Wednesday 5 August 2015

जीवाजी विश्वविद्यालय की खेल उम्मीदों पर तुषारापात

कुलपति प्रो. संगीता शुक्ला मौकापरस्त सिपहसालारों के चंगुल में
ग्वालियर। जीवाजी विश्वविद्यालय पर किसी की नजर लग गई है। चार साल पहले विश्वविद्यालय में खेलों के विकास की जो पटकथा लिखने की कोशिशें शुरू हुर्इं थीं उन पर तुषारापात होता दिख रहा है। कुलपति प्रो. संगीता शुक्ला से उम्मीदें थीं कि विश्वविद्यालय के स्वर्णिम गौरव में इजाफा करेंगी, अफसोस वह मौकापरस्त सिपहसालारों के चंगुल में इस कदर फंस गई हैं कि उन्हें नेक कार्यों में भी खोट नजर आने लगी है। जीवाजी विश्वविद्यालय में खेलों के विकास की सारी कोशिशें कार्यपरिषद और उनकी अनिच्छा के बीच दम तोड़ती दिख रही हैं।
प्रो. शुक्ला का अपने सिपहसालारों पर अति का भरोसा होना उनका निजी मामला हो सकता है लेकिन इससे जीवाजी विश्वविद्यालय की शानदार छवि को जो बट्टा लग रहा है, वह चिन्ता की ही बात है। विश्वविद्यालय के जानकारों का कहना है कि खेल गतिविधियों में कुलपति की अनिच्छा से कहीं अधिक फाइनेंस कण्ट्रोलर पीके शर्मा की अहम भूमिका है। पीके शर्मा की कारगुजारियों के खिलाफ माधव कॉलेज की खेल बेटियां पहले ही प्रदर्शन कर चुकी हैं। श्री शर्मा किसकी शह पर भेदभाव की राह चल रहे हैं, यह तो वही जानें पर उन्हें इस बात का भान होना चाहिए कि देश भर में जीवाजी विश्वविद्यालय की साख शिक्षणेत्तर गतिविधियों से कहीं अधिक खेल और खिलाड़ियों के शानदार कौशल के लिए जानी जाती है।  बीते पांच साल में कई खिलाड़ियों ने अपने व्यक्तिगत प्रदर्शन तो हमारी जांबाज बेटियों ने हॉकी और क्रिकेट में मुल्क फतह कर यह साबित किया कि यदि जीवाजी विश्वविद्यालय की अलम्बरदार कुलपति जोकि स्वयं महिला हैं, थोड़ा सा प्रोत्साहन दें तो खेलों में कई कीर्तिमान स्थापित किये जा सकते हैं। दिसम्बर 2013 से जीवाजी विश्वविद्यालय की कमान सम्हाले प्रो. शुक्ला यदि इतने समय बाद भी सच-झूठ से वाकिफ नहीं हो सकीं तो यह उनकी बदकिस्मती ही है।
चार साल पहले जीवाजी विश्वविद्यालय के क्रीड़ांगनों में कृत्रिम हॉकी मैदान, तरण ताल और न जाने कितनी सहूलियतों पर बातें हुई थीं लेकिन आज खेलों की हर गतिविधि पर कार्यपरिषद की स्वीकृति का अड़ंगा डालने की बेईमान कोशिशें हो रही हैं। कहने को कार्यपरिषद में शहर के कई नामचीन कलमकार भी हैं लेकिन उनका होना न होना शायद कोई मायने नहीं रखता। अफसोस की बात है कि खेलों में जिस कार्यपरिषद की जुमलेबाजी परवान चढ़ती है, दीगर कार्यों में नियम-कायदों का आसानी से चीरहरण हो जाता है। बीते दो साल में जीवाजी विश्वविद्यालय में सैकड़ों ऐसे टेण्डर निकाले गये जिनके बारे में कार्यपरिषद भी अनजान है। कुलपति प्रो. शुक्ला जीवाजी विश्वविद्यालय की आर्थिक समृद्धता की प्राय: दुहाई तो देती हैं लेकिन खेलों के मामले में उनकी कृपणता और मन में संशय की वजह समझ से परे है। इन दिनों कुलपति प्रो. शुक्ला और कुल सचिव आनंद मिश्रा के बीच की मंत्रणा भी खासी चर्चा में है। मंत्रणा होना बुरी बात नहीं है लेकिन जब विश्वविद्यालय की सारी की सारी गतिविधियां बेपटरी हो जायें तो सवाल उठना लाजिमी हो जाता है। श्री मिश्रा लम्बे समय से जीवाजी विश्वविद्यालय में हैं, उनसे कोई बात छिपी नहीं है तो उनकी भी कोई बात किसी से छिपी नहीं है। उन्हें विश्वविद्यालय की बदहाल स्थिति पर तत्काल मंत्रणा कर नेक कदम उठाने चाहिए।

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