Monday, 24 August 2015

हे भगवान! कैसा सम्मान

भारतीय स्वतंत्रता के पावन मास की 29 तारीख हर खिलाड़ी के लिए खास होती है। इस दिन उन खिलाड़ियों के पराक्रम का सम्मान होता है जो अपने खेल कौशल से अपने जिले, प्रदेश और मादरेवतन की शान बढ़ाते हैं। खिलाड़ी का सम्मान अच्छी बात है, पर खिलाड़ी के एक दिन के सम्मान का अभिमान पालने से पहले हमें यह सोचने की भी दरकार है कि आखिर अपने वतन को गौरवान्वित करने वाले इन जांबाजों के साथ हर दिन क्या सलूक होता है?
भारत में हॉकी के कालजयी दद्दा ध्यानचंद के जन्मदिन को खेल दिवस के रूप में मनाते 20 साल हो गये हैं। खिलाड़ियों के सम्मान की यह तारीख हर साल कुछ सवाल छोड़ जाती है, जिनका निदान होना चाहिए, पर नहीं होता। फिलवक्त भारत के दिल दिल्ली से लेकर मुल्क के हर कोने तक पराक्रमी खिलाड़ियों की खोज-खबर ली जा रही है। दिल्ली में खेल सम्मान चयन समिति ने देश के खेल रत्न सानिया मिर्जा सहित 16 अर्जुनों पर अपनी सहमति की मुहर लगा दी है। देखा जाये तो खिलाड़ियों के सम्मान में हमेशा भेदभाव होता है। आजादी के बाद से ही भारत में खेल संस्कृति के उन्नयन की बजाय अपने मातहतों को उपकृत करने का घिनौना खेल चलता रहा है।
भारत ने आजादी के बाद बेशक तरक्की के नये आयाम स्थापित किए हों पर खेलों के लिहाज से देखें तो मुल्क को अपयश के अलावा कुछ भी नसीब नहीं हुआ। सट्टेबाजी और डोपिंग जैसे कुलक्षण आजाद भारत में ही पल्लवित और पोषित हुए हैं। पिछले पांच-छह साल में देश के पांच सौ से अधिक खिलाड़ियों का डोपिंग में दोषी पाया जाना चिन्ता की ही बात है। अफसोस डोपिंग का यह कारोबार भारत सरकार की मदद से चल रहे साई सेण्टरों के आसपास धड़ल्ले से हो रहा है। खेलों में जब तब आर्थिक तंगहाली का रोना रोया जाता है जबकि केन्द्र सरकार प्रतिवर्ष अरबों रुपये  खेल-खिलाड़ियों के नाम पर निसार कर रही है। सच तो यह है कि आजाद भारत में खेल पैसे के अभाव में नहीं बल्कि लोगों की सोच में खोट के चलते दम तोड़ रहे हैं। आज मुल्क तो आजाद है पर भारतीय खिलाड़ी परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। वह उनका हुक्म मानने को मजबूर है जोकि खिलाड़ी न होते हुए भी सब कुछ हैं।
खेलों में हमारा लचर प्रदर्शन सवा अरब आबादी को मुंह चिढ़ाता है तो दूसरी तरफ खेल तंत्र बड़े-बड़े आयोजनों के लिए अंतरराष्ट्रीय खेल संघों के सामने मिन्नतें करता है। आज मुल्क का खिलाड़ी अंधकूप में है, उसके साथ इंसाफ नहीं हो रहा। खिलाड़ी सम्मान के नाम पर फरेब चरम पर है। हर साल की तरह इस साल भी कई खिलाड़ी सम्मान न मिलने से आहत-मर्माहत हैं। खिलाड़ियों के सम्मान से इतर दद्दा ध्यानचंद को भारत रत्न देने की मांग भी हुई लेकिन पूर्ववर्ती सरकारों के ही नक्शेकदम पर चलते हुए मोदी सरकार ने भी कालजयी से आंखें फेर लीं। देखा जाये तो सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न मिलते ही कालजयी हॉकी महानायक मेजर ध्यानचंद लोगों की चिरस्मृतियों में पुन: जीवंत हो उठे हैं। हर खिलाड़ी चाहता है कि दद्दा को देश का सर्वोच्च सम्मान मिले क्योंकि गुलाम भारत में हॉकी का गौरव उनकी जादूगरी से ही सम्भव हो सका। कुछ इस तरह जैसे क्रिकेट में सचिन तेंदुलकर के अभ्युदय से आजाद भारत ने महसूस किया।
भारतीय सरजमीं हमेशा शूरवीरों के लिए जानी जाती रही है। बात खेलों की करें तो अंतरराष्ट्रीय खेल क्षितिज पर भारतीय हॉकी के नाम आठ ओलम्पिक और एक विश्व खिताब का मदमाता गर्व है तो क्रिकेट में भी हमने तीन बार दुनिया फतह की है। क्रिकेट और हॉकी टीम खेल हैं लिहाजा इन विश्व खिताबों के लिए कुछेक खिलाड़ियों पर सरकार की मेहरबानी खेलभावना से मेल नहीं खाती। मुल्क की कोख से कई नायाब सितारे पैदा हुए हैं, जोकि सर्वोच्च नागरिक सम्मान के हकदार हैं। बेहतर होगा कि मुल्क में एक पारदर्शी व्यवस्था कायम हो ताकि किसी खिलाड़ी को पछतावे के आंसू न रोना पड़ें। आज ध्यानचंद को भारत रत्न देने की मुखालफत तो की जा रही है लेकिन उनके अनुज कैप्टन रूप सिंह को पूरी तरह से बिसरा दिया गया है। अचूक स्कोरर, रिंग मास्टर और 1932 तथा 1936 की ओलम्पिक चैम्पियन भारतीय हॉकी टीम के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी रूप के स्वरूप को भारत सरकार तो क्या हॉकी बिरादर भी भूल चुकी है। 1932 और 1936 की ओलम्पिक हॉकी में एक कोख के दो लाल साथ-साथ खेले थे पर रूप सिंह ने बर्लिन में अपने पौरुष का डंका पीटते हुए न सिर्फ सर्वाधिक गोल किये बल्कि जर्मन तानाशाह हिटलर का भी दिल जीत लिया था। रूप सिंह के इसी नायाब प्रदर्शन के चलते 1978 में म्यूनिख में उनके नाम की सड़क बनी। अफसोस जिस खिलाड़ी को आज तक जर्मन याद कर रहा है उसे ही भारत सरकार तो क्या उसका भतीजा भी भूल चुका है।
भारतीय हॉकी दिग्गजों में बलबीर सिंह सीनियर का भी शुमार है। 91 बरस के इस नायाब हॉकी योद्धा ने भी भारत की झोली में तीन ओलम्पिक स्वर्ण पदक डाले हैं। बलबीर उस भारतीय टीम के मुख्य प्रशिक्षक और मैनेजर रहे जिसने 1975 में भारत के लिये एकमात्र विश्व कप जीता था। वर्ष 1896 से लेकर अब तक सभी खेलों के 16 महानतम ओलम्पियनों में से एक बलबीर को 2012 लंदन ओलम्पिक के दौरान अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने सम्मानित किया था पर भारत सरकार अतीत के इस सितारे को भारत रत्न का हकदार नहीं मानती। हॉकी और क्रिकेट के अलावा भारत को गौरवान्वित करने वाले खिलाड़ियों में पहलवान केडी जाधव का नाम भी आज भूल-भुलैया हो चुका है। जाधव ने 1952 हेलसिंकी ओलम्पिक की कुश्ती स्पर्धा में पहला व्यक्तिगत कांस्य पदक भारत की झोली में डाला था, पर मुल्क के ओलम्पिक पदकधारियों में एकमात्र केडी जाधव ही हैं जिन्हें पद्म पुरस्कार तक नहीं मिला, जबकि वर्ष 1996 के बाद से भारत के लिये व्यक्तिगत ओलम्पिक पदक जीतने वाले सभी खिलाड़ियों को पद्म पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। मोदी सरकार से खिलाड़ियों को पारदर्शी व्यवस्था की उम्मीद थी लेकिन जिस तरह से अंधों ने रेवड़ियां बांटी हैं उससे खेल बिरादर सकते में है।
दशा-दिशा और लक्ष्यविहीन खिलाड़ी तब भी खेलते थे और मोदी सरकार में भी यही हो रहा है। ग्रामीण अंचल के खिलाड़ियों का तो और भी बुरा हाल है। वे पसीना तो खूब बहाते हैं लेकिन उन्हें नहीं पता कि वे क्या कर रहे हैं, क्या करना चाहते हैं और क्यों कर रहे हैं। सारा माजरा उनको समय पर और सही शिक्षक द्वारा मार्गदर्शन न दिए जाने के कारण हो रहा है। हां, कुर्सियों पर बैठे मंत्री आए दिन बड़ी-बड़ी घोषणाएं जरूर कर रहे हैं, लेकिन कभी झांक कर नहीं देखा जा रहा कि जितना पैसा जिस मकसद के लिए लगाया गया है वो लगा भी कि नहीं, फायदा हुआ कि नहीं और खर्च किया जाए या नहीं। वर्ष 2009 से देश भर की ग्राम पंचायतों को खेलगांव देने की सरकारी हसरतों पर राज्य सरकारें पानी फेर रही हैं, लेकिन सब चुप हैं। देश के खिलाड़ियों के चेहरे पर सम्मान के चोचले से एक दिन तो मुस्कान लाई जा सकती है लेकिन इससे न खिलाड़ी का भला होगा और न ही खेलों का।

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