इन दिनों एक तरफ आसमान से मुसीबत बरस रही है तो दूसरी तरफ संवेदनहीन राजनीतिज्ञ सिर्फ अपने नफा-नुकसान की बात कर रहे हैं। देश का अन्नदाता किसान प्रकृति के तांडव से दो वक्त की रोटी और परिवार के पालन-पोषण की चिन्ता में मरा जा रहा है। किसानों और गरीब परवरदिगारों की चिन्ताजनक स्थिति पर गौर करने की बजाय राजनीतिज्ञ संवेदनहीनता की हदें पार कर रहे हैं। जिस किसान को लेकर विपक्ष लगातार मानसून सत्र को बाधित किये है, कम से कम उसे जमीनी हकीकत से तो वाकिफ होना ही चाहिए। देखा जाये तो देश के कई राज्यों में बारिश आसमान से मौत और तबाही का पैगाम लेकर टूटी है। अभी उत्तराखण्ड और जम्मू-कश्मीर में बाढ़ से मिले जख्म भरे भी नहीं थे कि फिर नए सिरे से तबाही के मंजर कई राज्यों में दिख रहे हैं। मणिपुर में बारिश के कारण हुए भूस्खलन में दर्जनों पुल बह गए, मकान जमींदोज हो गए और कई लोगों को असमय काल के गाल में समाना पड़ा। बंगाल की खाड़ी से उठे कोमेन तूफान के कारण उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में कई इलाके बुरी तरह बाढ़ की चपेट में हैं। उड़ीसा में लगभग चार सौ गांवों में बाढ़ से लगभग पांच लाख लोग प्रभावित हैं तो बंगाल में कई नदियां खतरे के निशान से ऊपर बहने के चलते 12 जिलों में बाढ़ के कारण इस तरह की तबाही मची कि लगभग ढाई लाख लोगों को राहत शिविरों में शरण लेनी पड़ी। इनके मकान, खेत, जानवर सब बारिश की भेंट चढ़ चुके हैं। गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश भी बारिश से त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों वाले इन राज्यों में बारिश के कहर से जहां जनमानस संकट में है वहीं उत्तर प्रदेश के ब्रज मण्डल में मानसून की बेरुखी किसानों को आपदा का ही संकेत दे रही है। अन्नदाताओं की दुर्दशा की कहानी लगभग एक जैसी है और शायद इनका भविष्य भी एक जैसा ही चिंताजनक हो। बारिश के कारण जान-माल पर खतरा तो हो ही रहा है, देश की सुरक्षा व्यवस्था के लिए भी स्थिति गम्भीर है। दिल्ली में रोजाना तमाशा हो रहा है, पर अन्नदाता की तरफ अभी तक किसी भी राजनीतिक दल ने ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा। बारिश में अपना सब कुछ चौपट कर चुके किसानों को अब महामारी फैलने की आशंका, बच्चों की पढ़ाई की चिन्ता, रोजगार और व्यवसाय की नए सिरे से तलाश तथा अपनों को खोने के गम के साथ जिन्दगी दोबारा शुरू करने की जंग लड़नी होगी। धरती पुत्रों को बाढ़ का यह दर्द पहली बार नहीं मिला है। जब से इंसान ने प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करके उसकी सीमाओं को तोड़ने की शुरुआत की, तभी से उसे प्रकृति के कहर का सामना करना पड़ रहा है। गरीब आदमी तो प्रकृति के भरोसे ही पलता है लेकिन लोभी उद्योगपतियों और उनके इशारों पर नाचने वाली सरकारें चैन की बंशी बजा रही हैं। हाल ही मध्यप्रदेश के हरदा जिले में माचक नदी को पार करते वक्त दो ट्रेनों का लगभग एक ही समय दुर्घटनाग्रस्त हो जाना बेहद दुखद घटना है और इससे भी ज्यादा दुखद है इस हादसे पर जिम्मेदार लोगों के बयान और राजनीति। रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने संसद में दुर्घटना की जानकारी दी और मुआवजे का ऐलान किया। जबकि रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा इस दुर्घटना को प्राकृतिक आपदा का परिणाम बताते हुए कहते हैं कि प्रकृति के आगे हम बेबस हैं। किसी हादसे पर जिम्मेदार व्यक्ति का इस्तीफा नैतिकता का तकाजा है, लेकिन बरसों बीत गए ऐसी नैतिकता के दर्शन देश को नहीं हुए। देश की जनता जान हथेली पर लेकर रेल यात्रा करती है। अगर कोई हादसा होता है तो पीड़ितों और उनके परिवारों के सामने जीवन-मौत का सवाल खड़ा हो जाता है, जबकि राजनीतिक दलों के लिए पिछले कई हादसों की सूची में एक और हादसे का जुड़ना मात्र है। रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा ने प्राकृतिक आपदा की आड़ लेकर जिस तरह अपनी जिम्मेदारी टालने की कोशिश की, वह इस बात का द्योतक है कि सरकार अपने कर्तव्य से विमुख है। मुंबई-वाराणसी कामायनी एक्सप्रेस और पटना-मुंबई जनता एक्सप्रेस उस वक्त दुर्घटनाग्रस्त हुर्इं जब माचक नदी पर बने पुल पर अचानक बाढ़ का पानी आ गया। यह सही है कि बारिश को रोकना, उफनती नदी के वेग पर काबू पाना मानव के बस में नहीं है, लेकिन जब पता है कि बारिश के कारण लगातार नदियों का जलस्तर बढ़ रहा है तो क्यों नहीं सावधानी बरती गई। यह प्राकृतिक आपदा नहीं, मानवीय लापरवाही है। अगर इस गंभीर दुर्घटना को प्राकृतिक आपदा जैसे हल्के तर्क से सरकार ने अपनी जिम्मेदारी टालने की कोशिश की तो ठण्ड के वक्त घने कोहरे के समय दुर्घटनाओं की आशंकाओं को कैसे खत्म किया जा सकता है? रेलवे की अधोसरंचना में अभी बेहद सुधार की जरूरत है, यह इस दुर्घटना से एक बार फिर साबित हो गया है। मानवरहित क्रासिंग, जर्जर पुल, पटरियों की दुर्दशा, अव्यवस्था का शिकार प्लेटफार्म, कर्मचारियों की कमी और काम का बोझ ऐसी कई समस्याएं रेलवे के सामने बरसों से समाधान की बाट जोह रही हैं। हर साल रेल बजट के वक्त जब नई ट्रेनों को चलाने की घोषणाएं होती हैं या लोकलुभावन प्रस्ताव बजट में पेश किए जाते हैं तब यही प्रश्न उठाया जाता है कि जो है, उसे तो त्रुटिरहित बनाएं, उसके बाद नई चीजों की बात करें। अफसोस समस्याओं की उलझन में कोई नहीं पड़ना चाहता। राजनीतिज्ञ जानते हैं कि उनकी यात्राएं हवाई मार्गों से सुगमता से हो जाती हैं जबकि आम भारतीय के लिए रेल ही यातायात का सबसे बड़ा साधन है। सस्ती हवाई सेवाओं की उपलब्धता के बावजूद करोड़ों भारतीयों के लिए यह आज भी ईद का चांद है। आम आदमी को मजबूरी में ही सही लेकिन रेल का ही एकमात्र सहारा है। मोदी सरकार आमजन को बुलेट ट्रेन का सब्जबाग दिखा रही है लेकिन सवाल यह उठता है कि जब साधारण ट्रेनें सुरक्षित चलाने की व्यवस्था रेल मंत्रालय के पास नहीं है, तब बुलेट ट्रेन के लिए क्या आकाश में पटरियां बिछाई जाएंगी। दरअसल, हमारे राजनीतिज्ञों को गैरजिम्मेदारियों से बाज आना चाहिए।
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