Thursday 6 August 2015

हादसों से सबक आखिर कब?

हमारे देश में रेल हादसे होना कोई नई बात नहीं है। मानवरहित क्रासिंग, जर्जर पुल, पटरियों की दुर्दशा, अव्यवस्था का शिकार प्लेटफार्म, कर्मचारियों की कमी और काम का बोझ ऐसी कई समस्याएं रेलवे के सामने बरसों से समाधान की बाट जोह रही हैं। हर साल रेल बजट के वक्त जब नई ट्रेनों को चलाने की घोषणाएं होती हैं या लोकलुभावन प्रस्ताव बजट में पेश किए जाते हैं तब यही प्रश्न उठाया जाता है कि जो है, उसे त्रुटिरहित बनाया जाये। रेल यात्रा में सुधार की बातें आजादी के बाद से ही की जा रही हैं लेकिन सच्चाई यह है कि आमजन मौत की यात्रा करने को मजबूर है। मध्य प्रदेश में हुई दो रेल दुर्घटनाओं को प्राकृतिक आपदा से जोड़ा जा रहा है, लेकिन सवाल यह उठता है कि जब ट्रैक सही नहीं था तो भला गाड़ियों को उससे गुजरने क्यों दिया गया।
मोदी सरकार आमजन को बुलेट ट्रेन का सब्जबाग दिखा रही है, जबकि रेल मंत्रालय के पास साधारण ट्रेनें सुरक्षित चलाने तक की व्यवस्था नहीं है। इसे मजबूरी कहें या कुछ और आम आदमी को अपने गंतव्य के लिए रेल का ही सहारा लेना होता है। रेल हादसे होना कोई नई बात नहीं है, इससे पहले भी रेल हादसे हुए, लोगों की जानें गर्इं और हमारी हुकूमतों ने मुआवजा देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान ली। मध्यप्रदेश में हरदा के पास जो हादसे हुए उन्हें मानवीय चूक कहना उपयुक्त होगा। भीषण बारिश और जलबहाव के चलते रेलवे ट्रैक धंसा और देखते ही देखते कामायनी व जनता एक्सप्रेस नदी में समा गर्इं। रेल मंत्रालय मृतकों की जो संख्या बता रहा है, उससे कहीं अधिक मुसाफिर काल के गाल में समा चुके हैं। पूरी ट्रेन का धंसना वाकई अकल्पनीय है। मध्यप्रदेश सरकार और क्षेत्रीय लोगों के के अथक प्रयासों की सराहना की जानी चाहिये जिन्होंने सैकड़ों लोगों को मौत से बचा लिया। यहां सवाल बचाव, राहत या मदद पहुंचाने का नहीं है, सवाल उन परिस्थितियों का है जिनमें यह हादसा हुआ। चार जुलाई, मंगलवार की रात मध्यप्रदेश के कई हिस्सों में भीषण बारिश हुई। कहीं-कहीं तो रात भर में आठ इंच तक वर्षा रिकॉर्ड की गई। भीषण बारिश के चलते  नदी-नालों ने भी अपना रुख बदल लिया। नदी का बहाव इतना तेज था कि रेलपुल और पटरियों के नीचे की मिट्टी  धंस गई। इससे पटरियों का बेस कमजोर हुआ और वे ट्रेन का बोझ नहीं सम्हाल सकीं।
नीचे पानी का तीव्र बहाव, ऊपर पानी के वजन से पुल के धंसने और रेलवे ट्रैक के परिचालन स्थिति में नहीं रहने के कारण ही मुंबई से वाराणसी जा रही कामायनी एक्सप्रेस और मुजफ्फरपुर से मुंबई जा रही जनता एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हुर्इं। रात का समय, आराम करने की अवस्था और उसमें कामायनी के 11 तथा जनता एक्सप्रेस के पांच डिब्बों का नदी में समाना बेहद दु:खद घटना ही कही जायेगी। यह तो सही है कि अगर इतनी ज्यादा बरसात नहीं होती तो ये रेलें सुरक्षित निकल गयी होतीं, पर रेलवे का इन हालातों से बेखबर रहना चिन्ता और चिन्तन की ही बात है। मूसलाधार बारिश कई प्रकार के संकट और चुनौतियां लाती है। एक ओर बरसात तो दूसरी ओर अंधेरा, इसमें न तो डूबते लोगों को बचने का रास्ता नजर आता है और न ही राहत दल को तेजी से उनके पास पहुंचने के उपाय सूझते हैं।  इसी वर्ष 23 मई को असम के कोकराझार में चम्पावती नदी में सिफुंग पैसेंजर के कई डिब्बे गिर गये थे जिनमें कोई हताहत तो नहीं हुआ था अलबत्ता  करीब 40 लोग घायल हो गये थे।
29 जून, 2005 को सिकंदराबाद पैसेंजर के डिब्बे आंध्र प्रदेश के नलगोंडा में मूसी नदी में गिर पड़े थे, जिसमें 100 से अधिक लोग मौत के मुंह में समा गये थे। इसी तरह  22 जून, 2001 को मंगलोर-चेन्नई मेल के चार डिब्बे कडालुंडी नदी गिरने से 57 तथा 14 सितंबर, 1997 को बिलासपुर के पास अहमदाबाद-हावड़ा एक्सप्रेस के डिब्बे नदी में गिरने से 81 लोगों की मौत हो गयी थी। पूर्व की इन दुर्घटनाओं और वर्तमान हादसे में बड़ा अंतर है। बारिश के जल प्लावन से पुल का धंसना और ट्रैक क्षतिग्रस्त हो जाने से दो रेलों का एक साथ उनका ग्रास बन जाना असामान्य घटना है। 10-15 मिनट पहले भी वहां से एक रेल गुजरी थी। पता नहीं उस समय तक ट्रैक और पुल की क्या स्थिति थी, लेकिन वह सुरक्षित निकल गई। अगर उस समय रेलवे चालक या गार्ड को कुछ असामान्य दिखता, तो वे अवश्य हरदा या इटारसी स्टेशन को सूचित कर दिये होते। इन हादसों में यह सबक तो है कि इससे अनुभव लेकर ऐसे सभी पुलों की क्षमता का पुनर्मूल्यांकन किया जाये और जहां भी मरम्मत या क्षमतावृद्धि की जरूरत हो उसे तत्काल दुरुस्त किया जाये। ऐसी जगहों पर विशेष निगरानी की व्यवस्था भी निहायत जरूरी है। हमें प्रकृति के कहर का रोना रोने की बजाय जो हमारे वश में है, हमें वह सब करना चाहिए। 

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