महिलाओं की स्थिति भले ही
स्थानिक प्रभाव व काल प्रवाह में बदलती रही हो, उसकी छवि भी भले
ही समय-समय पर दबती-उभरती रही हो, परन्तु हर युग के निर्माण में उसकी
महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। उसकी अस्मिता को लेकर साहित्य में हमेशा ही
समय-सापेक्ष अनेकानेक प्रश्न उठाए जाते रहे हैं। उनका समाधान हुआ है या नहीं, यह सब कुछ
निरुत्तरित ही है जब तक वह मानवीय रूप में उभरकर सबके सामने न आए। सब नाते-रिश्तों
के बावजूद वह स्वतंत्र इकाई भी है और स्वतंत्र अस्तित्व वाली भी है। साहित्य
दिशा-बोधक एवं दिशा-स्तम्भ है। आज हमारा युग-बोध बदल गया है, जीवन-पद्धतियां
बदल गई हैं। इसीलिए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में समीकरण की तलाश है। नये मूल्यों का
निर्माण करने से ही नये युग की नई नारी की प्रतिमा उभरेगी।
आज स्त्रीवाद या स्त्री
विमर्श एक फैशन बन गया है। आधी आबादी की अस्मिता को लेकर आज आन्दोलन भी हो रहे हैं,
परन्तु यह कोई नई बात नहीं है। देखा जाए तो नारी अस्मिता और उससे जुड़े तमाम सवालों
के हल पिछले दो सौ से भी अधिक वर्षों से ढूंढ़े जा रहे हैं तथापि समस्याएं यथावत
हैं। अठारहवी शताब्दी के मध्य में ही दुनिया की तमाम महिलाओं को बराबरी का हक़
दिलवाने की ज़रूरत महसूस की गई और पहली बार राइट्स ऑफ वूमेन के माध्यम से
स्त्री-अधिकारों के लिए आवाज मुखर हुई। इंग्लैण्ड की मैरी वोलस्टोन पहली महिलावादी
थीं जिन्होंने महिला शिक्षा और अधिकारों को लेकर महिला आंदोलन की शुरुआत की।
उन्होंने शोषण से स्त्री की मुक्ति हेतु पुरुषों में बदलाव की आवश्यकता पर बल दिया
है।
स्वीडन की फ्रेडरिका बेमर
ने भी 1849 में स्त्री जीवन की विडम्बनाओं को स्वयं अनुभव किया। उन्होंने अमेरिका
जाकर वहां की स्त्रियों की स्थिति का अध्ययन किया। फिर स्वीडन लौटकर अपना उपन्यास
हेर्था लिखा, जिसमें उन्होंने स्त्री को परम्परागत भूमिका से मुक्त रूप में
चित्रित किया। यही उपन्यास स्वीडन की संसद में स्त्रियों के हित में बनाये जाने
वाले क़ानूनों का आधार बना। 1791 में फ्रांस में ओलिम्पी दे गाज द्वारा महिलाओें के
नागरिक अधिकारों पर घोषणा-पत्र प्रस्तुत किया गया। इसमें महिलाओं के लिए पुरुषों
के समान अधिकारों की घोषणा की गई। भारत में सरोजिनी नायडू पहली ऐसी महिला थीं
जिन्होंने एनी बेसेण्ट और अन्य लोगों के साथ मिलकर भारतीय महिला संघ की स्थापना
की।
उन्नीसवीं शताब्दी की महिला
आन्दोलनकारियों में फ्रांस की सिमोन द बोउवा का नाम सर्वोपरि है। उनकी पुस्तक द
सेकेण्ड सेक्स स्त्री विमर्श की चर्चित कृति है। सिमोन मानती थीं कि स्त्री का
जन्म भी पुरुष की तरह ही होता है मगर परिवार व समाज द्वारा उसमें स्त्रियोचित गुण
भर दिए जाते हैं। 1970 में फ्रांस के नारी मुक्ति आंदोलन में भाग लेने वाली सिमोन
स्त्री के लिए पुरुष के समान स्वतंत्रता की पक्षधर थीं।
प्रसंगवश यहां अमेरिका की
रॉबिन मोर्गन, बैटी फ्रीदां, एंड्रिया
ड्वार्किन, सुजेन फलूदी और ग्लोरिया स्टीनेम जैसी प्रसिद्ध
महिलावादियों का नामोल्लेख उचित है। रॉबिन ने महिला आन्दोलन पर सिस्टरहुड इज
पावरफुल जैसी चर्चित पुस्तक लिखी। 1960 के दशक में वे लेस्बियन के रूप में जानी
गईं और महिला मुक्ति आन्दोलन में भी सक्रिय रहीं। बैटी फ्रीदां अमेरिका में
राष्ट्रीय महिला संघ की संस्थापक और अध्यक्ष रहीं। उन्होंने अपनी पुस्तक द फेमिनिन
मिस्टीक में गृहिणी शिक्षा पर प्रश्न उठाया। वे गर्भपात-क़ानून की विरोधी और समान
अधिकारों की समर्थक थीं। इस विवेचना का आशय यही है कि समान अधिकारों के लिए
महिलाओं का संघर्ष नया नहीं है। यह सर्वकालिक और सार्वदेशिक है। महिलाएं चाहे जिस
भी नस्ल, वर्ण, जाति, धर्म, संस्कृति या देश
की हों, उनके संघर्ष लगभग एक समान हैं।
आश्चर्यजनक तो यह है कि
स्त्रीवादियों के आन्दोलन की जो लहर पहले पहल अठारहवी शताब्दी के मध्य में उठी थी, अब तक अपनी मंजिल
नहीं पा सकी है। यद्यपि स्त्री की एक नयी छवि अवश्य उभर रही है। सदियों से बंधनों
में जकड़ी स्त्री अब स्वावलम्बी और सबला बनने हेतु सचेष्ट है। अतएव विश्व के अधिकतर
देशों में सकल घरेलू उत्पाद में उनकी सक्रिय भागीदारी बढ़ रही है। अमेरिका, कनाडा, चीन, ब्राजील, मेक्सिको, युगांडा, भारत और
बांग्लादेश जैसे तमाम विकसित व विकासशील देशों में जहां रोजगार सृजन का कार्य
व्यापक पैमाने पर हो रहा है, वहां की समृद्धि का आधार स्तम्भ महिलाएं हैं।
सभी क्षेत्रों में अपनी क्षमता साबित कर देने के बावजूद समूची दुनिया में आज भी महिलाएं
हाशिए पर हैं।
मध्य एशिया के सबसे बड़े
देश ईरान में 36 विश्वविद्यालयों ने 80 अलग-अलग पाठ्यक्रमों में महिलाओं के प्रवेश
पर प्रतिबंध लगा दिया है। ऐसे पाठ्यक्रमों में इंजीनियरिंग, कम्प्यूटर साइंस, नाभिकीय भौतिकी, अंग्रेजी साहित्य
और पुरातत्व जैसे विषय शामिल हैं। आर्यों की धरती माने जाने वाले ईरान में
स्त्रियों की ज़ुबान पर ताले जड़े हैं। उन्हें सिर्फ चेहरा खुला रखने की आजादी है।
वहां कोई महिला संगठन नहीं है, जो महिला अधिकारों की बात करे। कोई महिला
राजनेता नहीं हैं। तीन वर्ष पूर्व विरोधी प्रदर्शन के दौरान एक युवती नेहा आगा
सुल्तान मारी गई थी तदुपरान्त किसी महिला ने आगे आने की हिम्मत नहीं दिखाई। ईरान
की नोबेल शांति पुरस्कार विजेता शीरीन इबादी ईरान से बाहर रहकर स्त्रियों की आजादी
की लड़ाई लड़ रही हैं। वैश्विक स्तर पर स्त्री की स्थितियों में अधिक अन्तर नहीं है।
हम चाहे सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक या
पारिवारिक परिदृश्य की बात करें, हर कहीं स्त्री का शोषण बदस्तूर जारी है।
धार्मिक नेता और समाज के ठेकेदार युवतियों के रहन-सहन, परिधान, संचार साधनों के
उपयोग और जीवनसाथी के चयन जैसे सर्वथा निजी मामलों में भी अपनी राय थोपकर उनकी
स्वतंत्रता का हनन करते हैं।
महिलाओं के संदर्भ में रोजगार, शिक्षा और क़ानून
को लेकर समानता की मांग बेमानी नहीं है, क्योंकि वे हर जगह भेदभाव से पीड़ित हैं।
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के दस्तावेज़ मानव विकास रपट से ज्ञात होता है कि
समूचे विश्व में महिलाएं शोषण का शिकार हैं। पुरुष प्रधान समाज में उसकी उन्नति के
मार्ग में हर कदम पर अवरोध दिखाई देते हैं। जनसंख्या व विकास पर जब काहिरा में
विश्व सम्मेलन हुआ तो धार्मिक पुरोहितों ने गर्भपात और अनचाहे गर्भ को रोकने के
लिए सम्मेलन के प्रस्ताव का विरोध किया। फलतः एक स्त्री-हितैषी निर्णय खटाई में पड़
गया। यह भी कटु सत्य है कि संसार के दो तिहाई कठिन परिश्रम वाले कार्य महिलाएं ही
करती हैं परन्तु इसके बदले उन्हें बहुत कम पारिश्रमिक मिलता है। उन्हें पुरुषों की
आय के दसवें भाग के बराबर मिल पाता है और सम्पत्ति तो बमुश्किल सौ में से एक महिला
के नाम पर होती है। दरअसल प्रत्येक महिला अपने परिवार के लिए अथक परिश्रम करती है
पर उसके श्रम की कोई सामाजिक मान्यता नहीं हैं। भारत में तो कर्तव्य और प्रेम की
ओट में उसके श्रम की अनदेखी कर दी जाती है।
आज नारी का अस्तित्व खतरे
में है। यदि हम भारत की बात करें, तो यहां परिवार की व्यवस्था के लिए एक
सौभाग्यवती ब्याहता की मांग होती है। मगर कम्पनियों और बाजारवादी व्यवस्था को
स्वयं निर्णय लेने में सक्षम, स्वावलम्बी और सौन्दर्यचेता स्त्री चाहिए। इन
दोनों बातों को ध्यान में रखते हुए मीडिया स्त्री की जो छवि रच रहा है वह
नकारात्मक अधिक है। नारी मुक्ति आन्दोलन स्त्री की स्वतंत्रता पर बल देता है, जबकि असल मुद्दा
यह है कि उसे इंसान के रूप में मान्यता मिले। तब उसे पुरुष के समान अधिकारों की
मांग अलग से करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। देश और समाज के प्रति उसकी भूमिका और
उत्तरदायित्व इंसान के रूप में ही सुनिश्चत हो जाएंगे। मगर दु:ख की बात यह है कि
भारतीय महिलाओं की स्थिति सरकार के समस्त प्रयासों के बावजूद बेपटरी है।
आज सबसे बड़ी समस्या
स्त्री की स्वतंत्रता की नहीं, सुरक्षा की है। दुधमुंही बच्ची से लेकर वृद्धा
तक के साथ बलात्कार हो रहे हैं। समूचे विश्व में स्त्री यौन उत्पीड़न और हिंसा से
जूझ रही है। उसकी महत्वाकांक्षाओं के लिए समाज में कोई स्थान नहीं है। उसे इसके
लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। आखिर कब तक महिला की योग्यता और क्षमता की अवहेलना
होती रहेगी? कब तक उसका शोषण जारी रहेगा? औपचारिक तौर पर
किसी एक दिन महिला दिवस मनाने से उनकी समस्याओं का हल नहीं निकलेगा। अब विश्व
महिला दिवस एक विशेष दिन के रूप में मनाने की बजाय ऐसी पहल की जानी चाहिए जिसमें
हर दिन महिला अपने को सुरक्षित और सम्मानित महसूस कर सके। अपने देश की उन्नति में
एक इन्सान और मज़बूत नागरिक के रूप में योगदान कर सके। अपने स्त्री होने पर गर्व कर
सके।
कभी बेटियों को अभिशाप
मानने वाला हमारा पुरुष प्रधान समाज आज बेटियों के कारनामों से न केवल हतप्रभ है
बल्कि उनका गुणगान करते नहीं थक रहा। यह वही बेटियां है जिन्हें आज से कुछ दशक
पहले पर्दे में रखा जाता था और घर की इज्जत-आबरू बताकर उन्हें चौखट के बाहर कदम
रखने की इजाजत नहीं दी जाती थी। बड़ी मुश्किल से कोई कोई माता-पिता हिम्मत जुटाकर
अपनी बेटियों को स्कूली शिक्षा के लिए घर से बाहर भेजा करते थे और समाज की मान्यता
के विपरीत अपनी बेटियों को पढ़ाया करते थे। ऐसे अभिभावकों को इसके लिए कभी-कभी परिवारीजनों
और बाहरी लोगों से विरोध तथा उलाहना का सामना भी करना पड़ता था। ऐसे हिम्मती
अभिभावकों के चलते ही बेटियों को घर से बाहर निकलने का मौका मिला।
आज परिस्थितियां बिल्कुल
बदल चुकी हैं। आज हमारा समाज बेटियों की शिक्षा को लेकर न केवल सजग और जागरूक है बल्कि
प्रायः प्रत्येक व्यक्ति अपनी बेटी को उच्च से उच्चतम शिक्षा देने की लालसा रखता
है। बेटियों को नील गगन में स्वच्छंद उड़ान भरने की इजाजत मिल रही है। देश के गाँव
हों या शहर जहां देखो वहीं लड़कियाँ समूह में स्कूल-कालेज जाती हुई आपको दिख जाएंगी।
कुछ अलग परन्तु श्रेष्ठ करने की दृढ़ इच्छा लिए ये बेटियां अपने आत्मबल और
आत्मविश्वास से कठिन परिश्रम के सहारे सफलता की ऊंची उड़ान उड़ रही हैं। आज कोई भी
ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां बेटियों की दखल उनकी कामयाबी के हस्ताक्षर न हों।
नारी अस्मिता के संदर्भ
में बात करें तो शुरू से ही स्त्री को मनुष्य का दर्जा नहीं दिया गया। उसे
अनुगामिनी व आज्ञाकारिणी ही बनाकर रखा गया। यह सब पितृ सत्तात्मक समाज की देन थी
और है। भूमंडलीकरण से नारी अस्मिता के सवाल उभरे। स्त्री जागी। महिलाओं के जागरण
मात्र से ही पितृ सत्तात्मक समाज की नींद उड़ गई। स्त्री जब तक सोई हुई थी तब तक
पितृ सत्तात्मक समाज चैन से था। उसका जगना उन्हें बेचैन कर गया। देखा जाए तो आज नारी
अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष आवश्यक है। वह संघर्ष पुरुषों से नहीं पुरुष सत्ता
से होना चाहिए। वैसे अब चीजें बदलने लगी हैं। मगर, एक सतत व लम्बे संघर्ष के बाद ही नारी अस्मिता
पूरी तरह स्थापित हो पाएगी। नारी व पुरुष में अंतर है। इस नैसर्गिक सच को हमें
स्वीकार करना होगा। नारी व पुरुष समान नहीं हैं। इसलिए दोनों में तुलना नहीं की जा
सकती। दोनों अपने आप में बेमिसाल हैं। दोनों की अपनी अलग-अलग विशेषताएं हैं। नारी
अस्मिता या नारी स्वतंत्रता का यह मतलब नहीं है कि नारी समय व समाज के नियमों से
ऊपर है। इसका मतलब है कि किसी और के अधीन न होकर नारी स्वाधीन हो।