Tuesday 4 August 2015

राजनीतिक चोचलेबाजी


एक तरफ देश का अन्नदाता किसान प्रकृति के तांडव से दो वक्त की रोटी की चिन्ता में हलाकान-परेशान है तो दूसरी तरफ हमारे राजनीतिज्ञ संवेदनहीनता की सारी हदें पार कर अपने नफा-नुकसान की सोच रहे हैं। जिस किसान को लेकर विपक्ष लगातार मानसून सत्र को बाधित किये है, कम से कम उसे मुल्क के मौजूदा हालातों पर एक नजर जरूर डालनी चाहिए। देखा जाये तो देश के कई राज्यों में बारिश आसमान से मौत और तबाही का पैगाम लेकर टूटी है। अभी उत्तराखण्ड और जम्मू-कश्मीर में बाढ़ से मिले जख्म भरे भी नहीं थे कि फिर नए सिरे से तबाही के मंजर कई राज्यों में दिख रहे हैं। तीन दिन पहले मणिपुर में बारिश के कारण इस तरह भूस्खलन हुआ कि दर्जनों पुल बह गए, मकान जमींदोज हो गए और कई लोगों को असमय काल के गाल में समाना पड़ा। बंगाल की खाड़ी से उठे कोमेन तूफान के कारण उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में कई इलाके बुरी तरह बाढ़ की चपेट में हैं। उड़ीसा में लगभग चार सौ गांवों में बाढ़ से लगभग पांच लाख लोग प्रभावित हैं तो बंगाल में कई नदियां खतरे के निशान से ऊपर बहने के चलते 12 जिलों में बाढ़ के कारण इस तरह तबाही मची है कि लगभग ढाई लाख लोग राहत शिविरों में शरण लिए हुए हैं। इनके मकान, खेत, जानवर सब बारिश की भेंट चढ़ चुके हैं। गुजरात और राजस्थान भी बारिश से त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों वाले इन राज्यों में बारिश के कहर से जहां जनमानस संकट में है वहीं उत्तर प्रदेश के ब्रज मण्डल में मानसून ठेंगा दिखाता दिख रहा है। अन्नदाता की दुर्दशा की कहानी लगभग एक जैसी है और शायद इनका भविष्य भी एक जैसा ही चिंताजनक हो।  बारिश के कारण जान-माल पर खतरा तो हो ही रहा है, देश की सुरक्षा व्यवस्था के लिए भी स्थिति गम्भीर है। दिल्ली में रोजाना तमाशा हो रहा है, पर अन्नदाता की तरफ अभी तक किसी भी राजनीतिक दल ने ध्यान नहीं दिया है। बारिश में अपना सब कुछ चौपट कर चुके किसानों को अब महामारी फैलने की आशंका, बच्चों की पढ़ाई की चिन्ता, रोजगार और व्यवसाय की नए सिरे से तलाश तथा अपनों को खोने के गम के साथ जिन्दगी दोबारा शुरू करने की जंग लड़नी होगी। धरती पुत्रों को बाढ़ का यह दर्द पहली बार नहीं मिला है। जब से इंसान ने प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करके उसकी सीमाओं को तोड़ने की शुरुआत की, तभी से उसे प्रकृति के कहर का सामना करना पड़ रहा है। गरीब आदमी तो प्रकृति के भरोसे ही पलता है लेकिन लोभी उद्योगपतियों और उनके इशारों पर नाचने वाली सरकार गरीबों से उनका आसरा भी छीन लेना चाहती है। मोदी सरकार विकास के जो सब्जबाग दिखा रही है, यह उसकी अपनी सोच हो सकती है लेकिन उसे इस बात का भी ख्याल रखना चाहिए कि जब किसान ही नहीं रहेगा तो भला आवाम का पेट कौन भरेगा? मानसून सत्र की चोचलेबाजी पर ऊर्जा जाया करने की बजाय सफेदपोशों को अन्नदाता का दर्द दिखना चाहिए।

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