जाट, मराठा और अब पटेलों की आरक्षण की चाह ने मुल्क को गहरी मुसीबत में डाल दिया है। इस बार आरक्षण की मांग उस गुजरात और उस पटेल समुदाय से उठी है जिसने अतीत में आरक्षण के खिलाफ बिगुल फूंका था। हमारे संविधान में आरक्षण की व्यवस्था दलित-पिछड़े समाज के उत्थान के लिए की गई थी, लेकिन आज हर जाति-समुदाय से आरक्षण के लिए सड़कों पर उन्माद किया जा रहा है। गुजरात में जो कुछ हो रहा है, उसके लिए समूचे राजनीतिक तंत्र को कसूरवार ठहराना गलत न होगा। वैसे तो सेवायोजन, शिक्षा और विधायी संस्थाओं में लागू आरक्षण नीति की हर पांच साल में समीक्षा होनी चाहिए लेकिन आज स्थिति यह है कि यदि कोई इतना ही पूछ ले कि आखिर मुल्क से आरक्षण कब खत्म होगा, तो उसे तुरंत दलित विरोधी करार दिया जाता है।
देश में आरक्षण की आग लगे दो दशक बीत गये हैं। ऐसा कोई वर्ष नहीं जाता जब आरक्षण को लेकर संघर्ष न होता हो। आरक्षण के बवाल में गरीबों का भला तो नहीं होता,अलबत्ता मुल्क की अरबों की सम्पत्ति का नुकसान जरूर हो जाता है। पिछले कुछ वर्षों से मुल्क के विभिन्न क्षेत्रों से कुछ समुदाय अपने को अनुसूचित जाति या फिर पिछड़े वर्ग में शामिल करने को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। इनकी सामाजिक स्थिति पर गौर करें तो यह मांग आरक्षण की मूलभावना के पूर्णत: खिलाफ होने के बावजूद किसी राजनीतिक दल ने आज तक इसका प्रतिकार नहीं किया। अतीत में समाज के सबसे शोषित वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था संविधान में की गयी थी। इसकी वजह सदियों से शोषित समुदाय को आरक्षण के जरिये समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जाना था।
आज आरक्षण की मांग आर्थिक फायदे से जुड़ा ऐसा मसला बन गया है जिसके लिए कभी कोई भी समुदाय उठ खड़ा होता है। इसे विडम्बना कहें या राजनीतिक सोच का दिवालियापन कि जिस गुजरात में कभी आरक्षण के खिलाफ देश का पहला आंदोलन छिड़ा था, आज वही पटेल समुदाय अपने लाभ की खातिर आम जनजीवन तहस-नहस कर रहा है। आरक्षण मांगते लोग शासकीय सम्पत्ति को नुकसान पहुंचा रहे हैं और निर्दोष लोगों की जानें जा रही हैं। गुजरात की आबादी में लगभग 20 फीसदी पटेल हैं। यह समाज खेती-किसानी, धन-दौलत से समृद्ध है। व्यापार और उद्योग में भी इस समाज का बोलबाला है। समूची दुनिया में बसे करीब 80 लाख अप्रवासी भारतीयों में पटेलों की संख्या सर्वाधिक है। गुजरात की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मजबूती में पटेलों का अमूल्य योगदान रहा है। पटेलों के रहमोकरम पर ही भारतीय जनता पार्टी गुजरात में डेढ़ दशक से लगातार सत्ता सुख भोग रही है।
गुजरात में पटेलों के आरक्षण आंदोलन का नेतृत्व कर रहे युवा नेता हार्दिक पटेल को पता है कि वह तात्कालिक रूप से बेशक कमल दल का कोई अहित न कर सकें लेकिन जो मशाल लेकर वह चल निकले हैं उससे देर-सबेर भाजपा का नुकसान जरूर होगा। केन्द्र सरकार को चेताने के लिए ही हार्दिक पटेल ने आंदोलन की शुरुआत उस मेहसाना से की है जोकि सिर्फ मोदी ही नहीं बल्कि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और मुख्यमंत्री आनंदी बेन का भी गृहक्षेत्र है। आनंदी बेन चाहकर भी पटेलों को कोई आश्वासन नहीं दे सकतीं क्योंकि संविधान ऐसे आरक्षण की अनुमति नहीं देता। गुजरात में जो कुछ हो रहा है उससे मोदी के आभामण्डल को फीका होता देख विपक्षी दल मन ही मन खुश तो हो रहे हैं लेकिन इस आंदोलन को समर्थन देने का जोखिम कोई भी दल उठाना नहीं चाहता। इस आंदोलन के पीछे हार्दिक पटेल की दिली ख्वाहिश जो भी हो, पर स्वभाव से शांत रहने वाले गुजरातियों को जब तक सच्चाई का पता चलेगा तब तक हिंसा और आगजनी से सूबे का बड़ा नुकसान हो चुका होगा। गुजरात में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण के दायरे में फिलहाल 127 जातियां शामिल हैं।
समाज में रसूख का पर्याय पटेलों के इस आंदोलन को जाटों और मराठों की नकल कहना उचित होगा। प्रभावशाली समुदाय होते हुए भी जाट और मराठा भी पिछड़ों-दलितों का विशेषाधिकार हासिल करने को उत्पात मचा चुके हैं। राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय सामाजिक, आर्थिक रूप से काफी सम्पन्न है तो महाराष्ट्र में मराठा भी किसी मामले में कमजोर नहीं कहे जा सकते। गरीबी की जहां तक बात है, हर जाति-समुदाय में ऐसे लोग हैं जिन्हें सरकारी मदद की जरूरत है। मुल्क में आरक्षण का जो विषधर बार-बार फन फैला रहा है उसके लिए हमारी सरकारी नीातियां ही जिम्मेदार हैं। हमारी हुकूमतें राजनीतिक फायदे के लिए ही विभिन्न जातियों के आरक्षण की मांग को आजादी के बाद से लगातार हवा दे रही हैं जबकि भारतीय संविधान में इसकी व्यवस्था सिर्फ 10 साल के लिए ही की गयी थी। यदि आजादी के 10 साल बाद आरक्षण की समीक्षा की गई होती तो शायद हर जाति-सम्प्रदाय के लोग आज आरक्षण को लेकर सड़कों पर तमाशा नहीं कर रहे होते।
अगर आरक्षण के प्रावधानों को लेकर सख्त पाबंदी नहीं लगी तो इसका दायरा बढ़ता ही जायेगा। देखा जाये तो आज आरक्षण के मसले पर हर पार्टी और सरकार दबाव में है। सच्चाई यह है कि आज आरक्षण का विरोध वही समुदाय कर रहा है, जिसे लगता है कि उसके लिए सारे रास्ते बंद हैं। जिस जाति-समुदाय को थोड़ी भी उम्मीद दिखती है, वह आरक्षण के लिये कमर कस लेता है। सर्वोच्च न्यायालय यह स्पष्ट कर चुका है कि आरक्षण का कुल आंकड़ा 50 फीसदी से ऊपर नहीं जा सकता। यही कारण है कि पटेल समुदाय ओबीसी के दायरे में आरक्षण मांग रहा है, लेकिन यदि ऐसा हुआ तो ओबीसी में शामिल जातियां नाराज हो जायेंगी। जो भी हो इस आरक्षण के चक्रव्यूह को तोड़ने का रास्ता तो अब गुजरात सरकार को ही निकालना होगा। आंदोलन कोई भी हो उसका लाभ भोली-भाली जनता को कभी नहीं मिलता।
देश में आरक्षण की आग लगे दो दशक बीत गये हैं। ऐसा कोई वर्ष नहीं जाता जब आरक्षण को लेकर संघर्ष न होता हो। आरक्षण के बवाल में गरीबों का भला तो नहीं होता,अलबत्ता मुल्क की अरबों की सम्पत्ति का नुकसान जरूर हो जाता है। पिछले कुछ वर्षों से मुल्क के विभिन्न क्षेत्रों से कुछ समुदाय अपने को अनुसूचित जाति या फिर पिछड़े वर्ग में शामिल करने को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। इनकी सामाजिक स्थिति पर गौर करें तो यह मांग आरक्षण की मूलभावना के पूर्णत: खिलाफ होने के बावजूद किसी राजनीतिक दल ने आज तक इसका प्रतिकार नहीं किया। अतीत में समाज के सबसे शोषित वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था संविधान में की गयी थी। इसकी वजह सदियों से शोषित समुदाय को आरक्षण के जरिये समाज की मुख्यधारा में शामिल किया जाना था।
आज आरक्षण की मांग आर्थिक फायदे से जुड़ा ऐसा मसला बन गया है जिसके लिए कभी कोई भी समुदाय उठ खड़ा होता है। इसे विडम्बना कहें या राजनीतिक सोच का दिवालियापन कि जिस गुजरात में कभी आरक्षण के खिलाफ देश का पहला आंदोलन छिड़ा था, आज वही पटेल समुदाय अपने लाभ की खातिर आम जनजीवन तहस-नहस कर रहा है। आरक्षण मांगते लोग शासकीय सम्पत्ति को नुकसान पहुंचा रहे हैं और निर्दोष लोगों की जानें जा रही हैं। गुजरात की आबादी में लगभग 20 फीसदी पटेल हैं। यह समाज खेती-किसानी, धन-दौलत से समृद्ध है। व्यापार और उद्योग में भी इस समाज का बोलबाला है। समूची दुनिया में बसे करीब 80 लाख अप्रवासी भारतीयों में पटेलों की संख्या सर्वाधिक है। गुजरात की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मजबूती में पटेलों का अमूल्य योगदान रहा है। पटेलों के रहमोकरम पर ही भारतीय जनता पार्टी गुजरात में डेढ़ दशक से लगातार सत्ता सुख भोग रही है।
गुजरात में पटेलों के आरक्षण आंदोलन का नेतृत्व कर रहे युवा नेता हार्दिक पटेल को पता है कि वह तात्कालिक रूप से बेशक कमल दल का कोई अहित न कर सकें लेकिन जो मशाल लेकर वह चल निकले हैं उससे देर-सबेर भाजपा का नुकसान जरूर होगा। केन्द्र सरकार को चेताने के लिए ही हार्दिक पटेल ने आंदोलन की शुरुआत उस मेहसाना से की है जोकि सिर्फ मोदी ही नहीं बल्कि पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और मुख्यमंत्री आनंदी बेन का भी गृहक्षेत्र है। आनंदी बेन चाहकर भी पटेलों को कोई आश्वासन नहीं दे सकतीं क्योंकि संविधान ऐसे आरक्षण की अनुमति नहीं देता। गुजरात में जो कुछ हो रहा है उससे मोदी के आभामण्डल को फीका होता देख विपक्षी दल मन ही मन खुश तो हो रहे हैं लेकिन इस आंदोलन को समर्थन देने का जोखिम कोई भी दल उठाना नहीं चाहता। इस आंदोलन के पीछे हार्दिक पटेल की दिली ख्वाहिश जो भी हो, पर स्वभाव से शांत रहने वाले गुजरातियों को जब तक सच्चाई का पता चलेगा तब तक हिंसा और आगजनी से सूबे का बड़ा नुकसान हो चुका होगा। गुजरात में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण के दायरे में फिलहाल 127 जातियां शामिल हैं।
समाज में रसूख का पर्याय पटेलों के इस आंदोलन को जाटों और मराठों की नकल कहना उचित होगा। प्रभावशाली समुदाय होते हुए भी जाट और मराठा भी पिछड़ों-दलितों का विशेषाधिकार हासिल करने को उत्पात मचा चुके हैं। राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय सामाजिक, आर्थिक रूप से काफी सम्पन्न है तो महाराष्ट्र में मराठा भी किसी मामले में कमजोर नहीं कहे जा सकते। गरीबी की जहां तक बात है, हर जाति-समुदाय में ऐसे लोग हैं जिन्हें सरकारी मदद की जरूरत है। मुल्क में आरक्षण का जो विषधर बार-बार फन फैला रहा है उसके लिए हमारी सरकारी नीातियां ही जिम्मेदार हैं। हमारी हुकूमतें राजनीतिक फायदे के लिए ही विभिन्न जातियों के आरक्षण की मांग को आजादी के बाद से लगातार हवा दे रही हैं जबकि भारतीय संविधान में इसकी व्यवस्था सिर्फ 10 साल के लिए ही की गयी थी। यदि आजादी के 10 साल बाद आरक्षण की समीक्षा की गई होती तो शायद हर जाति-सम्प्रदाय के लोग आज आरक्षण को लेकर सड़कों पर तमाशा नहीं कर रहे होते।
अगर आरक्षण के प्रावधानों को लेकर सख्त पाबंदी नहीं लगी तो इसका दायरा बढ़ता ही जायेगा। देखा जाये तो आज आरक्षण के मसले पर हर पार्टी और सरकार दबाव में है। सच्चाई यह है कि आज आरक्षण का विरोध वही समुदाय कर रहा है, जिसे लगता है कि उसके लिए सारे रास्ते बंद हैं। जिस जाति-समुदाय को थोड़ी भी उम्मीद दिखती है, वह आरक्षण के लिये कमर कस लेता है। सर्वोच्च न्यायालय यह स्पष्ट कर चुका है कि आरक्षण का कुल आंकड़ा 50 फीसदी से ऊपर नहीं जा सकता। यही कारण है कि पटेल समुदाय ओबीसी के दायरे में आरक्षण मांग रहा है, लेकिन यदि ऐसा हुआ तो ओबीसी में शामिल जातियां नाराज हो जायेंगी। जो भी हो इस आरक्षण के चक्रव्यूह को तोड़ने का रास्ता तो अब गुजरात सरकार को ही निकालना होगा। आंदोलन कोई भी हो उसका लाभ भोली-भाली जनता को कभी नहीं मिलता।
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