Thursday 20 August 2015

न्यायपालिका की दुश्वारियां

भगवान दुश्मन को भी कोर्ट-कचहरी से बचाये। समाज की यह पीड़ा इंसाफ की बनिस्बत इसमें लगने वाले लम्बे समय को लेकर है। देश में फिलवक्त निचली अदालतों से सर्वोच्च न्यायालय तक तीन करोड़ से अधिक मामले इंसाफ की बाट जोह रहे हैं। इसकी मुख्य वजह वकीलों की रोज-रोज की हड़तालें तो विभिन्न अदालतों में न्यायाधीशों की कमी है। इंसाफ में देरी के लिए अन्य कारक भी जिम्मेदार हैं जिनमें बड़ी संख्या में कानूनों का होना भी एक प्रमुख वजह है। एक-दूसरे से जुड़े तरह-तरह के कानूनों के कारण भी प्राय: न्याय और निर्णय कानूनी दांव-पेंच में उलझ जाते हैं। मुल्क की ताजा परिस्थितियों को देखते हुए बेमानी हो चुके कानूनों की समीक्षा कर उन्हें हटा देने की जरूरत महसूस की जा रही है। इस मसले में राजस्थान की वसुन्धरा सरकार ने एक नजीर पेश करते हुए राज्य के 150 गैरजरूरी कानूनों को खत्म करने का ऐलान कर दिया है। राजस्थान में फिलहाल 592 कानून प्रचलन में हैं। कानूनों में बदलाव की इससे पहले आखिरी कवायद 1964 में की गयी थी।
देखा जाये तो ब्रिटिश राज के हितार्थ बने अनेकों कानून आज भी अस्तित्व में हैं। केन्द्रीय स्तर पर लगभग तीन हजार ऐसे कानून चलन में हैं जो या तो निरर्थक हैं या फिर दूसरे कानूनों का दुहराव हैं। एक सभ्य और लोकतांत्रिक समाज में जागरूकता, जवाबदेही और स्वतंत्रता के स्तर का आकलन कानूनों की संख्या के आधार पर भी किया जा सकता है। देखा जाये तो जिन मुल्कों में कम से कम कानून हैं, वहां जनजीवन अपेक्षाकृत सामान्य, शांत और समृद्धशाली है। वैसे भी जिस राज्य सत्ता को ढेर-सारे कानूनों के सहारे की जरूरत होती है, वहां जनता और हुकूमत के बीच भरोसे का अभाव ज्यादा होता है। मोदी सरकार यदि चाहती है कि हमारी जेलें कैदियों से खाली हों तो उसे बेमानी कानूनों को हटाने की ठोस पहल करनी चाहिए।
भारतीय न्याय प्रणाली में तेजी लाने के लिये कानूनों में बदलाव के साथ-साथ न्यायाधीशों की कमी को पूरा किया जाना बेहद जरूरी है। फिलवक्त उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की कुल स्वीकृत संख्या 1017 के मुकाबले 24 उच्च न्यायालयों में सिर्फ 633 न्यायाधीश ही अपनी सेवाएं दे रहे हैं। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 384 पद खाली हैं जबकि देश में न्यायाधीशों की नियुक्ति या उन्हें उच्चतर न्यायपालिका में तरक्की देने की कोई व्यवस्था नहीं है। ताजा आंकड़ों पर यकीन करें तो गुवाहाटी, गुजरात, कर्नाटक, पटना, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालयों की अध्यक्षता अभी कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश ही कर रहे हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 223 के मुताबिक जब किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद खाली होता है या जब कोई मुख्य न्यायाधीश किसी अन्य वजह से अपने पद के कर्तव्य पालन में सक्षम नहीं रहता तो उस कर्तव्य का पालन न्यायालय का कोई भी ऐसा न्यायाधीश कर सकता है जिसे राष्ट्रपति इस उद्देश्य के लिए नियुक्त करे। कुछ उच्च न्यायालयों में कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए सरकार ने कॉलेजियम प्रणाली की जगह राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) का गठन इस साल 13 अप्रैल को कर दिया है लेकिन इसके कामकाज का अभी न्यायपालिका को इंतजार है।  कानून में देरी के चलते आज देश भर की जेलों का बुरा हाल है। जेलों में तय मानक के विपरीत बड़ी संख्या में कैदियों के बंद होने से यहां कार्यरत सुरक्षा अमला आये दिन अप्रिय वारदातों का सामना कर रहा है।
हमारी न्याय व्यवस्था में तीन कारकों का अहम रोल होता है। इनमें जांच एजेंसियां, अभियोजन और अदालतें शामिल हैं। अदालतों को मुकदमों में सबूत, कानून और न्याय शास्त्र के आधार पर फैसला करना होता है तो हमारी जांच एजेंसियां अपने-अपने तरीके से सबूत जमा करती हैं और ये तरीके भी कम रहस्यमय नहीं होते। अभियोजक तो जितना सम्भव हो, उतना निष्पक्ष तरीके से अपने केस को पेश कर अदालत की मदद करता है लेकिन जांच एजेंसियां सबूत जमा करने के काम में कितनी सजग, ईमानदार, सावधान और निष्पक्ष होती हैं, यह सबसे बड़ा सवाल है। जो सवाल प्राय: जांच एजेंसियों को लेकर उठाये जाते हैं वैसे ही सवाल अभियोजन पक्ष यानि अभियोजक को लेकर भी उठाए जा सकते हैं। मसलन अभियोजक क्या दबाव या लोकप्रियता के आगे झुक जाता है? क्या वह सबूतों में फेरबदल करता है, गवाहों को धमकाता है या धौंस देता है? वैसे तो अभियोजक के लिए तैयार आचार संहिता उसे बताती है कि उसकी जिम्मेदारी वृहद समाज के प्रति बनती है, न कि सरकार या अभियोजन पक्ष के प्रति। यह उसका काम नहीं है कि वह सबूतों को दबाकर या गढ़कर हर हाल में किसी को दोषी साबित करार दे।
प्राय: देखने में आता है कि ज्यादातर लोग अपनी तरक्की को उन लोगों की संख्या से आंकते हैं जिनको उन्होंने दोषी करार दिलाया, भले ही इसके लिए उन्हें कोई भी तरीका अपनाना पड़ा हो। पिछले कुछ समय से न्यायपालिका के कामकाज और न्यायाधीशों के निर्णयों पर भी सवाल उठ रहे हैं। यह सच है कि न्यायाधीश भी आखिर इंसान है लिहाजा वह भी इंसानी कमजोरियों, विफलताओं और प्रभाव के शिकार हो सकते हैं। वैसे तो उन्हें इस बात का प्रशिक्षण दिया जाता है कि वह न्याय करते समय निजी धारणाओं से हटकर नियम-कानूनों का ही पालन करें। अदालतों के फैसलों पर समीक्षा की अर्जी देने के रास्ते हमेशा खुले हैं। यहां तक कि सर्वोच्च अदालतों के फैसलों की भी समीक्षा की जा सकती है। अदालतों को सबूतों के आधार पर निर्णय करना होता है। सबूत सही और पर्याप्त नहीं होने की स्थिति में भी न्याय में विलम्ब होता है। आम आदमी प्राय: कानूनी जटिलताओं से परिचित नहीं होता लिहाजा न्याय में विलम्ब के लिए वह न्यायपालिका को ही दोषी ठहराता है। यह मानना अव्यवहारिक होगा कि जजों के निजी पूर्वाग्रह और झुकाव उनके फैसलों को प्रभावित नहीं करते। जो भी हो न्याय में विलम्ब के चलते जो आपाधापी मची है उस पर गहन चिन्तन की जरूरत है।

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