शह-मात की क्रिकेट
श्रीप्रकाश शुक्ला
भारत में क्रिकेट को धर्म तो क्रिकेटर को भगवान माना जाता है। सदियों से क्रिकेट भद्रजनों की लुगाई रही है
लेकिन जब से इसके कपड़े रंग-बिरंगे हुए हैं इसकी स्थिति कोठे वाली से भी बदतर हो
गई है। हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है
लेकिन उसे अपना हक कभी नहीं मिला। भारत में दूसरे खेल भी क्रिकेट के नंगनाच में
कहीं खो से गये हैं। भारत में जब टेस्ट क्रिकेट की शुरुआत हुई तब लोगों की समझ में
ही नहीं आ रहा था कि इस खेल का भविष्य क्या है। वैसे तो भारत में क्रिकेट की
शुरुआत 18वीं सदी में ही हो गई थी लेकिन संगठित क्रिकेट 1848 से परवान चढ़ी। पारसी
ओरिएण्टल क्रिकेट क्लब भारत का पहला क्रिकेट क्लब था। 1866 में पहले हिन्दू क्लब
का गठन हुआ जिसे बाम्बे यूनियन से जाना गया। भारत में क्रिकेट की जब भी बात होती
है तो लोग सुनील गावस्कर, कपिल देव या भारत रत्न सचिन तेंदुलकर को ही ज्यादा याद करते
हैं। भारत में एक से बढ़कर एक बिन्दास क्रिकेटर पैदा हुए लेकिन जब से क्रिकेट में
शह-मात का खेल शुरू हुआ कालजयी खिलाड़ी बिसरा दिए गए। जुलाई महीने में भारत में
क्रिकेट का जो नंगनाच हुआ उसमें एक भद्र क्रिकेटर और महान खिलाड़ी को गुरु पद
त्यागना पड़ा। अनिल कुम्बले की जगह रवि शास्त्री को भारतीय टीम का प्रशिक्षक
नियुक्त किया जाना कई सवाल खड़े करता है। तुलनात्मक नजरिए से देखें तो कुम्बले और
शास्त्री में जमीन-आसमान का फर्क है।
खेल कोई भी हो खिलाड़ियों का मकसद देश की अस्मिता को चार चांद लगाना होना
चाहिए। भारत में गुरु का महत्व सबसे ऊपर है लेकिन अनिल कुम्बले प्रकरण से यह बात मिथ्या
साबित हो गई। टीम इण्डिया के कप्तान विराट कोहली और कोच अनिल कुम्बले के बीच मतभेद
को लेकर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड तथा क्रिकेट सलाहकार समिति के सदस्यों का
रवैया भी गैरजिम्मेदाराना रहा है। सौरव गांगुली, सचिन तेंदुलकर और वीवीएस लक्ष्मण को
अनिल कुम्बले का पक्ष भी सुनना था। कप्तान विराट कोहली देश से बड़े नहीं हो सकते।
भारतीय क्रिकेट में अनिल कुम्बले का योगदान किसी से कम नहीं है। यदि अनिल कुम्बले
ने गाहे-बगाहे टीम इंडिया पर अनुशासन का डंडा चलाया भी तो उसमें हर्ज की क्या बात
थी। सौरव गांगुली ने सही कहा कि पूर्व कोच अनिल कुम्बले और कप्तान विराट कोहली के
बीच मतभेदों को भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड सही तरीके से सुलझाने में नाकाम रहा।
इस मामले को सुलझाने की जिसे भी यह जिम्मेदारी दी गई थी, उसने अपना काम सही ढंग से
क्यों नहीं किया। दरअसल क्रिकेट सलाहकार समिति ने ही वीटो का इस्तेमाल करते हुए
कोच अनिल कुम्बले की नियुक्ति की थी। उस समय भी विराट कोहली कुम्बले के पक्ष में
नहीं थे लेकिन सौरव गांगुली के चलते रवि शास्त्री को मुंह की खानी पड़ी थी। अनिल
कुम्बले के कार्यकाल में भारतीय क्रिकेट टीम का प्रदर्शन काफी संतोषजनक रहा है।
बेहतर होता कुम्बले को एक और मौका दिया जाता या फिर शास्त्री की जगह पर वीरेन्द्र
सहवाग प्रशिक्षक बनते। वीरेन्द्र सहवाग को प्रशिक्षक बनाने से न केवल विराट कोहली
पर अंकुश लगता बल्कि टीम इंडिया भी अनुशासित होती। गौरतलब है कि पिछली बार भी शास्त्री
प्रशिक्षक पद की दौड़ में सबसे आगे चल रहे थे लेकिन सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली
और वीवीएस लक्ष्मण ने अनिल कुम्बले से आवेदन कराकर शास्त्री का बना बनाया खेल
बिगाड़ दिया था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब एक खिलाड़ी की जगह लेने को 10-10 खिलाड़ी खड़े हों
ऐसे में भारतीय क्रिकेट में प्रशिक्षक की भूमिका के कोई खास मायने नहीं रह जाते। अब
क्रिकेट में सिर्फ पैसा ही पैसा है, ऐसे में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड इसे खेल
से ज्यादा व्यवसाय के रूप में ले रहा है। देखा जाए तो क्रिकेट में 11 खिलाड़ी होते हैं लेकिन भारत में क्रिकेट के
साथ खिलवाड़ करने वाले बहुत से सफेदपोश खिलाड़ी हैं। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड
का गठन 1928 में हुआ। तब कोई नहीं जानता था कि इस बोर्ड का काम क्या होना चाहिए।
क्रिकेट को बढ़ावा देना, क्रिकेट के हित में काम करना या सिर्फ क्रिकेट को
नियंत्रण करना लेकिन धीरे-धीरे इस बोर्ड का मकसद साफ हो गया, पैसा यानी पैसा। कपिल
देव के नेतृत्व में जैसे ही भारतीय टीम ने 1983 का विश्व कप जीता भारतीय क्रिकेट
कंट्रोल बोर्ड के सपनों को पर लग गए। भारतीय क्रिकेट को समृद्ध करने का श्रेय स्वर्गीय
जगमोहन डालमिया और स्वर्गीय माधव राव सिंधिया के प्रयासों को जाता है। भारतीय
क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का पहला अध्यक्ष आर.ई. ग्रांट बने जिनका ब्रिटेन के बड़े
उद्योगपतियों में शुमार था। तब से लेकर अब तक यह सिलसिला जारी है। भारतीय क्रिकेट
कंट्रोल बोर्ड का अध्यक्ष या तो उद्योगपति बना या फिर राजनेता। भारत में क्रिकेट
के सम्पन्न होने से खिलाड़ियों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार हुआ है। आईपीएल जैसी
प्रतियोगिताओं से नए खिलाड़ियों को न केवल खेलने का मौका मिला बल्कि उनकी तंगहाली
भी दूर हुई है लेकिन टके भर का सवाल यह है कि क्या बीसीसीआई को चलाने के लिए हमारे
देश में खिलाड़ियों की कमी है।
बीसीसीआई एक संस्था के रूप में बेशक सफल हुई हो लेकिन विवादों ने कभी इसका
पीछा नहीं छोड़ा। दुनिया का सबसे अमीर बोर्ड
अपने आपको देश से बड़ा मानने की बार-बार गलती करता रहा है। भला हो सुप्रीम कोर्ट
का जिसने निरंकुश भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड पर अंकुश लगाने का काम किया है। भारत
जैसे देश में जहां एक आम आदमी अपनी कमाई का कुछ हिस्सा टैक्स के रूप में देता है
वहीं बीसीसीआई जैसी धनकुबेर संस्था का
टैक्स चोरी करना शर्म की ही बात है। देखा जाए तो भारत में बीसीसीआई ने किसी दूसरी
संस्था को अपने सामने टिकने ही नहीं दिया। बीसीसीआई और आईसीएल विवाद सबको पता है।
2007 में कपिल देव की अगुआई में आईसीएल का गठन हुआ था जिसका मुख्य मकसद घरेलू खिलाड़ियों को मौका देना था लेकिन बीसीसीआई
इससे खुश नहीं थी। बीसीसीआई ने आईसीएल में
खेलने वाले सभी खिलाड़ियों को ब्लैक-लिस्ट किया और कपिल देव से अपना रिश्ता तोड़ लिया।
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने आईसीएल को चुनौती देते हुए ही आईपीएल की शुरुआत
की। आईपीएल और आईसीएल की लड़ाई में आईसीएल का अस्तित्व तो खत्म हो गया लेकिन 2012
में कपिल देव ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड से माफी मांगकर अपना दामन तो बचा
लिया पर आईसीएल से जुड़े खिलाड़ियों का भविष्य खराब हो गया। इस लड़ाई में सबसे
ज्यादा फायदा कपिल देव को ही हुआ। इसे पैसे का रैसा ही कहें कि दुनिया की क्रिकेट
को नियंत्रित करने वाली आईसीसी भी बीसीसीआई के सामने बौनी नजर आती है। राजीव
शुक्ला और अरुण जेटली जैसे लोगों से जब तक क्रिकेट मुक्त नहीं होगी खिलाड़ियों को
बेआबरू होकर ही जाना होगा।
देखा जाए तो 1928 से 2013 तक भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में 31 अध्यक्ष बने
जिनमें सिर्फ छह का ही क्रिकेट से ताल्लुक रहा है बाकी 25 या तो राजनीतिज्ञ थे या
फिर उद्योगपति। राज्य स्तर के क्रिकेट बोर्ड भी राजनीतिज्ञों के ही हाथों की
कठपुतली हैं। अफसोस की बात है जो राजनेता अपने राज्य को चलाने में समर्थ नहीं हैं वे
क्रिकेट बोर्ड को चला रहे हैं। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की चयन समिति को छोड़
दें तो अधिकांश कमेटियों में क्रिकेटर नजर नहीं आते। जो भी क्रिकेटर क्रिकेट की
भलाई के लिए बोर्ड से पंगा लेता है उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। खिलाड़ियों
के मान-सम्मान को बार-बार लगती चोट के लिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड से कहीं
अधिक पूर्व क्रिकेटर जिम्मेदार हैं। भारत में क्रिकेट खिलाड़ियों का कोई संघ भी
नहीं है जोकि खिलाड़ियों के हक के लिए लड़ सके। हां कुछ ऐसे खिलाड़ी जरूर हैं जो
बीसीसीआई के पैसे से मौज कर खिलाड़ियों को आपस में लड़ाते रहते हैं। विराट कोहली
और अनिल कुम्बले विवाद में भी कुछ पूर्व खिलाड़ियों का हाथ है। कहते हैं कि दो के
बीच में तीसरे का फायदा। रवि शास्त्री क्या हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है।
शास्त्री के कार्यकाल में खिलाड़ी आधी रात को भी बाहर जा सकते हैं जबकि अनिल
कुम्बले के रहते खिलाड़ियों का रंगरेलियां मनाना कतई सम्भव नहीं था। वीरेन्द्र
सहवाग को भी इसीलिए प्रशिक्षक नहीं बनाया गया। कुल मिलाकर क्रिकेट में जब तक
सफेदपोशों की पैठ रहेगी, इस खेल में फिक्सिंग भी होगी और खिलाड़ी भी मौज करेंगे।
अनिल कुम्बले का काजल की कोठरी से बेदाग निकलना एक सराहनीय कदम है। सच कहें तो
अनिल कुम्बले मुम्बइया राजनीति का शिकार हो गये।