Sunday 16 August 2015

पवित्रा के मुक्कों में बला की ताकत-page-4



कोसली की बेटी ने मुक्केबाजी में जमाई धाक
अगर मन में कुछ कर दिखाने की तमन्ना हो तो हर मुश्किल काम भी आसान हो जाता है। ऐसा ही कर दिखाया है कोसली गांव निवासी पवित्रा यादव ने। पवित्रा ने बॉक्सिंग स्पर्धा में ग्रामीण क्षेत्र से उठकर देश व विदेशों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है और अनेक राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय मुकाबले जीते हैं।
इस समय पवित्रा 2016 में रियो में आयोजित होने वाले ओलंपिक की तैयारियों में जुटी है। अपने पैतृक गांव कोसली आई पवित्रा का कहना है कि वर्तमान राज्य सरकार की खेल नीति से खिलाड़ी उत्साहित हैं और वे पूूरे जोश के साथ तैयारियों में लगे हुए हैं। पदक विजेताओं को दी जाने वाले पुरस्कार की राशि में वृद्धि करके मुख्यमंत्री ने खिलाड़ियों का सम्मान किया है। बॉक्सर पवित्रा ने कहा कि राज्य सरकार द्वारा पुरस्कारों की राशि में बढ़ोतरी के साथ-साथ नौकरी के मामले में भी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए।
आज पवित्रा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बॉक्सिंग खिलाड़ी के रूप में निर्मल गांव कोसली सहित पूरे जिले के लिए आदर्श बन चुकी है। गांव कोसली के गरीब परिवार में पली-बढ़ी पवित्रा यादव ने चीन में आयोजित एशिया कप में बाक्सिंग मुकाबले में 2008 में सिल्वर व 2010 में कांस्य पदक हासिल कर प्रदेश व देश का नाम रोशन किया। पवित्रा का सपना है कि ओलंपिक गेम्स में हिस्सा लेकर बॉक्सिंग में देश के लिए स्वर्ण पदक हासिल करे। आजकल वह हिसार स्थित साई संस्थान में बॉक्सिंग का प्रशिक्षण ले रही है।
पवित्रा अपनी इस उपलब्धि का श्रेय अपने स्कूल के गुरु रावमा विद्यालय झाड़ौदा के प्राचार्य वीरेन्द्र सिंह यादव को देती है। उसका कहना है कि वह कोसली स्थित रावमा विद्यालय में पढ़ती थी। इस दौरान स्कूल के गणित शिक्षक वीरेन्द्र सिंह ने उन्हें बॉक्सिंग का प्रशिक्षण दिया तथा जिला स्तर व राज्य स्तर पर आयोजित अनेक बाक्सिंग प्रतियोगिताओं में हिस्सा भी दिलाया। उन्हीं की बदौलत वह इस मुकाम पर पहुंची है। वर्ष 2003 में दसवीं कक्षा के दौरान उसका हिसार स्थित साई संस्थान में प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद बाक्सिंग प्रशिक्षण के लिए चयन हो गया। उसके बाद प्रशिक्षण के दौरान 12वीं व स्नातक कक्षा तक की पढ़ाई हिसार से पूरी की है। आगे वह शारीरिक शिक्षा में डीपीएड कोर्स करना चाहती है।
पवित्रा अपने नौ बहन-भाइयों में से सबसे छोटी है। पवित्रा का कहना है कि ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियों को पढ़ाई के साथ-साथ खेलों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेना चाहिए। पवित्रा यादव की उपलब्धियों से पिता रामजीलाल रोलिया व माता चन्द्रकला भी गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। पवित्रा कनाडा, हंगरी, वियतनाम व इंडोनेशिया में आयोजित हुए ट्रेनिंग-कम -काम्पटीशन कैम्पों में अनेक बार गोल्ड, कांस्य व रजत पदक हासिल कर चुकी है। 2008 में उसने इंडियन फेडरेशन की ओर से गुवाहाटी में आयोजित नेशनल गेम्स में सिल्वर पदक हासिल किया था।
इसके अलावा चेन्नई, तमिलनाडु, इरोड, आगरा, असम में आयोजित फेडरेशन कप बाक्सिंग प्रतियोगिताओं में भी श्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए अनेक बार कांस्य पदक जीत चुकी है।
प्राचार्य ही मेरे रोल मॉडल
पवित्रा कहती है-मेरे रोल मॉडल प्राचार्य वीरेन्द्र सिंह यादव हैं। मैं उन्हीं की बदौलत इस मुकाम पर खड़ी हूं। उन्होंने ही मुझे बॉक्सिंग खेल के लिए प्रेरित किया और प्रोत्साहित किया। वर्ष 2003 में जब वह स्कूल में पढ़ रही थी तो प्राचार्य वीरेन्द्र सिंह ने ही उन्हें सर्वप्रथम राज्य स्तर की ओपन प्रतियोगिता में हिस्सा दिलाया था। अन्यथा उसे पता ही नहीं था कि बॉक्सिंग क्या होती है।
कजाकिस्तान में जीता सिल्वर मेडल
नवम्बर, 2014 में साउथ कोरिया में आयोजित वूमैन बाक्सिंग चैम्पियनशिप में भी पवित्रा यादव ने 64 किलोग्राम भार वर्ग में कजाकिस्तान को मात दी थी। इसके बाद वह फाइनल मुकाबले में पहुंची, लेकिन यहां रूस से महज 2 प्वाइंट्स से पीछे रहकर सिल्वर पदक विजेता बनी। इससे पहले गुवाहाटी (असम) में आयोजित हुई 13वीं सीनियर वूमैन नेशनल बॉक्सिंग चैंपियनशिप में पवित्रा ने 57 किलोग्राम भार वर्ग में गोल्ड मेडल हासिल किया। वर्तमान में पवित्रा रेलवे जयपुर में बतौर क्लर्क कार्यरत है तथा अपने परिवार का खर्च भी उठा रही है।

रंग लाई साधारण परिवार की बेटी की मेहनत
छोटे शहर की बड़ी बेटी के हौसले को हर किसी का सलाम
हिम्मत, हौसला और जज्बा तीनों अगर किसी के पास हों, तो उसे चैम्पियन बनने से कोई नहीं रोक सकता। साथ में परिवार का पूरा सहारा मिल जाए, तो फिर इरादों को पंख लगते ही हैं। ऐसा ही कुछ कर दिखाया है पानीपत के आजाद नगर में रहने वाली ममता चौहान ने। बेहद साधारण परिवार में जन्मी इस बेटी ने प्रदेश और देश में अपनी प्रतिभा के झंडे गाड़े, तो पदकों से देश की झोली भर दी। मूल रूप से अहर गांव पानीपत की रहने वाली ममता का अगला लक्ष्य एशियन गेम्स में सोना पाना है। इसके बाद वह ओलंपिक और कॉमनवेल्थ में देश के लिए पदक जीतना चाहती है, ताकि वह अपने खेल के दम पर देश का सिर गर्व से ऊंचा कर सके। इसके लिए ममता दिन-रात मेहनत करती है।
उसका हौसला और हिम्मत ही है कि कारपोरेट में नौकरी करने वाली ममता रात में रोजाना नियमित अपने खेल का अभ्यास करती है ताकि उसका प्रदर्शन प्रभावित न हो। ममता कहती है कि जब वह 11वीं कक्षा में थी तो देखती कि हर लड़की किसी न किसी खेल में शामिल होती थी। उसे भी उत्सुकता हुई और थ्रोबाल में उसने रुचि लेना शुरू कर दिया। पहले थोड़ी मुश्किल हुई, लेकिन कुछ ही दिनों बाद वह एक मंझे हुए खिलाड़ी की तरह प्रदर्शन करने लगी। ममता की ललक और मेहनत की बदौलत ही उसे पहली बार में ही हरियाणा स्कूल गेम्स में शिरकत करने का मौका मिला। इस प्रतियोगिता में प्रदर्शन की बदौलत ममता में एक नई ऊर्जा आई और उसे लगने लगा कि वह कुछ कर सकती है। परिवार ने भी उसके हौसले को पूरा सहयोग दिया।
इसी बीच कोच राजेन्द्र देशवाल ने इस बच्ची की प्रतिभा को पहचाना और उसे राष्ट्रीय स्तर का खिलाड़ी बनाने के लिए प्रशिक्षण का काम शुरू हुआ। ममता बताती हैं कि इस विजय यात्रा में सबसे अधिक अगर किसी का योगदान है, तो उसके बड़े भाई सुनील चौहान का। वैसे तो पूरे परिवार ने उसे हिम्मत दी, लेकिन भाई सुनील हर मुकाम पर चट्टान की तरह बहन के साथ खड़ा रहा। मां संतोष देवी उसकी दिनचर्या बनाने में मदद करती, तो दूसरा भाई अनिल उसके कामकाज में हाथ बंटाता। इसी तरह यह कारवां निकल पड़ा और ममता ने फिर कभी मुड़कर नहीं देखा।
ऐसे चला जीत का कारवां
स्कूल गेम्स के बाद ममता को 2007 में स्टेट ओलंपिक में खेलने के लिए चुना गया। यहां उसने अपने बेहतरीन प्रदर्शन की बदौलत कांस्य पदक प्राप्त किया। इसके बाद जीत का सिलसिला चलता रहा। थ्रो बाल फेडरेशन की ओर से कर्नाटक में 2009 में कराए गए नेशनल गेम्स में फिर से ममता ने पदक झटका। इस बार वह प्रदेश के लिए सोना जीत कर लाई। बेटी की इस उपलब्धि पर पूरा परिवार झूमा, तो पानीपत शहर और एसोसिएशन ने उसे सिर-आंखों पर बिठा लिया। यहां से मिले हौसले के बाद ममता चौहान ने इजिप्ट में 2010 में आयोजित इंटरनेशनल थ्रो बाल चैम्पियनशिप में फिर से देश के लिए सोना जीता। पहले वर्ल्ड कप में ही ममता छा गई। इसके बाद चौथे एशियन थ्रो बाल गेम्स 2011 में ममता को कांस्य पदक प्राप्त हुआ। इसी बीच ममता की मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हुई तो उसने थोड़ा ध्यान करिअर पर भी केन्द्रित किया। बीच में दो साल तक वो खेल और प्रतियोगिता से दूर रही, लेकिन इस दौरान भी वह निरंतर अभ्यास करती रही। ममता इस समय वाईसीएच ग्रुप प्राइवेट लिमिटेड सिंगापुर में बतौर मैकेनिकल इंजीनियर काम कर रही है, लेकिन वह यहां भी अपने अभ्यास को नहीं छोड़ती। यही वजह है कि कई साल के ब्रेक के बाद अब फिर से ममता ने थ्रो बाल में नया मुकाम पाने की ठानी है।
दो से तीन घण्टे रोज अभ्यास
ममता बताती है कि वह अपनी नौकरी के साथ-साथ रोजाना दो से तीन घंटे तक अभ्यास करती है। इसमें एक घंटा वार्मअप के लिए अलग से है। ताकि उसका प्रदर्शन कामकाज की वजह से प्रभावित न हो। छोटे शहर की बड़ी बेटी के हौसले को हर कोई सलाम कर रहा है।

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