Sunday 16 August 2015

विकलांगता पर फतह हासिल करने वाले जांबाज-page-7


विकलांग शब्द सुनकर आपके जेहन में क्या तस्वीर बनती है? बेबस और बेसहारा सा इंसान, जिसको दुनिया की सहानुभूति के तले जीना पड़ता है। एकदम गलत। जब आप इन 14 भारतीय जांबाजों की जांबाजी पढ़ेंगे तो विश्वास करने लगेंगे कि विकलांगता सिर्फ आपके दिमाग की उपज है। जब इरादे पक्के हों और मन में हो विश्वास तो दुनिया की कोई ताकत आपको अपने लक्ष्य तक पहुंचने से नहीं रोक सकती। हरिवंशराय बच्चन कहते हैं न...
लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती,
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
मालथी कृष्णामूर्ति होला
यह कहावत बेंगलूरु की अंतरराष्ट्रीय पैरा-एथलीट मालथी कृष्णामूर्ति होला पर सटीक बैठती है। मालथी को एक साल की उम्र में लकवा मार गया था। नियमित शॉक ट्रीटमेंट देने के बाद उनके ऊपरी शरीर की शक्ति वापस आ गयी लेकिन निचला भाग अभी भी कमजोर था। होला ने खेलों में भाग लेना शुरू किया और बहुत ही अच्छा प्रदर्शन दिया। डेनमार्क में होने वाले वर्ल्ड मास्टर्स गेम्स में उन्होंने 200 मीटर दौड़, शॉटपुट, डिस्कस और जैवलिन थ्रो में स्वर्ण पदक जीता। आज उनके खाते में करीब 300 मेडल्स हैं। होला को अर्जुन अवॉर्ड, पद्मश्री से भी नवाजा गया है।
सुधा चंद्रन
केरल में जन्मी सुधा चंद्रन का 16 साल की उम्र में एक्सीडेंट हो गया था और डॉक्टरों ने उनकी एड़ी के घाव की अनदेखी कर दी। फलस्वरूप उस घाव में संक्रमण हो गया जिसकी वजह से उनके पैर को काटना पड़ा। लेकिन ये बाधा भी उनका रास्ता नहीं रोक पायी। सुधा ने कृत्रिम पैर, जिसे जयपुर फुट कहते हैं, लगवा कर डांस की ट्रेनिंग शुरू कर दी। आज की तारीख में सुधा चंद्रन एक प्रख्यात क्लासिकल डांसर मानी जाती हैं। इसके साथ ही उन्होंने इंडियन टेलीविजन और फिल्मों में भी बहुत से किरदार निभाये हैं। सुधा को अपने प्रदर्शन और अभिनय के लिए भी पुरस्कार मिले हैं।
रविन्द्र जैन
बचपन से ही नेत्रहीन, रविन्द्र जैन ने छोटी उम्र में ही गाना सीखना शुरू कर दिया था। 1970 के दशक में रविन्द्र जैन, बॉलीवुड फिल्मों के सफल संगीतकारों में से एक थे। वो अपने काम के प्रति इतने समर्पित थे कि एक रिकॉर्डिंग के समय उन्हें पता लगा कि उनके पिता का निधन हो गया है, लेकिन जब तक रिकॉर्डिंग फाइनल नहीं हुई, रविन्द्र जैन स्टूडियो से घर नहीं गए। बॉलीवुड फिल्मों में संगीत देने के अलावा रविन्द्र जैन ने कई प्राइवेट एलबम्स भी निकाले हैं।
गिरीश शर्मा
गिरीश एक अनुभवी बैडमिंटन प्लेयर हैं और इनका एक पैर नहीं है। आप सोच रहे होंगे कि दो पैरों से बैडमिंटन खेलने में जान निकल जाती है, एक पैर से कैसे खेला जा सकता है। यही तो बात है गिरीश की जो इन्हें इतनी बड़ी प्रेरणा बनाती है। बचपन में एक ट्रेन दुर्घटना में गिरीश का पैर कट गया था लेकिन फिर भी बैडमिंटन के प्रति उनका जुनून कम नहीं हुआ। उनका दूसरा पैर इतना मजबूत है कि वो बिना किसी कठिनाई के बैडमिंटन खेल लेते हैं। ऐसे इंसान पर गर्व नहीं होगा तो किस पर होगा।
शेखर नायक
शेखर नायक ऐसा उदहारण हैं जिन्होंने अपनी विकलांगता को अवसर में बदल दिया। शेखर ब्लाइंड इंडियन क्रिकेट टीम के सदस्य हैं और ट्वंटी-20 ब्लाइंड क्रिकेट वर्ल्ड कप के चैम्पियन। इतना ही नहीं, शेखर के नाम 32 शतक भी हैं! कई आर्थिक और सामाजिक कठिनाइयों के बाद, शेखर को ये अवसर प्राप्त हुआ जिसका उन्होंने पूरा फायदा उठाया। शेखर की इच्छाशक्ति को हमारा सलाम।
एच. रामाकृष्णन
ढाई साल की उम्र में रामाकृष्णन को दोनों पैरों में पोलियो हो गया था। इसकी वजह से उन्हें स्कूल में दाखिले से लेकर सामान्य जॉब तक के लिए संघर्ष करना पड़ा। आखिरकार उन्हें पत्रकारिता में नौकरी मिली जिसमें उन्होंने 40 साल काम किया। आज, रामाकृष्णन एसएस म्यूजिक टीवी चैनल के सीईओ हैं और खुद भी एक संगीतकार हैं। उन्होंने अपने कौशल का जौहर कई मंचों पर दिखाया है।
प्रीथी श्रीनिवासन
प्रीथी तमिलनाडु की अंडर-19 क्रिकेट टीम की कप्तान थीं और एक दुर्भाग्यपूर्ण स्वीमिंग एक्सीडेंट के बाद उनकी गर्दन के नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया। लेकिन इसके बावजूद भी वो अपनी संस्था  के माध्यम से दूसरों को प्रेरणा देने का काम करती हैं। प्रीथी ने उन महिलाओं के लिए काम करना शुरू किया है जो गंभीर रूप से विकलांग हैं। वो सिखाती हैं कि कैसे इन बाधाओं के बावजूद भी इंसान का सामर्थ्य उसे आसमान की ऊंचाइयों तक ले जा सकता है।
सतेंद्र सिंह
विख्यात डॉक्टर सतेंद्र सिंह को 9 माह की उम्र में पोलियो हो गया था। वे आज एक प्रख्यात एक्टिविस्ट हैं और सार्वजनिक स्थानों को विकलांगों के लिए सुगम बनाने की दिशा में काम करते हैं। उनके प्रयासों से ही आज विकलांगों के लिए अनुकूल हालात बने हैं। यही प्रयास उन्होंने पोस्ट आॅफिस, मेडिकल संस्थान, पोलिंग बूथ वगैरह को भी विकलांगों के लिए अनुकूल बनाने के लिए किये गए हैं।
एच. बोनिफेस प्रभु
प्रभु की जिन्दगी उस समय बदल गयी जब चार साल की उम्र में एक गलत आॅपरेशन की वजह से उनकी गर्दन के नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया। लेकिन ये विकलांगता उन्हें कहां रोकने वाली थी। कड़े परिश्रम और लगन की वजह से प्रभु आज व्हील चेयर टेनिस में दुनिया के प्रसिद्ध खिलाड़ियों में से एक हैं। 1998 वर्ल्ड चैम्पियनशिप में उन्होंने टेनिस में मेडल जीता था जिसके बाद भारत सरकार ने उन्हें 2014 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। प्रभु की डिक्शनरी में शायद असंभव शब्द नहीं है।
साई प्रसाद विश्वनाथन
बचपन में ही विश्वनाथन के शरीर के नीचले हिस्से को लकवा मार गया था, लेकिन इससे उनकी जिन्दगी में कोई रुकावट नहीं आई। वह भारत के पहले विकलांग स्काईडाइवर बने जिसने 14,000 फीट की ऊंचाई से छलांग लगायी। इस कीर्तिमान के लिए उनका नाम लिम्का बुक आॅफ रिकार्ड्स में दर्ज है।
अरुणिमा सिन्हा
ट्रेन में सफर करते वक़्त कुछ लुटेरों ने अरुणिमा को चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया था जिसकी वजह से उनका पैर कट गया, लेकिन इस दुर्घटना ने उनके हौसलों को कम नहीं किया। दो साल बाद अरुणिमा पहली विकलांग महिला बनीं जिसने माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई की। उन्हें पसंद नहीं था कि लोग उनकी ओर सहानुभूति और दया की नजर से देखेें, इसीलिए उन्होंने इस साहसिक काम को अंजाम दिया। आज अरुणिमा का आत्मविश्वास एवरेस्ट जितना ऊंचा है।
राजेंद्र सिंह राहेलु
आठ माह की उम्र में राजेंद्र को पोलियो हो गया था और तब से वे चल नहीं पाते हैं। लेकिन ये बाधा भी उनके सपनों को पूरा करने से नहीं रोक पायी। अपने एक दोस्त के प्रोत्साहन से राहेलु ने वेटलिफ्टिंग करना शुरू किया। उन्होंने 75 किलोग्राम से शुरुआत की लेकिन कठिन परिश्रम से सिर्फ छह महीने में वे 115 किलोग्राम वजन उठाने लगे। निरंतर अभ्यास की वजह से राहेलु ने अपनी जिन्दगी का सबसे बड़ा कीर्तिमान रचा जब 2014 कॉमनवेल्थ गेम्स में उन्हें पॉवर लिफ्टिंग के लिए रजत पदक मिला।
डॉक्टर सुरेश आडवाणी
प्रख्यात कैंसर स्पेशलिस्ट, डॉक्टर सुरेश आडवाणी को आठ साल की उम्र में पोलियो हो गया था और तब से वो व्हीलचेयर में हैं। अपने सपनों को पूरा करने के लिए आडवाणी जी को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा लेकिन फिर भी उनके इरादे फीके नहीं पड़े। आज कैंसर के क्षेत्र में डॉक्टर आडवाणी का योगदान अतुलनीय है। 2002 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया और 2012 में पद्म भूषण से।
साधना ढांड
ब्रिटल बोन डिजीज की वजह से 12 साल की उम्र में साधना की सुनने की शक्ति चली गयी और उनका कद 3.3 फीट रह गया। लेकिन फिर भी उन्होंने अपने पेंटिंग के पैशन को जारी रखा, जिसके लिए उन्हें कई राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। आज साधना अपनी कला दूसरे बच्चों के साथ बांटती हैं और अपने घर पर क्लास लेती हैं।


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