मानसून सत्र अनिष्टकारी सिद्ध हो रहा है। पहले कांग्रेस ने सत्र में व्यवधान डाला तो उसके बाद पूर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम के इंतकाल से देश शोक में डूब गया। मानसून सत्र में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच जिस तरह की खींचतान चल रही है उससे न केवल मुल्क का करोड़ों रुपया जाया हो रहा है बल्कि विकासोन्मुख योजनाओं के धरातल में उतरने की कोई सम्भावना दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही। हठ के आगे तर्क वैसे भी हारते प्रतीत होते हैं, पर बालहठ तो कुछ खास होता है। एक तो उसके भीतर अपनी मांग को लेकर उचित-अनुचित का बोध नहीं होता। वह कह सकता है मेरी दूध की कटोरी में चांद लाकर दो। यह कठिन काम है पर बालमन का रुदन-क्रंदन थामने के लिए दूध की कटोरी में चांद का कोई अक्स दिखाना जरूरी है। मोदी सरकार यह काम अभी तक नहीं कर सकी है। संसदीय कार्यवाही को विकल्पहीन बना देने के फैसले में ऐसा ही बालहठ जान पड़ता है राहुल गांधी और कांग्रेस का, जो भ्रष्टाचार की दुहाई देकर केन्द्रीय मंत्री ही नहीं, कुछ मुख्यमंत्रियों तक के इस्तीफे लेने पर अड़ी है। साथ में यह भी चाहती है कि जिनके इस्तीफे लिये जाने हैं, उनकी दलील भी न सुनी जाये। मानसून सत्र का एक पखवाड़ा बीत चुका है पर संसद की कार्यवाही दो कदम भी आगे नहीं बढ़ी है। सरकार कह रही है कि कुछ हमारी भी सुन लीजिए और कम-से-कम हमारी सुनने की खातिर संसद की कार्यवाही कुछ देर चलने दीजिए। लेकिन, कांग्रेस ने मान लिया है कि ललित मोदी प्रकरण में सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे सिंधिया समान रूप से दोषी हैं और मध्यप्रदेश के व्यापम प्रकरण के कसूरवार वहां के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हैं। इसलिए कांग्रेस की टेक है कि जब तक तीनों का इस्तीफा नहीं हो जाता, तब तक वह किसी की भी नहीं सुनने वाली। राहुल के सत्ता विरोधी तेवरों से कांग्रेस बेशक पुलकित हो पर उसे सोचना चाहिए कि विरोध सिर्फ विरोध भर के लिए नहीं होता, उसका एक औचित्य भी होता है। कांग्रेस इस्तीफा ले लेने की अपनी जिद में यह देख ही नहीं पा रही है कि मंत्रियों पर आरोप कांग्रेस के लगाये हुए हैं, उनके विरुद्ध साक्ष्य भी कांग्रेस के ही गढ़े हुए हैं और दोष सिद्धि भी कांग्रेस ही कर रही है। हम ही फरियादी, हम ही मुंसिफ और हम ही अदालत, मगर फैसला सबको मंजूर हो, कांग्रेस की जिद कुछ ऐसी ही स्थिति की उपज है। वरना उसे संसद और उसकी कार्यवाही पर यकीन होता और वह बहस के लिए यह सोच कर तैयार होती कि बाकियों को भी अपनी बात रखने का हक है। कांग्रेस जिन्हें दोषी करार दे रही है, कम-से-कम उनका पक्ष तो सुना ही जाना चाहिए। कांग्रेस भूल रही है कि 2जी और सीडब्ल्यूजी के दिनों में मंत्रियों के इस्तीफे की मांग को लेकर इसी तरह संसद ठप हो जाया करती थी। तब सत्तापक्ष की तरफ से कांग्रेस की दलील होती थी कि विपक्ष जिद पर अड़ा है और संसद चलने नहीं देना चाहता। अगर संसद न चलने देना, जिसे दोषी बताया जा रहा है उसे अपनी बात न रखने देना, कांग्रेस के सत्तापक्ष में रहते गलत था तो आज यही बरताव कांग्रेस को सही कैसे प्रतीत हो रहा? अगर कांग्रेस के सत्ता में रहते संसद की कार्यवाही के ठप होने से विकास के जरूरी काम अवरुद्ध होते थे, तो आज कांग्रेस को क्यों नहीं लग रहा कि एक जिद से संसद न चलने देने की उसकी कोशिशें विकास का रास्ता अवरुद्ध कर रही हैं? भूमि अधिग्रहण जैसे महत्वपूर्ण कानून में किये जाने वाले संशोधनों पर देश संसद में बहस होते देखना चाहता है। सेवा और सामान से संबंधित विधेयक, जिस पर कमोबेश एक सहमति बन भी चुकी है, को अनंतकाल तक के लिए लटकाया नहीं जा सकता। लोकपाल और लोकायुक्त बिल तो भारतीय जनता से किया गया संसद का एक तरह का पवित्र वादा है। इन सबके साथ ही जुवेनाइल जस्टिस और ह्वीसिल ब्लोअर से संबंधित विधेयक भी हैं, जिनका पारित होना या फिर जिन पर बहस होना शेष है। एक ऐसे समय में, जब बिहार जैसे बड़े प्रदेश में चुनाव की आहट सुनाई देने लगी है, संसद में गतिरोध समाप्त होने और लम्बित पड़े विधेयकों पर बहस होने से लोगों के सामने केन्द्र सरकार की प्राथमिकताएं स्पष्ट होतीं। जाहिर है, कांग्रेस ने संसद को बाधित कर एक तरह से मौका गंवाने का काम किया है। देश इस समय प्रेरणापुंज कलाम साहब को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है। अपने आखिरी क्षणों में कलाम संसद की कार्यवाही हर साल ठप होने को लेकर चिंतित थे और चाहते थे कि कुछ ऐसी तरकीब निकाली जाये, जिससे संसद विकास की राजनीति पर काम करे। कांग्रेस उनकी इस चिंता पर गौर करते हुए, विरोध के बालहठ से उबर कर सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाने की दिशा में जितनी जल्दी तत्पर होगी, पार्टी के भविष्य और देश के लोकतंत्र के लिए उतना ही अच्छा होगा।
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