम ही सही, लेकिन भारतीय खिलाड़ी लगातार पदक जीत रहे हैं। समय के साथ भारतीय एथलीटों के प्रदर्शन में भी सुधार हुआ है लेकिन दुनिया का नम्बर एक खेल फुटबॉल अभी भी भारतीयों के दिल में जगह नहीं बना सका है। भारतीय फुटबॉल टीमों ने जिस तरह जीतने की आदत डाली है, ऐसे में अब फुटबॉल को फैशन से नहीं पैशन के साथ खेलना जरूरी हो गया है। भारत में फुटबॉल को बढ़ावा देने के लिए अधिक से अधिक लीग तथा विश्वस्तरीय आयोजनों की मेजबानी जरूरी है।
फीफा की भविष्य की योजनाओं पर गौर करें तो 2026 विश्व कप में 32 की बजाय 48 टीमें खेल सकती हैं। यदि ऐसा सम्भव हुआ तो 2026 में एशिया महाद्वीप की आठ टीमों को विश्व कप खेलने का मौका मिलेगा। भारतीय फुटबॉल संगठन को इस मौके का फायदा उठाना चाहिए।  भारतीय खिलाड़ियों के मौजूदा प्रदर्शन को देखते हुए हम 2026 में विश्व कप खेलने का अपना सपना साकार कर सकते हैं। देखा जाए तो भारतीय अंडर-17 टीम एशिया में काफी अच्छा प्रदर्शन कर रही है। अगर हमें विश्व कप खेलना है तो इसके लिए हमें ज्यादा से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने होंगे और एक नहीं कम से कम तीन राष्ट्रीय टीमें तैयार करनी होंगी। तीन टीमों से हमारे पास विकल्प बढ़ जाएंगे और खिलाड़ियों का चयन नाम से नहीं बल्कि उनके प्रदर्शन के आधार पर किया जा सकेगा। भारत में फुटबॉल के प्रति रुझान बढ़ना अच्छी बात है। भारतीय फुटबॉल टीम के पूर्व कोच और दिग्गज खिलाड़ी सैयद नईमुद्दीन कहते हैं कि भारतीय फुटबॉल को एक भारतीय कोच ही उबार सकता है। फुटबॉल में अर्जुन और द्रोणाचार्य अवॉर्ड जीतने वाले नईम कहते हैं कि भारतीय प्रबंधन चाहता है कि खिलाड़ी डेविड बेकहेम जैसा बने, लेकिन वक्त और पैसा खर्च करने के लिए कोई तैयार नहीं है। अगर बच्चों को पैसा और सुविधाएं नहीं मिलेंगी तो मुफ्त में कौन जान देने को तैयार होगा। नईम की बात में दम है। आओ दुनिया के नम्बर एक खेल के लिए हम सब ताली पीटें और क्रिकेटरों की ही तरह भारतीय फुटबॉलरों के लिए दुआ मांगें।




Tuesday, 2 April 2019

राजनीतिक पिच पर खिलाड़ियों का हो-हल्ला


खेलहित के लिए खिलाड़ियों का राजनीति में आना जरूरी
                              श्रीप्रकाश शुक्ला
इस समय देश क्रिकेट और राजनीति के आगोश में है। हर गली-चौराहे पर या तो आईपीएल में खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर चर्चा हो रही है या फिर देश के भावी राजनीतिक परिदृश्य की सम्भावनाओं पर लोग अपने-अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं। एक समय था जब खिलाड़ियों का राजनीति से कोई वास्ता नहीं होता था। आज ऐसी बात नहीं है। हर राजनीतिक दल खिलाड़ियों की लोकप्रियता को भुनाने का प्रयास करने लगा है। भारत रत्न सचिन तेंदुलकर से बड़ा कोई और उदाहरण नहीं हो सकता। आज खिलाड़ियों की लोकप्रियता जहां जनता जनार्दन को मतदान के लिए प्रेरित करने के काम आ रही है वहीं कई खिलाड़ी राजनीतिक पिच पर भी जबर्दस्त हो-हल्ला मचा रहे हैं। राज्यवर्धन सिंह राठौड़, कीर्ति आजाद, पद्मश्री कृष्णा पूनिया, लक्ष्मीरतन शुक्ला, चेतन चौहान, मोहम्मद अजहरुद्दीन, ज्योतिर्मय सिकदर, नवजोत सिंह सिद्धू जैसे खिलाड़ी गाहे-बगाहे ही सही प्रतिद्वन्द्वी दलों की पेशानियों पर बल ला चुके हैं।
क्रिकेट की लोकप्रियता को चुनावों में भुनाने के लिए राजनीतिक दल हमेशा तत्पर रहते हैं और काफी हद तक सफल भी रहे हैं। क्रिकेट खिलाड़ियों को भी राजनीतिक पिच काफी मुफीद नजर आई है। भारत में क्रिकेट इबादत और क्रिकेटर को भगवान का दर्जा प्राप्त है, यही वजह है कि लोग अपना जरूरी काम छोड़कर भी क्रिकेट देखते हैं और खिलाड़ियों की बलैयां लेते हैं। देखा जाए भारतीय राजनीतिक पिच पर कई खिलाड़ियों ने हाथ आजमाए लेकिन बहुत कम को ही सफलता हाथ लगी है। देश की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस ने कई क्रिकेटरों को राजनीति में एक अलग पहचान दिलाई है। इस कड़ी में सबसे पहला नाम भारतीय क्रिकेट जगत की चर्चित हस्ती मंसूर अली खान पटौदी का आता है। क्रिकेट से संन्यास के बाद पटौदी ने राजनीति में प्रवेश किया लेकिन भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया। नवाब पटौदी ने 1999 में कांग्रेस के टिकट से भोपाल से चुनाव लड़ा था लेकिन उनकी हार हुई इससे पहले भी वह गुड़गांव में विशाल हरियाणा पार्टी के टिकट पर चुनाव हारे थे।
मध्य प्रदेश की जहां तक बात है, यहां की राजनीतिक पिच पर पूर्व हॉकी कप्तान असलम शेर खान भी हाथ आजमा चुके हैं। असलम शेर खान 1984 और 1991 में कांग्रेस से सांसद रहे उसके बाद मध्य प्रदेश से कभी कोई बड़ा नामवर खिलाड़ी तो नहीं उतरा लेकिन यशोधरा राजे सिंधिया, मुकेश नायक, राजेन्द्र सिंह जैसे औसत दर्जे के खिलाड़ी राजनीतिज्ञों ने संसद और विधान सभा में खेल-खिलाड़ियों के हित की बात दबंगता से रखी है। यशोधरा राजे सिंधिया मध्य प्रदेश की सबसे अधिक समय तक खेल मंत्री रहीं और इन्होंने अपने कामकाज से एक नजीर पेश की है। मुकेश नायक भी मध्य प्रदेश के खेल मंत्री रह चुके हैं। 
प्रायः लोग कहते हैं कि खेलों में राजनीति नहीं होनी चाहिए लेकिन आज खिलाड़ियों को राजनीतिक पिच सबसे ज्यादा रास आ रही है, यही वजह है कि आज हर पल राजनीतिक दल नामवर खिलाड़ियों को लपकने को तैयार रहता है। राजनीति में खिलाड़ियों की लोकप्रियता को भुनाने की होड़ खेलप्रेमियों की दिलचस्पी का भी आज एक बहुत बड़ा कारण बन चुकी है। केन्द्रीय खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़, उत्तर प्रदेश के खेल मंत्री चेतन चौहान जहां आज भारतीय जनता पार्टी की अलम्बरदारी कर रहे हैं वहीं नवजोत सिंह सिद्धू, कृष्णा पूनिया जैसे खिलाड़ी कांग्रेस पार्टी के खेवनहार हैं। खिलाड़ियों के राजनीति में आने को लेकर ओलम्पिक रजत पदक विजेता, केंद्रीय खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौड़ तथा राजस्थान से कांग्रेस विधायक कृष्णा पूनिया मानते हैं कि खिलाड़ियों के राजनीति में आने से खेलों व खिलाड़ियों का भला होगा क्योंकि संसद और विधान सभा में खिलाड़ियों की असल पीड़ा एक खिलाड़ी ही बयां कर सकता है। यह सच है कि एक खिलाड़ी में देश के लिए कुछ करने की ललक होती है। वह न केवल अनुशासित होता है बल्कि उसमें लाग-लपेट जैसी बातें नहीं होतीं। एक खिलाड़ी मैदान में जहां अपने प्रदर्शन से मादरेवतन का मान बढ़ाता है वहीं राजनीतिक वीथिका में भी उसके मानस में खेलभावना का भाव हमेशा जिन्दा रहता है।
सोलहवीं लोकसभा में राज्यवर्धन सिंह राठौड़ के अलावा पूर्व क्रिकेटर कीर्ति आजाद, पूर्व फुटबॉल कप्तान प्रसून बनर्जी (तृणमूल कांग्रेस) और राष्ट्रीय स्तर के निशानेबाज के. नारायण सिंह देव (बीजद) सदस्य थे। डबल ट्रैप निशानेबाज राज्यवर्धन सिंह राठौड़ 2017 में देश के पहले ऐसे खेलमंत्री बने, जो ओलम्पिक पदक विजेता होने के साथ ही आला दर्जे के शूटर रहे हें। राठौड़ सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) भी हैं। राज्यवर्धन सिंह राठौड़ का बतौर खेल मंत्री कार्यकाल सराहनीय है। उन्होंने खिलाड़ी हित के कई अच्छे निर्णय लिए हैं। पंद्रहवीं लोकसभा में कीर्ति आजाद और के. नारायण सिंह देव के अलावा पूर्व क्रिकेटर अजहरुद्दीन (कांग्रेस) और नवजोत सिंह सिद्धू (भाजपा) भी सदसय थे। मोहम्मद अजहरुद्दीन 2014 में भी मुरादाबाद से चुनाव लड़े लेकिन हार गए थे। दूसरी ओर सिद्धू 2014 में लोकसभा का टिकट नहीं मिलने के बाद राज्यसभा के सदस्य थे लेकिन अब वह भाजपा छोड़कर कांग्रेस में आ गए हैं। सिद्धू की छवि एक कद्दावर नेता के रूप में जानी-पहचानी जाती है। बेबाक नवजोत सिंह सिद्धू के कारण ही पंजाब विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को मुंह की खानी पड़ी थी।
एक अन्य क्रिकेटर भारत के सलामी बल्लेबाज रहे चेतन चौहान ने भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर 1991 और 1998 में अमरोहा से लोकसभा चुनाव जीता जबकि 1996, 1999,  2004 व 2009 में उन्हें शिकस्त का सामना करना पड़ा। चेतन चौहान लगातार मिली पराजयों के बाद भी चुनावी पिच पर डटे रहे और आज वह उत्तर प्रदेश के खेल मंत्री हैं। पश्चिम बंगाल के क्रिकेटर लक्ष्मीरतन शुक्ला भी कुछ समय के लिए खेल मंत्री पद पर रह चुके हैं। पूर्व क्रिकेटर मोहम्मद कैफ 2009 में कांग्रेस की टिकट पर उत्तर प्रदेश के फूलपुर से चुनाव लड़े लेकिन हार गए। क्रिकेटर एस. श्रीसंथ भी राजनीतिक पिच पर भाग्य आजमा चुके हैं वह भाजपा की टिकट से तिरुवनंतपुरम से विधान सभा चुनाव लड़े लेकिन उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। पूर्व टेस्ट क्रिकेट और मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर के बाल सखा विनोद काम्बली भी राजनीति के क्षेत्र में अपना भाग्य आजमा चुके हैं। साल 2009 में काम्बली ने मुंबई की विक्रोली विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा था, लेकिन वह चुनाव हार गए थे। पूर्व क्रिकेटर मनोज प्रभाकर को भी राजनीतिक पिच रास नहीं आई।
क्रिकेटरों के अलावा अन्य खेलों के खिलाड़ियों ने भी राजनीति में दस्तक दी। 2004 में एथलीट ज्योतिर्मय सिकदर पश्चिम बंगाल की कृष्णानगर सीट से चुनाव जीतीं थीं। ज्योतिर्मय सिकदर और ममता बनर्जी के बीच याराना लम्बा नहीं चला लिहाजा उन्हें राजनीति से दूर होना पड़ा। पूर्व हॉकी कप्तान असलम शेर खान ने भी राजनीतिक पिच पर हाथ आजमाए और 1984 तथा 1991 में लोकसभा सदस्य बने लेकिन उसके बाद उन्हें चार चुनावों में पराजय का हलाहल पीना पड़ा। पूर्व हॉकी कप्तान दिलीप टिर्की ओड़िशा से राज्यसभा सदस्य रहे तो छह बार की विश्व चैम्पियन एम.सी. मैरीकाम और भारत रत्न सचिन तेंदुलकर आज भी राज्यसभा सदस्य हैं। मशहूर फुटबालर बाईचुंग भूटिया 2014 में तृणमूल कांगेस के उम्मीदवार थे, लेकिन वह चुनाव हार गए। पूर्व राष्ट्रीय तैराकी चैम्पियन और अभिनेत्री नफीसा अली 2004 में कांग्रेस तथा 2009 में सपा की उम्मीदवार रहीं, लेकिन दोनों ही बार उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। क्रिकेटर रवींद्र जड़ेजा की पत्नी रीवा सोलंकी, क्रिकेटर गौतम गम्भीर भाजपा की सदस्यता ले चुके हैं। रीवा सोलंकी विवादास्पद कर्णी सेना की महिला शाखा की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं। इस बार खिलाड़ियों पर लोगों को मतदान के लिए जागरूक करने की जिम्मेदारी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सचिन तेंदुलकर, विराट कोहली, महेंद्र सिंह धोनी, रोहित शर्मा, वीरेंद्र सहवाग, बजरंग पूनिया और विनेश फोगाट जैसे खिलाड़ियों से जनता जनार्दन को मतदान के लिए प्रेरित करने की अपील की है। 23 मई अभी दूर है ऐसे में कुछ और खिलाड़ियों की महत्वाकांक्षा राजनीतिक पिच पर परवान चढ़ सकती है।  


भाजपा के गढ़ मथुरा में महागठबंधन की फांस


श्रीप्रकाश शुक्ला
भगवान श्रीकृष्ण की धरती मथुरा इस बार भारतीय जनता पार्टी के लिए परेशानी का सबब बनती दिख रही है। हेमा मालिनी दूसरी बार दिल्ली की सल्तनत तक पहुंचने के लिए जहां खेतों में कूद पड़ी हैं वहीं महागठबंधन प्रत्याशी नरेन्द्र सिंह जनता जनार्दन से जीवंत सम्पर्क बनाते दिख रहे हैं। 17वीं लोकसभा का चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा इस बात का पता तो 23 मई को चलेगा लेकिन मथुरा सीट ड्रीम गर्ल के लिए हाट सीट बन चुकी है।
मौजूदा हालातों को देखें तो आज के समय में राजनीति सेवा की जगह समझौतों के आंचल में खेलती नजर आती है। भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश में इस बार कांग्रेस से कहीं अधिक रालोद-सपा-बसपा की जोरा-जोरी परेशान कर रही है। मथुरा सीट पर स्थानीयता की हवा बह चली है इससे गठबंधन की गांठ दिन-ब-दिन मजबूत होती जा रही है। मथुरा सीट पर हेमा के साथ जो लाव-लश्कर होना चाहिए, उसका भी अभाव साफ-साफ देखा जा रहा है। इस सीट पर कांग्रेस प्रत्याशी महेश पाठक को भी कमतर नहीं माना जा सकता। पाठक की ताकत भाजपा के लिए संजीवनी का काम कर सकती है।
देखा जाए तो राजनीति में सक्रिय पार्टियों को समझौतों की आवश्यकता तभी होती है, जब वे यह मान लेती हैं कि जिस विरोधी को उन्हें हराना है, वह उनसे अधिक सशक्त है और सहयोगियों को साथ लेकर ही उसका मुकाबला करना सम्भव है। इसी के साथ एक तथ्य यह भी है कि राजनीति में समर्थक, सहयोगी और विरोधी बदलते रहते हैं। मिसाल के तौर पर अटलबिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के बैनर पर जिन दलों के सहयोग से सत्ता हासिल की थी, उनमें से कई आज भाजपा के कट्टरविरोधी बनकर उभरे हैं। इनमें खासतौर से ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और चंद्रबाबू नायडू की तेलुगूदेशम पार्टी का नाम लिया जा सकता है।
राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो भगवान श्रीकृष्ण की पावन धरती मथुरा हमेशा से ही राजनीतिक दलों के लिए खास रही है। आजादी के बाद शुरुआती चुनावों में यहां कांग्रेस का दबदबा रहा करता था, लेकिन राम मंदिर की हवा के रुख ने इसे भारतीय जनता पार्टी के लिए खास बना दिया है। पिछली बार इस सीट से हेमा मालिनी तीन लाख से अधिक मतों से जीती थीं। हेमा ने तब जयंत चौधरी को करारी शिकस्त देकर कमल खिलाया था लेकिन इस बार रालोद के नरेन्द्र सिंह को सपा और बसपा का साथ मिलने से मुकाबला कांटे का हो गया है। देखा जाए तो मथुरा सीट पर कुछ दिग्गज भाजपाई कांटे से कांटा निकालने का जतन भी कर रहे हैं।
मथुरा लोकसभा सीट आजादी के बाद पहले चुनाव से ही कश्मकश भरी रही है। पहले और दूसरे लोकसभा चुनाव में यहां से निर्दलीय प्रत्याशी ने जीत दर्ज की थी लेकिन उसके बाद 1962 से लगातार तीन बार कांग्रेस पार्टी ने यहां से विजयी परचम फहराया। 1977 की सत्ता विरोधी लहर में भारतीय लोकदल ने कांग्रेस को पराजय का हलाहल पिलाकर एक नई पटकथा लिखने की कोशिश की। 1980 में जनता दल ने जहां विजयी जश्न मनाया वहीं 1984 में कांग्रेस ने एक बार फिर यहां जोरदार आमद दर्ज की। इस जीत के बाद कांग्रेस के लिए यहां से लम्बा वनवास शुरू हुआ। 1989 में जनता दल के प्रत्याशी ने जहां जीत दर्ज की वहीं इसके बाद 1991, 1996, 1998 और 1999 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने शानदार फतह हासिल कर इसे केसरिया का गढ़ बना दिया। भाजपा के चौधरी तेजवीर सिंह लगातार तीन बार यहां से चुनाव जीते। 2004 में मानवेन्द्र सिंह ने जहां कांग्रेस की वापसी कराई वहीं 2009 के चुनाव में कमल दल से यारी कर रालोद के जयंत चौधरी ने पाला फतह किया। 2014 में चली मोदी लहर में हेमा मालिनी ने जयंत चौधरी के पैर इस कदर उखाड़े कि उनकी हिम्मत ही दगा दे गई।
मथुरा सीट का जहां तक सवाल है पश्चिमी उत्तर प्रदेश की इस सीट पर जाट और मुस्लिम वोटरों का वर्चस्व रहा है। 2014 में जाट और मुस्लिम वोटरों के अलग होने का नुकसान ही रालोद को भुगतना पड़ा था। बीते चुनाव में जाटों ने एकमुश्त भाजपा के पक्ष में मतदान कर रालोद को ठेंगा दिखाया था। मथुरा लोकसभा में कुल पांच विधान सभा सीटें आती हैं, इनमें छाता, मांट, गोवर्धन, मथुरा और बलदेव विधानसभा सीटें शामिल हैं। 2017 के विधानसभा चुनावों में यहां मांट सीट पर बहुजन समाज पार्टी को जीत मिली थी, जबकि बाकी सीटों पर केसरिया परचम फहरा था। मथुरा लोकसभा सीट पर जो एक बात हेमा मालिनी के पक्ष में है, वह है इनकी साफ-सुथरी छवि। नरेन्द्र सिंह बेशक स्थानीय हों लेकिन मतदाता हेमा की छवि को उनसे बेहतर मान रहा है। अगर संसद में मथुरा की आवाज उठाने की बात करें तो हेमा मालिनी ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। हेमा मालिनी ने अपने संसदीय कोटे से क्षेत्र के विकास के लिए कुल  90 फीसदी राशि खर्च की है। लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार को धार देते हुए मैं भी चौकीदार हूं अभियान शुरू किया है लेकिन मथुरा में भाजपाइयों की सुस्ती केसरिया रंग फीका करती दिख रही है।
मथुरा में जातीय समीकरणों की बात की जाये तो भी इस बार की हवा भाजपा के पक्ष में बहती नहीं दिख रही। हम जानते हैं कि समाज के विकास क्रम में जातियों का जन्म पेशों के बाद हुआ है और आज के हालात में पहले विद्यमान वर्ण व्यवस्था को जातीय आधार मानकर देखा, समझा और जांचा नहीं जा सकता। यही हाल वंश परम्पराओं और उनसे जन्मे परिवारों का भी है, जिनमें निरन्तर टूटन की प्रक्रिया जारी है और उसे समाप्त करना सम्भव नहीं हो पा रहा। नरेन्द्र सिंह की राह का रोड़ा इनके भाई कुंवर मानवेन्द्र सिंह बन चुके हैं। आज के हालातों पर गौर करें तो मथुरा में बिजली, पानी, खाद, गैस, गरीबी, महंगाई, डीजल-पेट्रोल, बेरोजगारी, उद्योग, कृषि, शिक्षा सब हाशिये पर हैं। मथुरा में पिछले पांच साल में जिन समस्याओं का ढिंढोरा पीटा गया, आज उन पर भयानक चुप्पी है। यमुना शुद्धिकरण का मुद्दा भी भाजपा के गले की फांस बन सकता है।