परिवार, समाज और देश एक-दूसरे के पूरक हैं। परिवारों का विघटन आज की एक ज्वलंत समस्या है। इस समस्या ने बुजुर्गों से न केवल उनके जीने का सहारा बल्कि आने वाली पीढ़ी से उसके संस्कार भी छीन लिये हैं। हमारे देश में संयुक्त परिवारों का लम्बा इतिहास है। आज लोगों की सोच के साथ न केवल परिवार बिखर रहे हैं बल्कि समाज में भी एक नीरसता देखी जा रही है। परिवारों के विघटन से क्या खो रहे हैं, इसका हमें भान ही नहीं है। परिवार, समाज तो समाज देश की ताकत होता है। लगातार टूटते परिवारों से न केवल भाईचारा प्रभावित हो रहा है बल्कि ढेरों सुख-सुविधाओं के बीच पलने वाले बच्चों में सहयोग और समर्पण आदि मूलभूत गुणों का भी क्षरण हो रहा है। परिवारों के विघटन पर हम सावधान न हुए तो भारत की स्थिति चीन से भी खराब हो सकती है। छोटे और एकल परिवारों के चलते चीन में बुजुर्गों की स्थिति इतनी खराब हो गई है कि वे अपनी हुकूमत से जीवन जीने के साधन नहीं अपितु इच्छा-मृत्यु मांग रहे हैं।
परिवारों के विघटन की मुख्य वजह विकास का झूठा आडम्बर है। एकल परिवार हमें अल्पशांति तो दे सकते हैं लेकिन इसके दीर्घगामी परिणाम कभी अच्छे नहीं हो सकते। परिवारों में बिखराव न हो इसके लिए चाहिए कि हम अपने बच्चों को अच्छे संस्कार दें और उन्हें सामाजिक बनाएं। परिवार न टूटें इसके लिए बचपन से ही बच्चों में विनम्रता व सहनशीलता जैसे गुणों का विकास किया जाना जरूरी है। आज जिस तेजी से परिवार टूट रहे हैं, इसके मुख्य कारण हैं- महिलाओं का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना, एकल परिवार, आपसी समझ की कमी व एक-दूसरे के लिए समय का अभाव। परिवारों के विघटन का असर हमारे बुजुर्गों पर ही नहीं बल्कि सभी पर पड़ रहा है। आज महिलाओं में अपने पैरों पर खड़े होने की ललक बढ़ी है, इसमें कोई बुराई भी नजर नहीं आती। समस्या अहंकार की है। आज हम अपने करियर व अहं को ऊपर रखते हुए परिवारों के बिखराव को बचाने के लिए कोई समझौता नहीं करना चाहते। इस अहंकार से न केवल परिवार टूट रहे हैं बल्कि नौबत पति-पत्नी में तलाक तक पहुंच रही है। दोनों में से किसी का भी ध्यान इस तरफ नहीं जाता कि वर्चस्व की लड़ाई में मासूम बच्चों का बचपन दम तोड़ रहा है। हमें सोचना होगा कि बच्चों के बचपन को खिलने से पहले ही मुरझाने की सजा क्यों मिल रही है? ऐसे टूटे परिवारों के बच्चे समाज और देश का निर्माण कैसे करेंगे यह एक विचारणीय प्रश्न है।
एक समय संयुक्तपरिवार भारतीय संस्कृति का सबसे मजबूत पक्ष था, जहां सभी सदस्य मिल-जुलकर प्रेम से रहते थे। लेकिन आज के दौर में ज्यादातर एकल परिवार रह गए हैं। जहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी होते हैं। ऐसे माहौल में बच्चे स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगे हैं। आज पति-पत्नी के बीच पारस्परिक निर्भरता भी कम होती जा रही है, जिसके कारण उनके रिश्तों में दरार आ रही है। आॅफिस का टेंशन घरों की खुशहाली को अपनी जद में ले रहा है। ज्यादा काम होने की वजह से पति-पत्नी एक-दूसरे को समय ही नहीं दे पाते। ऐसे में परिवार व कामकाज के बीच संतुलन नहीं बना पाता। पति-पत्नी के सम्बन्धों में दूरी तभी आती है, जब उनके बीच विश्वास, समर्पण व निष्ठा में कमी आने लगती है। अगर पति-पत्नी दोनों घर और बाहर की जिम्मेदारी मिलकर उठाएं तथा एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने के बजाय आत्म मूल्यांकन करें, तो उनके बीच तनाव कम होगा और उनका दाम्पत्य जीवन भी सुखी रहेगा। पति-पत्नी की इस खुशहाली से ही परिवार एकसूत्र में बंधे रह सकते हैं।
आज के भागमभाग भरे जीवन में हमें अपने परिवार के सदस्यों के बारे में सोचने की ही फुरसत नहीं है। हमारी इस भूल से परिवारों का टूटना स्वाभाविक है। पति-पत्नी के आपसी सहयोग बिना दाम्पत्य जीवन की गाड़ी का चलना कतई सम्भव नहीं है। हम न केवल अपनी रुचियों का ख्याल रखें बल्कि दूसरे की अपेक्षाओं को भी समझें। तू-तू, मैं-मैं के बजाय यदि हम की भावना हो तो परिवारों को टूटने से आसानी से बचाया जा सकता है। संसार का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहां बिना सिखाए ही कोई सीख गया हो। मनुष्य को सब कुछ सीखना पड़ता है। सिखाने वाला तत्व बाहर का भी हो सकता है और आदमी के भीतर विद्यमान परमात्मा की सतत चेतना भी। माता-पिता तो संतान को जन्म देने के निमित्त बनते हैं, परन्तु गुरु हृदय रूपी गुफा में विद्यमान जन्म-जन्मांतर के अंधकार को दूर करने में सक्षम होता है। इस गुरु पद से हम माता-पिता को भी सम्बोधित कर सकते हैं, क्योंकि जीवन में कभी ऐसे भी क्षण आते हैं जब माता-पिता किन्हीं मार्मिक शब्दों से जीवन के अंदर व्याप्त तमस को दूर कर नई किरण का संचार कर देते हैं। देखना होगा कि हम अपने नौनिहालों को शिक्षा-दीक्षा के लिए आखिर कहां भेज रहे हैं। जहां भेज रहे हैं वहां हमारे बच्चे को संस्कार मिलते भी हैं या नहीं। बचपन से ही अपने बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने का चलन भी परिवारों के बिखराव का एक कारण है। इससे बच्चे जहां अपने दादा-दादी से दूर हो रहे हैं वहीं मन की दूरियां भी लगातार बढ़ रही हैं। सामाजिक परिवर्तन में महिलाओं का आत्मनिर्भर होना जरूरी है, लेकिन देखने में आ रहा है कि आधी आबादी के बदलते सरोकारों से कोई दूसरा नहीं बल्कि उसका जीवनसंगी ही अधिक परेशानी महसूस करता है। टके भर का सवाल यह है कि यदि पति-पत्नी में ही सामंजस्य नहीं होगा तो भला परिवार टूटने से कैसे बचेंगे। हमारा नजरिया प्रगतिशील सोच का तो हो लेकिन उसमें अपनों का स्नेह समाहित होना जरूरी है।
रीभा तिवारी
No comments:
Post a Comment