Thursday, 30 July 2015

आतंकी का अंत


गुरुवार सुबह याकूब मेमन को फांसी दिये जाने के साथ ही आतंक के एक अध्याय का अंत हो गया है। याकूब की मौत पर जाति-धर्म का चोला पहने लोग कुछ भी कहें पर उन मुम्बईवासियों को जरूर सुकून मिला होगा जिनके परिजन 12 मार्च, 1993 को असमय काल के गाल में समा गये थे। याकूब की मौत से उन लोगों को नसीहत लेनी चाहिए जोकि अपने आपको कानून से बड़ा मानने की खुशफहमी में जीते हैं। बीते 10 साल में भारत में चार लोगों को फांसी पर लटकाया गया जिनमें याकूब मेमन, धनंजय चटर्जी, अजमल कसाब और अफजल गुरु शामिल हैं। धनंजय चटर्जी को 14 अगस्त, 2004, अजमल कसाब को 21 नवम्बर, 2012 और अफजल गुरु को 9 फरवरी, 2013 को फांसी पर लटकाया गया था। याकूब मेमन को 27 जुलाई, 2007 को टाडा कोर्ट के जज पीडी कोडे ने मौत की सजा सुनाई थी। अफसोस की बात है कि सब कुछ जानते हुए भी धर्म भीरुओं ने न केवल कानून पर उंगली उठाई बल्कि यह भी प्रमाणित करने की कोशिश की कि याकूब का 257 निर्दोष लोगों की मौत  के षड्यंत्र में कोई हाथ ही नहीं था। इन लोगों ने अदालत के फैसले पर उंगली उठाने से पहले यह भी सोचने की कोशिश नहीं की कि अदालत लम्बी प्रक्रिया के बाद ही अपराधी को फांसी की सजा सुनाती है। याकूब को भारतीय संविधान के तहत हर तरह की सुविधा दी गई ताकि वह अपने बचाव के लिए पूरी कोशिश करे। इस पूरे मामले में ओवेसी का यह कथन कि याकूब को फांसी इसलिये दी गई क्योंकि वह मुसलमान है, स्वाभाविक रूप से एकदम निराधार बात है। इसे समझदार मुसलमान भी स्वीकार नहीं कर सकते। ओवेसी का कथन भाजपा की हिन्दू हितरक्षण नीति के खिलाफ है। पर ओवेसी यह भूल जाते हैं कि एनडीए के शासन में ही मुल्क को राष्ट्रपति के रूप में डॉ. अब्दुल कलाम मिले थे। सच्चाई तो यह है कि मुम्बई बम ब्लास्ट के मामले में अधिकांश आरोपी मुस्लिम हैं, तय है कि सजा भी उन्हें ही होगी। याकूब को फांसी दिये जाने को लेकर जो फसाद हुआ, उस पर गहन चिन्तन का समय आ चुका है। दया याचिकाओं के नाम पर न केवल अदालतों का समय जाया होता है बल्कि कई अपराधियों की फांसी की सजा मृत्यदण्ड में तब्दील हो जाती है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इसका अपवाद कहे जा सकते हैं क्योंकि उनके कार्यकाल में अब तक तीन अपराधी फांसी पर लटकाये जा चुके हैं। बेहतर होगा दया याचिका की सुनवाई का अधिकार अकेले राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में न हो? इस मामले में एक बहुसदस्यीय जूरी गठित हो जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, विपक्ष के नेता और कुछ अन्य विशेषाधिकार सम्पन्न लोग शमिल हों? इससे गलती की गुंजाइश कम की जा सकती है। बेहतर तो यह भी है कि राष्ट्रपति के पास दया याचिका भेजने का प्रावधान खत्म कर उच्चतम न्यायालय के फैसले को ही अंतिम मान लिया जाए क्योंकि न्यायालय अपराध की प्रकृति और अपराधी की प्रवृत्ति के विश्लेषण के तर्कों से सीधे रूबरू होती है। 

मेरी बेटी का पुनर्जन्म हुआ


दुती चंद के घर में इस समय उत्सव का माहौल है। जब से दुती चंद  पर अंतरराष्ट्रीय खेलों में भाग लेने पर लगा प्रतिबंध हटने का समाचार मिला है घर के सभी सदस्य खुशी से फूले नहीं समा रहे। दुती चंद की बड़ी बहन और मेंटॉर सरस्वती, जो खुद चोटी की धाविका रह चुकी हैं, कहती हैं, मुझे शुरू से ही विश्वास था कि प्रतिबंध जरूर हटेगा क्योंकि मैं जानती थी कि वह सही है। उस सुखद पल को याद करते हुए सरस्वती कहती हैं, जब से उस पर प्रतिबंध लगा, तब जब भी उसका फोन आता था मन में एक डर पैदा हो जाता था, इस बार भी वही हुआ। वो आगे कहती है, मैंने सोचा रात के 10 बजे फोन कर रही है, कहीं फिर कोई गड़बड़ी तो नहीं हो गई। लेकिन जिस अंदाज से उसने मुझे दीदी पुकारा मैं समझ गई कि अबकी बार कोई अच्छी खबर है।
दुती चंद की माँ कहती हैं उनकी बेटी का पुनर्जन्म हुआ है। जिस तरह इस साल प्रभु जगन्नाथ का नवकलेवर हो रहा है, उसी तरह मेरी बेटी का भी मानो नवकलेवर हो रहा है। वे कहती हैं, दुती चंद ने पिछले एक वर्ष में काफी जिल्लत उठाई है, वो फूट-फूट कर रोई है। लेकिन अब उसके हंसने-खेलने के दिन आए हैं। उसने मुझे वादा किया है कि वह ओलम्पिक खेलों में पदक जीतेगी।
दुती चंद के पिता पेशे से बुनकर हैं और बहुत ही मुश्किल से अपने सात बच्चों, जिनमें छह बेटियां हैं, उनका गुजारा कर पाते हैं। लेकिन अपनी बेटियों को उन्होंने हमेशा खेलकूद के लिए प्रोत्साहित किया है। वे कहते हैं दुती चंद स्कूल में थी तभी से उसकी प्रतिभा की झलक साफ नजर आती थी। मैंने दुती से कहा कि अगर तुमने खेल को चुना है, तो जी-जान से खेलो। उन्हें भी पूरा विश्वास है कि दुती अगले वर्ष रियोडिजेनेरियो में होने वाले ओलम्पिक खेलों में पदक जीतेगी।
दुती के पड़ोसी अशोक दत्त वे जगहें दिखाते हैं जहाँ दुती बचपन में दौड़ का अभ्यास किया करती थी। वे कहते हैं, उसने काफी मेहनत की है। उन्होंने आगे बताया, रेत पर दौड़ती थी, घुटने तक ऊंचाई के पानी में दौड़ते हुए मैंने उसे कई बार देखा है। वो ऐसे ही चोटी की एथलीट नहीं बन गई। केवल अशोक को ही नहीं, बल्कि पूरे गांव को विश्वास है की दुती रियो से पदक लेकर आएगी और गोपालपुर गांव का नाम पूरी दुनिया में रोशन करेगी।

हॉकी गांव संसारपुर
जालंधर के पास एक ऐसा गांव जिसे हॉकी का पर्याय ही नहीं बल्कि हॉकी गांव कहा जाता है। यह गांव कोई और नहीं संसारपुर है। इस गांव ने मुल्क को 14 ओलम्पियन दिये हैं। इनमें नौ ने भारत, चार ने केन्या जबकि एक ने कनाडा का प्रतिनिधित्व किया है। 1968 के ओलम्पिक में इस गांव के सात खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया था। इनमें पांच ने भारत और दो ने केन्या के लिये दमखम दिखाया था।

संकल्प के छह साल

आपके असीम स्नेह और परोक्ष-अपरोक्ष रूप से मिले सहयोग के बीच ‘खेलपथ’ ने अपने संकल्प के छह साल पूरे कर लिये हैं। यह कहना बेमानी होगी कि ‘खेलपथ’ आपकी अपेक्षाओं पर शत-प्रतिशत खरा उतरा लेकिन सीमित संसाधनों में भी खिलाड़ियों से जीवंत सम्पर्क बनाये रखने की हमने पूरी कोशिश जरूर की। छह साल के अपने सफर में ‘खेलपथ’ ने न केवल खिलाड़ियों का मर्म जाना बल्कि अन्याय के खिलाफ बुलंद आवाज भी उठाई। ‘खेलपथ’ मीडिया से प्रतिस्पर्धा का हिमायती नहीं बल्कि जो दिखा, वह लिखा का पक्षधर रहा। ग्वालियर की पावन धरती विशेष है। इसी विशेषता के चलते ही ‘खेलपथ’ अपने मकसद की तरफ निरंतर अग्रसर है।
किसी समाचार पत्र या पत्रिका के लिए अपनी सम्पूर्ण विशिष्ट आभा बिखेरने तथा कार्यकुशलता प्रमाणित करने के लिए छह साल का समय पर्याप्त नहीं होता लेकिन आज हम विश्वास के साथ यह कहने की स्थिति में हैं कि हमने जिस उद्देश्य और संकल्प को साकार करने के लिए यह दुरूह कार्य हाथ हाथ में लिया था, उन संकल्पों और उद्देश्यों के पथ पर हम पूर्ण कर्मठता एवं लगन से चल रहे हैं। देश भर में समाचार पत्र और पत्रिकायें तो बहुसंख्या में प्रकाशित हो रहे हैं, ऐसी स्थिति में ‘खेलपथ’ के प्रकाशन की आखिर क्या अपरिहार्यता एवं आवश्यकता थी। इन्हीं सवालों के जवाब देने की खातिर ही ‘खेलपथ’के प्रकाशन का हमने बीड़ा उठाया था।  चूंकि 16 एवं 20 पृष्ठों के सतरंगी एवं चमकदार सज्जा वाले दैनिक आखबारों में हर प्रतिभाशाली खिलाड़ी और ग्रामीण अंचल की खेल गतिविधियों को समुचित स्थान नहीं मिल पाता लिहाजा एक सम्पूर्ण खेल समाचार पत्र का प्रकाशन समय की मांग बन गई।
अपनी मेहनत, समर्पण और प्रतिभा की दम पर खेलों के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पटल पर अपना मुकाम बनाने के लिए संघर्षरत प्रतिभाओं के प्रोत्साहन एवं सम्वर्धन की आवश्यकता रहती है और यह काम सरकार और समाज के साथ समाचार माध्यम ही बखूबी कर सकते हैं। स्थानीय, आंचलिक एवं प्रादेशिक स्तर की खेल गतिविधियों को पर्याप्त स्थान देने के साथ उत्साही एवं नवोदित खेल प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करना ही ‘खेलपथ’ का उद्देश्य रहा। हम अपने प्रयासों में कहां तक सफल हुए इसका निर्णय तो सुधी पाठकों को ही करना है। ‘खेलपथ’ की छह साल की संघर्ष यात्रा  के पथ प्रदर्शक बने सभी सुधी पाठकों, खिलाड़ियों, खेल प्रशासकों, खेल संगठनों, खेल प्रशिक्षकों एवं विज्ञापन प्रदाताओं का हम हृदय से आभार व्यक्त करते हैं। हम खेलों के उच्च मापदण्ड बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील रहने के साथ ही खामियों को तत्काल व सटीक ढंग से उजागर करने को संकल्पित हैं। खेल ही हमारा धर्म है। ‘खेलपथ’ अपने इसी धर्म का पूरी गरिमा, शुचिता एवं संकल्प भाव से पालन करता रहेगा। असीम स्नेह और सहयोग के लिए आपका पुनश्च: धन्यवाद। 

Wednesday, 29 July 2015

याकूब मेमन को फांसी


कहते हैं कि बुरे काम का बुरा नतीजा ही होता है। मुम्बई बम धमाकों के गुनाहगार याकूब मेमन की मान-मनुहार के सारे प्रयास विफल होने के साथ ही 30 जुलाई गुरुवार को उसे सुबह सात बजे फांसी दे दी जायेगी। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा मेमन की दूसरी बार दया याचिका खारिज करते ही उसको फांसी दिये जाने का रास्ता साफ हो गया। याकूब को फांसी दिये जाने को लेकर आम आवाम ही नहीं उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ में भी एकराय नहीं थी। मंगलवार को याकूब की अपील की सुनवाई करने वाले दो जजों एआर दवे और कुरियन जोसफ ने अलग-अलग राय दी थी। जस्टिस दवे का कहना था कि याकूब को फांसी होनी चाहिए और उसकी अपील में कोई दम नहीं है, तो न्यायाधीश जोसफ का कहना था कि याकूब के मामले में प्रक्रिया का उल्लंघन हुआ था। खैर, बुधवार को उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने याकूब मेमन की अपील खारिज करते हुए कहा कि इस मामले में किसी तरह की प्रक्रिया का उल्लंघन नहीं हुआ है। याकूब मेमन ने अपील की थी कि क्यूरेटिव पिटीशन की सुनवाई और डेथ वारण्ट जारी किए जाने की प्रक्रिया में खामियां हुई थीं। उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के बाद सबकी नजरें याकूब मेमन द्वारा राष्ट्रपति को दूसरी बार भेजी गई दया याचिका पर टिक गई थीं। राष्ट्रपति मुखर्जी ने याकूब मेमन की दया याचिका पर गृह मंत्रालय से पूछा कि क्या कोई नया आधार बनता है? गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने राष्ट्रपति की सलाह पर विचार करने के बाद कहा कि याकूब की याचिका में कुछ भी नया नहीं है। गृह मंत्रालय का विचार जानने के बाद राष्ट्रपति ने मेमन की दूसरी दया याचिका को भी खारिज कर दिया। उच्चतम न्यायालय के फैसले और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और महाराष्ट्र के राज्यपाल द्वारा दया याचिका खारिज करने के साथ ही याकूब को फांसी दिया जाना तय हो गया। देश में फांसी दिये जाने का यह कोई पहला मामला नहीं है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर गौर करें तो साल 2004 से 2013 के बीच भारत में 1303 अपराधियों को फांसी की सजा सुनाई गई लेकिन इस दौरान केवल तीन अपराधियों को ही फांसी दी गई। 10 साल में जिन तीन को फांसी पर लटकाया गया उनमें धनंजय चटर्जी, अजमल कसाब और अफजल गुरु शामिल हैं। धनंजय चटर्जी को 14 अगस्त, 2004, अजमल कसाब को 21 नवम्बर, 2012 और अफजल गुरु को 9 फरवरी, 2013 को फांसी पर लटकाया गया था। मुल्क में 2004 से 2014 तक 3751 लोगों की फांसी की सजा उम्रकैद में तब्दील हुई है। इस अवधि में उत्तर प्रदेश में 318, महाराष्ट्र 108, कर्नाटक 107, बिहार 105 और मध्य प्रदेश में 104 अपराधियों को मृत्यदण्ड की सजा सुनाई गई। जो भी हो 1993 के मुंबई सीरियल धमाकों के गुनाहगार याकूब मेमन को 30 जुलाई को फांसी देने के साथ ही आतंक के एक काले अध्याय का समापन हो जायेगा।

सुरक्षा को चुनौती

पंजाब के गुरदासपुर जिले में सोमवार की अलसुबह आतंकवादी करतूत ने हर भारतीय के मन में एक अनचाहा डर पैदा कर दिया है। भारत अपनी सीमाओं में जहां महफूज नहीं है वहीं देश की आंतरिक स्थिति में भी इतने सुराख हैं कि कभी कुछ भी हो सकता है। आज आतंकवाद का बदलता स्वरूप सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया भर के लिए खतरे का सबब बनता जा रहा है। गुरदासपुर जिले के एक थाने पर जिस तरह आत्मघाती दस्ते ने हमला किया, उससे कई सवाल पैदा हो रहे हैं। हमारे सुरक्षा बलों ने बेशक तीनों हमलावरों को मौत की नींद सुलाकर शाबासी का काम किया हो, पर  सवाल यह पैदा होता है कि आखिर ये आतंकवादी इतने हथियारों को लेकर यहां तक पहुंचे कैसे?
आतंकवादियों की ऐसी करतूत मुल्क की आंतरिक स्थिति के लिए खतरनाक संकेत है। अभी तक तो पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद सिर्फ घाटी तक ही सीमित था लेकिन अब उसके पैर पंजाब में भी पसरने लगे हैं। इस हमले से भारत को यह साफ संदेश दिया जा रहा है कि वे न सिर्फ इन्हीं दो राज्यों तक सिमट कर रहेंगे बल्कि इससे आगे जाकर भी खून-खराबा कर सकते हैं। आत्मघाती दस्तों को तो वैसे भी जान की परवाह नहीं होती। वे जान देने के लिए ही आतंक की राह चुनते हैं। एक ओर जहां कश्मीर घाटी आतंकवादियों की शरणस्थली बन चुकी है वहीं पंजाब तो आईएसआई के आॅपरेशन का पुराना केन्द्र रहा है। इस राज्य में आज भी अनेक खालिस्तान समर्थक मौजूद हैं। इस लिहाज से देखें तो आईएसआई को इस राज्य में अपने पैर पसारने में कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी। पंजाब के गुरदासपुर जिले में आतंकवादियों की नापाक हरकत कुछ अलग संदेश दे रही है। इस संदेश को खुफिया विभाग के अधिकारियों समेत देश के हुक्मरानों को समझना होगा। यह हमला आतंकवादियों के दुस्साहस की तरफ ही नहीं हमारी सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों की शिथिलता की ओर भी इशारा कर रहा है।
अब पानी सिर से ऊपर उठ चुका है। मोदी सरकार को पड़ोसी पाकिस्तान से मान-मनौवल की कूटनीति से काम लेने की बजाय उसे मुंहतोड़ जवाब देने की रणनीति बनानी चाहिए। हम जब भी पाकिस्तान के साथ नरम रुख अख्तियार करते हैं और ऐसा लगता है कि भारत-पाक मैत्री सही दिशा में बढ़ने वाली है, तभी हम धोखा खा जाते हैं। ऐसा कई बार हुआ है। पाकिस्तान मैत्री नहीं चाहता, यह बात हमारे राजनीतिक तंत्र के भेजे में जितनी जल्दी प्रवेश करे, उतना ही बेहतर होगा। जिस पंजाब से हमारे जवानों ने आतंकवाद को खदेड़ दिया था, उसी पंजाब में हालिया आतंकी हमला हमारे राजनीतिज्ञों की लचर नीतियों का ही परिणाम है। दरअसल आॅपरेशन ब्लू स्टार की 31वीं बरसी के दौरान जब पंजाब में शहीदी समागम के बडेÞ-बड़े विज्ञापन छपे थे, तभी सरकार को सतर्क हो जाना चाहिए था। पंजाब में एक बार फिर आतंकवाद का फन फैलाना खतरे का ही संकेत है। इस फन को तत्काल नहीं कुचला गया तो आतंक का यह विषधर दूसरे सूबों को भी अपनी जद में ले लेगा। आतंकवादियों से मिले हथियारों का चीन निर्मित होना भी गम्भीर साजिश है। पाकिस्तान ही नहीं चीन भी नहीं चाहता कि भारत में अमन कायम रहे।
आतंकी वारदातों पर हमारे राजनीतिज्ञों को सियासत करने की बजाय देशहित की बात सोचनी चाहिए। हर आतंकी वारदात के बाद खामियों पर समीक्षा होती है, बडेÞ-बड़े दावे-प्रतिदावे परवान चढ़ते हैं लेकिन इन्हें जमीनी हकीकत बनते कभी नहीं देखा गया। पंजाब में जो हुआ वह मुल्क की सुरक्षा व्यवस्था और आंतरिक शांति के लिए चिन्ता और चिंतन का विषय है। हम बार-बार अपनी खामियों की तोहमत पाकिस्तान पर लगाकर अपने कर्तव्य से ही जी चुराते हैं। चंूकि पंजाब हमले की जवाबदेही अभी तक किसी आतंकी संगठन ने नहीं ली है लिहाजा हम पाकिस्तान को इसका कसूरवार मान बैठे हैं। पाकिस्तान दोगला और धोखेबाज है, यह बात तो सही है लेकिन हमारी हुकूमत यह क्यों नहीं मानती कि आतंकवाद के मामले में वह भी शिथिल है। गुरुदासपुर पाकिस्तान सीमा से महज 15 किलोमीटर दूर है। हमलावर सेना की वर्दी में आए और पहले एक कार छीनी, फिर हमले के लिए आगे बढ़े। उनकी इस शैली से अनुमान लगाया जा रहा है कि ये आतंकी लश्करे तैयबा के हो सकते हैं। आतंकियों ने जिस तरह रेल पटरियों पर धमाके के इंतजाम किये थे, उन्हें समय रहते यदि निस्तेज नहीं किया गया होता तो बड़ी जनहानि हो सकती थी। यह आतंकी हमला उस वक्त हुआ, जब देश का सियासी तापमान चरम पर है। संसद का मानसून सत्र चल रहा है, जो रोज किसी न किसी कारण से बाधित हो रहा है। यूं तो सरकार समेत सभी राजनीतिक दलों ने आतंकी हमले की निन्दा की है, लेकिन इस नाजुक स्थिति का फायदा उठाने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। कांग्रेस ने केन्द्र को सख्त कदम उठाए जाने की बात कही तो सदन में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडगे को आतंकी हमले पर बोलने ही नहीं दिया गया।
पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने आतंकवाद को राष्ट्रीय समस्या बताते हुए इसका समाधान राष्ट्रीय नीति के तहत होने की बात कही है। बादल ने खुफिया एजेंसियों द्वारा हमले के अलर्ट पर नाराजगी जताते हुए कहा कि अगर खतरे का अंदेशा था, तो सीमा को सील क्यों नहीं किया गया? मोदी सरकार हमले के बाद हालात काबू में होने का दावा तो कर रही है लेकिन पूरे घटनाक्रम और उस पर राजनीतिक दलों के सतही रवैये को देखकर लगता ही नहीं कि आतंकवाद जैसी गम्भीर समस्या के निराकरण के मामले में हम वाकई सजग हैं। मुल्क में जब-जब ऐसे आतंकी हमले हुए, सुरक्षा बल के जवानों ने जान हथेली पर रखकर मोर्चा सम्हाला है।  राजनेता और सरकार बाद में सुरक्षा बलों की तारीफ में कुछ शब्द बोलकर, कुछ ईनाम या सम्मान देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। यह सही है कि सुरक्षा बलों के कारण देश की अधिसंख्य जनता सुरक्षित है, लेकिन देश के आंतरिक और बाह्य मोर्चे पर शांति केवल जवानों की मुस्तैदी से ही कायम नहीं हो सकती। किसी भी तरह के आतंकवाद को यदि समूल नष्ट करना है तो इसके लिए राजनीतिक प्रयास और उपाय ही कारगर होंगे। पंजाब में आतंकवाद कितना खतरनाक रूप दिखा चुका है, यह देश अभी भूला नहीं है। 20 साल बाद वहां फिर से आतंकवाद का अभ्युदय गम्भीर संकट की तरफ ही संकेत है। हमला हुआ है तो भविष्य को लेकर कई आशंकाओं का उठना स्वाभाविक है। बातों और बयानों से आतंक के सफाये की खुशफहमी पालने की बजाय हमें ठोस कदम उठाने का मन बनाना चाहिए।

सुशील और योगेश्वर दिखाएंगे दम


लीग में कुल 66 पहलवान हिस्सा लेंगे
36 भारतीय और 30 विदेशी पहलवान दिखाएंगे दांव-पेंच
नई दिल्ली। देश में अब पहलवानों के दिन भी फिरेंगे और कोई पहलवान गुरबत में जीवन बसर नहीं करेगा। वजह भारतीय कुश्ती महासंघ और प्रो स्पोर्टिफाई ने पेशेवर कुश्ती लीग (पीडब्ल्यूएल) की शुरुआत की घोषणा की। इस लीग में देश और दुनिया के 60 से अधिक शीर्ष पहलवान हिस्सा लेंगे। इस साल नवम्बर में लीग के पहले संस्करण में ओलम्पिक पदक विजेता सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त जैसे दिग्गज अपने फन का जादू दिखाते नजर आएंगे। इस लीग का आयोजन 8 नवम्बर से 29 नवम्बर के बीच होगा। इसमें ओलम्पिक में पदक जीत चुके दुनिया भर के 20 से अधिक पहलवान हिस्सा लेंगे। इस प्रतियोगिता के लिए तीन लाख डॉलर (लगभग 19 करोड़) रुपये की पुरस्कार और नीलामी राशि रखी गई है।
भारत के लिए दो ओलम्पिक पदक (2008 में कांस्य, 2012 में रजत) जीत चुके सुशील और लंदन में कांस्य जीत चुके योगेश्वर के अलावा देश की एकमात्र महिला ओलम्पिक पहलवान गीता फोगाट मुख्य आकर्षण होंगी। इसके अलावा भारत से बजरंग कुमार, अमित कुमार, अनुज चौधरी, बबीता कुमारी, विनेश फोगाट और गीतिका जाखड़ भी इस लीग की शोभा बढ़ाएंगी। विश्व की सबसे महंगी कुश्ती प्रतियोगिता मानी जा रही इस लीग में कुल 66 पहलवान हिस्सा लेंगे, जिनमें 36 भारतीय और 30 विदेशी पहलवान होंगे। फ्रेंचाइजी आधारित इस लीग को जीतने वाली टीम पुरस्कार राशि तीन करोड़ रुपये रखी गई है। इसके अलावा दो करोड़ रुपये विभिन्न स्तर पर खिलाड़ियों के बीच पुरस्कार के तौर पर वितरित किए जाएंगे।
नई दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में इस लीग की लांचिंग हुई। इस अवसर पर सुशील सहित कई प्रमुख पहलवानों ने अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। सुशील ने कहा कि वह इस लीग के आने से खुश हैं क्योंकि इससे युवा खिलाड़ियों के लिए नए रास्ते खुलेंगे। सुशील ने यह भी कहा कि वह इस बात को लेकर भी खुश हैं कि रियो ओलम्पिक से पहले उन्हें तथा तमाम भारतीय पहलवानों को देश में ही अभ्यास का अच्छा मौका मिल जाएगा। साथ ही भारतीय खिलाड़ी लीग के माध्यम से धन भी कमा सकेंगे। इस लीग में छह टीमें होंगी। प्रत्येक टीम में 11 खिलाड़ी होंगे। इनमें छह पुरुष और पांच महिलाएं होंगी। एक टीम में छह भारतीय और पांच विदेशी खिलाड़ी होंगे। यह लीग बेस्ट आॅफ नाइन फॉरमेट के आधार पर खेली जाएगी। सभी नौ मुकाबले लीग स्तर पर आयोजित होंगे। हर मुकाबले में तीन राउंड होंगे और प्रत्येक राउंड तीन मिनट का होगा। इसमें एक मिनट का ब्रेक भी होगा। लीग के लिए कई रोचक नियम बनाए गए हैं।
लीग के तहत 21 दिनों में कुल 18 मुकाबले होंगे। इनमें 15 लीग मैच, दो सेमीफाइनल और एक ग्रैंड फिनाले शामिल है। प्रतियोगिता में कम से कम 150 मैच होंगे। प्रत्येक मैच के दौरान एक टीम को अधिक से अधिक चार विदेशी खिलाड़ियों को खिलाना है। इस लीग को 150 से अधिक देशों में देखा जा सकेगा। इसका प्रसारण किस चैनल पर होगा, इसका खुलासा आने वाले दिनों में होगा। लीग के लिए 15 सितम्बर को नीलामी होगी और इसके मुकाबले छह शहरों में खेले जाएंगे। वैसे लीग के लिए चार जोन बनाए गए हैं। इसके मुकाबले छह शहरों में होंगे। छह फ्रेंचाइजी टीमों में से तीन उत्तर से, एक पश्चिम, एक दक्षिण और एक पूर्वोत्तर से होगी।
लुधियाना, चंडीगढ़, हिसार, दिल्ली, गुड़गांव, लखनऊ, रांची, कोलकाता, मुम्बई, पुणे, कोल्हापुर, हैदराबाद और बेंगलूर में इसके मुकाबले होंगे। अंतिम रूप से छह मेजबान शहरों का चयन बाद में किया जाएगा। लांचिंग के अवसर पर इस लीग का लोगो भी लांच किया गया। इसे दिल्ली स्कूल आॅफ आर्ट्स के छात्रों ने तैयार किया है। खास बात यह है कि लोगो तैयार करने वाले छात्र और छात्रा बधिर हैं।
प्रस्तुत हैं लीग से जुड़े कुछ रोचक तथ्य और आंकड़े
-कुल पुरस्कार राशि : पांच करोड़ (विजेता के लिए तीन करोड़, दो करोड़ अन्य टीमों और खिलाड़ियों में बंटेंगे)
-13 करोड़ रुपये खिलाड़ियों की नीलामी के लिए
-खिलाड़ियों की खरीद के लिए प्रत्येक टीम को मिलेंगे तीन करोड़ रुपये
-छह टीमें, 66 खिलाड़ी
-36 भारतीय, 30 विदेशी खिलाड़ी
-66 में से 20 ओलम्पिक पदक विजेता
-150 से अधिक देशों में सीधा प्रसारण
-एचडी-एसडी प्रसारण, 8 से 10 कैमरों से साथ शूटिंग
-खिलाड़ियों की नीलामी-15 सितम्बर, 2015
-6 फ्रेंचाइजी आधारित टीमें
-21 दिनों में 18 मुकाबले
-15 लीग मैच, दो सेमीफाइनल और एक ग्रैंड फिनाले
-कम से कम 150 मैच
-हर टीम को मिलेंगे 11 पहलवान
-एक टीम में छह पुरुष और पांच महिला पहलवान
-हर टीम को मिलेंगे पांच विदेशी खिलाड़ी
-प्रत्येक मुकाबले के लिए एक टीम में चार विदेशी खिलाड़ी
फॉरमेट :
-मुकाबले नाइन फॉरमेट पर होंगे
-पांच पुरुष, चार महिला मैच
-सभी नौ मैच होंगे
-हर मैच तीन राउंड का होगा
-हर राउंड के बीच एक मिनट का ब्रेक
-मैच जीतने पर एक अंक अर्जित
-0.5 अंक गिराने पर बोनस के तौर पर मिलेंगे
-0.5 ग्रेट सुपरियारिटी पर मिलेंगे
-15 अंक की बढ़त पर ग्रेट सुपरियारिटी बोनस
भारतीय महिला पहलवानों ने 10,000 डॉलर की इनामी राशि जीती
अस्ताना। कजाकिस्तान में हुए कप आॅफ द प्रेसीडेंट आॅफ रिपब्लिक आॅफ कजाकिस्तान के पांचवें संस्करण में भारतीय महिला पहलवानों की टीम ने दूसरा स्थान हासिल किया। आठ सदस्यीय भारतीय टीम ने दुनिया के शीर्ष पहलवानों के खिलाफ शानदार प्रदर्शन किया और 10,000 डॉलर की इनामी राशि जीतने में सफल रहीं। मेजबान कजाकिस्तान शीर्ष पर रहा, जबकि मंगोलिया ने तीसरा स्थान हासिल किया।
भारत के लिए राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक विजेता विनेश फोगाट (48 किलोग्राम), राष्ट्रमंडल खेलों में रजत पदक विजेता ललिता सहरावत (55 किलोग्राम) और अनीता (63 किलोग्राम) ने अपने सारे मुकाबले जीते, जबकि राष्ट्रमंडल खेलों में रजत पदक विजेता रहीं साक्षी मलिक (58 किलोग्राम) ने सिर्फ एक मुकाबला गंवाया। निर्मला देवी (53 किलोग्राम), सरिता (60 किलोग्राम), नवजोत कौर (69 किलोग्राम) और निक्की (75 किलोग्राम) ने भी बेहतरीन प्रदर्शन किया।
भारतीय कुश्ती महासंघ (डब्ल्यूएफआई) के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह ने कहा, मुझे टीम पर गर्व है और उनके प्रदर्शन के लिए मैं उन्हें बधाई देता हूं। हमारी खिलाड़ियों ने जिस तरह कठिन मेहनत की है और अपना सर्वश्रेष्ठ दिया है, उसी के कारण वह दूसरा स्थान हासिल कर सकीं। उन्होंने कहा, विश्व चैम्पियनशिप के लिए हमारे पास अभी भी महीने भर से अधिक समय है और मुझे पूरा विश्वास है कि कजाकिस्तान दौरा हमारी महिला पहलवानों को अपने प्रदर्शन में सुधार में मदद करेगी। विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप का आयोजन सात से 12 सितम्बर के बीच लास वेगास में होना है। रियो ओलम्पिक-2016 में प्रवेश करने के लिए यह विश्व चैम्पियनशिप पहला क्वालीफाइंग टूर्नामेण्ट होगा।

दुती तुम लड़की हो या लड़का?



इस सवाल का जवाब देते-देते देश की उदीयमान एथलीट दुती चंद टूट चुकी थी
विशेष बातचीत
ग्वालियर। मुझे पता चला कि मेरा फैसला आने वाला है, लेकिन यह नहीं पता था कि कितने बजे। जब मैंने आॅनलाइन देखा तो मालूम हुआ कि मैं जीत गई। अब मैं ट्रैक पर पुन: जलवा दिखा सकती हूं और अपने देश-प्रदेश का नाम ऊंचा कर सकूंगी। आज मैं बहुत खुश हूं। दुती कहती है कि मैंने कभी नहीं सोचा कि मैं हार जाऊँगी। मैंने कभी कुछ गलत नहीं किया, तो मुझे लगता था कि मेरे साथ जो होगा, सही ही होगा। जज साहब ने अच्छा किया कि मेरी सारी बात अच्छी तरह पढ़ कर मुझे न्याय दिया।
पुरुषत्व की परीक्षा देने वाली दुती अकेली लड़की नहीं है इससे पूर्व 1930 में सबसे तेज धाविका रही स्टेला वॉल्श को भी ऐसा ही विवाद झेलना पड़ा। बकौल दुती मुझे खासकर इसलिए अच्छा लगा कि अब मेरे जैसे एथलीट्स को ट्रैक पर दुख नहीं झेलना पड़ेगा। जो बुरी बातें मुझे सुननी पड़ीं (ये लड़की है या लड़का) ये किसी एथलीट को नहीं सुनना पड़ेगा।
मेरी मम्मी ने भी कहा कि भगवान हमारे साथ थे इसलिए सब कुछ ठीक हुआ। अब तुम सब कुछ भूल जाओ और नए साल से एक बार फिर नए तरीके से ट्रेनिंग शुरू करो। फिर एक दिन जरूर ऐसा आएगा कि तुम ओलम्पिक में जाकर मेडल जीतोगी। दुती ने कहा कि मुझमें इस लड़ाई के लिए साहस इसलिए आया क्योंकि लोग मुझे सपोर्ट कर रहे हैं। मुझमें साहस आया कि मैं इसमें अकेली नहीं हूं। फिर क्यों डरूं? मैंने केस लड़ा और जीत कर दिखाया।
ट्रेनिंग का हुआ नुकसान
इस पूरे मानसिक तनाव के कारण मैं ट्रेनिंग अच्छे से नहीं कर पाई लेकिन अभी ओलम्पिक शुरू होने से पहले सात महीने हैं मेरे हाथ में। और भारत सरकार ने जो स्कीम निकाली है उसके तहत यूएस भेजा जाएगा ट्रेनिंग के लिए। अगर मैं ट्रेनिंग कर लेती हूं, तो मैं बहुत अच्छा परफारमेंस करके दिखाऊंगी।
बहुत बुरी बातें सुननी पड़ीं
धाविका शांती सुन्दराजन को भी 2006 में लिंग परीक्षण में फेल कर दिया गया था। इतनी लम्बी कानूनी लड़ाई में सबसे बड़ा नुकसान मेरी ट्रेनिंग का ही हुआ है। बहुत बुरी बातें सुननी पड़ीं मुझे। मैं कहीं जा नहीं पाई। जितना नाम कमाया था भारत में, वो नाम सब चला गया। अब फिर से सब शुरू करना होगा। ट्रेनिंग भी फिर से शुरू करनी पड़ेगी। बहुत नुकसान हो गया मेरा। जो लोग मुझे बहुत प्यार करते थे वो ये सोचने लगे कि ये लड़की है या लड़का।
दोस्त भी नजरें चुराते थे
मुझे बहुत सुनना पड़ा। लोग फोन करके पूछते थे कि दुती तुम रियल में क्या हो लड़की या लड़का? फिर जो मेरी दोस्त थीं, उनका परिवार भी पूछता था कि ये लड़की है या लड़का? हम अगर अपनी लड़की को इसके पास भेजते हैं तो गलत तो नहीं होगा। दोस्त भी मुझसे बचने लगे थे। ट्रेनिंग के दौरान जिस हॉस्टल में हम रहते हैं, उसमें दो लड़कियां एक कमरे में रहती हैं, लेकिन मुझे अलग से एक कमरा दिया गया। मुझसे भेदभाव किया गया। लेकिन अब मैं फिर से यहां हैदराबाद में ट्रेनिंग शुरू कर रही हूं।
दुती की जीत से दुनिया भर की खिलाड़ियों को फायदा
दुती चंद केस की जीत बहुत बड़ी जीत है क्योंकि इसका असर सिर्फ़ भारतीय नहीं बल्कि विश्व खेल जगत पर पड़ेगा। दुनिया की हर महिला एथलीट इससे प्रभावित होगी क्योंकि सिर्फ दुती ही नहीं है जिसे यह झेलना पड़ा है। हॉर्मोन टेस्ट फेल होने के बाद पिछले साल दुती चंद पर बैन लगा दिया गया था। दुती चंद  ने इसे चुनौती के रूप में लिया और हिम्मत दिखाई तथा अंतरराष्ट्रीय एसोसिएशन आॅफ एथलेटिक्स फेडरेश्नस (आईएएफ) के फैसले को चुनौती दी गई। अभी दुती चंद को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुकाबलों में भाग लेने के लिए बिना शर्त अनुमति दी गई है।
हाइपरएंड्रोजेनिज्म
कोर्ट आॅफ आरबिट्रेशन आॅफ स्पोर्ट्स में हमारे केस में एक और मुद्दा था कि हाइपरएंड्रोजेनिज्म के आधार पर प्रतिबंध को रहना चाहिए या उसे खत्म कर देना चाहिए। इस पर कास ने आईएएफ को कहा है कि अगर आप इस मुद्दे पर और कोई वैज्ञानिक तथ्य लेकर बात करना चाहते हो तो फिर बात की जा सकती है। कास ने आईएएफ से पूछा है कि अतिरिक्त हाइपरएंड्रोजेनिज्म वाले एथलीट को बाकी खिलाड़ियों पर जो बढ़त मिलती है उसे मापा कैसे जाता है और वह कितनी है? अगर वह एक या दो या तीन फीसदी है तो वह अन्य शारीरिक विशेषताओं की वजह से भी मिल सकती है। अगर 10-12 फीसदी फायदा मिलता है तो हमें चिंता करनी चाहिए।
दुती चंद के मामले में भारत सरकार, स्पोर्ट्स अथॉरिटी आॅफ इंडिया, खेल मंत्रालय के अलावा अमरीकी विशेषज्ञों जैसे कि डॉक्टर कटरीना ने बहुत साथ दिया। कटरीना ने पहले दिन से ही दुती चंद को राह दिखाई है। बकौल दुती चंद मैं, कटरीना और ब्रूट्स्की आपस में सलाह किया करते थे कि कैसे इस मामले को रखना है, कैसे सरकार को मनाया जा सकता है। हम तीनों के अलावा कनाडा में कानून के विशेषज्ञ थे- जिनमें कनाडा के सुप्रीम कोर्ट के जज भी शामिल थे। उन्होंने प्रो-बोनो यानि कि नि:शुल्क दुती चंद का केस लड़ा। दुती कहती है कि मुझे लगता है कि इसे सिर्फ़ भारतीयों की जीत कहना ठीक नहीं होगा। यह जीत है उन लोगों की जिन्हें लगता है कि खेल को सभी लोगों को लेकर चलना चाहिए। खेल में सिर्फ़ प्रतिस्पर्धा, सिर्फ जोश नहीं होना चाहिए। इसे सबको शामिल करके चलने वाला होना चाहिए। इसका नैतिक पक्ष मजबूत होना चाहिए।
जैसी हैं, वैसी ही रहेंगी
मैंने ऐसी कई महिला एथलीट के साथ काम किया है जिनकी साथ भेदभाव हुआ है। पिंकी प्रमाणिक के साथ भी मैं काम कर चुकी हूं। मैं शोध करती हूं और एथलीट के साथ बहुत नजदीकी से जुड़ती हूं। इसलिए इस मामले में मेरी समझ बहुत अलग है। मैं इसे सिर्फ एक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दे के रूप में नहीं देखती। यह सिर्फ़ एक वैज्ञानिक मुद्दा नहीं है, यहां हम लोगों के बारे में बात कर रहे हैं। महिला एथलीटों पर दबाव होता है कि वह खास तरह की दिखें, खास तरह के कपड़े पहनें। मीडिया भी कहता है कि विज्ञापन में तभी आओगी जब लम्बे बाल रखोगी, अच्छी बात करोगी, ठीक से बर्ताव करोगी। जब भी कोई लड़की खिलाड़ी बनती है तो उसकी छोटी-छोटी बात पर ध्यान दिया जाता है। इस नियम पर भी यह बात लागू होती है। आज यह कहा जा सकता है कि जो भी लड़कियां खेल की दुनिया में आती हैं वह कह सकती हैं कि मैं जो भी हूं ऐसी ही रहूंगी। मुझे लोगों को खुश करने के लिए या कुछ बनने के लिए कुछ बनने की कोशिश नहीं करनी पड़ेगी।
डॉक्टर पायोषनी मित्रा
डॉक्टर पायोषनी मित्रा जादवपुर विश्वविद्यालय के स्कूल आॅफ मीडिया, कम्युनिकेशन एण्ड कल्चर के खेल, यौन-रुझान के आधार पर यौन शोषण और भेदभाव, यौन समरूपता और इंटरसेक्सुअलिटी पर शोध प्रोजेक्ट की निदेशक हैं। भारत सरकार का खेल और युवा मंत्रालय इस प्रोजेक्ट को सहायता प्रदान करता है। इसके अलावा वह स्पोर्ट्स अथॉरिटी आॅफ इंडिया में लिंगभेद और खेल मुद्दों की सलाहकार भी हैं।

Tuesday, 28 July 2015

नजाकत नहीं अब ताकत दिखातीं बालाएं

भारत की चार महिला बॉडी बिल्डरों पर विशेष
पुरुष बॉडी बिल्डर तो आपने खूब देखे होंगे लेकिन अब हम आपकी मुलाकात करवाते हैं भारत की चोटी की चार सबसे प्रसिद्ध महिला बॉडी बिल्डर्स से। वैसे तो इनके शारीरिक सौष्ठव के आगे मर्द भी पानी भरते नजर आएंगे, फिर भी इन महिलाओं को आप सिर्फ बॉडी बिल्डर नहीं कह सकते। सिर्फ इस प्रोफेशन के जानकार ही बता सकते हैं कि हर वो महिला जिसके ऐब्स, मसल्स और बाइसेप्स हैं उसे बॉडी बिल्डर नहीं कहा जाता। महिला बॉडी बिल्डिंग और इसके मुकाबले थोड़े हटकर होते हैं और बॉडी बिल्डिंग प्रतियोगिताओं में इन महिलाओं को चार अलग-अलग श्रेणियों में बाँटा जाता है।
बॉडी वेट श्रेणी: शिबालिका शाह
भारत में महिला बॉडी बिल्डिंग कुछ समय के लिए बंद रही लेकिन हाल ही में इसे मुंबई में स्थित इंडियन बॉडी बिल्डिंग फेडरेशन ने दोबारा शुरू किया है। इस फेडरेशन के लिए खेलने वाली कोलकाता की शिबालिका शाह भारत की पहली महिला बॉडी बिल्डर हैं और वो बॉडी वेट श्रेणी में 55 किलोग्राम भार वर्ग में खेलती हैं। शिबालिका कहती हैं कि कसरत को लेकर पति के साथ अनबन के चलते उन्होंने तलाक ले लिया और शादी टूटने के बाद अपना सारा जीवन बॉडी बिल्डिंग को समर्पित कर दिया। साल 2011 में पहली बार उन्होंने रीजनल बॉडी बिल्डिंग चैम्पियनशिप में भाग लिया था जहां उन्हें पांचवां स्थान मिला। शिबालिका हंसते हुए कहती हैं, कई बार मुझे देखकर लोग भ्रमित हो जाते हैं और भैया या अंकल कह कर बुलाते हैं। इस कैटेगरी में कुल मिलाकर 7 पोज करना अनिवार्य हैं और कुल मिलाकर 11 से 12 जज आपके शरीर के अलग अलग हिस्सों को देख कर आपको नम्बर देते हैं।
एथलीट फिगर श्रेणी: दीपिका चौधरी
महिला बॉडी बिल्डिंग में दूसरा वर्ग है एथलीट फिगर श्रेणी का जिसमें भारत की ओर से पहली एथलीट हैं पुणे की दीपिका चौधरी। इंटरनेशनल फेडरेशन आॅफ बॉडी बिल्डिंग के अंदर खेलने वाली दीपिका की सभी प्रतियोगिताएं अमेरिका में ही होती हैं। इस प्रतियोगिता में चार बार जीत हासिल कर चुकी दीपिका कहती हैं, फिगर एथलीट में कुल चार पोज होते हैं। जिसमें आपको सामने देखते हुए अपने बॉडी पार्ट्स को दिखाना होता है। फिर अपने ऐब्स को, टांगों के सभी मसल्स को और फिर पीछे घूमकर अपनी पीठ के एक-एक मसल्स को दिखाना होता है। दीपिका बताती हैं, इसके अलावा हमें 130 किलो वजन उठाना पड़ता है और 102 दण्ड-बैठक भी लगाने पड़ते हैं। दीपिका चौधरी शादीशुदा हैं और अपने ससुराल वालों के साथ ही रहती हैं और बॉडी बिल्डिंग के साथ साथ नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ वॉयरोलॉजी में अनुसंधान सहायक के तौर पर कार्यरत हैं।
फिटनेस फिजिक श्रेणी: अश्विनी वास्कर
महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले से आने वाली अश्विनी वास्कर का पारिवारिक कारोबार मछली पकड़ने से जुड़ा था लेकिन फिर उन्हें बॉडी बिल्डिंग का भूत ऐसा चढ़ा कि फिर उतरा ही नहीं। साधारण कपड़ों में सामान्य लड़की दिखने वाली अश्विनी को आप एक आम लड़की समझने की भूल न करें क्योंकि ताकत के मामले में वो एक सामान्य इंसान से कहीं ज्यादा हैं। अश्विनी अपनी श्रेणी के बारे में बताती हैं, फिटनेस फिजिक में अच्छे मसल्स, ऐब्स तो चाहिए लेकिन आपकी बॉडी भारी नहीं होनी चाहिए और ना ही आपके कंधे काफी चौड़े होने चाहिए। सबसे ज्यादा जरूरी है कि आपकी बॉडी में लचीलापन हो। इस श्रेणी में प्रतियोगियों को मंच पर डांस परफॉरमेंस भी देनी होती है और डांस करते वक्त उन्हें अपनी बॉडी का प्रदर्शन करना पड़ता है, यहां बॉडी और एनर्जी के नम्बर दिए जाते हैं। अश्विनी बताती हैं, मुझे सबसे बड़ी दिक्कत थी बिकनी पहनने को लेकर लेकिन अब इसकी आदत हो गई है।
मॉडल फिजिक श्रेणी: अंकिता सिंह
महिला बॉडी बिल्डिंग की चौथी श्रेणी है मॉडल फिजिक श्रेणी जिसमें हिस्सा लेती हैं लखनऊ की अंकिता सिंह। पांच बार राष्ट्रीय और आठ बार अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भाग ले चुकी अंकिता इन दिनों एशियन चैम्पियनशिप की तैयारी कर रही हैं। पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर अंकिता कहती हैं, मैं पिछले सात साल से बॉडी बिल्डिंग कर रही हूं और हमारी श्रेणी का मॉडल होने और रैंप वाली मॉडल होने में बहुत फर्क है। अंकिता कहती हैं, यहां आपके मसल्स के साथ शरीर का एक-एक अंग देखा जाता है, आपकी टांगें पतली होनी चाहिए, रैंप पर चलने वाली मॉडल का पेट बहुत चपटा होता है जबकि मॉडल फिजिक में आपके 6 और 8 पैक्स होने चाहिए। इन चारों ही महिलाओं का मानना है कि महिला बॉडी बिल्डिंग को अभी भारत में लोकप्रिय होने में समय लगेगा क्योंकि अभी कई सामाजिक रूढ़ियाँ हैं जो इस प्रोफेशन के आड़े आएंगी।

कैसे होगा पुश्तैनी खेल हॉकी का भला

कोच नया, मर्ज पुराना
श्रीप्रकाश शुक्ला
पुश्तैनी खेल, गौरवमयी इतिहास, आठ ओलम्पिक-एक विश्व खिताब का मदमाता गर्व और गौरव हॉकी के हुक्मरानों ने विदेशी हाथों में गिरवी रख दिया है। 35 साल से उसे हासिल करने की जद्दोजहद तो हो रही है लेकिन उसे पाना तो दूर हमारे लड़ाका खिलाड़ी उस तक पहुंत भी नहीं पा रहे हैं। पिछले दिनों भारतीय हॉकी टीम के कोच नीदरलैण्ड के पॉल फान एस ने यह कहकर सनसनी फैला दी कि हॉकी इण्डिया ने उन्हें उनके पद से हटा दिया है। इसके बाद घटनाचक्र तेजी से बदला और हॉकी इण्डिया ने नीदरलैण्ड के ही रोलेंट ओल्टमंस को भारतीय टीम का कोच बनाकर खेलप्रेमियों को इस बात का अहसास कराया है कि रियो ओलम्पिक में  हमारी तूती बोलेगी। काश ऐसा हो। ओल्टमंस इससे पहले हॉकी इण्डिया में बतौर हाई परफॉरमेंस डायरेक्टर तैनात थे।
हॉकी इण्डिया की इस कारगुजारी से यह तो साफ हो गया है कि भारतीय हॉकी टीम का कोच देसी नहीं विदेशी ही होगा। अब सबसे बड़ा सवाल कि रियो ओलम्पिक की तैयारियों में जुटी भारतीय टीम के पदक जीतने की कितनी सम्भावनाए हैं और उसका मनोबल कैसा है? उल्लेखनीय है कि रियो ओलम्पिक खेलों का आयोजन 5 से 12 अगस्त, 2016 तक किया जाएगा। इससे पहले भारतीय टीम पिछले 2012 लंदन ओलम्पिक में 12वें और आखिरी पायदान पर रही थी।
इस पूरे मुद्दे पर पूर्व ओलम्पियन अशोक कुमार कहते हैं कि भारत सरकार, स्पोर्ट्स अथॉरिटी आॅफ इण्डिया के अलावा हॉकी इण्डिया हर तरह से भारतीय खिलाड़ियों की मदद कर रही है। ऐसे में कोच का हटाया जाना टीम के हित में नहीं है। पिछले कुछ सालों में नीदरलैण्ड, जर्मनी, स्पेन और आॅस्ट्रेलिया से कोच आए हैं लेकिन हॉकी की सेहत सुधरने की बजाय बिगड़ती ही चली गई। अशोक कुमार का मानना है कि यह अहंकार की लड़ाई है। हर साल कोच बदलने से टीम जीतना शुरू नहीं कर देगी। कोच ऐसा हो जिस पर खिलाड़ी भरोसा कर सकें। अब इस घटना से भारतीय खिलाड़ियों का मनोबल उपर उठने की बजाय गिरेगा।
पॉल फान एस को हटाकर रोलेंट ओल्टमंस को कोच बनाने की सिफारिश करने वाले पूर्व ओलम्पियन हरविन्दर सिंह का कहना है कि पिछले दिनों यह देखने में आया कि कमजोर टीमों के खिलाफ हमारी जीत का अंतर बहुत कम था जबकि मजबूत टीमों के खिलाफ हार का अंतर बेहद अधिक था। अब जबकि रियो ओलम्पिक में केवल एक साल बचा है तो टीम क्या करे इन सभी बातों पर समिति ने अपनी रिपोर्ट हॉकी इण्डिया को दे दी है जिस वह विचार करेगी। हरविन्दर सिंह ने आगे कहा कि टीम के मनोबल पर कोई असर नहीं पड़ेगा। खिलाड़ियों से बातचीत के बाद पाया गया कि वह उनकी रणनीति के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर पा रहे थे।
भारत के एक और पूर्व ओलम्पियन और दो बार भारत को एशियाई खेलों का स्वर्ण पदक दिला चुके एमके कौशिक कहते हैं कि विदेशी कोच का काम पैसा कमाना है। वे सब अपना पद छोड़ने के बाद ही रोते हैं, काम करते समय क्यों नहीं? दरअसल आज हॉकी इण्डिया को लगता है कि वर्तमान हॉकी में विदेशी कोच की मदद से ही टीम का स्तर ऊंचा किया जा सकता है इसलिए पिछले कुछ समय में विदेशी कोच आए। वैसे वे भी मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आठवें पायदान पर मौजूद भारतीय टीम के लिए रियो में पदक जीतना आसान नहीं है। काउंटर अटैक पर खिलाड़ियों का गेंद को अपने कब्जे में लेकर आगे बढ़ना, पेनाल्टी कॉर्नर को गोल में बदलना और विरोधी टीमों को अधिक पेनाल्टी कॉर्नर ना देना जैसी बुनियादी बातों पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है।
वैसे यह मर्ज तो पुराना है, कोच भले ही नया हो। फर्क सिर्फ इतना है कि पिछले कुछ सालों से टीम के साथ हाई परफॉरमेंस डायरेक्टर के रूप में साथ रहे ओल्टमंस को सभी खिलाड़ी जानते हैं, उनसे तालमेल बन जाएगा। इसके बावजूद रातों-रात भारतीय हॉकी की किस्मत बदल जाएगी मुश्किल ही लगता है।
...तो हॉकी में भारत मेडल कैसे जीतेगा?
भारतीय हॉकी में पिछले कुछ सालों में दो बड़े परिवर्तन आए हैं। एक है खेल में पैसा और दूसरा है हॉकी का निरंतर गिरता स्तर। अक्सर भारतीय खिलाड़ियों को पैसे की कमी खलती है। लेकिन कम से कम हॉकी खिलाड़ी यह शिकायत नहीं कर सकते। विदेश में किसी भी टूर्नामेण्ट में जीत के बाद हॉकी इण्डिया ने खिलाड़ियों को अच्छी खासी रकम देने का सिलसिला शुरू किया और राष्ट्रीय टीम के खिलाड़ियों को सुविधाओं की भी कोई कमी नहीं होने दी जा रही। विडम्बना यह है कि हॉकी इण्डिया के अध्यक्ष नरेन्द्र बत्रा पर हॉकी के गिरते स्तर का जिम्मेदार होने के आरोप भी लगते हैं। सच्चाई यह है कि हॉकी इण्डिया के अध्यक्ष नरेन्द्र बत्रा एक कारोबारी हैं और वह पैसा इकट्ठा करना जानते हैं। वे कॉलेज स्तर पर हॉकी खेले भी हैं लेकिन उनके करीबी मानते हैं कि बत्रा में औरों के पक्ष को समझने की सहनशीलता की कमी है। शायद यही कारण है कि साल 2010 में उनके हॉकी इंडिया की कमान सम्हालने के बाद पांच साल में चार विदेशी प्रशिक्षकों की छुट्टी हो चुकी है। होजे ब्रासा, माइकल नोब्स और टेरी वॉल्श के बाद कुछ दिन पहले पॉल वान एस को निलम्बित किया गया। बत्रा से पहले हॉकी महासंघ के अध्यक्ष केपीएस गिल के 14 साल के कार्यकाल में 16 कोच बर्खास्त हुए जिनमें जफर इकबाल, भास्करन, परगट सिंह और महाराज किशन कौशिक जैसे मंझे हुए पूर्व खिलाड़ी भी शामिल रहे। लेकिन बत्रा से खेलप्रेमी शिकायत ज्यादा करते हैं। उन्होंने भारत में कई बड़े टूर्नामेण्ट करवाए और सफल लीग भी लेकिन आरोप है कि वे सिर्फ अपने स्वभाव की वजह से मात खा गए।
अगर देश की आजादी से पहले के भारतीय हॉकी के स्वर्ण युग को छोड़ भी दें तो भी 1948, 1952 और 1956 में भारत ने लगातार तीन ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीते। 1960 में रोम में पाकिस्तान से फाइनल में हारने के बाद 1964 में टोक्यो में भारत ने फिर गोल्ड मेडल पर कब्जा किया था। तो कुल मिला कर इन 25 सालों को स्वतंत्र भारत की हॉकी का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। लेकिन उसके बाद देश की हॉकी पिछड़ती गई। तीसरे और चौथे स्थान पर सरकने के बाद सेमीफाइनल में प्रवेश भी दूभर हो गया।
कितनी उम्मीद?
साल 2006 में दोहा एशियाई खेलों में सेमीफाइनल में न पहुंचने के कारण भारतीय टीम बीजिंग ओलम्पिक में भाग लेने से भी वंचित रह गई थी। यह भारतीय हॉकी के लिए किसी काले दिन से कम नहीं था। इसके बाद तो स्तर लगातार गिरता ही गया। जिस तरह बत्रा ने काम शुरू किया था उससे कुछ उम्मीद बंधी थी। अगले साल रियो में ओलम्पिक गेम्स हैं. अच्छी बात यह है कि भारत ने रियो के लिए क्वालीफाई कर लिया है। लेकिन भारतीय हॉकी के वर्तमान हालात देखते हुए यह कहना बहुत मुश्किल है कि भारतीय टीम से पदक की उम्मीद की जा सकती है।

बहू तो बहू, सास ने भी मार ली बाजी


मेडलों के साथ बहू सुमित्रा व सास माया देवी, बीच में पोती है।
खेल विशेष हरियाणा
मैं तो घूमणे-फिरणे गई थी। मन्नै के खेलना आवै सै। बहू अर लोग कहण लाग्यै अम्मा तू भी खेलां मैं भाग ले ले अर अपना नाम लिखा दै। मन्नै सोचा मेरा किमी जा थोड़ा ही रहा है। किस्मत आजमावण मैं के जावे सै। सौ मन्नै अपना नाम लिखा दिया। बस फेर के था, मंै सबनै पटकनी देती चली गई और तीन गोल्ड (स्वर्ण) जीत लाई। यह कहना है 76 साल की माया देवी का। 3 गोल्ड जीतकर जब से वह अपने गांव लौटी हैं, फूली नहीं समा रहीं और घर आने वाले सभी लोगों को अपनी जीत का किस्सा बता रही हैं।
हुआ यह कि रेवाड़ी से मात्र पांच किलोमीटर दूर नारनौल रोड स्थित गांव हरिनगर की 35 वर्षीय सुमित्रा यादव खेलों में हिस्सा लेती रही हैं। जिला के गांव भालखी माजरा निवासी वृद्ध धावक किशन लाल प्रजापति को अपना प्रेरणास्रोत बताने वाली सुमित्रा को उनसे पता चला कि अलवर (राजस्थान) में पिछले माह जून में युवरानी एथलेटिक्स समिति द्वारा ओपन चैम्पियनशिप नेशनल मीट का आयोजन किया गया, इसमें कर्नाटक, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर, झारखंड, पंजाब, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, यूपी सहित 16 राज्यों के सैकड़ों खिलाड़ियों ने भाग लिया। हरियाणा व जिला रेवाड़ी से भी अनेक खिलाड़ियों ने इसमें भाग लिया। सुमित्रा जब अलवर जाने को तैयार थी तो वह अपनी सास माया देवी से बोली कि-अम्मा तू भी म्हारे गैल चाल। घूम-फिर आइए और खेल भी देख लिए। माया उनके साथ चलने को तैयार हो गई। 26 जून की सुबह सास-बहू व किशनलाल अलवर के उस मैदान में पहुंच गए, जहां प्रतियोगिता होनी थी।
प्रतियोगिता का दौर शुरू हुआ। सुमित्रा ने अपना नाम अपने 35+ आयु वर्ग के हैमर, डिस्कस थ्रो व गोला फेंक के लिए पंजीकृत करा दिया। माया देवी ने अपनी बहू के घर में रखे मेडल तो खूब देखे थे, लेकिन वह पहली बार उसके जौहर मैदान पर देखने के लिए बेताब थी। इसी बीच सुमित्रा ने अपनी सास माया देवी को यह कहते हुए प्रेरित किया कि अम्मा तू भी अपनी मनपसंद खेलों में नाम लिखवा दे। इतना सुनते ही वहां मौजूद लोगों ने माया देवी का मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। माया अपनी परम्परागत घाघरा-लूगड़ी पहने अलवर गई थी। माया को ताने चुभ गए और वह मैदान में उतरने को तैयार हो गई। उसने जब घाघरा-लूगड़ी की जगह ट्रैकसूट पहना तो सभी अचम्भित रह गए। जो लोग उस पर हंस रहे थे, वे उसके साहस पर दंग थे।
सुमित्रा ने हैमर, डिस्कस थ्रो व गोला फेंक में सभी को पछाड़ते हुए गोल्ड मेडल जीते। इधर माया देवी ने 75+ आयुवर्ग की गोला फेंक, डिस्कस थ्रो व 400 मीटर दौड़ में गोल्ड जीतकर सभी की जुबान बंद कर दी। तब तक माया देवी का आत्मविश्वास लौट आया और बॉडी लैंग्वेज भी बदल गई थी। गले में गोल्ड मेडल डालकर जब उसके फोटो खिंचे तो खुशी का कोई ठिकाना नहीं थी। दोनों सास-बहू ने 3-3 गोल्ड मेडल जीतकर जिला रेवाड़ी के लिए एक नया इतिहास रच दिया। उनके अलावा किशन लाल ने 70+ आयु वर्ग की लम्बी कूद में गोल्ड मेडल, 400 मीटर दौड़ व हाई जम्प में सिल्वर मेडल जीते।
छह गोल्ड जीतकर सास-बहू जब गांव हरिनगर लौटे तो उन्हें देखने वालों का तांता लग गया। गांव में सास-बहू की जोड़ी पलभर में मशहूर हो गई। खेती-बाड़ी करने वाले उनके पति लाल सिंह अपनी पत्नी की उपलब्धि से बेहद खुश थे। वे कहते हैं-ये तो खाली हाथ भेजी थी। मन्नै के बेरा था कि वो सोना लेकर आवैगी।
दिलचस्प बात यह है कि राष्ट्रीय स्तर की इस प्रतियोगिता को देखने के लिए सेना के कमाण्डेंट सुनील कुमार वहां आए हुए थे। उन्हें मुंबई के ताज हमले में आठ गोलियां लगी थीं। वे माया देवी को खिलाड़ी के रूप में देखकर इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने उनके गांव हरिनगर आने का वादा किया। सुमित्रा की निगाहें अब अगले साल होने वाले एशियन गेम्स पर हैं। इसके लिए उसने अभी से प्रेक्टिस भी शुरू कर दी है। वहां से गोल्ड जीतकर लाना उसका बड़ा सपना है। इस गेम्स में वह और उसकी सास दोनों भाग लेंगे। उन्हें खेलों में भाग लेने की प्रेरणा 70 बार रक्तदान कर चुके रामकृत से मिली। कोच करतार सिंह खंडोड़ा, सुमेर सिंह व युधिष्ठर रहे हैं।
बेटियां किसी पर बोझ नहीं
सुमित्रा कहती हैं कि बेटी आज किसी की मोहताज व बोझ नहीं हैं। वह अब असम्भव को सम्भव करने में सक्षम हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ मुहिम का संकुचित विचारों वाले परिवारों पर भी असर हुआ है और उनके घरों में बेटियों की कद्र होने लगी है। वह कहती हैं कि उसकी जैसी सास भगवान सभी बेटियों को दें। उसकी सास उसे बहू से भी ज्यादा बेटी मानती हैं। इसके अलावा पति व ससुर के समर्थन की बदौलत ही वह आज यहां तक पहुंची है।
सीआरपीएफ में भी हुआ था चयन
सुमित्रा का 1998 में खेलों के आधार पर 88 बटालियन सीआरपीएफ में सिपाही के पद पर चयन हो गया था लेकिन वह वहां जाने के बजाय परिवार में रहकर कुछ करना चाहती थी। इसमें परिवार का सहयोग भी मिला, फलस्वरूप उसने सीआरपीएफ ज्वाइन नहीं की।
तानों के बावजूद नहीं छोड़ा खेलना
सुमित्रा कहती हैं कि विवाह के बाद उसके खेल कई साल तक छूट गए। लोगों ने ताने दिए कि ब्याही-थ्याही छोरी अब खेलती अच्छी नहीं लगे। बच्चे होने के बाद तो खेल पर पूरी तरह से बंदिश लग गई। लेकिन मेरा मन इसे स्वीकार नहीं कर रहा था। मेरे पति जितेन्द्र व सास माया देवी का सहयोग मिला और फिर कदम मैदान की ओर बढ़ चले। मैं 15 साल के लड़के, 12 व 9 साल की बेटियों की मां हूं। मैं अपनी बेटियों को भी एथलीट बनाना चाहती हूं।
खो-खो की चैम्पियन भी रही
सुमित्रा यादव को बचपन से ही खेलों में भाग लेना अच्छा लगता था। जब वह छठी कक्षा में थी तो पहली बार दौड़ लगाई थी और ईनाम जीता था। वह 10 राष्ट्रीय व लगभग 25 राज्यस्तरीय खेलों में हिस्सा लेकर अनेक मेडल जीत चुकी है। उसके प्रिय खेल दौड़, खो-खो व मटकी रेस रहे हैं। वह 1998 में खो-खो चैम्पियन भी रह चुकी है। आंगनबाड़ी केन्द्रों द्वारा महिलाओं के लिए जब भी प्रतियोगिताएं होती हैं तो वह सबसे पहले वहां पहुंचती है। उसने मटकी रेस व दौड़ में सदैव प्रथम स्थान पाया।
पीलिया ने दिखाई दौड़ की राह
500 प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेकर 408 में प्रथम स्थान पाने वाले 70 वर्षीय भालखी माजरा निवासी किशन लाल प्रजापति को यदि पीलिया की बीमारी नहीं होती तो वह आज धावक नहीं होते। वर्ष 2008 में उन्हें पीलिया हो गया था। गुड़गांव में हुए इलाज के बाद कमजोरी के चलते उन्हें दौड़ने की सलाह दी गई थी। उस समय लगाई गई दौड़ उसके जीवन का हिस्सा बन गई और आज तक वह दौड़ लगा रहे हैं। जिला, प्रदेश व राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में जीते अनेक मेडल उन्होंने अपने घर में सजा रखे हैं।
गांव में कराऊंगी गेम्स
सुमित्रा कहती हैं मैंने फैसला लिया है कि अपने गांव हरिनगर में बच्चों व युवाओं को आगे लाने व स्वस्थ बनाने के लिए हर छह माह में गेम्स व योग कराऊंगी। गांव में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है।

अलविदा डॉक्टर कलाम

जाति-धर्म और भेदभाव से परे हरदिल अजीज डॉ. अब्दुल पाकिर जैनुलआबेदीन अब्दुल कलाम का असमय अवसान मुल्क के लिए अपूरणीय क्षति है। हर खास शख्सियत हमेशा आम दिखती है। भारत के रत्न डॉ. अब्दुल कलाम भी कुछ ऐसे ही थे। मिसाइलमैन, जनता के राष्ट्रपति, मार्गदर्शक और न जाने कितने नामों से हर दिल पर राज करने वाले कलाम साहब अब भले ही हमारे बीच नहीं हैं लेकिन हम उनकी बेमिसाल उपलब्धियां, देश के प्रति उनका अगाध स्नेह और मुल्क के विकास में उनके अप्रतिम योगदान को कभी नहीं भूल पायेंगे। बचपन से गीता-कुरान पढ़ने वाले सरल स्वभाव डॉ. कलाम कामयाबी के शिखर तक यूं ही नहीं पहुंचे। उनका संघर्ष भरा जीवन हर शख्स के लिए प्रेरणादायी है। आज जब विकास के साथ वैमनस्य का भाव चुपके से समाज में पांव जमाने की कोशिश कर रहा हो, ऐसे में एक विलक्षण कर्मयोगी का असमय साथ छोड़ जाना राष्ट्र के लिए बड़ा आघात है। निर्विवाद डॉ. कलाम की मौत से समूचा राष्ट्र दु:खी है। चमत्कारिक प्रतिभा के धनी डॉ. कलाम भारत के पहले वैज्ञानिक हैं, जोकि देश के राष्ट्रपति बने। राष्ट्रपति बनने से पहले देश के सभी सर्वोच्च नागरिक सम्मान (पद्मश्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और भारत रत्न) पाने वाले वह एकमात्र राष्ट्रपति हैं। वे देश के इकलौते राष्ट्रपति थे, जिन्होंने आजन्म अविवाहित रहकर देशसेवा का व्रत लिया था। इतनी ऊंचाइयों तक पहुंचे कलाम का बचपन संघर्षपूर्ण रहा। डॉ. कलाम के शब्दकोष में असफलता को कोई जगह नहीं थी। उन्होंने अपने कृतित्व से मुल्क को ऐसी नसीहत दी है, जिस पर यदि हमारे राजनीतिज्ञ अमल कर लें तो शायद कलाम साहब के 2020 के सपनों के भारत को आसानी से साकार किया जा सकता है। मृत्यु अटल सत्य है। डॉ. कलाम अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका कृतित्व हमेशा अमर रहेगा। आज मुंबई बम धमाकों के कसूरवार याकूब मेमन को मौत की सजा देने या न देने के मुद्दे पर सियासत हो रही है तो दूसरी तरफ मानसून सत्र राजनीतिज्ञों के अहंकार की भेंट चढ़ रहा है। इन दोनों ही मामलों से कलाम साहब हमेशा व्यथित रहे। उन्होंने कहा भी था कि राष्ट्रपति के तौर पर उनके लिए सबसे मुश्किल काम मौत की सजा पर फैसला करना होता था। इसकी वजह अपराध या आतंकवाद का समर्थन नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक पूर्वाग्रह रहा। आज हमारे राजनीतिज्ञ भारत के विकास का सब्जबाग तो दिखा रहे हैं लेकिन उनका विकास की दुश्वारियों से दूर-दूर तक वास्ता नहीं दिखता। डॉ. कलाम की पुस्तक ‘इण्डिया 2020’ में देश के विकास का समग्र दृष्टिकोण देखा जा सकता है। कलाम की संकल्पना में कृषि, खाद्य प्रसंस्करण, ऊर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य, सूचना प्रौद्योगिकी, परमाणु, अंतरिक्ष और रक्षा प्रौद्योगिकी का विकास यानि सब कुछ समाहित है। कलाम को आखिरी सलाम करने से पहले हर भारतवासी को उनके प्रेरणादायी कृतित्व को आत्मसात करने का संकल्प लेना चाहिए।

Monday, 27 July 2015

सपने वो जो रातों में सोने नहीं देते

कलाम को सलाम
'सपने वो नहीं होते जो रात को सोते समय नींद में आयें, सपने वो होते हैं जो रातों में सोने नहीं देते'. ऐसे दमदार विचार रखने वाले भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम अब इस दुनिया में नहीं रहे। उन्हें  मिसाइल मैन के नाम से भी जाना जाता था। यह देश के लिए अपूरणीय क्षति है. अब्दुल कलाम को पीपल्स प्रेजिंडेट भी कहा जाता था उनका मानना था कि  'इंतजार करने वालों को सिर्फ उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं'. ऐसे प्रेरणादायी शब्द से छात्रों को संबोधित करते रहते थे. आज भी आईआईएम शिलॉन्ग में छात्रों को संबोधित करने पहुंचे थे।
अंतिम समय में भी लेक्चर दे रहे थे कलाम
उनके जानने वालों का कहना है कि उनकी डायरी में हर दिन का कार्यक्रम दर्ज होता था. उनकी छह महीने पहले का कार्यक्रम डायरी में दर्ज होता था. आज भी कार्यक्रम में जाने से पहले उन्होंने ट्वीट किया और बताया कि वह छात्रों को संबोधित करने शिलॉन्ग जा रहे हैं.
 साधारण परिवार में  जन्म असाधारण प्रतिभा के मालिक
 एक साधारण परिवार में 15 अक्टूबर, 1931 को धनुषकोडी गाँव (रामेश्वरम, तमिलनाडु) में एक मध्यमवर्ग मुस्लिम परिवार में इनका जन्म हुआ.  अपनी मेहनत और बुद्धिमता से ना सिर्फ विज्ञान के क्षेत्र में प्रसिद्धि हासिल की और भारत के राष्ट्रपति पद तक का सफर तय किया बल्कि यह भी साबित किया कि अगर कोई इंसान ठान ले तो कुछ भी असंभव नहीं. 1963 में कलाम भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान, इसरो से जुड़े और यहां भी भारत की ताकत को बढ़ाने में अपना योगदान दिया. सैटेलाइट लॉन्च वेहिकल प्रॉजेक्ट मिशन से जुड़े.
 मिसाइल मैन ने बढ़ायी भारत की ताकत
 अब्दुल कलाम को मिसाइल मैन के नाम से जाना जाता है उन्होंने  अपनी मेहनत और क्षमता के दम पर भारत को वो शक्ति दी जिससे भारत अपनी धाक दुनिया के सामने जमा सका. 1982 में कलाम रक्षा अनुसंधान विकास संगठन, ऊफऊड से जुड़े और उनके नेतृत्व में ही भारत ने नाग, पृथ्वी, आकाश, त्रिशूल और अग्नि जैसे मिसाइल विकसित किए.
 भारत के सर्वोच्च सम्मान से भी सम्मानित थे कलाम
 डॉ. कलाम को 1977 में सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया था. इसके अलावा वह भारत के सर्वोच्च पद पर भी आसीन रहे   2002 से 2007 के बीच डॉ. कलाम, भारत के 11वें राष्ट्रपति रहे.
 उनकी प्रेरणादायी किताबें भी लोगों को जागरूक करती रहीं
 एपीजे अब्दुल कलाम ने  विंग्स आॅफ फायर, इग्नाइटेड माइंड्स, इंडिया 2020 जैसी कई मशहूर और प्रेरणा देने वाली किताबें लिखी हैं. जो खासकर छात्रों को प्रेरित करती रहीं.
 कैसा था डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का विद्यार्थी जीवन
 डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की शिक्षा रामेश्वर के पंचायत प्राथमिक विद्यालय से शुरू हुई थी अब्दुल कलाम ने अपनी आरंभिक शिक्षा जारी रखने के लिए अखबार बांटने का भी काम किया. कलाम ने 1958 में मद्रास इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलॉजी से अंतरिक्ष विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की थी. स्नातक होने के बाद उन्होंने हावरक्राफ्ट परियोजना पर काम करने के लिये भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संस्थान में प्रवेश किया.
 व्यक्तिगत जीवन
 डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम अपने जीवन को बहुत अनुशासन में जीना पसंद करते थे. शाकाहार और ब्रह्मचर्य का पालन करने वालों में से थे. कहा जाता है कि वह कुरान और भगवद् गीता दोनों का अध्ययन करते थे और उनकी गूढ़ बातों पर अमल किया करते थे. उनके भाषणों में कम से कम एक कुराल का उल्लेख अवश्य रहता है. छात्रों को संबोधित करते हुए उन्होंने कई ऐसे संदेश दिए जिससे लोगों को प्रेरणा मिली। अब्दुल कलाम राजनीतिक स्तर पर भारत को और मजबूत करना चाहते थे उनकी इच्छा थी कि  भारत ज्यादा से ज्याद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाये। बच्चों और युवाओं के बीच डॉक्टर कलाम अत्यधिक लोकप्रिय थे.
 जीवन का सबसे बड़ा अफसोस
 एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने जीवन के सबसे बड़े अफसोस का जिक्र किया था। उन्होंने कहा था कि वह अपने माता-पिता को उनके जीवनकाल में 24 घंटे बिजली उपलब्ध नहीं करा सके।  उन्होंने कहा था कि  मेरे पिता (जैनुलाब्दीन) 103 साल तक जीवित रहे और मां (आशियाम्मा) 93 साल तक जीवित रहीं.  घर में सबसे छोटा होने के कारण कलाम को घर में ज्यादा प्यार मिला. उनके घर में लालटेन से रोशनी होती थी और वह भी शाम को सात बजे से लेकर रात नौ बजे तक. उनकी मां को कलाम की प्रतिभा पर भरोसा था इसलिए वह कलाम की पढ़ाई के लिए एक स्पेशल लैंप देती थीं जो रात तक पढ़ाई करने में कलाम की मदद करता था।

पाकिस्तान का फिर धोखा


सांप निकलने के बाद लकीर पीटना हमारी आदत सी हो गई है। पंजाब में आतंकवादियों की नापाक हरकत के बाद न केवल राज्य सरकार बल्कि केन्द्र सरकार के जवाबदेह लोग कुछ भी बोल रहे हैं। देश में दर्जनों आतंकी वारदातों में अब तक सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं, बावजूद इसके कोई ठोस कार्ययोजना आज तक अमल में नहीं आई। सोमवार की सुबह पंजाब के गुरदासपुर जिले के दीनानगर में आतंकवादियों ने अपनी नापाक हरकतों से न केवल आधा दर्जन से अधिक लोगों को मौत की नींद सुला दिया बल्कि हमारी सुरक्षा खामियां भी उजागर कर दीं। पाकिस्तान से आए आतंकियों ने सीमा से महज 15 किलोमीटर दूर दीनानगर में सुबह पहले एक यात्री बस और फिर एक थाने को अपना निशाना बनाया। पंजाब के सुरक्षा जवानों ने अपनी जांबाजी से तीन आतंकियों को ढेर करने में सफलता तो जरूर हासिल की लेकिन जिस तरह एक एसपी सहित आठ भारतीय मारे गये उससे सवाल यह उठता है कि आतंकियों से निपटने के लिए हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। एक पखवाड़े पहले जब रूस के उफा शहर में शंघाई सहयोग संगठन के शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बीच आतंकवाद के खात्मे पर बातचीत हुई तो दोनों देशों के रिश्तों में खटास कम होने की उम्मीद जगी थी लेकिन आज की इस वारदात से इस बात के ही संकेत मिले कि पाकिस्तान धोखेबाज है और वह कभी नहीं सुधर सकता। पाकिस्तान विश्वास के काबिल नहीं है, इस बात को उसने कई मर्तबा सच साबित किया है। भारत बेशक शांति प्रक्रिया का हिमायती हो लेकिन हमारा पड़ोसी कश्मीर की सियासत को कभी खारिज नहीं करना चाहता। पाकिस्तानी हुक्मरान जब भी किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारतीय नेताओं से मिलते हैं, तो आतंकवादी गतिविधियों पर लगाम कसने पर गरमजोशी तो जरूर दिखाते हैं, पर अपने देश वापस लौटने के बाद वही पुराना रुख अख्तियार कर लेते हैं। इसके पीछे बड़ी वजह कट््टरपंथी ताकतों का वहां की सरकार से अधिक ताकतवर होना है। भारत कई बार पाकिस्तान में चल रहे आतंकवादी प्रशिक्षण शिविरों को बंद करने की गुजारिश कर चुका है लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा है। अमेरिका और यूरोपीय देश भी कई मर्तबा भारत के साथ सम्बन्ध सुधारने के मामले में पाकिस्तान को दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्तिदिखाने की नसीहत दे चुके हैं लेकिन उसके भेजे में शांति बहाली की बात कभी नहीं घुसी। पंजाब में आज जो कुछ हुआ उस पर पाकिस्तान को कसूरवार ठहराने की बजाय राजनीतिक दलों को इस बात पर मंथन करना चाहिए कि आखिर मुल्क से आतंकवाद का खात्मा कैसे हो। भारत में आतंकवाद की वारदातें होना राष्ट्रीय समस्या है। हमें पाकिस्तान से दोस्ती का हाथ बढ़ाने की बजाय आतंकी मंसूबों को ध्वस्त करने का संकल्प लेना चाहिए। पंजाब में जो कुछ हुआ उस पर सियासत तो होनी ही नहीं चाहिए। 

Thursday, 23 July 2015

दिल्ली की रंज और जंग



देश की राजधानी दिल्ली में इन दिनों जो राजनीतिक महाभारत चल रहा है, उसे देखते हुए दिल्लीवासी पशोपेश में हैं। आम आदमी पार्टी की सरकार और दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच जो चल रहा है, उससे देशवासियों को बेशक कोई लेना-देना न हो लेकिन दिल्लीवासियों का इन बातों से गहरा वास्ता है। गुरुवार को दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने केन्द्र सरकार पर बदले की भावना से काम करने की तोहमत लगाई है। यह पहला वाक्या नहीं है जब आप ने केन्द्र पर नाराजगी जताई हो। उपराज्यपाल नजीब जंग और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के बीच की रंज उस दिन से महसूस की जा रही है, जिस दिन से आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की सल्तनत सम्हाली है। दिल्ली के चुनावी नतीजों के बाद बेशक संवैधानिक मर्यादा का पालन किया गया हो लेकिन उसके बाद लोकतांत्रिक परम्पराओं और शिष्टाचार को तार-तार करने का कोई मौका जाया नहीं हुआ। अरविन्द केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के साथ ही दिल्ली में निरंतर संवैधानिक व्यवस्थाओं का हवाला देते हुए निर्वाचित सरकार और उपराज्यपाल के बीच तनातनी की स्थिति बनी हुई है, जो कभी-कभी इतनी अप्रिय और नागवार होने की हद तक पहुंच जाती है कि लगता ही नहीं दो जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों के बीच ऐसी लड़ाई हो रही हो। कभी नियुक्तियों तो कभी अन्य अधिकारों को लेकर केजरीवाल और जंग निरंतर एक-दूसरे पर निशाना साधते रहे हैं। ताजा विवाद दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल को लेकर है। केजरीवाल सरकार ने स्वाति मालीवाल को जब से यह पद सौंपा, तभी से विरोधियों ने इस नियुक्ति पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। स्वाति को अरविन्द केजरीवाल का रिश्तेदार बताया गया, जब उन्होंने इसका खण्डन किया तो उसके बाद यह कहा गया कि वे नवीन जयहिन्द की पत्नी हैं, जो आप के नेता और अरविंद केजरीवाल के करीबी हैं। इस बात से कोई इनकार नहीं कि स्वाति मालीवाल प्रारम्भ से आप के आंदोलन से जुड़ी रही हैं और इस नियुक्ति के पूर्व दिल्ली सरकार में मुख्यमंत्री के सलाहकार के रूप में काम कर रही थीं। सोमवार को उन्होंने महिला आयोग का अध्यक्ष पद सम्हाला और कहा कि मैं आम आदमी पार्टी की कार्यकर्ता के रूप में नहीं बल्कि एक महिला और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करूंगी। जो काम आठ साल में नहीं हुए, वे आठ महीने में कर दिखाएंगी। वे अपने कामकाज का श्रीगणेश करतीं कि उपराज्यपाल ने उनकी नियुक्ति रद्द कर दी और दिल्ली एक बार फिर संवैधानिक अधिकारों की उलझनों में फंस गई। अधिकारों को लेकर ऐसी खींचातानी दिल्ली के लिए खतरनाक है। जनता ने अपना फैसला दोनों सरकारों के लिए सुनाया है लेकिन दोनों ही सरकारें जनता की उपेक्षा कर अपने हक और अहंकार की रक्षा में लगी हैं। लोकतंत्र केवल नियमों और संविधान की किताब से नहीं चलता, थोड़ा महत्व परम्पराओं का भी होता है, जिसका निर्वहन किया जाना चाहिए। 

सपनों को लगाए पर, सेण्टर फॉर एम्बीशन

लहर मुश्किल के पत्थर को बनाकर सीढ़ियां अपनी,
जो मंजिल पर पहुंच जाए उसे इंसान कहते हैं।
आज के भागमभाग भरे जीवन में हर मनुष्य सफल होना चाहता है। सफलता के लिए जरूरी है समस्याओं से संघर्ष। समस्याओं रूपी चुनौतियों का सामना करने, उन्हें सुलझाने में जीवन का उसका अपना अर्थ छिपा होता है। समस्याएं तो दुधारी तलवार होती हैं, वे हमारे साहस, हमारी बुद्धिमता को ललकारती हैं। दूसरे शब्दों में वे हममें साहस और बुद्धिमानी का सृजन भी करती हैं। मनुष्य की तमाम प्रगति, उसकी सारी उपलब्धियों के मूल में समस्याएं ही हैं। यदि जीवन में समस्याएं नहीं हों तो शायद हमारा जीवन नीरस ही नहीं, जड़ भी हो जाए। जो बात हमें पीड़ा पहुंचाती है, वही हमें सिखाती भी है। इसलिए समझदार लोग समस्याओं से डरते नहीं, उनसे दूर नहीं भागते बल्कि उनका डटकर मुकाबला करते हैं। आगरा स्थित सेण्टर फॉर एम्बीशन के संचालक अमित सिंह ने न केवल संघर्ष को जिया है बल्कि आज युवाओं को इसी मंत्र से शिखर तक पहुंचाना चाहते हैं।
सफलता की विशेषताओं के बारे में जानना एवं उनका विश्लेषण करना सरल है, परन्तु इनको अपने व्यक्तित्व में समाहित करना एक वास्तविक चुनौती है। सफलता की विशेषताओं में सकारात्मक सोच, स्वयं पर विश्वास, साहस, लक्ष्य के प्रति समर्पण, कुशल समय प्रबंधन, ऊर्जा प्रबंधन आदि गुण सम्मिलित होते हैं। इनसे सहज-सरल-सजग अमित सिंह बखूबी परिचित हैं। ओमप्रकाश-ऊषा सिंह के लाड़ले अमित सिंह अपने अग्रज अजीत सिंह को अपना आदर्श मानते हैं। वह कहते हैं कि यदि मेरे भाई ने मेरा हौसला न बढ़ाया होता तो वह आज कोई छोटा-मोटा रेस्टोरेंट चला रहे होते। सच कहें तो मैनपुरी के एक मध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाले अमित सिंह ने मुसीबतों से हार मानने की बजाय उनसे संघर्ष किया है। वह कहते हैं कि सेण्टर फॉर एम्बीशन संस्थान नहीं एक मिशन है। उनका कहना है कि वे नहीं चाहते कि कोई प्रतिभाशाली युवा तंगहाली से हार मानकर अपने सपने को कुर्बान करे। वह अपने संस्थान के सहारे उन गरीब प्रतिभाओं को मुकम्मल स्थान तक पहुंचाना चाहते हैं जोकि उनका सपना है।
वह कहते हैं कि सफलता की शुरुआत आपकी स्वयं की पहचान के साथ होती है। प्रत्येक व्यक्ति जीवन में सफलता, शांति एवं प्रसन्नता हासिल करने एवं उसका अभिवर्धन हासिल करने की असीम क्षमता के साथ ईश्वर का एक अद्वितीय सृजन होता है। स्वयं की क्षमता एवं अद्वितीयता की समझ एवं पहचान एक अद्भुत अनुभव है। मानव मस्तिष्क में असीम स्मरणशक्ति और सोचने की क्षमता होती है। विश्व का कोई भी कम्प्यूटर एक स्वस्थ मस्तिष्क की बराबरी नहीं कर सकता। हमें बचपन से ही खाना, पहनना, जीवन जीना, बातचीत करना, काम करना और आनंद लेना तो सिखाया जाता है लेकिन यह नहीं सिखाया जाता कि हमें अपने मन व मस्तिष्क को कैसे इस्तेमाल करना चाहिए, जो हमारे लिए हर चीज को संचालित करता है। सफलता की कला वास्तव में हमारे मस्तिष्क के दक्षतापूर्ण संचालन की एक कला है। यहां, यह समझना महत्वपूर्ण है कि साक्षरता एवं शिक्षा में बहुत बड़ा अंतर होता है। एक व्यक्ति बिना साक्षर हुए भी पूर्ण रूप से शिक्षित हो सकता है। अकबर महान इसका एक सर्वोत्तम उदाहरण हैं। बहुत से संत-महात्मा एवं धार्मिक गुरु निरक्षर थे, किन्तु वे काफी ज्ञानी थे। सच कहें तो शिक्षा का सीधा सम्बन्ध आत्मबोध से होता है। अकादमिक शिक्षा हमें साक्षर और सूचनाओं एवं ज्ञान से समृद्ध बना सकती है, लेकिन उनका इस्तेमाल एवं अर्थवत्ता हमारी वास्तविक शिक्षा की शक्ति पर निर्भर करती है। एक सच्चा शिक्षक वही है, जो अपने विद्यार्थी के मस्तिष्क की मौलिकता को मारे नहीं बल्कि उसे आत्मानुभूति करने में सहायता प्रदान करे। सेण्टर फॉर एम्बीशन आज के युवाओं को इसी सीख के सहारे सफलता की राह दिखा रहा है।
अमित सिंह ने न केवल अपने बड़े भाई की नसीहत को आत्मसात किया बल्कि चार जनवरी, 2003 को उन्होंने अपनी मौसी के उधार लिए चार लाख रुपयों से दिन-रात एक कर अपनी मंजिल को नई दिशा दी। जिचौली (मैनपुरी) गांव से निकल कर आगरा को अपनी कर्मस्थली बनाने वाले अमित सिंह चाहते हैं कि ब्रज मण्डल से अधिक से अधिक युवा प्रशासनिक सेवाओं में पहुंच कर अपने क्षेत्र का नाम रोशन करें। 11 मई, 2004 को अपनी इमारत में स्थापित हुए सेण्टर फॉर एम्बीशन ने अब तक पांच सौ से अधिक युवाओं को उनकी मंजिल तक पहुंचाया है। सेण्टर फॉर एम्बीशन में युवाओं को न केवल आठ घण्टे शैक्षिक मार्गदर्शन मिलता है बल्कि अपने घर सा वातावरण मुहैया कराने में भी संस्थान ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। सेण्टर फॉर एम्बीशन के संचालक अमित सिंह अलीगढ़ और मेरठ में भी शिक्षा की अलख जगाने का सपना देख रहे हैं। संस्थान से प्रतिवर्ष दर्जनों युवाओं का प्रशासनिक सेवा में चयन इस बात का ही सूचक है कि यहां सपने दिखाये नहीं बल्कि पूरे किये जाते हैं।
देखा जाये तो युवाओं को मंजिल तक पहुंचाने के लिए हर शहर में आधुनिक पेशेवरों का एक बहुत बड़ा वर्ग लगा हुआ है लेकिन युवाओं को जो तालीम सेण्टर फॉर एम्बीशन में मिलती है, वह दूसरी जगह नामुमिकन नहीं तो कठिन जरूर है। देश भर में लाखों स्नातक ‘न्यूनतम योग्यता’, स्नातकोत्तर, डॉक्टर, इंजीनियर इत्यादि युवक-युवतियां सिविल सेवा परीक्षा में सफलता अर्जित करने के सपने संजोते हैं। यह एक ऐसी परीक्षा है जो छात्र-छात्राओं के लिए डीएम, एसपी इत्यादि उच्चवर्गीय पदों तक पहुंचने का माध्यम है। इस मुकाम को हासिल करने के लिए तीन चरणों 'प्रारम्भिक परीक्षा, मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार' को पार करना पड़ता है। प्रारम्भिक परीक्षा में हर वर्ष 3-4 लाख अभ्यर्थी बैठते हैं। जो अभ्यर्थी प्रारम्भिक में पास होते हैं वे मुख्य परीक्षा में अपनी योग्यता प्रदर्शित करते हैं। मुख्य परीक्षा में अधिक से अधिक अंक अर्जित कर अभ्यर्थी अंतिम रूप से चयन लगभग सुनिश्चित कर सकते हैं। सेण्टर फॉर एम्बीशन में तालीम हासिल कर रहे युवाओं का कहना है कि यहां घर सा माहौल हर पल मंजिल हासिल करने को प्रेरित करता है।
अमित सिंह संचालक
अजीत सिंह मार्गदर्शक

दिल्ली का महाभारत

देश की राजधानी दिल्ली में इन दिनों जो राजनीतिक महाभारत चल रहा है, उसे देखते हुए दिल्लीवासी पशोपेश में हैं। आम आदमी पार्टी की सरकार और दिल्ली के उपराज्यपाल नजीब जंग के बीच जो चल रहा है, उससे देशवासियों को बेशक कोई लेना-देना न हो लेकिन दिल्लीवासियों का इन बातों से गहरा वास्ता है। गुरुवार को दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने केन्द्र सरकार पर बदले की भावना से काम करने की तोहमत लगाई है। यह पहला वाक्या नहीं है जब आप ने केन्द्र पर नाराजगी जताई हो। उपराज्यपाल नजीब जंग और मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के बीच की रंज उस दिन से महसूस की जा रही है, जिस दिन से आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की सल्तनत सम्हाली है। दिल्ली के चुनावी नतीजों के बाद बेशक संवैधानिक मर्यादा का पालन किया गया हो लेकिन उसके बाद लोकतांत्रिक परम्पराओं और शिष्टाचार को तार-तार करने का कोई मौका जाया नहीं हुआ। अरविन्द केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के साथ ही दिल्ली में निरंतर संवैधानिक व्यवस्थाओं का हवाला देते हुए निर्वाचित सरकार और उपराज्यपाल के बीच तनातनी की स्थिति बनी हुई है, जो कभी-कभी इतनी अप्रिय और नागवार होने की हद तक पहुंच जाती है मानो प्राथमिक स्कूलों के बच्चे लड़ रहे हों। कभी नियुक्तियों तो कभी अन्य अधिकारों को लेकर केजरीवाल और जंग निरंतर एक-दूसरे पर निशाना साधते रहे हैं। दिल्ली सरकार और पुलिस के मतभेद खुलकर सामने आ रहे हैं तो निष्कर्ष निकालना कठिन नहीं है कि दोनों पक्ष कहीं न कहीं अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर रहे हैं। केजरीवाल चाहते हैं कि दिल्ली पुलिस का रिमोट उनके हाथ में रहे। मगर उन्हें एहसास होना चािहए कि उसका तरीका अलग है। यह केन्द्र सरकार के सहयोग से ही संवैधानिक प्रक्रिया से सम्भव होगा। नि:संदेह एक मुख्यमंत्री की प्राथमिकता होती है कि बेहतर कानून व्यवस्था के लिए पुलिस के साथ बेहतर तालमेल बने। मगर दिल्ली राज्य की अधिकार सीमाओं के चलते यह सम्भव होता नजर नहीं आता। यही वजह है कि उन्हें लगता है कि राज्य में विपक्षी भाजपा केन्द्र में अपनी सरकार होने के चलते दिल्ली पुलिस में ज्यादा दखल रखती है। यहां यह भी जरूरी है कि दिल्ली के पुलिस कमिश्नर राजनेताओं की तरह बयानबाजी करने के बजाय कानून व्यवस्था को चुस्त-दुरस्त करने पर ध्यान दें। उन्हें राजनीतिक टकराव की स्थिति में पार्टी नहीं बनना चाहिए। केन्द्र और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों की खींचतान को लेकर चल रहा विवाद दिल्ली की कानून व्यवस्था को ही लचर बना रहा है। केजरीवाल को भी अपनी वाणी पर संयम रखना जरूरी है। ताजा विवाद दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल को लेकर है। केजरीवाल सरकार ने स्वाति मालीवाल को जब से यह पद सौंपा, तभी से विरोधियों ने इस नियुक्ति पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। स्वाति को अरविन्द केजरीवाल का रिश्तेदार बताया गया, जब उन्होंने इसका खण्डन किया तो उसके बाद यह कहा गया कि वे नवीन जयहिन्द की पत्नी हैं, जो आप के नेता और अरविंद केजरीवाल के करीबी हैं। इस बात से कोई इनकार नहीं कि स्वाति मालीवाल प्रारम्भ से आप के आंदोलन से जुड़ी रही हैं और इस नियुक्ति के पूर्व दिल्ली सरकार में मुख्यमंत्री के सलाहकार के रूप में काम कर रही थीं। सोमवार को उन्होंने महिला आयोग का अध्यक्ष पद सम्हाला और कहा कि मैं आम आदमी पार्टी की कार्यकर्ता के रूप में नहीं बल्कि एक महिला और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम करूंगी। जो काम आठ साल में नहीं हुए, वे आठ महीने में कर दिखाएंगी। वे अपने कामकाज का श्रीगणेश करतीं कि उपराज्यपाल ने उनकी नियुक्ति रद्द कर दी और दिल्ली एक बार फिर संवैधानिक अधिकारों की उलझनों में फंस गई। अधिकारों को लेकर ऐसी खींचातानी दिल्ली के लिए खतरनाक है। जनता ने अपना फैसला दोनों सरकारों के लिए सुनाया है लेकिन दोनों ही सरकारें जनता की उपेक्षा कर अपने हक और अहंकार की रक्षा में लगी हैं। लोकतंत्र केवल नियमों और संविधान की किताब से नहीं चलता, थोड़ा महत्व परम्पराओं का भी होता है, जिसका निर्वहन किया जाना चाहिए। 

आखिर इस मर्ज की दवा क्या है?

भारतीय शिक्षा की सबसे कमजोर कड़ी कही जाती है माध्यमिक शिक्षा। यह हास्यास्पद नहीं दुखद है और चिंताजनक भी क्योंकि उच्च शिक्षा की ज्यादातर समस्यायें सीधे तौर पर माध्यमिक शिक्षा से जुड़ी दिखाई देती हैं। भारत एक तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था है साथ ही मानव संसाधन की अपार सम्भावनाओं से युक्त भी। इसी को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले दिनों जब कहा कि अब देश को आईआईटी नहीं आईटीआई पेशेवरों की जरूरत है तो जाहिर तौर पर माध्यमिक शिक्षा पर एक बड़ी बहस शुरू होनी ही थी।
 हमारे शिक्षाविदों को दशकों से यही प्रश्न परेशान करता रहा है कि आखिर क्यों हमारी माध्यमिक शिक्षा का उद्देश्य केवल विद्यार्थियों को एक अच्छे कॉलेज के लिए तैयार करना है? क्यों स्कूल के तुरन्त बाद एक अच्छे, सम्मानजनक रोजगार ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ जैसा है? क्यों सभी जगह से विफल होने के बाद युवा वर्ग स्कूल-शिक्षण का व्यवसाय अपनाता है? और क्यों हमारे विद्यालय मात्र परीक्षा बोर्डों की श्रेष्ठता को अपनी पहचान मानते हैं? निश्चित तौर पर यह प्रश्न इंगित करता है कि आजादी से लेकर अब तक हमारी माध्यमिक शिक्षा नहीं बदली है। वर्तमान समय में इसमें एक आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है क्योंकि यह अभी भी विकराल समस्याओं से जूझ रही है। नीरस पाठ्यक्रम, महंगी फीस, बोझिल वातावरण, बस्ते का अनावश्यक बोझ, छुट्टियों की बड़ी संख्या और इस सबके ऊपर अवैज्ञानिक एवं अमनोवैज्ञानिक शिक्षण विधियां माध्यमिक शिक्षा के सुधार की दिशा में रोड़ा हैं। तिस पर रही सही कसर शिक्षकों की उदासीनता, ट्यूशन की प्रवृत्ति और धनलोलुपता पूरी कर देती है। शिक्षक दिवस पर मिलने वाले कीमती उपहारों का ढेर शिक्षक की वह सालाना वेतन वृद्धि है जिसे प्राप्त करना वह न केवल अपना अधिकार समझता है बल्कि उसके लिए वह किसी भी सीमा तक गिर भी सकता है। सच तो यह है कि शिक्षकों के नैतिक पतन के लिए स्कूलों की यह उपहार संस्कृति बड़ी ही घातक है। वेतन के साथ मिलने वाला यह बोनस युवाओं को आकर्षित करता है तिस पर वर्ष भर में होने वाले लगभग 180 अवकाश इस व्यवसाय को ‘गुड़ की भेली’ बना देता है। जब ऐसी व्यावसायिक मानसिकता वाले शिक्षक माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में आते हैं तो वे येन-केन-प्रकारेण धनार्जन के तरीके ही सोचते हैं, शिक्षा का उन्नयन नहीं।  ऊबाऊ  एवं निरुद्देश्य पाठ्यक्रम मात्र विद्यार्थियों को किसी भी प्रकार से पास होने के लिए प्रेरित करता है। पाठ्यक्रम में क्रियात्मकता का अभाव न तो विद्यार्थियों की रुचि जागृत कर पाता है और न ही उसके मस्तिष्क पर एक स्थायी प्रभाव छोड़ पाता है। प्रधानमंत्री ने जब आईटीआई की आवश्यकता पर बल दिया तो सम्पूर्ण जगत में खलबली मच गयी। स्पष्ट है कि आईआईटी पेशेवर तैयार करने में संसाधन तो देश के लगते हैं, पैसा भी बहुत खर्च होता है, किन्तु लाभ विदेशों को मिलता है क्योंकि अच्छे इंजीनियर विदेशों की राह पकड़ते हैं। इससे हमारे देश के उद्योग-धन्धों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। स्कूली शिक्षण से जुड़ी इन समस्याओं को दूर करने के लिए आवश्यकता इस बात की है कि हम माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्य वर्तमान आवश्यकताओं को देखकर निर्धारित करें, शिक्षण विधियों को सहज, रोचक और मनोवैज्ञानिक बनायें। इस कठिन कार्य को करने के लिए हमें ऐसे शिक्षकों की आवश्यकता है जो माध्यमिक शिक्षा में अच्छे वेतन के बदले बेहतरीन सेवायें देने को तत्पर हों क्योंकि सरकारी स्कूलों में तो माध्यमिक शिक्षा की तस्वीर बदरंग ही नहीं बल्कि भयानक भी है। ऐसे में शिक्षकों की ‘12 माह का वेतन 6 महीने काम’ वाली मानसिकता को बदलना फौरी तौर पर जरूरी हो गया है। केन्द्र एवं राज्य सरकारों को भी अवकाशों की संख्या घटानी होगी ताकि विद्यालयों में शिक्षा का वातावरण बने। वोटों की राजनीति के लिए स्कूलों में अनावश्यक अवकाश हमारी आगामी पीढ़ियों को न केवल अकर्मण्य और आलसी बना रहे हैं बल्कि उन्हें एक अंधेरे भविष्य की ओर भी धकेल रहे हैं, यह तथ्य अभिभावकों को भी समझना होगा। आगरा शहर के एक नामी स्कूल के प्रधानाचार्य फादर पॉल थानिकल के नाम से भले ही देश के अधिकांश शिक्षाविद् अनभिज्ञ हों लेकिन अपने स्तर पर वे माध्यमिक शिक्षा में सकारात्मक परिवर्तन करने का प्रयास कर रहे हैं। अनावश्यक छुट्टियों में भी विद्यालय में पढ़ाई करवाने के कारण वे भले ही प्रशासन और कट्टरपंथियों की आलोचना झेल रहे हों किन्तु माध्यमिक शिक्षा में छाये अंधकार के लिए वे सतत निष्कम्प जलते दीप हैं। दम तोड़ती माध्यमिक शिक्षा को ऐसे ही कुछ साहसी प्रधानाचार्यों की आवश्यकता है तब कहीं जाकर कलाम का ‘मिशन 2020’ और मोदी के सपनों का भारत साकार होगा और शायद माध्यमिक शिक्षा पर सबसे कमजोर कड़ी होने का अपमानजनक तमगा भी हट सकेगा।
           

Wednesday, 22 July 2015

नैतिकता पर तमाशा

जिस मानसून सत्र से मुल्क की आवाम विकासोन्मुख विधेयकों को पारित किये जाने की उम्मीद कर रही थी, उसमें नैतिकता के नाम पर तमाशा हो रहा है। पहले दिन की ही तरह सत्र का दूसरा दिन भी ललित मोदी प्रकरण व व्यापम घोटाले की भेंट चढ़ गया। सत्तापक्ष नैतिक राह पर चलने की बजाय जहां संख्या बल पर इतरा रहा है वहीं विपक्ष भी अपनी जवाबदेही का सही निर्वहन करता नहीं दिख रहा। वैसे तो हमारे संविधान में मुल्क के संचालन की व्यवस्था के चार प्रमुख स्तम्भ तय हैं। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया का फर्ज यह है कि ये एक-दूसरे के काम में दखल न दें। आजादी के बाद से यह व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रही है। विधायिका के अलावा तीनों स्तम्भों के लिए काम और घण्टे लगभग तय हैं और वे उसी अनुरूप काम भी कर रहे हैं। अफसोस हमारी विधायिका लगभग निरंकुश हो चुकी है। विधायिका संचालन के लिए शीत, ग्रीष्म और मानसून सत्र बुलाए जाते हैं। इनमें बजट से लेकर सभी प्रकार के विकासोन्मुख मुद्दों पर चर्चा कर देश का सुचारु संचालन सुनिश्चित किया जाता है। इन सत्रों की नुमाइंदगी माननीय करते हैं। माननीय सिर्फ शब्द नहीं जवाबदेही का दूसरा नाम है। दो तीन दशक पहले तक तो यह माननीय सम्बोधन उचित लगता था। मन में अपने आप सम्मान का भाव उपजता था, लेकिन हाल के वर्षों में यह भाव तिरोहित सा हो गया है। मानसून सत्र के दो महत्वपूर्ण दिनों का हंगामे की भेंट चढ़ना इसी बात का सूचक है। सोचने वाली बात है कि जिन क्षणों का सदुपयोग जनमानस की राहत के लिए होना चाहिए था, वे क्षण नैतिकता का पाठ पढ़ाने में जाया हो गये। विपक्ष को सोचना चाहिए कि क्या शिवराज या सुषमा के इस्तीफे से मुल्क की सारी समस्याओं का निदान हो जायेगा या मोदी सरकार अल्पमत में आ जायेगी? हमें दूसरों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने की बजाय स्वयं का आत्मावलोकन जरूरी है। जनहित के कार्यों पर हंगामा बरपाने वालों को इस बात का भी उत्तर देना चाहिए कि आखिर सांसदों और विधायकों के वेतन भत्तों का कानून बिना किसी हंगामे के सर्वसम्मति से कैसे पारित हो जाता है? माननीयों को अपना वेतन खुद बढ़ा लेने की सुविधा आखिर कैसी नैतिकता है? बेहतर होता विधायिका के दायरे में आने वाले सभी कामकाज एक बैठक बुलाकर आम सहमति से मंजूर कर लिए जाएं। इसके लिए संसद या विधासभाओं का सत्र बुलाकर करोड़ों रुपए बर्बाद करने की क्या जरूरत है? हंगामा करना ही क्या सही लोकतंत्र है? आम जनता किसी राजनीतिज्ञ को अपना बहुमूल्य मत विकास के लिए देती है न कि राजहठ या अहंकार दिखाने के लिए। सदन की कार्रवाई में लगातार व्यवधान के लिए यदि मोदी सरकार जवाबदेह है तो विपक्ष भी इससे जुदा नहीं है। मौजूदा सत्र के दो दिन जिस हठधर्मी के चलते जाया हुए उसे देखते हुए नहीं लगता कि मानसूत्र सत्र में विकास की बारिश होगी।

शिवराज सरकार में संविदा कर्मचारी बेहाल

प्रशिक्षकों को भूला मध्यप्रदेश खेल विभाग
गुरबत में जीती खेल विभाग की रीढ़ की हड्डी
ग्वालियर। कहते हैं कि किसी खिलाड़ी का मर्म कोई खिलाड़ी ही जान सकता है। वजह साफ है जिसने मैदान में पसीना ही न बहाया हो उसे क्या पता पराक्रम क्या चीज होती है। प्रतिभा हर किसी में जन्मजात होती है। खेल-कूदना तो हर जीव का शगल है। सिर्फ मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी खेलते हैं। मनुष्य इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि उसकी प्रतिभा को मुकम्मल स्थान दिलाने को गुरू होता है। किसी खिलाड़ी में कितनी भी प्रतिभा क्यों न हो यदि उसे सही प्रशिक्षक न मिले तो वह कामयाबी की कहानी लिख ही नहीं सकता। मध्य प्रदेश सरकार पिछले नौ साल से खेलों की दिशा में कुछ कर गुजरने को बेताब है। प्रदेश में प्रतिभाओं की भी कमी नहीं है, पर खिलाड़ियों को निखारने वाले प्रशिक्षकों के साथ लगातार सौतेला व्यवहार जारी है। इनकी तरफ शिवराज सरकार का भी ध्यान नहीं है। पिछले नौ साल से संविदा प्रशिक्षक इस उम्मीद में गुरु ज्ञान बांट रहे हैं कि एक न एक दिन उन पर नजर जरूर जायेगी और सरकार प्रशिक्षकों के महत्व को स्वीकारेगी।  सवाल यह आखिर कब दिन बहुरेंगे प्रशिक्षकों के?
 मध्य प्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग वर्ष 2006 से सुर्खियों में आया। जब स्वयं घुड़सवारी की खिलाड़ी रहीं ऊर्जावान यशोधरा राजे सिंधिया को खेल मंत्री की जिम्मेदारी दी गई। यह मध्य प्रदेश के इतिहास का पहला अवसर था जब एक वास्तविक खिलाड़ी को खेल मंत्री बनाया गया। इस महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को उन्होंने भी चुनौती के रूप में लिया और प्रदेश के कायाकल्प की ठान ली। श्रीमती सिंधिया ने न केवल खेल अधोसंरचना पर ध्यान दिया बल्कि खिलाड़ियों की प्रतिभा निखारने के लिए प्रशिक्षक और मैदानों की मुकम्मल देखभाल के लिए दीगर कर्मचारियों की तैनाती को अमलीजामा भी पहनाया। इससे विभाग में नई ऊर्जा का संचार हुआ।
यहां यह बताना मुनासिब होगा कि वर्ष 2006 से पहले मध्य प्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग का सालाना बजट मात्र पांच करोड़ रुपये था परन्तु एक कुशल खिलाड़ी की तरह कार्य करते हुये खेल मंत्री ने अपने प्रयासों से खेल विभाग के बजट को 180 करोड़ रुपये तक पहुंचाया। खेल मंत्री के प्रयासों और खेल प्रशिक्षकों की मेहनत की बदौलत राष्टÑीय खेलों में मध्य प्रदेश एक सशक्त ताकत बनकर उभरा। 2006 में नियुक्त हुये एऩआई़एस़  डिप्लोमा प्राप्त खेल प्रशिक्षकों को वेतन के रूप में सिर्फ 9,000 रुपये मासिक प्रदान किये जा रहे थे जबकि वर्ष 2014 में खेल प्रशिक्षकों का वेतन 13,500 रुपये किया गया वहीं 5 जून, 2012 को मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली कैबिनेट ने खेल विभाग में कार्यरत सभी प्रकार के 554 संविदा खेल कर्मचारियों के वेतन में प्रतिवर्ष न्यूनतम 10 फीसदी वार्षिक वेतन बढ़ोत्तरी किये जाने का आदेश पारित किया जोकि अप्रैल 2012 से लागू किया जाना था। विडम्बना कहें या लेतलाली खेल विभाग की स्थापना में बैठे एक अधिकारी ने अपनी जादूगरी दिखाते हुये कैबिनेट के निर्णय को पलटते हुये उक्त आदेश को अप्रैल 2012 से लागू करने की बजाय जुलाई 2014 से लागू किया। दो साल विलम्ब से लागू आदेश के चलते संविदा कर्मचारियों को काफी नुकसान हुआ। दुर्भाग्य की बात है कि संविदा कर्मचारियों का नुकसान कराने वाले इस अधिकारी से जवाब-तलब करने की बजाय इसे सेवानिवृत्ति के बाद पुन: खेल विभाग में नियुक्त कर दिया गया। संविदा प्रशिक्षकों की जहां तक बात है देश के दूसरे राज्य उत्तर प्रदेश और हरियाणा में एऩआई़एस़ खेल प्रशिक्षकों को 25000-25000 रुपये मासिक वेतन दिया जा रहा है। राजस्थान, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, पंजाब, उत्तराखण्ड आदि में खेल प्रशिक्षकों को नियमित पद पर नियुक्त कर 40,000 से लेकर 70,000 रुपये तक वेतन दिया जा रहा है। मध्य प्रदेश में पिछले लगभग 10 साल से संविदा पदों पर सेवाएं दे रहे खेल प्रशिक्षकों को न ही नियमित किया जा रहा और न ही उन्हें सम्मानजनक वेतन दिया जा रहा है।
संचालक की बेरुखी
खेल संचालक उपेन्द्र जैन जोकि पिछले एक वर्ष से विभाग में हैं उन्होंने आज तक खेल प्रशिक्षकों से मिलना तक मुनासिब नहीं समझा। जानकर आश्चर्य होगा कि 180 करोड़ के खेल बजट वाले विभाग ने अपने खेल प्रशिक्षकों को चार साल से खेलकिट तक नहीं दी है। खेलकिट में ट्रैकसूट, टी-शर्ट, नेकर, शूज और मोजे होते हैं। विभाग के आला अधिकारियों के सौतेले व्यवहार से जहां खेल प्रशिक्षक खासे निराश हैं वहीं इस बढ़ती महंगाई में उन्हें अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करना भी दुरूह कार्य होता जा रहा है।
संजय चौधरी की आ रही याद
खेल एवं युवा कल्याण विभाग के कायाकल्प में संजय चौधरी के योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता। संचालक चौधरी के कार्यकाल में ही मध्यप्रदेश में दर्जन भर से अधिक खेल एकेडमियां स्थापित की गई थीं। उनके प्रयासों से जहां प्रशिक्षक नियुक्त हुए वहीं खिलाड़ियों को सुविधाएं भी समय से मिलीं। खेल विभाग से जुड़े लोगों का कहना है कि श्री चौधरी जैसे लोग ही खेल विभाग में जान फंूक सकते हैं। 

हॉकी का कबाड़ा

हॉकी इण्डिया (एचआई) के पदाधिकारियों की नासमझी और अहंकार के कारण रियो ओलम्पिक की तैयारी में जुटी भारतीय टीम की नैया मझधार में फंस गई है। एचआई अध्यक्ष नरिंदर बत्रा से मतभेद के कारण कोच पॉल वान एस ने चुपचाप पद छोड़ दिया। रियो के लिए रवानगी में महज एक बरस बचा है और नए हॉकी प्रशिक्षक की खोज शुरू हो गई है। नए कोच का अर्थ है नए ढंग से प्रशिक्षण, नए स्टाइल से तालमेल बिठाना। पक चुके प्लेयर्स ही नहीं, टीम के युवा सदस्यों के लिए भी यह कठिन है। ऐसे में रियो में अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
क्रिकेट से जुड़े घोटालों के शोर में अक्सर अन्य खेलों में चल रही उठा-पटक की अनदेखी हो जाती है। हॉकी को ही लें। पिछले पांच वर्षों में भारतीय टीम के चार कोच बदले जा चुके हैं। कोई न कोई कारण बताकर औसतन एक वर्ष के भीतर कोच की छुट्टी कर दी जाती है। पॉल वान एस तो मात्र पांच माह के भीतर बाहर हो गए। केपीएस गिल ने 17 वर्ष तक भारतीय हॉकी महासंघ पर एकछत्र राज किया, तब भी 14 कोच बदले गए थे। इससे टीम का प्रदर्शन बुरी तरह प्रभावित हुआ था। लम्बे झगड़े के बाद जब 2010 में हॉकी इण्डिया का जन्म हुआ तो खेलप्रेमियों को लगा था कि अब हॉकी के दिन फिर जाएंगे, लेकिन अभी तो इस आशा पर पानी फिरता लग रहा है।
पिछले साल दक्षिण कोरिया के इंचियोन में भारत ने एशियाड हॉकी का गोल्ड मेडल जीत रियो ओलम्पिक में जगह पक्की की थी। देश को 16 वर्ष बाद एशियाड में हॉकी का ताज मिला था। फाइनल में पाकिस्तान पर मिली जीत केवल जोश और जुनून नहीं, अच्छी रणनीति, बेहतर तकनीक और शानदार तालमेल का परिणाम थी। इस विजय से हमें क्वॉलीफाइंग मैच खेलने की जलालत से मुक्ति मिल गई। टीम के पास ओलम्पिक की तैयारी के लिए पूरे दो बरस का समय था, मगर हॉकी इण्डिया के आकाओं ने विजेता टीम के कोच टेरी वॉल्श को हटाकर एक साल यूं ही गंवा दिया। फिर पॉल वान को कोच नियुक्त किया गया लेकिन उनके कार्यकाल में टीम की कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं रही। हमने अजलान शाह प्रतियोगिता में तीसरा और हॉकी वर्ल्ड लीग में चौथा स्थान पाया। हॉकी वर्ल्ड लीग के सेमीफाइनल में वान ने छह खिलाड़ियों का स्थान बदल दिया और हम हार गए।
कभी भारत में हॉकी खिलाड़ी ही असली स्पोर्ट्स स्टार थे। उन्हीं के कारण आज भी हॉकी हमारा राष्ट्रीय खेल है। जिस तरह फिलहाल फुटबॉल की दुनिया पर यूरोप के देश हावी हैं, लेकिन इस खेल की कलात्मक शैली का जनक लैटिन अमेरिकी देशों को ही माना जाता है, उसी तरह तमाम बदहाली के बावजूद कलात्मक हॉकी का गढ़ भारत ही है। इसी कारण दुनिया के नामी कोच बेझिझक हमारे यहां खिंचे चले आते हैं। पैसा उनके आने का दूसरा कारण है। जितना वेतन भारत के हॉकी कोच पाते हैं, उतना अन्य कोई देश नहीं देता। पिछले पांच वर्ष में आने वाले हर विदेशी कोच को भारतीय खेल प्राधिकरण ने सात से दस लाख रुपये प्रतिमाह दिए हैं। रकम बड़ी है, लेकिन इसके अनुपात में परिणाम नहीं मिले। सन 2013 में हॉकी इण्डिया लीग शुरू हुई और इस खेल से जुड़े हर शख्स की किस्मत बदल गई। लीग में खेलने वाले अच्छे खिलाड़ी आज 50-50 लाख रुपये के अनुबंध पर हैं। कोच और अन्य स्टाफ की भी पौ-बारह हो गई है। हॉकी में पैसा तो आ गया है पर भारत अपनी खोई प्रतिष्ठा वापस पाने से अभी कोसों दूर है। इसका सबसे बड़ा कारण है खराब प्रबंधन। अन्य खेल संगठनों की तरह हॉकी इण्डिया के पदाधिकारी भी निरंकुश हैं। वे खेल को नहीं, अपने हित और अहंकार को प्राथमिकता देते हैं। निरंतर कोच बदलने का मूल कारण भी यही है। मजे की बात यह है कि कोच नियुक्त करने का काम भारतीय खेल प्राधिकरण का है। उन्हें वेतन भी प्राधिकरण देता है। लेकिन प्राधिकरण को यह नहीं पता होता कि कोई कोच कब हटा दिया गया और फैसला किसके आदेश पर हुआ। पॉल वान के केस से यह कड़वा सच एक बार फिर सामने आया है। ऐसे में सरकार को हाथ पर हाथ रखकर बैठने के बजाय सच का पता कर दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई करनी चाहिए। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि यदि किसी अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेण्ट में भारत की टीम हारती है तो खिलाड़ियों और कोच के साथ-साथ संबंधित खेल संघ के पदाधिकारियों के खिलाफ भी कार्रवाई हो।
तय हो जवाबदेही
भारत में खेल संगठनों की जवाबदेही तय करने और उनके निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए मनमोहन सिंह सरकार ने स्पोर्ट्स डवलपमेंट बिल पारित कराने का विफल प्रयास किया था। अन्य बातों के अलावा इस बिल में खेल संगठनों के पदाधिकारियों की आयु सीमा और कार्यकाल भी तय कर दिया गया था। आज देश के अनेक खेल संगठन घोटालों की चपेट में हैं, जिसका नुकसान खेलों को हो रहा है। हॉकी कोच विवाद एकदम ताजा उदाहरण है। यदि मोदी सरकार स्पोर्ट्स डवलपमेंट बिल फिर से लेकर आए तो खेल और खिलाड़ियों का कुछ न कुछ कल्याण तो जरूर होगा।
-धर्मेन्द्र पाल सिंह

शर्तबाजी-सट्टेबाजी अपराध कैसे?

2013 में आई.पी.एल. स्पॉट फिक्सिंग की जांच करने वाले पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस मुकुल मुदगल ने गत दिनों एक समाचार पत्र को दिए गए साक्षात्कार में कहा कि भारत में जब घुड़दौड़ पर बेटिंग लीगल है तो क्रिकेट में लीगल क्यों नहीं की जा सकती। उनका कहना था कि बेटिंग या शर्तबाजी को लीगल कर देना चाहिए। इसको लीगलाइज करेंगे तो ब्लैकमनी व्हाइट और टैक्सेबल हो जाएगा और अंडरवर्ल्ड की फंडिंग भी रुक जाएगी। मेरी समझ में जस्टिस मुकुल मुदगल ने बहुत महत्वपूर्ण सामयिक मुद्दा उठाया है क्योंकि शर्त या बाजी लगाने के लिए जिसके लिए बोलचाल में सट्टा शब्द का प्रयोग किया जाता है उसके दो मापदंड नहीं होने चाहिए। दरअसल भारत में जुआ, सट्टा, लाटरी आदि को गैरकानूनी करार दिए जाने के बावजूद इनका जारी रहना भाग्यवादी व्यक्तियों की वह चाहत होती है कि बिना पुरुषार्थ व परिश्रम के भाग्य  या संयोग से बड़ी धनराशि मिल जाया करे।
 इसलिए सट्टा तथा जुए के दांव लगाने के कोई न कोई तरीके खोज लिए जाते हैं। इसलिए खेलों तथा चुनाव के समय सट्टेबाजी जोरों पर रहती है। जहां तक क्रिकेट का सवाल है, यदि इंग्लैंड में क्रिकेट का इतिहास देखें तो पता चलता है कि इस खेल के जन्म के समय से ही  इसका  तथा सट्टेबाजी का चोली-दामन का साथ रहा है। क्रिकेट की जन्मस्थली ब्रिटेन के क्रिकेट इतिहासकारों के अनुसार, अन्य खेलों की तुलना में क्रिकेट के तेजी से लोकप्रिय होने का एक बड़ा कारण इस पर भारी पैमाने पर होने वाला सट्टा था, जिसे वहां कानूनी मान्यता मिली हुई थी। वहां के समाचार-पत्रों में प्रमुखता से बेटिंग या सट्टा लगाने हेतु जीत-हार व खिलाड़ियों द्वारा बनाए जाने वाले रनों के पूर्वानुमान प्रकाशित किए जाते थे। ब्रिटेन के समान ही आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी क्रिकेट पर सट्टा को गैरकानूनी नहीं रहा। चूंकि भारत धर्मभीरुओं का देश है क्योंकि यहां के अधिकांश धर्मों में जुआ तथा सट्टा खेलना बुरा या अनैतिक माना जाता है संभवत: इसीलिए  सरकार ने नैतिकता की रक्षा हेतु सट्टे या शर्तबाजी को जुआ मानकर गैरकानूनी करार कर रखा है।
भारत में 1960 के दशक के बाद क्रिकेट टेस्ट मैचों के समय सट्टेबाजी के समाचार यदा-कदा सुर्खियों में आने प्रारम्भ हुए। एक दिवसीय क्रिकेट के प्रारम्भ  होने पर इनमें कुछ बढ़ोतरी हुई। आई.पी.एल. सीजन मैचों में सट्टेबाजी अपने चरम पर पहुंच गई है, इसमें तो फ्रेंचाइजी और खिलाड़ियों की नीलामी से लेकर लीग मैच के फायनल होने तक पुलिसिया धर-पकड़ के बावजूद सट्टेबाजी चलती रहती है। 2008 के प्रथम आई.पी.एल. सीजन मैच में लगभग 800 करोड़ रुपए सट्टेबाजी का अनुमान लगाया गया था जो 2015 में सम्पन्न 9वें सीजन मैच में 50,000 करोड़ रुपए तक पहुंच गया। इस बड़े पैमाने पर होने वाले सट्टे में 70 फीसदी योगदान आॅन लाइन बेटिंग का है। भारतीय पुलिस भारत की धरती पर होने वाले सटोरियों की धर-पकड़ तो कर लेती है किन्तु  ये सभी विदशों से संचालित होने वाली इन वेबसाइटों के माध्यम से आॅनलाइन बेटिंग के विरुद्ध सरकार कुछ भी करने में बेबस है, क्योंकि  विदेशों में बेटिंग पर प्रतिबंध नहीं है। आई.पी.एल. सीजन मैचों पर आॅनलाइन सट्टेबाजी इतनी अधिक लोकप्रिय हो गई है कि इंटरनेट में आई.पी.एल. आॅन लाइन बेटिंग सर्च करिए आपको दर्जनों वेबसाइटों की सूची एवं उनके विज्ञापन मिल जाएंगे। आॅनलाइन सट्टे के लोकप्रिय होने का एक कारण यह भी है कि सट्टा लगाने वालों को बुकिंग की खोज के लिए कहीं दूर नहीं जाना पड़ता है। अपने निवास स्थान, कार्यालय या  व्यावसायिक परिसर के कम्प्यूटर पर ही नहीं, बल्कि कहीं भी सफर करते हुए  अपने लैपटॉप पर आसानी से बुकिंग की जा सकती है। दो साल पहले तक आॅनलाइन सट्टे के बुकिंग की सबसे बड़ी समस्या थी कि एजेंसी विदेशी होने के कारण विदेशी करेंसी डॉलर में भुगतान लेना पसन्द करती थी। आम भारतीय के लिए डॉलर में बुकिंग भुगतान सम्भव नहीं था। किन्तु अब बेट 365, बेटफेयर, सैडब्रोक्स, विलियम हिल, पैडीपावर तथा पिनेक्कल स्पोटर््स आदि बेटिंग एजेंसियों द्वारा रुपये में भुगतान की सुविधा प्रदान करने से इस समस्या का हल भी निकल आया है। अब इंटरनेट पर आॅनलाइन आईपीएल सट्टा धड़ल्ले से खेला जा रहा है। भारतीय पुलिस लाचार है, वह विदेशों में स्थित बेटिंग एजेंसियों के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर पा रही है। घुड़दौड़ में शर्तबाजी लगाने या बेट लगाने को सर्वाेच्च न्यायालय ने 1996 में एक निर्णय में   पुलिस एक्ट 1888 तथा गेमिंग एक्ट 1930 के तहत जुआ मानने से इंकार करते हुए इसको गैरकानूनी करार देने से इंकार कर दिया था। न्यायालय का कहना था कि घोड़ों पर बाजी लगाना स्पेकुलेशन नहीं है बल्कि अध्ययन करके सोच-समझकर बाजी लगाने का कौशल है।  इसलिए यह अपराध नहीं है। सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णय के बाद से भारत के सभी 5 टर्फ  क्लब 9 स्थानों पर बेखौफ घुड़दौड़ का संचालन कर रहे हैं। घुड़दौड़ स्पर्धा के समान ही  क्रिकेट के मैचों को भी जुआ न मानकर इसे सोच-समझकर बेटिंग या शर्तबाजी मानकर इसे कानून-सम्मत करार दिए जाने की जरूरत है। यह इसलिए भी कि प्राय: देखा गया है कि घुड़दौड़ या अन्य प्रकार की सटट्ेबाजी या जुए की तरह क्रिकेट में शर्तबाजी स्वयं के लकी नम्बर, साधू, फकीर-पीरबाबा की सलाह पर नहीं की जाती, बल्कि अध्ययन या अनुभव के आधार पर की जाती है। इसके लिए क्रिकेट सट्टाबाजी प्रेमी यदि सर्वाेच्च न्यायालय में घुड़दौड़ के सम्बन्ध में उसके 1996 के निर्णय का संदर्भ देते हुए याचिका दायर करते हैं तो इसको अपराध श्रेणी से हटाकर कानून-सम्मत निर्णय प्राप्त किया जा सकता है। यदि सरकार क्रिकेट में सचमुच अपराध मानती है तो उसे स्कूल में बच्चों तथा वयस्कों को पंचायत के माध्यम से इस अपराध से बचने के लिए शिक्षित करना चाहिए। भारत में सरकार ही नहीं, बल्कि गैर-सरकारी संगठन इस अपराध से बचने के लिए लोगों को जागृत करने में असफल रहे हैं। हमारी सरकार क्रिकेट सट्टेबाजी को हतोत्साहित करने के लिए शिक्षा की बजाय इसकी  रोकथाम हेतु धर-पकड़ का रास्ता अपनाती है। हमारा सुझाव है कि क्रिकेट बेटिंग को अनैतिक व जुआ मानने की बजाय इसे दिमागी कसरत माननी चाहिए। इसलिए सरकार को एक क्रिकेट बेटिंग रेग्युलेटरी अथॉरिटी का गठन करके क्रिकेट शर्त बदने को विनियामित करना चाहिए।
-डॉ. हनुमंत यादव