Thursday, 6 August 2015

... तो हर साल बचा सकते हैं 10 लाख शिशु

पूरी दुनिया में 1 अगस्त को विश्व स्तनपान दिवस और अगस्त माह के प्रथम सप्ताह को स्तनपान सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। इस दौरान सरकारों और सामाजिक संस्थानों द्वारा लोगों में स्तनपान से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करने और मां के दूध के महत्व को बताने का प्रयास किया जाता है। नवजात शिशुओं में रोगों से लड़ने की शक्ति नहीं होती है। यह शक्ति उसे मां के दूध से मिलती है, जिसमें जरूरी पोषक तत्व, एंटी बाडीज, हार्मोन, प्रतिरोधक कारक और अन्य ऐसे आॅक्सीडेंट होते हैं, जो नवजात शिशु के समग्र विकास और बेहतर स्वास्थ्य के लिए जरूरी होते हैं। मां का दूध शिशुओं को संक्रमणों, कुपोषण, एनीमिया, अतिसार, रतौंधी जैसी बीमारियों से बचाता है। लेकिन हमारे देश में स्तनपान की स्थिति बहुत ही चिंताजनक है। ह्यसेव द चिल्ड्रेनह्ण संगठन की 2015 के ह्यविश्व के माताओं की स्थितिह्ण रिपोर्ट में भारत को मातृत्व सूचकांक पर 179 देशों की सूची में 140वें स्थान पर रखा गया है। वहीं पिछले साल वह 137वें स्थान पर था। यानि की पिछले साल की तुलना में इस साल देश की स्थिति और भी खराब हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक मां और बच्चे की सेहत के नजरिए से वर्ष 2011 में भारत 80 अल्प विकसित देशों की सूची में 75वें स्थान पर था जो इस बार एक स्थान नीचे खिसक कर 76वें स्थान पर आ गया है। इसी तरह से इंटरनेशनल बेबीफूड एक्शन नेटवर्क द्वारा 2010 में 33 देशों में ह्यस्तनपान की स्थिति: विश्वव्यापी स्तर पर नवजात शिशुओं और छोटे बच्चों संबंधी दुग्धपान नीतियों और कार्यक्रमों का पर्यवेक्षणह्ण रिपोर्ट के अनुसार अन्य विकासशील देशों की तुलना में भारत की स्थिति असंतोषजनक है। अध्ययन में शामिल एशिया, लैटिन अमेरिका और अफ्रीका के 33 देशों में भारत का स्थान 25वां है। भारत को कुल 150 अंकों में से सिर्फ 69 अंक मिले हैं। जबकि हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान व बांग्लादेश हमसे बहुत बेहतर स्थिति के साथ क्रमश:11वें और 12वें स्थान पर हैं। वहीं श्रीलंका 124 अंक पाकर प्रथम स्थान पर है। आखिर क्या वजह है कि माताएं अपने बच्चों को संपूर्ण स्तनपान नहीं करा पा रही हैं? इसका सबसे बड़ा कारण माताओं में खून की कमी और उनका कुपोषित होना है। हमारा समाज एक पितृसत्तात्मक समाज है, जहां लड़के के जन्म पर खुशियां मनाई जाती हैं वहीं कन्या के जन्म पर परिवार में मायूसी व शोक छा जाती है। भारतीय समाज का बच्चियों के प्रति नजरिया, सांस्कृतिक व्यवहार, पूवार्गृह ऐसा है जिसमें बचपन से ही लड़के और लड़कियों की शिक्षा, खानपान और देखभाल में भेद किया जाता है। इसके चलते लड़कों की अपेक्षा लड़कियां कुपोषण और एनीमिया की ज्यादा शिकार होती हैं और जिसका प्रभाव जब वो मां बनती हैं तब उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है और वो सम्पूर्ण स्तनपान कराने में अक्षम हो जाती हैं। स्तनपान की समस्या कम उम्र में बच्चियों की शादी से भी जुड़ा हुआ है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया का ऐसा छठा देश है, जहां बाल विवाह का प्रचलन सबसे ज्यादा है। भारत में 20 से 49 साल की उम्र की करीब 27 फीसदी महिलाएं ऐसी हैं जिनकी शादी 15 से 18 साल की उम्र के बीच हुई है। जुलाई 2014 में यूनिसेफ द्वारा ह्यएंडिग चाइल्ड मैरिज: प्रोग्रेस एंड प्रास्पेक्ट्सह्ण शीर्षक से बाल-विवाह से संबंधित एक रिपोर्ट जारी की गई है जिसके अनुसार विश्व की कुल बालिका वधू की एक तिहाई बालिका वधू भारत में पाई जाती है अर्थात प्रत्येक 3 में से 1 बालिका वधू भारतीय है। कम उम्र में शादी होने से उनके स्वास्थ्य और पोषण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बाल विवाह के कारण बच्चियां कम उम्र में ही गर्भवती हो जाती हैं जिससे माता में कुपोषण और खून की कमी हो जाती है। हाल ही में केंद्रीय महिला और बाल कल्याण विकास मंत्री मेनका गांधी ने राज्यसभा में बताया कि देश में 15 से 49 वर्ष की 55.3 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी से ग्रसित हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की वर्ष 2008 की रिपोर्ट में भी ये बात निकलकर आई कि भारत में खान-पान में पोषक तत्वों की कमी के कारण 55 प्रतिशत गर्भवती महिलाओं में एनीमिया के लक्षण पाए गए थे। रिपोर्ट के अनुसार 1999 में 51.8 प्रतिशत विवाहित महिलाएं एनीमिया से पीड़ित थीं जिनकी संख्या 2006 में बढ़कर 56.2 प्रतिशत हो गई। सबसे खराब हालात असम की थी जहां 72 प्रतिशत विवाहित महिलाएं एनीमिया का शिकार थीं जबकि राजस्थान में 69.8, हरियाणा में 68 तथा कर्नाटक व मध्यप्रदेश में 72 प्रतिशत महिलाओं में हीमोग्लाबिन का स्तर कम पाया गया था। महिलाओं के एनीमिक और कुपोषित होने के कारण स्तन में कम दूध आता है या दूध बनता ही नहीं है जिसकी वजह से नवजात को सही समय और पर्याप्त मात्रा में मां का दूध नहीं मिल पाता है, जो बच्चों में कुपोषण की समस्या के कई कारणों में प्रमुख है। मेनका गांधी ने राज्यसभा में बताया कि देश में 5 साल से कम आयु के 42.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषित और 69.5 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से ग्रसित हैं, जिसमें मध्यप्रदेश में सबसे अधिक लगभग 60 प्रतिशत, झारखंड में 56.5 प्रतिशत,बिहार में 55.9 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। ह्यसेव द चिल्ड्रनह्ण संस्था की रिपोर्ट के मुताबिक मां का दूध पी रहे बच्चों के बचने की संभावना स्तनपान से वंचित बच्चों की तुलना में छह गुना ज्यादा होती है। हालांकि देश में केवल 40 प्रतिशत बच्चों को ही सम्पूर्ण स्तनपान मिलता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार कल्याण सर्वेक्षण 2005-2006 के अनुसार भारत में केवल 23% माताएं ही शिशु के जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान करा पाती हैं। अगर नवजात के जन्म के एक घंटे के भीतर स्तनपान करने की दर बढ़ा दी जाए तो शिशु और 5 साल से कम आयु के बच्चों की मृत्यु के अनुपात को कम किया जा सकता है और हर साल भारत में करीब दस लाख शिशुओं की जान बचाई जा सकती है। देश में स्तनपान को लेकर अनेक मिथक भी हैं, कुछ गलत रीतिरिवाज, परंपराएं हैं जैसे पीले दूध को हानिकारक मानना, कोलोस्ट्रम को फेंक देना, स्तनपान में विलम्ब करना, स्तनपान से पहले शहद या अन्य भोजन देना इत्यादि बातें प्रचलन में हैं। सम्पूर्ण स्तनपान को बढ़ाने के लिए स्वास्थ्य व्यवस्था पर ज्यादा निवेश करने की जरूरत है। आंगनवाड़ी, अस्पताल, क्लिनिकों में आने वाली गर्भवती महिलाओं और उनके परिवार के सदस्यों को स्तनपान के लाभों के बारे में बतलाया जाना चाहिए। अभिभावकों को बाल विवाह के दुष्परिणामों के प्रति जागरूक करना होगा। साथ ही साथ सरकार को भी बाल विवाह के खिलाफ बने कानून का जोरदार ढंग से प्रचार- प्रसार तथा कानून का कड़ाई से पालन करना होगा। स्तनपान को लेकर फैले मिथक को दूर करना होगा जिसके लिए गावं की महिला मंडली, स्वयं सहायता समूह को इस संबंध में सही जानकारी देकर उन्हें चेंज मेकर बनाया जा सकता है। साथ ही साथ बालिकाओं के पोषण, स्वास्थ्य के अधिकार को सुनिश्चित करते हुए उनके प्रति हो रहे भेदभाव को रोकना होगा।
उपासना बेहार

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